वर्ष २०१० गढ़-गंगा ...
 
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वर्ष २०१० गढ़-गंगा उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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दिल्ली से गढ़-मुक्तेश्वर करीब ९७ किलोमीटर पड़ता है, यदि आप दिल्ली से जाएँ तो, लखनऊ, कानपुर से आने वाला ये एक प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग है, इसी पर गढ़-गंगा के नाम से मशहुर गंगा जी का तट है, हज़ारों भक्त यहाँ नित्य स्नान हेतु आते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार अब इसका नवीनीकरण कर रही है! अत: इसकी प्रासंगकिता बढ़ गयी है!

ऐसे ही एक सिलसिले में मै यहाँ एक बार किसी कारणवश आया था, हम संध्या-समय यहाँ पहुंचे थे, यहाँ पर मुझे एक औघड़ दिगंबर नाथ से मिलना था, ये औघड़ असम से कुछ आवश्यक सामग्री इत्यादि लाया करता है और मार्ग में पड़ने वाले अपने जानकारों को वो सामग्री दिया करता है! मुझे धूनी-भस्म चाहिए थी इससे अत: मै एक रात पहले ही वहाँ पहुँच गया था! वहाँ मै अपने एक परिचित के यहाँ ठहरा था! रात्रि समय भोजनादि पश्चात मै और शर्मा जी बाहर ज़रा घूमने के लिए निकले! घूमते घूमते हम काफी आगे आ गए थे, किनारा अब शांत था, इक्का दुक्का ही लोग जज़र आ रहे थे, कुछ तांत्रिक धूनी रमाये यहाँ के जंगले में अपने चेले चपाटों के साथ दारू का आनंद ले रहे थे!

आगे गए तो रेल का पुल दिखाई दिया, एक रेलगाड़ी मंदगति से उस पर आ रही थी, गाडी के डिब्बों में जलती रौशनी का प्रतिबिम्ब नीचे पुल के किनारों एवं जल-राशि पर पड़ रहा था, लगता था मानो जैसे कोई विशाल सर्प गाडी का पीछा कर रहा हो! मै उस अजीब दृश्य को ताकता रहा जब तक ही गाडी पुल से पार न हो गयी!

तभी मुझे वहाँ किसी की खुसर-फूसर सुनाई दी, पक्का था की ये इंसानी खुसर-फुसर तो थी नहीं, काहिर मैंने ध्यान नहीं दिया, इस तरह की खुसर-फुसर किसी औघड़ के लिए नयी बात नहीं है! मै थोडा और आगे बढ़ा!

आगे बढ़ा तो खुसर-फुसर और तेज हो गयी! मै वहाँ थम गया, आसपास देखा तो केवल पेड़-पौधों और सामने अथाह जल राशि के अतिरिक्त वहाँ कुछ नहीं था!

मैंने तामिष-मंत्र पढ़ा और नैत्रों पर लगाया, आसपास देखा तो कोई नहीं! हाँ बाएं हाथ की तरफ मेरी नज़र पड़ी, वहाँ शीशम के पेड़ के नीचे कुछ हरकत सी दिखी, मै शर्मा जी के साथ वहाँ बढ़ गया! सामने तो लड़कियां खड़ी थीं, आधुनिक परिवेश में और रक्त से लथपथ! प्रतीत होता था कि किसी दुर्घटना में वो हलाक हो गयीं हों! मैंने मंत्र दुबारा पढ़ा और शर्मा जी के नेत्रों को भी सशक्त कर दिया! अब वो भी वही दृश्य देख रहे थे जो मै देख रहा था! मैंने उन लड़कियों से पूछा, : कौन हो तुम? और क्या तुम्ही हमारा पीछा कर रही थीं?"

उनमे से एक बोली, "हाँ, हमने ही पीछा किया"

"नाम क्या है तेरा?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"रचिता" उसने कहा,

"और ये?" मैंने दूसरी की तरफ इशारा करके कहा,

"काव्या है ये" उसने बताया,

"क्या चाहती हो?" मैंने कहा,

मेरा उत्तर सुन दोनों एक दूसरे को देखने लग गयीं! लेकिन बोली कुछ नहीं, मैंने कहा, "अब बोलो भी? क्या चाहिए?"

