सुबह उठे तो छह बज रहे थे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, नहाए धोये और आ बैठे बिस्तर पे!
तभी हरि साहब आ गए, नमस्कार आदि हुई, साथ में नौकर चाय-नाश्ता भी ले आया! हमने चाय-नाश्ता करना शुरू किया! जब निबट लिए तो हाथ भी धो लिए!
“हरि साहब?” मैंने कहा,
“जी गुरु जी?” वे चौंके!
”आपकी पत्नी कहाँ है?” मैंने पूछा,
“मंदिर गयी है, आने वाली ही होगी” वे बोले,
‘अच्छा, आने दीजिये फिर” मैंने कहा,
अब कुछ देर चुप्पी हो गयी वहाँ!
“वैसे गुरु जी, कोई प्राण-संकट तो नहीं है?” उन्होंने पूछा,
“नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगा” मैंने कहा, कहना पड़ा ऐसा!
और कुछ देर बाद उनकी पत्नी आ गयीं पूजा करके, हरि साहब उठे और उनको बुलाने के लिए चले गए, ले आये साथ में कुछ ही देर में, नमस्कार हुई, उन्होंने हमे प्रसाद भी दिया, हमने माथे से लगा, खा लिया प्रसाद!
अब हरि साहब ने अपनी पत्नी से वो सपना बताने को कहा, उन्होंने बताया और मै चौंकता चला गया!
अब मैंने उनसे प्रश्न करने शुरू किये!
“आपने बताया, कि वो वहाँ ग्यारह हैं, ये आपको किसने बताया था?” मैंने पूछा,
“खेचर ने” वे बोलीं,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“और आपने उस बाबा को देखा, जिसका वो स्थान है?” मैंने पूछा,
“हाँ, देखा था, बहुत डरावना है वो, गले में सांप लपेट कर रखा था उसने!” उन्होंने बताया,
“किसी ने कुछ कहा आपसे?” मैंने पूछा,
“हाँ एक औरत ने कहा था कुछ” वे बोलीं,
“क्या?” मैंने पूछा,
“पोते के लिए तरस जायेगी तू! ये बोली वो मुझसे!” ये बताया उन्होंने
“अच्छा! उस औरत ने अपना कोई नाम बताया?” मैंने पूछा,
“हाँ, उसने अपना नाम भामा बताया था” वे बोलीं,
“ओह…भामा!” मैंने कहा,
“और कुछ?” मैंने पूछा,
“बाकी वही जो मैंने आपको बताया है” वे बोलीं,
“ठीक है, बस, जो मै जानना चाहता था जान लिया” मैंने कहा, वो उठीं और चली गयीं बाहर!
अब मै फंस गया इस जाल में!
बड़ी ही विकट स्थिति थी! समझ की समझ से भी परे के बात हो गयी थी ये तो! सर खुजा खुजा कर मै सारा ताना-बाना बुन रहा था! परन्तु प्रश्नों का तरकश कुछ ऐसा था कि उसमे से बाण समाप्त ही नहीं हो पा रहे थे! अक्षय तरकश बन गया था! तभी मैंने हरि साहब से पूछा, “हरि साहब, क्या आपके खेतों के पास कोई नदी है?”
“हाँ, है, एक बरसाती नदी है, ये पार्वती नदी में मिलती है आगे जाकर” उन्होंने बताया,
“क्या वहाँ तक जाया जा सकता है?” मैंने पूछा,
“कहाँ तक?” उन्होंने पूछा,
“जहां वो बरसाती नदी है” मैंने कहा,
“हाँ, जा सकते हैं, लेकिन आजकल पानी नहीं है उसमे” वे बोले,
“पानी का कोई काम नही है, मुझे केवल नदी देखनी है, आपके खेतों की तरफ वाली” मैंने कहा,
“कब चलना है?” उन्होंने पूछा,
“जब मर्जी चलिए, चाहें तो अभी चलिए” मैंने कहा,
“ठीक है, मै क़य्यूम को कहता हूँ” वे बोले और क़य्यूम को लिवाने चले गए, हम वहीँ बैठ गए!
