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वर्ष २०१० कैमूर-पहाड़ियों के एक घटना जबलपुर, मध्य प्रदेश

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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण! जैसे कि मैंने आपको एक राक्षस षषभ के बारे में बताया था, वैसे ही ये कहानी भी एक ऐसे ही राक्षस की है! नाम है डोमाक्ष! ५० फीट का डोमाक्ष! उसका एक हाथ ही किसी मजबूत इंसान की कमर के बराबर है! लम्बे केश! गले में धारण स्वर्णाभूषण! भारी भारी आभूषण! एक दिन में ही पूरे विन्द्याचल पर्वत का विचरण करता है! मायावी है! प्रबल है! रात्रि समय आखेट करता है! पेड़ों को जड़ों से उखाड़ देता है! आज भी वहाँ कभी कभार सड़क पर, जंगल में बीच में से चिरे हुए पेड़ मिलते रहते हैं!

इस राक्षस के बारे में मुझे एक बुजुर्ग अघोरी कादिम्य नाथ ने बताया था, कान्दिम्य नाथ वर्ष २००९ में १०३ वर्ष की अवस्था में शरीर त्याग कर गए थे! कान्दिम्य नाथ ने मुझे बहुत जानकारियाँ एवं सिद्धियों से परिपूर्ण किया था! उन्होंने ही मुझे ये बताया था, और उस राक्षस के गुप्त स्थान के बारे में भी! और ये भी चेताया था, कि मै जब भी उस राक्षस के पास जाऊं या दर्शन करूँ तो उसका अपमान न करूँ! कोई विद्या प्रयोग न करूँ! कोई वार न करूँ! वो पूजनीय है, उसमे दया, करुणा आदि का भाव है! कान्दिमय नाथ ने उसे तब देखा था जब वो ५७ वर्ष का था, उसका सामना उस से हो गया था वहाँ! जंगल में! लेकिन कान्दिमय नाथ ने उस से क्षमा मांग ली थी! इसीलिए जीवन-दान मिल गया था उसको!

मित्रगण! मेरे हृदय में भी उस राक्षस डोमाक्ष के दर्शन करने की अभिलाषा हुई! राक्षस डोमाक्ष! मैंने तय किया और वर्ष २०१० में अपने एक परिचित राघव साहब के यहाँ जबलपुर पहुँच गया शर्मा जी के साथ!

राघव बड़े खुश हुए! हालांकि मैंने उनको प्रयोजन नहीं बताया वहाँ आने का बस यही कहा कि घूमने का मन था, सो आ गए! उन्होंने हमारा बहुत मान-सम्मान किया! उनका अपना पर्यटन का कारोबार है वहाँ, तीन-चार होटल भी हैं वहाँ, कुल मिला के समृद्ध हैं राघव साहब! शर्मा जी को मैंने पहले ही विदित कर दिया था कि हम वहाँ आये किसलिए हैं, अतः भूमिका उन्होंने को बनानी थी, इसका जिम्मा मैंने उनके ऊपर ही छोड़ा था! मैंने उनसे कहा, "शर्मा जी, राघव साहब से कहिये के हमको जंगल में तीन दिन रहना है, कोई साधना का कार्य है!

"ठीक है, मैं कहता हूँ उनको, आप निश्चिन्त रहिये!" वे बोले,

"आप ऐसा शीघ्र ही कीजिये, समय कम है!" मैंने कहा,

"ठीक है मैं आज ही कहता हूँ!" वे बोले,

"ठीक है!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसके बाद हम उठे और राघव साहब की एक गाडी ली और ज़रा बाहर घूमने चले गए! रास्ते में मदिरपान भी किया!!

"शर्मा जी! डोमाक्ष से मिलना कैसा लगेगा आपको?" मैंने पूछा,

"धन्य हो जाऊँगा प्रभु!!" उन्होंने कहा!

