"क्या नज़ारा है!" बोले शर्मा जी! "खूबसूरत!" कहा मैंने, "आबादी से दूर!" बोले वो! "हाँ, प्रकृति का सौंदर्य!" कहा मैंने! "बाबा?" कहा मैंने, वे आये, "यही जगह है वो?" पूछा मैंने, "हाँ जी!" बोले वो! "अच्छा!" कहा मैंने, "अब देखो!" बोले वो! "क्या बाबा?" पूछा मैंने, "चार पहाड़ियां! लिखी दो हैं!" बोले वो! "हाँ, सही है" कहा मैंने, "बस, यहीं भटकते रहे हम!" बोले वो! "हाँ! लेकिन ये जावटा है?" पूछा मैंने, "हाँ" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "देखी आपने?" बोले वो! "हाँ, देख रहा हूँ!" कहा मैंने! "अब भटके कोई या न भटके?" बोले वो, "हाँ,भटक जाएगा" कहा मैंने, "कोई गाँव है आसपास क्या?" पूछा मैंने, "एक है, कोई पचास किलोमीटर दूर" बोले वो, "कैसे पता?" पूछा मैंने, "हम वहीं गए थे पहले" बोले वो, 'वहीं से पता चला आपको?" पूछा मैंने,
"हाँ, कि ये है जावटा!" बोले वो! चलो जी! तस्दीक हो गयी! जगह तो सही है! यही है जावटा!
"नहाना हो तो नदी है वो" बोले वो, 'अच्छा!" कहा मैंने, "आओ शर्मा जी" कहा मैंने, "चलो" बोले वो,
और हम चले नदी की तरफ! पहुंचे वहां! बहुत सुंदर जगह थी वो! जैसे स्वर्ग का कोई कोना! "पानी तो है इसमें!" बोले शर्मा जी! नद के पास पहुंच गए थे हम! "हाँ, नहाया जा सकता है!" कहा मैंने, 'आओ वस्त्र ले लें फिर!" बोले वो, "आप ले आओ, मैं यही पहनूंगा!" कहा मैंने, "आता हूँ" बोले वो, और चले गए वापिस! मैं वहाँ खड़ा, सौंदर्य को निहार रहा था, प्रकृति के! कैसे कैसे अद्भुत रंग भरे हैं भरने वाले ने! कैसे कैसे पेड़! पौधे,अजीब अजीब! रंग-बिरंगे फूल! पक्षी! सभी अजूबे! "आओ!" बोले शर्मा जी,
और हम चले पानी की तरफ! "मछलियाँ भी हैं, छोटी छोटी!" कहा मैंने! "हाँ, हैं!" बोले वो! बाल्टी और मग ले आये थे,सारा पानी गंदा न हो, इसलिए!
और हमने स्नान किया फिर! पानी ठंडा था! मजा आ गया! "भाई वाह!" बोले शर्मा जी! "फुरफुरी छूट गयी!" कहा मैंने! "सारी थकावट हर ली पानी ने!" बोले वो! "हाँ जी!" कहा मैंने!
और फिर गाड़ी के पास, एक तम्बू सा लग गया था! बड़ा सा! "ये बढ़िया किया इन्होने!" बोले शर्मा जी! "पूरा लाव-लश्कर संग लाये हैं।" मैंने कहा, "हाँ, पूरी तैयारी से!" बोले वो! अब वस्त्र पहने, बालिटी-मग उठाये,
और चले वापिस! चूल्हा जल रहा था! पाउडर वाला दूध रखा था! चाय बन रही थी! चाय बन गयी थी! तो अब चाय पी हमने! जंगल में गरमागरम चाय मिल जाए तो क्या कहने! चाय भी बढ़िया, और साथ में लायी हुई मट्ठियाँ भी बढ़िया! सूरज निकले! लेकिन क्षितिज थोड़ा सा खिसक गया था। मुझे तो ऐसा लगा जैसे उत्तर-पूर्व के मध्य से उदय हुए हों! मैं उदय होते सूर्य को देख ही रहा था, कि मरे मन में एक उथल-पुथल सी मची! मेरे अंदर का 'भूगोलशास्त्री' तनिक बेचैन सा हो उठा! ऐसा कैसे? माना हम उत्तर की तरफ जा रहे हैं, उत्तर की तरफ जाते हए, प्रकृति में स्थिरता सी महसूस करोगे आप, ये मात्र दृष्टि-भम ही है, देखा जाए तो! लेकिन होता ऐसा ही है! दक्षिण की तरफ जाते समय, प्रकृति में तीव्रता आ
जाती है! कभी परीक्षण करके देखें आप! पपोरव की तरफ यात्रा करने पर, पेड़, खम्बे आदि आपको धीमी लगेंगी साथ चलते हए, लेकिन दक्षिण की तरफ जाते हए तेज! गति समान है,दूरी समान है, बस दृष्टि-भम है! और इस अब आप चाहे पृथ्वी का चुम्बकत्व कहिये या सम्पातोत्तोलन! है मात्र दृष्टि-भ्रम ही! उत्तर ध्रुव पर, खगोल स्थिर सा लगता है, और इसी कारण से धुव तारा अपना स्थान कभी नहीं बदलता! सप्त-ऋषि तो बदलते हैं, लेकिन ध्रुव तारा नहीं! प्राचीन नाम इन सप्त-ऋषियों के आपको पता ही होंगे! फिर भी बता देता हूँ! वे हैं, वशिष्ठ, मरीचि, पुलस्त्य, पुलह, अत्रि, अंगिरा और कृतु अथवा ऋतु, एक और धूमिल सा तारा होता है इनमे, वो हैं वशिष्ठ की धर्मपत्नी अरुंधति! इन्ही दो तारों, पुलह और ऋतु की ठीक सीध में, एक तारा होता है, जो है ध्रुव-तारा! ये उतरी ध्रुव पर मानो, जैसे टंगा हुआ होता है! ये कभी अपना स्थान नहीं बदलता! इसी तारे ने, कई समुद्री नाविकों को, खोजियों को दिशा-ज्ञान दिया है! ये सदैव उत्तर दिशा में ही रहता है! हाँ, तो मैं कहा रहा था कि मेरे अंदर का 'भूगोलशास्त्री' (जो कि मैं कहीं से भी नहीं हूँ!) बेचैन हो उठा था! उत्तर पूर्व में? वहाँ से उदय? तो क्या सटीक पूर्व वहाँ है? परम सत्य तो यही है, कि सूर्य उदय वहीं से होते हैं, पूर्व से! तो मेरी सुईं अब मुझे ही चुभने लगी थी! तो मैंने गाँठ बाँध ली, कि इस गुत्थी को आज
ही सुलझाना होगा! "वो सामने पहाड़ी है न?" बोले बाबा, "हाँ?" कहा मैंने, "वहाँ भी गए थे हम" बोले वो,
"इतनी दूर तक?" पूछा मैंने, "हाँ, लेकिन सब व्यर्थ" बोले वो, "मेहनत बहुत की आपने!" मैंने कहा, "हाँ, बारह दिन ख़ाक़ छानते रहे थे हम!" बोले वो! "और पीछे देखिये, वो है न पहाड़ी?" बोले वो, "हाँ?" कहा मैंने, "वहाँ भी गए!" बोले वो! "कुछ नहीं मिला?" पूछा मैंने, "नहीं, कुछ नहीं!" बोले वो! "तो पाण्डु-लिपि में दो पहाड़ी हैं, ऐसा लेखक क्यों लिखेगा?" बोला मैं, "अब यही तो नहीं पता!" बोले वो, "कहीं और तो नहीं हैं पहाड़ियां?" पूछा मैंने, "नहीं" बोले वो, "आप इतने विश्वास से कैसे कह सकते हैं?" पूछा मैंने, "इसलिए कि हमने ये विकल्प भी ढूँढा था!" बोले वो! "अच्छा!" कहा मैंने! "हाँ, पहाड़ियां बस यही हैं!" बोले वो! "समझ गया!" कहा मैंने, "अब आप देखिये" बोले वो, "आप वो पाण्डु-लिपि दीजिये मुझे" कहा मैंने, "अभी लाता हूँ" बोले वो, और चले तम्बू की तरफ! तभी शर्मा जी आ गए! "क्या देख रहे हो?" बोले वो, "पहाड़ियां!" कहा मैंने, "किसलिए?" पूछा उन्होंने, "जाना है!" कहा मैंने, "पहाड़ पर?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने! "मर गए!" बोले वो! "क्यों?" पूछा मैंने!
