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वर्ष २०१० काशी के समीप की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और हम मुड़ लिए उस रास्ते के लिए! अब यहां आये तो छोटी सी पहाड़ी दिखी! पहाड़ी में एक गुफा दिखी! गुफा के मुंह पर, पेड़ों की दाढ़ियाँ, बेलें, जड़ें सब लगे थे! गुफा में जाना जैसे सम्भव नहीं था! लेकिन, कटनी की सहायता से, हमने रास्ता बना लिया था! अब एक एक करके, हम अंदर जा सकते थे! "मैं जाता हूँ" कहा मैंने, 

और मैं अंदर गया! "आओ!" कहा मैंने, 

और जैसे ही मुड़ा, सांस अटकी! 

आँखें फटीं! जो जगह हम छोड़ के आये थे पीछे, अब वहां से प्रकाश आ रहा था! लेकिन कैसे? "वो देखो वहाँ!" कहा मैंने, अब सभी ने देखा! "ये प्रकाश?" बोले शर्मा जी! "हाँ, पता नहीं कैसे?" कहा मैंने, अब तो हीरा और नकुल, और बाबा, तीनों ही, ऐसे डरे जैसे गले में सांप पड़ गया हो किसी पेड़ से गिरके! "आओ, सभी आओ" कहा मैंने, 

और अभी दौड़े मेरे पास! और हम देखने लगे, तो पीला सा प्रकाश, जो उन जगहों से आ रहा था, जहां से आये थे हम अभी! अचानक से सारा माहौल बदल गया था! प्रकाश ऐसा था कि जैसे किसी ने कक्षों में अलाव जलाये हों! जैसे, अलख उठायी जा रही हो! बेहद ही खतरनाक माहौल हो गया था अब! भय तो सभी को था, मुझे भी था, ऐसी स्तिथि मैंने बहत ही कम देखी हैं। प्रकाश निरंतर आ रहा था। अब एक ही काम करना था, इस गुफा में जा छिपा जाए! कम से कम इतना समय तो मिले कि प्राण-रक्षण कर लिया जाए! "मैं जा रहा हूँ अंदर, सब आराम आराम से आएं" कहा मैंने, 

और मैं चला अंदर, अभी कोई चार क़दम ही चला होऊंगा कि, "ठहरो!" कहा मैंने, सभी ठहर गए! मेरे सामने एक गहरा सा गड्ढा था! उसमे पेड़ों की जड़ें घुसी हुई थीं! बहुत डरावना था वो गड्ढा! 

और तो और, मेरी टोर्च भी दो तीन बार उबासियां ले चुकी थी! कहीं बंद हो जाती तो एक टोर्च के सहारे ही चलना पड़ता! "वहाँ से आओ" कहा मैंने, 

और मैं वहीं से चला, उस गड्ढे से बचता हुआ, किनारे किनारे! आ गए सभी! एक एक करके! 

मुझे बस बाहर की चिंता थी, कहीं कुछ हो न जाए, इसी आशंका से घबराया हुआ था! मैंने तभी सभी का देह-रक्षण किया! प्राण-रक्षण मंत्र से फूंक दी सबकी देह और अपनी भी! "आओ आगे" मैंने कहा, गुफा बड़ी ही दमघोंटू थी, जगह जगह पेड़ों की जड़ें तंग करने लगती थीं! "आराम से आओ" कहा मैंने, हम आगे चल रहे थे, आराम आराम से! आगे देखते हए, बचते हुए उन जड़ों से! तभी फिर से मेरी टोर्च ने आँखें मूंदीं! और फिर जाग गयी! ये एक नयी मुसीबत हो गयी थी! और फिर एक खुला सास्थान आया! काफी बड़ा सा! गुफा में ही! मैंने रौशनी मारी आसपास! दीवारों पर, पीला रंग पता था! 

और सामने ही, ठीक सामने, तीन चबूतरे बने थे! एक बड़ा, बीच में, एक एक छोटा दायें और बाएं! मैं गया उस तरफ, चबूतरों को देखा! उन तीनों पर मिट्टी जमी थी! हाथों से साफ़ किया, तो कुछ खुद हुआ दिखा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ लिखा था उस पर! लेकिन समझ से परे! 'त्रुप्ल' अर्थ बनता था उसका, देवनागरी में तो! 

लेकिन था एक अजीब सा ही चिन्ह! पंचभुज था बना हआ, उसमे त्रुप्ल लिखा था! 

और लिखावट में, बीच बीच में, कुछ बिंदियाँ सी थीं! ये कोई एक इंच चौड़ी लिखावट रही होगी! अब इसका क्या अर्थ हुआ, पता नहीं! न कभी सुना, न ही देखा! फिर दूसरा साफ़ किया! इस पर भी यही लिखा था! फिर तीसरा, और उस पर भी वही! 

"क्या लिखा है?" पूछा बाबा ने, "पता नहीं" कहा मैंने, फिर बाबा ने देखा। गौर से देखा, 

और एक छोटी सी किताब निकाली अपने बैग से! और खोली, फिर उस निशान को ढूँढा! मेरी जिज्ञासा बढ़ी अब! बाबा पृष्ठ पर पृष्ठ पलट रहे थे! मैंने देखा उस किताब में,अजीब अजीब से चिन्ह बने थे! उनके बीच में ऐसी ही लिखावट थी! "ये कौन सी किताब है?" कहा मैंने, न बोले कुछ! "बताओ?" बोला मैं, फिर न बोले, बस ढूंढते रहे! 

"कौन सी किताब है ये?" मैं चीखा! अब देखा मुझे, अजीब सी निगाह से! फिर से नज़रें गड़ा दी किताब पर! 

और चलने लगी ऊँगली पृष्ठ पर उनकी! अब मैंने एक झटके से वो किताब छीन ली! 

बाबा सन्न! "वापिस करो?" बोले वो, "कौन सी किताब है?" पूछा मैंने, न बोले कुछ! अब मैंने किताब देखी! पुरानी सी किताब थी वो! बहत पुरानी तो नहीं, लेकिन कोई अस्सी-नब्बे साल पुरानी! "कौन सी किताब है ये बाबा?" पूछा मैंने, "चिन्हों के विषय में है" बोले वो! "गूढ़ चिन्हों के विषय में" बोले वो, "तो पहले क्यों नहीं दिखाई?" बोला मैंने, "ज़रूरत पड़ती तो दिखा देता" बोले वो, "हम इतने चिन्ह छोड़ आये, अगर ये दिखाते तो बहुत कुछ समझ में आता कि नहीं?" कहा मैंने, मुझे गुस्सा आ गया था बहत! 

"कोई चिन्ह ऐसा नहीं था" बोले वो, "कैसा?" पूछा मैंने, "ऐसा" बोले वो, उस चबूतरे पर बने चिन्ह को देख कर! सर घूमा! ऐसा क्या है इस चिन्ह में? बाबा को बहुत कुछ पता है! बहुत कुछ! वो सब, जो मैं नहीं जानता था अभी तक! अब जानना था! और वैसे भी, उस किताब का मुझे कोई लाभ नहीं था। 

दे दी किताब मैंने उनको वापिस! उन्होंने पृष्ठ पलटे! 

और ढूंढने लगे चिन्ह! कुछ देर बाद, "ये देखो!" बोले वो! मैंने देखा! ह-ब-ह वैसा ही चिन्ह था ये! "इसका क्या अर्थ हुआ?" पूछा मैंने, "बताता हूँ" बोले वो, 

और रख ली किताब बैग में! "ये जो बड़ा चबूतरा है, ये......." बोले वो, 

आँखें घुमाते हुए! "हाँ? ये?" पूछा मैंने, "ये शम्पायन का है!" बोले वो! 

