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वर्ष २०१० काशी के समीप की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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ऐसी ही लिखी है तो ऐसी ही सही! "आओ" कहा मैंने, और हम चले आगे! जैसे ही हम पहंचे कोई आगे,और रह गए बीस फीट! वे पलटी हमारी तरफ! ये मैं क्या देख रहा था? क्या देख रहा था?? जैसे ही वो पलटी! उनका शरीर प्रकाश के मारे कौंधा! सुनहरा प्रकाश! और जैसे धीरे धीरे प्रकाश को उनका वो कामुक सौंदर्य अपने आपमें अवशोषित कर गया! वे बारह थीं, एक समान! हाँ, एक जैसा रंग-रूप! एक जैसी कद-काठी! सुडौल देह! सुडौल एक समान स्तन उनके! स्तनों के स्तनाग्र किसी स्वर्ण जैसे धागे से बंधे हुए थे! धागा ऐसा, कि जैसे हीरों से बना हो! ऐसा अनुपम सौंदर्य कि, अप्सरा भी डाह से काली पड़ जाएँ! आभूषण नहीं थे उनके बदन पर, लेकिन काम! काम जैसे खौल रहा था! वे मुस्कुरा रही थीं! सच कहता हूँ, कौन कौन स्खलित हुआ होगा पता नहीं, लेकिन मैंने बहुत संभाला आपको! नेभ-क्रिया-योग नहीं करता तो संभवतः मैं भी स्खलित हो जाता! ऐसा रूप था उनका, उनको देखते ही शरीर के सारी ऊर्जा जैसे, उनमे ही समा गयी थी, लिंग में उत्तेजना थी, बस, यही पता चलता था, नहीं तो सब सुन्न! उनकी कमर, जैसे, यौवन भरे सेमल वृक्ष का तना उनके होंठ, उभरे हए, जैसे गुलाब की कच्ची कली! उनको नाबी, चमक रही थी, जैसे हीरे की कणि लगाई हो उसमे! रूप.रंग ऐसा, जैसे चंदन का होता है। जंघाएँ ऐसी, जैसे कदुल वृक्ष का तना! उभरी हुईं, कदुल वृक्ष का तना भी उभरा हुआ होता है, स्निग्ध, और मुलायम, हाथ लगाए, मैला हो ऐसा! उनकी पिंडलियां, जैसे भौलुषा बेल का फल ! जैसे सिन्दुरिया आम का पृष्ठ भाग! उनका कद, मेरे जैसा, सुगंध, जैसे कच्चे पारिजात के पुष्पों से आती है, खट्टी सी, मुंह में पानी लाने वाली! हम सब जैसे जड़ हो चले थे! 

ऐसा सौंदर्य तो मैंने जिन्नातों में भी न देखा था! एक से एक पारलौकिक रूपसी देखी थीं, लेकिन ये, सबसे पृथक! ये हैं कौन? वन-कन्याएं? वन-अप्सराएं? वन-चारिणियां? वन-काम-कन्याएं? कौन हैं ये? लिंग में उत्तेजना ऐसी, कि, पीड़ा हो! जैसे, अभी, और अभी स्खलन हो और निजात मिले! फड़कन! ऐसी फड़कन जो प्राण हरे! 

जो सारी सीमाएं लांघ दे! कौन? कौन हैं ये? शब्द? निकलें ही नहीं मुंह से! 

श्वास? जैसे अटक गयीं! बस काम! जैसे काम की बाढ़ आ गयी! टूट जाएँ सेतु सारे! मैंने अपने आपको कैसे रोका, ये तो बस मैं जानता हूँ! बस मैं! 

और अगले ही पल! वे आगे बढ़ी! आगे, जी हाँ आगे! हमारी तरफ! दम घुटे! अंडकोषों में, विप्रन-क्रिया हो! क्या करूं? 

कैसे कर हम, इतने कच्चे? 

कच्चे हो गए? 

भंगुर? 

कैसे? 

असम्भव! कहाँ गए मंत्र? बाबा का कल्लव? मेरा दुहित्र? कहाँ गया? दुहित्र तो चीरे दे तीन आयाम! आज कहाँ गया? हाँ! नेभ-क्रिया-योग! इसने बचा लिया! मित्रगण! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये क्रिया मात्र औघड़ों के लिए ही नहीं है। ये एक शारीरिक क्रिया है, आप भी कर सकते हैं। इस पृथ्वी पर, मात्र दो प्राणी हैं जो ये क्रिया कर सकते हैं! एक अश्व! 

और एक मानव! अन्य कोई नहीं! नेभ! अर्थात अश्व! जब भी कबि कोई अश्व, संसर्ग करता है, तो अपनी गुदा को संकुचित कर लेता है! ये उसका नैसर्गिक गुण है, जो मनुष्यों के पास नहीं है। हाँ, स्त्रियों के पास, आंशिक रूप से है,इसी कारण से वो शीघ्र ही स्खलित नहीं होती, आने यदि उनका ये नेभ-चक्र बींध दिया, तो स्खलित होने में, क्षण भी नहीं लगेंगे! पुरषों में, अंडकोषों से गुदा-मार्ग तक एक रेखा होती है, यही है नेभ-स्थल! इसको पुष्ट कीजिये! आप अश्व की तरह, गुदा-मार्ग संकुचन कीजिये, आरम्भ में ये मात्र कुछ पलों का ही होगा, परन्ति निरंतर अभ्यास से, ये एक घंटे तक पहुंचाया जा सकता है, यदि आप नेभ-क्रिया में हैं,तो वजन नापिये, बिना नेभ से, दस किलो कम! है न चमत्कार! अब,संकुचन कैसे हो? आप भूमि पर बैठिये, हाथों के दोनों अंगुठे एक-दूसरे में बाँध लीजिये! और गुदा को संकुचित कीजिये! माह,दो माह, तीन माह और आप,नेभ-क्रिया में आगे बढ़ जाएंगे! तब कोई अप्सरा भी हो, तो वो 

भी स्खलित हो जाए आपसे! 

हाँ तो हम ही यहां, स्खलन से बच रहे थे! रूप क्या होता है, काम क्या होता है, काम-विवशता क्या होती है,ये तो अब पता चला था! मित्रगण! 

वे आगे बढ़ीं! दीये रखे नीचे! दीये भी ऐसे, जैसे स्वर्ण के हों! "आप कौन हैं?" पूछा मैंने! कोई उत्तर नहीं। "कोई वन-सम्बन्ध?" कहा मैंने, कोई उत्तर नहीं! बस वे, मुस्कुराएं! दीये, ऐसे जेन, कि न तो वायु का प्रभाव हो, न गुरुत्वाकर्षण का! लौ, ऐसी, कि जैसे मात्र चित्र ही हो! कुछ पल शान्ति! कुछ पल! ऐसे ही गुजरे कुछ पल! "उलुयौरमा!" कहा मैंने, जैसे ही कहा! वे लोप! दीये लोप! अब ये क्या? ये क्या हुआ? कुछ पल तो हम, जैसे शून्य-बिम्ब में थे! ये क्या था? कहाँ गयी? 