और फिर थोड़ी देर बाद क़य्यूम भाई आ गए वहाँ, नमस्कार हुई तो वे बोले, “चलिए गुरु जी”
“चलिए” मैंने कहा,
अब हम निकल पड़े वहाँ से उस बरसाती नदी को देखने के लिए, कोई सुराग मिलेगा अवश्य ही, ऐसा न जाने क्यों मन में लग रहा था!
गाड़ी दौड़ पड़ी! मै खुश था! पथरीले रास्तों पर जैसे तैसे कुलांचें भरते हुए हम पहुँच ही गए वहाँ! बड़ा खूबसूरत दृश्य था वहाँ! बकरियां आदि और मवेशी चर रहे थे वहाँ! बड़ी बड़ी जंगली घास हवा के संग नृत्य कर रही थी बार बार एक ओर झुक कर! जंगली पक्षियों के स्वर गूँज रहे थे! होड़ सी लगी थी उनमे!
“ये है जी वो नदी” हरि साहब बोले,
मैंने आसपास देखा, चारों तरफ और मुझे वहाँ एक टूटा-फूटा सा ध्वस्त मंदिर दिखा, मै वहीँ चल पड़ा, जंगली वनस्पति ने खूब आसरा लिया था उसका! एक तरह से ढक सा गया था वो मंदिर, अब पता नहीं वो मंदिर ही था या को अन्य भग्नावशेष, ये उसके पास ही जाकर पता चल सकता था, मै उसी ओर चल पड़ा! सभी मेरे पीछे हो लिए! मै मंदिर तक पहुँच, अन्दर जाना नामुमकिन ही था! प्रवेश कहाँ से था कुछ पता नहीं चल रहा था, गुम्बद आदि टूटी हुई थी, खम्बे टूट कर शिलाखंड बन गए थे! स्थापत्य कला हिन्दू ही थी उसकी, निश्चित रूप से ये एक हिन्दू मंदिर ही था!
“कोई पुराना मंदिर लगता है” मैंने कहा,
“हाँ जी, हमतो बचपन से देखते आ रहे हैं इसको” हरि साहब ने कहा,
“कुछ जानते हैं इसके बारे में?” मैंने पूछा,
:नहीं गुरु जी, बस इतना कि ये मंदिर यहाँ पर बंजारों द्वारा बनवाया गया था, एस बाप-दादा से सुना हमने” वे बोले,
तभी मुझे मंदिर के एक कोने में बाहर की तरह एक मोटा सा सांप दिखाई दिया, ये धुप सेंक रहा था शायद! मै उसकी ओर चल पड़ा! सभी चल पड़े उस तरफ! सांप को देखकर हरि साहब
और क़य्यूम ठिठक के खड़े हो गए! मै और शर्मा जी आगे बढ़ चले! ये एक धामन सांप था! बेहद सीधा होता है ये सांप! काटता नहीं है, स्वभाव से बेहद आलसी और सुस्त होता है! रंग पीला था इसका!
“ज़हरीला सांप है जी ये?” हरि साहब ने पूछा,
“नहीं” मैंने कहा,
“जी हमको तो सभी सांप ज़हरीले ही लगते हैं!” वे बोले,
“ये नहीं है, काटता नहीं है, चाहो तो उठा लो इसको!” मैंने उस सांप के शरीर पर हाथ फिराते हुए कहा!
सांप जस का तस लेटा रहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं की उसने!
“ये नहीं काटता!” मैंने कहा,
“कमाल है गुरु जी!” वे बोले,
मै उठा गया वहाँ से! सहसा मंदिर की याद आ गई!
अब मैंने उसका चक्कर लगाया, उसको बारीकी से देखा! अन्दर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया!
मै अब हटा वहाँ से! और हरी साहब और क़य्यूम को वहाँ से हटाकर वापिस गाड़ी में बैठने के लिए कह दिया, मै यहाँ कलुष-मंत्र का प्रयोग करना चाहता था! वे चले गए!