क्या ? शम्पायन का? उसी शम्पायन का? 

क्या सुन लिया मैंने? "और ये दोनों?" पूछा मैंने, "ये दोनों, दायें रिपुदा का! और ये, बाएं, अनवि का!" बोले वो! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरा तो सर फटने को हुआ! 

क्या आ गए हम उधर? लेकिन गुफा में? "सुनो! अब बहुत करीब हैं!" बोले वो! जोश भर गया था उनमे अब! "आओ मेरे साथ" बोले बाबा! 

और अब, हम उनके पीछे पीछे चले! और सामने चलते हुए, आ गए एक खुले से अहाते में! "वो देख रहे हो?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "क्या है वो?" पूछा उन्होंने, "क्या?" कहा मैंने, "मार्ग! सफलता का मार्ग!" बोले वो, सफलता? कैसी सफलता? "नहीं समझा!" कहा मैंने! "समझाता हूँ!" कहा उन्होंने! 

और फिर उन्होंने, एक और किताब निकाली बैग से! एक डायरी! 

और दिखाई मुझे! मैंने देखा उसे, खोला, ये लिखावट, पहली डायरी वाली लिखावट से, मेल खाती थी! दोनों ही, एक ही व्यक्ति ने लिखी थीं! "क्या यही इसमें?" पूछा मैंने, "मैं दिखाता हूँ!" बोले वो! और डायरी खोलने लगे! और मैं, खड़ा खड़ा देखता रहा उन्हें! वो पृष्ठ पलटते जा रहे थे और मैं उनको देखे जा रहा था! बाबा का आरम्भ से ही एक छिपा हुआ चेहरा भी था एयर एक मंतव्य भी! मुझे तो भान ही नहीं होने दिया था! मैं तो बाबा-बाबा कहे कहे मरे जा रहा था, और बाबा ने सही काम पैंतीस कर दिया था! मैं और शर्मा जी एक दूसरे को देख रहे 

थे! वे भी जानते थे और मैं भी, कि अब कुछ न कुछ गड़बड़ होने को है! बाबा के पास तमंचा था! ये जगह भी ऐसी थी, कि किसी को मार के फेंक दो, तो कभी पता ही न चले उसका! ढूंढते रहो! और बाद में, कंकाल ज़मीन में गाड़ दिया जाए, वहाँ की तरह। बंधवा लो रीढ़ की हड्डी में काला धागा। 

और हो जाओ पैबंद इस जगह से! खैर, ये तो दूर की सोची थी मैंने! ऐसा होना सौ में से दस फीसदी ही था! लेकिन एक बात और, जो अपना मंसूबा छिपा कर चलते हैं, उनको एक सनक सी चढ़ी रहती ही, और वो उस सनक को पूरा करने के लिए, कहीं तक भी जा सकते हैं! और बाबा को अभी 

सनक चढ़ी हुई थी! मुझे उनके हर हाव-भाव पर नज़र रखनी थी! "ये देखो! देखो ये!" डायरी पर हाथ मरते हुए कहा उन्होंने! "क्या है?" पूछा मैंने, "यहाँ से,वोस्थान पीछे है,जहां, वे तीन हैं!" बोले वो! इसका मतलब? इसका मतलब पाण्डु-लिपि जो मुझे दिखाई गयी थी, वो या तो पूर्ण नहीं थी, या फिर, उसका कोई दूसरा भाग भी था! वो नहीं दिखाया गया था मुझे! मुझे अँधेरे में रखा गया था! जानबूझकर! बाबा शिवराम ने! तो क्या बाबा बिंदा? नहीं नहीं! बाबा बिंदा ऐसे नहीं हैं! वो तो, बाबा शिवराम से सब बुलवा ही रहे थे! "बाबा?" कहा मैंने, "बोलो?" बोले वो! "आपको स्थान देखना था न?" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "जाओ देख आओ!" कहा मैंने! "आप नहीं चलोगे?" पूछा उन्होंने, "आपने देखा, मैंने देखा!" कहा मैंने


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अरे नहीं! ये अवसर पुनः नहीं आएगा!" बोले वो, "जानता हूँ, और आये भी नहीं!" कहा मैंने! "अरे चलो!" बोले वो! 

"आप देख आओ" कहा मैंने, "क्यों?" बोले वो, "आपने बहुत कुछ छिपाया मुझसे!" कहा मैंने, "क्या छिपाया?" पूछा उन्होंने, "वो, दूसरी पाण्डु-लिपि?" कहा मैंने! "हाँ, छिपाया" बोले वो, "क्यों?" पूछा मैंने, अब बाबा बगलें झांकें। "क्योंकि आप को मात्र ज़रिया चाहिए था यहां तक आने का! बस! और वो मिल गया, है न?" कहा मैंने! "मान लो, यही है तो, क्या फ़र्क पड़ता है?" बोले वो! "आपको न पड़े,मुझे पड़ता है!" कहा मैंने! "अब फ़ालतू की बातें छोडो! कल का सूरज कैसा होगा, ये सोचो!" बोले वो! "अब कहाँ गयी बाबा अलखनाथ की वो अंतिम इच्छा?" कहा मैंने, "वो यही तो थी!" बौले हंसके! "नहीं! अब आपका है लालच!" मैंने कहा, "तो कौन लालची नहीं है? तुम नहीं? ये नहीं? या वो दोनों नहीं?" पूछा उन्होंने! 'इस समय सबसे बड़े लालची आप हो, आप!" कहा मैंने! 'अब छोडो न? बालकों की तरह से बहस न करो!" बोले वो! "तो जाओ? जाओ, स्थान पीछे ही है!" कहा मैंने! "साथ तो तुम्हे भी चलना होगा!" बोले वो! "तमंचे के ज़ोर पर?" कहा मैंने! हंसने लगे! 

"अब इतना भी बुरा नहीं मैं!" बोले वो! 'तो जाओ, और अगर ये दोनों जाना चाहें, तो जाएँ आपके साथ?" बोला मैं! "क्यों रे? हीरा? नकुल? चलोगे?" पूछा बाबाने! कुछ न बोले वो! डरते से खड़े ही रहे! "हीरा? नकुल? बताओ?" कहा मैंने, अब वे दोनों, देखें एक दूसरे को! आगे बढ़े! और हो गए हमारे पीछे! 

मैं हंसा अब! नकुल के कंधे को थपथपाया! अब बाबा गुस्से में! "हरामजादो? इसीलिए लाया था क्या? वो सारा सोना, सालो, नहीं लेना? इसका कहना मानोगे तुम?" बोले बाबा! आप से तुम, और तुम से इसका अब! अब हुआ मंसूबा साफ़! आ गए खुलकर सामने बाबा! बाबा शिवराम! "जाओ बाबा! हम यहीं रहेंगे!" कहा मैंने, "नहीं, साथ चलो मेरे!" बोले वो, "और अगर नहीं जाएँ तो?" बोला मैं। "कैसे नहीं जाओगे?" बोले वो, "कैसे ले जाओगे?" कहा मैंने, मुस्कुराये बाबा! अपने बैग पर हाथ थपथपाया! समझ गया! मैं समझ गया अब! वो तमंचा! वाह रे बाबा वाह! तभी मुझे एक युक्ति सूझी! मन ही मन! "ठीक है! हम चलते हैं!" कहा मैंने, 

अब जैसे कोई द्वन्द जीते हों, ऐसा चौड़ा सीना! ऐसी मुस्कान! "आओ फिर!" बोले वो! 

और चले मेरे कंधे को थपथपा कर! शर्मा जी मुझे देखें, और मैं उन्हें! "नकुल, हीरा, चलो!" कहा मैंने! 

