वर्ष २०१० गुना मध्य...
 
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वर्ष २०१० गुना मध्य प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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उसने फिर से अट्टहास किया!

“जा चला जा लड़के!” उसने कहा,

“नहीं भेरू!” मैंने कहा,

“नहीं मानता?” उसने फिर से धमकाया!

“नहीं!” मैंने कहा,

“ठहर जा फिर!” उसने कहा,

उसने एक चुटकी मारी, चुटकी की आवाज़ ऐसी कि जैसे किसी की हड्डी टूटी हो! मैंने अपना उल्टा पाँव देखा, वो टेढ़ा हो गया था! बस टूटने की क़सर थी! मै पीछे गिर पड़ा, असहनीय दर्द हुआ, छटपटा गया मै!

वहाँ भेरू ने एक चुटकी और मारी होती तो मेरा पाँव जड़ से ही अलग हो जाता, मैंने तभी दारुष-मंत्र क बीज पढ़ा और उस क्षण मेरा पाँव ठीक हो गया! मंत्र से मंत्र टकरा रहे थे! मै खड़ा हो गया, अपने चेहरे पर आये पसीने का स्वाद मेरी जिव्हा ने ले लिया था अब तक!

“अब जाता है कि नहीं लड़के?” भेरू ने कहा, गुस्से में!

“नहीं भेरू” मैंने कहा,

“तो प्राण यहीं छोड़ने पड़ेंगे!” उसने चिल्ला कर कहा,

“मै तैयार हूँ!” मैंने कहा,

तभी झक्क से लोप हुआ वो!

मैंने चारों ओर ढूँढा उसको! वो कहीं नहीं था!

तभी मुझे अट्टहास सुनाई दिया अपनी बायीं तरफ! वो वहाँ एक शिला से सहारा लिए खड़ा था, मतलब एक पाँव उसने शिला पर रखा हुआ था! कैसी विप्लव प्रेत-माया थी!

“तुझे दिखाता हूँ कौन हूँ मै!” उसने कहा और फिर उसने अपने सर्प को कंधे से उतारा और नीचे छोड़ दिया!

सांप नीचे भूमि पर कुंडली मार कर बैठ गया! और तभी! तभी वहाँ न जाने कहाँ कहाँ से अनगिनत सांप आते चले गए, मेरे चारों ओर! ढेर के ढेर! रंग-बिरंगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“बस भेरू?” मैंने चिढाया उसे!

“देखता जा!” उसने कहा

उसने ऐसा कहा और मैंने विमोचिनी माया का जाप किया! सर्प मोम समान हो गए! विमोचिनी यक्षिणी-प्रदत्त महाविद्या है! कोई भी महाप्रेत उसको खंडित नहीं कर सकता!

अब अट्टहास करने की मेरी बारी थी! सो मैंने किया और अपना त्रिशूल भूमि में से निकाला और पुनः मंत्र पढ़ते हुए भूमि में गाड़ दिया! सर्प लोप हो गए! शून्य में बस धूमिल होती उनकी फुफकार रह गयी!

ये देख भेरू ने अपना पाँव हटा लिया शिला से! उसने होंठ हिलाकर मुझे संभवतः अपशब्द निकाले थे!

“क्या हुआ भेरू, भेरू बाबा?” मैंने उपहास सा किया उसका!

मैंने कहा और मुझे किसी आक्रामक भैंसे की जी आवास आई, नथुने फड़काते हुए! मैंने पीछे देखा, वहाँ एक शक्तिशाली भैंसा खड़ा था! मैंने तभी रिक्ताल-मंत्र का जाप किया, और अपने को फूंक लिया उस से! वो भिनसा आगे बढ़ा और पर्चायीं की तरह मेरे ऊपर से गुजर गया!

मै सुरक्षित था!

“क्या हुआ भेरू?” मैंने कहा,

क्रोध में नहाया हुआ भेरू! फटने को तैयार भेरू!

“क्या हुआ?” मैंने फिर से उपहास उड़ाया!

भेरू ने आँखें बंद कीं और फिर! फिर ध्यान लगाया!

कुछ ही क्षण में मेरी आसपास की मिट्टी धसकने लगी, जैसे मेरा ग्रास कर जायेगी और मै ज़मींदोज़ हो जाऊँगा! मैंने अपना त्रिशूल पकड़ लिया और अलख को देखते हुए, द्वित्ठार-माया का प्रयोग कर दिया! भूमि यथावत हो गयी!