"मेरी माँ और भाई, काव्या के पिता"

"क्या मतलब? मैंने पूछा,

"उनको पकड़ लिया एक आदमी ने, बोरे में भर लिया" उसने कहा,

"तुम कैसे बची?" मैंने पूछा,

"हम किसी काम की नहीं, ये बोला वो" अब काव्या ने कहा,

मैं काम का मतलब समझ गया था, एक तांत्रिक केवल अपने काम की ही प्रेतात्मा को पकड़ता है!

"हम्म! अब कहाँ हैं वो सब?" मैंने पूछा,

"गजरौला में" उसने कहा,

"तो तुम चाहते हो कि मै उनको छुडवा दूँ उस आदमी से, यही न?" मैंने कहा,

"हाँ" वे दोनों बोलीं,

"अच्छा! तुम लोग कब 'जागे थे? कितना अर्सा हुआ?" मैंने पूछा,

"दीवाली से ४ दिन पहले" उन्होंने बताया,

अर्थात, पिछले साल दीवाली से ४ दिन पहले, अब ये अगस्त चल रहा था!

"कहीं रहते थे तुम?" मैंने पूछा,

"दिल्ली, आप भी वहाँ के हैं" उन्होंने कहाँ,

ओह! ये बेचारी इसीलिए खुसर-फुसर कर रही थीं क्यूंकि मै भी उनके ही शहर का था!

इबु-खबीस वहाँ पहुंचा और फिर उसने मचायासैला! उसके एक एक गुर्गे को ऐसा मारा ऐसा मारा कि उनको अपनी आँखों से दिखाई देना बंद हो गया! योगपाल का साफा-वाफा फेंका उसने और धक्का-मुक्की शुरू की लेकिन पीटा नहीं पीटा होता तो २


   
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श्रीशः उपदंडक
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महीनों से पहले वो अपने घुटनों पर खड़ा भी ना हो पाता! उसको एहसास कराना था करा दिया! योगपाल समझ नहीं पाया कि आखिर ये हुआ क्या! कौन आया! कौन गया! योगपाल को एकदम मेरी बात याद आई! उसने अपनी मोटर साइकिल उठायी और दौड़ा हमारे पास! बदहवास सा कच्चे रास्तों में मोटर साइकिल दौडाता हुआ आ रहा था! उसने हमारी गाडी देखि तो अपनी मोटर साइकिल वहाँ खड़ी कर दी! और हाथ जोड़ के बोला, "माफ़ कर दो साहब! माफ़ कर दो!"

"आ गयी अक्ल तुझे योगपाल!" मैंने हंस के कहा! तब तक मेरा इबु-खबीस आ चुका था! मैंने उसको वापिस कर दिया!

"हाँ जी आ गयी, आ गयी साहब!" उसने कहा,

"तो वो चीजें कहाँ हैं योगपाल?" मैंने पूछा,

"थीं तो मेरे पास ही, लेकिन आज सुबह गुरु महाराज ले गए" वो बोला,

"कहाँ हैं तेरे ये गुरु महाराज?" मैंने पूछा,

"गढ़ गए हैं, आज वो तो" वो बोला,

"चल एक काम कर, हमारे साथ बैठ और चल, हम गढ़ जा रहे हैं" मैंने कहा,

उसके पास कोई और चारा न था, उसने आगे जा के अपने किसी जानकार के पास अपनी मोटर साइकिल खड़ी कर दी और हमारे साथ बैठ गया!

"कौन हैं तेरे ये गुरु महाराज?" मैंने पूछा,

"लाल सिंह हैं जी" वो बोला,

"कहाँ के रहने वाले हैं?" मैंने पूछा,

"चाँदपुर के हैं जी !" उसने बताया,

"ओझा-गुनिया है?" मैंने पूछा,

"न जी, पहुंचे हुए हैं !" उसने बताया,

"अच्छा! और तू कब से चेला है उसका?" मैंने पूछा,

"१२ बरस हो गए जी" वो बोला,

"एक बात बता, जिसने अभी जा के तेरे को धकियाया, कौन था वो?" मैंने मजाक किया,

"पता न जी! लेकिन आदमी उठा उठा के मारे वाने तो!" वो हैरत से बोला!

"कैसा गुरु है तेरा वो, तुझे बताया भी ना आज तक?" मैंने फिर मजाक किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ना बताया जी! कौन था जी वो?"

"खबीस! खबीस था वो!" मैंने कहा,

"फिर तो बच गए जी हम तो आज!" वो डर के बोला!