और आँखों ही आँखों में समझा दिया उनको! ऐसी नौबत ही नहीं आनी चाहिए कोई! कि किसी को चोट पहुंचे! 

अब बाबा चले लम्बे लम्बे क़दम भर कर! 

और एक रास्ता सा आया! हम उसमे से झुक कर चले। मित्रगण! उस गुफा के बीचोंबीच वो स्थान था! काफी चौड़ा! चांदनी खिली हई थी! फूल खिले हए थे रात्रिकाल के! बाबा रुके वहीं! "बस!" बोले वो! "ये है वो जगह जहां शम्पायन ने, उस उलयौरमा को प्रकट किया था!"


   
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श्रीशः उपदंडक
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बोले बाबा! जान गए थे हम! कोई नयी बात नहीं! "और आज! आज फिर प्रकट होंगे वो तीनों!" बोले वो! बस! यही तो था मंतव्य! मैं हंस पड़ा! "जब शम्पायन नहीं रहे, तो बाबा शिवराम कौन हैं!" सोचा मैंने! मन ही मन! मित्रगण! 

वो तो मनुष्य की देह नश्वर है! यदि न होती, न होती तो, तो वो उस परम-सत्ता को भी चुनौती दे जाता! उस परम-सत्ता को, जिसने सृजित किया मनुष्य को! ये है मनुष्य का वास्तविक रूप! लालच! सौंदर्य का! काम का! 

धन का! इसीलिए! 

इसीलिए उस सृजनकर्ता ने, नश्वर देह दी है मनुष्य को! इसी कारण से वो, इस मृत्युलोक में रहता है। ये है वास्तविकता, उस परम-सत्ता की! मात्र यही कारण है! कदाचित, जल डुबोना, गीला करना छोड़ दे! अग्नि, शीतल हो जाए! सूर्य, शीतलता प्रदान करें! परन्तु। ये मनुष्य! मनुष्य कभी मूल सत्य नहीं जानेगा! अरे! जो अपने माता-पिता का नहीं हुआ, वो किसका होगा! कौन सा ईश्वर? कौन सा ईष्ट? किसकी शरण में जाएगा वो! 

लाख भस्म लपेट! लाख तीर्थ कर! लाख भजन कर! इस जगत के ईश्वर माता-पिता को कष्ट दिया, तो जून खराब कर ली उसने! कपाट, बंद हो गए उस परम-धाम के! उसी क्षण! 

और अब कुछ ऐसा ही हो रहा था बाबा के साथ! मति मारी गयी थी उनकी! विवेक को काठ मार गया था! अपनी सनक के कारण न मात्र अपना ही, हमारे प्राण भी संकट में डालने वाले थे अब वो बाबा! वो पाण्डु-लिपि स्वयं शम्पायन ने नहीं लिखी थी, उसको लिखने वाला कोई और था, ये तो सत्य था कि अब तक जो भी बताया गया था उसमे, वो सही था, हमने बखूबी जांच लिया था, और हम उसी के कारण यहां तक आ पहुंचे थे! लेकिन जो विधि उसमे लिखी थी, वो सटीक यही या नहीं, इसका कोई प्रमाण नहीं था! यहां तक कि स्वयं लेखक ने ही प्रकट किया हो उन्हें, ये भी नहीं लिखा था! अब यदि चूक हुई, लेशमात्र भी, तो खामियाजा सभी को भुगतना था! प्राण कब चले 

जाएँ, कुछ पता नहीं था! ये बात, बाबा नहीं समझ रहे थे! खुद तो डूबते ही, हमें भी ले डूबते! तभी बाबा न यापन बैग खोला, और उसमें से एक पोटली निकाली! पोटली खोली, और जालस की एक 

झाडू सी निकाल ली, झाड़ा मारने वाली झाडू से मिलती-जुलती! और फिर एक शीशी निकाली, उसी में तलुमन का तेल था! यही चाहिए था उनको प्रकट करने के लिए! और एक दीया, छोटा सा, जिसकी बाती मदार के फल फल के रेशों से बनी थी! बाबा पूरी तैयारी करके आये थे। काश मुझे 

पता होता पहले। "हीरा?" बोले बाबा! हीरा मुझे देखे! "सुन हीरा?" बोले बाबा! "हाँ?" बोला वो, "इधर आ ज़रा" बोले वो, हीरा ने मुझे देखा, मैंने आँखों से स्वीकृति दी, वो गया वहाँ! "ये दीया जला ज़रा!" बोले बाबा! हीरा ने दीया लिया, बाती लगाई उसमे, बाबा ने शीशी से तेल डाला उसमे, और फिर हीरा ने जला दिया वो दीया! दिया जला, तो प्रकाश हुआ, अच्छा


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रकाश! मदार के रेशे, चटर-चटर की आवाज़ कर, जलने लगे थे। तभी मेरी टोर्च ने फिर से अंगड़ाई ली! 

और बाबा ने वो दीया, वहीं बने एक चबूतरे पर रख दिया! अब, उस झाडू पर, जालस से बनी झाडू पर, उस तलुमन का तेल डाला, छींटे दिए उसको! 

और फिर, हर तरफ उसको बिखेरा उस झाड़ से! छींटे हमारे ऊपर भी पड़े! और फिर निकाली वो डायरी! पृष्ठ पलटे! 

और हमें देखा! "सुनो?" बोले वो, मुझसे, "बोलिए?" कहा मैंने, "आज एक नया इतिहास बनेगा! तुम सभी इसके गवाह हो!"बोले वो! इतिहास! कहीं बाबा ही न बन जाएँ इतिहास! "आज की रात! यादगार बन जायेगी सभी के लिए!" बोले वो! लालची! झूठे! 

और फिर पढ़ने शुरू किये, अजीब से मंत्र! मन्त्रों में, किम और त्र अक्षर बहुत बार उच्चारित हो रहे थे! 

बाबा बार बार, झाडू से छींटे देते जाते, और मन्त्र पढ़ते जाते! 

आधा घंटा बीत गया! बाबा पृष्ठ पलटते जाते, और मंत्र पढ़े जाते! 

और तभी, अचानक से उस खाली स्थान पर, जल के छींटे से गिरने लगे। ये बारिश नहीं थी। बारिश की बूंदें शीतलता लिए हए होती हैं! ये तो, गरम र्थी! जैसे औटा हुआ पानी, गुनगुना सा! हां, एक बात और! उन बूंदों में, सुगंध थी! सुगंध, जैसे चम्पा के फूलों में से आती है! मंद मंद! भीनी भीनी! बाबा के चेहरे पर प्रसन्नता था! होती भी क्यों न! आहवान कर रहे थे वो! 

और हम! हम खड़े थे, देख रहे थे सारा क्रिया-कलाप! इसके बाद कोई पंद्रह मिनट बीते होंगे कि, वे जल की बूंदें, रंग बदल गयीं अपना! पीला हो गया उनकारंग! वे गिर रही थीं! छोटी छोटी किनकी बारिश की तरह! 

और तभी! तभी तेज वायु चली! वे जड़ें, वे लताएँ, सब फड़फड़ा गयीं! अब लगा भय! आह्वान मध्य में पहुँच चुका था! शम्पायन के बाद, आज बाबा ने ही आह्वान किया था उन तीनों का! रात के साढ़े बारह से अधिक का समय था उस समय! प्राण, संकट में पड़े थे! सभी के! बाबा कोई अछूते नहीं थे। आधा घंटा और बीता! और वो बरसात सी, वो बूंदें, अब रुक गयी थीं! अब वायु ही चल रही थी वहां! साँसें हमारी थमी हुई थीं! थूक निगलना मुश्किल हए जा रहा था! 

हलक़ सूख चला था हम सभी का! 

