वर्ष २०१० गुना मध्य...
 
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वर्ष २०१० गुना मध्य प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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थोड़ी देर में चाय आ गयी, हम चाय पीने लगे, हरि साहब गुना शहर के बारे में बातें करने लगे, कुछ इतिहास और कुछ राजनीति की बातें आदि, चाय समाप्त हुई तो मैंने और शर्मा जी ने बाहर घूमने की बात कही, उन्होंने भी साथ चलना ठीक समझा, आखिर ये निर्णय हुआ कि वापसी में हम क़य्यूम भाई के घर से होते हुए वापिस आ जायेंगे, हम बाहर निकल आये!

पुराने मकान, बड़े बड़े! इतिहास समेटे हुए! इतिहास के मूक गवाह! शहर जैसे अभी भी डेढ़ सौ वर्ष पीछे चल रहा था! पुराने खरंजे, ऐसे जैसे किसी विशेष प्रयोजन हेतु बिछाए गए हों! उनसे टकराते हुए जूते और जूतों की आवाज़, ऐसी कि जैसे घोडा बिदक गया हो कोई! पाँव पटक रहा हो अपने! एक पान की दुकान पर रुके हम और मैंने एक पान लिया, सादी पत्ती और गीली सुपारी का! ऊपर से थोडा सा और तम्बाकू डलवा लिया, पान खाया तो ज़र्दे की खुशबू उड़ चली! जैसे क़ैद से आज़ाद हो गयी हो! पान बेहद बढ़िया था! बनारसी पत्ता तो मिला नहीं, देसी पत्ते में ही बनवाया था! मजा ही मजा!

खैर, बाज़ार से गुजरे, वही पुराना देहाती बाज़ार! वही दिल्ली के किनारी बाज़ार और आगरा के बाज़ार जैसा! शानदार!

हम चलते गए, चलते गए क्या घूमते गए, और फिर वापसी की राह पकड़ी! वापसी में क़य्यूम भाई के घर पहुंचे हम! क़य्यूम भाई घर पर ही मिले, हमे देख बड़े खुश हुए और बेहद सम्मान के साथ हमे अन्दर ले गए घर में! घर में चाय बनवाई गयी, हालांकि दूध के लिए पूछा था लेकिन दूध संभालने की जगह नहीं थी पेट में! मिठाई आदि खायी हमने! कुल मिलकर क़य्यूम भाई ने मजे से बाँध दिए! क़य्यूम भाई को भी रात के विषय में बता दिया हमने कि जांच करने जायेंगे और दस बजे का वक़्त सही रहेगा, उनको तैयार रहने को कहा तो उन्होंने हामी भर दी, अब रात में हम चारों फिर से उन्ही खेतों पर जाने वाले थे, जांच करने!

रात घिरी, दौर-ए-जाम शुरू हुआ, साथ में क़य्यूम भाई के घर से आया हुआ भोजन भी किया! लज़ीज़ भोजन था, देसी मुर्गा और पूरा देसी घी में बना हुआ! ज़ायका ऐसा कि इंसान अपनी ऊँगली ही चबा जाए! और फिर बजे दस!

‘चलिए क़य्यूम भाई” मैंने कहा,

“जी चलिए” वे बोले,

वो उठे और गाड़ी लेने चले गए, यहाँ हरि साहब ने नमक की थैली और एक बड़ी टोर्च ले ली! मैंने अपने तंत्राभूषण धारण किये और शर्मा जी को भी धारण करवाए! कुछ एक मंत्र जागृत किये और फिर हम चल पड़े, गाड़ी आ गयी थी बाहर, हम गाड़ी में बैठे और चल दिए उसी ज़मीन के लिए जहां कुछ राज दफ़न थे! कुछ अनजाने राज!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सवा दस बजे हम उसी ज़मीन के पास खड़े थे, वातावरण में भयावह शान्ति पसरी थी! कोने कोने में सन्नाटे के गुबार छाये थे! दूर कहीं कहीं सरकारी खम्भों पर लटके बल्ब जल रहे थे, अपने पूरे सामर्थ्य के पास, लेकिन कीट-पतंगों की मित्रतावश अपनी रौशनी खोने लगे थे, कोई तेज और कोई बिलकुल ही धूमिल!

