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वर्ष २०१० काशी के समीप की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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बहुत सुंदर बगीचा था वो! अमलतास के पेड़ लदे पड़े थे पीले पीले घुघरू जैसे फूलों से! मधुमक्खियां और भौरे जैसे बावरे हो गए थे! एक फूल छोड़ते तो दूसरे पर आ बैठते! तितलियाँ, जैसे किसी मेले की तैयारियों में थीं! नीचे लगे गुलाब के फूल, हवा में अपनी गर्दनें हिला रहे थे! खुश्बू फैली थी उनकी! दूसरे रंग-बिरंगे फूल जैसे आनंद ले रहे थे उस मौसम का! हवा चलती तो खुश्बू ऐसी फैलती कि जैसे हम किसी पुष्प-उपवन से गुजर रहे हों! मैं एक चटाई पर लेटा था उस समय वहां, शर्मा जी सर पर कोहनी रखे अखबार पढ़ रहे थे। हमारे साथ एक जानकार थे श्रीमान अजय साहब, अजय साहब का अपना व्यवसाय था कागज़ों का, वे हमें आज ही मिले थे, थे तो मेरे पुराने जानकार लेकिन अचानक से ही मिल गए थे यहां एक बाज़ार में! मैंने ही उनको पता दिया था यहाँ का, वे मिलने आ गए थे! मैं ज़रा थोड़ा शोर-शराबे से दूर ही रहता हूँ, अतः यहां बगीचे में चला आया था! वे काशी घूमने आये थे, सपरिवार, और उन्होंने कुछ वक्त साथ रहने की ज़िद ही पकड़ ली थी, तो मैंने उनको यहां का पता दे दिया था, मिलना ही था, कृपा उनपर थी ही उस ऊपरवाले की, तो सब बढ़िया था! वे हमसे मिले और फिर दिल्ली में दुबारा मिलने की ज़िद की, मैंने उनको तारीख बता दी थी, वो तारीख जब हम दिल्ली पहुँचते और हमारे पास कुछ समय होता उनसे मिलने का! इसके बाद वो विदा ले, चले गए थे! मौसम में आलस भरा पड़ा था, ज़रा सी हवा चलती, तो शरीर में नशा सा हो उठता था! अब तो शर्मा जी भी अपने सर पर अखबार रख, सो चले थे,थोड़ी ही देर में उनके खर्राटे बज उठे थे! देह में आलस भरा था, फिर भी मैं वहां की उस प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद ले रहा था! उस स्थान से दूर एक मंदिर बनता, मंदिर पर लगा झंडा भी हवा के साथ साथ उड़ता तो लगता हवा में और उसमे प्रघाढ़ संबंध हैं काफी समय से! नीचे घास पर, गुड़सल, और अन्य पक्षियां अपना अपना चारा ढूंढ रहे थे! अपने छोटे छोटे पंखों को कंपाते हुए, वे नए नवेले पक्षियों के बच्चे, चोंच खोल देते थे बार बार! कभी माँ और कभी पिता, आहार लाते उनके लिए! वे बड़े हो जाएंगे, छोड़ देंगे माँ-बाप उन्हें, फिर उनका जीवन अपने भरोसे चलेगा। फिर उनकी भी संतति आगे बढ़ेगी। यही तो नियम है इस संसार का! लेकिन अफ़सोस! हम मनुष्य कहीं अधिक ही महत्वाकांक्षी हो गए हैं। प्रत्येक नयी पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी को, उनके ज्ञान को, उनके सम्मान को भुला ही बैठती है! अपरिपक्कव मानती है उन्हें! जबकि हमें अन्य जीवों की तरह, ता-उम उनका सरंक्षण मिलता है, जब तक वे जीयें! घर मिलता है, कौन सी पीढ़ी ये चाहती है कि उसकी अगली पीढ़ी वो सब संघर्ष करे जो उन्होंने किये? कोई नहीं! इसीलिए आज का मनुष्य पतन की ओर उन्मुख है! ये पक्षी, अपनी मूक भाषा और भंगिमा से सब बता देते हैं। इनके यहाँ असत्य नहीं! जल-स्रोत से सभी मिलकर ही पीते हैं। आहार सभी के लिए है। और हम। हम ये मेरा और वो मेरा, ये तेरा और वो उसका! बस, इसी में जीवन उलझ जाता है। और जब 


   
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श्रीशः उपदंडक
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नैया दूसरी पार जा लगती है, तो वहाँ अपना कुछ नहीं होता! वहाँ तो बस एक यात्री हैं हम! भटके, अपना कुछ है नहीं, सो फिर से नैय्या में सवार हुए! और आ पहुंचे उसी पार जहां पहले थे! अज्ञानी। भूल गए सबकुछ। और इस प्रकार तेरा-मेरा करते हुए, फिर से पार जा पहुंचे। और ये क्रम, ऐसे ही चलता रहता है। मैं तो कहूँगा, चलता रहेगा! धन, भूमि, संपत्ति, वाहन, संतति, यश, 

कीर्ति इनसे उद्धार नहीं हो सकता! ये तो भौतिक संसार के शब्द हैं! और उद्धार, इस संसार का नहीं! वो तो उस पार का है, जहां अपना कोई नहीं! जहां मैं,स्वयं मैं भी नहीं! जहां कुछ ले जाया नहीं जा सकता! तो क्या करें? अन्तःमन को साधना होगा! अंतःजीव को साधना होगा! अपनी आत्मा को साधना होगा! कैसे साधे? साधा जा सकता है, बस वो संधि ढूँढिये, जहां आप स्वयं आप ही न रहें! जब आप, आप ही न रहे, तो कैसा लोभ! कैसा लालच! कैसा काम! कैसा सुख! कैसा दुःख! कैसी भूमि! कैसी सम्पदा! कैसा धन! न! कुछ नहीं! अब प्रश्न ये, कि वो संधि आखिर ढूंढी कैसे जाए? सरल है। क्या सरल है? वो संधि प्राप्त करना? नहीं! जीवन जीना सरल है! मांगे तो मौत भी नहीं मिलती! एक सूत्र बताता हूँ! बहुत सरल है! मैं जैसा, तू वैसा! ये किस से कहा मैंने? किस से? आपसेर हो भी सकता है! कुछ अंश ही सही! नहीं, मैंने ये 'उस' से कहा! कि देख! मैं 

जैसा! तू वैसा! अब तू मुझे सर पर स्वर्ण दिखाए अपने, चक्र से डराए मुझे! विराट रूप में हो! तो मैं कैसे कह दूं कि मैं जैसा तू वैसा? हाँ! तब कहँगा जब मैं हो जाऊं तेरे जैसा!(मेरे शब्द यदि किसी को आहत करें तो मैं क्षमाप्रार्थी हैं, आप सोचेंगे कि उस अनंत के समक्ष हम कैसे बनेंगे उस जैसे!) तो फिर कुछ नहीं हो सकता! अनार का पेड़, बरगद से मित्रता नहीं कर सकता! अब त सक्षम है। बना मुझे ऐसा? मैं तो फक्कड़ हूँ! मेरे पास कुछ नहीं है! मेरे पास तो मेरी आत्मा भी मेरी नहीं! मेरी देह भी मेरी नहीं! तो मैं हआ कौन? मात्र भौतिक? तो कोई भौतिक उस पारब्रह्म सादृश्य कैसे होगा? मैं क्या दे सकता हूँ तुझे? क्या मैं हूँ इस योग्य? क्या लगता है तुझे? हूँ इस योग्य? मेरे पास तो मेरा कुछ है ही नहीं! मेरा अस्तित्व तो मेरे माता-पिता से है! जब मेरा अस्तित्व ही मेरा नहीं, तो तुझे मैं क्या दे सकता हूँ? हाँ! कुछ है मेरे पास तुझे देने के लिए! मात्र एक विश्वास! मात्र यही! चूंकि, इस देह में, इस आत्मा में, यही मेरा है मात्र! बस! और कुछ नहीं! यहां तक कि मेरा विवेक भी मेरा नहीं! जानते हए कि अमुक काम गलता है, कर बैठता हूँ! क्या करूँ! अब सांसारिक बनाया है तो गण कैसे छोड़ अपना! तू चाहे, तो छुड़ा दे! मैंने तो विश्वास दे दिया तुझे! अब तेरी मर्जी! 