वे दीये? क्या उद्देश्य था? और जैसे हम काम-तन्द्रा से जागे! हीर, नकुल और बाबा, संभवतः,स्खलन का शिकार हए थे! उनकी भाव-भंगिमा से मैंने जाना! शिष्टाचारगत, कुछ नहीं कहा मैंने! कुछ नहीं कहा! "चलो वापिस" कहा मैंने, "लेकिन?" बाबा बोले, "क्या लेकिन?" पूछा मैंने, "ये कौन थी?" पूछा उन्होंने, "शायद, काम-कन्याएं!" कहा मैंने, "तो लोप क्यों हुईं?" बोले वो! "लोप नहीं, वे यहीं हैं!" कहा मैंने, "क्या?" बोले वो! अचरज से! "हाँ! यहीं हैं!" कहा मैंने! अब सभी हैरान! क्या कहें! हैरान थे सब! ये मैं क्या कह रहा हूँ! वे, सब, यहीं हैं? कैसे सम्भव है! पर असल में यही था! अब मैं समझने लगा था! समझने कि ये कौलविकाएँ थीं! कौलविकाएँ! मार्ग-प्रहरी! ये अक्सर वनों में वास करती हैं। भारत में ऐसे कई वन हैं जहां इस प्रकार की कौलविकाएँ उपस्थित हैं। अक्सर लोग इन्हे वन-देवी, वन-चरिकाएँ आदि मान लेते हैं, ऐसा नहीं है! ये मार्ग प्रशस्त किया करती हैं। और एक बात, ये मार्ग भटका भी सकती हैं। जैसी भावना होगी, वैसा ही मार्ग होगा! इन्होने संकेत दिया था कि उन किम्पुरुषों का स्थान यहीं कहीं समीप ही है! देखते हैं, कहीं ये गुफा ही तो नहीं? कहीं ये


   
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श्रीशः उपदंडक
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ही तो स्थान नहीं वो? अब हमें जाना था उस गुफा में! "आओ बाबा, अब गुफा में चलें!" कहा मैंने, बाबा को विस्मय था! विस्मय में पड़े थे बाबा! "हाँ, हाँ! चलो!" बोले वो! 

और हम अब सब चले वहां से, आये उस गुफा के रास्ते पर! 

और फिर चले ऊपर की तरफ! आ गए हॉफते हॉफते गुफा के मुहाने पर! साँसें फूल गयी थीं! वहीं आराम किया अब थोड़ा सा! पानी पिया, और मैं तो ज़मीन पर ही बैठ गया! मैं बैठा, तो सब बैठ गए! "अब घुटना कैसा है?" पूछा मैंने,शर्मा जी से, "अब ठीक है, वो दवा काम कर गयी!" बोले वो, "अच्छा हआ!" कहा मैंने, "हाँ, नहीं तो सारा सत्यनाश हो जाता!" बोले वो, "हाँ, अवरोध ही मानो आप!" कहा मैंने, "हाँ, सभी मंद पड़ जाते फिर" कहा मैंने, "कौन सी झाड़ी थी वो?" पूछा उन्होंने, "करकटा!" कहा मैंने, "हाँ, करकटा! लाजवाब दवा है!" बोले वो, "उसके फूलों को मसल कर चेहरे आदि पर लगा लो तो मच्छर भी नहीं आते!" बोला मैं, "हाँ, एक गंध है उसमे!" बोले वो! "हाँ, एक तेल की गंध!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोले वो! "अरे वो देखो ज़रा!" बोला हीरा! खड़ा हो गया था! "क्या है?" पूछा मैंने, "आप देखो तो सही?"बोला वो, मैं खड़ा हुआ, और देखा वो,जो दिखाना चाहता था! वो सांप थे, दो सांप! काले और सफेद रंग के छल्ले से पहने! "ये करैत है। नीला करैत! भारत के सबसे विषैले साँपों में से एक!" कहा मैंने, "मैंने तो आज तक नहीं देखा!" बोला वो! "बहुत कम ही दीखते हैं!" कहा मैंने! "हैं तो सुंदर!" बोला वो! "हाँ, लेकिन इसकी एक बूंद ज़हर, सौ आदमियों की जान ले ले! हीमोटॉक्सिन होता है इसके ज़हर में! खून जम जाता है पल भर में ही!" कहा मैंने! 

"अरे बाप रे!" बोला वो! 

और फिर वो करैत जोड़ा, चला गया झाड़ियों में! लग गया था अपने शिकार ढूंढने में। तालाब की तरफ ही गए होंगे, वहीं चूहे और मेंढक मिलते होंगे! 

और फिर कर लिया हमने आराम! और अब उठे और चले गुफा की तरफ! गुफा हमसे कोई बीस फ़ीट ही दूर होगी, हम आये उसके मुहाने पर, मकड़ियों ने तो परदे बना रखे थे उस गुफा के मुंह पर! हज़ारों लाखों मकड़ियाँ थीं उस जाले पर रेंगती हुई! थीं भी काले और नीले से रंग की! स्पष्ट था, वे विषैली थीं! अब क्या करें? किसी लकड़ी से जाल हटायें तो एक क्षण में ही सैंकड़ों चढ़ जाती हमारे ऊपर! ये एक बाधा थी! लेकिन बाधाओं से जूझना ही तो होता है! पीछे क्यों जाएँ! "नकुल?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोला वो, "रुमाल है तेरे पास?" पूछा मैंने, "हाँ जी है" बोला वो, "दे मझे" कहा मैंने, उसने दे दिया, "शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोले वो, "एक लकड़ी तोडों ज़रा, गीली सी" कहा मैंने, "अभी लाया" बोले वो, 

और तोड़ लाये एक पेड़ से लकड़ी, गीली थी! अब रुमाल लपेटा उस पर, और कुछ सूखी घास! "लाइटर दो शर्मा जी" कहा मैंने, "लो" दे दिया मुझे, अब जला दिया मैंने उनको! थोड़ी मशक्क़त तो करनी पड़ी, लेकिन जल गया वो! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और लगाया जाले के पास! गर्मी से, मकड़ियाँ भाग दौड़ी ऊपर, दायें! चढ़ गयीं एक दूसरे के ऊपर! और हमारा रास्ता हो गया साफ़! मैंने उसी जलती लकड़ी से जाल काट डाला! "आओ अब, एक एक करके!" कहा मैंने, 

आ गए सभी एक एक करके अंदर! "बाबा, टोर्च जला लो" कहा मैंने,अब बाबा ने टोर्च जलायी, एक मुझे दे दी! मैं आगे बढ़ा, ज़मीन को देखते हुए! धूल जमी थी, कपड़े से मुंह ढकना पड़ा अपना! सभी ने ढके, नकुल ने अपनी कमीज से ढका मुंह अपना! 

अंदर तो बुरा हाल था! बदबू आ रही थी! जैसे सीलन हो, लेकिन सीलन का तो नामोनिशान भी नहीं था वहां। तो फिर? आगे गए, हम, तो जूते चिपके! मैंने रौशनी मारी वहाँ! ये आइसोपोडा कीड़े थे! उनके लारवे! इसका अर्थ था कि वहाँ चमगादड़ थे! यदि चमगादड़ थे, तो इसका अर्थ हआ कि इस गुफा का कोई और भी मुहाना अवश्य ही है! बदबू ऐसी, कि उलटीआ जाए। हम चलते रहे आगे, और फिर वो कीड़े खत्म हुए आना,अब दीवारें दिखीं, भयानक दीवारें! कीड़े रेंग रहे थे उनमे। कई तो रौशनी देख, उछल पड़ते थे रौशनी पर ही। "आराम से" कहा मैंने, 

और आगे बढ़ा मैं! दीवारों पर, कई तरह के सांप थे! कई तरह के! शायद चमगादड़ों का शिकार करते हों! इनमे एक विशेष था, करकी! संतरी रंग का करकी! जिसे भारत में सन उन्नीस सौ साठ में विलुप्त मान लिया गया था, लेकिन सन नब्बे में ये पीलीभीत के जंगलों में एक बार दिखा था, 

और अब सन दो हज़ार चौदह में दिखा है, बरेली के पास के जंगलों में! करकी सांप, वैसे जलीय होते थे, लेकिन जल की कमी के कारण, लुप्तप्रायः से हो चले थे, कुछ जीवट वाले साँपों ने, भूमि पर रहना सीख लिया! ये वहीं हैं! साँपों की यही ख़ासियत इनका अस्तित्त्व बचाये हुए हैं, इस पृथ्वी पर, इंसानों के आने से पहले भी! ये बहुत विषैला सर्प है, न्यूरोटोक्सिन से लैस! काट ले, तो शरीर दस मिनट में ही फूल जाएगा सूजन से! मांस गलने लगेगा! हडियां गलने लगेंगी! जीते जी मौत दिखाई दे जाती है! आपको एक औषधि बताता हूँ, मेरी एक होमियोपैथ महिला-मित्र जो कि एक चिकित्स्क हैं, उन्होंने बतायी थी, दवा का नाम है नाजा २००, पांच रुपये में उपलब्ध है, आप नाजा २०० कहिये, तो आपको मिल जायेगी, यदि कैसा भी विषैला सर्प काट ले, तो इस दवा की एक बूंद काटे व्यक्ति की जीभ पर रख दीजिये, हर दस मिनट में एक बूंद, तीन बार में, काटा व्यक्ति खड़ा हो जाएगा! पांच रुपये की ये दवा कम से कम सौ लोगों की जान बचा सकती है। मैं अक्सर इसको अपने पास ही रखता हूँ, और बदकिस्मती से, इस बार नहीं थी मेरे पास! खैर, हम आगे चले! लगा कि जैसे कोई ढलान हो! अब सूखा सा स्थान था ये! 