टोर्च जलाई हरि साहब ने, सहसा एक जंगली बिल्ली हमारे सामने गुर्रा के चली गयी! शायद दो थीं या किसी शिकार के पीछे लगी थी वो! हम आगे बढ़ चले, रास्ता बनाते हुए हम उस ज़मीन के प्रवेश द्वार पर आ पहुंचे, कोई लोहे की कंटीली तारों वाली या ईंट की पक्की चारदीवारी नहीं थी वहाँ, बस जंगली पेड़-पौधों और नागफनी से ही एक दीवार सी बना दी गयी थी, यही थी वो चारदीवारी! ये बहुत दूर तलक चली गयी थी! हम अन्दर चले टोर्च की रौशनी के सहारे और फिर अन्दर आ गए, अन्दर अभी चूल्हा जल रहा था, शायद दूध उबल रहा था, हरि साहब ने शंकर को आवाज़ लगाई, शंकर अन्दर से आया भागा भागा, उसने आते ही चारपाई बिछाई और हम उस पर बैठ गए, मैंने तीन जगह निश्चित कर के रखी थीं, जहां मुझे जांच करनी थी, एक अमलतास के पेड़ के पास, एक केले-पपीते के पेड़ों के बीच और एक कुँए के पास, यहीं से कुछ सुराग मिलना था किसी दफ़न राज का!

“शर्मा जी, वो नमक की थैली ले लीजिये, और टोर्च भी” मैंने कहा,

उन्होंने टोर्च और वो नमक की थैली ले ली अपने हाथों में और हम वहाँ से हरि साहब और क़य्यूम भाई को बिठाकर चल दिए उन स्थानों के लिए!

सबसे पहले मै उस अमलतास के पेड़ के पास पहुंचा, वहाँ उसका एक चक्कर लगाया और महा-भान मंत्र चलाया और कुछ चुटकी नमक वहाँ बिखेर दिया फिर पेड़ के इर्द गिर्द एक घेरा बना दिया, यहाँ का काम समाप्त होते ही मै कुँए की तरफ निकल पड़ा, कुँए के पास भी यही क्रिया दोहराई और फिर वहाँ से निकल कर केले-पपीते के पेड़ों के बीच आ गया, तभी कुछ चमगादड़ जैसे आपस में भिड़े और नीचे गिर गए, शर्मा जी ने उन पर प्रकाश डाला तो वे नीचे ही पड़े थे और अब रेंग कर एक दूसरे से विपरीत दिशा में जा रहे थे!

मैंने यहाँ भी वही क्रिया दोहराई और फिर महा-भान मंत्र चलाया! महा-भान मंत्र चलाते ही एक धुल का गुबार मेरे चेहरे से टकराया, जैसे किसी ने ज़मीन में लेटे हुए मेरी आँखों में धूल फेंक दी हो! शर्मा जी चौंक गए! उन्होंने मुझे फ़ौरन ही रुमाल दिया, मैंने रुमाल से अपना चेहरा और आँखें साफ़ कीं, लेकिन मिट्टी मेरी आँखों में पद चुकी थी और अब जलन हो रही थी, छोटे छोटे कंकड़ आँखों में किरकिरी बन चुभ रहे थे! मै हटा वहाँ से और फिर किसी तरह शंकर के


   
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श्रीशः उपदंडक
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पास आया, पानी मंगवाया और आँखें साफ़ कीं, साफ़ होते ही राहत हुई! नथुनों में भी मिट्टी भर गयी थी, वो भी साफ़ की!

मिट्टी किसने फेंकी?

यही प्रश्न अब मेरे दिमाग में कौंध रहा था! जैसे कोई पका हुआ फोड़ा फूटने को लालायित हो पूरी जलन के साथ!

शर्मा जी ने ये बात वहाँ सब को बता दी, वे भी चौंक पड़े! दिल धड़क उठे दोगुनी रफ़्तार से सभी के! कुछ न कुछ तो है वहाँ! पेड़ों के बीच!

अब मैंने कलुष-मंत्र का ध्यान किया, और फिर संधान कर अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए! और अब हम दोनों चल पड़े उन्ही पेड़ों के पास! हम वहाँ पहुंचे, अन्दर आये और उस स्थान को देखा! वहाँ एक गड्ढा हुआ पड़ा था, कोई चार फीट की परिमाप का! मै और शर्मा जी वहाँ बैठ गए उस गड्ढे के पास! उसमे रौशनी डाली, वहाँ केश पड़े थे! स्त्रियों के केश! मैंने शर्मा जी को और शर्मा जी ने मुझको देखा! ये कलुष मंत्र के प्रभाव से हुआ था, लेकिन कोई भान नहीं हो सका! कुछ समझ नहीं आ सका कि ये गड्ढा किसलिए और ये केश? क्या रहस्य?