"घोर जंगल है ये तो!" बोले वो! "तो क्या हुआ?" कहा मैंने, "होना क्या है। जाना है तो जाना ही है फिर!" कहा उन्होंने!
और हँसे ज़ोर से! मैं भी हंसा! "ये लो" आये बाबा! दी मुझे वो पाण्डु-लिपि, "शर्मा जी, ज़रा डायरी निकाल लाइए वो" कहा मैंने, "अभी लाया" बोले वो, और चले वापिस, अब मैंने वो पृष्ठ खोला उस पाण्डु-लिपि का! और पढ़ना आरम्भ किया! दव-शलखंट लिखा था। अर्थात दो शैल-खंड! अर्थात दो पहाड़ियां! "लिखा तो दो ही है!" बोला मैं, "लेकिन ये तो चार हैं?"
बोले वो! "हैं तो चार ही!" कहा मैंने, "अब यहीं फंस गए थे हम!" बोले वो! "लाजमी है फंसना!" कहा मैंने, "लीजिये" शर्मा जी ने कहा, मैंने ले ली डायरी! डायरी का पृष्ठ खोला, दो पहाड़ियां! "दो ही लिखा है!" कहा मैंने, "पता नहीं क्या मसीबत है!" बोले बाबा! "एक मिनट!" कहा मैंने,
और पहाड़ियों को देखा फिर से! दो बड़ी थीं,दो छोटी! अब फिर से अटके! चारों पर कैसे जाया जाए? "आप गए थे चारों पर?" पूछा मैंने, "हाँ,सभी पर" बोले वो, "कुछ भी निशान आदि नहीं?" पूछा मैंने, "नहीं" बोले वो, "अब ये तो मुसीबत है!" कहा मैंने, मैंने बहुत दिमाग लड़ाया! वापिस तम्बू में गया!
लेट गया, फिर सोचा कुछ! लेखक ऐसा क्यों लिखेगा? क्या कारण है? कहीं और भी पहाड़ियां नहीं?
क्या हो सकता है? कहीं? कहीं कोई कूटभाषा या शब्द तो नहीं? फिर से पाण्ड्-लिपि खोली! फिर से वही पंक्ति पढ़ी! कई कई बार! कोई कूटभाषा नहीं! कोई शब्द नहीं! बस वही! दो पहाड़ियां! रख दी बंद करके मैंने वो पाण्ड-लिपि! डायरी भी रख दी! शर्मा जी संग ही बैठे थे! "नहीं चला पता?" पूछा उन्होंने, "न!" कहा मैंने! "पक्का दो ही लिखा है?" बोले वो, "हाँ, देख लो!" कहा मैंने,
और दिखा दिया लिखा हुआ! "दो ही लिखा है!" बोले वो! "समझ नहीं आता, चार को दो कैसे?" कहा मैंने, मैं तो उकता गया! लेट गया! रख दी पाण्डु-लिपि पीछे! "कुछ चला पता?" बोले बाबा! अभी अंदर आये थे। "नहीं!" बोला मैं! "अब क्या करें?" बोले वो! "सोच रहा हूँ" बोला मैं,
और तभी नकुल की आवाज़ आई! खाना बन गया था!
"मैं लाता हूँ!" बोले शर्मा जी!
और चले गए बाहर खाना लेने! आये, आलू-गोभी की सब्जी थी, साथ में परियां। दावत हो गयी थी ये तो! "आओ खाओ!" कहा मैंने बाबा से, "आप खाओ, मैं खा लूँगा!" बोले बाबा! हमने खाना शुरू किया! लज़ीज़ था खाना! "बढ़िया खानसामा है भई ये तो!" बोले शर्मा जी! "कोई शक नहीं!" कहा मैंने! "हाँ, बढ़िया बनाता है!" बोले बाबा!
और तभी उस तम्बू की एक झिरी में से, मेरी नज़र बाहर गयी! मेरे हाथ में टूक अटक के रह गया! मैं उठा, झिरी के पार देखा! टूक खाया!
और चला बाहर! शर्मा जी भी दौड़े दौड़े आये! "क्या हुआ?" पूछा उन्होंने! "ठहरो ज़रा!" कहा मैंने! अब मैं पहाड़ियां देखू! हवा में, चित्र सा बनाऊं! मैं बार बार पहाड़ियों को देखता! हवा में उंगलियां घुमाता! पूर्वी क्षितिज को सीध में रखता! और फिर सोच में पड़ जाता! "क्या हुआ?" बोले शर्मा जी! जवाब नहीं दिया मैंने! बस अवलोकन ही करता रहा! अपने ही आप! खुद ही चित्र से बनाता! "बताओ तो?" बोले वो! "एक मिनट, एक मिनट!" मैंने कहा,
और फिर मैंने उनको देखा! मुस्कुराया! "क्या हुआ?" बोले वो!
"हम गलत जगह पर हैं!" कहा मैंने! "कैसे?" पूछा उन्होंने! "लेखक नहीं सही कहा था। एकदम सही। चूक हमसे ही हो रही थी, जैसे बाबा अलखनाथ से हई
थी!" बोले वो! "मैं समझा नही, कैसी चूक?" बोले वो! "आ गयी समझ मेरे!" कहा मैंने! "बताओ फिर?" बोले वो! "आओ! खाना खाते हैं, फिर बताता हूँ!" कहा मैंने, हम अंदर आये तम्बू के! नकुल को छोड़, सभी थे, नकुल बर्तन साफ़ कर रहा था बाहर! "बाबा?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोले वो, वो तो पहले से ही मुझे देख रहे थे! मैं क्या करने गया था बाहर, ये ही सोच रहे थे! "आपसे चूक हुई पिछली बार!" मैंने कहा, "कैसी चूक?" बोले वो! अब हैरत हुई उन्हें! "बताता हूँ, खाना खा लीजिये पहले!" बोला मैं! "आप, बताइये तो?" बोले वो! "बता दूंगा! खाना खाओ पहले!" मैंने कहा, अब तो जल्दी जल्दी खाना खाया सभी ने! मैंने भी खा लिया! पानी पिया, हाथ-मुंह साफ़ किये!
आया फिर से तम्बू में वापिस! सब मुझे ही देखें! "लेखक सही था!" कहा मैंने, "कैसे?" बोले वो, "हीरा, चल ज़रा मेरे साथ" कहा मैंने, "चलो जी!" बोला वो! "बाबा, शर्मा जी, चलो ज़रा!" कहा मैंने, "चलो!" बोले दोनों!
आये हम बाहर! "नकुल? यहां रह लेगा अकेला?" बोला मैं!
"हाँ जी!" बोला वो! "हीरा, गाड़ी स्टार्ट कर, और इस नदी के किनारे किनारे चल ज़रा! धीरे धीरे!" मैंने कहा, "अभी लो!" बोला हीरा। गाड़ी स्टार्ट की उसने! "आओ बैठो!" कहा मैंने,
और मैं बैठा गाड़ी के दायीं खिड़की के पास! बाहर झांकते हुए! और चले हम अब धीरे धीरे! "चलता रह हीरा!" कहा मैंने,
और हम चले कोई आधा-पौना किलोमीटर आगे! मैं बाहर ही झांकता रहा! देखता रहा! कुछ गणित सा बिठाता रहा! "बस! रुक जा!" कहा मैंने। रुक गयी गाड़ी! "आओ,उतरो सब!" कहा मैंने! सभी हैरान! मैं कर क्या रहा है आखिर? वे उतरे और मैं भी उतरा! "आओ शर्मा जी, बाबा, इधर आओ!" कहा मैंने!
