वर्ष २००९ होजई असम ...
 
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वर्ष २००९ होजई असम की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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ये अप्रैल माह की बात होगी जहां तक मुझे याद है, मुझे अपने गुरुभाई, ज्वाला नाथ, के पास आये हुए कोई तीन दिन ही हुए होंगे, उन्होंने मुझे बताया की उन्होंने एक बार मार्च में होलिका-दहन रात्रि को बेताल-साधना करने की सोची थी, लेकिन उस बेताल ने सब-कुछ वहाँ तबाह कर दिया था! गलती उन्ही से हो गयी थी, उन्होंने साही( एक जानवर होता है जिसके शरीर पर कांटे होते हैं, ये कांटे वो अपने बचाव में प्रयोग करता है) का मांस नहीं चढ़ाया था! बेताल ने न केवल उनको पीटा, मारा उठा उठा कर वरन उनसे उनकी शक्तियां भी छीन लीं थीं और बाकी बची हुई शक्तियों को कील दिया था! अब ये केवल नाम के ही ज्वाला नाथ रह गए थे! ये बात केवल मुझे और उनकी धर्मपत्नी को ही मालूम थी! पहले तो मै ये सुनके हंसा फिर मैंने उसने पूछा, "भाई ज्वाला! तुमसे ये भूल कैसे हो गयी?"

"भाई, मै क्या बताऊँ, बुद्धि-हरण हो गया था, काठ मार गया था बुद्धि को मेरी! मैंने सब-कुछ इकठ्ठा कर लिया था लेकिन वो साही का मांस मेरे दिमाग से निकल गया!"

"आपके साथ और कौन था?"मैंने पूछा,

"कुंदन और सरभंगनाथ" उसने जवाब दिया,

"फिर भी गलती हो गयी?" मैंने हैरत से पूछा!

"हाँ भाई, जब बेताल ने मारना शुरू किया तो कुंदन वहां से भाग पड़ा रह गया सरांग, तो उसकी भी वही हालत हुई जो मेरी" उन्होंने कहा!

इसके बाद थोड़ी और बातें हुई और फिर मैं शर्मा जी के साथ एक अलग बने कमरे में आ गया, थोड़ी देर बाद ज्वाला और सरभंग मेरे पास आने वाले थे 'सामान' लेके और बाकी बातें वहाँ करनी थी हमे!

ये घटना है असम की, लम्बी थकाऊ यात्रा करने के बाद मै उनके डेरे पर पहुंचा था! ये ज्वाला जाथ मेरे साथ ही पढ़ाई करते थे तंत्र की, लेकिन गुरु महोदय ने अपने वर्गीकरण में उसको २५ में से १३ का दर्जा देकर मुक्त कर दिया था, इससे आगे अगर वो साधना करते तो उनके स्वयं के प्राण जाने की १०० प्रतिशत संभावना थी! चूंकि, वो मेरे गुरु-भाई थे अत: उनके बुलाने पर मै उनका निमंत्रण ठुकरा नहीं सकता था, इसीलिए शर्मा जी को लेके यहाँ आया था!

ये साधना थी बेताल-साधना! अत्यंत तीक्ष्ण! दुष्कर साधनाओं में से एक होती है! इसे क्लिष्टतम और प्राण-हरण साधनाओं में रखा गया है! ये है असितांग-बेताल-साधना! ये बेताल माह की दोनों अष्टमी, अर्थात कृष्ण-पक्ष और शुक्ल पक्ष की रात्रि को द्वितीय पहर में, साढ़े सात घटियों तक, अर्थात तीन घंटे तक, एक घटी का मान २४ मिनट होता है, जंगल में लूंठ पड़े सेमल वृक्ष पर प्रकट होता है!

ये उस वृक्ष पर दक्षिण की ओर उल्टा लटका रहता है! इसके केश लम्बे होते हुए भी भूमि को स्पर्श नहीं करते, बल्कि एक फर्श केसमान भूमि पर फैल जाते हैं! ये एक घटी अट्टहास और एक घटी आलाप-विलाप करता है! ये उन्मुक्त शक्ति है! इस पर किसी का जोर नहीं! कोई भी मंत्र इसको बाँध नहीं सकता! ये अगर प्रसन्न होता है तो महा-सिद्धि प्राप्त होती है और अगर क्रोधित हो गया तो आपकी


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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सारी शक्तियों को आज़ाद करा देता है, अंग-भंग कर देता है! ताकि दुबारा कोई सिद्धि करने लायक ही न बचे कोई साधक! जैसे पशुओं में सांड उन्मुक्त है ऐसे ही ये बेताल है इस पारलौकिक शक्तियों में ज्वालानाथ ने इसी से मार खायी थी और उसकी 'झोली' फाड़ दी थी!

