और निकाल ली दो टोर्च! जलायी मैंने! सामने मारी! पत्थर की दीवार सी थी! "आओ अंदर!" कहा मैंने,
और हम सभी के सभी, वहाँ, अंदर के लिए, चल पड़े! ज़मीन सूखी थी, कोई परेशानी नहीं हुई!
आहिस्ता आहिस्ता हम आगे बढ़े!
रुख-वंता! (TREE-TOMATO)
शं सम्भल सम्भल के आगे बढ़ रहे थे। और तभी वो रास्ता नीचे को जाने लगा! ये अजीब सी बात थी, वहां जो भी अभी तक निर्माण देखा था, वो भूमि के अंदर ही देखा था! किस प्रकार से वो पत्थर काटे गए होंगे! कैसे औजार रहे होंगे वो! ऐसा तो आज के आधुनिक यंत्रों द्वारा भी सम्भव नहीं!
हैरत हो रही थी बहुत! कमाल का था सबकुछ! ऐसी समानता थी आसपास की दीवारों में जैसे ग्राइंडिंग-मशीन से समतल किया गया हो! "कमाल का काम है। नायाब। बेजोड़!" बोले शर्मा जी। "हाँ, कोई शक नहीं इसमें!" कहा मैंने! नीचे उतरते रहे हम! करीब छह-सात फीट नीचे आ गए थे! अभी न जाने कितना और था!
और फिर से, दूर से कहीं घंटा बजने की आवाज़ आई! आवाज़ मदम थी! कहीं दूर से ही आई थी! जब भी कभी वो आवाज़ आती, हम सब रुक जाते थे। अभी भी रुक गए थे। "ये आती कहाँ से है?" बोले बाबा! "पता चल जाएगा!" कहा मैंने, "दिमाग खुजला दिया है इसने तो!" बोले बाबा! मैं हंसा ज़रा! "कोई बात नहीं, पूरा दिमाग़ खुजला लेना!" कहा मैंने, तभी मेरी नज़र दीवार पर पड़ी। मैं रुका, तो सब रुके! "ये क्या है?" देखा मैंने, शर्मा जी ने भी देखा! "क्या है ये?" बोले वो! एक चित्र था, कोई बार इंच लम्बा,आठ इंच चौड़ा रहा होगा,पीली स्याही से बना था! उसमे, इंसानी खोपड़ियां बनी थीं! खोपड़ियां एक के ऊपर एक रखी थीं! एक पेड़ था, कौन सा था, ये नहीं पता चल रहा था! था बहुत बड़ा! और उस पेड़ से कुछ घड़े से बंधे थे! जिनके ऊपर, दीये जल रहे थे! मैंने गिने, कुल नौ! लेकि ये खोपड़ियां? इसका अर्थ क्या हुआ? बलि-कर्म? क्या किम्पुरुष बलि से प्रसन्न हआ करते थे? या फिर ये कोई चेतावनी है? कोई चिन्ह? कोई प्रतीकात्मक संदेश? "ये कोई संदेश है!" कहा मैंने, "लगता है" बोले शर्मा जी, "कि दूर रहे मानव यहां से!" मैंने कहा, "हो सकता है" कहा मैंने, अब बाबा ने भी देखा! मैंने दूसरी दीवार पर रौशनी मारी,
वहां भी एक चित्र था, मैं गया वहा था, शर्मा जी भी आ गए! इसमें, एक मानव स्त्री और एक मानव पुरुष, काम-मुद्रा में थे,
स्त्री ऊपर थी, और उसका चेहरा, किसी वस्त्र से ढका हुआ था, जबकि पुरुष का सर, नीचे मिट्टी में धंसा हुआ था। दोनों के वक्ष पर कुछ लिखा हुआ था। इसका क्या अर्थ हुआ? और जैसे पुरुष का सर नीचे गड़ा है, ऐसे तो पुरुष मर नहीं जाएगा? ये कैसा अजीब संसर्ग? कहीं ये भी संदेश तो नहीं कोई? ऐसा क्या अर्थ निकलता है इस से? 'शर्मा जी?" पूछा मैंने, "हाँ?" बोले वो, चित्र को देखते हुए, "इसका अर्थ क्या हुआ?" पूछा मैंने, "जो भी है, गूढ़ है" बोले
वो, मैंने दिमाग दौड़ाया! अपने हाथ से, उस स्त्री का चेहरा ढका, फिर पुरुष का! एक अक्षर सा बना उनकी मुद्रा से! ये अक्षर था, द्वयम्! इसका अर्थ हुआ, दो! संग संग दो! अचानक से सर में हथौड़ा बजा! और आँखें चौडी मेरी! "समझ गया!" कहा मैंने! "इस समय हम जहां पर हैं। ये क्रिया-स्थल है। और ये क्रिया, नर और मादा ही कर सकते हैं!" बोला मैं, "अच्छा !" बोले वो, "लेकिन हम क्रिया नहीं करने आये यहां! कोई चिंता नहीं!" कहा मैंने! "हाँ, क्रिया तो करनी नहीं?" बोले शर्मा जी, "आओ फिर!" कहा मैंने! बाबा के चेहरे पर शिकन देखीं मैंने उस समय! कुछ न कुछ तो अवश्य ही था उनके मन में! लेकिन क्या? कोई क्रिया करेंगे वो? यदि की, तो मैं विरोध करूंगा! करने ही नहीं दूंगा! जिसका हमें क-ख-ग नहीं पता, उसकी व्याकरण कैसे बाँचेंगे हम? कहीं कुछ उलटा-सीधा हुआ, तो समझो बनी प्राणों पर! मेरे मन में संदेह तो था ही पहले से, बस अब उस पर, मुलम्मा चढ़ रहा था! कुछ न कुछ तो था!
जो छिपा रहे थे बाबा हमसे! "चलो आगे" बोले बाबा! "चलो!" मैंने कहा,
और हम सब फिर से नीचे चले! कोई पांच मिनट के बाद, हमें रुकना पड़ा! उस आठ फीट के रास्ते में, शहतीर फंसे थे! पेड़ों के शहतीर! दीवारों में छेद कर, उनमे फंसा दिए गए थे! करीब आठ रहे होंगे! रास्ता बंद कर दिया गया था शायद! लेकिन किया किसने? ये भी एक पहेली थी! "रुको" कहा मैंने, सभी रुक गए तभी के तभी! मैं गया उन शहतीरों के पास! शहतीरों पर, लाल रंग सा पुता हुआ था! और मैंने जैसे ही हाथ लगाया एक को, चूरा सा गिरने लगा ज़मीन पर! जीर्ण-शीर्ण हो चुके थे वो समय के साथ साथ! अब बस, कागज़ की तरह से थे! मैंने कटनी से काटे वो, आराम से कट गए! ज़मीन पर, चूरा चूरा सा हो गया! "आओ" कहा मैंने, और हम चले फिर! आगे चले, थोड़ा, और फिर से रुके! सामने तो दीवार थी! रास्ते में दीवार? "रुको" कहा मैंने, रुक गए सभी! मैं आगे गया और दीवार पर रौशनी मारी! और फिर जैसे ही नीचे मारी,मैं पीछे हटा! नीचे तो एक रास्ता था! कोई चार फ़ीट चौड़ा! नीचे जाने के लिए!
