वर्ष २०१० गुना मध्य...
 
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वर्ष २०१० गुना मध्य प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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“जाना होगा!” वो भर्रा के बोला,

“नहीं जाऊँगा!” मैंने कहा,

“तेरी इतनी हिम्मत?” वो चिल्ला के बोला,

मैंने कुछ नहीं कहा,

और तभी मैंने उसके पीछे एक एक किरदार को देखा! खेचर! भाभरा, किरली, भामा, शामा और शाकुण्ड!

“जा अब यहाँ से?” उसने धमकाया!

“क्यों?” मैंने कहा,

वो भयानक अट्टहास लगाते हुए हंसा!

“ये मेरा स्थान है” उसने कहा,

“स्थान था, अब नहीं!” मैंने कहा,

वो चुप हुआ!

“प्राणों से मोह नहीं?” उसने पूछा,

“नहीं” मैंने कहा,

वो फिर से हंसा!

वो हंसता था तो उसका बड़ा सा घड़ेनुमा पेट नृत्य सा करता था!

“जा, बहुत हुआ” उसने पलटते हुए कहा,

“नहीं” मैंने कहा,

वो फिर पलटा!

और अब उसने थूका मुझ पर! थूक मुझ तक आया! मेरी अलख काँप गयी, मेरी गोद में बैठने के लिए ‘लालायित’ हो गयी! वो सरंक्षण चाहती थी!

मैंने भी थूका उधर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये देख वो अब बौराया! गुस्से में चिल्लाया! उसकी चिल्लाहट से सभी किरदार लोप हो गए! रह गया केवल मै!

केवल मै!

अकेला!

 

यमदूत! साक्षात यमदूत! मृत्यु का परकाला! सच में ही था वो नौमना! मैंने ऐसा विशाल देहधारी नहीं देखा था कभी!

हाँ, मै अकेला था वहाँ! नितांत अकेला! जैसे कोई बिल्ली जंगली श्वानों के बीच फंस जाए, पेड़ पर चढ़ जाए और अब न नीचे उतरे बन और न ऊपर ही चढ़े!

“सुन ओ लड़के!” उसने अपनी साँस को विराम देते हुए कहा,

“कहो बाबा नौमना” मैंने कहा,

“चला जा यहाँ से” वो बोला,

“मै नहीं जाऊँगा!” मैंने भी स्पष्ट मंशा ज़ाहिर कर दी,

वो फिर से बिसबिसा के हंसा!

“ठीक है, मरना चाहता है तो यही सही” उसने कहा,

अब वो आगे बढ़ा, मै थोडा सा घबराया!

उसने अपने दोनों हाथ आगे किये और एक मंत्र पढ़ते हुए मेरी ओर करके हाथ खोल दिए! मै उसी काशन अपने स्थान से करीब २ फीट उड़ा और धम्म से पीछे गई गया! कमर में चोट लगी, पीठ के बल गिरने से पत्थर पीठ में चुभ गए, हाँ खून आदि नहीं निकला, ऐसा ताप उस! मै हैरान था, मेरे रक्षा-मंत्र को भेद डाला था बाबा नौमना ने! कमाल था, हैरतअंगेज़ और अविश्वश्नीय! खैर मै फिर से खड़ा हुस और अपनी कंपकंपाती अलख के पास आया!

“अब जा लड़के!” उसने कहा,

“नहीं!” मैंने कहा,

अब मै ज्वैपाल-विद्या का जाप किया, उसे जागृत किया, विद्या जागृत हुई और मेरी रक्षा हेतु मुस्तैद हो गयी! नही करता तो बार बार ऐसा करते वो मेरी कमर ही तोड़ देता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“नही समझा?” उसने कहा,

मै कुछ नहीं बोला,

उसने फिर से वही मुद्रा अपनायी! दोनों हाथ आगे किये, मंत्र बुदबुदाये और मेरी और करके हाथ खोल दिए! मुझे झटका तो लगा लेकिन मै संभल गया! विद्या ने सम्भाल लिया, हाँ मेरी अलख की लौ मेरी गोद में शरण अवश्य लेने को आतुर हो गयी!