जो करना है कर! तूने संसार रच दिया! और मुझे सर्वश्रेष्ठ बना दिया! कहला दिया, सर्वोत्तम कृति! और अब मैं पूर्वी कि सागर में करोड़ों जीव हैं, कोई आय नहीं, कोई संबंधी नहीं, उनका पेट भी तो भरता है तू? ये जीव हैं संसार के, इनका भी पेट भरता है तू! पक्षी हैं, कीड़े-मकौड़े हैं! कुछ अतिसूक्ष्म जीव भी हैं! हैं तो तेरे ही रचे हए! मैं कैसे किसी का अपमान कर दूँ? कैसे कह दूँ फलां गरीब, फलां, काला 


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुरूप, फलां, फलां तबके से, फलां रोगी, फलां नेत्रहीन, फलां अपंग, फलां भिखारी! कैसे कह दूँ! मैं 

कैसे कर दूँ तेरा अपमान? बस! यही है वो सूत्र! मैं जैसा! तू वैसा! कर लो पार ये नदी! कर लो पार! फिर न जाने नैय्या कब आये! "सुनिए?" आवाज़ आई! मैंने चौंक कर देखा अपनी दायीं तरफ! ये मेघा थी! अल्हड़ सी एक लड़की! बीस-बाइस की होगी! कुशा घास की तरह से पैनी! जिव्हा दुधारी तलवार! नज़र, चमकदार धार वाली कटार! अब बनाने वाले ने साँचा भी अलग ही बनाया होगा उसका! रूप ऐसा कि जो देख ले, दिल में चस्पा हो जाए! अच्छे से अच्छे 'ब्रह्मचारी' काम-तुला में लटक जाएँ! आ रही थी, अपनी चाल से, भूमि पर एहसान करती हुई! "हाँ मेघा?" कहा मैंने, "वो भोजन?" पूछा उसने, "अभी कर लेंगे" कहा मैंने, "फिर से गरम करवाओगे?" बोली वो! "अरे तो क्या हुआ?" मैंने कहा, "मुझे जाना है फिर?" बोली वो, "तो चली जा?" बोला मैं, "भोजन?" पूछा उसने, "कमला दे देगी?" बोला मैं, "वो क्यों देगी?" बोली वो। "तू चिढ़ती क्यों है उस से! बहन है तेरी!" बोला मैंने! "हमेशा डांट-डपट करती है" बोली वो! "बड़ी है, कर सकती है!" मैंने कहा, "आओ, खड़े हो जाओ" बोली वो! 

और शर्मा जी का अखबार हटा दिया सर से! धुप पड़ी तो आँखें मिचमिचाये उठ बैठे! "क्या हुआ बेटा?" बोले वो! "भोजन कर लो!" बोली वो! "कर लेंगे" बोले वो! "अभी चलो" बोली वो! "चल फिर,तू नहीं मानने वाली, चल!"बोले वो! "चल मेघा!" कहा मैंने! अब हम चले उसके साथ, हाथ-मुंह धोये! और फिर कमरे में गए अपने! सुस्ती आ रही थी! अंगड़ाइयां ले रहे थे हम! वो आई, और भोजन लगा दिया! 

"क्या ले आई?" पूछा मैंने, "देख जो लो।" बोली! मैंने कपड़ा हटाया! "अरे वाह! तूने ही बनाया है सबकुछ?" पूछा मैंने, "हाँ, अब खाओ" बोली वो! अब पानी डालने लगी गिलास में, और रख दिए गिलास वहीं मेज़ पर, "आती हूँ अभी" बोली, और चली गयी बाहर! घीये-चने की दाल, दही, आलू-सेम की सब्जी! अचार और हरी मिर्च! हमने खाया! तो गाँव याद आ गया अपना! वैसा ही स्वाद था! "बहुत बढ़िया बनाया है इसने तो!" बोले शर्मा जी, "हाँ, वाक़ई में!" मैंने कहा, हम खाते रहे खाना! दरअसल सब ताज़ा था! घीया भी और सेम की फलियां भी! अब स्वाद कैसे न 

आता! ताज़ा सब्जियों की तो बात ही अलग है! आई तभी फिर से! "कुछ और लाऊँ?" बोली वो! रोटी तो लेकर आई ही थी! रख दी दो दो रोटियां और! "सब्जी ले आ!" कहा मैंने! वो पलटी! "सुन?" बोले शर्मा जी! पलटी! देखे टुकुर-टुकुर! "खाना बहुत ही बढ़िया बनाया है तूने!" बोले शर्मा जी! मुस्कुरा गयी! "अच्छा अब समझा मेघा!" कहा मैंने! "क्या?" बोली वो! "कमला क्यों नहीं लाएगी!" बोला मैं! वो हंसी और चली बाहर सब्जी लेने! खाना खा लिया था हमने! बहुत ही स्वादिष्ट सब्जी बनी थी, और दाल भी बढ़िया थी! भूख से ज़्यादा ही खा गए थे! अब खाना ज़्यादा खाया तो फिर से लगी बदन में अलक़त! मैं तो हाथ-मुंह धोकर, फिर से चला वहीं बगीचे की तरफ! शर्मा जी भी चल दिए संग मेरे! और हम आ बैठे फिर वहीं! मैं


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो चटाई पर लेट गया, और शर्मा जी भी,अपनी चादर पर लेट गए! पेड़ों की छाया पड़ती थी हम पर कभी कभी! जब पेड़ झूमते हवा के चलने से! वो सर्द-गर्म स्पर्श ही धूप और छाया का, बदन में एक अजीब सा एहसास करा जाता था! घास में लेटने का भी एक अलग ही आनंद होता है, हवा जब घास से छूकर चलती है तो घास की नमी और ज़मीन की ठंडक मिलकर, एक उर्वरकता 

को जन्म देती है, इसी कारण से घास के आसपास लगे पौधे, जवान से रहते हैं। वे कुम्हलाते नहीं! फूलों की उम भी ज़्यादा होती है! वहाँ सफेद रंग के फूल लगे थे, बेहद ही सुंदर थे। उनके संग ही नीले रंग के छोटे छोटे फूल थे, लगता था जैसे किसी ने सफ़ेद रंग की उम्दा पोशाक़ में नीले रंग के रत्न से टांक दिए हो! पीले रंग के फूल, लाल रंग के फूल सब देखते ही बनते थे! जंगली फूल भी 

अब शामिल हो चुके थे उन फूलों के साथ! वे भी हवा के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे! मेरी तो आँखें भारी हो चली थीं! आँखें बंद की तो पलकों की लाली में कभी स्याहपन घुलता तो कभी गुलाबी हो उठती! ये सब धूप-छाया के कारण था! आखिर में आँखें बंद हुईं सही तरह से और नींद आई! मैं तो निंद्रा-लोक में सरक गया! शर्मा जी तो मुझे पहले ही नींद के बहकावे में आ चुके थे! 

और अब उसकी पनाह में थे! हम काफी देर तलक सोये, करीब ढाई तीन घंटे! और तब एक आवाज़ आई मुझे, लगा जानी पहचानी सी आवाज़ है, मैंने सोचा शायद नींद में, सपने में ही कोई है, करवट ले ली मैंने, तो आवाज़ फिर से आई। अब लगा कि ये कमला की आवाज़ है! करवट पलटी और आँखें खोली मैंने, आँखें खोली तो कमला खड़ी थी, एक तश्तरी में चाय लिए! मैं उठ बैठा! आँखें मली ज़रा! "कमला, चाय लायी है?" पूछा मैंने, अब बैठी वो, और तश्तरी नीचे रख दी, कप ढके हुए थे, "हाँ, उठिए?" बोली कमला! "शर्मा जी शर्मा जी? मैंने कंधा हिला कर जगाया उन्हें! वे जागे, "चाय पी लो" कहा मैंने, वे उठ बैठे, उबासी ली लम्बी से! 