"हाँ बच ही गया तू!" मैंने कहा,

"कभी खबीस नहीं पकड़ा तूने?" मैंने कहा,

"न जी, कदि पकड़ में ही ना आया!" उसने कहा!

बात करते करते समय बीता तो हम गढ़ आ गए! योगपाल हमको अपने गुरु के ठिकाने पर ले गया! खुद अन्दर गया और हमे वहाँ रोक दिया! थोड़ी देर बाद अन्दर से ४ आदमी बाहर आये! लम्बी-लम्बी दाढ़ी वाले! योगपाल ने उनमे से एक से मिलवाया, वो था उसका गुरु लाल सिंह!

"जी कहिये क्या काम है हमसे?" उसने बड़े घमंड से कहा,

"आपको बता तो दिया होगा इस योगपाल ने सार सब का सब!" मैंने कहा,

"हाँ, तुमने मेरे चेले को मारा पीटा?" वो गुर्राया!

"हाँ! पर छोड़ दिया! नहीं तो मर जाता!" मैंने कहा!

"ओहो! इतना घमंड! एक आद खबीस पकड़ लिया तो इतना घमंड!" वो बोला, बाकी सारे हँसे!

"अरे बाबा ये तो पूछ लेता कौन सा खबीस?" मैंने कहा,

"कौन सा? अब बता?" वो बोला,

"इबु-खबीस!" मैंने कहा!

सभी को झटका लग गया!

"कौन हो तुम?" उसने पूछा

"मेरे बारे में जानकार क्या करोगे बाबा!" मैंने कहा,

"बताओ तो? तुम्हारी उम्र से तो नहीं लगता कि तुम इबु को पकड़ सकते हो" उसने कहा,

"इबु मेरे पास १९ साल की उम्र से है बाबा!" मैंने कहा!

अब ये दूसरा झटका था!

"क्या चाहते हो तुम?" उसने कहा और काम की बात पर आया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तुमने पिछले साल दीवाली के बाद 3 चीजें पकड़ी थीं यहाँ से!" मैंने कहा,

"हाँ पकड़ी थीं!" उसने माना,

"मुझे वो वापिस चाहियें" मैंने कहा,

वहाँ खड़े सभी ने एक दूसरे को देखा!

"सोच क्या रहे हो बाबा लाल सिंह! अब छोड़ दो उनको!" मैंने कहा,

"मुझे क्या दोगे बदले में?" वो बोला, बात एवज की आ गयी!

"कुछ नहीं दूंगा!" मैंने कहा,

"क्या? मेरी मेहनत लगी है, उनको खिलाया है पिलाया है, वाह जी वाह कुछ नहीं!" उसने मजाक से उड़ाया!

"बाबा! खिलाया पिलाया है तो तूने तो इनसे काम भी तो लिया है, बराबर हो गया!" मैंने कहा,

"कैसे बराबर हो गया? बराबर का हिसाब करो" वो बोला,

"देख बाबा! तूने छोडनी हैं तो बता, नहीं छोडनी तो बता!" मैंने कहा

"और न छोडूं तो?" उसने कहा,

"तो वो देख! वो है नदी का किनारा! और वो हैं वहाँ खड़े शिकारी! हाथ में कटोरा लेके खड़े हैं न? बस! वहाँ खड़ा होगा बाबा लाल सिंह!" मैंने कहा,

"अच्छा! ५० साल में आज मिला है कोई आदमी मुझे ऐसा कहने वाला! चल देखता हूँ कितना जोर है तुझ में!" उसने कहा,

"ठीक है बाबा! जैसी तेरी मर्जी! वैसे मै वहाँ उस आश्रम में हूँ, जाना तो आज था लेकिन जोर दिखाने के लिए आज रात यहीं ठहर रहा हूँ!" मैंने कहा!

मै और शर्मा जी वहाँ से आ गए! वे हमे खड़े देखते रहे एकटक!

वापसी में शर्मा जी ने कहा, "लो अब लाल सिंह भी गया! साले के लिए कटोरा खरीदना है एक कल के लिए!"

मुझे हंसी आई! मैंने कहा, "बड़ा समझ रहा है अपने आपको! खैर, कल देखो आप! कल खुद ही ढूंढेगा हमे!"