आ गए वो! मुझे ही देखें! "अब ज़रा पहाड़ियां देखो! कितनी हैं? एक हमारे सामने, एक पीछे। देखो और बताओ!" कहा मैंने! "अरे? ये क्या हुआ?" बोले बाबा! "सच में, ये क्या हुआ?" बोले शर्मा जी! हीरा, उचक उचक के देखे! "कितनी हैं?" पूछा मैंने! "दो!" बोले बाबा! "दो ही हैं! बोले शर्मा जी! "ये कैसे हुआ?" पूछा बाबा ने! "छोटी पहाड़ियां वहीं हैं! बस बड़े पहाड़ियों की ओट में हैं! समझे आप!" कहा मैंने! "अरे हाँ! वाह! वाह!" बोले बाबा! "कमाल कर दिया गुरु जी आपने तो! कमाल कर दिया!" बोले शर्मा जी! बाबा खुश! चेहरे पर खुशी देखते ही बने! शर्मा जी हैरान!
"मैंने सुबह सूर्योदय देखा था, उत्तर-पूर्व में! बस! वही ध्यान रहा और इसका उत्तर मिल गया!" कहा मैंने! "कमाल है!" शर्मा जी बोले। "कोई नहीं कर सकता था ऐसा! आप होते संग बाबा के, तो बाबा की इच्छा पूर्ण हो जाती!" बोले बाबा! "अब हो जायेगी!" कहा मैंने! "लेकिन?" बोले बाबा! "क्या लेकिन?" पूछा मैंने, "वो स्थान? कैसे पता चले?" बोले वो! "अरे बाबा!" कहा मैंने! बाबा अपलक मुझे ही देखें! "क्या उस पाण्डु-लिपि में नदी का ज़िक्र है?"
पूछा मैंने, "नहीं तो?" बोले वो! "तो हमें नदी अपर वाली पहाड़ियों पर नहीं जाना है!" कहा मैंने! "अरे हाँ! सच ही तो है!" बोले वो! 'अगर नदी का ज़िक्र होता, तो अवश्य ही वो, वो पहाड़ियां होती!" कहा मैंने! "हाँ, और हमने खूब खंगाली वो!" बोले वो, "अब कुछ होता तो मिलता न?" कहा मैंने, "लेकिन ही तो उन पहाड़ियों में भी कुछ नहीं?" बोले वो, "तो कौन कह रहा है पहाड़ियों पर जाओ?" पूछा मैंने! "फिर?" बोले वो! "वो स्थान यहां से, इसी सीध में है!" कहा मैंने, अब सामने देखा सभी ने! "इस सीध में" मैंने हाथ के इशारे से बताया। "आपका मतलब, पहाड़ियों में नहीं?" बोले वो! "नहीं!" कहा मैंने! "अच्छा!" बोले वो! "सामने कुछ टीले से हैं, कुछ बड़े भी हैं, बस यहीं देखना है!" मैंने कहा, "अच्छा!" बोले वो! "अब वहाँ से तम्बूउखाड़ो, और यहां लगाओ!" कहा मैंने! "अभी करवाता हूँ!" बोले वो,
"हाँ, आज ही करवाओ!" कहा मैंने, "हीरा? चल ज़रा! बैठो जी!" बाबा बोले! अब जोश चढ़ा था उन्हें! हीरा ने गाड़ी मोड़ी और चले वापिस हम! "वैसे एक बात कहँ?" बोले शर्मा जी, "क्या?" बोले वो, "विज्ञान में कैसे थे आप?"शर्म जी बोले, हंस के! "अच्छा नहीं था मैं, हाँ, वैसे कर ही लेता था!" कहा मैंने, "अच्छे नहीं थे, मान ही नहीं सकता!" बोले वो! "मानिए!" कहा मैंने! "तो ये कैसे ढूँढा?" पूछा उन्होंने, "सूर्योदय की दिशा से!" कहा मैंने! "वो सूर्योदय तो हम सभी ने देखा था!" बोले वो! "मैंने गौर से देखा था!" कहा मैंने!
और हंस पड़ा! सभी हंसने लगे! गाड़ी आ गयी वापिस! बाबा ने सुना दिया फरमान!
और उखाड़ने लगे तम्बू! सामान बाँधा! सभी लगे! मैंने भी सामान उठाया! लादा गाड़ी में,और चल दिए! वहीं आये, और रुकवा दी गाड़ी मैंने! सामान उतारा! लगाया तम्बू!
और रख दिया अंदर सामान! "बाबा?" बोला हीरा! "हाँ? बोल?" बोले बाबा! "इतना घुमवाया तुमने पहले, यहाँ तक नहीं आ सकते थे?" बोला हीरा! "मुझे क्या सपना आया था?" बोले बाबा! हंसकर! "और फिर, ये कैसे मिलते?" बोले बाबा! "अब तो उम्मीद बंध गयी है!" बोला हीरा!
"हाँ! अब उम्मीद है!" बोले बाबा! और फिर हीरा ने लगाया सुलपा! भरी चरस उसमे, और मुझे दिया, मैंने मना कर दिया! गला खुश्क कर देती है, सफर में तो कभी न लें इसे! बाबा, नकुल और हीरा, खींचते रहे उसे बार बार! चेस की गंध फैल गयी तम्बू में! मैं शर्मा जी को ले,
आ गया बाहर! "देखो, कैसी छोटी सी बात है, लेकिन चूक गए बाबा अलखनाथ!" बोले वो! "हाँ, ज़रा सी चूक थी ये!" मैंने कहा, "नहीं तो जिंदगी भर टक्कर मारते रहो! जहां से चले, वहीं आ पहुंचे, और वहीं खड़े रहे!" बोले वो, "हाँ जी, वो तो सुबह नज़र पड़ गयी मेरी सूर्योदय पर! भला हो!" कहा मैंने! "अब क्या करना है?" पूछा उन्होंने, "आज तो आराम करते हैं, कल से शुरू करते हैं खोज अपनी!" कहा मैंने! "ये ठीक है" बोले वो, दूर दूर तक हरे भरे पेड़ थै! चटख रंग के फूल थे! बहुत सुंदर नज़ारा था वहां का! नदी किनारे पक्षी भी थे, छोटे बड़े, रंग-बिरंगे! सफेद, काले, सभी कैसे मिलजुलकर रह रहे थे! जंगली बेलें चढ़ीं थीं पेड़ों पर, उनके नीचे, कही ऐसी जगह नहीं थी कि धूप अंदर जा सके! छाँव ही छाँव!
और जहां धूप पहँच रही थी, वो सुनहरा हो उठा था! मई वहां जंगली आम के पेड़ देखे थे, जंगली आम में गुठली तो होती है, लेकिन छोटी सी, पक कर, चुकंदर के रंग का हो जाता है अंदर से, खट्टा-मीठा होता है! बाहर से हरा ही होता है, आकार में बब्बुबोशे जैसा लगता है, लेकिन छोटा होता है उस से! कई पक्षी खाते हैं उसे! जिन लोगों को दमा, सांस से संबंधित रोग को, इसकी गुठली का चूर्ण बनाकर, सेवन करें तो निश्चित ही लाभ मिलता है, जिन स्त्रियों को गर्भ नहीं ठहरता हो, इसका कच्चा फल, सुखाकर, टुकड़े कर, दूध में उबाल कर, दूध पीने से, ऐसी सारी समस्या समाप्त हो जाती है! गर्भ ठहर जाता है, निरन्तर सात दिन खाया जाए तो रक्ताल्पता भी समाप्त हो जाती है! जंगली फल है,जंगल में ही मिलता है। इसके कच्चे फल को सुखाकर, चूर्ण बना लिया जाए और यदि दही के साथ एक चौथाई चम्मच प्रयोग किया जाए तो मधुमेह में अचूक कार्य करता है! यहां बहुतायत में लगे थे वो! खैर, 'आओ अंदर चलें" कहा मैंने, "गाड़ी में बैठे?" बोले वो! "हाँ,ठीक है" कहा मैंने, "चाबी लाता हूँ" बोले वो,
"ले आओ" कहा मैंने! वे गए, और ले आये चाबी! दरवाज़ा खोला और बैठ गए अंदर! मैं तो लेट गया था उसकी पीछली सीट पर, शर्मा जी, अगली सीट पर! "वैसे है तो मेहनत का काम!" बोले वो! "हाँ, मेहनत तो है ही!" कहा मैंने, "जंगल खंगालना होगा!" बोले वो! "ये तो है ही!" कहा मैंने, "कल करते हैं तैयारी!" बोले वो! "हाँ" कहा मैंने,
और मेरी आँखें मुंदी! मैंने करवट बदली! "नींद आई?" बोले वो, "अब यहां शान्ति इतनी है!" कहा मैंने! "आराम करो, मैं भी आराम करता हूँ" बोले वो!