दीवारें भी सूखी ही थीं! बदबू भी नहीं थी! धुल भी नहीं थी! पांवों के नीचे, पत्थर का जैसे फर्श सा था! मैं रुका! सब रुके! "ये जगह कुछ अजीब सी है!" कहा मैंने, "कैसे?" बाबा ने रौशनी मारते हुए पूछा, "नीचे पत्थरों को देखो" कहा मैंने, उन्होंने देखा! "अरे हाँ!" बोले वो। "लगता है, किसी ने बनायी है!" मैंने कहा, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तभी एक ज़ोरदार सी आवाज़ हुई! जैसे कोई बड़ा सा घंटा बजा हो! कान टर्रा गए हमारे तो! "ये क्या था?" पूछा बाबा ने! "पता नहीं!" कहा मैंने! हम आगे बढ़े! 

आगे गए, तो क्या देखा! दोरास्ते थे वहाँ! गोल कटे थे! "दो रास्ते?" बोले वो! "एक मिनट!" मैं रुका! आगे गया, नीचे बैठा! धूल हटाई एक रास्ते से! फिर दूसरे से! 

एक पर पत्थर घिसे नहीं थे। लेकिन दूसरे पर, घिसे थे! स्पष्ट था! वो रास्ता अधिक चलता होगा! "इधर!" कहा मैंने, 

और दायां रास्ता चुना हमने! और हम चले अंदर उसके! 

 

हम अंदर चले,ऊंचाई अधिक नहीं थी उसकी छत की! बस कोई साढ़े छह फीट रही होगी! मैं तो हाथों से अच्छी तरह छू सकता था उसको! रास्ता संकरा था बस, एक बार में, एक ही आदमी जा सकता था, सामने से कोई आ जाए, तो एक को पीछे लौटना ही पड़ता! या फिर घिसट-पिसट कर जाना पड़ता! हमारे जूतों की आवाज़ ही सुनाई दे रही थी वहाँ! वैसे एक बात थी, न यहां कोई कीड़ा-मकौड़ा था, न सांप और न ही कोई छिपकली! ये अजीब सी बात थी! ये जगह जैसे आज भी उपयोग में हो, ऐसी लगती थी! जैसे कोई रोज ही झाइ-बुहारी करता हो इस जगह की! ये सबसे । बड़ी हैरत की बात थी! और फ्री से एक समतल सी ढलान आई! सामने घुप्प अँधेरा था, बस दीवार थी एक, दीवार से बाएं से एक रास्ता था, और उस दीवार में कोटर बने हुए थे, कुल तीन! मैंने एक कोटर में झाँक कर देखा, रौशनी मारी, तो सामने एक और दीवार दिखी! कोई छह फ़ीट आगे! इसका क्या अर्थ? कोई दरवाज़ा होना चाहिए था वहाँ, इस कक्ष में जाने के लिए! लेकिन दायें तो रास्ता था ही नहीं, बस बाएं ही था, तो हम बाएं चले! उस संकरे रास्ते में एक एक करके आगे बढ़ते जा रहे थे हम! हम चले, और कोई दरवाज़ा या चौखट नहीं आई उधर! बस दीवार ही थी, और कुछ 

नहीं! 

"आओ" कहा मैंने, 

और हम आगे चले, तभी फिर से एक ज़ोरदार आवाज़ आई! घंटे की! कोई बड़ा सा घंटा बजा था! कान फिर से टर्राये हमारे तो! "ये घंटा कौन बजा रहा है?" बोले शर्मा जी, "पता नहीं, देखते हैं" कहा मैंने, 

और हम आगे बढ़े! आगे आये, तो अब दो रास्ते से हुए! अब रुकना पड़ा! "फिर से दो रास्ते?" बोले शर्मा जी! "देखता हूँ" कहा मैंने, 

और बी उन दोनों रास्तों के बीच में खड़ा हुआ, एक एक बार! एक से हवा सी आई! इसका मुहाना था शायद! "यहां से चलो" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, 

और हम सभी चले! हम चले तो प्रकाश आया सामने से! यानि के हम मुहाने पर आ गए थे! निकले तो सामने बड़ा ही खूबसूरत नज़ारा था! पहले तो लगा कि हम कहीं और ही निकल आये हैं। किसी यक्षलोक में! ऐसा 


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुंदर दृश्य! मैंने ज़रा एक ओर जाकर देखा, तो हम ऊंचाई पर थे! कमाल था! हम तो ढलान पर चले थे। ये ऊंचाई कैसे? "ये तो बाहर आ गए हम?" बोले बाबा! "हाँ!" कहा मैंने, "कोई फायदा नहीं हुआ!" बोले वो! "कम से कम यहां तो पहंचे?" कहा मैंने, "हाँ....फंसे नहीं बस" बोले वो, "आओ, वापिस चलें" कहा मैंने, "वापिस?" बोले वो, चौंक पड़े! "हाँ, दूसरे रास्ते में चलें!" कहा मैंने! "अच्छा, हाँ, चलो फिर" बोले बाबा! 

और हम फिर हुए वापिस! आये उसी जगह, जहां से दो रास्ते होते थे! अब दूसरे में चले! अंदर चले! और अब यहां क्या देखा! देखा, कि दीवारों में आले बने हुए थे। बड़े बड़े आले! और चार चबूतरे थे वहाँ! पत्थरों के! जैसे वे चबूतरे, सोने के लिए प्रयोग किये जाते हो! "ये तो कोई कक्ष सा लगता है!" बोले शर्मा जी! "वही है" कहा मैंने, "कमाल है!" बोले वो! 

और तभी रौशनी मारी मैंने दीवारों पर! दीवार पर, लाल रंग से कुछ लिखा हुआ था! अ, ब, ज, त्र और ऋ, ये सब ऊपर से नीचे लिखे थे! अब, इनका क्या अर्थ था, ये सर के ऊपर से चला गया! "इनका क्या अर्थ हुआ?"शर्मा जी ने पूछा, "पता नहीं" कहा मैंने, "ये तो देवनागरी है?" बोले वो, "हाँ" लिखा तो इसी लिपि में है" कहा मैंने, "वो, वहां क्या है?" बाबा ने कहा, मैंने देखा वहाँ! "कोई रास्ता है शायद, आओ देखते हैं" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े उधर ही! रास्ता पार कर ही रहे थे, कि एक कक्ष सा दिखा! "इधर आओ" कहा मैंने, 

और मैं कक्ष में घुसा अंदर! कक्ष सामान्य ही था! लेकिन! उसकी छत पर, कुछ चिन्ह बने थे! यही थी असली पहेली! चिन्ह देखिये, धनुष-बाण, एक वृषभ, एक सिंह, बड़ी अयाल वाला! नौ दीये! एक चतुर्भुज और एक वृत्त! वृत्त में सर्प! कुल नौ! "शर्मा जी, इसको अपनी डायरी में बना लीजिये!" कहा मैंने! "अभी लो!" बोले वो! अब हमारी दोनों ही टोर्च लग गयीं छत पर, रौशनी मारने में! 