"हाँ शर्मा जी! सदियों से वो यहाँ है! कौन है, पता नहीं!" मैंने कहा,

"आप पूछ लीजिये न उससे जब आप मिलेंगे तो!" वे बोले,

"हाँ शर्मा जी, बहुत कुछ पूछंगा उससे!" मैंने कहा!

"शर्मा जी! इस संसार में ना जाने क्या क्या छिपा है! ज्ञान की कोई सीमा नहीं! बस खोजने वाला होना चाहिए" मैंने कहा,

"किन्तु आज का मनुष्य धन-लोलुप है! उसे फुर्सत ही कहाँ!" वे बोले,

"हाँ! सही बात है!" मैंने कहा,

उसके बाद हमने थोडा बहुत खाया भी! और वहाँ से वापिस आ गए!

रास्ते में एक जगह रुके, वहाँ भीड़ लगी थी, कोई दुर्घटना हुई थी शायद! काफी देर लगी वहाँ से निकलने में!

"गुरुजी? क्या कोई राक्षस अपना अस्तित्व बना के रखता है, वो भी चिरकाल तक, कमाल है!" वे बोले!

"शर्मा जी, मनुष्य पतन की ओर अग्रशील है, जिसे आधुनिकता कहता है वो उसका मिथ्या स्वरुप है! वस्त्रों, आभूषण आदि से मनुष्य सुंदर नहीं वरन आचरण से सुंदर होता है! यदि इस राक्षस ने अपने आपको ऐसा चिर-स्थायी रखा है तो ये निःसंदेह कमाल की बात है!" मैंने कहा,

"सत्य कहा गुरु जी!" वे बोले,

उसके बाद हम धीरे धीरे चलते राघव साहब के पास आ गए! वे वहीं आ गए थे! और हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे!

राघव साहब से बातें हुई तो उन्होंने भोजनादि का प्रबंध किया हुआ था और साथ ही साथ मदिरा का भी! उनको अच्छा नहीं लगा जब हमने उन्हें बताया कि थोड़ी बहुत मदिरा का हमने सेवन रास्ते में कर लिया है! खैर, उनके साथ भी दो दो जाम ले लिए गए! भोजन भी


   
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श्रीशः उपदंडक
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कर लिया गया! तत्पश्चात हम आराम करने चले गए! शर्मा जी कोई आधे घंटे के बाद स्वयं राघव साहब के पास गए, वहीं! भूमिका बाँधने के लिए! करीब एक घंटे के बाद आये! और बोले, "गुरु जी! मैंने कह दिया है उनसे!"

"अच्छा! क्या बोले वो?" मैंने पूछा,

"पहले तो माने ही नहीं, फिर मैंने बता दिया कोई तीन दिनों का मसला है, कोई साधना का विषय है, तब जाके माने!"

"अच्छा! अच्छा किया आपने!" मैंने कहा,

"फिर कहने लगे दो आदमी साथ भेज देता हूँ आपके, अच्छा रहेगा" वे बोले,

"फिर?" मैंने कहा,

"मैंने मना कर दिया!" वे बोले,

"ये बढ़िया किया आपने!" मैंने कहा!

"वैसे कार्यक्रम कब का है वहाँ जाने का?" उन्होंने पूछा,

"आज शुक्रवार है, नवमी है, कल चलते हैं, मध्यान्ह समय" मैंने बताया!

"ठीक है" उन्होंने समर्थन किया!

अब जहां मुझे कान्दिम्य नाथ ने जो स्थान बताया था वो वहाँ से करीब ९०-९५ किलोमीटर पड़ता था अर्थात कटनी, उचित यही था कि वहीं जा के एक दिन ठहरा जाए, कटनी में भी राघव साहब का एक विश्रामालय था, अतः यही जगह उपयुक्त लगी!