“आइये शर्मा जी” मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा और अपने व शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! नेत्र खोले तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया!
दूर वहाँ खेचर खड़ा था! हंसता हुआ! मै उसको देखता रहा, वो आया उर फिर मंदिर की एक दीवार में समा गया!
अब समझ में आया! भेरू का स्थान! खेचर का स्थान!
यही मंदिर! यही है वो स्थान!
इसका अर्थ था कि ये था स्थान भेरू का! खेचर इसीलिए आया था यहाँ! उसने तो मेरा मार्ग प्रशस्त कर दिया था! अब सोचने वाली बात ये कि वो क्यों चाहता था कि मै यहाँ आऊं? भेरू के स्थान पर? जबकि वो चाहता तो मुझे अपने रास्ते से कब का हटा चुका होता! खेचर इसी मंदिर में समा गया था, यही स्थान था, हाँ यही स्थान!
“शर्मा जी?” मी कहा,
“जी?” वो आगे आते हुए बोले,
“आपने देखा?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“यही स्थान है उस भेरू का?” मैंने ये भी पूछा,
“हाँ जी, यही लगता है” वे बोले,
“तो वो क्या चाहता है?” मैंने कहा,
“नहीं पता गुरु जी” वे बोले,
“सही कहा!” मैंने कहा,
अब मैंने कलुष-मंत्र वापिस किया!
“शर्मा जी, एक बात तो है, ये खेचर कुछ कहना चाहता है” मैंने कहा,
“कैसे?” उन्होंने पूछा,
“नदी का पता, ये मंदिर! है या नहीं?” मैंने पूछा,
“हाँ जी, ये तो है” वे बोले,
“अब हमारा काम पूर्ण हुआ यहाँ, चलो अब वापिस चलें, अब मै दिखाता हूँ इनको अपना माया-जाल!” मैंने कहा,
“माया-जाल?” वे विस्मित से होकर पूछ गए!
“हाँ! अब हमारी मुलाक़ात शीघ्र ही भेरू से होगी” मैंने कहा,
‘अच्छा!” वे बोले,
“आप एक काम करो, हरि साहब से पूछो, यहाँ कोई शमशान है?” मैंने कहा,
“अभी पूछ लेता हूँ जी” वे बोले और वो चले गए, हरि साहब की ओर!
मै कुछ एर बाद पहुंचा वहाँ, उनकी बातें चल रही थीं!
“गुरु जी, ये कहते हैं कि दो शमशान हैं यहाँ पर, एक शहर के पास और एक इसी नदी के किनारे, आपको कौन सा चाहिए?” शर्मा जी ने पूछा,
“इसी नदी के किनारे वाला” मैंने कहा,
हरि साहब ने बता दिया, ये शमशान कोई चार किलोमीटर था वहाँ से!
‘चलिए, एक नज़र मार लेते हैं” मैंने कहा,
और हम अब चल पड़े वहाँ से उसी शमशान की ओर!
वहाँ पहुंचे और मै वहाँ गाड़ी से उतरा! आसपास नज़र दौड़ाई, ये शमशान नहीं लगता था, कोई प्रबंध नहीं था वहाँ, हाँ वहाँ दो चिताएं अवश्य ही जल रही थीं!
मै उन चिताओं तक गया, ठंडी हो चुकीं राख को मैंने हाथ जोड़कर उठाया और एक पन्नी में भर लिया, पन्नी वहाँ बिखरी पड़ी थीं!
“चलिए, अब सीधे खेतों की तरफ चलें!” मैंने कहा,
“जी” हरि साहब बोले,
और हम चल दिए अब खेतों की तरफ!
मै सीधे ही खेतों पर पहुंचा, वहाँ अलग अलग स्थान पर पांच जगह मैंने वो भस्म ज़मीन में गाड़ दी, ये स्थान-कीलन था! जो अब ज़रूरी भी था!