और भेरू!

भेरू को जैसे काटो तो खून नहीं!

भुनभुना गया था भेरू!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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“लड़के??” भेरू गरज के बोला

मैंने उसको देखा!

“क्या समझता है तू?” उसने कहा,

“कुछ भी नहीं!” मैंने कहा,

“चला जा! अभी भी समय है” उसने हाथ के इशारे से कहा,

“मै नहीं जाने वाला भेरू बाबा!” मैंने कहा,

“अपान-वायु से तेरे प्राण खींच लूँगा मै!” उसने कहा,

“वो भी कर के देख लो भेरू!” मैंने कहा,

भेरू गुस्से में उबल रहा था! उसके अन्दर क्रोध का लौह धधक धधक कर बुलबुले छोड़ रहा था!

उसने झुक कर मिट्टी उठायी, मै समझ गया कि फिर से भेरू कोई प्रपंच लड़ाने वाला है!

भेरू ने उस मिट्टी को अभिमंत्रित किया और मेरी ओर उछाल दिया! ये देह-घातिनी शक्ति थी! मैंने फ़ौरन ही दिक्पात शक्ति का संधान कर उसको भी एक प्रकार से निरस्त कर दिया!

अब तो भेरू की सब्र-सीमा लंघ गयी! वो कभी वहाँ प्रकट होता, लोप होता और फिर कहीं दूसरे स्थान पर प्रकट हो लोप होता! मुझे उसके लिए पूर्णाक्ष घूमना पड़ता!

“क्या हुआ भेरू?” अब मैंने कहा,

भेरू चुप्प!

“क्या हुआ? बस? बल सीमा समाप्त?” मैंने पूछा,

उसने फिर से ज़मीन धसकाने वाला प्रयोग किया! मुझे बार बार उछलना पड़ता! तो मैंने अपने त्रिशूल को उखाड़ कर फिर से स्तम्भन-मंत्र पढ़ कर गाड़ दिया, धसकना समाप्त हुआ!

इस सोते हुए संसार में दो औघड़ एक दूसरे को परास्त करने में लगे थे! एक देहधारी था और एक मात्र छाया!

“अकेले पड़ गए भेरू तुम!” मैंने कहकहा लगाया!

उसने चिल्ला के मुझे चुप रहने को कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“भेरू! जाओ, जाकर बुलाओ अपने नौमना बाबा को!” मैंने चुनौती दी उसको!

नौमना बाबा का नाम सुनकर भड़क गया वो! अनाप-शनाप बोलने लगा, जिग्साल-साधना के अंश पढने लगा! फिर आकाश में उड़ते हुए लोप हो गया! मैंने उसको लोप होते हुए देखा और फिर कुछ पल की असीम शान्ति! वो चला गया था शायद! मै अपने आसन पर जैसे ही बैठने लगा तभी मैंने अपने समक्ष दो सुंदरियों को देखा! हाथ में लोटे लिए हुए, लोटों में दूध भरा था, सच कहता हूँ, कोई अतिश्योक्ति नहीं, वे अद्वितीय सुंदरियां थीं! सुडौल देह, उन्नत वक्ष-स्थल, संकीर्ण कमर, दीर्घ नितम्ब-क्षेत्र! केश कमर तक झूलते हुए, चमकदार, आभूषण धारण किये हुए! कामातुर आवेश! त्वचा ऐसी, कि हाथ लगाओ मैली!

अब मै खड़ा हो गया!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

“हम रम्भूक कन्याएं हैं ओ साधक!” उन्होंने एक साथ कहा!

रम्भूक कन्याएं! मेरा अहोभाग्य! स्वयं महासिद्धि मेरे समक्ष खड़ी थीं! तोरम-रुपी कन्याएं!

“क्या चाहती हो?” मैंने पूछा,

“आप दुग्धपान करें!” वे बोलीं, खनकती आवाज़ उनकी!

“किसलिए?” मैंने पूछा,

“सिद्देश्वर-चरण पूर्ण करने हेतु!” वे बोलीं,

ओह! कितना असीम लालच! मेरे मस्तिष्क में तार झनझना गए! भाड़ में जाएँ हरि साहब! इनको स्वीकार करो और जय जयकार!

