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वर्ष २००९, हनुमानगढ़ की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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तड़प से गए! मैंने समझाया उन्हें! 

नहीं माने वो! रुमाल मांगते रहे। मैंने रुमाल निकाला जेब से, 

और देखा, खूबसूरत रुमाल था! एकदम साफ़! लाल रेशम! किनारियां, 

सुनहरी थीं उसकी! लाजवाब नमूना था कारीगरी का! हाथ से बनाया हुआ! 

आज की आधुनिक मशीनों को के भी बसकी नहीं! सूरज साहब, गिड़गिड़ा रहे थे! तब मैंने कहा उनसे कि, मैं एक बार जांच लेता हूँ, फिर आपको ही दूंगा, लेकर नहीं भागूंगा! शर्मा जी ने, 

और सभी ने समझाया! और तब वे माने! कल सुबह, वो रुमाल दे देना था उनको! मेरे पास समय बहुत था! इबु को जाना था, सारी हक़ीक़त बे-पर्दा हो जाती! सूरज साहब की भी, और इस रुमाल की भी! हम उठे, वो रुमाल ले चले! सूरज साहब, शून्य में ताकते रह गए। 

हम आ गए वापिस, रास्ते से, भोग का सामान ले लिया! 

और आ गए अपने कमरे में, अब कमरे में, भोग सजाया, कमरा कीला, 

और शर्मा जी को बाहर भेजा! तब मैंने, इबु का शाही-रुक्का पढ़ा! इबु भइभड़ाता हुआ, मुस्कुराता हुआ, हुआ हाज़िर! उसने भोग लिया, वो रुमाल दिखाया, उसकी गंध ली, 

और उद्देश्य जान, उड़ चला मेरा सिपाहसालार! कोई पांच मिनट में ही, चमक बिखेरता हुआ वापिस हुआ! 

और जो कहने उसने बतायी! वो आप सभी जानते हैं! वो हवेली! 

वो नूर, 

नूर का ये रुमाल, नूर के इश्क में कैद ये सूरज साहब! सारा मामला समझ में आ गया! 

सूरज साहब की ये हालत, उनका रोना, गिड़गिड़ाना सब समझ गया मैं! अब बस, एक काम करना था! हमें अब खुद, 

मेहमान बनना था उस, हवेली का! राणा साहब की हवेली का! 

इन, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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सूरज साहब के साथ! अगले दिन की बात है, हम सुबह ही जा पहुंचे सूरज साहब के पास, 

वे तो जैसे, हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे! बेचैन! परेशान! अपने आप से बातें करते हए! बाहर ही मिल गए, भागे आये हमारी तरफ! मैंने जेब से वो रुमाल निकाल कर, 

दे दिया उन्हें! खुश! सारी तकलीफें खत्म! बड़े प्रसन्न! रुमाल को हाथ में रख, घूरे जाएँ उसे! ये थी प्रेत-लीला! 

और इस प्रेत-लीला में, सूरज साहब बुरी तरह से फंसे थे, न केवल फंसे थे, बल्कि बाहर भी नहीं निकलना चाहते थे! हम अंदर बैठे अब, 

वे भी हमारे साथ ही अंदर बैठे! अर्जुन की पिता जी भी वहीं बैठे थे, मैं निरंतर सूरज साहब के चेहरे को देखे जा रहा था, कई भाव आते, कई भाव जाते! "नूर" मैंने कहा, 

वो रुमाल लिए बैठे थे, उन्होंने सुना, तो चौंके, उठे, 

और मुझे घूरा! गौर से देखा, होंठ कंपकंपा गए उनके! वहाँ मौजूद, सभी जैसे सकते में आ गए! "नूर! कुछ याद है सूरज साहब?" मैंने कहा, 

वे चुप! सांप सूंघ गया उन्हें तो! मुझे ही देखे जाएँ! मैंने हाथ पकड़ा उनका, ठंडा हाथ था उनका, 

और बिठा लिया अपने साथ! वो सकते में थे! मैं कैसे जानता हूँ नूर को? डेढ़ साल में, ये कौन है, जो जानता है नूर को! कौन है? इसीलिए परेशान थे वो! मैंने उसके हाथ से रुमाल खींचा, उन्होंने कोई विरोध नहीं किया! "ये नूर का ही है न?" मैंने पूछा, इतना सुना उन्होंने, 