“शर्मा जी, आप इस बाल्टी पानी मंगवाइये” मैंने कहा,
“अभी लीजिये” उन्होंने कहा,
उन्होंने हरि साहब को, हरि साहब ने शंकर से कहा और शंकर वो बाल्टी ले आया! मैंने उसी स्थान पर, जहां पानी नहीं रुकता था, एक बाल्टी पानी डाला, और कमाल हुआ, स्थान-कीलन चक्रिका ने वहाँ का भेदन-चक्र पूर्ण किया और मिट्टी गीली हो गयी! पानी ठहर गया! ये देख सभी की आँखें चौड़ी हो गयीं!
“अब चलो यहाँ से” मैंने कहा,
“जी” हरि साहब ने कहा,
तभी मेरी नज़र एक जगह पड़ी, वहाँ दोनों औरतें खड़ी थीं! अपना सर हाथों में लिए!
मै उनकी ओर चल पड़ा, शर्मा जी चलने लगे तो मैंने उनको रोक दिया, मै अकेला ही जाना चाहता था वहां, मैंने हाथ के इशारे से उनको रोक दिया और फिर वापिस शंकर के यहाँ भेज दिया, मै अब उन औरतों की तरफ बढ़ने लगा, वे दोनों औरतें मुड़ीं और आगे चलने लगीं, जैसे मुझे ही लेने आई हों! वो आगे चलती रहीं और मै उनके पीछे! मुझे जैसे सम्मोहन पाश में जकड़ लिया था उन्होंने, सच कह रहा हूँ, उस समय मै सारी सुध-बुध खो बैठा था! बस उनके पीछे पीछे पागल सा चले जा रहा था, और फिर वो कुआँ आया, कुँए में से जैसे पानी बाहर आ रहा था, बहता पानी मेरे जूतों से टकरा रहा था, मै जैसे किसी और की लोक में विचरण करने लगा था, प्रेतलोक में जैसे! कुआँ भी पार कर लिया और फॉर मैंने ज़मीन पर तड़पती हुई मछलियाँ देखीं! जैसे उनको पानी से निकाल कर बाहर छोड़ दिया गया हो! वो मुड-मुड कर उछल रही थीं, विभिन्न प्रकार की मछलियाँ! सभी बड़ी बड़ी! मै एकटक उनको देखता रहा! धप्प-धप्प की आवाज़ आ रही थी उन मछलियों की, जब वो नीचे गिरती थीं! बड़ा ही अजीब सा दृश्य था!
वे औरतें और आगे चलीं, ये उन खेतों का निर्जन स्थान था, वहाँ बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, तभी वे एक बड़े से पत्थर के पीछे जाकर गायब हो गयीं, मै वहाँ उस पत्थर के सामने गया, और क्या देखा!! जो देखा अत्यंत भयानक था! वहाँ ७ सर पड़े थे, कटे हुए, धड भी थे उनके, पेट फटे हुए थे और सर उन आतों में उलझे हुए थे! मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, उनकी भिनभिनाहट बहुत तीव्र और भयानक थीं, कुछ अन्य कीड़े भी लगे थे वहाँ! एक दूसरे पर चढ़े हुए! चार सर औरतों के थे और तीन सर पुरुषों के! सभी जीवित! एक एक करके सभी मेरा नाम पुकारे जा रहे थे! मै जैसे जड़ता से बाहर निकला! तभी एक औरत का धड़ खड़ा हुआ, जैसे नींद से जागा हो! सभी कटे सर चुप हो गए, केवल एक के अलावा, वो सर उसी धड़ का था!
“कौन है तू?” उस सर ने कहा,
मैंने अपना नाम बता दिया!
“क्या करने आया है?” उसने पूछा,
मै चुप रहा!
”जल्दी बता!” उसने धमका के पूछा,
मैंने कारण बता दिया!
तभी सभी कटे सर अट्टहास कर उठे! और एक एक करके खड़े हो गए! चौकड़ी मार के बैठ गए, अपने हाथों से आंते हटायीं उन्होंने अपने अपने सर पर उलझी हुई! मेड की पिचकारियाँ छूट पड़ीं आँतों से, कुछ मेरे जूते से भी टकराई, मक्खियों का झुण्ड भाग उठा एक पल को!