और उठा लिया एक कप, उसके ऊपर ढका वो ढक्कन सा हटाया और पहली चुस्की ली, मैंने भी चाय पी रहा था! "बाबा आये क्या?" पूछा मैंने, "अभी नहीं आये" बौली कमला, "ऐसे कहाँ निकल गए?" पूछा मैंने, "सर्वेश मां के यहां गए हैं, अब तो साँझ तक ही आएंगे" बोली वो! "अच्छा! चल कोई बात नहीं!" मैंने कहा, कमला, कोई सत्ताईस साल की रही होगी, कमला का विवाह हुआ हा को दो साल पहले, लेकिन उसके पति की मौत हो गयी थी नदी में डूबने से,नाव पलट गयी थी गाँव में, छह महीने बाद ही विधवा हो गयी थी, सभी को बहुत हमदर्दी थी उस से, मुझे भी थी, बहुत खूबसूरत थी कमला, शांत रहने वाली, समझदार और बुद्धिमान, सदैव मुस्कुराने वाली, लेकिन अब जैसे उसकी हंसी खो चुकी थी, ससुराल वालों ने रहने नहीं दिया उसे, आखिर में उसके पिता बाबा कुलेश्वर ले आये 

उसको संग अपने, और अब वो यहीं रहती थी, उस स्थान की देख-रेख का सारा काम अब उसी का था, बाबा कमला के कारण टूट चुके थे, कमला और मेघा, भाई न था कोई, बस दो


   
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श्रीशः उपदंडक
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ही संतान थीं बाबा की, कमला की माँ को गुजरे भी कोई दस बरस हो चुके थे, दया तो आती थी उस पर, लेकिन कोई कहता नहीं था उसको कुछ भी, उसके दुःख को कोई उबारना नहीं चाहता था, हम भी नहीं! "ये मेघा कहाँ जाती है?" पूछा मैंने, "पढ़ाई करने" बोली वो! "अरे वाह! बहुत बढ़िया! कहा शहर?" पूछा मैंने, "हाँ" बोली वो! "और आती कब है?" पूछा मैंने, "चार बजे तक" बोली वो, चाय पी ली थी हमने, कप रख दिए थे वापिस तश्तरी में, "तुमने पढ़ाई छोड़ दी थी?" पूछा मैंने, "छोड़नी पड़ी थी" बोली वो, "समझ गया" बोला मैं, फिर वो खड़ी हुई, और चल दी वापिस, "क्या क्या रंग दिखाती है जिंदगी"शर्मा जी बोले, "हाँ, सही कहा" मैंने कहा, "देखो इसको, बेचारी" बोले वो, "अब क्या कहूँ" मैंने कहा, "ये दूसरा ब्याह नहीं करती" पूछा उन्होंने, "नहीं, मना कर दिया है उसने" बोला मैं, "कैसे काटेगी सारा जीवन" बोले वो, "पता नहीं, सोचते हए भी डर सा लगता है, मेघा भी अपने घर की हो जायेगी, बाबा भी कब तक हैं" मैंने कहा, "हाँ, क्या करेगी ये" बोले वो, "मैंने भी समझाया था इसको, लेकिन मना कर दिया" बोला मैं, "चलो जी, उसकी इच्छा!" बोले वो! 

और मैं फिर से लेट गया! शर्मा जी बैठे रहे! निकाल ली बीड़ी जेब से, "लगाऊ क्या?" पूछा उन्होंने, "नहीं, रहने दो" मैंने कहा, उन्होंने सुलगा ली बीड़ी और लगाने लगे कश! 

फिर बजे कोई साढ़े चार, हम चले अब अपने कमरे में, "चलो ज़रा, बाहर चलें" मैंने कहा, "चलो" बोले वो, कमरा बंद किया, चाबी डाली जेब में, और चल दिए बाहर! "वैसे बाबा कुलेश्वर ने जगह बढ़िया बनायी है, दूर-दराज में, शान्ति की जगह!" बोले शर्मा जी, "हाँ, ये उनके गुरु का स्थान है" कहा मैंने, "हाँ, यही परम्परा है" बोले वो, "हाँ, अधिकाँश यही है" कहा मैंने, 

और हम पहुंचे बाहर तक, और जैसे ही पहुंचे, मेघा उतरी सवारी से! हमें देखा, तो लम्बे लम्बे डिग भरती हुई, आ धमकी हमारे पास! "कहीं जा रहे हो?" पूछा उसने, "हाँ, शहर तक" बोला मैं, "क्या करने?" पूछा उसने, "कुछ काम हैं" कहा मैंने, "किस से काम है?" पूछा उसने, "अब है किसी से मेघा?" कहा मैंने, "नाम तो कुछ होगा?" बोली वो, "हाँ, बिंदा बाबा के यहां जा रहे हैं" बोला मैं, "वहाँ क्या काम है?" पूछा उसने! "अरे कितने सवाल करती है तू?" पूछा मैंने, "क्या काम है?" बोली वो! "अब कुछ तो होगा ही" कहा मैंने, "नहीं बताना चाहते?" बोली वो! "क्या बताऊँ तुझे?" पूछा मैंने, "काम?" बोली वो! "बाबा से मिलना है" कहा मैंने! "और आओगे कब तक" पूछा उसने, "आ जाएंगे,रात तक" बोली वो, "भोजन?" पूछा उसने, "वहीं खा लेंगे" कहा मैंने, "यहां क्यों नहीं?" बोली वो! 

"एक काम कर, तू जा अंदर!" बोला मैं! "यहां क्यों नहीं?" बोली वो! "अब तू समझती तो है?" कहा मैंने! अब हंस पड़ी वो! बहुत प्यारी सी हंसी! कभी नज़र न लगे इसकी हंसी को! यही ख़याल आया मन में मेरे! "अब जा तू अंदर!" कहा मैंने! "जाती हूँ!" बोली वो! 

और ठमकते हए, चली गयी अंदर! "कैसे पूछताछ करत है!" बोले शर्मा जी! "हक़ समझती है। विश्वास!" कहा मैंने! "हाँ, यही बात है!" बोले वो! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हमने पकड़ी सवारी, शहर के लिए! दो पकड़नी पड़ी, और आ गए शहर, यहाँ से अपना कुछ सामान खरीद लिया! और चल दिए बाबा बिंदा के स्थान के लिए! यहां से फिर एक सवारी पकड़ी और जा पहुंचे उस स्थान! अंदर पहुंचे तो बाबा से मुलाकात हुई! खूब बातें हुई उनसे! बाबा बिंदा बहुत शानदार व्यक्ति हैं! "बाबा?" पूछा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "वो अनुपमा यहीं है?" पूछा मैंने! "हाँ, यही है!" बोले वो! "ज़रा मिलवाओ उस से!" कहा मैंने, "अभी" बोले वो, एक स्त्री को आवाज़ दी, और मुझे भेज दिया उसके साथ! वो ले चली मुझे किसी जगह, कक्ष बने थे, छोटे छोटे वहां! कपड़े सूख रहे थे, तुलसी के पौधे लगे थे बहुतायत में, फूल बिखरे पड़े थे वहाँ! पूजन हआ हो जैसे! और वो स्त्री ले आई एक बड़े से कक्ष के सामने मुझे! फिर आवाज़ दी, किसी स्त्री को! एक औरत बाहर आई, 

मुझसे नमस्कार किया उसने,मैंने भी किया! तब मेरे साथ आई स्त्री ने, अनुपमा के बारे में पूछा, तो पता चला कि वो आ रही है, बस कुछ ही देर में! मेरे साथ आई स्त्री चली गयी, और उस दूसरी स्त्री ने एक मूढ़ा दे दिया मुझे! मैं वहीं बैठ गया! करने लगा इंतज़ार! अनुपमा का! आज करीब छह माह बाद मिल रहा था उस से! आखिरी बार दिल्ली में ही मिला था उस से मैं! मैं बैठा रहा, मुझे पानी दे दिया था उस स्त्री ने, बहत मिलनसार सी थी वो स्त्री, मैंने पानी पिया 

और देखा सामने, आ रही थी अनुपमा, एप आप में ही खोयी हई सी, आसपास नज़रें दौड़ाती हई। धीरे धीरे चलती हुई! और जैसे ही सामने नज़र गयी उसकी, मुझे देखा उसने! ठिठक कर रुक गयी। मैं भी खड़ा हो गया। मैं नीचे उतरा सीढ़ियां और वो वहां से चली! मैं मुस्कुराया, और वो भी मुस्कुराई! आ गयी मेरे पास! प्रणाम की उसने! मैंने भी किया! "कैसी हो अनु?" पूछा मैंने, "अच्छी हैं! आप?" बोली वो! "अच्छी बात है! बाबा के पास आया था मैं मिलने, तो सोचा सबसे पहले तुम से मिलकर आऊँ!" कहा मैंने! "कब आये? आज ही?" बोली वो! "आया तो तीन दिन से हूँ, लेकिन यहां अभी आया!" कहा मैंने! "आओ फिर!" बोली वो, 