ये देख बाबा नौमना थोडा सा अचंभित हुआ! और फिर उसने अटटहास लगाया!

“ज्वैपाल!” उसने जैसे मजाक सा उड़ाया मेरा!

मै चुप!

कहने के लिए कुछ था ही नहीं मेरे पास!

“जा, छोड़ दिया तुझे!” उसने धिक्कार के कहा मुझे!

मै चुप!

“जा! अब नहीं आना यहाँ कभी, दो टुकड़े कर दूंगा तेरे!” उसने कहा,

“नहीं जाऊँगा मै!” मैंने कहा,

“ज़िद न कर!” उसने ऐसा कहा जैसे मुझे समझाया हो!

“कोई ज़िद नहीं बाबा!” मैंने कहा,

“मान जा! वापिस चला जा!” उसने फिर से कहा,

“असम्भव है बाबा!” मैंने कहा,

कयों?” उसने पूछा,

“मै सत्य के मार्ग पर हूँ, मुझे कैसा डर?” केह ही दिया मैंने,

वो अब फट कर हंसा! खौफनाक हंसी उसकी!

“सत्य!” उसने हँसते हँसते कहा,

“हाँ बाबा सत्य” मैंने भी मोदन किया!

“दिखाता हूँ!” उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब उसने अपना त्रिशूल उठाया और भूमि पर एक वृत्त बना दिया! और फिर उसमे थूक दिया!

तभी उसकी क्रिया स्पष्ट हुई!

चौरासी डंक-शाकिनियां प्रकट हुईं! अपने शत्रु का भंजन करने हेतु!

अर्राया बाबा नौमना! बढ़ चलीं वे सभी मेरी तरफ!

मैंने तभी रिपुभान-चक्र का जाप किया और मै उसके सुरक्षा आवरण में खच गया! अब वे मेरा कुछ नहीं कर सकती थीं! जैसे एक गोश्त के टुकड़े पर सैंकड़ों चींटियाँ आ लिपटती हैं, वैसे ही वे सभी डंक-शाकिनियां मुझसे आ लिपटीं! रिपुभान-चक्र से जैसे उनके दांत भोथरे हो गए! वो एक एक करके लोप होती गयीं!

“वाह!” बोला बाबा नौमना!

ये व्यंग्य था या सराहना?

“वाह!” उसने कहा,

अब आप मेरी मनोस्थिति समझिये! मै नहीं जान पा रहा था कि ये प्रशंसा है या कोई व्यंग्य बाण!

“कौन है इस तेरा खेवक?” उसने पूछा,

खेवक! एक प्राचीन तांत्रिक-शब्द! अब प्रचलन में नहीं है!

मैंने अपने दादा श्री का नाम बता दिया उसका!

“बढ़िया खे गया तुझे! उसने कहा,

अब मुझे धन्यवाद कहना ही पड़ा!

“अब मेरी बात मानेगा?” उसने कहा,

“जाने को मत कहना” मैंने कहा,

वो फिर से हंसा!

“नहीं कह रहा!” उसने कहा,

“बोलिये” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तेरे पास अभी वर्ष शेष हैं, सदुपयोग कर उनका!” वो बोला,

“वही कर रहा हूँ” मैंने कहा,

“तू नहीं कर रहा!” उसने कहा,

“मै कर रहा हूँ” मैंने कहा,

“तू नहीं कर रहा” उसने कहा,

“कैसे?” मैंने पूछा,

“मेरा कहना नहीं मान रहा तू!” उसने कहा,

वाद-प्रतिवाद में निपुण था बाबा नौमना!

“मैं कैसे मान लूँ? जाऊँगा नहीं मैं” मैंने कहा!

“पछतायेगा!” वो बोला,

“मेरा भाग!” मैंने कहा,

“मै अब खेल नहीं खेलूंगा लड़के!” उसने कहा,

“मुझे पता है!” मैंने कहा,

अब कुछ अल्पविराम!