“चल! भाग जा यहाँ से!’ एक पुरुष के सर ने कहा,
“नहीं!” मैंने कहा,
“नहीं मानेगा?” उसने धमकाया मुझे!
“नहीं!” मैंने कहा,
“सोच ले, दुबारा नहीं कहूँगा!” उसने चुटकी मार के कहा,
नहीं जाऊँगा” मैंने कहा,
“ठीक है, तो अब देख!” उसने कहा,
तभी धूल का गुबार उठा और मेरे चेहरे से टकराया! धूल से सन गया मै! मैंने आँखें खोलीं, सब गायब! सब गायब! वहाँ केवल बड़े बड़े विषधर! फुफकारते विषधर! तभी वे आगे बढे और मुझे घेरे में डाल लिया, ले लिए! मेरी पिंडलियों पर उनकी फुफकार पड़ने लगी! गर्म और विष भरी!
अब मैंने ताम-मंत्र का जाप किया! और नीचे झुक कर मिटटी उठायी और अभिमंत्रित कर उन सर्पों पर बिखेर दी! वे एक क्षण में श्वेत हुए और धुंध के सामान लोप! मायापाश था वो! वहाँ अब कोई कीड़ा नहीं, ना ही कोई मक्खी! सब लोप हो गया!
मैंने सामने देखा, सामने वही दोनों औरतें खड़ी थीं! मै दौड़ पड़ा उनकी तरफ! मै आ गया उनके पास! अब पहली बार उनके चेहरे पर शांत भाव आये और होठों पर मुस्कराहट!
“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,
“भामा!” एक ने कहा,
“शामा” दूसरी ने कहा,
भामा और शामा!
“बहनें हो?” मैंने पूछा,
मैंने ऐसा इसलिए पूछा क्योंकि दोनों की शक्लें हू-ब-हू एक जैसी ही थीं!
“हाँ!” दोनों ने कहा,
अब कुछ बात बनी थी! वे बातचात करने को तैयार लगीं!
“तुम क्यों आती हो यहाँ?” मैंने पूछा,
“भेरू बाबा आने वाला है” भामा बोली,
“आने वाला है?” मैंने आश्चर्य से कहा,
“हाँ, आने वाला है” वो बोली,
“कौन है ये भेरू बाबा?” मैंने पूछा,
“हमारा मरद” उसने कहा,
“मरद( मर्द)?” मैंने विस्मित हो कर कहा,
“हाँ” वो बोली,
‘तो तुम्हे किसने बलि चढ़ाया?” मैंने पूछा,
“भेरू बाबा ने” वो बोली,
“भेरू बाबा ने बलि चढ़ाया? किसलिए?” मैंने पूछा,
“अपने गुरु के लिए” वो बोली,
“कौन गुरु?” मैंने पूछा,
“नौमना बाबा” उसने बताया,
नौमना बाबा! नौ मन वाला बाबा! भार की एक देसी इकाई है मन, अर्थात चालीस किलो, नौ से गुणा करो तो तीन सौ साठ किलो! इतना भारी-भरकम बाबा! नौमना बाबा! कैसा होगा वो बाबा! विकराल स्वरुप! साक्षात यमपाल! बड़ी हैरत हुई मुझे!
“किसलिए चढ़ाया बलि?” मैंने पूछा,
“बाबा को प्रसन्न करने के लिए” अब शामा बोली,
और तुम राजी थीं?” मैंने पूछा,
“प्रसन्नता से” वे बोलीं,
“अच्छा! तो नौमना बाबा कहाँ है?” मैंने पूछा,
“अपने वास में” वो बोली,
“और कहाँ है वास?” मैंने पूछा,
“नदी के पार” वे बोलीं, इशारा करके!
“वो मंदिर?” मैंने पूछा,
“नहीं, मंदिर के पास हमारा वास है, भेरू बाबा का वास” वे बोलीं,
उलझी हुई पहेली! मै भेरू को अंतिम लक्ष्य मान रहा था, लेकिन असल किरदार तो नदी के पार था! नौमना बाबा!