नहीं! कदापि नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! दंड का भागी हो जाऊँगा मै, मुख नहीं दिखा सकता अपने गुरु को! श्रापग्रस्त हो किसी बरगद के वृक्ष पर ब्रह्मराक्षस का दास हो जाऊँगा! नहीं ऐसा संभव नहीं!

क्या प्रपंच लड़ाया था भेरू बाबा ने!

दिव्या रम्भूक कन्याएं! मेरे समक्ष!

“नहीं!” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“लीजिये!” वे बोलीं, मेरी तरफ लोटा करते हुए! पात्र में केसर के रंग से मिला दूध था! मै उसको दिव्य दूध ही कहूँगा!

“लीजिये?” वे बोलीं!

“नहीं!” मैंने कहा,

मैंने आकाश में देखा! चाँद-तारे सभी देख रहे थे इस खेल को! और मै ढूंढ रहा था उस भेरू बाबा को!

वो वहाँ कहीं नहीं था!

“वाह भेरू वाह!” मैंने हंस कर कहा,

 

“लीजिये?” वे बोलीं,

“नहीं” मैंने कहा,

“पछतायेंगे!” वे बोलीं,

“नहीं” मैंने कहा,

“ले लीजिये” वे फिर से बोलीं,

“नहीं” मैंने कहा,

“ले लीजिये, हठ कैसा?” वे बोलीं,

“नहीं” मैंने फिर से मना किया,

अब वे पीछे हटीं,

दुग्ध-पात्र अपनी कमर में लगाए, पीछे मुड़ीं और लोप हो गयीं!

ओह! कितना सुकून! जैसे सुलगता, दहकता शरीर झम्म से गोता लगा गया हो हिम-जल में! ऐसा परमानन्द का एहसास! जैसे अवरुद्ध नथुने एक झटके से खुल गए हों! ओह! वर्णन नहीं कर सकता मै और अधिक!

फिर से कुछ समय बीता, जैसे युद्ध-विश्राम का समय हो गया हो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तभी जैसे ध्वनि-रहित दामिनी कड़की और मै उसके तमरूपी प्रकाश से सराबोर हो गया!

एक अनुपम, दिव्यसुन्दरी प्रकट हुई! मेरे माथे पर शिकन उभरीं अब! ये कैसी माया? अब कौन! हलक में थूक अटक के रह गया, यही होती है अवाक रह जाने की स्थिति!

वो अनुपम सुन्दरी मेरे समक्ष आई, सहस्त्र आभूषणों से सुशोभित उसकी गौर देह! उसकी आभूषणों से न ढकी त्वचा चकाचौंध कर रही थी! बलिष्ठ कद-काठी, उन्नत देह! लाल रंग का चमकीला दिव्य-वस्त्र!

वो मुस्कुराई! स्पष्ट रूप से कहता हूँ, एक पल को मै द्वन्द भूल गया और काम हिलोरें मारने लगा मुझ में! मस्तिष्क की दीवारें फटने को तैयार हो गयीं! जननेद्रिय में जैसे स्पंदन सा होने लगा! ये क्या था? कोई माया? कोई तीक्ष्ण माया? या इस सुन्दरी का दिव्य प्रभाव?

वो मुस्कुराते हुए और लरजती हुई चाल से मेरे समीप आई, केवड़े की खुशबु नथुनों में वास कर गयी! आँखें बंद होने लगीं, होश खोने को आमादा से हो गए!

“साधक!” उसने बेहद कामुकता से भरे स्वर में पुकारा!

मुझ पर मद सवार होने लगा, काम-ज्वर और तीव्र होने लगा! अब बस छटपटाने की नौबत शेष थी!

मैंने धीरे से आँखें खोलने की कोशिश की, आँखें खोल लीं! वे मेरे इतना समीप थी की उसके वक्ष के ऊपरी सिरे मुझे मेरे सीने में छू रहे थे! ये छुअन बेहद अजीब और वर्णन-रहित है, आज भी!

‘साधक?” उसने पुकारा,

“हाँ” मैंने धीमे से कहा,

“जानते हो मै कौन हूँ?” उसने पूछा, उसकी साँसें मेरी ग्रीवा पर काम के गहरे चिन्ह छोड़े जा रही थीं!