 

वो आगे बढ़ा!

मैं वहीँ अलख पर डटा था, ईंधन डालकर और भड़का लिया था मैंने उसको!

विकराल बाबा नौमना भयानक लग रहा था! मेरी इहलीला का कभी भी भक्षण कर सकता था वो!

“अब देख लड़के!” वो चिल्ला के बोला,

मैं तो तैयार था!

उसने त्रिशूल आगे किया और उसपर से डमरू उतारा एक! उसने एक ख़ास मुद्रा में डमरू बजाया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और ये क्या???

भूमि में से जगह जगह सर्प निकलने लगे! विषैले भुजंग! ये माया नहीं थी! सर्प कुंडली मार कर बैठ गए थे, मुझे घेर के!

मैंने तब सर्प-मोहिनी विद्या जागृत की, महामोचिनी विद्या का जाप भी किया लेकिन सर्प लोप नहीं हुए! अब प्राण संकट में थे! ये तो वज्रपात सा था!

नौमना बाबा ने फिर से डमरू बजाया, और डमरू बजाते हुए जिसे वे सर्प उसके हाथ की कठपुतलियां हों, ऐसे व्यवहार करते हुए आने लगे मेरी तरफ! उनकी फुफकार ऐसी कि जैसे कोई रस्सी खींची जा रही हो कुँए से, जिसके सहारे कोई बड़ी सी बाल्टी लटकी हो!

महामोचिनी विद्या प्रभावहीन हो गयी थी! अब मैंने गुरु-आज्ञा ली और सर्पकुंडा नामक कन्या का आह्वान किया! सर्पकुंडा प्रकट हुई, मैंने नमन किया और वे सर्प भाग के पीछे हटे! जैसे कोई दिव्य-नौल(नेवला) देख लिया हो!

सर्पकुंड आने नृत्य की भावभंगिमा में अपने दोनों पाँव थिरकाए और वे सर्प जहां से आये थे वहीँ घुस गए! मैंने मस्तक झुकाया सर्पकुंडा के समख और वो भन्न से लोप हुई!

ये देख सूजन सी आ गयी चेहरे पर नौमना बाबा के! उसका वो प्रपंच भेद डाला था मैंने!

वो बेहद गुस्सा हुआ! अपने गले की मालाएं तोड़ के फेंक दीं!

“नौमना बाबा!” मैंने हंसा अब!

हालांकि मेरी ये हंसी मेरी जीत की तो क़तई नहीं थी, बस पारिस्थितिक हंसी थी! हाँ बस यही!

“सुन लड़के?” उसने कहा,

“जी?” अब मैंने सम्मान सूचक शब्द कहा!

“क्या चाहिए तुझे?” उसने पूछा,

“आप जानते हैं” मैंने कहा,

“हम्म!” उसने कहा,

और फिर से डमरू उठा लिया, मैं आसान से खड़ा हो गया, कोई नयी विपदा आने वाली थी, निश्चित ही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तभी आकाश से कुछ महाभीषण प्रेत प्रकट हुए, गले में त्रिकोण धारण किये हुए! मैं जान गया, ये वज्राल महाप्रेत हैं! किसी भी शक्ति से टकराने वाली वज्राल महाप्रेत, कुल सोलह!

“अब नहीं बचेगा तू लड़के!” खिलखिला के हंसते हुए कहा नौमना बाबा ने!

सोलह आने सच थी उसकी बात!

मेरे पास वज्राल से बचने का कोई सटीक उपाय नहीं था! हाँ, कोई घाड़ पास में होता आसान के स्थान पर होता तो मैं निपट लेता!

तभी एक युक्ति काम आयी! मैंने फ़ौरन अपने चाक़ू से अपना जिव्हा-भेदन किया और रक्त की कुछ बूँदें लीं, बूँदें अलख में डालीं, अलख भड़की, मेरे मंत्र ज़ारी थे! और वहाँ वज्राल बढ़ चले थे मेरी ओर!