“भेरू कहाँ है, तुमने बताया कि आने वाला है?” मैंने पूछा,
“नौमना बाबा के पास!” वो बोली,
“क्या करने?” मैंने पूछा,
“पूजा, पंचम-पूजा!” वो मुस्कुरा के बोली,
पंचम-पूजा! प्रबल तामसिक पूजा! महातामसिक कहना उचित होगा! इक्यावन बलियां! नौमना सच में ही सिद्ध होगा! अवश्य ही!
“कोठरा पूज लिया?(एक तामसिक पूजन एवं भाषा)” मैंने पूछा,
“तीज पर पूजा था” उसने कहा,
मैंने हिसाब लगाया, आश्विन की तीज गए नौ दिन बीते थे!
“अब क्या करेगा ये नौमना बाबा?” मैंने पूछा,
“धाड़ प्रज्ज्वलित करेगा!” उसने बताया,
धाड़! अर्थात वर्ष भर के लिए शक्ति-संचार! कमाल की बात थी! आज धाड़ प्रज्ज्वलित नहीं की जाती, मैंने हिसाब पुनः लगाया, उनके हिसाब से वे चार सौ वर्ष पहले जीवित थे! भेरू, खेचर, शामा, भामा और वो नौमना!
“अच्छा! मुझे उस जगह बाग़ में किसने धक्का दिया था?” मैंने पूछा,
“किरली ने” वो बोली,
“कौन किरली?” मैंने पूछा,
“खेचर की औरत” उसने बताया,
“किसलिए?” मैंने पूछा,
“उसका मंदिर है वहाँ” उसने बताया,
ओह! ये थी वजह! मै समझ गया!
इस से पहले मै कुछ और पूछता, वो झप्प से लोप हो गयीं!
मै लौटा वहाँ से, अब एक और स्थान पर जाना था! नौमना बाबा के स्थान पर!
मै तैयार था!
मै वापिस आया, सीधे शर्मा जी और हरि साहब के पास, शर्मा जी वहाँ से उठ कर मुझे देख आगे आये, मैंने कहा, “इनसे बोलिए कि हमको आज फिर उसी स्थान पर जाना है जहां आज गए थे, पुराने मंदिर के पास, अब कि बार नदी पार करनी है”
“अभी कह देता हूँ” वे बोले,
और फिर शर्मा जी ने सारी बात उनको बता दी, वे तैयार हो गए और हम सब गाड़ी में बैठ, चल पड़े वहां से, नौमना बाबा का स्थान देखने!
“कोई सुराग हाथ लगा है गुरु जी?” क़य्यूम भाई ने पूछा,
“हाँ, ये सुराग ही है” मैंने कहा,
गाड़ी सर्राटे से भागी जा रही थी नदी की तरफ!
“क्या मसला है गुरु जी?” हरि साहब बे पूछा,
“बेहद उलझा हुआ और खतरनाक मसला है हरी साहब, सही वक़्त पर मै आ गया, नहीं तो यहाँ कोई अनहोनी हो जाती” मैंने कहा,
“अरे बाप रे” उनके मुंह से निकला,
“सही वक़्त पर आ गया मै” मैंने कहा,
“आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुरु जी, ऐसे ही सर पर हाथ रखे रहें” वे बोले,
“अभी कहानी आरम्भ हुई है, अंत कहाँ है ये मुझे अब भी नहीं पता हरी साहब” मैंने कहा,
“अब आप है यहाँ, अब कोई चिंता नहीं” हरी साहब हाथ जोड़ कर बोले,
मै चुप रहा, कुछ नहीं बोला,
हमको नदी के पार जाना था, अतः एक नया ही रास्ता लिया गया था, और किसी तरह करके हम वहाँ पहुँच गए, पथरीले रास्ते पर गाड़ी भागने लगी, भागने क्या, हिचकोले खाती हुई अपनी मजबूती का इम्तिहान देने लगी थी!
