लेकिन ये कहाँ पता था उन्हें! वो तो बेचारे, जितना दम था उनमे, भिड़े हुए थे! दो बार में, अपनी सारी जवानी का जोश उतार बैठे थे! अब उठी नूर! बाहर गयी! बेचारे सूरज साहब, अधमरे से पड़े थे! कोई आधे घंटे के बाद, नूर आई, भोजन लेकर,
और उन्हें भोजन करवाया, लज़ीज़ भोजन, मदिरा पिलाई, अपने हाथ से,
और जब भोजन कर लिया, तभी उनके साथ लेट गयी! अब सूरज साहब ने सवाल पूछे उस से, कहाँ रहती हो, कहाँ मिल सकता हूँ दुबारा, यहां कब तक हो, आदि आदि! उस नूर ने, सारे जवाब दिए!
और उन जवाबों में, बस! बस,
नूर और नूर के साथ जुध! यही दीख रहा था! उन्हें तो लग रहा था, कि क़िस्मत ही खुल गयी!
मित्रगण! उस रात, चार बार जंग लड़ी गयी!
और चारों ही बार, हमारे सूरज साहब, बेहोश होते होते बचे! यदि नूर ने साथ, न दिया होता तो, शायद प्राण ही छूट जाते! बकौल सूरज साहब, नूर कोई छह फ़ीट की रही होगी! मांसल देह वाली, गुदाज़, गोरी-चिट्टी, उसका एक एक अंग, कामुकता से लबरेज़ था! उन्होंने जब होंठों का ब्यौरा दिया, तो मैं समझ गया, कि कैसी रही होगी नूर! सूरज साहब आज भी, नहीं भूल सके हैं नूर को! कैसे भूलें! कैसे! नहीं भूल सकते! उस रात हमारे सूरज साहब, निचुड़ गए क़तई! पानी की कमी हो चली थी! चक्कर भी आने लगे थे!
और दर्द तो ऐसा था,
कि,
बिना हाथ का सहारा लिए, बैठा नहीं जा सकता था! नूर ने चूर कर दिया था उनको!
खाली कर दिया था! नूर ने और कोशिश भी की, लेकिन अब देह के आगे मज़बूर हो चले थे! अब तो खटिया ही सहारा दे सकती थी उन्हें! ऐसा विकट जुध तो, अपनी ब्याहता से भी नहीं किया था कभी!
आखिर में, हार मान ली जी उन्होंने! घुटने तो घुटने, सबकुछ टेक दिया था उन्होंने! शेष रात, बस लिपट-चिपट के ही काटी! सुबह हुई!
और अब विदा लेनी थी! मन तो नहीं कर रहा था, लेकिन जाना भी आवश्यक था! तब, नूर ने बताया, कि कल सुबह चली जायेगी वो यहाँ से, अन्य साथियों के साथ, ये सुना, अब ये सुना तो जैसे दुनिया ही लुट गयी! बात वही है न, कि शेर यदि घायल भी हो, बूढा भी हो, तो भी घास नहीं खायेगा! अब मांस की आदत पड़ चुकी थी सूरज साहब को! क्या करें! मज़बूरी है!
आखिर, उस रात को भी, आना स्वीकार कर लिया उन्होंने! चले घर!
मायूस से! अब ऐसा आनंद कहाँ मिलता? धीरे धीरे, थके-पिटे से, चलते रहे घर की ओर, धीरे, क्योंकि, दर्द बहुत था उन्हें! साइकिल की सीट बहुत दुःख दे रही थी! दर्द भी तीखा था! लेकिन नूर के हुस्न की चपेट में आये हुए, हमारे सूरज साहब, हाथ के सहारे, निबटे जा रहे थे दर्द से! आज फिर से जुध था! तो आज, खीर बनवानी थी घर पर! साथ में, देसी घी की बनी पूरियां! जान आएगी, तभी तो जान 'जायेगी!' बस जी! घर पहुंचे, नहाये धोये, बतियाये सभी से,
और खीर बनवाने को कहा, बना ली गयी जी खीर, छक के खायी! दोपहर समय, पत्नी आ बैठी संग! समझते तो सब थे, तो कर दी बहानेबाजी! अब पत्नी को हुआ शक!