तभी पीछे से आवाज़ आई! कर्कश आवाज़, किसी वृद्ध स्त्री की! जैसे कराह रही हो! हमने पलट के देखा! रौशनी मारी तो पीछे एक पेड़ के सहारे कोई छिपा हुआ दिखाई दिया! करीब दस बारह फीट दूर!

“कौन है वहाँ?” मैंने पुकारा,

कोई उत्तर नहीं!

“कौन है? सामने आओ?” मैंने फिर से कहा,

वो जस की तस!

मै उठा और उसकी तरफ चला, कोई चार फीट तक ही गया होऊंगा कि फिर से कराहने की आवाज़ आई, ये आवाज़ वहाँ से नहीं आई थी, ये मेरी बायीं तरफ से आई थी, मैंने रौशनी मारी, वहाँ कोई नहीं था!

मै फिर आगे बढ़ चला! शर्मा जी मेरे साथ ही थे!

मै आगे बढ़ा, उस पेड़ से करीब दो फीट दूर रुक गया, वहाँ जो कोई भी था उसका कद मुझसे ऊंचा था! मै उसके कंधे तक ही आ पा रहा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“कौन है?” मैंने कहा,

“कोई उत्तर नहीं!

मै भाग के उसके पास गया और उसका हाथ जैसे ही पकड़ा उसने मुझे उसी हाथ से धक्का दिया और मै पीछे गिर पड़ा! मेरी कमर पपीते के एक पेड़ से टकराई, शर्मा जी फ़ौरन मेरे पास आये और मुझे खड़ा किया, मै संयत हुआ और फिर सामने देखा, सामने कोई नहीं था! वहाँ जो कोई भी था वो जा चुका था!

ये क्या था? कोई चेतावनी? कोई बड़ा संकट? फिर क्या? अब दिमाग में बुलबुले फूटने लगे! प्रश्नों की रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी पतंगें उड़ने लगी मेरे मस्तिष्क के पटल में! मस्तिष्क के आकाश में!

ये सब क्या है???

 

मै फिर से उसी पेड़ की तरफ बढ़ चला, उसके पीछे गया, लेकिन वहां कोई नहीं था! मैंने चारों ओर देखा, कोई भी नहीं! मैंने अब एक मुट्ठी नमक लिया और वहीँ ज़मीन पर एक मंत्र पढ़ते हुए फेंका! जैसे ज़मीन हिली! जूते में कसे मेरे पाँव और अधिक पकड़ के साथ स्थिर हो गए! वहाँ जो कुछ भी था, बेहद ताक़तवर और पुराना था!

“कौन है यहाँ?” मै चिल्लाया,

कोई हरक़त नहीं हुई!

“कौन है?” मैंने फिर से आवाज़ मारी!

लेकिन कोई उत्तर नहीं!

“सामने क्यों नहीं आते?” मैंने कहा,

कोई नहीं आया!

“क्या चाहते हो?” मैंने जोर से कहा,

और तभी एक कपडे की बनी काली गुड़िया आकाश में से ज़मीन पर गिरी, मेरे सम्मुख! मैंने गुड़िया उठाई, उसका पेट फूला था, अर्थात, उसका पेट उसके शरीर के अनुमाप में अत्यंत दीर्घ था, मैंने दोनों हाथों से उसका पेट दबाया, तभी मुझे लगा की मेरे हाथों में कुछ द्रव्य आ गया है, हाथ गीले हो गए थे, मैंने टोर्च की रौशनी में अपने हाथ दखे, ये रक्त था! मानव रक्त!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खेल अब खूनी हो चला था!

“सामने आओ मेरे?” मैंने कहा,

कुछ पल गहन शान्ति! केवल झींगुरों की ही आवाज़, मंझीरे जैसे डर गए थे!

“सामने क्यों नहीं आते?” मैंने कहा,

कोई नहीं आया!

“तो ऐसे नहीं मानोगे तुम?” मैंने अब क्रोध से कहा,

तभी गुड़िया में आग लग उठी! मैंने उसे नीचे फेंक दिया! वो धू धू कर जल उठी! और धीरे धीरे राख हो गयी!

अब बताता हूँ मित्रगण! ये पल मेरे लिए अत्यंत भयानक था! जो अशरीरी आग पर नियंत्रण कर लेता है उसको हराना इतना आसान नहीं! और यही हुआ था यहाँ, यही देखा था मैंने!

यहाँ न भूत था और न कोई प्रेत अथवा चुडैल! यहाँ कोई और था! उसने अपनी सत्ता दिखा दी थी मुझे!

“मेरे समक्ष आओ” मैंने चिल्ला के कहा,

कोई नहीं आया!