और फिर, हम दोनों ही सो गए! बढ़िया नींद आई! करीब ढाई घंटे सोया मैं! शर्मा जी सोये हए थे! मैं फिर से लेट गया। नहीं जगाया उन्हें। फिर से नींद आ गयी मुझे! फिर से सो गया मैं!
अब रात को उल्लू बनना था! रात को नहीं आती नींद अब! और फिर नींद खुली चार बजे! शर्मा जी जाग गए पहले ही! अब मैं भी उठ गया! शर्मा जी पानी ले आये! पानी पिया मैंने!
और तभी नकुल पर नज़र पड़ी मेरी! "नकुल?" आवाज़ दी मैंने! आया दौड़ा दौड़ा! "हाँ जी?" बोला वो, "अंदर आ" कहा मैंने, दरवाज़ा खोल,आ गया अंदर! बैठ गया! "हाँ जी?" बोला वो! "मैंने सुना तुझे कुछ दिखाई दिया था रात में पिछली बार?" पूछा मैंने,
चुपहुआ! होंठों पर जीभ फेरी, मुझे देखा। "हाँ जी" कहा उसने, "क्या देखा था?" पूछा मैंने, "ये नदी है न?" बोला वो, नदी की तरफ इशारा करते हुए! "हाँ?" कहा मैंने, "इसमें घुटने घुटने पानी था" बोला वो, "फिर?" कहा मैंने, "मैंने कम से कम दस औरतें देखी थी वहां, पानी में!" बोला वो! "अच्छा! कैसी थीं वो?" पूछा मैंने, "थीं तो बहत संदर!" बोला वो, "क्या कर रही थीं?" पूछा मैंने, "पानी में खड़ी थीं, हाथों में थालियां लिए" बोला वो, "और?" पूछा मैंने! "थालियों में दीये जल रहे थे!" बोला वो! "दीये?" पूछा मैंने! "हाँ जी, दीये!" बोला वो, "और?" पूछा मैंने, "उन दीयों की रौशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी, चेहरे चमक रहे थे उनके!" बोला वो! "अच्छा!" कहा मैंने, "हाँ जी" बोला वो! "क्या पहना था उन्होंने?" पूछा मैंने,
"एक ही कपड़ा सा था, उसी से बदन ढका था अपना" बोला वो! "कोई गीत या कुछ कहा था उन्होंने?" बोला मैं, "नहीं जी" बोला वो! "फिर?" पूछा मैंने, "फिर जी, वो पानी में ही घुस गयीं!" बोला वो! "अच्छा!" कहा मैंने, "हाँ जी, पता नहीं कौन थीं" बोला वो!
"और बाद में फिर नहीं दिखी?" पूछा मैंने, "नहीं जी" कहा उसने! "उनका बदन कैसा था?" पूछा मैंने, नहीं समझ सका वो! "लम्बाई-चौड़ाई कैसी थी?" पूछा मैंने, "तंदुरुस्त थीं! इतनी इतनी होंगी!" बोला वो, हाथों से इशारा करते हुए! कम से कम, छह फ़ीट! उसके अनुसार! "कपड़ा कैसा था?" पूछा मैंने, "पीले रंग का" बोला वो, "और कुछ आभूषण थे?" पूछा मैंने, "नहीं जी" बोला वो, "कौन हो सकती हैं?" पूछा मैंने, "प्रेत होंगी" बोला वो! "हो सकता है" कहा मैंने! "चल ठीक है फिर!" मैंने कहा, वो उठा और चला गया! "क्या कह रहा है ये?" बोले शर्मा जी, "सही कह रहा है" कहा मैंने, "देखा होगा इसने?" बोले वो, "देखा ही होगा!" कहा मैंने! "कौन होंगी?" बोले वो, "पता नहीं!" कहा मैंने! "प्रेत?" बोले वो, "हो सकता है!" बोला मैं! "अच्छा!" बोले वो, "अब अायें, तो देखें!" कहा मैंने! "आएं तो!" बोले वो!
और फिर हम चले वहाँ से! गाड़ी को ताला लगाया और चले तम्बू में! बाबा और हीरा तो सोये थे!
नकुल काम में लगा था अपने! "आओ यार बाहर ही चलें!" कहा मैंने! "चलो!" बोले वो।
और हम चले अब नदी की तरफ! नदी बड़ी ही खूबसूरत थी! टेढ़ी-मेढ़ी! भूमि की लट हो जैसे! शाम होने में देर थी, हम बैठ गए एक जगह! "अब कल ही कुछ पता चलेगा!" बोले वो! "हाँ, कल ही!" कहा मेंने, "सफलता मिल जाए बस!" बोले वो, "मझे उम्मीद है!" कहा मैंने, "उम्मीद तो मुझे भी है!" बोले वो! "बस, उम्मीद थामे रहो!" कहा मैंने! "सो तो है ही!" बोले वो! सामने से, नकुल आ रहा था! हाथ में दो कप लिए!
आ गया था हमारे पास तक! "लोजी! चाय पियो!" बोला वो! "बहुत बढ़िया किया नकुल!" बोला मैं! "कोई बात नहीं जी!" बोला वो, और चला गया! सीधा आदमी था नकुल!
जंगली आम!
चाय पी हमने फिर! मजा आ गया था! चाय में मीठा इस बार कुछ खुले हाथ से डाल दिया गया था! लेकिन थी चाय बढ़िया! तभी सामने नदी के छोटे से पानी वाले हिस्से में से कुछ छोटी छोटी मछलियाँ उछली ऊपर! सूरज की रौशनी जब उनके चमकते चांदी जैसे शरीर पर पड़ी तो ऐसा लगा जैसे विद्युत के कुछ अंश पानी में से निकलें हों! बहुत खूबसूरत मछलियाँ थीं वो! छोटी
छोटी मलैट मछलियाँ जैसी! यहां आसपास कोई गाँव नहीं था, नहीं तो बेचारी ये भी न बच पाती! जंगल में दूर थीं, और अपनी जान बचाये पड़ी थीं, पानी और कम होता तो मछली के शिकारी पक्षी अब तक इस पानी से उनका नामोनिशन मिटा चुके होते! साँझ ढलने ही वाली थी थोड़ी ही देर में! और यहां फिर घुप्प अँधेरा छा जाने वाला था! चाहो तो गाड़ी में सो जाओ, या फिर तम्बू में, तम्बू अच्छी तिरपाल से बना था, मज़बूत था और सुरक्षा प्रदान कर सकता था! लेकिन अंदर सोने में ज़रा तकलीफ़ थी, पांच आदमी सो तो सकते थे, लेकिन
आराम नहीं मिलता, इसीलिए मैंने और शर्मा जी ने, उस गाड़ी में ही सोना सही समझा! बाबा ने बताया था की जंगली जानवर तो हैं जंगल में, लेकिन नदी किनारे कम ही आते हैं, नदी में और भी कई ऐसे स्थान हैं जहाँ पानी भरा है, वे वहीं से पानी पी लिया करते हैं। हाँ, तेंदुए आदि आ सकते हैं, और उनसे बचाव के लिए बाबा के पास हथियार थे! वे लेकर आये थे अपने साथ! ये सही भी था, तेंदुआ बहुत जुझारू प्राणी है, घात लगाता है कई कई घंटे! और जब शिकार करता है, तो चूक की गुंजाइश कम ही होती है। आमतौर पर मनुष्य जैसा वयस्क प्राणी इसका शिकार नहीं होता, लेकिन आक्रमण कर दे तो बुरी तरह से घायल कर सकता है! इसीलिए, इस बारे में सभी मुस्तैद थे! चाय पी ली, कप लिए हमने, उठे और