अब क्या करें? चलो जी! बकौल सूरज साहब के, वो ट्रायल था! रात के मुख्य खेल का ट्रायल! अब हुई शाम! तेल मल कर बदन पर, नहा धोकर, इत्र-फुलेल लगाकर नए कपड़े पहनकर, फिर से चल पड़े!
घर में बहाना बना दिया! और निकल पड़े घर से! चले तेज तेज! दौड़ा दी साइकिल!
और जा पहुंचे! फाटक खुलवाया, साइकिल लगाई एक तरफ,
और चल दिए अंदर! सीधा जा पहुंचे नूर के पास! नूर अपने कपड़े संभाल रही थी! सूरज साहब को देखा, वो कपड़े रख दिए एक जगह! बैठ गए वो! उस रात,
आब्शी-हलवा खिलाया गया उन्हें! और साथ में केसर-बादाम का दूध! आब्शी-हलवा खाते ही, अंग अंग फड़क उठे! अब आव देखा न ताव! भिड़ गए हमारे सूरज साहब! लम्बी पारी खेली उन्होंने उस रात! डटे रहे!
पलंग की भी, चूं चूं निकलवा दी! नूर भड़काए जाए, वो भड़कते जाएँ!
और जब हुए पस्त, तो नूर के ऊपर ही ढेर हो लिए! नूर, बार बार आग में, घी झोंकती रही!
और सूरज साहब, सरकंडे की तरह से झूमते रहे!
और आखिर में, हो गए खोखले! टेक दिए घुटने!
दर्द,
जो जा छिपा था, अब फिर से हावी हो गया! नूर ने, मदद की! लेकिन नूर का स्पर्श होते ही, झुलसने लगते थे! ऐसी भूख लगी थी कि, पेट तो भर गया, लेकिन नीयत नहीं! उस शेष रात, लिपटा-लिपटी, चिपटा-चिपटी में,
गुजर गयी!
और हुई सुबह! वे जागे, अब घर जाना था उन्हें, नूर को जयपुर जाना था,
और सूरज साहब को,
कल शहर वापिस! कतई, फ़िल्मी दृश्य हो गया!
नायक, नायिका से बिछड़ रहा था! लेकिन एक बात तो थी,
शहर जाते ही, वे जयपुर जाएंगे! चाहे कुछ भी हो!
और उनके तबादले की भी तो, बात चल ही रही थी, जयपुर में हो जाए, तो क्या कहने! बड़े ही भारी दिल से, वे चले वहाँ से, जाने से पहले, बिना बताये, रुमाल ले आये थे नूर का! निशानी के तौर पर!
ये रुमाल, उनको बांधे रखता नूर से! मित्रगण!
वो रुमाल, कोई ढाई गुणा ढाई फीट का है, रेशमी रुमाल है, लाल रंग का! आज भी है उनके पास! अपने संग ही रखते हैं! तड़पा गयी वो नूर उन्हें!
खैर,
घर पहुंचे, नहाये-धोये! खाना खाया,
और आराम किया, बाम भी मला उन्होंने, बाम की चुभन मंजूर थी, लेकिन दर्द की नहीं! दर्द तो ऐसा था, जैसे खाल ही छील दी गयी हो! नूर, चली गयी!
और अगले दिन, अपना सामान उठा कर, वे भी चल दिए! शहर के लिए! जयपुर का ख्वाब लिए! दफ्तर में, जुगत-भिड़त लगानी थी, जयपुर हो जाए तबादला तो, जिंदगी का सबसे बड़ा सुख मिल जाए!
ऐसे ही खयाल लिए, हमारे सूरज साहब,
गाँव से रवाना हो लिए, बड़े भाई छोड़ने आये थे, वहाँ से विदा ली, बस पकड़ी,
और चल दिए, शहर वापिस!