और चल पड़ी वापिस! एक जगह मुड़ी और एक कक्ष में ले आई! वहां अलमारियां रखी थीं लकड़ी की, और कुछ सामान आदि भी! वहीं कुर्सियों पर बैठ गए हम! पंखा चला ही दिया था उसने! "और सुनाओ!" कहा मैंने "बस! आप सुनाइए, कैसे फुर्सत मिल गयी!" बोली वो! "कहा तो था तुमसे,आऊंगा मिलने जब भी आया यहां तो!" कहा मैंने, "पानी पिया?" पूछा उसने, "हाँ, पी लिया!" बोला मैं! "और यहां कब तक हो?" पूछा उनसे! "परसों निकलूंगा मैं यहां से" बोला मैं, "बड़ी जल्दी?" बोली वो! "हाँ, काम बहुत हैं! ज़्यादा रुक नहीं सकता मैं!" कहा मैंने! "समझती हूँ" बोली वो, 

'और दिल्ली कब आ रही हो?" पूछा मैंने, "शायद इस दीपावली पर" बोली वो, "भाई के यहां?" पूछा मैंने, "हाँ" बोली वो! "अच्छा है, आओ, खबर कर देना, अब चलूंगा!" कहा मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कुछ खा-पी तो लेते?" बोली वो! "उसकी कोई बात नहीं! मिलते हैं दीपावली पर!" कहा मैंने! 

और उसके चेहरे को छूते हए,अब विदा ली मैंने! आया वापिस बाबा के पास, बाबा और शर्मा जी दोनों ही ठहे मार रहे थे,शायद शर्मा जी ने देहलवी चुटकुले सुना दिए थे उन्हें! "क्या बात है!" मैंने पूछा बैठते हुए! "अरे कुछ नहीं! वो मैं और शर्मा जी बातें कर रहे थे!" बाबा बोले! "क्या सुना दिया बाबा को?" मैंने हँसते हुए पूछा, "कुछ नहीं, वो एक आद कुछ पुरानी बातें!" बोले वो! उसके बाद मैं भी शामिल हो गया उनकी इन पुरानी यादों में! और मैं भी शुरू हो गया ठड्ढे मारना! अब साँझ हो चुकी थी! हुड़क लगने लगी थी! और हुड़क मिटानी भी ज़रूरी थी! बाबा का भी समय हो चला था अब हुड़क मिटाने का! "आओ ज़रा!" बोले बाबा, "चलो!" कहा मैंने, 

और बाबा ले आये हमें एक ख़ास कक्ष में! यहां कालीन बिछा था, तकिये लगे थे और छोटी छोटी मेज़ थीं, जैसे नीचे बैठ कर पढ़ा जाता है उन पर! कमरे में घुसने से पहले, एक महिला से कुछ बातें की थीं उन्होंने! और हम तब कमरे में आये थे अंदर, तो हमने अपन सामान जो लाये थे संग, वहीं रख दिया! और बैठ गए! तब थोड़ी देर में ही, एक सहायक सामान ले आया वहाँ, रख दिया वहीं, 

और फिर गया, बारा आया और बाकी सामान भी ले आया! और फिर हम हए शुरू! बाबा से बहुत बातें हुईं, बाबा कुलेश्वर को अच्छी तरह से जानते थे बाबा बिंदा, अच्छे मित्र थे वो उनके, और कमला के विषय में भी चिंतित थे, कमला को देखते थे तो दिल पसीजने लगता था बाबा बिंदा का! "हाँ बाबा, अब बताओ काम क्या है?" पूछा मैंने, "काम? हाँ, हाँ!" बोले वो! 

और फिर आवाज़ दी किसी राधो का नाम लेकर, तभी एक तीस साल का व्यक्ति आया अंदर, प्रणाम की उसने, हमने भी की, 

"हाँ बाबा?" बोला वो! "शिवराम कहाँ है?" पूछा उन्होंने, "वहीं होंगे, कमरे में" बोला वो, "ज़रा देखो, हों तो ले आओ यहां" बोले बाबा, "जी, लाता हूँ" बोला राधो, और चला गया! "ये शिवराम कौन हैं?" पूछा मैंने, "बाबा अलखनाथ को जानते हो?" बोले वो! "हाँ, जानता हूँ" कहा मैंने, "उनके छोटे भाई हैं" बोले वो! "अच्छा! और बाबा अलखनाथ कहाँ हैं आजकल?" पूछा मैंने, "गुजर गए वो" बोले वो, मझे झटका लगा! "कब?" पूछा मैंने, "बीस दिन हए" बोले वो, "कैसे?" पूछा मैंने, "बीमार पड़ गए थे, अस्पताल में रहे, लेकिन लौटे ही नहीं" बोले वो, "ओह.....बहुत बुरा हुआ" कहा मैंने, "हाँ, लेकिन होनी तो होकर ही रहती है" बोले वो, "ये तो सही है, उम क्या होगी उनकी?" मैंने पूछा, "साठ-बासठ के होंगे" बोले वो, "ओह...." कहा मैंने, "खैर छोडो, जाने वाले जाते रहते हैं! यात्री हैं सब!" बोले वो! "ये तो सच है" कहा मैंने, 

और तभी कमरे में एक बाबा आये, दरम्याने कद के, पतले-बले से, वक़्त की गाड़ी में बहत तक गए हों जैसे सफर करते करते! हमने प्रणाम की उनसे! उन्होंने भी की, और फिर


   
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अपनी जूतियां उतार, आ पहुंचे हमारे पास, "बैठो शिवराम" बोले बाबा! बैठ गए वो! "अब तबियत कैसी है?" पूछा बाबा ने, "अब ठीक है"बोले वो, "ये हैं वो, जिनके बारे में बताया था मैं तुम्हे, याद आया?" पूछा बाबा ने, 

"वो दिल्ली वाले?" पूछा उन्होंने, "हाँ" बोले बाबा! "अच्छा! याद आ गया" बोले वो। "हाँ, तो अब बताओ आप वो काम" बोले बाबा! "आप बता दो?" बोले बाबा शिवराम! "बता दो?" बोले बाबा! बाबा शिवराम खांसे, "चलो मैं बताता हूँ" बोले बाबा! उन्होंने अपना गिलास खाली किया, रखा नीचे, "लोगे शिवराम?" पूछा बाबा ने, "आप लो, दवा ले रखी है" बोले शिवराम, अब मुझे देखा बाबा ने, "एक प्रश्न पूछ?" बोले बाबा! "हाँ, अवश्य! क्यों नहीं!" कहा मैंने, "कभी किम्पुरुष के विषय में सुना है?" पूछा उन्होंने! किम्पुरुष? 

ये क्या कह रहे हैं बाबा? "हाँ, सुना है?" बोला मैंने! "कौन हैं ये?"" पूछा उन्होंने, "ये भी एक विशेष योनि है, इन्ही को अक्सर किन्नर कहा जाता है, परन्तु किन्नरों और किम्पुरुष में अंतर है!" कहा मैंने! "क्या अंतर?" पूछा उन्होंने, "किम्पुरुषों के एक कुनबे को श्रापग्रस्त होना पड़ा था, जिस से वो नृप, पुरुष होते हुए भी स्त्री रूप में परिवर्तित हो गया था, यही किन्नर हुए बाद में, परन्तु किम्पुरुष तो देव, असुर, सुपर्णा, रुद्र, मरुत, वसु, पिशाच, कालकेय आदि में सम्मिलित हैं!" कहा मैंने! "हाँ! सही कहा आपने!" वे बोले, "लेकिन ये किम्पुरुष का क्या अर्थ हुआ यहां?" पूछा मैंने! 

"शिवराम?" बोले बाबा! "हाँ जी?" बोले वो! "बताओ?" कहा उन्होंने, "बाबा अलखनाथ को जानते हैं आप?" पूछा बाबा ने, 

"हाँ, और सुनकर अफ़सोस हुआ" कहा मैंने, "बाबा अलखनाथ के हाथ एक गूढ़ रहस्य लगा था!" बोले बाबा शिवराम! अब माथा घूमा मेरा! कैसा गूढ़ रहस्य! किम्पुरुष! 

ये क्या सुन लिया मैंने! क्या सच में? और कहीं? कहीं बाबा अलखनाथ..........? कहीं इसी कारण से तो? इसी कारण से तो नहीं मृत्यु को प्राप्त हो गए? 