तभी मैंने आमुंडनी का आह्वान किया! वज्राल थम गए वहीँ के वहीँ! और थम गया आंकेहन चौड़ी कर बाबा नौमना!

भड़भड़ाती हुई आमुंडनी प्रकट हुई! मेरी रुकी हुई साँसें फिर चलने लगीं!

मैंने नमन किया उसको! उसने प्रयोजन भांपा और वो चल पड़ी वज्राल महा प्रेत के समूह की ओर! वे भाग खड़े हुए! जहां थे वहीँ से ऊपर उड़ चले! मैंने एक एक को देखा! सभी के सभी नदारद हो गए! मेरे सम्मुख आयी आमुंडनी तो मैंने मस्तक झुका दिया, वो भन्न से लोप हो गयी! अब मैंने बाबा नौमना को देखा! वो धम्म से नीचे बैठ गया!

“बस बाबा?” मैंने कहा,

वो कुछ नहीं बोला!

“बाबा?” मैंने फिर से पुकारा!

अबकी बाबा ने एक माला मेरी ओर फेंक दी गले से उतार के!

मैं उठा और जाकर वो माला उठायी, ये माला इंसान के हाथ के पोरों की हड्डिओं की बनी थीं, उसमे बीच में मानव केश गुंथे हुए थे, डोर भी मानव-आंत से बनी थी!

“ये किसलिए बाबा?” मैंने पूछा,

“ये मेरा गुरु-माल है” उसने कहा,

हाथ काँप गए मेरे! जड़ हो गया शरीर! परखच्चे से उड़ने को तैयार मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“किसलिए बाबा?” मैंने घुटनों पर बैठते हुए बोला,

“समय पूर्ण हुआ” उसने कहा,

“कैसा समय बाबा?” मैंने विस्मय से पूछा,

“तू जानता है” वो बोला,

“नहीं बाबा, मैं नहीं जानता” मैंने गर्दन हिलायी और माला अपनी छाती से लगायी!

“धारण कर ले इसे!” उसने कहा,

ओह! नौमना बाबा के गुरु की माला! मेरा अहोभाग्य! मैंने कांपते हाथों से माला धारण कर ली!

“बाबा डोम! वे हैं मेरे गुरु!” वो बोला,

कुछ आहट हुई!

मैंने आसपास देखा!

सभी मौजूद थे वहाँ!

सभी!

कुछ देखे और कुछ अनदेखे!

 

वे सभी वहीँ खड़े थे, समूह में! शांत! जैसे बरसों से किसी की राह ताक़ रहे हों! जैसे कोई लेने आएगा उन्हें! जैसे भटकाव समाप्त!

शाकुण्ड सबसे पहले आये मेरे पास!

“उठ बेटा!” वे बोले,

मै मंत्र-मोहित सा उठ गया!

बरसों बीत गए हम प्रतीक्षा में!” वे बोले,

“प्रतीक्षा?” मैंने मन ही मन सोचा!

“हाँ, बरसों गुजर गए!” भाभर ने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने भाभर को देखा!

संकुचाते हुए खड़ी थी वो!

“मै इसीलिए लिवा कर आया था तुम्हे!” खेचर ने कहा,

अब मै समझा!

भामा और शामा आगे आयीं अब! अपनी कटारें गिरा दीं ज़मीन पर, उनकी दुर्गन्ध, सुगंध में परिवर्तित हो गयी!

अब मेरी हिम्मत बढ़ चली! मै आगे बढ़ा! बाबा नौमना के पास! वो बैठा हुआ था, और बैठे हुए भी वो मेरे क़द के बराबर ही आ रहा था!

मैंने उसके समक्ष हाथ जोड़े! बहुत ऊंचा दर्ज़ा था बाबा नौमना का! बाबा नौमना मुस्कुराए!

“बादल छंट गए! अन्धकार मिट गया! आज!” वे बोले,

मुझे इतना सुकून! इतना सुकून कि जैसे मै उसका मद बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा, अपना भार भी सहन नहीं कर पाऊंगा, गिर जाऊँगा भूमि पर! तभी मेरे कंधे पर हाथ रखा किसी ने, मैंने पीछे मुडकर देखा, ये बाबा भेरू था! मैंने प्रणाम किया, उसने प्रणाम स्वीकार किया! और मुस्कुराया!