अब मै वहीँ बैठ गया, आसन लगाया, और अपना एक नथुना कनिष्ठा ऊँगली से बंद कर मैंने महापाश-मंत्र पढ़ा! अभी आधा ही पढ़ा था कि मुझे सामने दो औरतें दिखाई दीं! वो वहीँ दूर खड़ी थीं करीब पंद्रह फीट दूर! नग्न, चेहरे पर क्रोध का भाव्लिये, हाथों में कटार लिए, केश उनके घुटनों तक थे, साक्षात मृत्युदेवी जैसी थीं वो! मैंने एक बात और गौर की, उनकी ग्रीवा से रक्त बह रहा था, वो रक्त उनके स्तनों से बहता हुआ भूमि पर गिरता जा रहा था और भूमि पर कोई निशान नहीं थे! भूमि पर गिरते ही लोप हो जाता था! मेरा महापाश-मंत्र पूर्ण हुआ, मै खड़ा हो गया!

“कौन हो तुम दोनों?” मैंने पूछा,

कोई कुछ नहीं बोला उनमे से!

मैंने इशारे से शर्मा जी को अपने पास बुला लिया! वे दौड़ कर मेरे पास आ गए! उनको वहाँ देख उन औरतों ने अपनी कटार ऊपर उठा लीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“शर्मा जी, हिलना नहीं!” मैंने कहा,

वे समझ गए!

“कौन हो तुम दोनों?” मैंने पूछा,

और तब एक औरत ने कुछ कहा, मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहा उसने, बस एक दो शब्द ही सुनाई दिए, ‘त्वच’ और ‘कंठ’, दोनों ही शब्द निरर्थक थे! कोई सामंजस्य नहीं था उनमे!

“कौन हो तुम?” मैंने अब धीरे से कहा,

कोई उत्तर नहीं!

बड़ी अजीब सी स्थिति थी!

मैंने कुछ निर्णय लिया और उनकी ओर बढ़ा, जैसे ही मै उनके सामने आया कोई दो फीट दूर, तो मैंने देखा कि, उनका सर और धड़ अलग अलग थे! धड़ गोरा और सर एकदम भक्क काला! दुर्गन्ध फूट रही थी उनमे से! बहते हुए रक्त की दुर्गन्ध ने मेरा मुंह कड़वा कर दिया!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

और तभी दोनों एक दूसरे को देखती हुई हंसीं और झप्प से लोप हो गयीं! मै अवाक सा खड़ा वहाँ रह गया! जैसे मेरे कांटे में फंसी मछली मेरे पास तक आते आते आज़ाद हो गयी हो!

दुर्गन्ध भी समाप्त हो गयी! परन्तु एक बात निश्चित हो गयी! यहाँ जो भी कुछ था वो इतना सामान्य नहीं था जिसका मैंने अंदाज़ा लगाया था! यहाँ तो खौफनाक शक्तियां थीं! लेकिन कौन था जो इनको नियंत्रित कर रहा था? यही दो? नहीं ये नहीं हो सकतीं! ये तो बलि-प्रयोग की महिलायें हैं! फिर एक और बात, शंकर ने इनको कैसे देखा था? मैंने तो रक्त-रंजित देखा! ये पूछना था मुझे शंकर से ही!

मै शर्मा जी को समझाते हुए, वापिस चल पड़ा शंकर की तरफ!

 

हम सीधा शंकर के पास आये, वे सभी बड़ी बेसब्री से हमारा इंतज़ार कर रहे थे, चेहरे पर हवाइयां उडी हुईं थीं उनके!

“सब खैरियत तो है गुरु जी?” क़य्यूम भाई ने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“हाँ सब खैरियत से है” मैंने कहा,

अब उन्हें चैन पड़ा!

“शंकर?” शर्मा जी ने कहा,

“जी?” वो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया,

“तुमने जो दो औरतें देखीं थीं, वो रक्त-रंजित थीं क्या?” शर्मा जी ने पूछा,

“नहीं जी, बिलकुल नहीं” उसने कहा,

अब मुझे जैसे झटके से लगने लगे!

“एक दम साफ़ थीं वो?” मैंने पूछा,

“हाँ जी, हाँ उन्होंने पेट पर शायद कोई भस्म या चन्दन सा मला हुआ था, पक्का नहीं कह सकता” शंकर ने कहा,

“कोई हथियार था उनके हाथ में?” शर्मा जी ने पूछा,

“जी नहीं, कोई हथियार नहीं, केवल खाली हाथ थीं वो” उसने कहा,

यहाँ हरि साहब और क़य्यूम भी की साँसें रुक रुक कर आगे बढ़ रही थीं! आँखें ऐसे फटी थीं जैसे दम निकलने वाला ही हो! एक एक सवाल पर आँखें और चौड़ी हो जाती थीं उनकी!