अब ज्वालानाथ ये चाहता था की मै उस बेताल को प्रसन्न करूँ और ज्वाला नाथ की शक्तियां पुनः स्थापित करूँ मै और शर्मा जी अन्दर बैठे हुए आपसी बातें कर ही रहे थे कि ज्वाला और सरभंग वहाँ आ गए, अपने साथ 'सामान' लाये थे वो, भूनी हुई मछली और देसी मदिरा! हमने खाना खाना शुरू किया, सरभंग ने मुझे देखा और बोला, "गुरुजी, आप को बुलाने का मकसद यही है कि आप उस बेताल को प्रसन्न करो और हमको हमारा ‘राज' मिले, नहीं तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं हैं अब तो हम!" और फिर वो हंस पड़ा!

"भाई, आजसे २ दिनों के बाद अष्टमी है, आप जैसा कहोगे हम वैसा कर देंगे, लेकिन हमको इस समस्या से उबारो, आप मुझे बता देना कि क्या क्या चाहिए, सब कुछ मिल जाएगा आपको! आप कोई 'शौक़' तो रखते नहीं, नहीं तो डेरे में एक जोगन है दीमा, अभी महीने भर पहले कटुमा बाबा के डेरे से यहाँ आई है! आप एक बार देख लीजिये, थकावट उतार देगी आपकी!" उसने एक कुटिल मुस्कान भर के ऐसा कहा!

"नहीं भाई ज्वाला, ये तुम लोग जो हो न, सही नहीं करते! उसको रहने दो वहीं, कटुमा के डेरे में ये कोई नयी बात नहीं हैं!" मैंने ये कह के अपना गिलास खाली किया!

"मै तो आपकी सेवा के लिए कह रहा था, लेकिन भाई अभी भी तुम वैसे के वैसे ही हो! कोई 'पाली' अभी तक या नहीं?" ज्वाला ने पूछा,

"नहीं ज्वाला, न तो कोई 'पाली' आज तक और न कोई इरादा है!" मैंने जवाब दिया

इतने में सरगंग उठा और बाहर गया, वहाँ से एक बोतल और ले आया, वो भी खुल गयी!

"सुनो भाई, वो जो बेताल है न? वो कर्क-क्षुधा तक कुछ नहीं बोलता, लेकिन इसके खतम होते ही पेड़ से नीचे कूद जाता है, भयानक अट्टहास करता है!" ज्वाला बोला,

"तुमने कर्क-क्षुधा प्रयोग की थी? मैंने पूछा,

"हाँ भाई, की थी, और तो वो कुछ सुन ही नहीं रहा था, बस रोये जा रहा था" सरभंग बोला अब,

"अच्छा!" मैंने गर्दन हिला के सहमति जताई!

कर्क-क्षुधा का अर्थ है कि जैसे सोते हुए को आप उसके कान में सीटी बजा के जगाएं। इस कर्क-क्षुधा में व्यंजन की सुगंध उस सीटी के समान ही है!

"सरगंग? जब ज्वाला उसको भोग दे रहा था, तब तू क्या कर रहा था?" मैंने सरभंग से पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"देखिये, जब बेताल ने अपना भोग वहाँ देखा तो वो सामने आया, उसने अपने हाथ में थाल लिया, लेकिन उसको फेंक के मारा! वो फिर से उछल कर शाख पर चला गया! मैंने तब दुबारा से वो 'चटनी' थाल पर मली, और सामान रखा, वो फिर नीचे कूड़ा, हमारी ओर आया, उसने फिर थाल लिया और फिर से नीचे गिरा दिया, वही से पीछे कूदा और फिर शाख पर लटक गया! अब की उसने अट्टहास किया!" सरभंग ने बताया,

"अबे ओसरभंग! ओ ज्वाला! उसने २ बार  थाल नीचे फेंका, और तुम्हे समझ में नहीं आया? वो तुमको दो बार चेतावनी दे गया!" मैंने ज्वाला के सर पर एक थाप मारके कहा!

"ओह! और मैंने सोचा कि उसको वो 'सामान' पसंद नहीं आया!" ज्वाला ने कहा,

"अरे भाई उसने जब पहले थाल देखा तो उसमे साही का मांस नहीं था, इसीलिए उसने थाल फेंका, दुबारा तुमने उसको बुलाया, उसने फिर थाल फेंक दिया! यही न?" मैंने ज्वाला से पूछा,

"हाँ! हाँ! यही हुआ" ज्वाला ने अपनी गर्दन अजीब तरीके से हिला के कहा!