“धन्य है तू और तेरा खेवक!” वो बोला!

मैंने गर्दन झुक कर स्वीकार किया!

“सुनो?” शाकुण्ड ने कहा,

“आदेश?” मैंने कहा,

“पिंजरा टूट गया, अब उड़ना है!” वे बोले,

मै मर्म समझ गया!

“अवश्य!” मैंने कहा,

मै पाँव छूने झुका बाबा शाकुण्ड के!

“नहीं” वे बोले,

मुझे समझ नहीं आया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“अभी नहीं” वे बोले,

अब मै समझ गया!

“सुनो” ये नौमना बाबा की आवाज़ थी!

मै वहाँ गया!

“किरली का मंदिर निकालो” वे बोले,

“अवश्य” मैंने कहा,

“वहाँ हमारा स्थान बनाना” वे बोले,

“अवश्य” मैंने कहा,

“सभी का” वे बोले,

“अवश्य” मैंने गर्दन भी हिलाई ये कह के!

शान्ति! एक अजीब सी शान्ति!

“कुछ चाहिए?” बाबा भेरू ने कहा,

“नहीं!” मैंने कहा,

मुस्कुरा गया बाबा भेरू!

“मै कल मंदिर निकलवाता हूँ बाबा नौमना!” मैंने कहा,

“हाँ” वे बोले,

“अब हम वहीँ मिलेंगे!” वे बोले,

“जैसी आज्ञा!” मैंने कहा और आँखें बंद कीं!

और जब आँखें खोलीं तो वहाँ कोई नहीं था!

मै अत्यंत भारी मन से लौट पड़ा अपनी अलख के पास! और बुक्का फाड़ के रोया! आंसू न थमे! मै रो रो के सिसकियाँ भरने लगा! और लेट गया! मै बाबा नौमना के प्रबाव में था! एक असीम सा सुख! एक अलग ही सुख!

मै होश खो बैठा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बेहोश हो गया!

 

जब मेरी आँख खुली तो मै बिस्तर पर लेटा था, कमरा जाना पहचाना लगा, ये हरि साहब का घर था! चक्र घूमा स्मृति का! सब याद आने लगा! मै चौंक के उठ गया! कमरे में मालती जी, हरि साहब, क़य्यूम भाई और शर्मा जी मेरे बिस्तर पर आ बैठे थे!

“अब कैसे हैं गुरु जी?” उन्होंने पूछा,

“मै ठीक हूँ, कब आया मै यहाँ?” मैंने पूछा,

“सुबह ५ बजे” वे बोले,

मैंने घडी देखी, दस बज चुके थे!

“उठिए आप सभी” मैंने कहा और मै भी उठ गया, मै जस का तस था, न नहाया था न कुछ और, बस हाथ-मुंह धोया और कपडे बदल कर आया उनके पास!

“कहीं जाना है?” हरि साहब ने पूछा,

“हाँ, खेतों पे” मैंने कहा,

“वहाँ?” वे बोले,

“हाँ, कुछ खुदाई करनी है वहाँ, करवानी है, शंकर और दुसरे मजदूरों को तैयार करवाइए आप अभी” मैंने कहा,

“मै अभी फ़ोन करता हूँ” वे बोले,

और फिर कोई दस मिनट के बाद हम चल पड़े वहाँ से खेतों की और,

वहाँ शंकर और, और ५ आदमी तैयार थे, फावड़े और गैंती लेकर! मै फ़ौरन ही उनको अपने पीछे पीछे ले आया, वहीँ पपीते और केले के पेड़ों के पास, और एक जगह मैंने इशारा किया, मुझे दूर भाभरा खड़ी दिखाई दी, उसने बता दिया इशारा करके, ये वही जगह थी यहाँ से मुझे धक्का देकर भगाया गया था! मैंने वहीँ से खुदाई करवानी आरम्भ की, भाभरा लोप हो गयी!