यहाँ से एक नदी निकलती है केन! केन नदी, कर्णवती भी कही जाती है! ये नदी कटनी जिले कीरीठी तहसील के एक खेत या खाली स्थान से निकलती है! इसके बारे में एक कहानी प्रचलित है जो मुझे कान्दिम्य नाथ ने बतायी थी, कहानी ये है कि.

केन नदी का उद्गम मध्यप्रदेश के दमोह जनपद की पहाड़ी से हुआ शायद यह वही स्थान था जो रीठी के पास है। चूंकी तब कटनी जिला नहीं था लिहाजा इसे दमोह के पास बताया गया। यह नदी प्रदेश के पन्ना खजुराहो से होते यूपी में बांदा जनपद के बिल्हरका गांव से प्रवेश करती है। नदी का उद्गम अथवा नाम केन कैसे पड़ा इसे लेकर किंवदंतियां हैं। किंवदंती के अनुसार, इस नदी का पुराना नाम कर्णवती था। मुझे बताया गया कि नदी के किनारे अक्सर एक प्रेमी युगल अठखेलियां किया करता था। बाद में किसी ने युवक की हत्या कर उसके शव को खेत के मेढ़ में दफना दिया। युवक की प्रेमिका ने सर्वशक्तिमान से


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपने प्रेमी का शव दिखाने की प्रार्थना की। तब अचानक जोरदार बारिश हुई, खेत का मेढ़ बह गया और शव उसके सामने नजर आया। शव देखते ही लडकी ने भी अपने प्राण त्याग दिए। इस घटना के बाद यहां से नदी निकली और नदी का नाम कर्णवती से कन्या हो गया। कन्या का अपभ्रंश कयन और फिर केन हो गया। महाभारत में भी केन-एक कुमारी कन्या का उल्लेख मिलता है। रीठी में इस कहानी में जिस लडकी का उल्लेख किया जाता है उसका नाम किनिया बताया जाता है लोग मानते हैं कि किनिया से ही इस नदी का नाम केन पड़ा।

ये देश की अकेली ऐसी नदी है जो नदी सात पहाड़ों का सीना चीर कर बहती है, प्रदेश के छतरपुर जनपद में केन नदी के किनारे बसे गांव के लोग बताते हैं कि यह देश की ऐसी अकेली नदी है जो सात पहाड़ों का सीना चीरकर बह रही है। वैसे केन के उद्गम स्थल से कुछ दूरी के बाद से ही यह नदी छोटी-बड़ी पहाडिय़ों में खो जाती है। जैसे-जैसे नदी आगे बढ़ती है तमाम छोटी-छोटी नदियों के मिलने के बाद इसका विशाल रूप सामने आने लगता है। पन्ना के पास तो यह पहाड़ को चीरकर बहती प्रतीत होती है। पूरे रास्ते में ऐसे सात पहाड़ों के बीच से नदी बहती है, जिसे देखकर लगता है मानों पहाड़ों ने इस नदी को बहने के लिए रास्ता दे दिया है। कहा जाता है कि यह नदी जिस पहाड़ से टकराती है वहां रंग बिरंगी आकृतियां पनपती हैं।

इस नदी में बेहद कीमती पत्थर शजर पाया जाता है। शजर पन्ना जनपद के अजयगढ़ कस्बे से लेकर उत्तर प्रदेश में बांदा के कनवारा गांव तक भारी मात्रा में पाया जाता है। शजर एक अनोखा पत्थर होता है। ऊपर से बदरंग दिखने वाले शजर को मशीन से तराशने पर उस पर झाडिय़ों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, मानव और नदी की जलधारा के विभिन्न चमकदार रंगीन चित्र उभरते हैं। जानकारों के अनुसार पूरे विश्व में अन्य कहीं भी इस तरह का पत्थर नहीं पाया जाता । केन नदी में पाया जाने वाला शजर पत्थर ईरान में ऊंचे दामों में बिकता है, तभी तो मुम्बई के एक विशेष समुदाय के व्यापारी इसे चोरी-छिपे थोक में खरीदकर ले जाते हैं। बताया जाता है कि केन नदी के शजर को मुम्बई में मशीन से तराशकर ईरान भेजा जाता है, वहां इसकी अच्छी रकम मिलती है।