“क्या हुआ गुरु जी?” हरि साहब ने पूछा,

“कुछ नहीं” मैंने उलझे हुए भी सुलझा सा उत्तर दिया!

“आपको दिखाई दीं वो?” अब क़य्यूम ने पूछा,

“हाँ!” मैंने कहा,

अब तो जैसे दोनों को भय का भाला घुस गया छाती के आरपार!

“क्क्क्क्क…….क्या?” हरि साहब के मुंह से निकला!

“हाँ, उनका बसेरा यहीं है!” मैंने कहा,

“मैंने कहा था न गुरु जी? यहाँ बहुत बड़ी गड़बड़ है, आप बचाइये हमे” अब ये कहते ही घबराए वो, हाथ कांपने लगे उनके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“आप न घबराइये हरि साहब, मै इसीलिए तो आया हूँ यहाँ” मैंने कहा,

“हम तो मर गए गुरु जी” वे गर्दन हिला के बोले,

“आप चिंता न कीजिये हरि साहब” मैंने कहा,

“गुरु जी, वहाँ उस पेड़ को देखें?” शर्मा जी ने याद दिलाया मुझे,

“हाँ! हाँ! अवश्य!” मैंने कहा,

हम भागे वहाँ से, उस अमलतास पेड़ की तरफ! वहाँ पहुंचे, टोर्च की रौशनी डाली वहाँ, कोई नहीं था वहाँ! हम आगे गए! मैंने रुका, शर्मा जी को रोका, कुछ पल ठहरा और फिर मै अकेला ही आगे बढ़ा, पेड़ के नीचे कुछ भी नहीं था, कुछ भी नहीं! मैंने आसपास गौर से देखा, और देखने पर अचानक ही मुझे पेड़ से दूर, चारदीवारी के पास एक आदमी खड़ा दिखा, साफ़ा बांधे! मै वहीँ चल पड़ा! वो अचानक से नीचे बैठ गया, जैसे कोई कुत्ता छलांग मारने के लिए बैठता है, मै रुक गया तभी कि तभी, जस का तस! वो नीचे ही बैठा रहा, मै अब धीरे धीरे आगे बढ़ा! और फिर रुक गया!

“कौन है वहाँ?” मैंने पूछा,

कोई उत्तर नहीं आया!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

कोई उत्तर नहीं!

अब मै आगे बढ़ा तो वो उठकर खड़ा हो गया! लम्बा! कद्दावर और बेहद मजबूत! पहलवानी जिस्म! उसने बाजूओं पर गंडे-ताबीज़ बाँध रखे थे! गले में माल धारण कर राखी थी, कौन सी? ये नहीं पता चल रहा था! कद उसका सात या सवा सात फीट रहा होगा! उम्र कोई चालीस के आसपास!

“क्या नाम है तुम्हारा?” मैंने पूछा,

कोई उत्तर नहीं!

मै आगे बढ़ा!

“जहां है, वहीँ ठहर जा!” वो गर्रा के बोला!

भयानक स्वर उसका और लहजा कड़वा! रुक्ष! धमकाने वाला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मै ठहर गया!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

“क्या करेगा जानकार?” उसने जैसे ऐसा कह कर चुटकी सी ली!

“मै जानना चाहता हूँ” मैंने कहा,

“किसलिए?” उसने पूछा,

अब इसका उत्तर मेरे पास नहीं था!

“यहाँ प्रेतों का वास है” मैंने कहा,

वो हंसा! बहुत तेज! सच में बहुत तेज!

“मै चाहता हूँ कि तुम सब यहाँ से चले जाओ, अज ही!” मैंने कहा,

“अब वो गुस्सा हो गया! कूद के मेरे सामने आ खड़ा हुआ! मरे सर पर अपना भारी भरकम हाथ रखा! और मुझे हैरत! मेरे तंत्राभूषण भी नहीं रोक पाए उसे मुझे छूने से! ये कैसा भ्रम??

“ये भूमि हमारी है! पार्वती नदी तक, सारी भूमि हमारी है!” उसने मुझे दूर इशारा करके बताया!

“कैसी भूमि?” मैंने उसका हाथ अपने सर से नीचे किया और पूछा,

“ये भूमि” उसने अपने पैर से भूमि पर थाप मारते हुए कहा!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

“मेरा नाम खेचर है! ये मेरा ही स्थान है!” उसने कहा,

स्थान? यही सुना न मैंने??