और हम वहाँ पहुँच गए जहां जाना था, यहाँ खंडहर थे, काफी विशाल क्षेत्र था, निर्जन, किसी समय में जगमग रहने वाला आज निर्जन पड़ा था, शहर से दूर, परित्यक्त, अब वहाँ इंसानों का बसेरा नहीं, कीड़े-मकौडों और साँपों आदि का स्वर्ग था ये अब! मैंने वो खंडहर देखे अपने किसी समय में भव्य होने के प्रमाण शेष बचे भग्नावशेषों से पता चल रहा था! मै आगे बढ़ा और अपने साथ शर्मा जी को लिया, बाकी उन दोनों को गाड़ी में ही बैठने को कह दिया, वे गाड़ी में बैठ गए!
“आइये” मैंने शर्मा जी से कहा,
“जी चलिए” वे बोले,
हम दोनों आगे बढ़ चले,
“तो ये है नौमना बाबा का स्थान!” मैंने कहा,
मै आगे चला,
आगे दो काले सर्प-युगल प्रणय में सलिंप्त थे, मैंने हाथ जोड़े और अपना मार्ग बदल लिया, वे प्रणय में ही व्यस्त रहे, मै अपने दूसरे मार्ग पर प्रशस्त हो गया, आगे चलता रहा, शर्मा जी को हाथ के इशारे से आगे बुलाया, वे आगे आ गए,
“यहाँ कुछ अजीब दिख रहा है?” मैंने पूछा,
“क्या अजीब?” उन्होंने आसपास देख कर कहा,
“यहाँ ये जो खंडहर हैं छोटे छोटे, ये आठ हैं, एक दूसरे से कराब पचास-पचास मीटर दूर, और हम अब मध्य भाग में हैं, सभी की दूरी यहाँ से लगभग समान है!” मैंने कहा,
“अरे हाँ!” वे बोले,
तभी मैंने शर्मा जी का कन्धा पकड़ते हुए एक तरफ खींच लिया, वहाँ से एक गोह गुजर रही थी, मुंह में एक पक्षी को लिए हुए!
“गोह” वे बोले,
“हाँ” मैंने कहा,
“हाँ, तो देखा ये स्थान?” मैंने अपनी बात वहीँ से आरम्भ की जहां छोड़ी थी!
“हाँ, लेकिन अजीब नहीं है इसमें कुछ?” वे बोले,
“अब देखो, अज से चार सौ वर्ष पहले ये बरसाती नदी भी यही होगी, या कहीं आसपास बहती होगी, उसमे बढ़ भी आती होगी, तो बाढ़ आने के खतरे से बचने के लिए यहाँ ये भवन निर्माण कैसे किया होगा?” मैंने पूछा,
“हां” वे बोले,
“तो इसका अर्थ ये हुआ कि हम किसी या तो उस समय की पहाड़ी या किसी ऊंचे टीले पर खड़े हैं आज वर्तमान में” मैंने बताया,
“हाँ, संभव है” वे बोले,
अभी मै बात आगे बढाता कि मुझे वहाँ किसी की पदचाप सुनाई दी, तेज तेज क़दमों से कोई चहलकदमी कर रहा था! लेकिन दिख नहीं रहा था, मैंने तभी कलुष मंत्र का संधान कर अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! आँखें खोलीं तो सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया! मैंने आगे पीछे देखा, कोई नहीं था, तभी शर्मा जी ने कुछ देखा और चुटकी मार कर मेरा ध्यान उस तरफ किया! मैंने वहीँ देखा, ये सीढियां थीं, और उस पर बीच में से चिरी एक औरत थी, वो कलेजे तक चिरी हुई थी, अङ्ग बाहर निकल कर झूल रहे थे, उसका आधा हिस्सा आगे और आधा हिस्सा पीछे ढुलक रहा था! उसके हाथ में एक थाल सा कोई बर्तन था,
“भाग जाओ!” एक आवाज़ आई!