हम वापिस पहुंचे! रात्रि-समय मै क्रिया में बैठ गया! लाल सिंह कोई बड़ा तो था नहीं लेकिन उसको दिखाना ज़रूरी था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उधर लाला सिंह अपने स्थान पर बैठा सलाह ले रहा था, दो चार और भी थे वैसे ही बाबा! रात को सभी अपने अपने स्थान पर बैठ गए थे!

मैंने सर्प-सुंदरी का आह्वान किया! वो प्रकट हुई! मैंने उसको अनुनय किया! अनुनय स्वीकार हुआ! सर्प-सुन्दरी चल पड़ी! लाल सिंह के चारों ओर बड़े बड़े सांप प्रकट हुए! लाल सिंह घबराया! प्रेत-मंत्र पढ़े उसने लेकिन कोई प्रेत प्रकट ही ना हुआ! लाल सिंह कि घिग्घी बंध गयी! सर्प लोप हो गए और सर्प-सुन्दरी भी! मुझे हंसी छूट गयी!

लाल सिंह भागा उठकर! भागकर अपने साथी के पास बैठ गया! अपने साथी को सारी बात बता दी!

अब मैंने महा-पिशाचिनी का आह्वान किया! वो प्रकट हई! और कूच कर गयी! लाल सिंह और उसके साथी पर रक्त कि वर्षा कर दी! अब भागे उठ कर! पिशाचिनी ने मूत्र कि वर्ष की! राख उडाई! आखिर लाल सिंह हार गया!

मै बाहर आया और शर्मा जी को सारी बात बतायीं! शर्मा जी कि हंसी रोके जा रुकी!

फिर हम सोने चले गए! सुबह कोई ८ बने हमारा बुलावा आया! लाल सिंह आया था अपने साथियों के साथ!

शर्मा जी बाहर गए और बोले, "साँपों से डर गया तू  यार?"

मारे भय के पीला पड़ गया लाल सिंह!

"और तूने भी, रक्त, राख और मूत्र से रक्षा नहीं की इसकी? अबे ये चिमटा क्या ज़मीन खोदने के लिए रखा है तूने?" शर्मा जी ने उसके दूसरे साथी से कहा!

दोनों सन्न रह गए!

शर्मा जी ने उनका काफी मजाक उड़ाया! उनकी अक्ल ठिकाने आ गयी! फिर शर्मा जी ने मेरे बारे में उनको बताया! सुनने पर हलक सूख गया उनका!

"और लाल सिंह बाबा! क्या हाल हैं!" मैंने कहा,

लाल सिंह को काटो तो खून नहीं!

"ठीक हूँ साहब! साहब बड़ी गलती हुई, पहचान ना सका मै! माफ़ कर दो साहब!" उसने कहा,

"कोई बात नहीं लाल सिंह! मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था, लेकिन तुम माने नहीं!" मैंने कहा,

"अनजाने में हो गयी गलती साहब!" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ठीक है, अब आओ और वो तीनों चीजें मुझे दे दो!" मैंने कहा!

"ठीक है!" उसने कहा,

फिर मै उसको अन्दर ले गया! अन्दर उसने आसन लगाते हुए वो तीनों वहाँ प्रकट करा दिए! मैंने लाल सिंह को वहाँ से निकाल दिया! और उन तीनों को भी अपनी डिब्बी में डाल लिया!

मेरा काम ख़तम हो चुका था!

मै बाहर आया तो लाल सिंह वहाँ खड़ा था! शर्मा जी ने कहा, " गुरु जी, ये दोनों आपका चेला बनना चाहते हैं!" और हंस पड़े!

"लाल सिंह! मेरा काम अलग है, और तुम्हारा अलग! और मै किसी को भी चेला नहीं बनाता अपना कभी भी!" मैंने कहा!

उन्होंने काफी जिद की, लेकिन मैंने मना कर दिया!

मै वापिस दिल्ली आ गया! आकर उसी रात उन पाँचों को प्रकट किया! ये सारे एक ही खानदान के लोग थे, पश्चिमी दिल्ली के निवासी थे! एक दुर्घटना में ये गढ़ के पास मारे गए थे बेचारे!

मैंने सभी को मिलवाया, वे बेहद खुश हुए!

फिर एक नियत शुभ तिथि पर मैंने उनको उनको सहमति के अनुसार मुक्त कर दिया वो मुक्ति-धाम पहुँच गए थे! आगे का निर्णय सर्वशक्तिमान के पास था!

------------------------------------------साधुवाद!--------------------------------------------


   
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