लेकिन बाबा! बाबा तो बढ़े जा रहे थे आगे आगे। उनके उच्चारण से स्पष्ट था कि उन्होंने, रियाज़ किया था उन मंत्रों का! तैयार बहुत पहले ही आरम्भ हो चुकी होगी उनकी! नया व्यक्ति, ऐसे मंत्र नहीं जप सकता! भले ही कितना निपुण हो वो! ये एक विभिन्न सत्ता के मंत्र थे! शब्द क्लिष्ट और ऐसे थे, जिनका अर्थ समझ ही न आये! 

और अचानक से वायु-प्रवाह थमा! अब कुछ होने को था! हाँ! कुछ होने को था! पाँव के तलवों में पसीना पनाह लेने लगा था! कनपटी गरम और दर्द करने लगी थी! आँखें ऐसी चौडी थीं सभी कि, कि जैसे, गले में फांसी का फन्दा इलने जा रहा हो! सीने में दिल, धक


   
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श्रीशः उपदंडक
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धक कर, बवाल मचाये हए था! हाथ ठंडे हो चले थे हमारे! जाँघों में जैसे, कीड़े रेंग रहे हों, ऐसा लग रहा था! मित्रगण! तभी आकाश में प्रकाश कौंधा! 

चंदीला प्रकाश! चांदी जैसा प्रकाश! जैसे बिजली कड़कती है, ऐसा प्रकाश! प्रकाश की लकीरें छा गयीं हर तरफ! 

आँखें चुंधिया गयीं हमारी! अपने हाथ, कोहनी, सबका सहारा लेना पड़ा उन्हें ढकने को! वो प्रकाश की लकीरें, गोल गोल घूम रही र्थी! जैसे कोई, 

आकाश-गंगा नीचे आ गयी हो! नज़ारा तो बहुत सुंदर था वो! इसमें कोई शक नहीं। लेकिन अंजाम क्या होगा! इस से भय था! उलुयौरमा! ब्राजिरि! 

और हिना! ये तो वहीं वास करते थे! यही तो माँगा था शम्पायन ने। लेकिन! अफ़सोस! शम्पायन को ये नहीं पता था कि, वक़्त की गर्द से जमी रेत में से, उसका ही कोई कण बग़ावत करेगा उसी से! शम्पायन हो ज़रा सा भी, कतरा भी, एहसाह हो जाता, तो कभी न मांगते वो ऐसा होना! बहुत वक़्त बीत गया था! कौन शम्पायन! कौन रिपुदा! 

और कौन वो अनवि! भूले-बिसरे लोग! बाबा जैसे लोगों के लिए! कौन जानता उन्हें, अगर वो, पाण्डु-लिपियाँ ही न होती! वो लकीरें, कभी-कभार, ज़मीन को चूम लेती थीं! और कभी कभार, वहाँ के पेड़ों और, दीवार से निकली जड़ों को, चन्दीले प्रकाश में नहला देती थीं! 

और फिर! 

फिर उस चन्दीले प्रकाश में से, एक स्वर्णरूपी प्रकाश सा फूटा! 

आँखें देख न सकी। नीचे कर लिए सर हमने तभी के तभी! मात्र भूमि पर, वो चंदीला प्रकाश और वी स्वर्ण जैसा प्रकाश, लड़ रहे थे एक दूसरे से! प्रकाश ऐसा तेज था कि, 

भूमि में मिट्टी के कण, जो अभक लिए हए थे, चमक उठते थे! अद्वितीय! अभक के कण चमक उठते थे मोतियों की तरह! लगता था जैसे उस चमकते हए प्रकाश को आत्मसात कर लिया हो उन्होंने! प्रकाश बहुत तेज कौंध रहा था! हमसे आँखें नहीं खोली जा रही थीं उस समय! फिर भी, मैंने अपनी आँखों के सामने अपने हाथों की ओट लेकर, देखा ऊपर! चांदी जैसा प्रकाश और स्वर्ण जैसा प्रकाश, गुथा हुआ था आपस में! जैसे, दो डोरे आपस में गुथे हो! बाबा और तीव्र मंत्रोच्चार किये जा रहे थे! जितना बन पड़ रहा था उनसे! प्रकाश गोल गोल सा घूम रहा था! ऐसा होता रहा करीब पंद्रह मिनट तक! और तभ प्रकाश लोप हुआ! जैसे ही लोप हुआ, हम जैसे अंधे हो गए! कुछ दिखाई ही न दे। ये प्रकाश की चौंध से ही हआ था। जैसे सूर्य को देख लेने के बाद, कुछ क्षों के लिए, कुछ दिखाई नहीं देता, कुछ ऐसा ही! बाबा ने फिर से झाड़ा किया! तेल लिया था और छींटे दे दी थी उसकी! कुछ क्षणों के बाद, आँखों में ज्योति आई! और अब दिखने 

लगा! मित्रगण! अब फूलों की पंखुड़ियाँ गिरने लगीं नीचे! गुलाबी गुलाबी पंखुड़ियाँ! वे फूल कौन से थे, नहीं पता मुझे! कभी देखे ही नहीं थे ऐसे फूल! सुगंध ऐसी, कि मदहोश हो जाए इंसान! आँखें भारी हो जाएँ उस मदहोशी से! अजीब सी शान्ति थी वहां! और तभी हमने क्या देखा! देखा कि वहाँ उस गुफा के आसपास, एक तेज पीला सा प्रकाश, जैसा आंच का होता


   
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है, फ़ैल गया था! चारों तरफ! हर तरफ! बस, उस गुफा के उस स्थान में नहीं, जहां ये आह्वान चल रहा था! हरा-पीला सा प्रकाश! सारा स्थान जैसे नह गया था उस प्रकाश से! और तभी घंटा बजा! एक बार! दो बार! तीन बार! बजता रहा! कुल नौ बार! हालत खराब हो गयी हमारी तो वो आवाज़ सुनकर! लेकिन बाबा! बाबा वैसे ही 

थे, एकदम सही! उन्हें कोई असर नहीं पड़ा था! वो तो बस, मंत्रोच्चार किये जा रहे थे! 

और अचानक ही! 

अचानक ही वो प्रकाश लोप हो गया! 

और फिर से, एक बार घंटा बजा! घंटा बजता था, ठीक था। लेकिन उसके बाद उसकी गूंज अंदर तक कान में, जैसे कील घुसेड़ देती थी! खोपड़ी में दर्द हो जाता था बीचोंबीच! इसीलिए कान बंद करने पड़ते थे हमें! हाँ, तो प्रकाश लोप हो गया था! अब बस, वो दीया, जो इतना तेज वायु-प्रवाह भी झेल गया था, चाँद की चादनी, और हमारी दो टोर्च, इन्ही का प्रकाश था अब! मैं तब थोड़ा पीछे हआ! बाबा ने कनखियों से देखा मझे! फिर सभी पीछे हुए! बाबा देखते रहे हमें ऐसा करते हए! और तभी बाबा ने अंतिम मंत्र पढ़ा! अंतिम! मैं जान गया था! वो शब्द! जान गया था मैं! बाबा ने अंतिम मन्त्र अब बार बार पढ़ना आरम्भ किया! इस पंक्ति में,उलो, त्रिज और हिने नाम का उल्लेख था! 

और जैसे ही अंतिम मंत्र अंतिम बार पढ़ा या, घोर गर्जना सी हुई! हमने चारों ओर देखा! चारों ओर! हिल रहा था सबकुछ! सबकुछ! यहां तक कि हम भी! गुफा की मिट्टी झड़ने लगी थी! कई जड़ें खुल गयीं थीं! रस्सियों के समान, लटक रही थीं! "या क्या हो रहा है?" नकुल चिल्लाया! डर गया था वो ये सब देखकर! "नकुल, घबरा मत!" कहा मैंने, नकुल आ गया मेरे आपस, हाथ पकड़ लिया मेरा! "ज़मीन फटने वाली है!" बोला डर के मारे नकुल! 