और आंसू बह निकले! गालों पर ढलक गए, दाढ़ी-मूंछे सब गीली हो गयीं! "बताओ?" मैंने पूछा, "हाँ! हां! नूर! वो नूर!" वे बोले, "मिलना चाहते हो?" मैंने पूछा, 

अब तो वो खड़े हुए! गंभीर! उनका वो स्वभाव देखकर, सभी हैरान! मित्रगण! उनकी विक्षिप्तता छू हो गयी थी! डेढ़ साल का वो अंतर समय का, अब टूट गया था! अब वो वापिस वहीं थे, वहीं! उसी हैवली में! "बताओ?" मैंने पूछा, "हाँ! हाँ!" वो बोले, बालकों की तरह से खुश होते हुए! "मेहर! उसके साथी, वे बारह लोग!" मैंने कहा, अवाका परेशान! लेकिन चेहरे पर, मुस्कराहट! "कब चलना है?" मैंने पूछा, "आज ही, आज ही!" वे बोले, आज ही! आज तेरस थी, अमावस के रोज वो हवेली रौशन होती! अभी एक दिन बीच में था! मैं खड़ा हुआ, वे भी खड़े हुए! मेरे निकट आ गए, मेरा हाथ पकड़ लिया, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और पाँव छूने लगे! मैंने हटा दिया उन्हें! तरस भी आया उनकी बुद्धि पर! "ठीक है! हम परसों चलेंगे! आप बालकों के लिए सामान आदि खरीद लीजिये तब 

तक!" मैंने कहा, वे खुश! अश्वनि को तमाम निर्देश दे डाले! अपने चाचा को होश में आये देख, बड़ा खुश हुआ अश्वनि! 

और अर्जुन के पिता जी ने तो, अपने नाखून ही चबा डाले! 

और फिर उन्होंने, एक के बाद एक, कई काम बता डाले मुझे! मैंने उन्हें भी तसल्ली दी! अब हम निकले वहां से, तो रोक लिया सूरज साहब ने! अब बहुत खुश थे वो! भागे आये, 

और गले लिपट पड़े! मैंने उन्हें भी तसल्ली दी, अभी बहुत बातें समझानी थीं उन्हें! अब तक तो बचा लिया था नूर ने, अब न जाने क्या बनती! कहीं पागल ही न नो जाएँ! ये भी ध्यान रखना था! हमने चाय-नाश्ता किया वहाँ, अश्वनि सामान ले आया था! हमने चाय पी, 

और फिर निकल आये, उस रोज हमने, शहर घूमा, 

और खाया-पिया, रात हुई, मदिरा का प्रबंध हुआ, खींच मारी! 

और सो गए! 

अगले दिन, सूरज साहब ने सारा सामान खरीद लिया, अब तो उनका दिमाग, किसी संयंत्र की तरह काम कर रहा था! 

वो एकदम सामान्य थे! भले-चंगे! 

और फिर मित्रगण! हुई शाम! 

और अब हुआ निकलने का समय! अर्जुन के पिता जी भी जाना चाहते थे, लेकिन ले नहीं जा सकते थे हम, कहीं एक और सूरज साहब न आ जाएँ फिर से! हाँ, उन्होंने गाड़ी दे दी थी अपनी, हम गाड़ी ले कर, चल पड़े, सारे रास्ते, सुरज साहब उस रुमाल को, देखते रहे! चूमते रहे! 

और खुश रहे! रास्ते में दो जगह रुके हम, चाय पी, ठंडा पिया, 

और फिर चल पड़े, जब पहुंचे, तो रात के नौ बजे थे! हम आ गए उनके गाँव के रास्ते पर! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब आगे का रास्ता, सूरज साहब ही बताते! वे आगे बैठे अब, अपनी उंगलियां नचा नचा कर, रास्ता बताते रहे! 

और फिर आ गया वो रास्ता! 

यादें, ताज़ा हो उठीं! हम मुड़ गए उस रास्ते पर! 

आज अमावस थी! प्रेतों की महफ़िल सजा करती है इस रात! 