मैंने चारों तरफ से देखा, कोई नहीं था वहाँ, बस वही चिरी हुई औरत थी जो सीढ़ियों पर खड़ी थी! और वो बोल नहीं सकती थी!
“कौन है?” मैंने चिल्ला के पूछा,
“भाग जाओ यहाँ से” फिर आवाज़ आई,
“कौन है, सामने आओ?” मैंने भी चिल्ला के कहा,
तभी उस औरत ने थाल मेरी तरफ फेंका, थाल में सूखी हुई अस्थियाँ, और मछलियाँ पड़ी थीं!
“भाग जाओ!” फिर से आवाज़ आई!
लेकिन वहाँ कोई नहीं था, कोई नहीं आया!
वहाँ केवल हम तीन ही थे!
रहस्य के गुरुत्वाकर्षण से मेरे पाँव जैसे भूमि में समा गए थे!
“चले जाओ” फिर से आवाज़ आई,
“जो भी है, सामने आये” मैंने कहा,
कुछ पल शांति!
“चले जाओ” फिर से आवाज़ आई, इस बार आवाज़ पीछे से आई थी, हम दोनों ने फ़ौरन ही पीछे मुड़कर देखा, वहाँ कोई नहीं था, एक जंगली पेड़ था वहाँ और कुछ बड़े बड़े पत्थर, और कुछ भी नहीं, और कुछ था भी तो कलुष-मंत्र की जद में नहीं था वो!
अब मैंने सामने देखा, चिरे हुए सर वाली औरत भी गायब थी और वो थाल और सूखी हुई अस्थियाँ और मछलियाँ भी!
“यहाँ एक गंभीर खेल खेला जा रहा है शर्मा जी!” मैंने कहा,
“हाँ गुरु जी” उन्होंने कहा,
“कोई हमे यहाँ से भगा देना चाहता है, लेकिन मै नहीं हटने वाला!” मैंने कहा,
“कौन है यहाँ?” अब शर्मा जी ने आवाज़ लगाई,
मैंने आसपास एख, कोई नहीं था वहाँ!
सहसा, हवा में से एक पाँव गिरा, एक कटा हुआ पाँव, पाँव में पायजेब थी, अतः ये पाँव किसी स्त्री का था, घुटने से नीचे तक कटा हुआ! बिलकुल मेरे सामने! मै और शर्मा जी पीछे हट गए!
तभी एक और पाँव गिरा, ये दूसरा पाँव था, उसी स्त्री का, पायजेब पहले, दोनों पाँव एक दूसरे से साथ सट गए थे!
“भाग जाओ यहाँ से!” अबकी बार एक औरत का स्वर सुनाई दिया!
“मै नहीं जाऊँगा, मै नहीं डरता, सामने आओ मेरे, सम्मुख बात करो मुझसे!” मैंने अब ज़िद में आकर कहा,
दोनों कटे पाँव गायब हुए उसी क्षण और मेरे समाख एक नग्न स्त्री प्रकट हो गयी, उसके शरीर पैर न कोई आभूषण था, नो कोई रक्त के निशान बस उसकी छाती पर ऊपर गले से नीचे एक गोदना था, ये गोदना ऐसा था जैसे किसी का परिचय लिखा गया हो, वो स्त्री बहुत सुंदर और शांत थी, मुझे भी भय नहीं लगा उस से! ना जाने क्यों!
“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,
“भाभरा” उसने मंद स्वर में कहा,
“कौन भाभरा?” मैंने पूछा,
“खेचरी” उसने कहा,
अब मै समझ गया, खेचर की औरत! उसकी पत्नी!
मैंने उसको ऊपर से नीचे तक देखा!
लम्बा-चौड़ा बदन, बलिष्ठ एवं गौर-वर्ण, अत्यंत रूपवान! उसकी भुजाएं मेरी भुजाओं से भी अधिक मोटी और बलशाली थीं!
“जाओ, चले जाओ यहाँ से” उसने कहा,
“क्यों?” मैंने पूछा,
“भेरू बाबा आने वाला है” उसने बताया,
“तो?” मैंने पूछा,