क्या है वो रहस्य? कैसा रहस्य? अब मुझे चढ़ने लगा जिज्ञासा का ज्वर! ज्वर भी ऐसा, कि फुरफुरी छूट जाए! (मित्रगण! ये किम्पुरुष ऐसा विषय है, जिसके बारे में न आज तक किसी ने लिखा! और न जाना ही! और जो जानते हैं, वो बताते नहीं! ये है तंत्र के अत्यंत गूढ़तम रहस्यों में से एक गूढ़ रहस्य!) दिमाग में बड़े बड़े! बड़े बड़े घंटे बजने लगे थे। ऐसे घंटे कि सुनो, तो दिमाग घूम जाए तीन सौ साठ डिग्री! ये कैसा विषय था! सुना था, लेकिन जाना नहीं था। अब ये विषय, मेरे सर में प्रश्न के आरे चला रहा था! क्या करता! मदिरा का नशा भी जैसे, हार मानकर, कोने में ही बैठ गया एक! और शर्मा जी! वे तो समझ ही नहीं पाये! मैंने कभी बताया ही नहीं था उन्हें इस विषय में! इसीलिए! अक्सर , अधिकाँश लोग किम्पुरुष को किन्नर से जोड़ दिया करते हैं, परन्तु ऐसा है नहीं, किन्नर 

और किम्पुरुष दो अलग अलग 'सम्प्रदाय' थे, इसके विषय में सम्पूर्ण महाभारत भी बताती है और कदम्ब रामायण भी, किम्पुरुषों को राक्षसराज रावण ने हराया था, ये भी कि नागों के कट्टर शत्रु सुपर्णा या सुपर्ण हुआ करते थे, ये गरुड़ समान थे, वायु में उड़ते थे और उनके


   
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श्रीशः उपदंडक
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पंख थे, गीधराज जटायु को भी एक प्राचीन ग्रन्थ में सुपर्णा ही बताया गया है! गीधराज के धाता सम्पाति भी सुपर्णा ही थे, अब ये तथ्य नहीं पता अथवा शोध नहीं हुआ कि गरुड़ में ये गिद्ध भी शामिल थे या नहीं, क्योंकि, गीधराज जटायु की वंशबेल या सम्पाति की वंशबेल के विषय में कहीं और कुछ नहीं मिलता! मेरा मानना है, कि ये अर्थ सही है, कि उन्हें सुपर्णा ही कहा जाये, स्पर्णा के विषय में कई बौद्ध पट्टिकाएं और त्रिपिटिक इस विषय में बताती हैं, हमारे हिन्दू संदर्भ में भी ये तथ्य तर्कसंगत ही बैठता है! अब चूंकि ये विषय अत्यंत गूढ़ है, और अधिक कुछ लिखित में नहीं प्राप्त 

होता,अतः,अटकलें अक्सर ही लगाई जाती हैं। एक तथ्य और बताता हूँ, आप चाहें तो जांच भी सकते हैं। हिमालय की तराई में, घाटियों में, यहां तक कि तजाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, किरगिस्तान, मंगोलिया, नेपाल,म्यांमार, कम्बोडिया, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों में, भारत से ही, इन किम्पुरुषों से संकर प्रजाति का मूल आरम्भ हुआ, जिन्हे किरात कहा जाता है, भले ही कोई माने या न माने, लेकिन प्राचीन लेख इस संदर्भ में ऐसा ही कहा करते हैं और पुष्टि भी करते हैं, किरात महिलायें, चौड़े चेहरे वाली, जो कि वर्गाकार हुआ करता है, चौड़े वक्ष वाली, शरीर में भारी, सुंदर, तीखे नैन-नक्श वाली और किरात पुरुषों से अधिक लम्बी और मज़बूत हुआ करती हैं। ये आभूषण वैसे ही धारण किया करती हैं जैसे कि किम्पुरुष स्त्रियां! सारण ही स्वर्ण! कम से कम, एक बार में कोई आधा से पौना किलो स्वर्ण! ये स्वर्ण कहाँ से आता है, कहाँ से लाया जाता है, अभी तक अज्ञात है। तिब्बत की ही एक रहने वाली, सुश्री येसिन मेरी मित्र हैं, वे किरात हैं,रूप-रंग में किसी अप्सरा से कम नहीं। उन्होंने अपनी स्थानीय भाषा में, मुझे कुछ दुर्लभ लेखों के विषय में अनुवाद कर उनका, मेरे कई प्रश्नों का उत्तर दिया है! येसिन अन्य, तिब्बती महिलाओं से अलग हैं, शरीर भी अलग, प्रकृति भी अलग, भोजन सामग्री भी अलग! और तो और, श्रृंगार की सभी वस्तुएं, प्रकृति से ही प्राप्त की जाती हैं! येसिन अपने होंठों पर एक लाल द्रव्य लगाती हैं, जिसे खैरन कहा जाता है, एक बार लगा लिया जाए, तो माह भर, होंठ चमकते रहते हैं, सुर्ख लाल! आँखों में जो काजल लगाया जाता है, वो ऐल्लक कहा जाता है, चमकदार होता है, और 

आँखें ऐसी लगती हैं कि जैसे किसी अप्सरा की आँखें! येसिन ऐसे ही एक किम्पुरुष की पूजा अर्चना करती हैं, जिसका वैदिक-धर्म में कोई नाम ही नहीं! वैदिक-धर्म से कोई लेना-देना भी नहीं! जानते ही नहीं मुख्यधारा के देवी देवताओं को ये लोग! नाम नहीं बता सकता मैं उस । किम्पुरुष का आपको! मना किया गया है! येसिन के अनुसार, कभी भी कोई किरात अब अन्य संकर संतान नहीं पैदा कर सकता! ये खान तक सत्य है, मुझे तो नहीं मालूम, लेकिन ऐसे कई उदहारण बताये जहां किसी विदेशी ने एक किरात स्त्री से विवाह किया, लेकिन संतान नहीं हुई! एक किरात स्त्री मात्र एक किरात पुरुष से ही गर्भाधान कर सकती है! ऐसा भला क्यों? आधुनिक विज्ञान में इसका कोई उत्तर नहीं! जैसे हमारे भारतवर्ष में केरल में एक गाँव है कोडिन्ही! ये कालीकट से बाइस मील दक्षिण में और मलप्पुरम से उन्नीस मील पश्चिम में है, यहां की एक खास बात है, यहां जुड़वाँ संतान ही जन्म लेती हैं।


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसा क्यों? आज तक विज्ञान मात्र अटकलें ही लगा रहा है! संसार में एक मात्र ऐसा गाँव है, जहाँ ऐसा अधिकतर होता है, क्या तर्क है इसके पीछे, नहीं पता, कम से कम विज्ञान को नहीं पता! खूब जांच हुई, शोध हुए, अनुसंधान हुए, शुक्राणुओं और अंडाणुओं की जांच हुई, नतीजा, सिफ़र का सिफ़र! एक जानकार ने एक कथा सुनाई, प्राचीन समय में वहाँ, एक असुर रहा करते थे, दण्डिकासुर, पुण्य इतने थे, कि इन्द्र की उपाधि मिल जाए! तो एक छल के साथ उनका वध हआ, परन्तु, वे उस गाँव के भले लोगों को वर दिया करते थे कि 

उनके संतान जुड़वाँ ही होंगी। और ये सिलसिला आज तक ज़ारी है! हाँ, तो अब वो किम्पुरुष और बाबा बिंदा! "बाबा?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोले बाबा बिंदा, "वो गूढ़ रहस्य कहाँ से मिला उन्हें?" पूछा मैंने, "हाँ, प्रश्न अच्छा है!" बोले वो! "तो बताइये!" कहा मैंने, गिलास भरते हुए अपना! शर्मा जी ने भी भर लिया अपना गिलास! अब विषय ही कुछ ऐसा था! और नए विषय के लिए तो, क्या नहीं किया जा सकता! "बाबा अलखनाथ की एक साध्वी थी पूर्णा!" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "पूर्णा के हाथ एक मानव-चर्म पर लिखी एक पुस्तिका सी मिली!" बोले वो! "पुस्तिका या पाण्डु-लिपि?" पूछा मैंने, "हाँ वही!" बोले वो! 'तो?" पूछा मैंने! "वो ब्राह्मी में लिखी थी!" बोले वो! "ब्राहमी में?" पूछा मैंने! "हाँ!" बोले वो! "फिर?" मैंने पूछा, जैसे मुझे में हवा भरी अब! रहा न जायै! ऐसी अमूल्य पाण्डु-लिपि? "बाबा अलखनाथ ने वो पाण्डुलिपि, एक सेवानिवृत प्राध्यापक साहिब से पढ़वाई,अब प्राध्यापक साहिब तो समझ नहीं पाये, लेकिन उसका अनुवाद कर दिया, बाबा अलखनाथ ने लिख लिया वो! जस का तस!" बोले वो! "अरे वाह!" मेरे मुंह से निकला! "क्या लिखा था उसमे?" पूछा मैंने, "उसमे एक किम्पुरुष 'देव' का ज़िक्र था!" बोले वो! "अच्छा ? कौन से?" पूछा, 

वे मुस्कुराये! "कितने किम्पुरुष देवों के बारे में जानते हो आप?" पूछा उन्होंने! सच कहूँ? तो एक भी नहीं! बस इतना, जितना आम लोग जानते हैं! 