और फिर आ गयी वो हवेली! दूर से दिख रही थी! रौशनी फैली थी उसमे! सूरज साहब तो गाड़ी का दरवाज़ा खोल, बाहर भागने को तैयार थे! मैंने पकड़ा उन्हें, उनकी नज़र उस हवेली की तरफ ही थी, मेरी बात सुन नहीं रहे थे! शर्मा जी ने समझाया उनको! मैंने भी समझाया! 

वो तो बस, नूर! 

नूर! 

यही बोले जा रहे थे। इस नूर ने बड़ा बुरा हाल किया था सूरज साहब का! अब जब, हवेली सामने थी, 

तो अब बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था उनसे! मैं समझ सकता था! उनकी हालत क्या है, 

जान सकता था! अब उन्हें समझाना था कुछ बेहद ज़रूरी! 

और फिर समझाना शुरू किया! उनको बता दिया कि ये हवेली, भुतहा है! प्रेतों की हवेली है। यहां इंसान नहीं, प्रेत हैं! 

और वो नूर, नूर भी एक प्रेत है! सूरज साहब को यकीन नहीं आ रहा था! इतना सबकुछ देखने के बाद भी! समझ पर, पर्दा पड़ा था उस नूर के हुस्न का! 

खैर, उनको समझा दिया था मैंने, अब ख़याल रखना था उनका, इसीलिए, मैंने एक रुद्र-माल उनके कंठ में धारण करवा दिया, ये रक्षण था! हालांकि, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे सभी प्रेत बेहद शालीन, 

और शांत थे, मददगार थे! किसी का अहित नहीं किया था उन्होंने! 

गाड़ी आगे बढ़ायी हमने, 

और उस हवेली के पास ही ले जाकर, खड़ी कर दी, अब हम उतरे! मैंने सूरज जी का हाथ पकड़ा हुआ था, 

और उन्हें ले जा रहा था, वो अभी भी, नूर, नूर कहे जा रहे थे! तभी ऊंटों की आवाजें आयीं! मैंने ऊँट गिने, बारह ही थे! यानि कि, आज मेहर भी आया था! अपने साथियों के साथ! हम आगे बढ़े, 

सूरज साहब मुझे खींच रहे थे! 

जैसे सब जानते हों, जैसे ये हवेली उनकी ही हो! हम आये उस फाटक के पास, फाटक खुला था, पीछे से एक आवाज़ आई, "हओ!" मैंने पीछे देखा, एक तीस-पैंतीस बरस का व्यक्ति था वो! मुस्कुरा रहा था! सूरज जी ने भी देखा, पहचान लिया! ये मेहर था! "मेहर!" बोले सूरज जी, 

और जा लिपटे उस से! मेहर ने भी बाजुओं में भरा उनको! फिर हमारे पास आये वे दोनों, 

सूरज जी तो ऐसे खड़े थे, जैसे उन प्रेतों में से एक हों वो भी! खुश और चपल! मेहर ने नमस्कार की, मुझे भी और शर्मा जी को भी, हमने भी की, "आओ" वो बोला, 

और सूरज जी का हाथ पकड़ कर, ले चला आगे आगे! आगे एक गलियारा था! पौधे लगे थे रंग-बिरंगे फूल वाले! एक कमरे में ले गया मेहर हमे! वहाँ उसके साथी बैठे थे! सभी ने नमस्कार की, हमने भी की, हमको बिठाया गया! पानी और अफीम का घोटा पिलाया गया! 

इस बार गुड मिला था उसमे! सौंफ का सा स्वाद था! हल्का सा कड़वापन लिए! 

अब सूरज और मेहर में खूब बातें हुई! मेहर ने आवाज़ दी किसी को, कोई आया, मेहर ने इशारा किया कुछ, वो चला गया, 

और जब अंदर आया, तब मदिरा, कुछ चांदी के गिलास, 

और साथ में खान एके लिए लज़ीज़ सामान! खुशबूदार! बेहतरीन! मेहर ने एक एक गिलास बनाया! 

और दे दिया हमें! मैं तो गटक गया! ये तो, पुरानी अंग्रेजी शराब सी थी! हल्का सा सिरके का सा स्वाद लिए! 

और तभी तबले की थाप बजी! सारंगी थिरकी! घुघरू बजे! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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सूरज साहब बिदके! बेचैन हो उठे! मेहर मुस्कुरा उठा! सूरज साहब की जांघ पर हाथ मारा उसने! खड़ा हुआ, 

और उठा लिया सूरज साहब को! और ले गया साथ! मैं समझ गया! समझ गया! कि नूर के पास ही गए हैं ये सूरज साहब! कोई बात नहीं! 