बस, यही वो स्थान है जहां हमको जाना था! यही ऐसे ही एक स्थान, गुप्त स्थान पर ही भूमि के अन्दर करीब सौ मीटर नीचे ही रहता है वो डोमाक्ष! वो महाभट्टराक्षस! जिस से मिलने का अवसर मुझे अब मिलने वाला था! डोमाक्ष अक्सर अदृश्य रूप में विचरण करता है, अतः मुझे ज्वाल-मंत्र, कलुष एवं तामस-मंत्र जागृत करने थे! ये काम मै कटनी में करना चाहता था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अगले दिन हम गाडी लेकर कटनी के लिए रवाना हो गए!

हम कटनी पहुँच गए! वहाँ पर उस विश्रामालय में ठहर गए! यहीं मुझे अपने मंत्र जागृत करने थे, अतः सबसे पहले मैंने यही किया, करीब तीन घंटों में मैंने अपने मंत्र जागृत कर लिए! उस दिन हम वहीं ठहरे और फिर अगले दिन सुबह हम रीठी पहुँच गए, यहीं से वो रास्ता जाता है वहाँ, मै कान्दिमय नाथ के बताये मार्ग का ही अनुसरण कर रहा था, अब यहाँ से कैमूर की पहाड़ियों तक जाना था! करीब तीन घंटे लगे! अब कान्दिमय नाथ के बताये अनुसार वहाँ से दक्षिण-पूर्व में जाना था, अतः अब आरम्भ हुआ पैदल सफर! आबादी कम होती गयी, इक्का-दुक्का लोग ही आते जातेथे! हम ११ बजे सुबह से पैदल सफर कर रहे थे! अब भी वोस्थान जहां एक त्रिशूल-पहाड़ी थी, काफी दूर था, इसी इस त्रिशूल-पहाड़ी के पार वो स्थान था जहां हमको जाना था!

दिन के चार बज गए थे! अभी भी रास्ता आधा ही तय हुआ था! कान्दिम्प्य नाथ यहाँ आया था अपने गुरु के साथ! यहाँ आया था साधना करने के लिए! उनके गुरु पंचमढ़ी की पहाड़ियों में भी साधना किया करते थे। वे तो यहाँ से वाकिफ थे, लेकिन हमको थकावट हो गयी थी! बियाबान जंगल! निर्जन स्थान न बोलते हुए भी बोलता ही रहता है! रात हमको वहीं किसी सुरक्षित स्थान पर ही काटनी थी! पर दिन अभी ढला नहीं था, हम फिर से आगे बढे! यहाँ पत्थरों में अजीब से निशान थे, गोल गोल निशान, कहीं लम्बी गहरी दरारें! और उन दरारों में छिपे करीत और गेन्हुअन सांप!

अब शाम घिरी! हमने एक सुरक्षित स्थान देखा और वहाँ चले गए, ये दो तरफ से बंद एक संकरा सा रास्ता था, आड़ा हो कर ही अंदर जाया जा सकता था, अतः हम उसी में घुस गए, लाइट जलाई तो जगह ठीक थी, कोई बड़ा जंगली जानवर भी वहाँ नहीं आ सकता था, न ही अन्दर कहीं किसी जानवर आदि की हड्डियां या अवशेष थे, अर्थात वहाँ कोई बड़ा जंगली जानवर नहीं आता था! हमने वहाँ एक जगह साफ की और लेटने बैठने का स्थान बना लिया! दीवारें भी सूखी ही थीं उस गुफा जैसी जगह की! वोरात किसी तरह सोते-जागते, उठते-लेटते काटी! प्रातः काल उठे, कुल्ला आदि किया और जगली पेड़ की दातुन भी कर ली! अब आगे का सफर तय करना था! हम फिर आगे बढ़ चले! साथ ही साथ, साथ में लाये फल भी खाते रहे!