”स्थान? कैसा स्थान?” मैंने पूछा,

“ये स्थान!” उसने फिर से इशारा करके मुझे वही भूमि दिखा दी!

मै हतप्रभ था!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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हतप्रभ इसलिए कि मेरे सभी मंत्र और तंत्राभूषण, सभी शिथिल हो गए थे! खेचर के सामने शिथिल! दो ही कारण थे इसके, या तो खेचर स्वयंभू एवं स्वयं सिद्ध है अथवा उसको किसी महासिद्ध का सरंक्षण प्राप्त है! ये स्थान या तो परम सात्विक है या फिर प्रबल तामसिक! जो भी तत्व है यहाँ, वो अपने शीर्ष पर है! एक बार को तो मुझे भी आखेट होने का भय मार गया था, उसी खेचर के सामने जिसके सामने मै खड़ा था!

“सुना तूने?” अचानक से खेचर ने कहा,

“हाँ” मैंने कहा,

“ये मेरा स्थान है, अब तुम यहाँ से चले जाओ” उसने स्पष्ट शब्दों में अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी!

“मै नहीं जाऊँगा खेचर!” मैंने भी डटकर कहा!

“मारा जाएगा! हा हा हा हा!” उसने ठहाका मार कर कहा!

“कौन मारेगा मुझे?” मैंने पूछा,

उसका ठहाका बंद हुआ उसी क्षण!

वो चुप!

मै चुप!

और फिर से मैंने अपना प्रश्न दोहराया!

“कौन मारेगा मुझे?” मैंने पूछा,

वो चुप!

और फिर मेरे देखते ही देखते वो झप्प से लोप हो गया!

मेरा प्रश्न अब बेमायनी हो गया था!

“खेचर?” मैंने पुकारा!

कोई उत्तर नहीं!

“खेचर?” मैंने फिर से पुकारा!

अबकी बार भी कोई उत्तर नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो चला गया था!

अब मै पलटा वहां से और शर्मा जी के पास आया, वे भी हतप्रभ खड़े थे! बड़ी ही अजीब स्थिति थी! अभी तक कोई ओर-छोर नहीं मिला था! धूल में लाठी भांज रहे थे हम!

“चला गया?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

और फिर मैंने उसी पेड़ को देखा जहां कुछ देर पहले खेचर आया था! वहाँ का माहौल इस वर्तमान में भूतकाल की गिरफ्त से आज़ाद हो चुका था! उसके पत्ते बयार से खड़खडाने लगे थे! वर्तमान-संधि हो चुकी थी!

“चलो, अब कुँए पर चलो” मैंने कहा,

“चलिए” वे बोले,

हम कुँए पर पहुंचे! कुँए में से भयानक शोर आ रहा था! जैसे बालक-बालिकाओं की पिटाई हो रही हो! उनका क्रंदन कानफोड़ू था! मैंने और शर्मा जी ने कुँए में झाँक कर देखा! वहाँ जो देखा उसको देखकर आँखें चौड़ी हो गयीं! साँसें बेलगाम हो गयीं! अन्दर लबालब सर कटे पड़े थे, बालक-बालिकाओं के! और सभी अपनी जिव्हा निकाल तड़प के स्वर में चिल्ला रहे थे! रक्त की धाराएं एक दूसरे पर टकरा रही थीं! हमसे कोई छह फीट दूर! अत्यन्त भयावह दृश्य था! मैंने गौर किया, कुछ सर दो टुकड़े थे बस हलके से एक झिल्ली से चिपके थे, वो चिल्ला तो नहीं रहे थे, हाँ, सर्प की भांति फुफकार रहे थे, अपने नथुनों से!

मैंने तभी ताम-मंत्र का संधान किया, और नीचे से मिट्टी उठाकर वो मिट्टी अभिमंत्रित की और कुँए में डाल दी, विस्फोट सा हुआ! और वहाँ की माया का नाश हुआ! अब कोई सर नहीं बचा था वहाँ, पानी में नीचे हलचल थी, मैंने टोर्च की रौशनी मारी पानी के ऊपर तो वहाँ पानी के ऊपर कुछ तैरता हुआ दिखाई दिया! मैंने ध्यान से देखा, ये वही दो औरतें थीं! कमर तक पानी में डूबी हुईं और अपना अपना सर अपने हाथों में लिए! एक बार को तो मै पीछे हट गया! बड़ा ही खौफनाक दृश्य था! उनके कटे सर एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे थे! अजीब सी भाषा में! न डामरी, न कोई अन्य भाषा, ऐसे जैसे कोई अटके हुए से शब्द, कुछ कराह के शब्द जिसका केवल स्वर होता है और कोई व्यंजन नहीं!