आज प्यास मिट जायेगी उनकी! बहुत प्यासे हैं! कुछ ही देर बाद, मेहर आ गया, साथ में कुछ मिठाइयां लिए हए, रख दिया थाल नीचे, मैंने थोड़ी सी मिठाई ली, 

और खायी, मेहर ने मुझे देखा, मेरे बारे में पूछा, मैंने बताया, वो प्रसन्न हो उठा! उसने बताया कि, थोड़ी ही देर में महफिल सज जायेगी! फिर देखिये! 

क्या मजा आता है! सच कहा! मैं महफ़िल के लिए ही तो आया था! इसमें शरीक़ होने! 

शामिल होने, 

और किसी को असलियत का एहसास करवाने! मित्रगण! मैंने ऐसे बहुत युक, युवतियां देखे हैं, 

जो ऐसी महफ़िल में गए हैं, और जब वापिस आये, तो इस संसार के न बचे! ऐसे ही हो गए थे हमारे ये सूरज साहब! 

और फिर चली ताल! एक लम्बी सी ताल! तबला बजा! सारंगी बजी! 

और अनेक और भी बाय! मेहर ने अब चलने को कहा, 

हम खड़े हुए, उसके पीछे चले, वो हमे गलियारे से लेकर, चलता बना, हमारे पीछे और भी मेहर के, 

सभी साथी चल पड़े! मेहर हमे, एक चौड़े से बारामदे में ले आया, क्या आलीशान था वो बारामदा! कालीन बिछे थे! मोटे मोटे कश्मीरी कालीन, नीले और लाल रंग के, मसनद पड़ी थीं उन पर, बीच में खाली जगह छोड़ी गयी थी, रक्काशाओं के लिए! नाचने गाने के लिए! सागर रखे थे, फूल रखे थे, गुच्छों में! 

और ठीक सामने, एक बड़ी सी मसनद थी, यही थी शायद उन राणा साब की मसनद! 

आखिर में, ये महफ़िल उन्ही की तो थी! मेहर ने बिठा दिया हमें एक जगह! मैं तो मसनद पर, अपनी कोहनी और कमर टिकाये, बैठ गया! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आज पुराने ज़माने की ऐय्याशी की महफ़िल थी! और फिर लोग आना शुरू हुए! कोई रजवाड़ा सा! कोई लड़ाका सा! कोई सैनिक! कोई पहलवान सा! 

और तो और, दो अंग्रेजी बाबू भी थे वहाँ! गले में टाई बांधे, अंग्रेजी कपड़े पहने! अब अंदाजा यही था कि, ये महफ़िल, आज़ादी के पहले से ही सज रही है! सब अपनी अपनी जगह आ बैठे! ऐसा, न जाने कब से हो रहा था! ये ऐसे ही, अपनी महफिलें सजाये जा रहे थे! 

आनंद उठाया जा रहा था! ऐय्याशी का आनंद! 

शराब

कबाब

शबाब! कोई कमी नहीं थी इसमें! 

और फिर खूबसूरत बदन वाली रक्काशाएं आयीं वहां! डील-डौल बड़ा ही मज़बूत था उनका! उनकी पोशाकें ऐसे कामुक थीं कि कोई देख ले, तो आधा तो वैसे ही सीलन से मर जाए! 

और फिर बजे वाय-यंत्र! 

च-गाना आरम्भ! चूंघट उठे, सलाम हुए, वाह वाह के स्वर गूंजे! 

और हुआ अब उनका कामुक नाच शुरू! सच में, आज की स्त्रियों को उनसे मिलाएं, या मिलान करें, तो सौ में से दस अंक भी नहीं! न ऐसा कद, 

न काठी, न अंग, नदेह! लगता है जैसे आज की नारियां, कुपोषण की शिकार हैं, अथवा खून की बहुत ही कमी है! ये मैंने, और ऐसा मैंने उन स्त्रियों को देख कर ही कहा! सब के कद, छह फीट से अधिक ही थे! उनका नाच, अच्छे अच्छे से अच्छे मर्द को निचोड़ के रख दे! 