मैंने हाथ दबाया उसका, और समझाया भी! कड़ाक! कड़ाक! पेड़ की शाखाएं टूटने लगीं। हम पीछे हो गए थोड़ा! 

और! अचानक से बंद सबकुछ! अब आई राहत की सांस! लेकिन ये हुआ क्या था? किसी की आमद हुई है? 

अचानक से फिर से प्रकाश कौंधा! वही हरा-पीला! 

और, दूर कहीं मृदंग से बजते सुनाई दिए! क्या ये भम था? "कुछ सुनाई दे रहा है?" पूछा मैंने शर्मा जी से, "हाँ, जैसे मृदंग बज रहे हों" बोले वो, इसका अर्थ ये, कि ये भम नहीं था मेरा! सच में ही मृदंग से बज रहे थे कहीं! तभी अचानक! चिंगारी सी फूटी आकाश में! 

कोई सौ फ़ीट ऊपर! नीली सी चिंगारी! नहला दिया सभी को! बाबा, आँखें फाड़े, देख रहे थे सबकुछ! हम भी देख रहे थे! फिर से चिंगारी कौंधी! 

और एक लाल रंग का सा प्रकाश फूट पड़ा! सुर्ख लाल रंग! गाढ़ा सा लाल रंग! जैसे लाल मखमल के ठान गिर रहे हो नीचे, आकाश से, खुल खुल कर! और तभी! 

तभी स्त्रियों की आवाज़ आई! हंसने की! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे हंस रही थीं। हंसी-ठिठोली जैसी आवाजें थीं। 

वो हैं कहाँ? बाहर? या यहीं? अदृश्य रूप में? कहाँ हैं? अब डर लगने लगा था! सच में! पता नहीं, हमारे तंत्र-मंत्र कार्य करें या नहीं? पता नहीं? अब क्या होने वाला है? आशंका में प्राण सूखे तब! मित्रगण! 

अब जो देखा! वो किसी का भी हदय रोकने के लिए बहुत था! रुक जाता हृदय! टूट जाती साँसें! अकड़ जाती देह! 

और निकल जाते प्राण! वही बारह स्त्रियां! वहीं, जो हमें नज़र आयीं थीं! अब सजी-धजी थीं! कोई वस्त्र नहीं था देह पर! देह,स्वर्ण समान चमक रही थीं! वे कहाँ थी? ऊपर! आकाश में! खड़ी थीं! थालियां लिए! 

उनमे दीप लिए! वे ही हंस रही थी! वे हंस रही थीं और हम सूखे जा रहे थे। यही थी किम्पुरुषी-माया! वे स्त्रियां, अब घूमने लगी थीं! एक दूसरे की पीछे! अप्सरा समान थीं सारी! कैसे अनुपम आभूषण थे उनके! कैसा अद्वित्य रूप था उनका! कैसी पुष्ट और स्निग्ध देह थी उनकी! कैसे एक एक अंग, सुडौल थे! कल्पना से भी परे! और अचानक ही, वे लोप हो गयीं! अब उड़े हमारे होश! मैं देखू बाबा को! और बाबा देखें मुझे! "बाबा? यही लिखा था उसमे?" मैंने चिल्ला के पूछा! "नहीं, ये नहीं लिखा था!" बोले घबरा के! अब घबराहट स्पष्ट थी! "बाबा, भाग चलो!" चिल्लाया मैं! "नहीं!" बोले वो! अभी भी नहीं मान रहे थे वो! कैसा जुनून चढ़ा था! 

और तभी! तभी वो लाल प्रकाश लोप हुआ! 

और तेज, बहुत तेज, पीला प्रकाश कौंधा! प्रकाश की कौंध में भी आवाज़ होती है, ये पहली बार जाना मैंने! जैसे किसी विद्युतीय हाई-टैंशन-वायर से आती है, उसके नीचे खड़े होऔ तो! ऐसी आवाज़! 

आवाज़ इतनी साफ़ थी कि जैसे मधुमक्खियां भिनभिना रही हों वहां! ऐसा प्रकाश था! प्रकाश के मध्य में, जैसे प्रकाश की श्लेष्मा कैद थी! श्लेष्मा! हाँ! यही शब्द उपयुक्त होगा! ऐसा गाढ़ा था वो प्रकाश! और फिर अचानक ही, प्रकाश लोप हो गया! ये क्या हो रहा था? लगता था कि अब कोई 

आया और अब कोई आया! लेकिन आता कोई नहीं था! कहीं कोई चूक तो नहीं की थी बाबा ने? कोई शब्द गलत तो नहीं पढ़ लिया? कुछ कमी तो नहीं रह गयी? कहीं कुपित ही न हो जाएँ वो? तब क्या होगा? भस्म भी नहीं मिलेगी। ऐसे ऐसे प्रश्न सर में उछलकूद मचा रहे थे! अब शान्ति पसरी थी वहां! क्षणिक थी या पूर्ण, पता ही नहीं था! पल पल ऐसे कट रहा था जैसे, हमें किसी कट्टीघर के सामने एक क़तार में खड़ा किया गया हो! ऐसी घबराहट थी! ऐसी बेचैनी! बाबा ने सारा खेल बिगाड़ दिया था! नहीं तो इस स्थान को तो देख ही लिया था, 

अब आगे क्या इच्छा शेष थी? कुछ नहीं! लेकिन बाबा खुद तो डूबने वाले थे ही, हमें भी डुबोने का पक्का इंतज़ाम कर रखा था! भागते भी तो कहाँ? रास्ता ऐसा भयानक था, कि हम उसी स्थान की हद में थे, कुछ होता भी, तो पता भी न चलता हमें तो! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और आत्मा आकाश-गमन कर जाती! सहसा ही, भूमि में फिर से कम्पन्न हुई! जैसे भूकम्प आया हो ऐसी कम्पन्न! 

फिर से मिट्टी झड़ने लगी उस गुफा की! 

और फिर से, बंद हुई कम्पन्न! ये हो क्या रहा था? कुछ कुछ अंतराल पर, ये क्या होने लगता था? मुझे अब संशय हुआ! मैं आगे बढ़ा, और चला बाबा के पास! बाबा घबराये और पलट कर अपना बैग पकड़ लिया! "नहीं, मैं कुछ नहीं कहूँगा, मुझे बस वो डायरी दिखाओ ज़रा" कहा मैंने,, बाबा को जैसे यक़ीन नहीं हुआ, बैग खोलने लगे वो अपना! "मुझे डायरी दिखाओ बस" कहा मैंने, अब आई समझ में उन्हें, बैग रखा, और डायरी मुझे पकड़ा दी! अब डायरी खोली मैंने, सबकुछ लिखा था उसमे! 

और हाँ, कुछ चित्र भी बने थे! "आहवान वाले मंत्र कौन से हैं?" पूछा मैंने, "पीछे लिखे हैं" बोले वो, मैंने पृष्ठ पलटे और आया आखिर में, हिंदी में मंत्र लिखे थे। मंत्रों में कोई मिलान न था! अजीब अजीब से मंत्र थे वो! अचानक से ज़मीन में भम्म की सी आवाज़ आई! 

और मैं, बाबा, और नकुल, तीनों ही गिर पड़े! शर्मा जी ने और हीरा ने, बेल पकड़ ली थी एक, सो बच गए थे! मैं उठा, बाबा उठे। टोर्च भी गिर गयी थी, उसका कांच टूट गया था, लेकिन रौशनी थी अभी भी अच्छी, मैंने गिरी हुई डायरी उठायी, और ढूंढने लगा वही पृष्ठ! मित्रगण! तभी, वहाँ एक स्थान पर, एक कोने में, 

आग की लपटें उठने लगी! ये ज़मीन में सी ही निकली थी आग! अब तो लगता था कीजैसे, वो जगह नीचे धंसने वाली है! 