चले वापिस गाड़ी की ओर, खाना बनाया जा रहा था! नकुल और हीरा तैयारी में लगे थे! हम सीधा तम्बू में चले गए! बैठे वहीं और फिर थोड़ा आराम किया! कोई आधे-पौने घंटे में शाम ढल गयी, और हो गया था अन्धकार!, तम्बू में जला हण्डा खूब रौशनी उछाल रहा था। खाना जहां बन रहा था, वहाँ भी हण्डा जला था! दूर दूर तक रौशनी जा रही थी उसकी! जंगल में मंगल मन रहा था जैसे! कोई साढ़े आठ बजे हमने भोजन किया! मसूर की दाल बनायी थी आज नकल ने, साथ में रोटियां और चावल, भरपेट खाए हमने! साथ में कच्ची प्याज! नकुल के हाथों में जैसे जादू था, कमाल का स्वाद लाता था सब्जियों और दाल में भोजन कर लिया था हमने! बर्तन भी अपने अपने साफ़ कर लिए थे, नकल ने मना किया था, लेकिन एक आदमी पर इतना बोझ डालना सही भी नहीं था! इसीलिए साफ़ कर दिया था उन्हें! करीब साढ़े नौ बजे, मैंने चाबी ली गाड़ी की, और चले हम सोने गाड़ी में, बाबा से कुछ बातें हुई थीं, सुबह के लिए, जहां जाना था हमें, उस स्थान को लेकर! अब अब सुबह की सुबह ही देखी जानी थी! हम गए गाड़ी में, दरवाज़े खोले और फिर अंदर बैठ, बंद कर लिए, खिड़की थोड़ी थोड़ी खोल लीं थीं हमने! और फिर, चादर लगा कर सिरहाने, पाँव सीटों के ऊपर टिका कर, लेट गए थे हम! कुछ देर बातें हुईं हमारी, और कोई सवा दस बजे, हम सो गए थे! अब नींद कैसे भी आये, ले लेनी थी, नहीं तो कल का दिन बोझिल हो जाता! ऊंघते रहते, आँखें लाल रहती, और उबासियां ही उबासियां आती! चलो जी! रात काट ली थी हमने! नींद बढ़िया ही आई थी! सुबह का वो नज़ारा ऐसा था, जैसे हम किसी गन्धर्वलोक में विचरण कर रहे हों! पक्षियों की चहचाहट, और मंद मंद बयार ऐसी थी, की
अब जैसे शेष जीवन यहीं काट लिया जाए! बहत हई जीवन की धक्का-मुक्की! शोर-शराबा! आना-जाना! बस, एक कुटिया डाली जाए और अपना शेष जीवन यहीं साकार किया जाए! ऐसा सुंदर नज़ारा था! प्रकृति से सुंदर इस संसार में कुछ और नहीं! उसने सभी को बाँधा हुआ है! एक ही सूत्र में! ये सूत्र, यहां दीख पड़ता है! शहरों में नहीं! वहाँ तो बनावटी जिंदगी है! लोग रोज बनते ठनते हैं, अपने आप को छिपाते हुए, अपने अंदर के असली व्यक्तित्व को छिपाते हुए! अपना ध्येय सिद्ध करने हेतु कैसे कैसे प्रपंच नहीं करते! असत्य-भाषी हो जाते हैं! पल पल में असत्य! जानते हुए भी की, ये असत्य है, लेकिन फिर भी, अपनी अंतरात्मा का दमन कर ही दिया करते हैं! यहां ऐसा नहीं! यहां कुछ छिपा नहीं! कैसी
अद्भुत है ये प्रकृति! खैर, हम उठ गए थे! मैं और शर्मा जी, स्नान, कुल्ला आदि करने, चले नदी की तरफ, बाल्टी ले ली थी, पहुंचे और फिर निवृत हो गए! वापिस आये, तब तक चाय बन गयी थी! जग से डाली जा रही थी कपों में! हमें भी दी गयी! साथ में मट्टियाँ थीं, कुर्रमकुर खाते चले गए! चाय पी ली! और अब! अब होनी थी मेरी परीक्षा! मुझे अब इन सभी को लेके जाना था उस स्थान पर,जहां कभी शम्पायन, रिपदा और अनवि आये थे! राह कठिन तो थी, लेकिन असम्भव नहीं! "आओ शर्मा जी" कहा मैंने,
"चलिए" बोले वो, "बाबा?" कहा मैंने, चाय पी रहे थे, मुझे देखा तभी, "वो पाण्डु-लिपि दे दो मुझे" कहा मैंने, "देता हूँ" बोले वो, उठे, तम्बू में गए, और निकाल लाये, दे दी मुझे, मैंने खोल ली, हाथों में ले ली,और बाकी सामान उसका, वापिस कर दिया, "आओ शर्मा जी" बोला मैं, "चलिए" बोले वो, मैं अब उस तरफ चला, जहाँ से हमें जाना था! रुका वहाँ, और फिर से पहाड़ियां देखीं, और फिर कुछ आँकलन किया! "वो देखिये, एक संकरा सा रास्ता लगता है" कहा मैंने, "हाँ, लेकिन ये रास्ता नहीं है, ये, शायद पेड़ टूट गए हैं वहाँ से" बोले वो, "हाँ, वही" बोला मैं, "यही से शुरआत करते हैं" कहा मैंने, "ठीक है, लेकिन बीच बीच में पहाड़ जैसे टीले हैं" बोले वो, "इनको घूम के पार कर लेंगे" कहा मैंने, "यही करना होगा" कहा उन्होंने, "तो ठीक है, अब से ठीक डेढ़ घंटे बाद, हम चलते हैं यहां से" कहा मैंने, "ठीक है" बोले वो,
और हम तब आये वापिस, और बता दिया सभी को की डेढ़ घंटे बाद निकल रहे हैं यहां से, नकुल खाने के तैयारी में लगा था, आलू-मटर बना रहा था, मटर छिलवाने में,आलू छिलवाने में मदद की सभी ने, और काम जल्दी जल्दी से निबटने लगा फिर! ताज़ा अपनी बहुत था हमारे पास, किफ़ायत से ही प्रयोग करना था, कुछ थैलियां थीं पानी की, वो एक बैग में भर ली, और हम तैयार हए। भोजन बना, और हमने भोजन किया फिर! और बर्तन आदि साफ़ कर दिए, सामान समेटा फिर, कुछ गाड़ी में रखा और कुछ तम्बू में, और ठीक डेढ़ घंटे के बाद हम लोग, तलवार जैसे घास काटने वाली कटनी ले कर, चल पड़े! बैग नकुल के पास था पानी का, और एक हीरा के पास, शर्मा जी के पास एक बोतल थी, और मेरे हाथ में वो कटनी! अब नीचे उतरे, और चले जंगल की तरफा अंदर घुसे! अब कटनी स एकांत काट हमने रास्ता बनाया, बाबा भी कटनी से रास्ता बना रहे थे! कटनी कहीं कहीं इस्तेमाल होती थी, जंगल भले ही घना था, लेकिन छिटपुट तौर पर ही! अंदर बस घास
और झाड़ियाँ ही थीं! रास्त मुश्किल नहीं था इतना, जितना लग रहा था! इस से हमें बल मिला! और हम कोई घंटे भर में,आधा किलोमीटर से अधिक अंदर आ गए थे! एक जगह पत्थर पड़े थे, बड़े और छोटे। छाँव भी थीं, घास की नमी भी थी, गर्मी तो थी, लेकिन छाँव में हमने आराम करने का मन बनाया! हम बैठ गए वहां, पानी पिया, पसीने पोंछे! "अरे! वो देखो सामने!" बोला नकुल! "कहाँ?" पूछा मैंने, "वो पेड़!" बोला वो! मैंने देखा! पेड़ पर अजगर लिपटा था! कोई तीन मीटर का रहा होगा वो! "आ नकुल!" कहा मैंने, थोड़ा घबराया
वो! "आ तो सही?" बोला मैं! फिर चला, शर्मा जी भी चले! पहुंचे अजगर के पास! बहुत सुंदर था वो!