“चलो यहाँ से” मैंने कहा,

शर्मा जी पीछे हट गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम वापिस चल पड़े, शंकर के कमरे की तरफ, और तभी पीछे से मुझे किसी ने आवाज़ दी, मेरा नाम लेकर! मै चौंक पड़ा! ठहर गया! पीछे देखा, वो खेचर था!

खेचर वहीँ खड़ा था! मै दौड़ के गया वहाँ! उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी, कोई क्रोध नहीं अबकी बार!

“मेरी बात मानेगा?” उसने कहा,

“बोलो खेचर!” मैंने कहा!

“चला जा यहाँ से!” मैंने कहा,

“नहीं” मैंने कहा,

“मुझे मालूम हो गया है तू क्यों आया है यहाँ!” उसने मुस्कुरा के कहा,

“मै नहीं जाऊँगा फिर भी!” मैंने कहा,

“सुन, हम ग्यारह हैं यहाँ, तू एक, क्या करेगा?” उसने मुझे कहा,

“मै जानता हूँ! लेकिन मै नहीं जाने वाला खेचर!” मैंने कहा,

“तुझे काट डालेगा!” वो गंभीर हो कर बोला,

“कौन?” मैंने पूछा,

“भेरू” उसने कहा,

“कौन भेरू?” मैंने कहा,

“मेरा बड़ा भाई” उसने कहा,

“अच्छा! कहाँ है भेरू?” मैंने पूछा,

“अपने वास में” उसने कहा,

‘कहाँ है उसका वास?” मैंने पूछा,

“वहाँ, नदी से पहले” उसने इशारा करके कहा,

मै अपना मुख पूरब में करके खड़ा था, उसने अपना सीधा हाथ उठाया, यानि मेरा बाएं हाथ, मै घूम कर देखा, मात्र अन्धकार के अलावा कुछ नहीं! अन्धकार! हाँ, मै था उस समय भौतिक


   
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श्रीशः उपदंडक
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अन्धकार में! वो नहीं! वो तो अन्धकार को लांघ चुका था! अन्धकार था मात्र मेरे लिए, शर्मा जी के लिए, रात थी मात्र मेरे और शर्मा जी के लिए, खेचर के लिए क्या दिन और क्या रात! सब बराबर! क्या उजाला और क्या अन्धकार! सब बराबर!

“खेचर, मै कुछ पूछना चाहता हूँ” मैंने कहा,

“पूछ” उसने कहा,

“वो औरत कौन है?” मैंने पूछा,

मैंने पूछा और वो झप्प से लोप!

वो बताना नहीं चाहता था, या उसका ‘समय’ हो चुका था! किसी भी अशरीरी का समय होता है! वो अपने समय में लौट जाते हैं! यही हुआ था खेचर के साथ!

अब मुझे लौटना था! वापिस! सो, मै शर्मा जी को लेकर वापिस लौटा, रास्ते में कुआ आया, मै रुका और फिर टोर्च की रौशनी से नीचे देखा, पानी शांत था! वहां कोई नहीं था!

खेचर-लीला समाप्त हो चली थी अब! मैंने सभी मंत्र वापिस ले लिए! अब मेरे पास दो किरदार थे, वो औरतें और खेचर! बाकी सब माया थी! और हाँ, वो भेरू! भेरू ही था वो मुख्य जिसके सरंक्षण में ये लीला चल रही थी! लेकिन भेरू कहाँ था, कुछ नहीं पता था और अब, अब मुझे खोजी लगाने थे उसके पीछे! और ये कम आसान नहीं था! ये तो मुझे भी पता चल गया था! खेचर चाहता तो मेरा सर एक झटके में ही मेरे धड से अलग कर सकता था! परन्तु उसने नहीं किया! क्यों? यही क्यों मुझे उलझाए था अब! इसी क्यों में ही छिपी थी असली कहानी!

“आइये शर्मा जी” मैंने कहा और हटा वहाँ से,

‘जी, चलिए” वे बोले, वो भी उस समय से बाहर निकले!

हम चल पड़े वापिस!

वहीँ आ गए जहां क़य्यूम भाई और हरि साहब और शंकर टकटकी लगाए हमारी राह देख रहे थे!