किसी भी क्षण! 

और उसके बाद जो हुआ! वो मैं आज तक नहीं भूला! ऊपर आकाश में तीन प्रकाश पिंड प्रकट हुए। तीनों ही अलग अलग रंग के! एक पीला, जो मध्य में था, एक लाल, जो बाएं था और एक नीला, जो दायें था! अब तो, सभी की नज़रें जा टिकीं उन पिंडों पर! वे स्थिर थे! और, जैसे किसी ने जल बिखेरा हो ऊपर से एक धार बनाकर, जैसे कि झरना, वे प्रकाश के पिंड, नीचे, ज़मीन से कोई दो फ़ीट ऊपर तक खिंच 

आये! कम से कम साठ फ़ीट रहा होगा वो प्रकाश! हाँ! आँखें नहीं चुंधिया रही थीं! लग रहा था कि जैसे हम कोई प्रकाश-क्रीड़ा देख रहे हो! समय रुक गया! समय-चक्र का पहिया, थम गया था! वायु रुक गयी! बस हमारी धड़कनें ही चलती रहीं! 

और तभी, एक झटके से मेरे हाथ से वो डायरी छीन ली बाबा नै! और पृष्ठ खोल जपने लगे वही मंत्र! मैं चला वहां से! पीछे आया,आया शर्मा जी तक! वे, मंत्रमुग्ध से, वही नज़ारा देख रहे थे! वे क्या, सभी के सभी! बाबा ने कुछ नए से मंत्र पढ़े थे इस बार! बाबा तो घाघ निकले! 

और घाघ के चक्कर में हम आ गए! अचानक ही, वो प्रकाश के पिंड, घूमने लगे! एक दूसरे को, स्पर्श न करते हुए! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वो बीच वाला, पीला पिंड, जो अब भूमि तक आया था, कई जगह से मुड़-तुड गया था! जैसे, अक्सर धूपबत्ती या अगरबत्ती का ऊपर उठता हुआ धुआं, अक्सर किया करता है! कई कई बार, एक ही ले में, नृत्य भी किया करता है! 

ऐसे ही मुड़-तुड गया था वो प्रकाश! 

और!! और फिर। एक महाकृति सृजित होनी आरम्भ हुई। नीले नीले रंग के वे प्रकाश कण उस आकृति में समाते जा रहे थे! 

और हम,आँखें फाड़े, कलेजा थामे, जमीन थामे, सब देखे जा रहे थे! ये अद्भुत था! कभी नहीं देखा था! शेष दो पिंड भी, घूम रहे थे! 

और अब तो, उस महाकृति के इर्द-गिर्द घूमने लगे थे! ये कैसा खेल था! कैसा नज़ारा था! कैसा अद्भुत! इस लोक से परे के लोक से! मुझे अचानक से ही, मन ही मन शम्पायन का स्मरण हो आया! क्या यही सब हुआ था? उनके सामने भी? ऐसा ही? ऐसा ही सबकुछ? क्या क्या किया होगा शम्पायन ने। मन ही मन, प्रणाम भी कर लिया उन्हें! 

वो महाकृति अब रूप लेने लगी थी! रूप, जैसे कोई महाभट्ट हो! 

कोई अलौकिक सत्ता! नज़रें हटाये नहीं हट रही थीं। बुद्धि कुन्द पड़ गयी थी! हम तो बस, उस क्षण, उस दृश्य के कैदे बन कर रह गए थे! पीला, स्वर्ण सारंग फूट रहा था उस महाकृति में से! नीले, लाल और सफ़ेद से प्रकाश-कण उस महाकृति के आसपास, जैसे नृत्य कर रहे थे! नज़रें हटाये नहीं हट रही थीं! हम गर्दन ऊपर उठाये, बस उस प्रकाश का अद्भुत खेल देखे जा रहे थे! सबकुछ बेहद धीमा सा था! बेहद धीमा! जैसे अब स्थिर हो गयी हो वो महाकृति, ऐसा प्रतीत होता था! 

और तभी, अचानक से, वो दायें और बाएं वाले प्रकाश पिंड भी अब, तड़ने-मड़ने लगे थे। जैसे उनमे भी अब सृजन चल रहा हो! प्रकाश के कण, ऐसे गुथे हुए थे आपस में, जैसे किसी थाल के अंदर, किसी आकाश-गंगा को रख दिया हो! 

जगमग जगमग! अद्भुत और अलौकिक! आकृतियाँ उभरने लगीं! ये, ये दो तो स्त्रियों की आकृतियाँ थीं! 

ओह! समझा अब! ये, बाजिरी और हित्रा होंगी! अवश्य ही! 

और वो, वो बीच में, वो उलुयौरमा! हाँ! यही हैं वो! यही! 

वे तीन! अद्भुत वे तीन! दिल धड़क उठा! मेरा क्या! सभी का! रगों में खून उबाल खा गया! मांसपेशियों में, जैसे संजीवनी दौड़ पड़ी! क्या ऐसे होते हैं किम्पुरुष? क्या यही हैं? 

और अचानक से ही, वो महाकृति पूर्ण हई! ओह! क्या बताऊँ! कैसे बताऊँ! अभी सोच ही रहा था, कि वे दोनों भी पूर्ण हुईं। हो गए थे वे तीनों प्रकट! उलुयौरमा! सौंदर्य के किम्पुरुष देवता! सच में! सच में! कैसा अनुपम सौंदर्य! कैसा अद्वितीय रूप! मित्रगण! उलुयौरमा! कम से काम साठ फीट की ऊंचाई रही होगी! मस्तक पर, स्वर्ण का त्रिकोणीय आभूषण धारण किये हुए थे! लललत तो दिखा ही नहीं रहा था! सर के पीछेसे, आभूषण, जंजीरों के रूप में, नीचे पांवों तक आये हुए थे! रत्न जड़े थे उन आभूषणों में! जैसे महरून मणियाँ! कंधे, ढके थे


   
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श्रीशः उपदंडक
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आभूषणों से! भुजाएं, आभूषण ही आभूषण! कमर में आभूषण, नीचे तक आभूषण! घुटनों में आभूषण! पांवों में आभूषण! और रूप! रूप साक्षात देहरूपी कामदेव का! केश सघन, काले, चेहरा चौड़ा, वर्गाकार! भुजाएं बलशाली! वक्ष और कंधे चौड़े! जिन्नात पर भी भारी! उलुयौरमा, स्थिर थे! स्थिर खड़े हुए! प्रकाश-पुंज समेटे हुए थी उनकी देह! 

कमर से नीचे, लाल रंग का सा दिव्य वस्त्र था! चमकदार! चमक रहा था! दैदीप्यमान! मैंने लौहिष को देखा था! 

ये उलयौरमा भी उसी समान थे। ठीक वैसे ही! वैसी ही देह! वैसा ही रूप! 

और!! दायें त्राजिरी! क्या लिखू! रम्भा, मेनका, तिलोत्तमा, उर्वशी, मालिनी, छाया, अम्बिका, अनावद्या, अरुणा, असिता, मिश्रस्थला, मृगुक्षि, पुष्पदेहा, सौरभेदी, वर्गा आदि आदि अप्सराएं भी नेत्र झुका लें उसका सौंदर्य देख कर तो! कम से कम मुझे तो यही लगा! आभूषणों से लदी थी त्राजिरी! कोई ऐसा अंग नहीं था, जहाँ आभूषण न धारण किये हो! 