ये नहीं दिखा था मुझे, मैं तो दीवार पर ही रौशनी मार रहा था! "ये देखो!" कहा मैंने, अब सभी आये आगे! "ये तो कोई रास्ता है!" बाबा बोले! "हाँ, नीचे जाने का!" बोला मैं! "आओ चलो फिर" बोले बाबा! "अभी रुको!" कहा मैंने,
और मैंने तब दीवारों पर रौशनी मारी! ताकि कोई चिन्ह या चित्र हो,तो दिख जाए! लेकिन कुछ नहीं था! अब मैं आगे आया।
और पहला कदम रखा वहां की पहली सीढ़ी पर! "आओ" कहा मैंने, घुप्प अँधेरा था वहाँ! धूल उठने लगी थी, मैंने रुमाल से मुंह और नाक ढके! "आराम से" मैं नीचे उतरते हए कहता जा रहा था!
और आ गए नीचे हम, करीब दस फीट! पत्थर थे मज़बूत! ढह जाएँ, प्रश्न ही नहीं था! इसकी चिंता से मुक्त थे हम!
खैर,
हम नीचे आये!
ये एक कक्ष था, कोई दस गुना दस फ़ीट का! "वो क्या है सामने?" बाबा बोले, "देखता हूँ" कहा मैंने,
और चला आगे, ज़मीन पर रौशनी मारते हए! मैं आया आगे तक, एक कोने में, एक हौदी सी बनी थी! तिकोनी हौदी! "ये कोई हौदी है" कहा मैंने, हौदी में कुछ नहीं था, खाली थी! हाँ, नीचे एक कोने में एक छेद बना था! "शायद जल-निकास के लिए है यै" कहा मैंने
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"वही लगती है!" बोले बाबा! हौदी करीब चार फ़ीट गहरी रही होगी। "बाबा?" बोला नकुल, "हाँ?" कहा बाबा ने। "वो देखो?" बोला वो! अब मारी रौशनी मैंने और बाबा ने वहाँ! सीढ़ी के बाएं, एक रास्ता था! कोई दीवार में ज़मीन से लेकर ऊपर चार फ़ीट तक का! "कोई रास्ता है" कहा मैंने, "आओ ज़रा" कहा मैंने,
और सबसे पहले, मैं, रौशनी मारते हुए, सर झुकाते हुए, उसके अंदर गया! अब सब अंदर आये, और जब आये तो.....
......... हम उस कक्ष में आ गए सब! कमरे में घुप्प अँधेरा था! मात्र हमारी टोर्च की रोशनियाँ ही एक दूसरे
को काट रही थीं! इस कक्ष की बनावट अनोखी थी! कक्ष में कई स्तम्भ बने थे, मैंने गिने थे, तो कुल आठ थे, कम से कम अठारह इंच का घेरा होगा उनका! प्रत्येक स्तम्भ में चार चार पत्थर की थालियां सी गाड़ी गयी थी,स्तम्भ के पत्थर में खांचा सा बना कर, उसमे ये थालियां लगा दी गयी थीं! मैंने ऐसी कला तो कभी नहीं देखी थी! वो थालियां ऐसी थीं जैसे उनमे कोई सामग्री आदि रखी जाती हो! हम आगे बढ़े, यहां ऑक्सीजन कम थी, सांस फूलने सी लगी थी हमारी! लेकिन अब तो हम डटे थे। पता नहीं फिर कभी ऐसा अवसर मिले या न मिले! तभी एक और रास्ता दिखा, ये भी
चार फ़ीट ऊपर तक ही था! "वहाँ चलो" कहा मैंने, "चलो" बोले बाबा,
और सबसे पहले बाबा ही चले! वे झुके और घुसे! फिर हम घुसे!
और अंदर आये, हैरान हुए! वहाँ अंदर छोटे छोटे मंदिर से बने थे! जैसे आजकल के बौद्ध पैगोडा बने करते हैं! मुझे उनको देख, पैगोडा ही ध्यान में आये!
आप कभी थाईलैंड की स्थापत्य-कला देखिये, उसमे शिखर काफी ऊंचा और नकीला सा होता है, ठीक ऐसे ही थे ये! "ये क्या हैं?" बोले शर्मा जी,
"कोई दीप आदि रखने की जगह सी लगती है" कहा मैंने, "हाँ, और तो कुछ रखा नहीं जा सकता" बोले वो! "कुल कितने हैं?" मैंने पूछा,
अब गिना उन्हें! "कल नौ!" बोले वो! "नौ का बड़ा महत्व जान पड़ता है यहां!" कहा मैंने, "हाँ, चित्रण में भी नौ! यहां भी नौ!" बोले वो, "नौ का अंक, अनंत का प्रतीक है!" कहा मैंने! "निःसंदेह!" कहा उन्होंने, अब खूब जांच-पड़ताल की उधर!
और कुछ न निकला! बस यही था यहां सबकुछ! "मुझे तो ये कोई तैयारी का सा स्थान लगता है!" बोले शर्मा जी, "मुझे भी" कहा मैंने, "यहां सामग्री आदि रखी जाती होंगी और फिर शायद वहाँ ले जाया जाता होगा!" बोले वो! "यही लगता है!" कहा मैंने, "तो इसका अर्थ हुआ अब हमें वहाँ जाना है?" बोले बाबा! "हाँ" कहा मैंने, "तो फिर देर कैसी? दिन छिप जाएगा फिर" बोले वो, "छिप जाने दो! रात यहीं बिता लेंगे!" कहा मैंने! "अब देर न करो, चलो उधर" बोले बाबा, "चलो फिर" कहा मैंने,
और हम निकले अब वहाँ से! जैसे जैसे आये थे, वैसे वैसे चले वापिस! आ गए ऊपर ही! अब वो खंडहर से देखे हमने! दूर थे, करीब एक किलोमीटर या इसके आसपास ही! "चलो, यहां से" कहा मैंने,
और हम चल पड़े अब! रास्ता साफ़ था, पेड़ कम ही थे रास्ते पर! हाँ, झाड़ियाँ थीं, वो काटनी पड़ रही थीं! बस समय इसी मैं लगता था!
घड़ी में छह बज चले थे अब तो! शाम होने में देर थी अभी, अभी कोई, डेढ़ घंटा था हमारे पास! अब वे खंडहर हमसे थोड़ी ही दूर थे बस! "वो रहे!" कहा मैंने, "आओ फिर!" बोले बाबा!
और अब भाग चले उनकी तरफ! "बाबा को बहुत जल्दी है!" बोले शर्मा जी! "हाँ, अवश्य ही कोई बात है!" कहा मैंने! "कोई गुप्त कार्य तो नहीं?" बोले वो, "सम्भव है" कहा मैंने! "ये तो मरवाएंगे फिर?" बोले वो, "मैं होने ही नहीं दूंगा!" कहा मैंने, "हाँ, ध्यान रखना आप!" बोले वो!
और चलते रहे हम! आ गए उन खंडहरों तक! बड़े बड़े पत्थर पड़े हुए थे वहाँ! बहुत बड़े बड़े! जैसे बरसात हुई हो उन पत्थरों की वहाँ! "इतने पत्थर कहाँ से आये?" बोले वो, "लाये गए होंगे ये!" कहा मैंने, "ये देखना? दो टन का तो होगा?" बोले वो, "हाँ,खींच के लाया गया होगा इन्हे" कहा मैंने, "हाथी से?" बोले वो, "हो सकता है" कहा मैंने! "जीवट वाले होंगे वो लोग!" बोले वो, "बिलकुल होंगे!" कहा मैंने! "आपने बताया कि मंदिर शम्पायन ने बनवाया था?" वो बोले, "हाँ, यही लिखा था" कहा मैंने, "कितना समय लगा होगा?" पूछा उन्होंने, "ये तो पता नहीं" कहा मैंने!