"तो तुम साही का मांस ले जाना कैसे भूल गए?" मैंने ज़रा जोर से पूछा,

"भाई, हमारे पास मांस तो आया था, और साही का ही कह के आया था, लेकिन बाद में पता चला वो साही का मांस नहीं, बिज्जू का मांस था! यहीं मार खा गए हम!" ज्वाला ने बताया,

"तीसरी बार क्या हुआ?" मैंने हंस के पूछा!

"मत पूछो भाई मत पूछो! वो नीचे आया, उसको फिर से थाल दिया, अब के उसने थाल नहीं पकड़ा, उसने थाल को देखा और मुझे उठा के साथ वाले खेत में फेंक दिया! ये सरभंग वहाँ से भागा तो इसको भी इसकी कमर से पकड़ कर खेत में फेंक मारा! वहाँ कीचड थी सो बच गए! जब तक हम उठे, वो वहाँ आया और मेरे और सरभंग के सर पर अपने बाल फैला गया! सब ख़तम कर दिया उसने भाई! सारी मेहनत तबाह हो गयी हमारी! अब हम कुछ करते तो समय समाप्त हो गया!" ज्वाला बोला!

अब हम लोगों का बात करते करते'सामान' भी ख़तम हो गया था! उन दोनों को मैंने बाहर भेजा और शर्मा जी और मै भी लेट गए, नींद का आगोश था और थकावट भी काफी थी, लेटते ही निंद्रा-लोक में विचरण करने लग गए हम दोनों!

सुबह हमारी आँख ज़रा देर से खुली नित्य-कर्मों से फारिग होके मै और शर्मा जी ज़रा टहलने के लिए बाहर आये, काफी शान्ति वाली जगह थी ये! प्रकृति का सौन्दर्य अभिभूत करने वाला था! जंगली फूल खिले हुए थे, वातावरण में वनस्पतियों की गंध फैली थी! पेड़ों की शाखों पर पक्षी उछल-कूद रहे थे। उनकी आवाजें बेहद सुकून देने वाली थीं. हम थोडा और आगे बढे! और आपस में बातें करते करते चहलकदमी करते रहे! टहलने के बाद वापिस वहाँ आ गए! वहाँ हमको चाय और थोडा पनीर खाने को दिया गया! चाय पीने के बाद हम वापिस अपने कमरे में आये, मेरे पीछे सरभंग भी आ गया, और उसके बाद ज्वाला भी, ज्वाला बोला," भाई जो भी वस्तु आपको चाहिए, वो इसको लिखवा दो, मै सारा प्रबंध करवा दूंगा"


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ठीक है, मै अभी लिखवाता हूँ, रुको ज़रा" मैंने कहा, मैंने अपना बैग देखा और जांचा कि क्या वस्तु कम है, उसके बाद मैंने सरभंग को लिखवाया, "सुनो सरभंग, सबसे पहले किलो भर साही का मांस चाहिए, तुम आज ही साही का प्रबंध करवा लो, ५ घड़े देसी शराब, ५ मुर्गे देसी लाल वाले, ५ देसी बत्तख, ५ देसी खरगोश और ५ सौली जिंदा मछलियाँ, ये सब मुझे २ दिनों के बाद यहाँ से निकलने से पहले चाहिए, छिले हुए, देरी नहीं करना ज़रा भी, अब देरी हुई तो मै वहाँ नहीं जाऊँगा, और अगली अष्टमी तक प्रतीक्षा नहीं करूंगा, मै अगले ही दिन यहाँ से चला जाऊँगा!"

"नहीं, देरी नहीं होगी, आप निश्चित रहें! उसने कहा और बाहर चला गया,

"गुरु जी, मामला खतरनाक है, आप भी ध्यान रखना!" शर्मा जी बोले,

"घबराओ नहीं शर्मा जी!" मैंने कहा!

इसके बाद फिर मै और शर्मा जी अपने सामान को जांचने लगे, कुछ कम नहीं पड़ना चाहिए था, नहीं तो मुसीबत गले पड़ सकती थी, जो सामान नहीं था वो नोट कर लिया गया, जो चाहिए था अतिरिक्त वो भी नोट कर लिया!

और फिर ऐसे ही अष्टमी आ गयी! उस दिन मै सुबह ११ बजे से ४ बजे तक अलख में ही बैठा रहा, शर्मा जी को भी तैयार करना था, उनके लिए मैंने विशेष रक्षा-सूत्र बनाए और उनको एक एक करके मैंने उनके दोनों हाथों, बाजुओं, कमर, पांवो में बाँध दिया, और फिर मैंने भी ऐसा किया!