चारपाइयां आ गयीं, हम वहीँ बैठ गए! खुदाई आरम्भ हो गयी! मै लेट गया, और आँखें बंद कर लीं, गत-रात्रि की सभी घटनाएं मेरे सामने से गुजर गयीं, तभी मेरा हाथ उस गुरु-माल पर गया, आनंद! असीम आनंद!


   
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श्रीशः उपदंडक
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दोपहर हुई और फिर शाम!

तभी शंकर आया वहाँ, कम से कम दस फीट खुदाई हो चुकी थी और तब एक दीवार दिखाई दी, पत्थर की! अब वहाँ से घड़े, सिल और पत्थर निकलने लगे! और खुदाई की! रात भर खुदाई हुई, बार बार रुक कर और तब एक छोटा गोल मंदिर झाँकने लगा वहाँ! तभी वहाँ एक घडा गिर दीवार में से निकल कर, मैंने वो उठाया, हिलाया, उसमे कुछ था! घड़े का मुंह मिट्ठी की ठेकरी से ही बंद किया गया था! मैंने वो हटाया, अन्दर सोना था! सिक्के, भारी भारी सिक्के! ये मेहनताना था! मंदिर बनवाने का! मै सब जानता था! एक सिक्के का फोटो ये है–

 

और मित्रगण! तीन दिवस पश्चात वहाँ से एक मंदिर निकल आया! एक छोटा मंदिर, उसका प्रांगण! ये खेड़ा-पलट था! वस्तुतः ये वही था! इसी में मृत्यु हुई होगी वहाँ उनमे से कईयों की!

अब हरि साहब आये मेरे पास!

“कमाल हो गया गुरु जी” वे बोले,

“अभी काम बाकी है” मैंने कहा,

“नया बनवाना है, यही न?” वे बोले,

“हाँ!” मैंने कहा,

“अवश्य!” वे बोले,

“सिक्कों का कुल वजन कितना निकला?” मैंने पूछा,

“एक किलो और साढ़े सात सौ ग्राम” वे बोले,

“ठीक है” मैंने कहा,

“सब यहीं लगा दूंगा गुरु जी” वे बोले,

“अत्युत्तम!” मैंने कहा,

अब मैंने उनको समझाया कि वहाँ कब, क्या और कैसा करना होगा, उन्होंने इत्मीनान से सुना और अमल करने का फैंसला लिया!

अब शर्मा जी आ गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“आइये” मैंने कहा,

“कितना भव्य मंदिर है, मै अभी देख कर आया हूँ, लाल रंग का!” वे बोले,

“हाँ, अब साफ़ सफाई करवा दीजिये वहाँ” मैंने कहा,

“कह दिया मैंने” वे बोले,

“बहुत बढ़िया” वे बोले,

“हरी साहब, आप इन मजदूरों के परिवार को भोजन और नए वस्त्र और कुछ धन दीजिये आज ही!” मैंने कहा,

“जी ज़रूर” वे बोले,

अब मै एक चारपाई पर बैठ गया!

 

उसके अगले दिन, हरि साहब ने अपने मजदूरों को पैसा दे दिया, उनके बालक-बालिकाओं के नाम पैसा जमा भी करा दिया, कुछ पैसा उन्होंने दान भी कर दिया, सभी खुश थे!

और फि वो तिथि या दिवस या रात्रि आ गयी जिसका मुझे बेसब्री से इंतज़ार था! उस रात करीब १ बजे मै मंदिर पर पहुंचा, मैए किसी को भी साथ ना लिया, शर्मा जी को भी नहीं, ये मुक्ति-क्रिया था, मुझे अकेले को ही करनी थी, मै साजोसामान लेकर आया था, मै उसी मंदिर की भूमि में पहुंचा और आसान लगा लिया, आँखें बंद कीं और बाबा नौमना का आह्वान करने लगा, कुछ देर में ही मेरे सर पर किसी ने हाथ रखा, ये बाबा शाकुण्ड थे!