तभी एक पत्थर में दो तीन गड्ढे दिखे! "ये तो किये गए हैं?" बोले वो, "हाँ, शायद मशाल आदि के लिए!" कहा मैंने! "हाँ! ये हो सकता है!" वो बोले, "आओ?" बोले बाबा! "आ तो रहे
हैं?" कहा मैंने, "जल्दी आओ,समय देखो?" बोले वो! "साढ़े छह हुए हैं" कहा मैंने, "ढल गया दिन तो मुसीबत हो जायेगी" बोले वो, "कोई नहीं होगी" कहा मैंने,
और फिर एक साफ़ सी जगह, मैं जाकर बैठ गया! "थक गए?" बोले बाबा! "हाँ, अब आराम करूँगा थोड़ा सा!" कहा मैंने! बाबा जैसे झुंझला गए!
आ बैठे पास में ही! "मैं कह रहा हूँ , देर हो जायेगी फिर" बोले बाबा! "कैसे हो जायेगी देर?" कहा मैंने, "वापिस नहीं जाना?" बोले वो, "चले जाएंगे" कहा मैंने, "पूरा जंगल भटकना है" बोले वो! "नहीं!" बोला मैं, "क्यों?" पूछा उन्होंने, "सामने देखो ज़रा!" कहा मैंने, "क्या है?" बोले वो, देखते हए, "आराम से देखो?" कहा मैंने, "है क्या?" बोले वो, "नदी! वही नदी!" कहा मैंने, "तो?" पूछा उन्होंने, "जंगल नहीं भटकना पड़ेगा, इसके साथ साथ चलते रहेंगे!" कहा मैंने! "तब भी, समय तो लगेगा?" बोले वो, "इतनी जल्दी है तो चले जाऔ आप अंदर!" कहा मैंने!
अब तो झेंप गए! कड़वा सा मुंह बना लिया! "जाओ?" कहा मैंने, "आप भी चलो" कहा उन्होंने, "तो इंतज़ार करो" कहा मैंने,
और खोल लिए जूते! उतार लिए जुराब! अब शर्मा जी ने भी जूते खोल लिए! बैठ गए मेरे पास! "बना लूँ?" बोला नकुल! "बना ले" कहा मैंने, "क्यों हीरा?" बोला नकुल, "बना ले" बोला वो, "मैं नहीं लूँगा!" कहा मैंने!
और करने लगा सुलपा तैयार वो! बाबा, बार बार खंडहरों को देखें! "तसल्ली रखो!" कहा मैंने! "हाँ" हल्के से बोले।
और मैं अंगोछा बिछा, लेट गया! कमर सीधी हुई, तो आनंद मिला!
और बाबा, खंडहर ही देखें! बार बार! हमने करीब आधा घंटा या चालीस मिनट आराम किया होगा! नकुल और हीरा, अपने सुलपे में
मस्त थे। दोनों ही गंजेड़ी थे! जितना दो, उतना कम, जितना सूतो उतना ही कम! और बाबा! बाबा के सीने पर जैसे सांप लोट रहा था! कि मैं, जा क्यों नहीं रहा अब अंदर? जाएँ तो कुछ पता चले! बाबा ने भी सुलपे के दो-तीन कश सूत लिए थे! और फिर मैं उठ बैठा! शर्मा जी भी उठे, और मैंने तब जुराब-जूते पहने! बाबा तो खड़े ही हो गए थे! अपना बैग उठाया और लाद लिया कंधे पर! नकुल और हीरा भी उठ गए थे! शर्मा जी भी उठे, जुराब और जूते पहने उन्होंने भी! मैंने पानी पिया! चेहरा धोया और पोंछा रुमाल से! "चलें?" बोले बाबा, "चल रहे हैं" कहा मैंने, अब शर्मा जी ने बीड़ी सुलगा ली थी,
चश्मा साफ़ किया अपना, "चलो शर्मा जी" कहा मैंने,
और अब चले हम! ऊपर चढ़े,
और सामने देखा, सामने कुछ खंडहर थे, हर तरफ खंडहर ही खंडहर! "ये तो काफी बड़ा क्षेत्र है?" बोले शर्मा जी, "हाँ, काफी बड़ा है" कहा मैंने, "ये पेड़ों आदि से घिरा है, नहीं तो नज़र तो आता ही किसी न किसी को" बोले वो, "हाँ, यही कारण है" कहा मैंने,
और तभी नकल चिल्लाया! "शेर!" बोला वो! शेर? मैं चौंका! यहां शेर? वो तो सब रुक गए थे! मैंने सामने देखा, कोई पचास फ़ीट दूर पर, एक तेंदुआ बैठ था, एक पत्थर पर! हम रुके, आहिस्ता से पीछे हए! एक पत्थर की और में आ गए! पत्थर इतना बड़ा तो था कि हम छिप जाते! लेकिन जगह खुली थी, और तेंदुआ, जवान और तंदुरुस्त था! अब बाबा ने झोले से निकाला अपना तमंचा! भरे उसमे दाने(कारतूस) और हो गए तैयार! हमने अपनी अपनी कटनी तैयार कर ली, कमीज़ की आस्तीन, बटन खोलकर, ऊपर चढ़ा ली! ताकि कहीं वार करना पड़े तो अटकें नहीं वो! वो तेंदुआ अंगड़ाइयां ले रहा था! उबासियां ले रहा था! शायद अभी शिकार कर, पेट भरा था उसने अपना! अकेला ही था, ये भी शुक्र था! कहीं दो होते, तो और मुसीबत हो जाती! कुछ देर तक, कोई दस मिनट तक हम सांसें थामे उसको देखते रहे! वो लेट जाता, और फिर कोई आहट सुन, कान खड़े कर, उधर ही देखने लग जाता! रास्तारोक दिया था उसने हमारा! अपनी दुम हिलाता और फिर लेट जाता! अपने पंजे चाटता आराम आराम से! वो तो आराम कर रहा था,
और हम पत्थर बने जा रहे थे! "अब क्या करें?" बाबा ने कहा,
"रुक जाओ, चला जाएगा" कहा मैंने, "इतनी देर तो हो गयी?" बोले वो, "थोड़ी देर और सही!" कहा मैंने, फुसफुसा कर!
आखिर वो आधे घंटे तक नहीं गया! "ये नहीं जाने वाला!" कहा मैंने! "फिर?" बोले बाबा! "अब भगाना पड़ेगा" कहा मैंने, "कैसे?" बोले वो! "हम एक साथ चलते हैं इसके सामने, ये घबरा जाएगा, यदि आगे आये, तो ज़मीन में गोली मारना, इसको नहीं, समझे?" कहा मैंने, "ठीक है" बोले वो, "और दाने कितने हैं?" पूछा मैंने, "बहुत हैं" बोले वो, "बस, मेरे तीन गिनने पर, एक साथ चलो आगे, शोर मचाते हुए!" कहा मैंने! "ठीक है!" कहा मैंने, "एक! दो! तीन!" कहा मैंने!