रास्ते में शर्मा जी से मैंने पूछा, "शर्मा जी, कैसा लगा रहा है हमारा पर्यटन आपको?"

"बहुत बढ़िया लग रहा है गुरु जी! मजा आ गया! वाह! क्या नज़ारा है यहाँ का!" उन्होंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ शर्मा जी! प्रकृति से अच्छा सृजन कोई नहीं कर सकता! उसके हर कार्य में कला होती है!" मैंने कहा,

"अभी और कितना जाना है गुरु जी? कोई निशानी दिखाई दी आपको?" वे बोले,

"अभी थोडा और आगे! पहले त्रिशूल-पहाड़ी देखनी है हमको, आप भी नजर बनाए रखो!" मैंने कहा,

चलते चलते ११ बज गए थे, थोडा आराम किया, और फिर चल पड़े, सामने शर्मा जी की नज़र एक त्रिशूल सी लगने वाली पहाड़ी पर पड़ी! उन्होंने कहा, "गुरुजी,वो देखिये! त्रिशूल-पहाड़ी!"

"हाँ यही है वो, यही है! यही बताया था कान्दिम्प्य नाथ जे!" मैंने हर्षातिरेक से कहा!

"ठीक! लेकिन है ये अभी भी कोई ढाई तीन किलोमीटर!" वे बोले,

"कोई बात नहीं, जब यहाँ तक आ गए तो वहाँ भी पहुँच ही जायेंगे!" मैंने कहा,

"हाँ जी! सही बात है! अच्छा, गुरु जी, पहाड़ी के पास ही है वो स्थान?" उन्होंने जिज्ञासावश पूछा,

"हाँ! पहाड़ी के पास एक और निशानी है, वहीं बताऊंगा आपको!" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी!" वे बोले,

हम आगे बढे और कोई दो घंटे के बाद हम त्रिशूल-पहाड़ी के पास आ गये! मैंने अपना बैग वहीं एक पत्थर पर रखा और फिर अपने आसपास देखा, मै कुछ ढूंढ रहा था, मैंने फिर शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, यहाँ पहाड़ियों के बीच एक बड़ी सी दरार है, वहाँ एक जगह ऐसी है, जहां ये दरार एक दम संकरी हो जाती है, जैसे अंग्रेजी का v अक्षर!" मैंने कहा,

"ठीक है, मैं देखता हूँ आसपास!" वे बोले,

लेकिन हमे वो जगह नहीं मिली, हम और आगे बढ़ गए, तभी वहाँ हम ने एक बड़ी सी दरार देखी, ये दरार दूर तक गयी थी!

हम उसके साथ साथ चल पड़े! तभी मेरी नज़र ऐसी ही एक जगह पर पड़ी जैसी जगह हम ढूंढ रहे थे!

"वो देखिये शर्मा जी, वो रही वो जगह!!" मैंने कहा,

"हाँ! वही लगती है, ऐसा संकरापन और कहीं नहीं दिख रहा!" उन्होंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ठीक है! चलो वहाँ!" मैंने कहा,

और हम वहाँ चढ़ने लगे! झाड़-झंखाड़ भरे पड़े थे वहाँ! आखिर हम वहाँ पहुँच ही गए!

"शर्मा जी, अब यहाँ एक गुफा सी है, एक कन्दरा! वही ढूंढनी है हमको!" मैंने कहा,

"ठीक है, चलिए!" वे बोले!