और तभी नाच गाना रुका! कोई आया था! मैंने देखा, एक लम्बा-चौड़ा आदमी! सफेद कुर्ते धोती में! साफ़ा बांधे! देह काम से काम सात फ़ीट के आसपास कि तो होगी ही! ऊँट की खाल की बनी उसकी जूतियां, चरर्मचर कर रही थीं! उसने हाथ जोड़कर, सबका अभिवादन किया! और आगे चलता हुआ, अपनी बड़ी सी मसनद पर जा बैठा! "राणा साहब!" मेहर ने कहा, कुछ और रक्काशाएं भी आयीं वहाँ! 

मदिरा परोसी गयी! हमने भी लिए अपने अपने गिलास, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और चुस्कियां भरते हुए, दोनों ही नशे करते रहे, एक मुंह से, एक आँखों से! 

और फिर हुआ 'विशेष' नाच! रक्काशाओं ने, 

अपने बदन को, 

कपड़ों से आजाद करने के लिए, विशेष थिरकन की, 

अपने अपने बदन में! सभी आँखें फाड़े, उन्हें ही देख रहे थे! मैं भी! शर्मा जी भी! 

और मेहर भी! कैसा बेपनाह हस्न था उनका! कैसा लाजवाब शबाब! कैसा आतशी जिस्म! कैसा सुर्ख चेहरा उनका! उन्होंने अपने बदन पर, 

मदिरा उलटी! और प्यासे, दौड़ चले उनकी तरफ! 

सो चार बूंदें, मेरे पास आई रक्काशा ने, मेरे बाल पकड़कर, मुझे भी चखायीं! अब औघड़ से बड़ा अय्याश कौन! पकड़ कर खींच लिया उसे मैंने, 

वो गोद में बैठ गयी, 

और अपने हाथ से ही, मुझे मदिरा पिलाई! हाथ के अंजुल से! मैं तो, चपड़ चपड़ सारी पीता गया! वो उठी, अपने अंग मुझसे छुआए! मैं खड़ा हुआ, मदिरा ली, 

और उसको अपने से चिपका, 

मदिरा पी! उस रक्काशा ने, एक बड़ा सा घुट भरा मदिरा का, मेरे होंठों से होंठ लगाए, 

और पिला दी सारी मदिरा! तालियां बज उठीं! राणा साहब भी खुश थे! अब राणा साहब ने, 

और रक्काशा भेजी मेरे पास! उसने अपनी बाजू से मदिरा ढलकायी, 

और उसकी उँगलियों से बहती वो मदिरा, सीधी मेरे मुंह में चली आई! ऐय्याशी चरम पर थी उस समय! सूरज साहब क्यों आपा खो बैठे थे, समझ आया मुझे! मैं बैठ गया! 

और उनके हस्न को छलकते हए देखता रहा! वे रक्काशाएं नाचती, थिरकतीं, गोद में आ बैठती, उनका ऐसा करना, बार बार, मर्दानगी को चुनौती देना सा लगता! उनके गठे हए, बदन और, सुडौल अंगों से नज़र जैसे, चुंबक की भांति चिपक ही जाती! वहाँ कम से कम, बीस से अधिक


   
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श्रीशः उपदंडक
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रक्काशाएं थीं! सभी एक से बढ़कर एक! कुछ कनीजें भी थीं, वे सामान आदि लाती थीं! और एक तरफ खड़े हो, 

हुक्म का इंतज़ार करती! एक रक्काशा, मुझे बेहद पसंद आई! मैं एकटक उसी को निहार रहा था! उसका बदन ऐसा था, कि संगमरमर भी शरमा जाए! जब वो थिरकती थी, तो उसकी वो कमर, मेरे काम-पिटारे में हुक सो छोड़ जाती थी! मैं खड़ा हुआ, उस तक गया, उस से नज़रें मिलायीं, उसकी वो कजरारी आँखें, सुरमयी आँखें, मैं भूल नहीं सका हूँ अभी तक! मैंने खींचा उसे अपनी तरफ! वो लिपट गयी! उसका गीला बदन आग लगा गया मुझमे! पानी से आग लग गयी! उस मदिरा के पानी से! उस पानी की आग से कोई विरला ही बच पाता है! 