और अधिक नहीं! "नहीं जानता!" कहा मैंने! "उसका नाम है उलुयौरमा!" बोले वो! वाह! क्या नाम है! उलुयौरमा! "फिर?" पुछा मैंने! "फिर क्या, बाबा लग गए इस विषय के पीछे!" बोले वो! "कैसे?" पूछा मैंने, "विधि आदि सब लिखी थी!" बोले वो! "अच्छा?" कहा मैंने! "हाँ!" बोले वो। "लेकिन एक बात?" कहा मैंने, "क्या?" बोले वो, "वो दी किसने थी?" पूछा मैंने, "सेपिल नाम की एक किरात स्त्री ने!" बोले वो! "क्या कह रहे हो?" कहा मैंने! "हाँ, सच में!" बोले वो! बस अब तो, मेरे सर में, गूमड़ उठने की देर थी! एक किरात स्त्री ने दी? कमाल! हैरत! "और वो स्त्री थी कहाँ की?" पूछा मैंने, "नेपाल" बोले वो, "अभी है?" पूछा मैंने, 

"होगी, लकिन कहाँ, पता नहीं" बोले वो! "ओह" कहा मैंने! "हाँ तो बाबा लग गए पीछे।" बोले वो। 

और मैंने बात काटी! "अब वो पाण्डु-लिपि है कहाँ?" पूछा मैंने, "यहीं है!" बोले वो! "कहाँ?" पूछा मैंने! "बाबा शिवराम के पास!" बोले वो! "दिखाओ?" कहा मैंने! अब बाबा बिंदा ने देखा बाबा शिवराम को! बाबा शिवराम उठ गए! "अभी लाया!" बोले वो और चले! 

और मैं तो इतना खश, जैसे कबेर के खजाने में सेंध लगा दी हो! शरीर पर भी आभूषण! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मुंह में भी आभूषण! ऐसा खुश! मेरे हाथ अब एक नायाब चीज़ लगने वाली थी! वो पाण्डु-लिपि! रहा न जाए! बैठा न जाए! ज़मीन धकेले मुझे ऊपर! गरदन पर टिका सर, बार बार, बाहर देखे! गिलास भरा अपना! पानी डाला और गटक गया! "आपने देखी है?" पूछा मैंने! कैसा अजीब प्रश्न था मेरा भी! "हाँ, कई बार!" बोले वो! 

और मैं बाहर झाँकूँ! कहाँ अटक गए बाबा शिवराम? आये क्यों नहीं? क्या हो गया? 

कौन मिल गया? अजीब अजीब से सवाल! (मित्रगण। आप चाहें तो स्वयं भी जानकारी जुटा सकते हैं, मैं मात्र जितना जानता हूँ, उतना ही लिख रहा हूँ!) 

और तभी बाबा शिवराम आये अंदर! बगल में एक कपड़ा सा दबाये, और लगा जैसे कि कोई किताब सी है उसमे! आये और बैठ गए! रख दिया वो कपड़ा सामने! अब दिल आया मुंह में जैसे! 

उत्सुकता के इंडे पड़ें सर पे! "दिखाओ बाबा?" कहा मैंने, "हाँ" बोले वो! 

और अब उन्होंने वो कपड़ा हटाना शुरू किया! कपड़ा हटा तो एक नरम सा कपड़ा निकला, हरे रंग का, अब वो हटाया, वो हटाया तो कच्ची रुई निकली, उसको हटाया तो एक किताब सी निकली! चमड़े की, चमड़े से ही सिलाई हुई थी उसकी! ये मनुष्य-चर्म था, वो धागा जिस से वो किताब सी बंधी थी, वो भी इंसानी चर्म ही था! ये कुल आठ इंच लम्बी और छह इंच चौड़ी थी! उस पर लिखा कुछ न था! और थी काफी मोटी, करीब तीन इंच मोटी थी! अब बधाई मेरी तरफ! और मैंने कांपते हाथों से उसको लिया अपने हाथों में! अब मैंने खोलकर देखा उसका पहला पृष्ठ! खोला तो चार बिंदु बने हुए थे, लाल रंग की स्याही थी वो! स्याही भी ऐसी थी कि कहीं से भी फीकी नहीं पड़ी थी! 

गाढ़ी स्याही थी, लिखने वाले ने कमाल कर दिया था। लेखन में सिद्धहस्त रहा होगा वो! इसमें कोई संदेह नहीं था! भाषा ब्राहमी ही थी, मैंने पढ़ी है ब्राहमी, पठन भी किया है और लेखन भी! पढ़ लेता हूँ मैं, लेकिन कुछ शब्द ऐसे थे, जो मेरी समझ से बाहर थे! कम से कम तीन-चार सौ साल पुरानी तो रही होगी वो! अधिक भी हो सकती थी! जिसने भी रखी थी वो, बहूत संभाल कर रखा गया था उसने! "ये है वो पाण्डु-लिपि!" बोले बाबा! 

और फिर एक डायरी दी मुझे, वो उसी पोटली में थी, रुई के नीचे, इसमें उसका हिंदी अनुवाद था, जो बाबा अलखनाथ ने उन प्राध्यापक से करवाया था! उसमे ऐसे ऐसे नाम लिखे थे, जो मैंने कभी सुने ही नहीं थे! लेकिन ये पाण्डु-लिपि थी किस विषय में? मैंने उस डायरी को खंगाला तभी, लेकिन समझ नहीं आया, डायरी को पूरा पढ़ना ज़रूरी था, पूरी जानकारी के लिए पढ़ना ज़रूरी था उसको! "आप ये डायरी रख लीजिये अपने पास, पढ़िए इसे" बोले वो! "हाँ, पढ़ना पड़ेगा इसको, काफी जानकारियां हैं इसमें!" कहा मैंने! "रख लीजिये" बोले वो, तो मैंने डायरी रख ली, और वो पाण्डु-लिपि दे दी उनको वापिस, उन्होंने उसको संभाल कर रख 

लिया उसी तरह जैसे खोला था उसको! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर बाबा शिवराम खड़े हुए, प्रणाम किया और चले गए वहाँ से! "कमाल की चीज़ है!" मैंने कहा, "हाँ, मेरी समझ से बाहर है!" बोले हंस के वो! "मैं पढ़ता है इस डायरी को, फिर समझता हूँ!" कहा मैंने! "हाँ, पढ़िए आप" बोले वो! अब बचा-खुचा सामान भी खत्म कर लिया हमने! निबट गए तो अब खड़े हए! "आज यहीं रुक जाइए?" बोले बाबा! "रुक तो जाते, लेकिन, बाबा कुलेश्वर से भी मिलना है" कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो 

और फिर हमने विदा ली उनसे! आ गए बाहर, नौ से थोड़ा अधिक समय था उस समय, अब सवारियां पकड़ पकड़, हम जा पहुंचे बाबा कुलेश्वर के स्थान पर! अंदर पहुंचे, कक्ष खोला, गुसलखाने गया मैं और हाथ-मुंह धो लिए, उसके बाद बिस्तर पर आ बैठा, फिर शर्मा जी भी चले गए अंदर, और सहायक आ गया, खाने की पूछी, तो हाँ की, और थोड़ी देर में ही खाना आ गया, खाना खाया और अब सोने के लिए बिस्तर पकड़ा! सुबह हुई, नहाये-धोये! चाय-नाश्ता किया! 