और शर्मा जी ने, जस के तस चिन्ह बना लिए डायरी में! बहुत खूब बनाये थे उन्होंने! धनुष-बाण, ठीक! वृषभ, ठीक! नौ दीये, ठीक! एक चतुर्भुज, ठीक! एक वृत्त, वृत्त में नौ सर्प, ये भी ठीक! लेकिन सिंह? ये अटपटा सा लगा! सिंह तो यहां पाया ही नहीं जाता? सिंह तो भारत में मात्र गिर में हैं? यहाँ कैसे? बहुत सोचा! बहुत घोड़े दौड़ाये! 

और तब अपनी खोपड़ी पर हाथ मार! अरे बौड़म! बुद्धिहीन! इतनी देर में तो प्राण चले जाएँ! किम्पुरुष! सिंह जैसी आकृति वाले किम्पुरुष! बड़ी अयाल वाले सिंह! सिंह-मुखाकृति ही तो कहा गया है उन्हें! 

ये क्यों नहीं समझ आया? सम्भव है, उस समय सिंह रहते हों वहाँ! सम्भव है। तो हम सही स्थान पर थे! लेकिन..........क्या ये वही स्थान है? मुझे तो नहीं लगा था! 

ये तो कोई मंदिर नहीं, विश्राम-स्थल सा जान पड़ता था! "आओ,आगे चलें" कहा मैंने, और हम चले कक्ष से बाहर! आगे चले, तो फिर से कोटर दिखाई दिए दीवार में! ये किसलिए थे? प्रकाश की व्यवस्था करने हेतु? या कुछ रखने हेतु? या फिर खिड़किया? क्या औचित्य था इनका! एक कोटर में झाँका मैंने! एंड घुप्प अँधेरा था, लेकिन एक दीवार पर, एक भित्ति-


   
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चित्र सा बना था! बस, अब लगा दंश! अंदर जाना है। लेकिन जाऊं कैसे? कोई मार्ग? पागलपन सा चढ़ गया मुझे! 

आनन-फानन में,इधर उधर दूं, रास्ता! नहीं मिला रास्ता! अब क्या करूँ? अंदर जाऊं, इन कोटरों से? फंस जाऊँगा शायद! फिर भी, कोशिश करने में क्या हर्ज! "उठाओ मुझे!" कहा मैंने, उन्होंने उठाया मुझे! सर घुसाया मैंने! 

और जैसे ही सर घुसाया, एक रास्ता सा दिखा! छत की तरफ से! 

सीढ़ियां जा रही थीं नीचे! "वापिस लो!" कहा मैंने, वापिस ले लिया मुझे। "आओ, जल्दी!" कहा मैंने! 

और मैं भाग बाहर! उसी रास्ते से, जिस रास्ते से हम बाहर आये थे! निकल आये बाहर! और चले बाएं! 

एक रास्ता दिखा। यही था वो! मैं तो प्रसन्न हो उठा! "उधर!" इशारा करके, बताया मैंने सभी को! हम चले अब रास्ते की तरफ! रास्ता दिखा गया था। अब तो जंगली झाड़-झंखाड़ ने ढक लिया था उसको! कटनी से काटे वो, और अब नीचे देखा, कक्ष के एक भाग में, प्रकाश आ रहा था सूर्य का! अंदर का दृश्य ऐसा था जिसे हम मिस की वैली ऑफ़ दी किंग्स' में प्रवेश करने जा रहे हो! मैं तो अपने आपको हॉवर्ड कार्टर समझने लगा था! जिसने पहली बार तूतनखामन का मक़बरा नवंबर सन बाइस में, खोज निकाला था! यहां भी नज़ारा कुछ ऐसा ही था! रास्ता बड़ा ही अजीब था! कोई दरवाज़ा नहीं! कोई खिड़की नहीं, बस तीन कोटर! एक ऊपर और दो नीचे, सोलह सोलह इंच के! मैं तो निकल भी नहीं पाता उसमे से! खैर, कक्ष में आने का रास्ता मात्र छत से ही था! ऐसे घर मैंने ल्हासा और भूटान के जनजातीय क्षेत्रों में देखे थे! पहाड़ों में! अजीब ही भवन-निर्माण कला थी ये! इसका एक कारण हो सकता है, पत्थर सूर्य की गर्मी को सोख्ता है, अब धूप आये तो अंदर का पत्थर गर्मी को सोख लेगा, बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं, सर्दी से बचने का एक कारगर उपाय था ये! जानवरों आदि से भी सुरक्षा मिल जाती है! हवा के लिए कोटर बने हुए थे! कहिर, बाकी वे जानें! वै, जिन्होंने बनाये थे वो सब! "आओ मेरे संग!" कहा मैंने, 

और मैं सीढ़ियां उतरने लगा! हम सब उतरने लगे एक एक सीढ़ी! 

और आ गए नीचे! ये कक्ष बीस गुणा पंद्रह का रहा होगा, छत वही साढ़े छह फ़ीट की ही रही होगी! ज़मीन पर, मिट्टी पड़ी थी, दीवारों पर भी मिट्टी ही चिपकी थी, नकुल से एक झाड़ी मंगवाई,उसको झाइका सा रूप दिए,और साफ़ करवाई एक दीवार! और एक भित्ति चित्र सामने आया उभर कर! एक योद्धा! रथ पर सवार! रथ में जुड़े थे सिंह! दो सिंह! दाढ़ी ऐसी, जैसे सिंह की अयाल! उस स्थ को कोई स्त्री हाँक रही थी, स्त्री नग्न थी, परन्तु, आभूषणों से लदी हुई! और योद्धा ने, आभूषण ही 

आभूषण धारण किये हुए थे! उसका धनुष उसके हाथ में था! बाण, एक कोने में, रथ पर, एक तरकश सा था, उसमे रखे हुए थे। धनुष देखकर लगता था कि, जैसे हिरण की सींगों को चीर कर, लकड़ी पर लपेट कर बनाया गया है। क्योंकि धनुष में खांचे से बने थे, चार


   
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दायें और चार बाएं। फिर उन्हें, रस्सियों से बाँधा गया था! योद्धा की लम्बाई-चौड़ाई कम से कम आठ फ़ीट रही होगी! 

यहां वो साढ़े छह फीट का था! रथ के पहियों में, भाले से लगे थे। ये था एक किरात योद्धा! फिर दूसरी दीवार साफ़ करवाई! और ये क्या? वही! वही बारह स्त्रियां! सर पर थालिायां लिए हए! जिनमे दीये जले थे! ह-ब-ह वही! वही वस्त्र! वही कद-काठी, वही रूप! ये पीले रंग की स्याही से बने थे चित्र! आज भी वैसे के वैसे ही थे! "क्या गज़ब की चित्रकारी है!" बोले शर्मा जी! "अद्वितीय!" कहा मैंने! "जैसे किसी देव कुमार ने बनायी हों!" बोले वो! "निःसंदेह!" कहा मैंने! "वो योद्धा देखा?" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने, "कैसा विकट योद्धा लगता है!" बोले वो! "सच में!" कहा मैंने! "और ये, कॉलिकाएँ!" बोले वो! "हाँ,जीवंत हो उठी हैं!" कहा मैंने! मैं तो खो गया था उन चित्रों में! वो चित्रकार भले ही न रहा हो, लेकिन उसकी चित्रकारी, आज भी है! बोलती हुई! जीवंत! "नकुल?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोला वो, "ये वाली दीवार भी" कहा मैंने, "जी" वो बोला, मित्रगण! जैसे जैसे वो दीवार साफ़ होती गयी, और जैसे जैसे वो चित्र सामने आये! हमारी तो साँसें पेट में ही कैद हो गयीं! मैं तो जैसे, पृथ्वी पर था ही नहीं: मैं कहाँ था? कहाँ? शायद किम्पुरुष-लोक में! इस दीवार में बने चित्र में,तीन आकृतियाँ थीं! एक उलुयौरमा! एक बाजिरी! 

और एक हित्रा! 