और जो अंग ढके नहीं थे आभूषणों से, वे श्वेत रंग के अंगार से दहक रहे थे। ऐसा रूप था उसका! केश बंधे हुए थे! उनमे भी आभूषण टंके हए थे! कैसी पुष्ट देह थी उसकी! सुडौल और पलाश के पत्ते के समान स्निग्ध! उसके उन्नत स्तन इतने सुंदर, कि कोई चित्रकार, कोई मूर्तिकार उसका रूप वैसा नहीं रच सकता! असम्भव! हाँ असम्भव! उसकी कमर, उसका कटाव, उसका गठाव, सोच से परे। 

मैंने तो कल्पना भी नहीं की थी किसी 'स्त्री' के ऐसी स्वरुप की! कर भी नहीं सकता था! अब समझा। क्यों किरात स्त्रियां ऐसी मादक और सुंदर क्यों हुआ करती हैं! अब बाएं वो हिना! हित्रा! स्वयं रति-रूप! 

आयु में, षोडशी समान! श्वेत मुख! पीला स्वर्ण! स्वर्ण के आभूषण! जैसे किसी सफ़ेद कागज़ पर, मोरपंख रखा हो! ऐसा रूप! अंग, क्या बताऊँ! देह, क्या लिखू! सुंदर, शब्द ही नहीं हैं! उपमा? कहाँ से लाऊँ? वर्णन? कर ही नहीं सकता! हित्रा के सर पर बहुत आभूषण थे! बाजिरी से अधिक! बाजिरी के केश दिख रहे थे, लेकिन इस हिना के नहीं! सर से चोटी तक नीचे, पिंडलियों तक, स्वर्ण से गुंथे थे! यदि किसी मानव-स्त्री को इतना स्वर्ण पहना दिया जाए, तो एक तो वो उठे नहीं! दम निकल जाए तो बड़ी बात नहीं! वहाँ अद्वितीय और तीक्ष्ण मदमाती सुगंध फैली थी! हाँ, एक बात विशेष! 

जब हम आह्वान करते हैं, अपनी शक्तियों का, तो ऊर्जा का क्षय होता रहता है निरंतर! उसको थामते हैं मंत्र! विदयाएँ। लेकिन यहां ऐसा नहीं था! यहाँ तो जैसे नव-ऊर्जा समाये जा रही थी हमारे अंदर! ऊर्जा-क्षय नहीं हो रहा था! ये बड़ी अजीब सी बात थी! 

और तभी अचानक से, शीतल बयार बही! शीतल, सर्द सी बयार! मित्रगण! 

वैसे आपको पता ही होगा! जिन्हे न पता हो, उन्हें पता चल जाए तो बढ़िया ही है! हमारे देश में छह ऋतुएँ आती हैं! ये कौन कौन सी हैं? वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर! वसंत अर्थात सबसे मुख्य ऋतु! प्रकृति अपने उच्चतम स्तर पर होती है! ग्रीष्म अर्थात गरमी वाली ऋतु, वर्षा, नाम से ही स्पष्ट है, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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शरद, अर्थात पतझड़! हेमंत अर्थात शीत ऋतु, शिशिर, अर्थात मनभावन और ठंडा! लेकिन क्या आप जानते हैं? कि एक अहोरात्र में चौबीस घंटे होते हैं, 

और ये सभी ऋतुएँ, इन चौबीस घंटों में, अपना अपना समय भोग करती हैं! कुछ का समय अधिक है और कुछ का कम! अब जब तांत्रिक कर्म होते हैं, तो इन ख़ास ख़ास ऋतुओं के अनुसार ही, क्रिया करने का विधान है। 

ग्रीष्म में मारण! हेमंत में कल्याण, शिशिर में, आकर्षण, वर्षा में उच्चाटन, 

शरद में शक्ति -संचरण, वसंत में काम-सुख! ये एक सूचिका है! तांत्रिकों की! अब ये सात्विकता पर भी निर्भर करती है। वे भी मानते हैं इसे! ग्रीष्म का कार्य, शरद में नहीं हो सकता! अर्थात, शरद के देवों आदि की पूजा, ग्रीष्म में नहीं हो सकती! कम ही कहूँगा, आपने समझना अधिक है! 

तो मेरा ये बताने का यही अर्थ है कि, जैसा मैंने लिखा, कि अचानक से सर्द बयार बही! सर्द, रोंगटे खड़े हो जाएँ, फुरफुरी सी चढ़ जाए! ऐसी बयार! उस समय, हेमंत ऋतु का भोग-काल था! हम सभी अपनी गर्दनें उठाये, उन तीनों को ही देख रहे थे! बाबा तो ऐसे खुश थे, कि यदि बस चलता तो उड़ ही जाते उनके पास! 

और अचानक ही, प्रकाश कौंधा! हमारी आँखें बंद हुईं। 

और जब खोलीं, तो, वे अब साठ फ़ीट के नहीं थे! वे अब कोई बारह फ़ीट के आसपास रहे होंगे! ये संभवतः, न्यूनतम स्तर होगा उनका! वे अभी बही भूमि से ऊपर ही थे! हित्रा ने भूमि की ओर अपना हाथ किया! 

और ये क्या? जल फूट गया वहाँ से! जल की कई धारें! और तो पढ़िए! जल ऊपर जा रहा था, लेकिन कहाँ? धारे ऊपर तो जा रही थीं, लेकिन गिर नहीं रही थीं नीचे! ये कैसा अजीब सा दृश्य था! 

कैसा अजीब! हमारी तो सोच की सिट्टी-पिट्टी गुम! बुद्धि के दौड़ते अश्व, ठहर गए थे। बुद्धि का रथ, हिचकोले खाता हआ, थम गया था! न सोच काम करे, न कोई विचार ही आये! न बुद्धि साथ दे, और न विवेक ही जागे! ये क्या हुआ? मैंने तो, एक से एक पारलौकिक सत्ताओं के दर्शन किये हैं। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ! कभी देखा ही नहीं! 

और तभी कुछ स्वर सा गूंजा! मुझे समझ नहीं आये वो शब्द, उस स्वर के! शब्द कुछ यूँथे, 'अरट कंथाये पुलुष रकवगय जेमिष उरुष!' 

ये कौन सी भाषा? क्या है ये भाषा? डामरी तो जानता है, लेकिन ये? ये कौन सी भाषा है? "क्लुत रिप्पये तेनुष रक्शूल तिमित!" 

ये क्या सुना मैंने? 

क्या कहा बाबा ने? क्या बाबा? क्या ये बाबा शिवराम? जानते हैं ये भाषा? ये कौन सी अजीब भाषा है? क्या छूट गया मुझसे? क्या रह गया? अनपढ़ सा महसूस करूँ मैं! 

दिल में गुबार और आंसू आने को हों! 

ये क्या छूट गया मुझसे? कैसे जीवन व्यर्थ किया मैंने? 