और हम सब एक साथ भागे उसकी तरफ! शोर मचाते हुए! 'हो!हो!' करते हुए! तेंदुआ चौंका! बिजली की फुर्ती से खड़ा हुआ! मुंह फाड़ा अपना! लम्बे लम्बे पैने, तीखे सफेद सफेद दांत दिखाए! और कुदा पत्थर से! भाग पीछे की तरफ! पीछे मुड़कर देखा उसने! "गोली चलाओ?" कहा मैंने,
और बाबा ने ज़मीन में गोली चलायी! 'धाय' की आवाज़ हई। और तेंदुआ भागा वहां से, कुलांचे भरता हुआ! ऐसा भागा जैसे गधे के सर से सींग! पक्षी उड़ पड़े! आवाज़ गूंज उठी! हम आबादी से बहुत दूर थे! गोली की आवाज़ शायद ही किसी ने सुनी हो! "भाग गया!" बोले बाबा! "हाँ, चला गया!" बोला मैं! बाबा ने तमंचे की नाल को मिट्टी में घुसेड़ा, और फिर रख लिया वापिस बैग में!
"अब चलो, अँधेरा होने को है!" कहा मैंने!
और हम अब फिर से चढ़ने लगे ऊपर! "अबे नकुल?" बोले शर्मा जी! "क्या हुआ जी?" बोला वो! "तूने शेर बोलकर, एक बार को तो सबकी फा* दी!" बोले वो! मैं हंसा! नकुल भी हंसा! बाबा भी और हीरा भी! "शेर और तेंदुए में फ़र्क नहीं पता?" बोले वो! "अब क्या कहूँ, मुंह से
शेर ही निकला!" बोला नकुल! "चल अच्छा किया! शेर से कम नहीं वो वैसे!" बोले शर्मा जी! "वो क्या है?" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले बाबा, "वो उधर?" कहा मैंने, "कोई गुफा सी है शायद?" बोले वो, "गुफा या प्रवेश?" पूछा मैंने, "हाँ वही" बोले वो, "चलो फिर अंदर वहीं" कहा मैंने, "चलो" बोले वो,
और हम चले उस तरफ! पहुंचे वहाँ!
और झटके से रुके! वहाँ करीब आठ या दस सांप बैठे थे! जहरीले, वाईपर! बहुत ज़हरीले हुआ करते हैं ये! "अब इनकी कसर बाकी थी!" बोले शर्मा जी! "रुको" कहा मैंने, "नकुल, एक इंडी ला मज़बूत सी!" कहा मैंने, नकुल न जाए!
आँखें बचाये! "क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"शेर हुआ तो?" बोला वो, "अबे भाग गया वो!" बोले शर्मा जी, न जाए। "ला, कटनी दे मुझे!" बोले वो,
और चले एक पेड़ की तरफ! एक डाल पड़ी, उसको झुकाया, और कटनी से काट ली! पत्ते और छोटी शाखें काटी कटनी से,और बन गयी लाठी! "ये लो!" बोले वो और मुझे दी! मित्रगण!
एक बात सदैव याद रखिये। इंडी ऐसी हो जिसमे लोच हो, ताकि सांप के वजन से नीचे झुक जाए! कहीं ऐसा न हो कि सांप सरक ही आये हाथों की तरफ! तब तो मामला हो जाएगा खतरनाक बहुत! काट ही लेगा! तो वो जो डंडी लाये, उसने लौच थी, छोटी शाखें की थी, तो कांटेनुमा बन गयी थीं! अब सांप नहीं सरकता! अब आगे बढ़ा मैं! और एक सांप को उठाने के लिए, इंडी उसकी कुंडली में डाली! सांप भुनभुनाया! मुंह खोला! वाईपर सांप, अपने शरीर के बराबर तक सामने या पीछे काट सकता है, इसका भी ध्यान रखिये! उठा लिया एक!
और इस तरह, एक एक करके, नीचे पत्थरों पर सरका दिए! गुस्से में थे सभी के सभी! लेकिन एक न चली उनकी! अब इंडी मैंने अपने पास ही रखी! "टोर्च जला लो!" कहा मैंने,
और नकुल ने टोर्च जला मुझे और बाबा को दे दी! "आओ" कहा मैंने, सामने ट्रोच मारी, तो रास्ता साफ़ था! "आ जाओ" कहा मैंने! अंदर से पानी की नमी सी आ रही थी, जैसे पानी भरा हो,
ऐसा लग रहा था! "पानी है अंदर!" कहा मैंने, "अच्छा" शर्मा जी बोले! "चलते रहो" कहा मैंने,
और तभी रौशनी सामने पानी से टकराई! पानी भरा था, पानी मैला था, अब गहरा था या नहीं, ये नहीं पता चल रहा था! मैंने और रौशनी मारी, तो बीच में, कुछ पत्थर दिखे, इन पर पाँव रखकर, हम जा सकते थे अंदर! बस, यही एक रास्ता था! पानी कहाँ से आया था, ये भी पता चल जाता! सबसे पहले मैंने उस इंडी से थाह ली, तोडंडी तीन फ़ीट करीब नीचे डूब गयी, ये तो मात्र पास में ही था, आगे जान एकितना गहरा हो, क्या खतरनाक जीव हों इसमें, विषैले आदि, पता नहीं था, ऐसे पानी में कई ऐसे छोटे छोटे जीव होते हैं जो त्वचा बींध अंदर
घुस जाते हैं, वे घुस जाएँ तो समझिए जीवन नरक ही हआ, वे फिर धमनियों में आ जाते हैं और मस्तिष्क में भी! तब ये जानलेवा मामला हआ करता है,खारे पानी में ऐसे जीव नहीं होते, लेकिन ऐसे पानी में अवश्य ही हआ करते हैं! नदी, बहते पानी, में नहीं पाये जाते, बड़े पोखर और जोहड़, इनमे ये जीव हआ करते हैं, जहां जोंक हों, वहां ये जीव नहीं होंगे! पानी हरा था, इसका मतलब था पानी सड़ा हुआ था! आपने सुना होगा, कि पत्ता-गोभी में एक ऐसा जीव होता है, जो उबालने पर, तलने पर भी इस गोभी को, नहीं
मरता और सीधा मस्तिष्क में प्रवेश कर जाता है, इस से रोगी, बार बार मूर्छित हआ करता है, नाक, आँख और कान से रक्त-साव हो जाता है, जांच में तो आ जाता है, लेकिन आधुनिक विज्ञान में इसका मात्र एक ही उपाय है, शल्य-चिकित्सा, अब वो जीव कहाँ हैं, इस पर निर्भर करता है इस शल्य-चिकित्सा का विकल्प! इसकी एक सरल तांत्रिक-चिकित्सा है,आपको करना क्या है, कि शुद्ध गन्ने का सिरका या जामुन का सिरका लेना है,अन्य कोई नहीं, इस सिरके की एक एक बंद, काला-नमक मिला कर, काला-नमक एक चुटकी का चौथाई ही हो बस, अब रोगी को आइए लिटाइए कि उसके कंधे तो पलंग पर रहें, लेकिन गर्दन और सर, नीचे लटकें, अब एक एक बूंद नाक के अंदर डाल दीजिये रोगी की, दोनों ही छिद्रों में, छींक आये, तो लेटे लेटे ही छींके आने दें, ऐसा एक हफ्ते भर करें, दिन में एक बार,वो जीव मर जाएगा! और उसका संक्रमण समाप्त हो जाएगा! मस्तिष्क सुचारू रूप से कार्य करने लगेगा! हाँ, तो मैंने वहां पत्थर देखे थे, मैं ध्यान से एक पत्थर पर चढ़ा, सामने अँधेरा था, पत्थर और पानी एक जैसे ही दीख रहे थे! मैं इंडी से उनको टकरा कर देखता और आगे बढ़ता, शुक्र था, पानी
कम ही था वहाँ, कोई बीस फीट तक ही! मैं एक पत्थर पर चढ़ा और बुलाया सभी को एक एक करके! और हम आ गए सभी! अब रास्ता साफ़ था, पानी कहाँ से आया था, पता नहीं, शायद बरसात का रुका हुआ पानी होगा वो! पत्थर जो थे, वे शायद चबूतरे रहे होंगे! कहिर, हमें रास्ता मिल गया था, और हम आगे बढ़ रहे थे अब!