कैसा रूप था तीनों का! न देखा, न सुना! उलुयौरमा ने, आभूषण लादे थे। वक्ष पर कोई वस्त्र नहीं था उसके। देव भांति मुस्कराहट थी चेहरे पर! भुजाएं बलशाली थीं! बाजिरी! कैसा अद्वित्य रूप! कैसी कामुक देह! कैसी भाव-भंगिमा! कैसे आभूषण! नग्न थी, किन्तु अंग नहीं दीख रहे थे, मात्र स्तन ही! शेष, आभूषणों से लदे थे अंग! चेहरा ऐसा, कि एक बार देखो, तो देखते ही रह जाओ! चुंबकत्व था उसके चेहरे पर! हित्रा! क्या कहूँ? कौन सी उपमा दूँ? उसकी देह! जैसे शरीर का सारा रक्त गरम हो उठे! काम सारे बंधन तोड़ बैठे। उसका रूप? कैसे लिखू? कौन से शब्द प्रयोग में लाऊँ? किस से उपमा दूँ? मैं तो हिम जैसा शीतल हो गया! मेरे दिल की धड़कन, मुझे ही सुनाई देने लगी! "हे **वान!" मुंह से निकला शर्मा जी के! सभी मंत्रमुग्ध! "ये तीनों, कौन है? वही?" पूछा उन्होंने, "हाँ वही!" कहा मैंने, "इतने अनुपम?" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने! "फोटो ले लूँ?" पूछा उन्होंने, "नहीं" कहा मैंने, "लेने दीजिये?" बोले वो, "नहीं" कहा मैंने, "एक फोटो बस" बोले वो, "हरगिज़ नही" कहा मैंने! "फिर कभी अवसर नहीं मिलेगा" बोले वो, "जानता हूँ" कहा मैंने, नहीं लेने दी तस्वीर! नहीं चाहता मैं कि किसी पचड़े में पड़े हम! इनका अपमान हो! 

अछूते हैं, ऐसे ही ठीक! लोग आएंगे, तो गंदगी फैलाएंगे! 

अपमान के भागी होंगे हम! मैंने तो प्रणाम कर लिया उन्हें! मैंने किया तो सभी ने किया। "नकल?" बोला मैं, "हाँ?" बोला वो, "अब ये दीवार और" कहा मैंने, 

और उसने झाड़ना शुरू किया उस दीवार को! और जैसे जैसे चित्र साफ़ हुआ! हमारी साँसें फिर से अटकीं! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये था एक मंदिर! तीन शिखर वाला एक मंदिर! 

और साथ में पीछे दो पहाड़ियां थीं! एक पहाड़ी बीच में से खाली थी, जैसे अंग्रेजी का अक्षर एम! यही बात तो गौर करने वाली थी! "क्या यही स्थान है?" बोले बाबा! "हाँ, ये इस चित्र वाला!" कहा मैंने, "लेकिन ये है कहाँ?" बोले वो, "है तो यहीं, कहीं आसपास!" कहा मैंने! "अब कैसे ढूंढेंगे?" बोले वो! "जैसे ये ढूंढा!" कहा मैंने! बाबा चुप! बाबा को बड़ी जल्दी थीस्थान ढूंढने की! कोई छिपा हआ मंतव्य तो नहीं था उनका? अब हुआ था मुझे संदेह! "आपको इतनी जल्दी क्या है?" पूछा मैंने, "कोई जल्दी नहीं" बोले वो, "तो मिल जाएगा" कहा मैंने, "हाँ, जानता हूँ" बोले वो, "आओ बाहर सब" कहा मैंने, 

और हम अब सीढ़ी चढ़, आये बाहर! 

"शर्मा जी, इधर आओ" कहा मैंने, "आता हूँ" बोले वो, "यहां वैसी ही पहाड़ी ढूंढो जैसी अंदर थी, एम जैसी!" कहा मैंने, 

और मैं भी ढूंढने लगा! "वो देखना?" बोले वो, मैं पलटा! 

देखा, 

बीच एम एम बना था! "हाँ, यही है!" कहा मैंने! "बाबा?" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो! "वहाँ तक जाना होगा!" कहा मैंने! "दूर लगती है!" बोले वो, "हाँ, कोई चार-पांच किलोमीटर तो होगी ही" कहा मैंने, 

और तभी, फिर से घंटे की आवाज़ आई! कान फटने ही वाले थे बस! "ये आवाज़ कहाँ से आती है?" बोले बाबा, "पता नहीं, आप चलो यहां से अब!" कहा मैंने! "चलो!" बोले वो! 

और फिर हम सभी, वहाँ से आगे चलने लगे! रास्ता मुश्किल था, सम्भल सम्भल के उतरना पड़ा नीचे! आये नीचे, और चल दिए उस पहाड़ी की तरफ ही! हम चल दिए! लेकिन अब थकावट हावी होने लगी थी! भूख भी लगने लगी थी! खाली पेट बहत घुम लिए थे। अब कोई अच्छी सी जगह मिल जाए तो आराम करें, थोड़ा खाना खाएं और आगे चलें फिर! अभी भी पहाड़ी वो, करीब तीन किलोमीटर दूर थी! और फिर एक छावदार जगह दिखी! वहीं बैठ गए हम! मैंने अपना अंगोछा बिछा लिया था और लेट गया था, जूते खोल लिए थे, जुराब भी उतार दी थीं! फिर सभी ने ऐसा किया! अब नकुल ने अपना बैग खोला, बर्तन भी निकाले, और लगा दिया खाना एक प्लेट में! हम तो टूट पड़े! सूखे आलुओं की सब्जी थी, साथ में पूरियां! अब भूख में तो किवाड़ पापड़! हरी मिर्च के साथ खाते चले गए हम पूरियां और सब्जी! पेट भर गया! 

और फिर किया आराम! मन तो किया, यहीं सो जाऊं! ऐसी असीम शान्ति थी वहाँ! ऊपर से पक्षियों का वो मनमोहक गीत-गान! सभी लेट गए थे! आराम मिला तो शरीर में जान आई! कम 

से कम पंद्रह-बीस किलोमीटर पैदल चल, पांवों की भी हालत खराब थी! उंगलियां, अंगूठा, एड़ियां दर्द करने लगी थीं! पिंडलियों की कसरत हो गयी थी! और अब उनमे से गर्मी निकल रही थी! "अभी तीन-चार किलोमीटर तो होगा?" बोले बाबा, "तीन होगा" कहा मैंने, "तीन भी


   
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श्रीशः उपदंडक
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बहुत है!" बोले वो! "हाँ, ऐसे में तो आधा किलोमीटर ही जान ले ले!" कहा मैंने! "सही बात है" बोले बाबा! "आप कैसे चुप हो शर्मा जी?" पूछा मैंने, "वो चित्र!" बोले वो! "अच्छा, वहीं से तो सूत्र मिला है!" कहा मैंने, "हाँ, बनाने वाले ने कमाल किया है!" बोले वो! "इसमें कोई शक नहीं!" कहा मैंने! "अरे, वो देखो!" हीरा बोला, 

और उठ बैठा! मैंने भी उठा, सभी उठे! "भेड़िये! दो हैं, शायद जोड़ा है!" कहा मैंने, "ये आएंगे तो नहीं यहां?" बोला हीरा, "खड़े हो जाओ, फिर नहीं आएंगे!" कहा मैंने, 

और हम खड़े हो गए! भेड़िये पीछे हटे फिर, और चले गए जंगल में! "कदम कदम पे मौत है यहां तो!" बोला हीरा, "अब जंगल है, और हम जंगली हैं नहीं!" कहा मैंने, "डरो मत, कुछ नहीं होगा!" कहा मैंने, 

और फिर हम खड़े हो गए! जूते पहने, और सामान उठा लिया अपना अपना, पानी पिया और चल पड़े आगे! अभी दो किलोमीटर गए होंगे, कि फिर से भेड़िये दिखे! ये अलग थे, पहले वाले नहीं! "चुपचाप चलते रहो" कहा मैंने, भेड़िये हमें देखते रहे,और हम उन्हें! 

और फिर वे भी पीछे हट गए! चले गए! "साले ये भेड़िये बहुत हैं यहां!" बोला हीरा! 