और चले चटाई लेकर, बगीचे में! मैंने चटाई बिछाई और साथ में जो डायरी लाया था अपने, अब पढ़ना शुरू किया उसको! करीब आधा घंटा पढ़ा मैंने! "किस विषय में है?" पूछा शर्मा जी ने, "इसमें एक स्थान के बारे में बताया है" कहा मैंने, "कौन सा स्थान?" पूछा मैंने, "इसमें लिखा है कि वो स्थान यहां से उत्तर में है कोई दो सौ किलोमीटर" कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो! "किस बारे में है ये स्थान?" पूछा उन्होंने, "किसी किम्पुरुष उल्यौरमा के विषय में है, इसी का स्थान है ये!" बोला मैं! "कमाल है!" बोले वो! "हाँ!"मैंने कहा! "तो क्या बाबा अलखनाथ गए थे वहां?" पूछा उन्होंने! "गए थे शायद" का मैंने, 

"मिल गया वो स्थान?" बोले वो, "ये नहीं लिखा" मैंने कहा, "ये उलुयौरमा कोई किम्पुरुष रहा होगा, शायद कोई देवता उनका?" बोले वो, "हाँ, हो सकता है" कहा मैंने, "तब तो रहस्य है!" बोले वो! "हाँ, ये तो है" कहा मैंने, "और क्या लिखा है?" पूछा उन्होंने, "अभी पढ़ रहा हूँ" कहा मैंने, "पढ़िए जल्दी!" बोले वो! "आप पढोगे?" पूछा मैंने, "मुझे समझ नहीं आएगा" बोले वो! "चलो, मैं पढ़ता हूँ" कहा मैंने, "हाँ, पढ़िए" बोले वो, 

अब मैंने आगे पढ़ना शुरू किया, करीब आधा घंटा और पढ़ा! मुझे तो हैरत होती रही! "कुछ लगा पता?" बोले वो! "अजीब सी बात है!" कहा मैंने, "क्या?" बोले वो, "लिखा है, कि किम्पुरुष को सिद्ध किया जा सकता है!" कहा मैंने, "क्या?" पूछा मैंने, "हाँ, यही लिखा है!" कहा मैंने, "और उदेश्य?" पूछा उन्होंने, "धन, यश, काम और शक्ति -संचरण!" कहा मैंने! "ऐसा?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने! "बाबा अलखनाथ, इसलिए गए थे वहाँ?" बोले वो! "सम्भव भी है" कहा मैंने, "कभी मूर्ति अथवा चित्र देखा यही आपने किसी किम्पुरुष का?" पूछा उन्होंने, "हाँ, देखा है!" बोला मैं, "कैसा स्वरुप होता है?" बोले वो! "बहुत सुंदर! कामुक होती हैं इनकी सुन्दरियां! दिव्यता से पूर्ण!" कहा मैंने! 

"इनका उल्लेख कहाँ है?" बोले वो, "है, लेकिन हम पढ़ते नहीं उसे!" कैसे? "जानते हो, कुबेर के धन-रक्षक ये किम्पुरुष ही हैं?" कहा मैंने, "क्या? यक्ष नहीं?" बोले वो, "मैंने पढ़ा है ऐसा!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोले वो! "आज भी थाईलैंड, मलेशिया आदि देशों में, बड़े बड़े


   
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श्रीशः उपदंडक
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बौद्ध-मठों में इनकी मूर्तियां हैं!" कहा मैंने! 'तो इनका वास कहाँ है?" बोले वो, "प्राचीन उल्लेखों में, हिमालय इनका वास माना जाता है!" मैंने कहा, "अच्छा!" बोले वो! "किम्पुरुष और नागों के बीच संधि हुई थी!" बताया मैंने! "किसलिए?" पूछा उन्होंने, "ये सुपर्णा या सुर्पण नागों के शत्रु थे, और किम्पुरुष उन सुपर्णा के!" कहा मैंने! "अच्छा! शत्रु का शत्रु मित्र!" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने! "तो हिमालय भी आज भी स्थान होंगे इनके?" पूछा उन्होंने, "अवश्य ही होंगे!" कहा मैंने! "अब तो ढक-ढका गए होंगे। वनस्पतियों में!" बोले वो! "हाँ, और प्राचीन रास्तों का अब कोई नामोनिशान ही नहीं शेष!" कहा मैंने! "हाँ, और पहाड़ों पर भू-स्खलन चलता ही रहता है!" बोले वो! "हाँ, लेकिन ये स्थान ऐसा है, जहाँ हम जा सकते हैं!" बताया मैंने! 'सच में?" बोले वो! हाँ, लिखा तो यही है!" कहा मैंने, 

और डायरी, फिर से खोल ली! मैं वो डायरी पढता रहा! अब तो जैसे कोई रहस्य सा छाने लगा था इस डायरी में! मैं अब एक एक शब्द गौर से पढ़ने लगा था! एक एक शब्द रहस्य लपेटे हुए था अपने अंदर! एक एक शब्द के अंदर, एक रहस्य था! इसीलिए अब मैं गौर से पढ़ने लगा था उसका एक एक शब्द! मुझे एक जगह पढ़ने को मिला कि जिस जगह का ज़िक्र इस डायरी में था, उसका नाम जावटा था, जावता अब है या नहीं, पता नहीं, शायद कोई गाँव हो! हो आज भी, और ये भी लिखा था कि ये जावटा, दो पहाड़ियों के बीच में था! उसके पूर्व और पश्चिम में छोटी पहाड़ियां थीं, और ये जावटा आबादी से दूर एक स्थान था, अक्सर यहां कई 'पहुंचे हुए' लोग आया करते थे! कुल मिलाकर, ये एक मंदिर 

की तरह से था, मंदिर जो कि उस उलयौरमा को समर्पित था, ये मंदिर, कहते हैं, किसी पहुंचे हए साधक ने बनवाया था, इसमें नाम का भी उल्लेख था उस साधक का, शम्पायन नाम था उसका, लेकिन नाम का उच्चारण अलग भी हो सकता है, ये शम्पयन भी हो सकता है और अन्य कुछ और भी, बाबा लखनाथ इस जावटा तक पहुँच चुके थे, डायरी में तारीख भी लिखी थी एक जगह, हाशिये के पास, कोई वर्ष भर पहले की रही होगी! अब जैसे जैसे आगे पढ़ता गया, एक नया नाम 

आया एक और किम्पुरुष का! ये नाम था त्राजिरि, नाम तो यही था, लेकिन ये स्त्री थी! एक किम्पुरुष स्त्री! रहस्य बढ़ा! और मैंने और आगे पढ़ा, मैं साथ ही साथ ऐसे नाम लिखता जा रहा 

था, मैंने नाम लिखा तो शर्मा जी ने उसको पढ़ा! "नाजिरि!" बोले वो! "हाँ जी!" कहा मैंने, "कौन हैं ये त्राजिरि?" पूछा उन्होंने! "कोई किम्पुरुष स्त्री है!" मैंने कहा, "अच्छा! कोई विशेष है?" पूछा उन्होंने! "शायद, विशेष ही है!" कहा मैंने, "अब लिखा है तो होना भी चाहिए" बोले वो! "हाँ, होना भी चाहिए" बोला मैं! "पढ़िए और आगे!" बोले वो! "हाँ, पढ़ता हूँ" कहा मैंने, "अरे एक मिनट!" बोले वो! "हाँ?" कहा मैंने, "ये जावटा क्या है?" पूछा उन्होंने, "ये एक जगह है" बताया मैंने, "कहाँ है?" बोले वो, "दो सौ किलोमीटर दूर है यहां से!" कहा मैंने, "अच्छा, आज भी है?" पूछा उन्होंने, "पता नहीं ये तो" बोला मैं, "क्या अलखनाथ पहुंचे थे


   
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वहां?" पूछा उन्होंने, "हाँ, पहुंचे थे!" कहा मैंने, "अच्छा, क्या मिला?" पूछा फिर, "अभी नहीं पढ़ा इस बारे में!" कहा मैंने, "अच्छा! पढ़िए फिर!" बोले वो! 