क्या चित्रकारी सी हो रखी थी उस पर! "ये उत्तर-भारतीय अजगर है, चार-पांच मीटर क बढ़ जाता है! प्रबल शिकारी है! एक बार भोजन करता है तो छह माह तक ऐसे ही पड़ा रहता है!" कहा मैंने, "अब ये भूखा है या पेट भरा है इसका?" पूछा शर्मा जी ने, "पेट भरा होता तो इतना ऊपर नहीं चढ़ता ये!" कहा मैंने! "अच्छा! भूखे हैं साहब!" बोले शर्मा जी! "हाँ! शिकार की तलाश में है!" कहा मैंने! "चलो फिर वापिस!" हंस के बोले वो! "हमें नहीं पकड़ेगा!" कहा मैंने! "क्यों?" बोले वो, "वयस्कों को नहीं पकड़ता ये!" कहा मैंने, "लेकिन मैंने तो सुना है?" बोले वो, "वो ये नहीं होता, वो पूर्वी-भारत का बर्मीज़-अजगर होता है!" कहा मैंने! "अच्छा !" बोले वो!
और हम लौटे वापिस वहां से फिर! हम वापिस आ बैठे फिर! मौसम अच्छा ही था,धूप खिली थी, और छन छन के पेड़ों के बीच से नीचे झाँक रही थी, जहां झांकती थी, वहाँ धूल के कण, नृत्य सा करते दीख पड़ते थे! पेड़ अधिक घने तो नहीं थे, लेकिन जहां जहां थे, वहाँ सघन हो जाते थे, और यहीं सम्भल के आगे बढ़ना
-
--
पड़ता था! हम उठे, सुस्ता लिए थे, और बढ़ गए आगे! आगे चले तो गड्ढे से थे रास्ते में, घास थी उनमे लगी हुई, पाँव ध्यान से रखने पड़ रहे थे, अचानक से ही शर्मा जी का पाँव फिसला और गिर पड़े वो, मैंने उठाया उन्हें, घटने में चोट लगी थी उनको, घुटने की कटोरी में, सभी रुक गए थे, शर्मा जी मल रहे थे अपना घुटना, मैंने आसपास नज़र दौड़ाई, तो मुझे करकटा की झाड़ी दिखी, मैंने उसके सफेद फूल तोड़े, कुछ,और मसले फिर, फिर पानी की बूंदें लीं और घुटने पर वो हरा सा रंग लगा दिया, इस करकटा की झाड़ी के फूलों में उड़नशील तेल सा होता है, दर्द आदि में लाभ करता है, त्वचा को सुन्न सा कर देता है! वही हुआ, दस मिनट के बाद उन्होंने चलना शुरू किया, अब चल रहे थे आराम से, हाँ, दर्द तो था, लेकिन अब इतना नहीं था, लगता था जैसे कि कोई बजरी आदि सीधी घुटने की कटोरी में ही आ लगी थी! लेकिन उस करकटा झाड़ी के फूलों से बने
औषधीय-लेप ने अपना काम कर दिया था, वहाँ ये झाड़ियाँ बहुत थी, दुबारा से दर्द होता, तो फिर से लगा देता! हम बढ़ रहे थे आगे धीरे धीरे! "अब दर्द कैसा है?" पूछा मैंने, "काफी फ़र्क है" बोले वो, "अगर दुबारा हो, तो बता देना" कहा मैंने, "हाँ, बता दूंगा" कहा उन्होंने,
आगे चले, तो ज़मीन पर एक जगह, अण्डों के छिलके से मिले, "ये क्या है?" पूछा शर्मा जी ने, "ये, अंडे हैं, देखता हूँ" कहा मैंने,
अंडे देखे मैंने, छिलके उनके, "ये मॉनिटर लिजाई या गोह के अंडे हैं, बड़ी वाली गोह!" कहा मैंने, "अच्छा, लगा जैसे सांप के हैं!" बोले वो, "उनके अंडे सफ़ेद होते हैं आमतौर पर, ये चितकबरे से हैं!" कहा मैंने,
और फिर आगे चल पड़े हम! आगे बढ़े तो एक छोटासा गड्ढा दिखाई दिया, वहाँ भी ऐसे ही अंडे पड़े थे! शायद गोह काफी थीं यहां पर! गोह एकाँकी जीव हैं,मात्र प्रणय-समय ही नर-मादा एक साथ आते हैं, अन्यथा एक दूसरे के शत्रु होते हैं!
और आगे बढ़े! एक ढलान सी आई! अब यहां से नीचे उतरना था हमें! "अरे रे!" बोले बाबा! "क्या हुआ?" बोला मैं, "यहाँ से नीचे कैसे जाएँ?" पूछा उन्होंने, "देखते हैं" कहा मैंने,
और फिर देखा मैंने आसपास! एक जगह पेड़ लगा था, बड़ा सा, उस से एक जंगली लता लटकी थी, अगर उसको पकड़ पकड़ के पेड़ पर चढ़ लिया जाए, तो पेड़ से उतरा जा सकता था आराम से! "एक मिनट" कहा मैंने,
और वो लता पकड़ी, खींचा उसे, अभी ताज़ा थी, मज़बूत थी, सूखी टूट जाती यही, इनकी खींच कर ही परखा जा सकता है, ये दो सौ किलो तक का भार उठा सकती हैं! "मैं जैसे जा रहा हूँ, वैसे आइये सभी" कहा मैंने,
और मैं वो लता पकड़, पेड़ पर चलता रहा, उसके गुद्दे पर, और फिर निचला गुद्दा, कोई चार फ़ीट ज़मीन नीचे थी, तो कूद गया, ज़मीन सूखी थी, कोई समस्या नहीं हुई! "आओ अब, आराम से आओ!" बोला मैं,
और फिर एक एक करके, वे उतरने लगे, पहले बाबा, फिर शर्मा जी, और फिर सभी, उतर आये नीचे! "बाप रे!" बोले शर्मा जी! "क्या हुआ?" कहा मैंने, "वो सामने देखो ज़रा!" बोले वो! सामने देखा तो छत्ते लगे थे बड़े बड़े! मधुमक्खियां भिनभिना रही थीं! "हाँ, खतरनाक मामला है!" कहा मैंने, "अब?" बोले वो, "बैठ के चलो" कहा मैंने,
और हम बैठ बैठ के आगे बढ़े, चेहरा ढकते हुए, साँसों की गर्मी पकड़ लेती हैं वो! और छत्तों के पास हों, तो रक्षा-प्रणाली में चाक-चौबंद सिपाही मक्खियाँ, नहीं बख़्शती फिर! फिर तो हाल खराब ही होता है! बी-स्प्रे था नहीं हमारे पास! इसीलिए आराम आराम से रास्ता पार किया हमने! कर लिया! और फिर चले आगे! दिन के बारह बज चले थे! अब जंगल की गर्मी बढ़ने लगी थी! एक जगह कुछ पेड़ों के नीचे आराम किया हमने! पानी पिया और थोड़ा आराम किया! "अब घुटना कैसा है?" पूछा मैंने, "अब दर्द नहीं है" बोले वो, "चलो सस्ते में निबटे!" कहा मैंने!
और तभी पीछे आवाज़ हुई! खरड़ खरड़ सी! सभी चौंक पड़े! सभी उधर ही मुंह करे, देखते रहे वहीं!
बाबा ने अपना हथियार निकाल लिया, ये एक देसी कट्टा था! तमंचा! हमारे हाथों में कटनी थी, हम तैयार थे! अगर तेंदुआ हुआ, तो आज जान जोखिम में थी। इसीलिए, हम इकट्ठा हो गए थे! आवाज़ फिर से हुई, और तीन चार जंगली सूअर निकले बाहर! हमने चैन की सांस ली! वे अपनी थूथनी उठा, हमारी गंध ले रहे थे। म हिला हिला के! 'श्हहह!" मैंने कहा,
और वे भागे फिर वापिस जंगल में ही! "बच गए!" बोला नकुल! "तेंदुआ भी होता, तो भी भाग ही जाता!" कहा मैंने, "अच्छा जी?" बोला नकुल! "हाँ, इतने सारों पर वार नहीं करता वो!" कहा मैंने, अब बाबा ने अपना कट्टा अंदर रख लिया झोले के! आराम किया हमने, और
फिर आगे बढ़े! अब काफी दूर तक आ गये थे! लेकिन अभी ऐसा तो कोई स्थान नहीं दिखा था! "यहां तो कुछ नहीं है?" बाबा बोले, "मिलेगा!" कहा मैंने, "मिल जाए तो बढ़िया है!" बोले वो! "आगे चलो!" कहा मैंने!