"हाँ, हैं तो! तेंदुए के बाद यही माहिर शिकारी हैं यहां के!" कहा मैंने, 

और थोड़ी देर बाद ही हमें, एक झुण्ड दिखा, झुण्ड हिरणों का! एक से एक सुंदर। उनके छौने उछल-कूद रहे थे। बेहद प्यारे थे वो सब! "क्या क्या बनाया है कुदरत ने!" बोले शर्मा जी! "यही तो हैरत की बात है!" कहा मैंने, "हाँ, और सामंजस्य भी रखा है संग ही!" बोले वो, "यही कुशलता है कुदरत की!" बोला मैं! हम चलते रहे आगे! 

और एक जगह! एक अजीब सा सांप दिखा! मैंने नहीं देखा था ऐसा सांप कभी! 

मोटा, लेकिन छोटा! कोई डेढ़ फ़ीट का! अफ्रीकन डेथ-एडर सा लगता था वो! सर बहत चौड़ा, पान के पत्ते सा! रंग चटख! शल्क चौड़े चौड़े! "ये कौन सा सांप है?" शर्मा जी ने पूछा, "मझे भी नहीं पता!" कहा मैंने, "है कितना भयानक!" बोले वो! "इसका सर देखकर लगता है, कि ये वाईपर परिवार से है" कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो! "डेथ-एडर और पफ-एडर, दोनों ऐसे ही होते हैं, शायद उन्ही की कोई प्रजाति है!" कहा मैंने! "अच्छा! ये भारतीय है!" बोले वो! "हाँ! ये भारतीय है!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े आगे! छोड़ दिया सांप को वहीं पर! हम करीब दो किलोमीटर आ चुके थे आगे! 

अब पहाड़ी सामने ही थी हमारे! लेकिन जंगल यहां सघन था! मैं रुका, आसपास देखा, "वहां से" कहा मैंने, 

और सब चले मेरे पीछे पीछे! ओहो! यहां तो पेड़ों पर सांप लटके थे! हरे हरे। पीले पीले। शायद घोंसले थे वहां पक्षियों के। "सर ढक लो अपना अपना!" कहा मैंने, सब ने ढक लिए! "ऊपर ही नहीं देखना, नीचे भी देख लेना!" कहा मैंने, और में कटनी आगे करते हुए आगे बढ़ता चला गया! अब हमारा रास्ता रोक एक खाई ने! पानी भरा था उसमे! "ओह! ये क्या मुसीबत है!" बोले शर्मा जी! "निकालते हैं इसका भी हल!" कहा मैंने, ये खाई कोई दस फ़ीट


   
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श्रीशः उपदंडक
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की होगी, गहरी तो नहीं थी, लेकिन पानी भरा था उसमे! "पानी में से जाएंगे क्या?" बोले शर्मा जी, "अरे नहीं! जोंक होंगी! खून चूस लेंगी! इन्फेक्शन हो जाएगा!" कहा मैंने, "तो फिर?" बोले वो! "देखते हैं" कहा मैंने, 

आसपास देखा मैंने! पेड़ लगे थे बांस के! "बन गया काम!" कहा मैंने, "कैसे?" पूछा उन्होंने, "वो देखो, वहाँ खाई संकरी है, पानी छह फीट में फैला है, वहाँ बांस से एक पल सा बना लेते हैं, चढ़ के चलते हैं उन पर से!" कहा मैंने! "वाह,भाई वाह!"बोले वो! "नकुल? हीरा, आओ, बांस काटो" कहा मैंने, 

और हमने फिर मोटे मोटे बांस काट लिए, कोई आठ! "चलो उधर" बोला मैं, 

और सब चले बांस उठाकर, अब डाला एक एक बांस वहाँ, उस पानी के ऊपर! बन गया रास्ता! 

और मैं, सम्भल के, पार हो गया वहां से! "आ जाओ सारे, सम्भल कर!" कहा मैंने, और फिर एक एक करके, सभी आ गए! 

"बन गया न काम!" कहा मैंने, "मान गए!" बोले शर्मा जी! "मानना ही पड़ेगा!" कहा मैंने! "मान गए जी!" बोले वो! अब मुआयना किया मैंने पहाड़ी का! हम सही जगह ही थे, वो एम दिखाई दे रहा था! 

और फिर चढ़े हम ऊपर! अभी थोड़ा सा ही चढ़े थे कि सांस फूल गयी! मिट्टी थी वहां, धसकने वाली मिट्टी! 

जूते जम नहीं रह थे उस पर! "ये तो मुसीबत है!" बोले शर्मा जी! "जब ऐसा हो, तो एक काम किया जाता है!" कहा मैंने, "वो क्या?" बोले वो! "बताता हूँ" कहा मैंने, मैंने आसपास देखा, एक सूखी सी झाड़ी दिखी! काट ली, और बना लिया उसका पुलिंदा सा! अब फेंका अपने आगे! और रखा पाँव! फिर उठायी, और फेंका आगे! इस तरह से मैं, ऊपर तक आ गया था! पूरा तो नहीं, लेकिन उनसे अधिक ही! अब तो सभी ने उखाड़ ली झाड़ियाँ! बनाये पुलिंदे! और चल पड़े ऊपर की तरफ! 

आ गए। "पिछले जन्म में हाईकर थे क्या आप?" बोले वो, मज़ाक में! "अरे नहीं! धसकती मिट्टी में ऐसा ही किया जाता है!" बोला मैं! "बहुत काम की बात बतायी आपने!" बोले वो! "धन्यवाद जी आपका!" मैंने हंस के कहा! अब पिया पानी मैंने ऊपर पहाड़ी को देखा,अभी तो, बहुत रास्ता शेष था! टांगें हिलने लगी थीं हमारी तो अब! 

हालत पस्त होने लगी थी हमारी तो! पानी पिए जा रहे थे हम! दरअसल पत्थरों में से गर्मी निकल रही थी! और ये गर्मी चुभने लगी थी अब! एक जगह छाया मिली तो हम सुस्ताने बैठ गए! अभी तो और ऊपर जाना था! कम से कम दो सौ मीटर तो, कम से कम! "अब तो हालत खराब हो गयी है!" शर्मा जी बोले! "बस अब थोड़ा और है!" कहा मैंने! "ये थोड़ा है?" बोले वो, मैं हंसा! उनके कंधे पर हाथ मारा! "थोड़ा ही है, ऊपर ही देखते रहो!" कहा मैंने! हीरा और नकुल खुसर-फुसर कर रहे थे दोनों आपस में मिलकर! "क्या हुआ भाई हीरा?" पूछा मैंने, "कुछ नहीं जी" बोला वो, "हैं भाई नकल?" कहा मैंने, "वो सोच रहे थे कि सलपा


   
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श्रीशः उपदंडक
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पजार लें?" बोला नकल! "पजार ले!" कहा मैंने! फिर क्या था! नकल ने खोला बैग, और निकाला सुलपा! अंगूठे से रगड़ कर किया साफ़! लगाई ठीकरी एक, और भरा उसमे गांजा! और पजार लिया! और खींचा अब नकुल ने! फिर दिया हीरा को, फिर लिया बाबा ने और फिर लिया मैंने! अब शर्मा जी भी क्यों पीछे रहते। उन्होंने भी खींच लिया! लगाया जमकर एक बड़ा सा कश! और आई ज़रा स्फूर्ति अब! माल बढ़िया था! मिलावटी नहीं था! मैंने और सभी ने चार चार कश खींचे! शरीर में जान सी आ गयी! हाँ, गला खुश्क हो जाता है, लेकिन थकावट सारी छू-मंत्र हो जाती है! आया जोश अब! "हाँ, अब बताओ?" कहा मैंने हंस के शर्मा जी से! वो थूक रहे थे, शायद कड़वा लगा था उन्हें! "हाँ, कारगर तो है!" बोले वो! "ये दवा है। इसको खींचने के बाद,खुश्क गले को देसी घी की तरावट से दूर किया जाता है,एक महीना कर लो, सारे रोग हर देगा! कीड़ा-मकौड़ा काटेगा तो खुद मर जाएगा! ज़हर नहीं फैलेगा 

और शरीर, घोड़े जैसा हो जाएगा!" हँसते हुए कहा मैंने! "दो कश में तो पेट में मरोड़ उठ गयी! रोज खींचना पड़ा तो पता चला पूरा ही खिंच गया!" बोले वो! सब हंस पड़े! मैं भी हंसा! (मैं कभी सलाह नहीं दूंगा कि इसको आजमाया जाए, ये लत वाले शौक़ हैं, एक बार इसकी लत लग जाए तो हाल बुरा है फिर! अतः दूर ही रहिये!) 