और तभी दनदनाती हुई मेघा आ पहुंची! "चाय पीनी है?" पूछा उसने, "हाँ, मेहरबानी होगी।" कहा मैंने, "वो तो होगी ही!" बोली वो! "कर दो जी मेहरबानी!" मैंने कहा, "ठीक है!" बोली और चली गयी! "गुस्सा और तुनक! हमेशा नाक पे!" बोला मैं! "अच्छा है! ये ऐसे ही सुखी रहे हमेशा!" बोले वो! "हाँ! हमेशा!" कहा मैंने! मैं पढ़ने लगा, और फिर एक पंक्ति आई, मैं तो उठ बैठा! चकित हो गया! "क्या हुआ?" पूछा उन्होंने! "ये त्राजिरि, इन उलयौरमा की पत्नी हैं!" कहा मैंने! "अरे! जोड़ा है?" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने! "अब समझा!" बोले वो! "क्या?" पूछा मैंने, "ये जगह है जावटा! जावटा में इनकास्थान है!" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने! "और बाबा यहीं गए थे!" बोले वो! "हाँ!" मैंने कहा, "तो, गए किसलिए थे?" पूछा उन्होंने! "अब यही तो पढ़ रहा हूँ!" कहा मैंने! "तो जल्दी पढ़ो?" बोले वो! "पढ़ तो रहा हूँ?" कहा मैंने! मैं पढ़ने लगा फिर! कोई दस मिनट बीते, मेघा आ गयी! दे दी चाय, साथ में कुछ बिस्कुट लायी थी! हमने ले ली, और चली गयी फिर, तुनकते हुए! 

और मैं, पढ़ता रहा! एक एक शब्द! एक एक पंक्ति ! 

और फिर एक जगह रुक गया! "क्या हुआ?" पूछा उन्होंने, "ये लेखक!" कहा मैंने! "क्या हआ ऐसा?" पुछा उन्होंने, "ये भी गया था वहां!" बोला मैं! "क्या?" बोले वो! "हाँ, गया था!" कहा मैंने! "ये लेखक कौन है?" पूछा मैंने, "ये अपने आपको दारुज लिख रहा है!" कहा मैंने, "ये भी किरात है?" बोले वो, "अभी तक तो नहीं लिखा" मैंने कहा, "ये क्या करने गया था?" पूछा उन्होंने, "देखने वो स्थान" कहा मैंने, "उसे पता कैसे चला?" पूछा उन्होंने, 

अब देखा मैंने उनको! "अभी नहीं पढ़ा!" कहा मैंने! "क्यों बार बार छील देते हो फिर? पढ़ो आगे!" बोले वो! मैंने चाय ली, चाय पीते पीते पढ़ने लगा! करीब बीस मिनट पढ़ी! चाय ख़त्म की, 

और एक जगह फिर रुक गया! "अब क्या हुआ?" पूछा उन्होंने! "ये शम्पायन............" कहा मैंने, "क्या?" बोले वो, "तो किरात नहीं था!" बोला मैं! "ये तो हैरानी की बात है!" बोले वो! "हाँ, तो उसको पता कैसे चला?" पूछा मैंने अपने आप से ही! "चला होगा किसी से?" बोले वो, "हाँ, सम्भव है" कहा मैंने, "और तो और,शम्पायन के संग उसकी दो पत्नियां भी थीं!" कहा मैंने, "अच्छा! क्या नाम लिखे हैं?" पूछा उन्होंने, "रिपदा और अनवि!" कहा मैंने! 

"वाह, बढ़िया नाम हैं!" बोले वो! "हाँ, हैं!" कहा मैंने! "तो ये तीन वहां पहुंचे थे, इन्होने ही वो स्थान बनवाया था!" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने! "लेकिन ये शम्पायन आये कहाँ से थे?" पूछा मैंने, "अब ये नहीं पढ़ा अभी तक!" बोले वो! "साँसें अटका देते हो! पढ़ो फिर!" बोले वो! 

और मैं लेटा फिर! डायरी खोली! 

और पढ़ने लगा! करीब दस मिनट बाद, उठा! अचानक ही! "क्या मिला?" पूछा उन्होंने! "ये शम्पायन आज के उत्तराखंड के थे! और गाँव का नाम भी है उनके यहां! यहाँ से मंदाकिनी नदी पश्चिम में तीस मील पर बहती है!" बोला मैं, "अच्छा! कोई जिला आदि?" पूछा उन्होंने,


   
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"यहां तो पुराना सा नाम लिखा है!" मैंने कहा, "क्या?" पूछा उन्होंने, "धन्निकापुर!" मैंने कहा, "पता नहीं, अब होगा या नहीं?" कहा उन्होंने! "हाँ पता नहीं!" मैंने कहा, "शम्पायन वहाँ से वहाँ गए, अपनी दोनों पत्नियों के संग!" बोले वो! "हाँ! और एक बात और!" कहा मैंने! "वो क्या?" पूछा उन्होंने! "शम्पायन की एक पत्नी किरात थी!" बोला मैं! "क्या?" हैरत से पूछा उन्होंने! "हाँ, किरात!" कहा मैंने, "ये तो हैरत है!" बोले वो! "रहस्य और गहरा गया है!" कहा मैंने! 

और सच में,रहस्य का कुआं और गहरा हो गया था! अभी तक कुछ बातें विशेष निकली थीं, पहला, जिनसे वोस्थान बनवाया वो जाटवा, वो शम्पायन थे! शम्पायन की दो स्त्रियां थीं, पत्नियां, रिपुदा और अनवि,अनवि किरात स्त्री थी, तीन 

किम्पुरुष अभी तक आये थे, जिनका उल्लेख हुआ था अभी क, एक उलुयौरमा, ये पुरुष थे, एक देव, अभी तक तो देव ही थे, दो स्त्रियां, उनकी पत्नियां, एक ब्राजिरि और एक हिना! ये आये थे अभी तक! इनको शम्पायन ने प्रकट किया था, शम्पायन को ये ज्ञान एक किरात स्त्री नेसा ने दिया था, और जैसा कि लगता है, नेसा एक पहुंची हुई साधिका रही होगी, अब एक प्रश्न और, ये शम्पायन ही क्यों? जबकि वो तो किरात भी न थे? कोई किरात ही क्यों नहीं? दिमाग ऐसे उबल रहा था जैसे खौलता हुआ पानी! अब देखिये! एक हथौड़ा और! अब वो स्त्री कौन थी, जिसने ये पाण्ड-लिपि बाबा अलखनाथ की साध्वी को दी थी? अब पता नहीं वो जीवित भी थी या नहीं! सवाल ऐसे, सफेदे के पेड़ जैसे लम्बे! न चढ़ा जाए, न देखा जाए! कहाँ ला पटका था हैं भी इन बाबा बिंदाने और बाबा शिवराम ने! तभी मेरी सांस थमी! ये क्या? क्या पढ़ रहा हूँ मैं? क्या सच में? क्या किम्पुरुष आज भी वास करते हैं? क्या साक्षात्कार सम्भव है? ये क्या लिखा है? क्या अनुवाद सही है? क्या आज भी, हिमालय में, ये किम्पुरुष, हैं? कैसे मान लूँ? कैसे? कोई प्रमाण? अब पढ़ा! और पढ़ा! मकालु? ये क्या है? हाँ! हाँ! सुना है, ये नेपाल और चीन की सीमा पर है, एक पर्वत! एक छोटी, हिमालय की! पूर्व में! सुना है! सुना है, वहाँ महामुनि विश्वामुनि ने एक महायज्ञ किया था। संभव है, त्रिशंकु के लिए! उन ग्रंथों में एमकालुकी कहा गया है, कहीं ये वही तो नहीं? अब तो दिमाग में रस्सी जैसी ऐंठन पड़ी! क्या सारे रहस्य मेरे माथे ही पड़ेंगे? और ये रहस्य तो ऐसा, कि दिमाग पड़ जाए कुन्द! "शर्मा जी?" बोला मैं, 

"क्या?"बोले वो, "मकालु!" बोला मैं, "अब ये क्या है?" बोले वो। "एक पर्वत-चोटी!" कहा मैंने! "चोटी, भारत में ही है या कहीं और?" बोले वो, "भारत में नहीं, चीन-नेपाल के पूर्वी बॉर्डर पर है!" कहा मैंने, "तो?" बोले वो, "तो ये कि, किम्पुरषों की राजधानी यहीं थी!" मैंने कहा, "क्या कहते हो?" बोले वो! "हाँ, ये डायरी तो यही कहती है!" कहा मैंने! "इसका क्या अर्थ हआ?" बोले वो, "यही कि, मूसल खाओ और" कहा मैंने! "खाओ जी, खाओ!" बोले वो! "खा रहा हूँ" कहा मैंने, "अनुवाद सही है?" बोले वो, "सही है, लेकिन नाम क्या हैं, ये नहीं पता!" बोले वो, "आप सही तो उच्चारण कर रहे हैं?" बोले वो, "मैं संस्कृत शैली अपना रहा हूँ!" कहा मैंने! "तो सही है!" बोले वो! 


   
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