आँखों में नूर का चेहरा लिए! मन में, ख्वाब लिए!
और उस दिन वे जा पहुंचे अपने कार्यालय के पास बनी, अपनी रिहाइश में, सामान रखा, थोड़ा आराम किया, नहाये-धोये,
और फिर आ लेटे बिस्तर पर,
बिस्तर पर लेटे,
तो अब खयाल आया उस हवेली का! उस नूर का! उन्होंने तभी,
अपनी जेब से, वही रुमाल निकाला, उसको देखा, मुस्कुराये,
और अपने सीने पर रख लिया! आँखें बंद की तो, पहुँच गए हवेली! सीधा नूर के कमरे में!
और सीधे ही, मैदान-ए-रंग में! मुस्कुराये जाते,
और आनंद उठाये जाते! रुमाल पर, हाथ फेरे जाते! फिर आँखें खोलीं, जयपुर! हाँ, यहीं तो आई है वो! लेकिन हनुमानगढ़ से, जयपुर कोई चार सौ किलोमीटर है! बहुत दूरी है! लेकिन जब आग लगी हो तो, ये दूरी तो कुछ भी नहीं! और यहां आग क्या, ज्वालामुखी फूटा था!
खैर, वो रात बड़ी मुश्किल कटी! हवेली की आदत जो पड़ चुकी थी! वो पलंग, वो भोजन,
वो नूर,
उसके साथ हुआ जुध,
वो मेहर, वो मदिरा! सब याद आ गयी थी! अगला दिन हुआ, तो लगा बरसों बीत गए! अपनी मेहबूबा से मिले! दफ्तर पहुंचे, तो मन न लगे किसी भी काम में, कुर्सी पर,
सर टिकाये, दोनों हाथों से, सर दबाये,
आँखें बंद किये, बैठे ही रहे! वो दफ्तर की गप्प्शप, आज तो बकवास, बेहूदा लग रही थी! किसी तरह से शाम हुई,
और अब वापिस हुए अपनी रिहाइश के लिए, वहाँ पहुंचे, फिर से वही यादें! अब हाल बुरा था उनका, दो दिन में ही, नूर की याद ने, बर्बाद कर दिया था उन्हें!
अब मुसीबत ये, कि बताएं किसे अपनी ये व्यथा! मित्रगण! जिस इंसान से, एक दिन न काटे कट रहा हो, उसने दो महीने कैसे काटे होंगे!
और तभी मिली उन्हें एक खुशखबरी!
जयपुर में, उनके एक सहयोगी के भाई का विवाह तय हुआ था! चार दिन बाद, बारात जानी थी! दफ्तर से छुट्टी मिल ही जानी थी! उन्हें भी आमंत्रण मिला! उनको तो जैसे, स्वर्ग मिल गया ये, खबर सुनकर! बस! फिर क्या था!
एक नया जोड़ा खरीदा कपड़ों का! एक कुरता पायजामा!
और लग गए तैयारी में! और आ गया बारात का दिन! बहुत खुश थे उस दिन सूरज साहब! खुशी, छिपाए नहीं छिप रही थी! मुस्कुराये जा रहे थे, अपनी आँखों में, जब दर्पण में आँखें डालते तो!
और जी, उसी दोपहर बारात रवाना हो गयी! शाम चले, रात भर चले, नींद कभी आये, कभी नूर न आने दे, उसकी यादें, सताएं! दिमाग में, उसके हुस्न के, कीड़े कुलबुलायें! बड़ी बुरी हालत!
बेसुध से!
और अगले दिन, सुबह के ठीक बाद, जा पहुंचे! अब आई चेहरे पर रौनक! बारात का जोरदार स्वागत हुआ! नाश्ता आदि और भोजन भी! भोजन किया जी उन्होंने,
और जहां बारात को ठहराया जाना था, वहीं ठहरे सब! दिन में नहा-धो कर आराम किया!
और जब बजे कोई चार, तो निकल पड़े सूरज साहब! धड़कते दिल के साथ!