आगे आये, तो दो रास्ते हए! "अब ये क्या?" बोले बाबा! "दो रास्ते!" कहा मैंने, "अब कहाँ जाएँ?" बोले बाबा! 'देखता हूँ" कहा मैंने, मैंने नीचे ज़मीन का निरीक्षण किया, दीवारें देखीं, छत भी देखी! लेकिन कुछ न पता चला! "अब क्या करें?" कहा मैंने, "यहां चलें?" बोले वो, "रुको" मैंने कहा, अब मैं अपने ख्यालों में उन खंडहरों के बाहर गया! थोड़ा दिशा-ज्ञान लगाया, थोड़ा आंकलन! इस पहाड़ी के बाएं में, खंडहर कम थे, और दायें ज़्यादा! "दायें चलो!" कहा मैंने, और हम दायें चल पड़े! अभी थोड़ा ही चले होनी कि, नीचे के लिए सीढ़ियां दिखाई देने लगी! "यहीं से होगा रास्ता!" कहा मैंने! "चलो नीचे" कहा मैंने,
और हम नीचे चले! एक ज़ोर की फुकार आई! "रुको!" कहा मैंने,
और सामने रौशनी मारी! सामने की दीवार के नीचे, काला नाग बैठा था!
फन फैला लिया था उसने अपना! "बहुत बड़ा है ये तो!" बोले बाबा! "हाँ, कम से कम चार मीटर का होगा!" कहा मैंने, "क्या करें?" बोले वो, "सोचो?" कहा मैंने, "मोचिनी लड़ाऊं?"
बोले वो, "लड़ा लो!" कहा मैंने, उन्होंने अपना बैग खोला, एक चुटकी भस्म ली, मुट्ठी में, मंत्र पढ़ा, और उड़ा दी भस्म हाथ से, फूंक मारते हुए!
भस्म उडी!
और सांप पलटा पीछे। मैंने रौशनी मारी, तो दौड़ गया था वो! "चला गया!" बोले वो! "हाँ, चला गया!" कहा मैंने! "आगे चलें?" बोले बाबा! "चलो" कहा मैंने! सीढ़ियां घूमी! जैसे किसी तहखाने में ले जा रही हों! और हम उतरने लगे ध्यान से नीचे नीचे! और आ गये एक कक्ष में! कक्ष में हौदियां बनी थीं! बड़ी बड़ी हौदियां! मैंने एक में झाँक कर देखा, रौशनी मारते हए! कुछ नहीं था उनमे! खाली थीं वो! "कुछ है?" पूछा शर्मा जी ने, "नहीं, खाली हैं" मैंने कहा, फिर मैंने एक एक में झाँक कर देखा, सभी खाली!
तभी बाबा ने मेरे कंधे पर थपथपाया,
और एक तरफ इशारा किया! मैंने रौशनी मारी वहां, वहाँ एक गोल सा दरवाज़ा था! शायद दूसरे कक्ष में जाने के लिए! "चलो!" कहा मैंने,
और हम चले उधर! और जैसे ही पहुंचे, हमारे पाँव में खनक खनक की सी आवाज़ हुई। मैंने नीचे रौशनी डाली!
और जो देखा, वो इस जहां का नहीं था! जहाँ तक देखो, सोना ही सोना! अकूत धन दौलत! सोने के गोल गोल आभूषण! मैं नीचे झुका! और उठाया एक आभूषण! ये पासुदा था! जाँघों पर पहने जाने वाल आभूषण! चमक ऐसी कि पूरा कमरा रौशनी पड़ने से उसके ऊपर, चमक गया! सभी हैरान! सभी ने उठा के देखे वो आभूषण! बाबा ने भी उठाये, और अपन बैग जैसे ही कंधे से नीचे उतारा, मैंने इरादा भांपा उनका! "ये गलती नहीं करना बाबा!" कहा मैंने, "कैसी गलती?" बोले बाबा! "ये स्वर्ण,हमारा नहीं है!" कहा मैंने, "तो किसका है?" बोले वो, अब तक, मैंने उनके हाथों से आभूषण ले लिए थे!
और गिरा दिए थे नीचे! "जिनके लिए ये है, वे लौटेंगे इसको लेने! उनके लिए ही रखा गया है!" कहा मैंने, "कोई नहीं लौटेगा!" बोले वो! "लौटेगा! आज नहीं तो कल! ईमान से न डिगो! औघड़ हो, स्वर्ण मिट्टी समान है!" कहा मैंने, अब न बोले कुछ!
और मुझे पीछे से भी आवाज़ आई आभूषणों के नीचे गिरने की! नकुल और हीरा भी समझ गए थे! "एक बात और बाबा!" कहा मैंने, "क्या?" बोले वो, "मंदिर हो या मस्जिद, इसका स्वर्ण लेना, महापाप है! चोरी है ये!" कहा मैंने! "जानता हूँ"बोले वो, "तो आगे चलो अब!" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले वो, 'वो, उधर!" कहा मैंने! मित्रगण!
उन आभषों के ऊपर होते हुए, हम एक और कक्ष में पहुंचे!
यहां भी स्वर्ण ही स्वर्ण! भरा हुआ था कक्ष! जैसे मिट्टी भरी हो। अब समझ में आया मुझे! उन किरातों के स्वार्णाभूषणों का रहस्य! "शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोले वो, "ये किरात-सम्पदा है!" कहा मैंने! "मैं समझ गया था, येसिन के परिवार के स्वर्ण का रहस्य है ये!" बोले वो! "बिलकुल ठीक!" कहा मैंने, "चलो!" कहा मैंने,
और हम फिर से एक कक्ष में आये! यहां भी स्वर्ण ही स्वर्ण! इतना स्वर्ण तो मैंने कभी देखा ही नहीं था! ये माया नहीं थी! माया का धन, पांवों के नीचे नहीं आता! ये तो किचर-किचर कर रहा था! "वो देखो!" कहा मैंने, "वो क्या है?" बोले बाबा! "कोई रास्ता है, ऊपर के लिए!" कहा मैंने, रास्ता बड़ा अजीब सा था वो! ज़मीन से कोई तीन फीट ऊपर, एक दरवाज़ा सा बना था! नीचे न सीढ़ियां थीं, न चबूतरा कोई! उछल कर ही चढ़ो! मैं गया वहा तक! रौशनी मारी उधर! वहां सीढ़ियां थीं! लेकिन! एक बार में बस एक ही आदमी चढ़ सकता था ऊपर! "मैं जाता हूँ!" कहा मैंने!