“मै मृणाली हूँ!” उसने कहा,

मृणाली! ओह! ये मै कहाँ फंस गया!

मृणाली, दिव्य-स्वरुप में एक काम-कन्या है! एक दिव्य काम-सखी! इस से साधक यदि काम-क्रीडा करे तो यौवनामृत की प्राप्ति होती है! देह पुष्ट, बलशाली और निरोग हो जाती है, आयुवर्द्धक होता है इसका मात्र एक ही स्पर्श!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने तभी मेरे माथे को अपनी जिव्हा से छुआ! मै नीचे झूल गया पीछे की तरफ और तभी उसने मुझे संभाल लिया, मेरे नेत्र बंद हो गए!

“उठो?” उसने कहा,

मै शांत!

“साधक?” उसने पुकारा,

मै शांत!

“उठो?” उसने कहा,

मै अब संयत हुआ और खड़ा हुआ, त्रिशूल का सहारा लिया!

“क्या चाहती हो?” मैंने उन्मत्त से स्वर में पूछा,

“यही तो मै आपसे पूछ रही हूँ” उसने मुस्कुराते हुए कहा,

“चले जाओ मृणाली” मैंने कहा,

“नहीं!” उसने कहा,

“जाओ” मैंने कहा,

वो पीछे हटी और अपने हाथों से मेरे केश पकड़ लिए और सीधे मुझे अपनी ओर खींच लिया, मुझे चक्कर सा आ गया!

“छोडो?” मैंने कहा,

अब वो हंसी!

‘छोडो?” मै चिल्लाया!

“नहीं” उसने कहा,

“मृणाली? छोडो?” मैंने कहा,

“नहीं!” उसने कहा,

अब उसने मुझे और करीब खींचा! मै झुंझला सा गया, छूटने की कोशिश की लेकिन लगा किसी गज-शक्ति ने मुझे थाम रखा हो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने तभी उर्वार-मंत्र पढ़ा! उसने फ़ौरन ही छोड़ा मुझे और हंसने लगी!

“कच्चे हो अभी!” उसने कहा,

“अब जाओ यहाँ से” मैंने कहा,

“नहीं!” उसने कहा,

वो अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर थी! अडिग!

 

“मृणाली?” मैंने कहा,

“हाँ?” उसने उत्तर दिया?”

“अब जाओ यहाँ से” मैंने कहा,

“नहीं” उसने फिर से व्यंग्य से कहा,

“मुझे विवश न करो कि मै तुमको यहाँ से नदारद करूँ” मैंने कहा,

“आप कर ही नहीं सकते, मै अन्तःमर्म जानती हूँ” उसने कहा,

“नहीं जानती तुम” मैंने कह दिया,

“मै जानती हूँ” उसने कहा,

“कुछ नहीं जानती, नहीं जानती मै यहाँ किसलिए आया हूँ, तुम केवल उस भेरू बाबा को और अपने लक्ष्य को ही जानती हो मृणाली!” मैंने कहा,

“मै जानती हूँ” उसने कामुक मुद्रा बना कर ऐसा कहा,

अब मै विवश था! मैंने त्रिशूल लिया और उसको ओर कर दिया! वो हटने की बजाय ठहाके मारने लगी!

“अरे ओ साधक!” उसने कहा,

मै चुप हो गया,

“तेरे जैसे न जाने कितने आये और कितने गए! मृणाली यहीं है आज तक!” उसने कहा,

हम्म! काम-दंभ! वाह! क्या उदाहरण दिया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“मेरा जैसा न कोई आया और अब न कोई आएगा!” मैंने भी प्रतिवार किया!

उसने तभी अपना अंशुक उठाया और अपना योनि-प्रदेश दिखाया, मैंने देखकर मुंह फेर लिया, जैसे तिरस्कृत कर दिया हो!

ये उस से बर्दाश्त नहीं हुआ! वो लपक के मेरे ऊपर झपटी! मेरे ऊपर आ कर चिपक गयी! उसने मेरी कमर में अपनी दोनों टांगों से मुझे जकड़ लिया, बाजुओं से मेरे केश खींचे लगी पीछे की तरह और मेरे मुख और माथे को चाटने लगी! केवड़े की सुगंध से मै भी जैसे सकते में आ गया था!