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये कैसे छुट गया? और फिर, बाबा ने कैसे सीखा? कैसे? कहाँ से? आखिर, आखिर? ये है कौन सी भाषा? मित्रगण! मुझसे क्या छूट गया, इस भाव से मैं पीड़ित हँ! ये एक मानसिक-विकृति है मेरे लिए! बहुत कष्ट होता है मुझे! सोचता हूँ, कि ऐसा हुआ कैसे? बाबा ने भी तो सीखा न? कहीं से तो सीखा ही होगा? कहाँ से? है तो इसी संसार में? तो मुझसे कैसे छूट गया? मेरा तो सीना फटने को हो! मेरा अन्तःमन मुझे गालियां सी दे! बार बार, भर्तस्ना करे मेरी! उपहास उड़ाए! मेरा नाम ले, बार बार, मुंह सा चिढ़ाये! "करिक एवल्की त्रिन्ग्तृक केहुश' फिर से स्वर गूंजे! मेरे कान वहीं लगे! मैं जैसे जैसे वो शब्द सुनता, 

मेरे मन में टंकण हो हटा एक एक शब्द! 'रुहिक्क तंगधूलि एंगिजू लिंगिजू एवलपरिक' 

स्वर गूंजा बाबा का! (ये शब्द तब्बती भाषा में उपयोग होते हैं, लेकिन इनका उच्चारण, कई कई में, शब्दों में, नाक से होता है) 

और हंसने के स्वर से गूंजे! ये कौन हंसा? ये तीन तो नहीं? ओह! वो! वो बारह स्त्रियां! वहीं, सामने, हमारे प्रकट हुई थीं, तो हंसी थी! हित्रा आगे बढ़ी, 

और वे बारह स्त्रियां, धूम स्वरुप बन, उस हिबा की मुखमंडल के इर्द गिर्द, परिक्रमा सी करने लगी! वे बारह की बारह धूम रूप में परिवर्तित हो गयीं थीं! और हित्रा के मुख-मंडल के इर्द-गिर्द, परिक्रमा करने लगी थीं। धूम भी पीले रंग की आभा लिए हुए ही था! हित्रा का श्वेत रूप, उस धूम से सुसज्जित हो चला था! "प्रल्प अत्तिवाक नेहुँ" स्वर गूंजा! भारी सा स्वर! जैसे,झरना सा गिरता हो एक एक शब्द में! अब शब्द भी ऐसे थे कि समझ में भी ना आएं! बस मैं, याद कर रहा था एक एक शब्द! "तृत ईत्त्वक करुक्ष एहँ" बोले बाबा! कमाल था! मुझे बाबा पर हैरत थी! किस कमाल से वे उत्तर दे रहे थे! 

ये प्रश्नोत्तर थे क्या? लगता तो यही था! बाबा तो खड़े हो कर, उत्तर दिए जा रहे थे! 

और मैं, ग्लानि भाव से पीड़ित था! काश, बाबा ने मुझे भी बताया होता तो, 

कुछ अल्प-ज्ञान मैं भी सीख लेता! "अरुंखी केहूश णाण्डिक्य एहूँ" स्वर गूंजे! कितने क्लिष्ट शब्द थे। कैसे भारी भारी! लेकिन समझ में कुछ नहीं आया मेरी! हर बार की तरह! बस इतना कि अरुंखी का अर्थ, चिकना, स्निग्ध होता है! 

शेष नहीं समझ आया! अरुंखी भी, नेपाल भी ही सुना था कभी। यहां तो कभी नहीं सुना! "कमंक देनुहुन् एहूँ एहूँ" बाबा ने उत्तर दिया! 

और कनक के फूलों की बौछार सी हो उठी नीचे भूमि पर! स्पष्ट था! वे प्रसन्न थे! अतिप्रसन्न! फूलों की बौछार यही बता रही थी! 

आकाश से फूल ऐसे बरस रहे थे जैसे बरसात हो रही हो! कनक के फूल मनभावन होते हैं! सुगंध में तो मादक हुआ करते हैं! अचानक से हित्रा पीछे हटी, 

और त्राजिरि आगे हुई! "कल्पयिन एमक्ष सेहूँ" स्वर गूंजे! 

और बाबा आगे बढ़े, हाथ जोड़ लिए थे अब तो! "तेमक रहिज्य नतिषीक" बोले बाबा! अब सब शांत! मुझे तो ललग कि बाबा को आशीर्वाद अब मिला और अब मिला! "तमंग एकु"


   
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श्रीशः उपदंडक
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स्वर गूंजे! "रमश एहूँ" बोले बाबा! मेरे तो होश ही उड़ने वाले थे! ये हो क्या रहा था? पहले हिना ने प्रश्न पूछे, अब त्राजिरि ने! 

और बाबा ने उत्तर भी सही दिया! लेकिन अर्थ नहीं समझ में आया! बस, मलाल इसी का था! 

और तभी, बाजिरि पीछे हो गयी! शान्ति अब! सन्नाटा सा! मृदंग बजने की आवाज़! हमारी साँसों की आवाज़! उस मंद मंद बयार की, पेड़ों के पत्ते से टकराने पर, खड़कने की आवाज़! 

और तभी! तभी वो उलुयौरमा आगे आये! कैसा विशाल रूप था उनका! गोरा रंग! ऊंचा मज़बूत कद! भुजाएं पेड़ के तने समान! चेहरे पर, सूर्य जैसा तेज! प्रकाश फूटे दिव्यता का! उस प्रकाश में, नहाएं हम! "एवम तरत्र किमुष" स्वर गूंजे! बाबा आगे बढ़े! सर झुकाया अपना! "रेमन अनित्र यक्वक्ष" बोले बाबा! फूल! फूल बरसने लगे अचानक से ही! कनक के सफेद और गुलाबी से फूल! 

छोटे छोटे! सुंदर! मधुर और मादक सुगंध उनकी! "दिनज्या अर्तुक्ष त्रित्रा" 

स्वर गूंजे!! "अलकेश एहँ" बोले बाबा! 

शान्ति फिर! परम शान्ति! कुछ पलों के लिए! "एवम करुक्ष एहूँ" बोले बाबा! भक्क! भक्क से आग लग गयी बाबा के चारों ओर! एक घेरा बनाते हुए! अब घबराये हम! कुछ गड़बड़ हुई थी! लेकिन क्या? "रीवन! रीवन! एहँ करख" बाबा के जैसे याचनामयी स्वर गूंजे! अवश्य ही कुछ गलती हुई थी! अवश्य ही! "तेलुम तेलुम" बोले बाबा! भूमि पर सर टिकाते हुए! बार बार टीकाएँ, और उधर, उलुयौरमा की त्यौरियां चढ़ीं! चेहरा तमतमाया! 

और फिर ज़ोर की गर्जना हुई! और स्वर गूंजे! घोर स्वर! पहली बार मुझे कुछ समझ में आया! पहली बार! "अरक्ष तेहँ एहिका शम्पायन!" महा-स्वर गूंजे! अब समझा! अब समझ में आया कुछ! शम्पायन! शम्पायन को नमन नहीं किया था बाबा ने! न ही नाम लिया था। ये भूमि तो स्वयं शम्पायन की ही थी! यही संभवतः गलती हुई थी उनसे! 

और उलुयौरमा! याद था उन्हें अपना परम साधक, वो शम्पायन! यही गलती हुई थी शायद! दूर लगा घंटा बजा! एक दो बार नहीं। बार बार! हमारी तो हालत बेहोशी वाली हो गयी! बाबा गिड़गिड़ा रहे थे। तेलुम, तेलुम चिल्ला रहे थे। आग ऐसे भड़की थी, कि ज़मीन से छह फ़ीट ऊपर तक! नज़र ही नहीं आये बाबा! 

और अचानक ही! आग बंद हुई! प्रकाश लोप हुआ! 

और लोप हए वे तीनों भी! आग बंद होते ही, हम भागे बाबा की तरफ! उठाया उनको, कपड़े, त्वचा जल चुकी थी उनकी! बेहोश थे वो! खूब हिलाया-डुलाया! खूब नाम पुकारा! लेकिन नहीं! नहीं आया होश! नब्ज़ देखी उनकी, चल रही थी! मैंने नकल और हीरा से उन्हें उठाने को कहा, उठाया उनको उन्होंने, 

और हम चले वापिस फिर! हाँ, मैंने बैग उठा लिया था उनका! आग जो कोने में लगी थी, भड़क गयी थी हमारे निकलने से पहले ही! जैसे उस स्थान को लील जायेगी आज पूरा! हम


   
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