आजमा के देखिये! शबाब और शराब! बेहद खतरनाक हो जाते हैं जब ये संग होते हैं! 

और शबाब भी ऐसा, कि जितना चखो, अगली बार उतना ही मदभरा लगे! नशा दोगुना, चार गुना, होता चला जाए! यही तो हआ था! मैंने उठा लिया उसके बाजुओं में! 

और ले चला एक तरफ! 

सबसे अलग, वो मुझसे लिपटी हुई, मेरे गर्दन में हाथ डाले हुए, नशीली आँखों से, मुझे खौलाती जा रही थी! मैं आ गया एक तरफ, उसके गले पर हाथ फेरा! उसको देखा, "क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा, वो हंसी! अपनी बालों की लट, मेरे मुंह पर मारी! "अतीक़ा!" वो लरज कर बोली! वाह! जैसा नाम! वैसा बदन! अतीक़ा! कांच के मानिंद! जिस्म भी ऐसा ही! "खिदमत की तलबगार हूँ मैं!" वो बोली, खिदमत! एक ने ख़िदमत करवाई! सूरज साहब! मैं हंसा! उसने कनीज़ की तरफ, हाथ करके, चुटकी बजाई, बेहद करीनेभरी चुटकी! कनीज़ दौड़ी दौड़ी आई! मदिरा का प्याला भरा, और मुझे पिलाने लगी! मैं पीता गया! मदिरा से क्या बैर! फिर से एक गिलास और! 

मैं वो भी खींच गया! 

और मैं, मैं वापिस जाने लगा, उसने हाथ पकड़ लिया, 'ख़िदमत' भरी आँखों से देखा! मैंने फिर से हंस पड़ा! वो भी हंसने लगी! अब मैं हट लिया था वहाँ से! शर्मा जी के पास पहुंचा, वे चुपचाप, दबे-सहमे से बैठे थे! मुझे देखा तो जान में जान आई! मैं बैठ गया वहीं! वो अतीक़ा गुजरी वहाँ से! नज़रें घुमाते हुए! मैंने देखा, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मंद मंद मुस्कुराने लगा! महफ़िल जवान थी अभी! हर तरफ शोर-शराबा था! मैंने घड़ी देखी, ढाई से अधिक का समय था! रात जवान थी अभी और इस रात में ये महफ़िल, अपने ज़ोर पर थी! 

और फिर रक्काशाएं थम गयीं! चलने लगी वहाँ से, जाने लगीं अपने अपने रक्काशखाने में! 

और फिर हुई दावत! दस्तरख्वान बिछा दिए गए! बर्तन लगा दिए गए! मदिरा भी रख दी गयी! और फिर हुआ भोजन! लाजवाब और बेहतरीन! हमने भी छक कर खाया! उसके बाद मेहमान लोग उठने लगे! 

सभी, एक एक करके! मेहर, 

और अन्य, वहीं बने रहे! हम भी! 

मेहर आगे बढ़ा, सीधा राणा साहब के पास गया! झुक कर कुछ बातें की, 

और फिर हमारे पास आया! हम उसके साथ चले, सीधा राणा साहब के पास, 

राणा साहब खिसके, हमे जगह दी बैठने को! हम बैठ गए! 

थोड़ी देर ऐसे ही बैठे रहे! 

और फिर सर उठाया राणा साहब ने! "बरसों गुजर गए!" वे बोले, सच! सच कहा उन्होंने! "ये महफ़िल ऐसे ही सज रही है!" वे बोले, हम चुप थे! 

उन्हें भान था हमारा, कि हम उनमे से नहीं हैं! "उम्मीद है, बन्दानवाज़ी पसंद आई होगी आपको!"वे बोले, "बहुत पसंद!" मैंने कहा, उन्होंने धन्यवाद किया! मदिरा उठायी, गिलास भरे, 

और मुझे भी दिया, शर्मा जी ने मना कर दिया लेने से, मैंने और मेहर ने ही ली, "आइये मेरे साथ" बोले राणा साहब, हम उठे, 

वे भी उठे! 