उसने काम-क्रीडा की मुद्रा में क्रीडा आरम्भ की, योनि-स्राव से मै कमर के नीचे भीगने लगा! मेरे पाँव उस स्राव में भीग गए, मिट्टी गीली हो गयी और मै नीचे गिर गया फिसल कर!

वो मेरे ऊपर क्रीडा में मग्न थी, मुझे चाटती जाती थी, मेरी जिव्हा उसकी जिव्हा से टकराती तो मेरा दम घुटने लग जाता! मै परोक्ष रूप से कुछ नहीं कर पा रहा था, अतः मैंने मनोश्चः त्रिपुर-मलयमंजिनी का जाप कर दिया! जाप के तीसरे बीज स्वरुप में मृणाली को उठा के फेंका किसी ने मेरे ऊपर से और वो गिरते ही हुई लोप!

प्राण छूटे!

अब मै खड़ा हुआ! संयत हुआ!

तभी प्रकट हुआ वहाँ भेरू बाबा!

“आ गया भेरू!” मैंने उपहास सा उड़ाया उसका!

भेरू जैसे फफक रहा था!

“चला जा! जो चाहता है वो संभव नहीं!” भेरू ने कहा,

“नहीं जाऊँगा भेरू!” मैंने कहा,

“क्या चाहिए तुझे, इसके अलावा?” उसने पूछा,

“कुछ नहीं, और कुछ नहीं!” मैंने कहा,

“सुन?” उसने झिड़का मुझे!

“सुनाओ भेरू बाबा!” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“प्राण की बाजी हार जाएगा, इसीलिए जो चाहिए मांग ले” उसने कहा,

“नहीं, सबकुछ है मेरे पास!” मैंने कहा,

और तभी भेरू लोप हुआ!

चाल चल गया अपनी!

यही लगा मुझे उस समय!

और तभी वहाँ एक और रूपसी प्रकट हुई!

मुझसे भी लम्बी! सहस्त्र-श्रृंगार धारण किये हुए! सुन्दर अत्यंत सुंदर! उसका बदन बेहद सुंदर! अप्रतिम! जैसे साक्षात यक्षिणी! हाथों में दो घड़े लिए हुए! कच्ची मिट्टी के घड़े!

मेरे चेहरे पर आया हुआ विस्मय और घोर चिंता में परिवर्तित होने लगा!

“ओ साधक!” उसने धीमे स्वर में कहा,

मैंने उसको देखा!

तभी उसे अपने हाथों में रखे घड़े नीचे ज़मीन पर दे मारे! अकूत धन-सम्पदा बिखर गयी! स्वर्ण! स्वर्ण से निर्मित जेवर! और सफेद, काले, नीले रंग के बड़े बड़े हीरे, माणिक्य और पन्ने जैसे अनमोल रत्न!

“ले, उठा ले जितना उठाना हो!” वो बोली,

मैंने रत्न देखे! स्वर्ण देखा! अकूत दौलत! आज के भौतिक-युग का सर्वश्रेष्ठ ईंधन! काया माता-पिता, क्या भाई-बहन, क्या अन्य रिश्ता! कुछ नहीं इसके सामने! मनुष्य जिसके लिए कमरतोड़ मेहनत करता है, लाख जतन करता है समेटने को, वो यहाँ मिट्टी में पड़े थे मेरे सामने!

“बोल साधक?” वो बोली,

“नहीं” मैंने कहा,

“क्यों?” उसने पूछा,

“सब माया है” मैंने धीरे से कहा,

“कैसी माया?” उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“तू भी मायावी रूपसी है!” मैंने कहा,

वो खिलखिलाकर हंसी!

 

वो हंसती रही! उसने और धन प्रकट किया वहाँ! इतना तो मैंने कभी न सुना और न देखा!

“ये सब ले जा!” वो बोली,

“नहीं!” मैंने कहा,

“मूर्ख तो नहीं?” उसने पूछा,

“नहीं” मैंने कहा,

उसने अपने हाथ से कुछ स्वर्ण उठाया और मुझ पर फेंका!