और तब मैंने टोर्च शर्मा जी को पकड़ाई, और चढ़ा, टोर्च वापिस ली,
और चढ़ने लगा ऊपर! खड़ा होता पूरा तो सर टकरा जाता छत से! झुक के ही चला जा सकता था इसमें! मैं ऊपर आया तब, रास्ता खड़ा था बिलकुल। करीब बारह फ़ीट तक! मैं खड़ा हआ वहाँ, और सभी आये फिर! यहां भी स्वर्ण ही स्वर्ण था! मैंने इतना स्वर्ण, कभी नहीं देखा था! यहां तो जैसे सारे संसार का स्वर्ण लाकर, डाल दिया गया था! अरबों रुपये का, यूँ कहो कि खरबों रुपये का बहुमूल्य स्वर्ण यहां ऐसे बिखरा पड़ा था जैसे मिट्टी! सभी हैरान थे! चकित थे! क्या ये स्वर्ण ही है? कुछ और तो नहीं? लेकिन ये स्वर्ण ही था! "ये स्वर्ण! इतना स्वर्ण!" बोले शर्मा जी! "हाँ जी!" कहा मैंने, "जैसे पूरे संसार का स्वर्ण!" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने, "कुबेर का धन-कोष सा लगता है!" बोले वो! "हाँ,सच कहा!" कहा मैंने! तभी फिर से वही घंटा बजने की आवाज़ आई! लगा कि, जैसे पीछे कक्ष से ही आई हो! कान टर्रा गए थे हमारे! बंद करने पड़े! "आओ ज़रा!" कहा मैंने, "चलिए" बोले वो!
और हम आगे चले, एक रास्ता था वहाँ! वहीं चले! घुसे उसमे, और आये एक कक्ष में! अब क्या देखा! जो देखा, वो न सिर्फ हैरान कर देने वाला था, बल्कि खून भी जमा दे ऐसा था! कक्ष के मध्य, छत से एक बड़ा सा घंटा टंगा था! ये भी स्वर्ण का ही था! लगता तो स्वर्ण का ही था!
अब हैरान कर देने वाली बात क्या? बोये, कि वो हिल रहा था! पूर्व से पश्चिम तक! मेरे शरीर से भी बड़ा घंटा था वौ! उसका लोलक कम से काम सौ किलो वजनी रहा होगा! घंटा एक मोटी से जंजीर से बंधा था! सभी आँखें फाड़े देख रहे थे! घंटा था, ठीक था! लोलक था, ठीक था! लेकिन उसको बजाता कौन था? कौन बजा रहा था? क्यों हिल रहा था वो! अब तो जैसे पांवों में पसीने आ गए! सर्द सा एहसास हुआ! सर्दी की सी फुरफुरी रेंग गयी शरीर में! कौन है यहां? कौन है मौज्दा अब न जाने क्या हो? और क्या न हो? हम सभी, ऐसे खड़े थे, जैसे भीगी बिल्ली! और तो और, उस घंटे का दोलन, कम नहीं होता था! क सीमा से, ख सीमा तक उसके दोलन समान थे! और यही हमारे भय का कारण था! "निकलो यहां से!" कहा मैंने!
और मैंने रौशनी मारी आसपास,
एक रास्ता दिखा! "चलो उधर!" कहा मैंने,
और हम, उस घंटे को देखते हुए, उस रास्ते में घुस गए! रास्ता संकरा था, मात्र दो फ़ीट चौड़ा ही! एक बार में एक ही निकल सकता था वहाँ से कोई व्यक्ति! मैं सबसे आगे था, और बाकी मेरे पीछे, अब यहां से एक और रास्ता था, ये नीचे जा रहा था! सभी
आ गए थे। "यहां, यहां से उतरो!" कहा मैंने, और मैं, सभी को ले, उतर पड़ा। अब हम जहां आये, तो हमारी आँखों ने जो देखा, वो कभी नहीं भूला जा सकता! वहाँ एक मूर्ति थी! किसी किम्पुरुष स्त्री की! आदमकद मूर्ति स्वर्ण से बनी। स्वर्ण के आभूषण उसके शरीर से चस्पा
नहीं थे, उसके संग नहीं उकेरे गए थे! बल्कि उसको धारण कराये गए थे! "बेहतरीन!" मेरे मुंह से निकला! "अजूबा है!" बोले शर्मा जी! "इसके अंग-प्रत्यंग देखिये! कैसे जीवंत हैं!" कहा मैंने! "सच में! कैसी दिव्य मूर्ति है!" कहा मैंने!
और तभी घंटा बजा! कान फट जाएँ ऐसी आवाज़ हुई! घंटा तो बजा! लेकिन अंदर ही अंदर हम भी बज गए! भय तो था ही! पहले से! अब भय ने आभूषण और धारण कर लिए थे! सभी टकटकी लगाये देख रहे थे उस मूर्ति को! जैसे उसने आकर्षण मंत्र चला हो! "आओ" कहा मैंने,
और चले एक तरफ! घुसे एक संकरे से रास्ते में फिर से!
और ये क्या? कहाँ आ गए हम? खंडहर कहाँ गए? वोस्थान, कहाँ गया?
हम जहां आये थे, वहां तो दीवारों पर, पेड़ों की जड़ें और लताएँ थीं! पेड़ों की दाढ़ियाँ लटकी थीं! ये तो वन-उपवन जैसा था। मैंने पीछे देखा, रास्ता वहीं था! कोई माया नहीं थी ये? "ये क्या हुआ?" बोले बाबा! "मुझे भी नहीं पता!" कहा मैंने, "ये जंगल कहाँ से आ गया?" बोले वो! "लेकिन जंगल में ऐसा स्थान नहीं है कोई!" कहा मैंने, तभी एक पेड़ पर फड़फड़ सी हुई! हमारी टोर्च लग गयीं उसी तरफ!
ये क्या देखा? क्या है ये? हंस?
पेड़ पर हंस? हंस सा ही लगता है!
"ये हंस है क्या?" पछा मैंने, "लगता वो वही है" बोले बाबा! 'शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ, हंस ही लगता है!" बोले वो!
और तभी एक सर्द सा झोंका आया! कोहरे का सा झोंका! ठंडा झोंका! रोंगटे खड़े हो गए हमारे! सामने एक रास्ता था, दूर तलक गया था! "वो रास्ता ही है न?" कहा मैंने बाबा से, "हाँ" बोले वो, "चलो फिर" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, "सब हाथ पकड़ लो एक दूसरे का, कहीं कोई भटक न जाए!" कहा मैंने,
और सभी ने एक दूसरे के हाथ पकड़ लिए! मैंने शर्मा जी का हाथ पकड़ा था! "आओ" कहा मैंने, और सबसे आगे चला। "ये कैसा जंगल है?" बोले बाबा! "पता नहीं कौन सा जंगल है!" कहा मैंने, "जैसे किसी और लोक में आ गए हों!" बोले बाबा! "हाँ, ऐसा ही लगता है" मैंने कहा,
और तभी भीनी भीनी सुगंध आई! जैसे रात की रानी की सुगंध हआ करती है! थोड़ा सा ही आगे गए थे कि, रुक गए। पेड़ों पर लताएँ चढ़ी थीं! विशाल पेड़ और विशाल ही लताएँ! फूल
लगे थे,सफेद सफेद! यही से आ रही थी वो सुगंध! "कहीं किम्पुरुष लोक में तो नहीं आ गए?" बोले शर्मा जी, मैंने आकाश देखा! अँधेरा तो था ही। तारे भी निकल चुके थे! चाँद नहीं नज़र आ रहे थे! शायद, पेड़ों के ओट में छिपे थे! "नहीं, है तो हम उसी जंगल में!" कहा मैंने, "तो ये बदल कैसे गया" बाबा बोले! "नहीं मालूम!" कहा मैंने,
और अचानक ही, मेरी नज़र बायीं तरफ पड़ी! मैं रुक गया! सभी रुके! "वो क्या है?" कहा मैंने,रौशनीमारते हए! "क्या है?" बोले बाबा! "देखो, वो?" कहा मैंने, "अरे!" बोले वो!