और चल दिए उनके पीछे। सीढ़ियां चढ़े, 

और फिर गलियारे में, और फिर एक कक्ष में, कक्ष में घुसे, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आलीशान कक्ष था उनका! किसी रजवाड़े जैसा! हम उस कक्ष में आ गए, हमें बिठाया गया, मदिरा ले आयीं वो कनीज़, मदिरा परोसी, और मुझे दी, मैंने आधा गिलास पिया, 

और रख दिया, पहले ही नशा हावी था, 

और अब समय भी कम ही शेष था, "आप हमारे मेहमान हो! आज की रात! और जब भी चाहें आपका स्वागत है" वे बोले, मैंने धन्यवाद किया उनका! "हम सब, बरसों से यहां इकठ्ठा हैं! सब संग हैं! मैं सब जानता हूँ, सब!" वे बोले, अब मैं समझ गया था! उन्हें सब मालूम था! लेकिन कोई लालच, कोई लालसा, कोई इच्छा, रास्ता रोके हुई थी उनका! अब बात सीधे करनी ही उचित थी, कोई लाग-लपेट नहीं! "राणा साहब! आप जब सब जानते हैं हैं, तो आगे क्यों नहीं बढ़ जाते?" मैंने कहा, वे मुस्कुराये! "जानता हूँ! ये भी जानता हूँ मैं! हम सब जानते हैं!" वे बोले, "तो फिर क्यों नहीं?" मैंने पूछा, वे चुप रहे, 

कुछ देर, मेहर को देखा, मेहर ने उन्हें, 

और मैंने उन दोनों को, "बारूद नहीं आया हमारा अभी तक!" वे हँसते हुए बोले, "बास्द? मैं समझा नहीं?" मैंने कहा, "बारूद आ जाता तो, हमारी भी पुश्तें आगे बढ़ती" वे बोले, 

अफ़सोस सा जता कर! मुझे देखा, एरा आधा गिलास मुझे दिया उठाकर, 

और उठे, एक तिजोरी सी खोली, उसमे से, एक कटार निकाली, मरे पास आये, 

और बैठ गए, "मैं सेना में था, एक बड़ी सेना, मेरा ऊंचा ओहदा था!" याद करते हुए बोले, सच में! उनका डील-डौल किसी सिपाही की तरह ही था! "यहां, एक चौकी हुआ करती थी, मैं चौकीदार था उसका, और ये सब, मेरे कारिंदे!" वे बोले, 

कटार मुझे देते हुए, मैंने कटार देखी, 

ये तो राजसिक कटार थी! उपहार स्वरुप दी हुई। शायद उस समय के राजा ने! वे चुप रहे, मैं खामोशी से देखता रहा उनको, "अगर बारूद आ जाता तो........." वे बोले, मायूस होकर, "कौन लाने वाला था बारूद?" मैंने पूछा, "घघेर! वहीं लाया करता था रसद, लेकिन नहीं ला पाया उस रोज" वे बोले, बड़ी दुःख की बात थी, 

ई 


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्हें अफ़सोस था, लेकिन दुःख झेलने से फायदा क्या? मैंने यही पूछा, 

वे हंस कर टाल गए, "लेकिन बकौल मेहर, ये हवेली एक सेठ जी की है?" मैंने कहा, "हाँ, उन्ही की है, मैं पुत्र हूँ उनका, वे कभी नहीं लुटे, आसपास के गाँव खाली कर दिए गए थे, कुछ रण-बाँकुरे यहीं ठहर गए, तलवार से तलवार भिड़ाने को! हम कुल पांच सौ थे, रसद थी नहीं, हमें रसद का इतंजार था, हम सारी रात लड़े, सारी रात, ये मेहर, इसका गाँव यहां से आगे ही है, ये भी लड़ा, इसके साथी भी, लेकिन......न रसद आई, 

और न हम लड़ सके" वे बोले, ये कोई छिपा हुआ इतिहास था, लेकिन कैसा? बस इतना पता चला, कि वे लोग घग्घर पार से आये थे! जिन के साथ वो सारी रात जंग हुई थी, बारूद था नहीं, इसी कारण से उन्हें मौत का सामना करना पड़ा! हाँ, उसके कुछ दिनों बाद ही, वहाँ बीकानेर का राज हो गया था! लेकिन ये हवेली! 

आज भी उस दास्तों को लिए, जिंदा है! मित्रगण! राणा साहब ने आगे बढ़ने का मार्ग नहीं चुना! उन्हें वो वक्त बेहद प्यार लगता था! प्यार था उस वक्त से! केवल वो ही नहीं, कोई भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं था! हाँ, हमे निमंत्रण था! हर अमावस की रात को! जब भी हम चाहें! 