“ले! लेजा!” उसने फिर से कहा,

“नहीं चाहिए मुझे!” मैंने कहा,

“धनसुली का धन माया नहीं होता साधक!” उसने कहा,

“मानता हूँ” मैंने कहा,

“ले जा फिर! सारा! जितना चाहिए वो भी लेजा!” उसने कहा,

धनसुली! धन-यक्षिणी की सहोदरी!

“मुझे नहीं चाहिए” मैंने फिर से मना कर दिया!

अब वो क्रोध में आई!

“और क्या चाहिए तुझे?” उसने गुस्से से पूछा,

“आप जाइये और भ्रू को लाइए सामने” मैंने कहा,

झम्म!

वो झम्म से लोप, साथ ही सारा धन भी लोप! टूटे घड़े भी लोप, रह गये तो बस उनके चिन्ह! मिट्टी में अंकित चिन्ह!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“भेरू?” मैंने चिल्लाया!

कोई नहीं आया!

“कुछ और भी बाकी है तो ले आ!” मैंने डंका बजाते हुए कहा!

भेरू प्रकट हुआ! हाथों में हाथ बांधे!

भेरू जैसे भीरु बन गया था!

“क्या बात है भेरू?” मैंने पूछा,

भेरू चुप!

अब मैंने अट्टहास लगा!

“पंचमहाभूत! हाँ! पंचमहाभूत! ये जस की तस रहती है भेरू!” मैंने कहा,

अब भेरू को चढ़ा ताप!

“सुन लड़के!” उसने कहा,

“सुनाओ?” मैंने कहा,

“तूने अपने काल को स्वयं आम्नात्री किया है, मै तुझे जीवित नहीं छोड़ने वाला!” उसने कहा,

“तो करके देख ले ये भी!” मैंने कहा,

उसने गुस्से में मेरी ओर अपना त्रिशूल दे मार फेंक कर! मुझ तक आने से पहले ही ताम-मंत्र ने त्रिशूल को भूमि पर ही गिरा दिया!

अब मै हंसा!

भेरू क्रोधित!

वो भयानक रूप से चिल्लाया! हड़कम्प सा मच गया उस स्थान पर! मेरी अलख जैसे अनाथ होने के भय से कांपने लगी!

भेरू स्वयं आगे बढ़ा!

ये मुझे पता था!

“ठहर जा!” मैंने कहा,


   
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वो नहीं माना!

मैंने तभी यम्त्रास-मंत्रिका का जाप किया! मुझ तक आते आते कलाबाजी सी खायी भेरू ने और नीचे गिर गया! फ़ौरन उठ भी गया! अचंभित! हैरत में!

मेरी हंसी छूट गयी!

“भेरू!” मैंने कहा और अब मै उसकी तरफ बढ़ा!

भेरू पीछे हटा!

“भेरू! मै तुझे नहीं क़ैद करूँगा! घबरा नहीं!” मैंने कहा,

वो पीछे हटा फिर भी! डरा हुआ सा!

“भेरू! बहुत समय बीत गया भटकते भटकते! अब समय पूर्ण हुआ!” मैंने कहा,

“नहीं!” वो बोला,

“मान जा!” मैंने समझाया उसे!

“नहीं!” वो घबराया!

“ठीक है!” मैंने कहा और मै पीछे अपनी अलख तक गया!

“भेरू!” मैंने पुकारा,

“बोल?” वो चिल्ला के बोला,

“जा!” मैंने कहा,

“कहाँ?” वो निहत्था सा खड़ा हुआ मुझसे पूछ रहा था!

“तेरे पालनहार बाबा नौमना के पास!” मैंने कहा,

ये सुनते ही बिफर गया वो!

“क्यों?” उसने पूछा,

“जा बुला उसको अब!” मैंने कहा,

“नहीं!” वो चिल्लाया!


   
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“भेरू! क्या नही किया तूने उसके लिए! तुझे बचाने नहीं आएगा वो?” मैंने उपहास किया!

वो चुप्प!

“जा!” मैंने कहा,

और तभी वो झप्प से लोप हुआ!

और अब! अब मुझे स्वागत करना था बाबा नौमना का!

मै तैयार था!