“कुछ पता चला गुरु जी?” हरि साहब ने उत्कंठा से पूछा,

“हाँ, परन्तु मै स्वयं उलझा हुआ हूँ अभी तो!” मैंने हाथ धोते हुए कहा,

हाथ पोंछकर मै चारपाई पर बैठ गया, शंकर ने शर्मा जी के हाथ धुलवाने शुरू कर दिए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“मामला क्या है?” क़य्यूम भाई ने पूछा,

“बेहद उलझा हुआ और भयानक मामला है क़य्यूम साहब” मैंने कहा,

“ओह….” उनके मुंह से निकला,

“आपका अर्थ कि काम नहीं हो पायेगा?” हरि साहब ने पूछा,

‘ऐसा मैंने नहीं कहा, अभी थोड़ा समय लगेगा” मैंने कहा,

“जैसी आपकी आज्ञा गुरु जी” बड़े उदास मन से बोले हरि साहब!

“वैसे है क्या यहाँ?” क़य्यूम भाई ने पूछा,

“ये तो मुझे भी अभी तक ज्ञात नहीं!” मैंने बताया,

मेरे शब्द बे अटपटे से लगे उन्हें, या उनको मुझ से ऐसी किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं थी!

“खेचर!” मैंने कहा,

“क..क्या?” कहते हुए हरी साहब उठ खड़े हुए!

“खेचर मिला मुझे यहाँ” मैंने कहा,

“हे ईश्वर!” वे बोले,

“क्या हुआ?” मैंने पूछा,

“गुरु जी, मरी पत्नी को सपना आया था, इसी नाम का जिक्र किया था उसने!” हरि साहब ने बताया!

कहानी में एक पेंच और घुस गया!

“सपना?” मैंने पूछा, मुझे इस बारे में नहीं बताया गया था,

“जी गुरु जी” हरि साहब बोले,

“तब तो मुझे मिलना होगा आपकी धर्मपत्नी से हरि साहब” मैंने कहा,

“अवश्य” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने घड़ी देखी, बारह चालीस हो चुके थे और अब मिलना संभव न था, अब मुलाक़ात कल ही हो सकती थी, सो मैंने उनको कल के लिए कह दिया और हम लोग फिर वहाँ से वापिस आ गए है साहब के घर!

खाना खा ही चुके थे, सो अब आराम करने के लिए मै और शर्मा जी लेटे हुए थे, तभी कुछ सवाल कौंधे मेरे मन में, मै उनका जोड़-तोड़ करता रहा, उधेड़बुन में लगा रहा! कभी कोई प्रश्न और कभी कोई प्रश्न!

मै करवटें बदल रहा था और तभी शर्मा जी बोले, “कहाँ खो गए गुरु जी?”

“कहीं नहीं शर्मा जी!” मैंने कहा और उठ बैठा, वे भी उठ गए!

“शर्मा जी, खेचर ने कहा कि वे ग्यारह हैं वहां, और हमको मिले कितने, स्वयं खेचर, एक, दो वो औरतें, तीन और एक वो जिसने मुझे धक्का दिया था, चार, बाकी के सात कहा हैं?”

“हाँ, बाकी के सात नहीं आये अभी” वे बोले,

“और एक ये भेरू, खेचर का बड़ा भाई!” मैंने कहा,

“हाँ, इसी भेरू से सम्बंधित है यहाँ का सारा रहस्य!” वे बोले,

“हाँ, ये सही कहा आपने” मैंने भी समर्थन में सर हिलाया,

“खेचर ने कहा नदी के पास उसका स्थान है, अब यहाँ का भूगोल जानना बेहद ज़रूरी है, कौन सी नदी? पारवती नदी या उसकी कोई अन्य सहायक नदी?” मैंने कहा,

“हाँ, इस से मदद अवश्य ही मिलेगी!” वे बोले,

“अब ये तो हरि साहब ही बताएँगे” मैंने कहा,

“हाँ, कल पूछते हैं उन से” वे बोले,

“हाँ, पूछना ही पड़ेगा, वहाँ खेत पैर कभी भी कोई अनहोनी हो सकती है” मैंने कहा,

“हाँ, मामला खतरनाक है वहाँ” वे बोले,

तभी वे उठे और गिलास में पानी भरा, मुझसे पूछा तो मैंने पानी लिया और पी लिया, नींद कहीं खो गयी थी, आज रात्रि मार्ग भटक गयी थी! हम बाट देखते रहे! लेट गए लेकिन फिर से सवालों का झुण्ड कीट-पतंगों के समान मस्तिष्क पर भनभनाता ही रहा! मध्य-रात्रि में नींद का आगमन हुआ, बड़ा उपकार हुआ! हम सो गए!


   
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