और वो रक्काशाएं! उन दिनों, 

उस रात से पहले, ये हवेली ऐसे ही शबाब और शराब से सराबोर रहा करती थीं! वे रक्काशाएं भी न बच सकीं! बहुत बुरा हुआ था, दिल पसीज उठा, मैं उठा वहां से, अब एक काम निबटाना था! सुरज साहब का काम! मैं वहीं चला, मेहर मेरे साथ था! वही ले गया मुझे, शर्मा जी भी संग थे, राणा साहब, अपने दुःख में डूबे हुए थे, मैंने और कुछ नहीं कहा उन्हें, 

जब मैं पहुंचा वहाँ, तो कमरा बंद था, मैंने खटखटाया, कुछ देर बाद कमरा खुला, मेरे सामने नूर थी! सच में, वो वास्तव में ही नूर थी! मुझे अंदर आने को कहा, सूरज साहब आराम से सोये थे! मेहनत बहुत की होगी उन्होंने! डेढ़ साल का सारा लावा फूट के बाहर आ गया होगा! "नूर!" मैंने कहा, "जी?" वो बोली, "हमारे जाने का वक्त हो गया" मैंने कहा, 

वो मायूस सी दिखने लगी, बार बार मुझे नीचे सर से, ऊपर देखती, 

"ये सूरज साहब?" मैंने कहा, "इन्हे मत ले जाइए, गुजारिश है" वो बोली, उसके भाव समझ गया मैं! जो हालत, सूरज साहब की थी, वही हालत नूर की भी थी! मैं आगे बढ़ा, सूरज साहब को उठाया, वे जागे, मुझे देखा, मामला भांपा, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और चिल्ला पड़े, "मैं नहीं जाऊँगा! मैं नहीं जाऊँगा!" नूर रो पड़ी, लिपट गयी उनसे, वे भी लिपट गए! ये कैसा मिलन था? कैसा प्यार? 

सूरज साहब अलग रोएँ, 

और नूर अलग! बहुत बुरा फंसा मैं! 

आखिर में, एक समझौता हुआ, हर अमावस की रात को, नूर मिल सकेगी उनसे! न होने से इतना होना बहुत था! मान गए दोनों! मैंने कितनी माथापच्ची की, मैं ही जानता हूँ! हम अब चल पड़े वापिस, 

सूरज साहब, बालकों की तरह रो रहे थे! 

और नूर, बिलख रही थी! 

अब फिर से दोनों को समझाया, ऊपर खिड़की से झांकते और मुस्कुराते राणा साहब ने, दोनों हाथ जोड़कर, नमस्कार की! हम चल पड़े वापिस! 

मेहर भागा भागा आया! अब शायद कभी नहीं मिल पायेगा उनसे, इसीलिए गले लग के रोया बहुत! दोनों ही! 

सूरज की किरण फूटी! 

और सब रात का हुस्न, खत्म हो गया! खंडहर ही खंडहर! कुछ नहीं था वहाँ! मित्रगण! जिस दिन यहां आये थे सूरज साहब, 

और आवाजें दी थीं, नूर बहीं थी! लेकिन उनकी दुनिया में नहीं आई थी वो! क्योंकि, मुहब्बत का मतलब अपना सुख नहीं, अपने मोहसिन का सुख होता है! वक्त बीत गया! चार साल हो चले हैं! सूरज साहब खुश हैं! मिलते रहते हैं! 

उस हवेली में आज तलक मैं वापिस नहीं लौटा! हिम्मत नहीं हुई मेरी! दुःख नहीं देखा जाता राणा साहब का! एक बात और, ये भी ख़याल रखना पड़ता है कि, कोई नूर को पकड़ न ले, इसीलिए, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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हर अमावस को, देख लगा कर रखता हूँ मैं! वो रुमाल, मेरे पास है आज भी! वो हवेली, हनुमानगढ़! सब याद है मुझे! आज अमावस है! आज महफ़िल सजेगी! वही महफ़िल! वैसी ही महफ़िल! ये सब वक़्त के खेल हैं! वक्त! सबसे बड़ी कैद है! साधुवाद!


   
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