आगे बढे तो कोई कन्दरा न दिखाई दी, हम और आगे बढे! कम से कम एक किलोमीटर से अधिक चलते गए आगे, तभी शर्मा जी की नज़र एक कन्दरा पर पड़ गयी! कन्दरा काफी बड़ी दिख रही थी! एक प्राकृतिक कन्दरा! यही थी वो कन्दरा जिसका वर्णन कान्दिम्य नाथ ने किया था! इसी कन्दरा से एक गुप्त मार्ग हो कर जाता है नीचे! वहीं बताया था मुझे कान्दिम्य नाथ ने उस राक्षस डोमाक्ष का वास! अब मैंने अपने नेत्रों के साथ साथ शर्मा जी के नेत्रों को भी कलुष-मंत्र से पोषित किया! और तामस-विद्या जागृत कर ली! विद्या का संचार हुआ! फिर प्राण-रक्षा मंत्र से स्वयं को और शर्मा जी को मंत्ररक्षण में ले लिया!

"शर्मा जी, वही है वो कन्दरा जिसको हम ढूंढ रहे थे!" मैंने कहा,

"अच्छा! बहुत अच्छा!" वो बोले!

फिर हम आगे चले कन्दरा की तरफ! कन्दरा का मुख काफी चौड़ा और स्वयं वो कन्दरा विशाल थी! एक हाथी आराम से आ जासकता था!

हम कन्दरा के अन्दर प्रवेश कर गए! वहाँ शायद ही कोई आता होगा! झाड़-झंखाड़ से ढकी हुई कन्दरा थी वो! कान्दिम्प्य नाथ ने मुझे बताया था की हमको उसके मार्ग में जाने की आवश्यकता नहीं है! बस गुफा के अन्दर जाकर पश्चिमी दीवार पे एक लोहे के दीपक में तिल और नीम का तेल आपस में मिलाकर दीपक प्रज्वलित करना था! और एक आसुरिक-मंत्र का जाप करना था! उससे डोमाक्ष प्रकट हो जाएगा! उससे घबराना नहीं है, उसको नमन करना है! उसके हाथ में एक भारी खडग रहता है! विन्ध्याचल पर्वत में एक दिन में समस्त पर्वतमाला का भ्रमण करता है, आखेट करता है और वापिस यहीं आ जाता है!

मैंने तब अपने बैग से एक लोहे का दीपक निकाला! तिल का तेल और नीम का तेल डाला! एक मंत्र पढ़ा और दीपक में बाती लगा कर प्रज्वलित कर दिया! हाँ ये बाती भी स्वयं ही बनानी पड़ती है, आख के पौधे के फल से एक रुई बनायी जाती है, उसको छाया में सुखाकर फिर बाती बनाई जाती है! मैंने सभी कार्य उचित प्रकार से निबटा दिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैंने जाषाल-मन्त्र का उच्चारण आरम्भ किया! करीब आधा घंटा लगा! मंत्रोच्चारण समाप्त हुआ! वातावरण में शान्ति छा गयी! समय जैसे थम गया! हम अब कन्दरा से बाहर आ गए! किसी भी क्षण डोमाक्ष प्रकट हो सकता था! थोडा भय भी लगा!

तभी कुछ पेड़ अचानक हिलने लगे! झाड़ियाँ कुचले जानी लगी! फिर सब कुछ शांत हो गया! एक एक पल मानो घंटे समान हो गया! मै समझ गया किसी की आमद हो चुकी है और किसी की रहस्यात्मक उपस्थिति सी प्रतीत लगने लगी! मैने ताममंत्र का जाप किया, शर्मा जी के नेत्र भी पोषित किये! और नेत्र खोले! और नेत्र खोलते ही मेरे सम्मुख डोमाक्ष खड़ा था! करीब पचास फीट का एक महाभट्ट!! हाथ में खडग! खुले काले केश! धूमकारी शरीर! शरीर पर बड़े बड़े स्वर्णाभूषण! पांवों में भारी भारीस्वर्णाभूषण! वक्ष पर वज्र-ढाल सी पहने डोमाक्ष सच में ही काल का प्रतिरूप लग रहा था! वो हमे अपने बड़े विशाल नेत्रों से देख रहा था! मैंने और शर्मा जी ने उसको नमन किया! उसने खडग भूमि पर रख दिया!