"आओ ज़रा?" कहा मैंने!
और हम चले उधर! भयानक। भयानक मंजर था! एक पेड़ था वहाँ, शीशम जैसा!
और उसके नीचे, करीब पचास-साठ, कमर तक गड़े कंकाल थे! सभी कमर तक गड़े! "ये क्या है?" बोले वो! "पता नहीं!" कहा मैंने,
और मैं एक कंकाल के पास जा बैठा! उसको गौर से देखा! खोपड़ी को, किसी वयस्क का कंकाल था वो!
और तभी नज़र पड़ी मेरी उस कंकाल की रीढ़ पर! काला सा धागा बंधा था उस पर! मैं एक एक करके और भी कंकाल देखे! धागा, सभी को बंधा था! "ये क्या है?" बोले शर्मा जी, "पता नहीं" कहा मैंने, "मुझे तो कोई बलि सी लगती है" बोले बाबा! कैसी अजीब बता की थी बाबाने! बलि? यदि बलि होती तो सर अलग होता धड़ से! "हैं न?" बोले बाबा! "अरे बाबा नहीं!" बोला मैं! "कैसे?" पूछा उन्होंने, "सर जड़ा है, कोई चोट का या वार का निशान नहीं है!" कहा मैंने, "हाँ, नहीं है" बोले वो, "तो क्या विष पिलाया था इनको?" पूछा मैंने, "हाँ, तो फिर क्या है?" पूछा उन्होंने, "दण्ड लगता है मुझे!" बताया मैंने!
"दण्ड?" बोले वो! "हाँ, शायद धन आदि का मामला रहा हो?" कहा मैंने, जानबूझकर कहा मैंने ऐसा! बाबा के चेहरे पर हवाईयां उड़ बैठी! मैं खड़ा हुआ,
और गिने वो कंकाल! कुल चौंसठ थे वो! एक बात और! सारे के सारे एक ही मुद्रा में गड़े थे! हाथ सामने थे उनके, खोपड़ियां सभी एक ही दिशा में देख रही थीं! मंजर तो खतरनाक था बहुत! साधारण आदमी देख ले तो सदमा बैठ जाए! "आओ चलें आगे" कहा मैंने, 'चलो" बोले वो,
और हम आगे चले! कोई सौ मीटर ही कि फिर से रुक गए! बाएं एक पेड़ पर, कंकाल झूल रहे थे! करीब पचास होंगे वो! अब तो खोपड़ी घूम गयी हमारी! ये है क्या? इनको फांसी दी थी क्या? कौन हैं ये लोग? खोपड़ी से तो, उसकी बनावट से ये, किरात तो नहीं लगते! तो ये हैं कौन? हीरा और नकुल तो बस, हाथ लगाओ ढह जाएँ! किसी रेत के टीले की तरह! बाबा भी थूक गटकें! मैं गया पेड़ के पास, एक कंकाल को देखा, उसकी रीढ़ पर भी काला ही धागा बंधा था! बड़ी अजीब सी बात थी! "ये कोई श्मशान है क्या?" बाबा बोले,
"पता नहीं, लेकिन श्मशान ऐसा नहीं होता!" कहा मैंने, "पता नहीं क्या है ये?" बोले बाबा! और तभी एक कंकाल गिरा नीचे! अस्थियां बिखर गयीं उसकी! खोपड़ी लुढ़क कर, आई हमारे पास!
और ऐसे रुकी, जैसे हमें ही देख रही हो! नकुल और हीरा की तो किल्ली निकलते निकलते बची! मारे भय के, काँप उठे थे दोनों ही!
और बाबा, तभी एक झटके से पीछे हट गए थे। अब, कंकाल कैसे गिरा? हमारी ध्वनियों से?
या अन्य कोई और कारण था? सोचने का समय नही था हमारे पास! अब एक ही विकल्प था, या तो आगे जाओ, या फिर पीछे! "आओ, आगे चलो" कहा मैंने, "चलो, निकलो यहां से" बोले बाबा!
और हम चल पड़े आगे फिर! करीब पचास मीटर चले होंगे, कि पेड़ों पर कंकाल लटके मिले! आड़े-तिरछे! कोई माया थी क्या ये? एक जगह रुका मैं! एक कंकाल को देखा, उसके सीने में एक तीर धंसा था, मैंने निकाला तीर! पतले बांस से बना तौर था वो!
और उसकी नोंक, फाल, जंगली सूअर की हड्डी को घिसकर बनायी गयी थी! बाण करीब चार फ़ीट का रहा होगा! पीछे, दिशा-निर्धारण और स्तम्भन हेतु, चील के पंख लगे थे! "ये तीर?" बोले बाबा, "हाँ, पता नहीं किसका होगा" कहा मैंने, "इसे तीर से ही मारा गया होगा!" बोले वो, "हाँ, यही लगता है!" कहा मैंने, अब वापिस वो तीर मैंने डाल दिया उसी कंकाल के सीने में!
"चलो आगे!" कहा मैंने, "चलो" बोले बाबा, और चले हम आगे! कोई दो सौ मीटर चले होंगे, कि एक कुआँ सा दिखा!
कुआँ
जंगल में? मैं आगे बढ़ा, और देखा उसमे, रौशनी मारते हुए! कुआं ही था, लेकिन गहरा नहीं था, अंदर बस जड़ें ही जड़ें थीं उसमे! "कुआँ है?" बोले शर्मा जी! "हाँ, लगता तो कुआँ ही है!" कहा मैंने,
अब देखा शर्मा जी ने। "कुआँ नहीं लगता!" बोले वो, "फिर?" कहा मैंने, "जल-संग्रहण सा लगता है!" बोले वो, "तो भी कुआँ ही हुआ" कहा मैंने, "न! कोई निशान नहीं है इसकी किनारियों पर!" बोले वो! 'चलो छोडो, आगे बढ़ो!" बोले बाबा! "चलो" कहा मैंने, और हम चल पड़े। आगे आये, तो हुए रास्ते तीन अब! ये तो जैसे हम चौराहे पर आ गए थे! एक रास्ता सामने था, एक दायें और एक बाएं! "अब कहाँ जाएँ?" बोले बाबा! "सीधा ही चलो" कहा मैंने, 'चलो फिर" कहा उन्होंने,
और हम चले सीधे अब! चलते रहे।
और एक जगह पहुंचे! ये कोई कक्ष सा था! कक्ष में चार चौखटें थीं! चौखटों में, कोई दरवाज़ा नहीं था! पत्थर से बन कक्ष था सारा का सारा!
"अंदर चलो" कहा मैंने, "चलो" बोले शर्मा जी, "आओ बाबा!" कहा मैंने,
और हम अंदर चले कक्ष के! कक्ष में कुछ नहीं था! कुछ भी नहीं!
खाली था, और पत्थरों की गंध आ रही थी!