और हम आगे बढ़े! आगे एक टीला सा मिला! "आप रुको ज़रा!" कहा मैंने,
और मैं चढ़ने लगा वो टीला! चढ़ गया! आसपास नज़र डाली, तो एक जगह कुछ पत्थर से दिखे! बड़े बड़े! काफी सारे थे, जैसे कोई पहाड़ी हो और टूट गयी हो भूकम्प आदि में!
आया नीचे! "उधर चलो" कहा मैंने,
और हम चल पड़े उधर ही! बीच रास्ते में हमें कुछ चौकोर से पत्थर दिखे! दिल में खुशी सी हुई! "ये मानव द्वारा ही निर्मित लगते हैं!" कहा मैंने, "हाँ, यही लगता है!" बोले शर्मा जी, "ये देखो! एक चिन्ह! मिट गया है, लेकिन था कोई चिन्ह ही!" बोला मैं! "हाँ, चिन्ह ही है! उकेरा गया है!" बोले वो! "आओ, यही, सीधा!" कहा मैंने, और हम, सभी चल पड़े उधर ही! और हम आगे बढ़ चले! उन चौकोर पत्थरों ने नव-ऊर्जा भर दी थी हमारे अंदर! जोश-ओ-खरोश से भर चुके थे हम! हम चल दिए थे आगे! यहां पर, वृक्ष भी अलग ही प्रकार से थे! नाम तो नहीं जानता उनका, लेकिन दिखने में अर्जुन वृक्ष से थे, सारी पत्तियाँ ऐसी थीं जिअसे बसंत के बाद पेड़ों पर नयी पत्तियाँ आई करती हैं, कच्ची सी, मुलायम, हलकी हरी! सुनहरी सी! और उनके तने और डालों का रंग, चमकीला चांदी सा था! तभी एक वृक्ष के नीचे से हम जैसे ही गुजरे, किसी पक्षी का एक स्वर गूंजा! अजीब सा भारीस्वर! फिर एक और, एक और! मैं ठहर गया, पेड़ों में ढूँढा उस पक्षी को, जब देखा तो ये धनेश था! मेरा तो मन प्रसन्न हो उठा! धनेश पक्षी इस संसार का प्रतीत ही नहीं होता! दिव्य सा पक्षी लगता है! नाम भी धनेश है इसका! कहते हैं अकूत धन-सम्पदा का प्रहरी हुआ करता है ये धनेश! कितना प्यार स्वर था उसका! फिर तो पेड़ों में से अजीब अजीब से स्वर गूंजने लगे! पता नहीं कौन कौन से पक्षी थे वो! मैंने तीन चार तप पहचान लिए थे, बाकी नहीं, आकार में बड़े थे और कुछ छोटे भी, काला-सफेद खंजन सा पक्षी, देखा मैंने , जीवन में पहली बार! बहुत भाग्यशाली थे हम सभी! हम आगे बढ़े! तो ज़मीन पर, हमें विषरहित हरे सर्प दिखे, वे मेंढक और छोटी छिपकलियों का शिकार किये करते हैं, यदि काट लें तो दस मिनट के लिए सुन्नाहट सी हो जाती हैं और कुछ नहीं! हम उनसे बचते हुए, आगे बढ़े, आगे गए तो कुछ जल पक्षी दिखे, पेड़ों पर बैठे हए, सारस भी थे, काले बगुले भी, यवत पक्षी भी, कोरम भी, ये सभी जलीय जीवन के आदि हैं, इसका अर्थ था कि हम अवश्य ही किसी तालाब के आसपास हैं। और वही हआ, सामने एक तालाब था! नीले रंग के पानी से भरा एक तालाब! बहुत खूबसूरत था, इंसानी आबादी से दूर था, इसीलिए गंदगी और प्रदूषण से बचा हुआ था अभी तक! हम एक जगह बैठ गए वहाँ! "कितना खूबसूरत है!" कहा मैंने, "सच में!" बोले शर्मा जी, "ये है सौंदर्य!" मैंने कहा,
"यक़ीनन!" बोले वो! "पानी देखो, कैसा नीला है!" बोला मैं, "हाँ, सच में!" मैंने कहा, दरअसल, नीला आकाश का नीला रंग अवशोषित किया करता है मृदु और स्वच्छ जल!
इसी कारण से नीला दीखता है! "पानी में ये पक्षी देखो!" कहा मैंने, "इन्ही की सत्ता है यहां!" बोले वो! हमने कोई आधा घंटा आराम किया, चेहरा धोया और बाल गीले किये! और फिर तालाब से हट कर, चल दिए एक तरफ, जहां कुछ छोटे से पहाड़ दिख रहे थे! हमारा गंतव्य वही था! तालाब पार किया हमने, घूम कर, कटनी से काटी झाड़ियाँ और कुछ बेलें, फिर तो रास्ता जैसे साफ़ हो गया! अब बड़े बड़े पेड़ नहीं थे वहाँ, छोटे छोटे पेड़ और कुछ हरी-भरी झाड़ियाँ! जैसे किसी ने साफ़ किया हो उन्हें! जब एक जगह हम चल रहे थे, तो कुछ आवाजें आयीं! अजीब सी आवाजें! हम रुक गए! पक्षी गा रहे थे, और कोई शोर नहीं था! "श्हहहहह!" कहा मैंने, सभी रुके! "ध्यान से सुनो!" कहा मैंने, सभी ने कान लगा दिए! आवाजें रुक रुक के आ रही थीं! जैसे, कई स्त्रियां अपने कंगन खनका रही हों! जैसे, कुछ नव-यौवनाएं, क्रीड़ा कर रही हों आपस में! लेकिन आवाजें आ कहा से रही थी? मैंने कान लगाये!
और कटनी से एक तरफ इशारा किया! मैं बढ़ा उधर, कुछ झाड़ियाँ थीं,आवाज़, यहीं से आ रही थीं! मैं बढ़ा आगे, और कटनी से उन झाड़ियों को बीच में से खोला, सामने देखा, खुला सा मैदान था, लेकिन कोई नहीं था वहाँ! फिर मेरे पीछे से आवाज़ आई! मैं पीछे हआ,एक झाडी को खोला, साम देखा, तो पत्थरों का एक टीला सा मिला! "आओ!" कहा मैंने, वे चले मेरे पीछे दबे पाँव!
तभी खिलखिलाने की आवाज़ आई! खनकती हुई आवाज़, जैसे कोई हंस रहा हो! कोई स्त्री, तो हंस रही हो प्रसन्नता से!
भरा जंगल! आबादी थी नहीं! आवाजें साफ़ और स्पष्ट! किसी का भी दिल, डर के मारे, पसलियां छोड़, पेट में शरण ले! अच्छे से अच्छा, बेहोश हो जाए! भाग ले पीछे। लेकिन हम नहीं भागे! जानना चाहते थे कि ये आवाजें आ कहाँ से रही हैं। कौन हैं ये? आवाजें अचानक से बंद! हम शांत! चुप्पी लगाये, शांत से खड़े!
और आवाजें फिर से आयीं! वहीं से,जहां वो पहाड़ से थे। "आओ, वहीं चलें!" कहा मैंने, "चलिए!" बाबा बोले, अब पास आ गए थे हमारे! हीरा, आसपास देखे जा रहा था, नकुल और हीरा, दोनों के ही चेहरों के रंग उड़े हुए थे! "वो, सामने!" कहा मैंने,
और हम फिर, घुटने घुटने झाड़ियों में से होते हुए, उस पहाड़ तक जाने लगे! अजीब से पत्थर थे! यहां बलुआ पत्थर कहाँ से आया? लाल रंग का पत्थर? सफेद पोटेदार? ऐसा कैसे? "चलते रहो!" कहा मैंने!
चलते रहे हम!
और आवाजें तेज हईं और फिर एक अजीब सी आवाज़! अजीब सी, जैसे कोई सिंह गुर्राया हो।
सिंह?
यहां? सिंह ही है या वायु-प्रतोष? पत्थरों से रगड़ कर जब वायु, विभिन्न कोणों से गुजरती है, तो ये प्रतोष-गुण उतपन्न करती है! यही होगा वो! यही हो सकता था, नहीं तो यहां सिंह कहाँ से आ गया? लोग घबरा गए थे बेचारे। "चलो?" कहा मैंने!