 

भेरू बाबा चला गया था! मै नहीं कहूँगा कि मुंह की खाकर! ये ऐसा कोई अस्तित्व का द्वन्द नहीं था, ये तो शक्ति-सामर्थ्य का द्वन्द था, दादा श्री की असीम कृपा से मै अभी तक अपने उचित मार्ग पर प्रशस्त था! लोभ-लालच आदि को पछाड़ दिया था मैंने! मैंने अपनी गुरु को नमन किया, उनके आशीर्वाद से मै अभी तक डटा हुआ था!

वहाँ भयानक सन्नाटा छाया हुआ था! अलख की रौशनी चटक-चटक कर उठ रही थी! मै औघड़-मद में डूबा था, मदिरापान करता हुआ आगे देखे जा रहा था! दीन-दुनिया से कटा हुआ भिड़ा हुआ था वहाँ के ‘शासक औघड़’ की प्रतीक्षा में! चन्द्रमा सर पर टंगे हुए थे! उन्हें सब मालूम था, हाँ सब मालूम! मै रह रह कर उस एकांकी रात्रि भ्रमणकारी को देखता! जो न जाने कितनी सदियों से अनवरत हराता आया है ऐसे समय समय के तमसपूर्ण नाभिय-औघड़ों को! चन्द्रमा को देखता और आंसू निकालता जाता! सलाम बजाता जाता! गर्दन थक जाती तो झटका खाके नीचे हो जाती! मै फिर से गर्दन उठा लेता!

तभी!

तभी जैसे कोई भारी-भरकम आकाशीय पिंड गिरा भूमि पर, दूर अँधेरे में! अनपढ़ और गंवार कीड़े मकौड़े जो बेसुरा तान छेड़े हुए थे, सब शांत हो गए!

मै खड़ा हुआ!

त्रिशूल सीधे हाथ में थामा!

सामने देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ था! कोई न कोई अवश्य ही था! पर स्पष्ट नहीं था! मेरी अलख की रौशनी की हद में नहीं था! और तभी भूमि पर जैसे थाप सी हुई, कोई बढ़ा मेरी तरफ! और जो मैंने देखा, वो आजतक नहीं देखा!

उसको इंसान कहूँ, या बिजार! सांड या भैंसा! महाप्रेत कहूँ या फिर कोई राक्षस! यक्ष कहूँ कि कोई आततायी गान्धर्व! दैत्य या कोई दानव? क्या कहूँ????

भयानक शरीर उसका! केश रुक्ष और जटाओं में परिवर्तित! कुछ सर पर बंधे हुए और कुछ घुटनों तक आये हुए, हाथों में अस्थियों के भुजबंध और चांदी के भारी भारी कड़े! पांव में घुटनों तक चांदी के कड़े! छाती पर भयानक बाल! अस्थिमाल धारण किये हुए! स्फटिक की मालाएं, महारुद्र की घंटियाँ! मानव अस्थियों से बना दंड! भुजाओं में बंधे अस्थिमाल! कोहनी से नीचे भास्मिकृत अस्थियाँ! बंधी हुईं, लटकी हुईं मनकों की तरह! तीन फाल वाला बड़ा सा त्रिशूल, उस पर चार-पांच इंसानी मुंडों से बने डमरू बंधे थे!

और अब शरीर!

लम्बाई करीब आठ या साढ़े आठ फीट कम से कम! दानव! मेरी एक जांघ और उसकी कलाइयां, बराबर! मेरी छाती और उसका एक पाँव! लात मार दे तो सीधा उसी से मिलन. जिसने भेजा यहाँ पृथ्वी पर! चेहरा इतना चौड़ा कि अश्व भी शर्मा के भाग जाए! जबड़ा इतना बड़ा कि एक-दो मुगे तो बिना हड्डी निकाले ही चबा जाए! भयानक इतना कि कोई देख ले तो विस्मृति का रोग तत्क्षण मार जाए!

सच में ही नौमना! नाम साक्षात्कार कर दिया था उसने! किसी जिन्न से संकर प्राणी था वो, लगता है!

“कौन है तू?” उनसे सिंह की जैसी दहाड़ में पूछा,

ऐसी दहाड़ कि एक बार को मै भी सिहर गया!

“कौन है तू?” उसने कहा,

मैंने गर्दन उठा के उसको देखा, वो अकेला ही था!

मैंने अपना परिचय दे दिया!

“बस! बहुत हुआ, अब यहाँ से जा!” वो दहाड़ा!

“मै नहीं जाऊँगा!


   
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