"चलें अब?" कहा मैंने, "हाँ जी, चलो" बोले बाबा! 

और हम चले अब ऊपर! गांजे की पिनक थी, लम्बे लम्बे डिग भरते हुए हम एक ऐसी जगह आ गए जहां ज़मीन मिट्टी वाली नहीं थी! बजरी सी थी,अब चलना आसान था! मैंने फिर से एक बार ऊपर देखा! अभी ही दूर 

था! 

"चलते रहो" कहा मैंने, 

और वे चलते रहे! आ गए थे हम एक जगह! यहां ज़मीन समतल थी, लेकिन कहीं भी कोई मुहाना आदि नहीं दिखा था मुझे! मैंने चारों ओर देखा! कुछ नहीं था! शायद और ऊपर हो! 

और मैं आगे बढ़ा! और जैसे ही बढ़ा! रुक गया! "हहहहहहहहहह!" कहा मैंने! सभी रुक गए! "क्या हुआ?" पूछा शर्मा जी ने! "सामने देखो!" कहा मैंने, उन्होंने ओट से देखा। "अरे रे!" बोले वो! "क्या है?" पूछा बाबा ने! "भेड़िये के बच्चे हैं!" कहा मैंने, "अरे बाप रे!" बोला हीरा! "घूम के चलो" कहा मैंने, "चलो" बोले बाबा! अब हम घूम कर चले! भेड़िये का जोड़ा शायद शिकार पर होगा,और यदि यहां होता तो अभी चीर फाड़ मच जाती! बच्चों के मामले में नहीं बख्शते वो किसी को भी! चाहे सामने कितना ही बसा जानवर हो! भेड़ियों के सामने तो तेंदुआ भी पेड़ पर चढ़ जाता है। हम निकल आये आगे! अब तक तो हमारी गंध भी खत्म हो गयी होगी, नहीं तो हमें ढूंढते ढूंढते आ ही जाते यहां! 

और मित्रगण! हम आ गए ऊपर! ऊपर आये, कलेजा मुंह को आया! यहां कोई रास्ता नहीं था! कोई गुफा नहीं! कोई मुहाना नहीं! मंदिर तो छोडो ही! "यहां तो कुछ भी नहीं?" बोले वो! बाबा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, कुछ चूक हई है!" कहा मैंने, "कैसी चक?" बोले वो! "रुको।" कहा मैंने, अब मैंने ध्यान लगाया उसी मंदिर वाले चित्र का! ये पहाड़ी थी, कहाँ? पीछे! और दूसरी पहाड़ी...........उसके दायें, अर्थात वहाँ! 

और मैं उछला! "वो! वहाँ है!" कहा मैंने, "तो यहां कैसे आ गए?" बाबा बोले, "गलती से। सोचा ही नहीं!" कहा मैंने! "अब वहां चलें?" बोले बाबा! "जाना ही होगा!" कहा मैंने, घड़ी देखी, अभी दिन ढलने में बहुत समय था! "यहीं से उतर लो!" कहा मैंने, "चलो फिर" बोले वो! और हम उतर चले! उतरना आसान था, गुरुत्वाकर्षण मदद कर रहा था! उतर आये, और उन बांसों से, वो पानी भी पार कर लिया! शुक्र था कि वो भेड़िया जोड़ा नहीं मिला था हमें! अब हम चले, उस दूसरी पहाड़ी की तरफ! "बेकार में मेहनत हो गयी!" कहा मैंने, "कोई बात नहीं, हो जाता है" बोले वो, "ज़रा सी चूक हई और हम यहां आ गए!" कहा मैंने! "अब पता तो चल गया न!" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने, "ये भी देख ली! यहां कुछ नहीं है!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, वो पहाड़ी दूर नहीं थी, कोई आधा किलोमीटर ही होगी, आगे बढ़ते गए हम और पहुँच गए उसके पास! "सूखी पहाड़ी है!" बोले वो! शर्मा जी! 

थक गए थे! तो फिर से आराम किया! करीब आधा घंटा! "आओ जी" कहा मैंने, "चलो" बोले बाबा! 

और हम चल दिए सामने की तरफ! अब चढ़े पहाड़ी के ऊपर! तभी दो बड़ी बड़ी गोह दिखाई दीं! हमें ही घूर रही थीं! जीभ लपलपाये! "कितनी बड़ी हैं ये!" बोले शर्मा जी! "हाँ!" कहा मैंने, "मगरमच्छ सी लग रही हैं!" बोले वो! "सरीसृप हैं, उनकी ही प्रजाति है!" कहा मैंने! "अकेले को तो पकड़ ही ले!" बोले वो! "नहीं! हाँ, आत्म-रक्षा में काट ज़रूर लेगी! मांस का लोथड़ा नोंच लेगी!" कहा मैंने! "हाँ, मुंह कैसा चौड़ा है!" बोले वो! "दांत आरी की तरह होते हैं इनके!" कहा मैंने! "खतरनाक प्राणी है!" बोले वो! "बहुत खतरनाक!" कहा मैंने, 

और फिर हमने खदेड़ दिया उन्हें! वे भाग गयीं! और हम अब ऊपर की तरफ चले! और जब चले! तो रुक गए! कंपकंपी सी छूट गयी! हज़ारों बिच्छ! वो भी ज़हरीले! एक से एक बड़ा! "अरे बाप रे!" बोले बाबा! "देख लो!" कहा मैंने, "इतने सारे कहाँ से आ गए ये बहन !!" बोले बाबा! मैं हंस पड़ा! बाबा भी हंस पड़े! "अब इनका घर है ये! और कहाँ जाएंगे!" कहा मैंने! 

"अब कैसे जाएँ हम आगे?" बोले वो! "अभी देखो आप!" कहा मैंने! "नकुल, किसी सूखी झाड़ी में आग लगा, और मुझे दे!" कहा मैंने, "अभी लो!" बोला, 

और ले आया एक झाड़ी में आग लगा कर! "ये लो" बोला वो! मैंने ली, और आगे बढ़ा! 

जैसे ही गर्मी लगी उन्हें, वे भागे वहां से, दरारों में छिपने! "और ले आ!" कहा मैंने, फिर तो हीरा, शर्मा जी, बाबा, सभी यही करने लगे। 

रास्ता बन गया था। इक्का-दुक्का थे, वो क़दमों की आवाज़ से भाग जाते! बहुत ही भयानक बिच्छू थे वो! काट लें तो दर्द के मारे सारा दिन बदन कसरत ही करता रहे! जब तक एक एक कतरा निकल नहीं जाएगा खून से, तब तलक ऐसा आग के जलने जैसा दर्द होता ही


   
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श्रीशः उपदंडक
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रहता! खैर, आंच की गर्मी से वे सब भाग गए थे! घुस गए थे दरारों में और कुछ भाग निकले थे आसपास के पत्थरों के नीचे! इक्का-दुक्का बचे थे, वो भी भाग ही जाते! ये पहाड़ी भी काफी अच्छी-खासी बड़ी थी। मिट्टी नहीं थी, बजरी ही थी, चलना आसान था! "आओ सब" कहा मैंने, "चलो जी" बोले बाबा! और हम चल पड़े आगे! तभी ऊपर से किसी बड़े से घंटे के बजने की सी आवाज़ आई, आई दूर से थी, लेकिन सुनाई साफ़ साफ़ दी थी! "ये आवाज़ यहां भी?"बोले बाबा! "हाँ!" कहा मैंने, "इसका भी पता लगाएंगे!" बोले वो, "वो तो अपने आप ही चल जाएगा!" कहा मैंने, 