और हाँ, छत के मध्य एक बड़ा सा छेद था! गोल छेद! "ये कैसा कक्ष है?" बोले बाबा! "पता नहीं!" कहा मैंने, रौशनी मार रहा था मैं दीवारों पर,
और जैसे ही छत पर मारी, सभी चौंक पड़े!! एक बार को तो मैं भी! "ये क्या है?" हैरत से बोले शर्मा जी! सारी छत से, खोपड़ियां लटक रही थीं! कम से कम, डेढ़ सौ होंगी! कोटरों में उनके, आँखों के, धागे बंधे थे! काले रंग के। ऐसा तो मैंने कहीं नहीं देखा! कभी नहीं सुना! "क्या है ये?" बोले शर्मा जी! "ये है कोई क्रिया-स्थल!" कहा मैंने! "अच्छा !" बोले वो! "कैसे?" बाबा ने पूछा, "यही है! चार दिशाएँ! नभ की ओर पूजन!" कहा मैंने, "हाँ! सही कहा!" बोले बाबा! "और ये खोपड़ियां?" पूछा उन्होंने, "होगा कोई विधान!" कहा मैंने! कक्ष ऐसा भयावह था कि कोई आम आदमी घुस जाए, तो बाहर ही न आये! देह से प्राण निकल जाएँ उसी छत के छेद से!
"चलो अब यहां से!" कहा मैंने! "हाँ, चलो" बोले बाबा! मैंने घड़ी देखी, आठ बजे थे।
आठ बजे उस रात हम मरघट जैसे सन्नाटे वाली जगह पर, भटक रहे थे, वो भी एक अनजान जगह, अनजान दिशा में! हम निकले वहाँ से, और चले सामने की तरफ! अब चाँद दिखाई दिए थे! चमक रहे थे। उनकी रौशनी हमेशा शान्ति दिया करती है, लेकिन आज तो भयावह थी! जिस जिस पर पड़ती, वो ही भुतहा सा लगने लगता था!
क्या पेड़, क्या बेलें, क्या भूमि और क्या वो पीछे छूटा कक्ष! सबकुछ भयावह! "वो क्या है?" बाबा ने एक जगह देखते हए कहा, "ये भी कोई कक्ष सा ही लगता है!" कहा मैंने, "हाँ, वैसा ही है" बोले शर्मा जी, "चलो, चलकर देखते हैं" कहा मैंने, "अरे क्या ज़रूरत है?" बाबा बोले, "ज़रूरत है!" मैंने कहा,
और मैं चल पड़ा शर्मा जी का हाथ थाम कर! अब सब,आये दौड़े दौड़े हमारे पास! वो कक्ष नहीं था! वो तो एक बारामदा सा था! अंदर चार स्तम्भ बने थे! स्तम्भों पर, सिंह के मुंह बने थे! "ये भी कोई क्रिया-स्थल ही है!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोले शर्मा जी!
और तभी रौशनी मारते हए, मेरी नज़र दीवार में बनी एक चौखट तक गयी! "वो, वहां, वहाँ चलो" कहा मैंने, और मैं चला शर्मा जी के साथ! आये अंदर! और जैसे ही आये, मारे भी के हीरा और नकुल तो उछल पड़े! ढेर! मानव अस्थियों का ढेर! एक कोने में ऐसे बिखरा था जैसे, अनाज रखा जाता है! अस्थियां ही अस्थियां!
फूटी हुई खोपड़िया! टूटी हुई हड्डियां! "अरे बाप रे! ये क्या?" बोले शर्मा जी! "बड़ी अजीब सी बात है!" कहा मैंने, "ये तो जैसे संग्रह की गयी हैं!" बोले शर्मा जी! "हाँ, इकट्ठा किया गया है इन्हें!" कहा मैंने! "वो, वो देखो" बोले शर्मा जी, 'फिर से एक चौखट?" कहा मैंने, "हाँ" बोले वो, "चलो फिर" कहा मैंने, और हम चले उधर ही! नकुल और हीरा, भाग कर सामने आ गए हमारे! अब उस कक्ष में गए! वहां कुछ नहीं था, बस एक चौखट थी! हम उसमे चले, बारामदासा आया, और जो देखा!
वो अजीब ही था! समझ से परे! वहाँ तीन गोल चबूतरे बने थे! बीच में एक बड़ा सा! दायें एक, छोटा, और बाएं एक, छोटा! उन चबूतरों के आसपास, नालियां बनी थीं! जैसे कोई तरल रखा जाता हो उनमे!
तरल? कैसा तरल? कौन सा तरल? दिमाग घूमा! कहीं, रक्त तो नहीं? सम्भव है। सम्भव है। नहीं तो नालियां किसलिए? मैंने नालियों पर रौशनी मारी, और चला उनके साथ ही साथ! सभी मेरे साथ साथ चले!
और जहाँ नालियां खत्म हुईं, वो एक कुण्ड था! यहां से बहता तरल, इस कुण्ड में गिरता होगा!
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इसीलिए बनाया गया था ये! "ये तो और रहस्यमय हो गया है मामला!" कहा मैंने! "अब चलो यहां से" बाबा खुसफुसाये। "चलो" कहा मैंने,
और हम फिर से वापिस हए! चले आये अपने रास्ते पर! तभी घंटा बजा! कानों में तेज आवाज़ गूंजी! जैसे ही घंटा बजा, वो भय फिर से आ खड़ा हुआ सामने! हम चलते रहे! सामने, सीधा!
और अब आया एक बड़ा सा पेड़! बहुत बड़ा पेड़! बरगद का रहा होगा! हाँ, बरगद ही था! लेकिन उसके तने पर, पीलारंग पुता था! बड़ी बड़ी शाखों पर भी यही रंग पुता था! अब पता नहीं किसलिए! तभी मेरी निगाह वहाँ रखी एक वस्तु पर पड़ी! वो पेड़ के नीचे रखी थी! मैं आगे गया, रौशनी मारी, तो वो कोई वस्त्र सा लगा! मैंने उठाया उसको! नरम सा वस्त्र था!
और जैसे ही उठाया, मैंने फेंक दिया नीचे! मेरी उँगलियों में, नाखूनों में, भयंकर पीड़ा हुई! रौशनी में देखा, तो मेरे नाखून पीले पड़ गए थे! एकदम पीले फूलों जैसे पीले!
और पीड़ा ही पीड़ा हो! मन करे, बर्फ में घुसेड़ दूँदोनों हाथ! कराह पड़ा था मैं उस समय! सभी घबरा गए थे!
और फिर धीरे धीरे पीड़ा शांत हुई मेरी!
लेकिन नाखुनों में से गर्मी निकले! लगे, जैसे किसी ने उलीच दिया है उनको मेरी उँगलियों से! शर्मा जी ने पानी डाला था बहत! बहुत पानी! अपन रुमाल गीला कर, लपेट दिए थे हाथ मेरे!
राहत अवश्य ही पड़ी थी! "क्या था उसमे?" पूछा शर्मा जी ने, "पता नहीं, आग सी लग गयी थी" कहा मैंने, "कोई रसायन है क्या?" पूछा उन्होंने, "पता नहीं" कहा मैंने! कोई पौना घंटा लगा मुझे सामान्य होने में, नाखून अब पीले नहीं थे! प्रभाव मिट गया था! हम आगे चल रह थे, बढ़ रहे थे आगे! ये जगह, यहां पर, अब भानगढ़ के किले जैसी लगी! वही वीराना, वही सन्नाटा! वैसा हीस्थल!
और तभी बाबा की नज़र में कुछ आया! "वो देखो" बोले वो, "क्या है?" कहा मैंने, "कोई रास्ता लगता है" बोले वो, "चलो फिर" कहा मैंने,