“उठो!” वे बोले,

मै उठ गया,

“हम सब आ गए हैं!” वे बोले,

मैंने नज़रें घुमा कर देखा, सभी वहाँ खड़े थे! मुस्कुराते हुए!

मै सीधा बाबा नौमना के पास गया! उन्होंने मुझे देखा, मेरे सर पर हाथ रखा! मेरे आंसू छलक गए! मैंने अपने गले से वो गुरु-माल उतार और फिर बाबा के चरणों में रख दिया!

इस से पहले वो कुछ कहते मैंने ही कहा, “मै मनुष्य हूँ, लोभ, लालच, मोह, काम, क्रोध लालसा कूट कूट के भरी है, अब ना सही, कभी बाद में कोई भी एक मेरे हृदय में सत्ता क़ायम कर सकता


   
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श्रीशः उपदंडक
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है, फिर मेरा वजूद नहीं रह जाएगा कुछ भी!कोई भी सत्तारूढ़ हुआ तो मै, मै नहीं रहूँगा और ये गुरु-माल मेरे लिए फंदा बन जाएगा, बाबा!” मैंने कहा,

वो मुस्कुराये और गुरु-माल उठाया! अपने हाथ में रखा!

“इसको धारण कर लो!” उन्होंने खा,

“नहीं कर सकता!” ऩीने कहा,

“ये आदेश है” वे हंस के बोले,

अब मै आदेश कैसे टालता! ले लिया मैंने! मित्रगण! आज भी मेरी हिम्मत नहीं होती उसको धारण करने की! मैंने सम्भाल के रखा है उसको अपने दादा श्री की वस्तुओं के साथ!

“हमे जाना है अब” भेरू ने कहा,

“उफ़! अब सब ख़तम!” मेरे दिल में आया ये विचार!

मित्रगण, मैंने उसी समय मुक्ति-क्रिया आरम्भ की और सबसे पहले रेखा को पार किया बाबा शाकुण्ड ने! आशीर्वाद देते हुए, फिर भामा-शामा, फिर भाभरा, फिर किरली! फिर भेरू और फिर खेचर! जाने से पहले खेचर मुझसे गले मिला!

और अंत में बाबा नौमना उठे! मुझे कुछ बताते हुए, कुछ सिखाते हुए विदा लेते हुए आशीर्वाद देते हुए हाले गए! पार हो गए! रह गया मै अकेला! अकेला ये घटना सुनाने के लिए! लेकिन मै कही भूल नहीं सका आज तक उनको!

मित्रगण! वहाँ एक मंदिर बनवा दिया गया, आज वहाँ भक्तगण आते हैं, वहाँ सभी के स्थान बने हैं! पूजन हो रहा है उनका! सच्चाई मै जानता हूँ, या वो सब जो इस घटना के गवाह हैं!

वक़्त बीत गया है! लेकिन मुझे आज भी लगता है मै आवाज़ दूंगा तो आ जायेंगे बाबा नौमना! लेकिन आवाज़ दे नहीं पाया हूँ आज तक! पता नहीं क्यों!

मै दो महीने पहले गया था वहाँ, जाना पड़ा था, आज वो स्थान रौनकपूर्ण है! फल-फूल सब है वहाँ! वो मंदिर! उस पर लहराता ध्वज! मै देख कर आया वही सब स्थान जो मैंने देखे थे भेरू के साथ, बाबा नौमना के साथ!

मैंने ये घटना इसीलिए यहाँ लिखी कि आप लोगों तक वो गुमनाम साधक प्रकाश में आ जाएँ! आशा करता हूँ इस घटना का एक एक किरदार आपको याद रहेगा, आपकी कल्पना में! साकार हो उठेंगे वे सभी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आज हरि साहब का काम-काज चौगुना और तीन पोते हैं! छोटे लड़के की भी शादी हो गयी, लड़की भी खुश है! सभी पर नूर बरसा है बाबा नौमना का!

और,

आप सभी का धन्यवाद इस घटना को पढ़ने के लिए!

साधुवाद!

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


   
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