और फिर एक जगह आई, यहां कुछ बेलें लगी थीं! दीवारों पर चढ़ी हुई, दीवार तो क्या, उन पत्थरों के ऊपर चढ़ी हुईं! पीले रंग के फूल लगे थे उनमे, और नीले नीले रंग के से बेर! कोई पक्षी नहीं था, कोई चीटी नहीं थी, अर्थात वो विषैली रही होंगी! लेकिन थीं बहुत सुंदर! लग रहा था कि अभी तोड़ो 

और अभी खा जाओ! "कैसे, जामुन से लग रहे हैं!" बोले शर्मा जी! "हाँ, लेकिन ज़हरीले हैं!" कहा मैंने, 

"कैसे पता?" पूछा उन्होंने, "न तो कोई पक्षी खा रहा है,न ही कोई चींटी या कोई कीड़ा-मकौड़ा। खाने लायक होती तो अवश्य ही ठोंग मारते पक्षी, और कीड़े-मकौड़े कहाँ पीछे रहने वाले थे तब!" कहा मैंने! "अरे हाँ! सही कहा!" बोले वो! "बाबा?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोले वो, "आपके पास, जालस वनस्पति और तलुमन का तेल है?" पूछा मैंने, मुझे ये बेल देख याद आ गया था अचानक से! "हाँ, सब है!" बोले वो! "बाबा ने कोई कसर नहीं छोड़ी!" बोले शर्मा जी! "हाँ, कहते है न, दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक के पीता है!" कहा मैंने! "क्यों बाबा! यही बात है?" बोले शर्मा जी! "हाँ जी, यही बात है!" बोले वो! "बारह दिन भटके थे ये पहले यहां!" कहा मैंने, "इसीलिए अबकी कोई कसर नहीं छोड़ी!" बोले वो! 

और हम आगे चलते रहे! एक जगह रास्ता मुड़ा और हम मुड़ गए! सामने एक बेहद अजीब सा पेड़ दिखा! मैं पहचान गया उस पेड़ को! पेड़ क्या, झाड़ी सी होती है ये! अधिक बड़ा नहीं होता! लेकिन इस पर जो फल लगता है, वो है अजीब तो! इसको हिंदी में कहते हैं रुख-वंता! और अंग्रेजी में, साधारण रूप से ट्री-टोमेटो! वैसे इसको टोमैरिलो कहा जाता है! होता टमाटर की तरह ही है! ज़ायकेदार होता है! पकने पर मीठा होता है! खुश्बू बढ़िया होती है! ये काम-वर्धक, स्फूर्तिदायक, वाजीकारक, पेट के समस्त रोगों को हरने वाला, बवासीर को जड़ से खत्म करने वाला, हृदय-रोग से निजात दिलाने वाला, स्त्रियों के समस्त दोष हरने वाला, और उनके यौवन हो स्थायी सा करने वाला होता है। मूल रूप से दक्षिणी अमेरिका का फल है, लेकिन अन्य गर्म देशों में भी होता है ये! भारत में अब इसकी खेती होने लगी है। इसका ज़ायका मीठा और खुश्बूदार हुआ करता है! "अरे ये क्या है?" पूछा शर्मा जी ने! "ये है पेड़ का टमाटर!" कहा मैंने, "टमाटर सा ही लगता है ये तो!" बोले वो! "हाँ,ट्री-टोमेटो कहते हैं इसको!" कहा मैंने, "क्या शानदार फल है!" बोले वो! "हाँ, प्रकृति का शानदार फल!" बोला मैं! "ये खाने लायक है?" पूछा उन्होंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, मैं तोड़ता हूँ" कहा मैंने, 

और पके पके, चार तोड़ लिए! पानी से साफ़ किये और फिर चाकू से काट लिए! और सबकी एक एक फांक पकड़ा दी। "खाओ, और बताओ!" कहा मैंने! 

अब खाया सभी ने! और उनके चेहरों ने बता दिया कि मिल गयी उन्हें जंगल की मिठाई! "क्या स्वाद है!" बोले शर्मा जी! "है न बढ़िया!" कहा मैंने, "अजी बहुत बढ़िया!" बोले वो! "नाम टमाटर है, लेकिन है कितना मीठा!" कहा मैंने, "आपको कैसे पता इस बारे में?" बोले वो! "एक बार छत्तीसगढ़ में नहीं खाया था?" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले वो, "राय साहब के यहां?" कहा मैंने, "मुझे याद नहीं!" बोले वो, "आप शायद थे नहीं वहाँ!" कहा मैंने, "और तोड़ लो!" बोले बाबा! "हाँ, और तोड़ लो!" बोले शर्मा जी! अब मैंने आठ-दस तोड़ लिए! दे दिए उन्हें! धोये, और काट लिए! कुछ डाले झोले में, और कुछ खाते हुए हम आगे बढ़े फिर! "क्या लज़ीज़ फल है, वाह!" बोले शर्मा जी! "जंगल की मिठाई है!" कहा मैंने! "जंगल में रहा जा सकता है!" बोले वो! "आदिवासी इसी प्रकृति के सहारे रहते आ रहे हैं!" कहा मैंने, "हाँ, सही बात है!" बोला मैं! रास्ता फिर से मुड़ा! 

और हम भी मुड़ गए संग ही संग! ये रास्त ठीक था! समतल सा! "और कितना?" बोले बाबा! "मुझे भी नहीं पता!" कहा मैंने, 

"रास्ता तो खत्म ही नहीं हो रहा!" बोले वो, "अब चलते रहे आगे!" कहा मैंने, "चल ही रहा हूँ।" बोले वो। 

आये साथ में शर्मा जी! "एक मिनट रुकिए!" बोले वो, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "वो देखना तो?" बोले वो, "कहाँ?" कहा मैंने, "वो देखो वहां!" बोले वो, अब बताया इशारे से मुझे! मैंने देखा! "अरे हाँ!" कहा मैंने, "क्या है?" बोले वो, "कोई भग्नावशेष से लगते हैं!" कहा मैंने, "कहीं वही तो नहीं?" बोले वो, "सम्भव है!" कहा मैंने, मित्रगण! 

जो स्थान दिखाया था शर्मा जी ने, वो करीब रहा होगा, एक किलोमीटर, दूर, बाएं जा कर, कुछ खंडहर से मालूम पड़ते थे! "खैर, अभी ऊपर चलो!" कहा मैंने, "चलौ" बोले वो, 

और हम अब तेज कदमों से आगे बढ़े! आये काफी ऊपर! 

और जो दिखा! उसने हमारी थकावट हर ली! "वाह!" बोले बाबा! "ये है वो स्थान शायद!" कहा मैंने, दोस्तम्भ से बने थे वहां! बीच में, रास्ता था! एक सपाट सा रास्ता! "आओ सभी!" कहा मैंने! 

और अब चढ़ा सभी को जोश! हम जैसे भाग लिए वहाँ के लिए! पहुंचे वहाँ! मैंने स्तम्भ देखे! कितने खूबसूरत स्तम्भ थे वो! बीच बीच में कुछ उकेरा गया था! लेकिन, बरसात,अंधड़-तूफ़ान ने रंग-रूप बिगाड़ दिया था उनका! लेकि जिसने भी बनाये थे वो स्तम्भ, बेजोड़ थे। "क्या ज़बरदस्त कला है!" बोले वो! "हाँ, वो देखो, क्या बना है?" पूछा मैंने, "ये............शायद सिंह है!" बोले वो, "हाँ, सिंह ही है!" कहा मैंने, "आ गए इसका मतलब!" बोले वो! "हाँ, आ गए!" कहा मैंने, "बाबा?" शर्मा जी बोले, "हाँ जी?" बोले वो, "टोर्च निकाल लो" कहा उन्होंने, 


   
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