"मेरा नमन स्वीकार करें हे महाभट्ट!" मैंने हाथ जोड़े ही कहा!

उसने अभय-मुद्रा में हाथ उठाया! उसका एक ही हाथ किसी घोड़े को बीच में से ही तोड़ सकता था! ऐसी भुजा!

"हे मानवों! तुम्हे मेरे विषय में किसने बताया? अश्वाल ने, जीभक ने, कृत्साल ने, अदितिपुन्य ने, म्रित्युआक्षिका  ने? किसने?" उसने कहा!

उसकी आवाज़ गर्जना से भरी थी! जैसे कई घोड़े एक साथ पानी में से दौड़ रहे हों! जैसे मेघ की गर्जन होती है! मैंने उत्तर दिया, "मुझे आपके विषय में कादिमप्या नाथ ने बताया था"

"हम्म! अर्थात कृत्साल !" उसने कहा!

"जी कृत्साल उनके गुरु थे" मैंने कहा,

"मै मानवों से दूर रहता हूँ, इसीलिए अदृश्य रूप में वास करता हूँ" उसने कहा,

"परन्तु तुम्हारी तामस-विद्या पूर्ण है, मुझे इसका नाद सुनाई दिया, मै दूर नदी में स्नान कर रहा था, वहीं से आया हूँ वापिस" उसने दुबारा कहा!

"मै धन्य हुआ हे दनु-वशिके!" मैंने कहा

"मै डोमाक्ष हूँ मानवों! आदिकाल से यहाँ हूँ, अल्प ही मानवों ने मुझे यहाँ देखा है! और आज तुम देख रहे हो!" उसने बताया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मेरे मन में जिज्ञासा उत्पन्न की कान्दिम्य नाथ ने, उन्होंने ही मुझे समस्त विधियां, मार्ग इत्यादि बताये हैं! इस जिज्ञासावश मैं आपके दर्शन करने आ गया!" मैंने कहा,

"हम्म! तुम्हारे ताम-मंत्र से मै ये जान गया था हे मानव!" उसने कहा,

"मेरा आभार स्वीकार करें हे डोमाक्ष!" मैंने कहा,

उसने फिर अभय मुद्रा में हाथ उठाया!

"मै यहाँ अपना शेषकाल काट रहा हूँ! अभी मात्र एक चरण की तीन घटियाँ ही बीती हैं! मै यहाँ सदैव से हूँ, सदैव से!" उसने आकाश को देख कर कहा!

"आपका धन्यवाद हे डोमाक्ष!" मैंने कहा,

इसके बाद मित्रो मैंने डोमाक्ष से बहुत सारे प्रश्न किये, बहुत सारे, उसने मेरे सभी प्रश्नों का उतार दिया, स्पष्टीकरण किया, तामसिक विद्याओं में संशोधन करवाया! मेरी समस्त जिज्ञासा शांत हो गयी!

डोमाक्ष के पूजन का समय हो गया था, अत: डोमाक्ष अपना हाथ उठा मेरे सर पर रखते हुए और आशीर्वाद दे अदृश्य हो गया!

एक विचित्र अनुभव!

शाम ढलने को थी! हमने वापिस जाने का निर्णय किया! और फिर एक रात और जंगल में बिता कर वापिस जबलपुर आ गए!

मित्रगण! इस संसार में ऐसे कई रहस्य छिपे पड़े हैं, जिनको ढूँढा जाना अभी शेष है!

तो ये थी डोमाक्ष की एक कहानी!

डोमाक्ष! जो आज भी विन्ध्याचल पर्वत में भ्रमण करता है! अपना भोग रहा है, शेषकाल!

------------------------------------------साधुवाद!----------------------------


   
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(@satishasankhla)
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बहूत समय बाद  ये संस्मरण पढ़ा, जय हो 


   
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