हमको एक विशेष टीका बनाना था, जिसको हमने अपने माथे और गले पर लगाना था, इसमें साधक का रक्त, उसके प्रयोग करने वाले का रक्त और किसी स्त्री का दूध, बाएं स्तन का, चाहिए होता है, ज्वाला दूध लेके आ गया था, मैंने उस टीके का मिश्रण तैयार किया और एक बर्तन में भर के रख लिया, ये बर्तन मैंने वहीँ अलख के पास ही रखा,

जब रात्रि हई तो मै शर्मा जी, सरभंग और ज्वाला, सारा आवश्यक सामान लेकर चल पड़े, और वहाँ जंगल में सेमल के लूंठ वृक्ष के नीचे आये, यहाँ मैंने अपने स्थान हेतु सरभंग और ज्वाला से साफ-सफाई करवा दी, साधना समय सरभंग और ज्वाला को वहाँ नहीं ठहरना था! इसीलिए मैंने उनको  ६४ कदम दूर रहने को कहा, वो वहाँ चले गए,

अब मैंने औरशर्मा जी ने संपूर्ण वस्त्र उतारे, चिता-भस्म मली, तंत्राभूषण धारण किये और उस टीके को अपने माथे और गले पर धारण कर लिया! ७ घड़े शराब वहाँ रख दी गयी, मुर्गे, बत्तख, खरगोश, और वो ५ जिंदा सौली मछलियाँ वहाँ हाथ भर की दूरी पर रख दी, अब मैंने अलख उठानी शुरू की! मंत्रोचारण आरम्भ किया! अलख भड़की तो मैंने मांस, शराब आदि का भोग अलख को दिया! अलख अब जोर पकड़ने लगी थी! रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्त होने को था!

सबसे पहले मैंने शर्मा जी को अपने दायें हाथ के पास बिठाया और उनसे एक ताम्बे के थाल में साही का मांस परोसवा दिया! किसी भी बेताल को साही का मांस अत्यंत पसंद होता है, इसकी खुशबू से ही वो खिंचा चला आता है! मैंने वो मांस अपने आगे रखा और उसका पूजन आरम्भ किया! सौली मछलियाँ एक भगोने में तैर रहीं थी, इनका कार्य सबसे अंत में था, मैंने घड़ी देखि, द्वित्य प्रहर आरम्भ


   
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श्रीशः उपदंडक
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होने में मात्र ८ मिनट बचे थे, वातावरण में अजीब से शान्ति हो गयी थी, मंझीरों ने भी बोलना बंद कर दिया था, तारों के प्रकाश से ज़मीन पर ओस के प्रतिबिम्ब मोती समान प्रतीत हो रहे थे! लूंठ-पेड़ कि शाखाएं किसी विशाल जीव का पिंजर सामान प्रतीत हो रहा था! मेरी अलख की रौशनी उसके ताने पर पड़ती हुई अठखेलियाँ कर रही थी! सहसा!!

सेमल-वृक्ष की दक्षिणी ओर एक मोटी सी डाल पर एक मुर्दा प्रकट हुआ! करीब २ मिनट तक कोई हरक़त नहीं की उसने फिर एक दम से हिलने लगा! उसका आकार बढ़ने लगा! उसके केश ज़मीन कि तरफ बढ़ चले और स्याह केशों ने पेड़ के नीचे एक स्याह फर्श बना दिया! अब उसने अट्टहास लगाया! अट्टहास लगाने से ठूंठ पेड़ की डालें भी चरमराने लगी! शहतीर तक हिल गया! मैंने मंत्र पढने शुरू किये! अब बेताल ने कर्ण-भेदी विलाप आरम्भ किया! उसके विलाप से मेरे यहाँ रखे बर्तनों में भरा पानी भी थिरकने लगा!

मै अलख कि एक लकड़ी लेके उसके ऊपर बत्तख की कलेजी लगा कर उठा! बेताल के समीप जाकर, मैंने वो लकड़ी ऊपर की तरफ कर दी! लटके हुए बेताल की गर्दन नीचे घूमी! उसने मुझे अपनी शफ़्फाक आँखों से घूरा! फिर उसने अपनी गर्दन वापस घुमा ली और जोर से अट्टहास किया! मैंने फिर से एक कलेजी और लगाई और उसको ऊपर किया! उसने फिर अपनी गर्दन नीचे झुकाई और इस बार अपना शरीर बढ़ा कर मेरे शरीर तक कर लिया! मै ज़मीन पर था और वो ऊंची शाख पर लटका हुआ!