और हम आगे चले, धीरे धीरे सम्भल सम्भल कर! अब पहाड़ी टीला पास में ही था!
और फिर से आवाजें आयीं! मैं बढ़ता रहा आगे, शर्मा जी आगे बढ़े, लेकिन वे! वे रुक गए थे। बाबा तो मंत्र जाप करने लगे थे! मंत्र जपा, सशक्त हुए, और चले फिर आगे, आये मेरे पास तक! "चलिए अब!" बोले वो, "चलो" कहा मैंने,
और हम फिर से चले! अब चढ़ाई सी शुरू हुई! पत्थरों से भरी थी ये चढ़ाई!
और मित्रगण! मैंने जिंदगी में पहली बार, सफेद मकड़ियाँ देखीं वहां! लाल-लाल आँखों वाली! बड़ी थीं, कोई दो इंच की! उनके इंक, साफ़ दीख रहे थे, सफेद ही रोएँ थे उनके!
और जाले उनके हल्के पीले से! नायाब मकड़ियाँ थीं वो! बहुत सुंदर मकड़ियाँ थीं, लगता था जैसे,
बख्तरबंद पहना हो उन्होंने! मैं उन्हें ही देख रहा था कि, आवाज़े फिर से आयीं! इस बार तो ऐसे, जैसे साथ वाले कक्ष में सी ही कोई हंसा हो! "ये तो कोई माया है!" बाबा बोले, "देखते हैं!" कहा मैंने!
और इस तरह हम, उस टीले पर चढ़ आये! सामने, कुछ अजीब सा नज़ारा था! जैसे कोई गुफा हो! बड़ी सी गुफा! चौकोर सा मुख था उसका, ऊपर को, त्रिकोण सा बना हुआ था। ये प्राकृतिक नहीं था! इसको अवश्य ही किसी ने बनाया था, किसी मनुष्य ने! लेकिन वे थे कौन? कोई किरात? या अन्य कोई? "ये तो कोई कंदरा सी लगती है!" शर्मा जी बोले! "कंदरा ही लगती है!" कहा मैंने, "हाँ, गुफा ही है" बोले बाबा! "बड़ा ही डरावनी गुफा है!" बोला हीरा! नकुल भीरु की तरह, आसपास देखे, पीछे देखे! हम कुछ देर वहीं खड़े रहे! अब आवाजें बंद थीं!
और तभी वो नकुल भाग हमारी तरफ! "वो वही, वही!" बोला वो! "क्या हुआ?" बाबा ने पूछा, "वो, वही औरतें?" चीख के बोला वो! "कहाँ हैं?" पूछा मैंने, "वो, उधर!" बोला वो, इशारा करके, बायीं तरफ! मैं भागा उधर, शर्मा जी और अन्य भी भागे! वहां तो कुछ नहीं था! बस जंगल और कुछ पेड़!
और तो कुछ भी नहीं!
"कहाँ हैं वो नकुल?" पूछा मैंने, नकुल तो डर के मारे ज़मीन में गड़े! आगे ही न बढ़े! "डर मत नकुल, बता कहाँ?" बोला मैं, "वहीं हैं। वहीं हैं!" बोला वो! "कहाँ है? दिखा ज़रा?" बोला मैं, हिले ही नहीं! शर्मा जी हिम्मत बँधायें! हीरा हिम्मत बंधाये! बाबा साहस बँधायें! लेकिन नहीं। डर के मारे, आँखें मूंदे! "देख नकुल, नहीं बताएगा तो सभी की जान मुसीबत में पड़ जायेगी, बता, कहाँ?" कहा मैंने, अब कुछ समझ में आया उसे, "कुछ नहीं होगा तुझे, बता कहाँ?" पूछा मैंने, "वहाँ, वो औरतें" बोला वो, "चल दिखा" कहा मैंने,
और तब वो चला, झाड़ी इ से, बार बार झांके, आगे पीछे देखे,
और कभी रुके, कभी चले, पसीने के मारे तर-बतर! कभी कोई सीझाड़ी और कभी कोई!
और एक झाड़ी में से जब झाँका तो झटका खाकर पीछे गिरा! एक शब्द न निकला उसके मुंह से! अब मैं बैठा, झाँका सामने, तो मेरी भी साँसें थमी! वे कम से कम दस-बारह थीं! पीले रंग का वस्त्र था उनके शरीर पर! वस्त्र गीला था! आभूषण नहीं थे! सर पर थालियां रखी थीं! जलते हुए दीये रखे थे उन पर!
और वे औरतें ऐसे खड़ी थीं जैसे कोई मूर्तियां! उनकी पीठ हमारी तरफ थी!
निःसंदेह ये प्रेत नहीं थीं! मैं उठा तो बाबा ने देखा, बाबा के होश उड़े! फिर शर्मा जी,
और फिर हीरा! "कौन हैं ये?" पूछा बाबा ने, "पता नहीं" कहा मैंने, "क्या करें?" बोले वो, "रुको ज़रा" कहा मैंने,
और मैंने तब दुहित्र-मंत्र पढ़ा, और नेत्र खोले, वे जस की तस! जैसे मानव-स्त्रियां ही हों! "अजीब बात है?" कहा मैंने, "हाँ" बोले बाबा, "बाबा, आओ ज़रा मेरे साथ" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले वो, "ज़रा सामने उनके" कहा मैंने, "किसलिए?" बोले वो, "आओ तो सही?" कहा मैंने, अब बाबा दुविधा में! कहाँ जाएँ! क्या करें! "आओ तो सही?" कहा मैंने, बाबा ने कुछ मंत्र से जपे, और फिर से उनको देखा, "चलो?" बोला मैं, "एक काम न करें?" बोले वो, "क्या?" पूछा मैंने, "अंदर चल कर देखें?" बोले वो, "अंदर कहाँ, गुफा में?" कहा मैंने, "हाँ" बोले वो, "पहले इनको तो देख लो?" बोला मैं, अब फिर से चुप!
"चलते हो या मैं ही जाऊं?" कहा मैंने,
नहीं बनी उनकी हिम्मत! "आओ शर्मा जी!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो,
और हम चल दिए, वो झाड़ी पार कर, "रुको? रुको?" बोले बाबा! हम रुके! "मैं भी आता हूँ" बोले वो! "आओ" कहा मैंने, अब हेरा और नकुल! दोनों कांपें! वे भी लांघ आये झाड़ियाँ! चले हमारे पीछे पीछे! वो औरतें करीब सौ फ़ीट दूर थीं हमसे! हम बिना आहट किये हुए आगे बढ़ रहे थे! कि तभी हमारा रास्ता एक बड़े से अजगर ने रोक लिया! रास्ते में पड़ा था, हमें देख लिया था सुने, अब जीभ निकाल, जायज़ा ले रहा था हमारा! ये वाला खतरनाक था, कम से कम पांच मीटर का रहा होगा! अजगर जब काटता है, तो सबसे बुरा अनुभव होता है! इसके मुंह में, पैने, तीखे दांतों की कई कतारें हुआ करती हैं! दांत मुड़े होते हैं, अंदर गले की तरफ!
ये इन्ही से, शिकार को दबोच कर, अंदर धकेलता है! सभी सकते में थे! "रुको" मैंने फुसफुसा के कहा,
और अजगर को कटनी से छुआ, वो भारी था, मुश्किल से ही चल पा रहा था! आखिर में, मुझे टापना पड़ा उसको! फिर सभी ने हिम्मत की,और टाप लिया उसे, नकुल की ऐड़ी लग गयी उसे! मुंह फाइता हुआ एक झट से पीछे देखने लगा!
हम तब तक दूर पहुंच चुके थे वहां से! अब बढ़ रहे थे उन स्त्रियों की तरफ! अब उनका कुछ गीत गान सा सुनाई दिया। जैसे कोई लोक-गीत! ये हैं कौन? मन में यही प्रश्न थे! मन में एक डर भी था, अंजाना सा डर! लेकिन या तो डर लो, या फिर उद्देश्य पूर्ण कर लो! अब