उसने मुझे फिर से अपनी आँखों से घूरा बिलकुल शांत हो कर, उसके केश मेरे सर से टकराए, एकदम तपे हुए, काली-हल्दी किसे गंध लिए हुए! उसने नीचे छलांग लगाई, उसका शरीर कोई १२ फीट ऊंचा! गले में अस्थि-माल! बाजुओं में बाजू-बंध! वक्ष पर आवेध-आशूषण! उसने अट्टहास लगाया! कर्ण-भेदी अट्टहास! उसने फिर मेरे चारों ओर चक्कर लगाया और जैसे ही वो उड़ने लगा मैंने अपना त्रिभूल उसको दिखाया! उसका अट्टहास बंद हुआ! वो शांत हुआ और नीचे आ गया!

मैंने उसको नमस्कार किया! और मै पीछे पीछे बढ़ा जहां मेरी अलख जल रही थी, मै वहाँ आया! शर्मा जी ने भी साष्टांग जमस्कार किया!

फिर मैंने नीचे बैठते हुए उसको साही का मांस परोसा! यही असली घडी थी, यदि उसको पसंद आया तो ठीक नहीं तो मार खाने के लिए तैयार हो जाओ! उसने वो थाल पकड़ा, उसने उस थाल को अपने कन्धों तक रखा और फिर अपनी जीभ बाहर निकाली! लाल-रक्तिम जीभ कोई २ फीट लम्बी! उसने उस जीभ से उस मांस को छुआ और फिर एक अट्टहास लगाया! इसका अर्थ उसको मांस सही लगा था! ये मेरी पहली कामयाबी थी!

उसने वो थाल अपने मुंह पर लगाया और एक ही बार में सारा मांस अन्दर ले गया! उसने फिर एक अट्टहास लगाया! मैंने एक शराब का घड़ा उठाया और उसको दिया! उसने फिर मुझे देखा और घड़ा मुझसे छीन लिया! उसके इस घड़े को खाली करने से पहले उसको दूसरा घड़ा मिल जाना चाहिए अन्यथा वो हमको गुस्से में कहीं भी फेंक सकता था! मैंने इसी तरह जल्दी-जल्दी ५ घड़े उसको दे दिए! उसने सारे घड़े खाली कर के वहीं फेंक दिए! वो खुश हो गया था! उसको मैंने अब खरगोश का मांस दिया, उसने वो भी खा लिया! फिर मुर्गे और बत्तख भी! वो मस्त हुआ और ५ बार लगातार अट्टहास लगाया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अट्टहास लगाने के पश्चात, समस्त भोग लगाने के पश्चात उसने मुझे मेरी कमर से उठाया और अपने चेहरे की तरफ ले गया फिर उसने गर्जन करने वाली आवाज़ में बोला," ख़मख़म ठं ठं शंख-क्रियान्वे?????????????????????" इसका अर्थ ये कि मै आगे का मंत्र पूर्ण करूँ! मैंने कहा," क्रियादिपंताओ ठंठं हुम् फट्ट!"

उसने मुझे नीचे छोड़ दिया! फिर एक भयानक अट्टहास लगाया! वो नीचे झुका और उसके हाथ में एक छोटा सा पात्र आया! उसने वो पात्र मुझे दिया और देकर वापिस वहीँ उड़ चला! जहां से वो नीचे कूदा था! साढ़े सात घटी समाप्त होने में मात्र २ मिनट थे! मैंने आद्य-मंत्र पढने चालू रखे! २ मिनट के पश्चात वो बेताल जैसे अचानक आया था वैसे चला भी गया! मैंने ज्वाला और सरभंग को आवाज़ देकर बुलाया! उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था! वो दोनों मेरे पाँव में पड़ गए! मैंने तब एक मछली ली और उसके मुंह में बेताल के दिए पात्र की एक बूंद उसके मुंह में डाली और उसे ज़मीने में गड्ढा खोद कर गाढ़ दिया! फिर मैंने उस द्रव्य को चारों मछलियों के मुंह में डाल कर एक एक मछली सभी को बाँट दी! वो हम सभी को वहाँ, क्रियास्थल पर जिंदा खानी थी, तीन टुकड़े से अधिक किये तो फल नहीं मिलेगा! हमने वो जिंदा मछलियाँ खाली!

ज्वाला और सरभंग को खोया हुआ 'राज' मिल गया! मुझे बेताल को प्रसन्न कर स्वयं बेहद प्रसन्नता हुई! २ दिनों के बाद मै और शर्मा जी, वापिस दिल्ली आ गए!

हाँ! बेताल का दिया पात्र मैंने आते हुए श्री गंगा जी में बेताल-साधना मंत्र पढके जल में प्रवाहित कर दिया!

साधुवाद!

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