फुलैरा!
फुलैरा जाना था उन्हें!
और जहां वे सब ठहरे थे, वहाँ से अधिक दूर नहीं था! जैसे तैसे सवारी का इंतज़ाम भी कर लिया,
और चल पड़े! उस रुमाल को, अपनी जेब में खोंसे!
और जी, पहुँच गए फुलैरा! अब एक से पता पूछा, पता बता दिया उसने, वे चल दिए पैदल पैदल! फिर से पूछा,
अब कइयों ने मना किया, कि उनको नहीं पता, फिर एक बुजुर्ग से पूछा, बुजुर्ग ने मदद की,
और वे चल दिए और आगे,
चप्पा चप्पा छान मारा! लेकिन नहीं मिली वो जगह! बहतों से पूछा, बहुतों को कुरेदा! नहीं चला पता! तब, एक चाय की दुकान पर जा बैठे, चाय बनवायी,
और चाय पीनी शुरू की, वो कागज़ साथ में ही था, जिस पर पता लिखा था, अब चाय वाले से पूछा, चाय वाला भला आदमी था, साथ वाली दुकान में, एक बुर्जुग हुआ करते थे, करीब नब्बे साल के, वे शायद जानते हों, चाय वाला, ले आया उन्हें अंदर! बिठाया,
सूरज साहब ने नमस्कार की, बुजुर्ग ने भी, बैठते हुए, नमस्कार की, अब सूरज साहब ने, पता पूछा, बुजुर्ग ऊंचा सुनते थे, तो चाय वाले ने ज़ोर ज़ोर से पूछा, बुजुर्ग, अपना सर हिलाते गए!
और फिर बता दिया उनको वो पता, वो जगह यहां से कोई, तीन किलोमीटर दूर थी!
लेकिन अब वहाँ तो कोई रहता ही नहीं? रहता नहीं? ऐसा कैसे हो सकता है? बुजुर्ग से शंका मिटाने के लिए, बार बार पूछा, आखिर में, तय हुआ कि,
सूरज साहब वहाँ, खुद ही जाएंगे! हो सकता है, कि बुजुर्ग न जानते हों, या फिर, उम्र का तकाज़ा भी हो सकता है! चायवाले को, धन्यवाद कहा, बुजुर्ग को भी,
और अब अपना हिसाब चुकता कर, वे निकल गए वहाँ से! अब किसी तरह से, बेचारे हमारे सूरज साहब, इश्क के मारे, हस्न के मारे, मिलन को तरसते,
चल पड़े थे, सवारी मिल गयी, बैठ गए, बड़ी फिक्र थी उन्हें! न मिली तो? तब क्या होगा? दिल टूट जाएगा,
पता नहीं कैसा सदमा लगे! यही सोचते सोचते,
शून्य में ताकते,
कुछ नहीं देख रहे थे, कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, कुछ पता नहीं! बस, हाथ में वो रुमाल थामे, चलते जा रहे थे, तभी आवाज़ दी सवारी वाले ने, तन्द्रा टूटी,
आसपास देखा, ये तो वीरान इलाका था! बस एक सड़क जा रही थी, अंदर कहीं गाँव के लिए, उतरे,
और पैसे दे दिए सवारी वाले को, खुले पैसे वापिस लिए, जेब में रखे,
और खड़े हो गए एक पेड़ के नीचे! यहां न बंदा, न बन्दे की जात! कहाँ जाएँ? तभी स्कूटर पर आते दो युवक दिखाई दिए, वे उसी सड़क से बाहर, सड़क के लिए आ रहे थे, उनको रोका, हाथ देकर,
जेब से पर्चा निकाला, एक युवक को दिखाया, उस युवक ने परचा लिया, एक नज़र सूरज सिंह को देखा,
और जो खबर उसने दी, उस से तो घड़ों पानी फिर गया सूरज साहब पर! वे युवक भी,
हैरान रह गए!
कोई भला, उन खंडहरों का पता कौन देगा? ये खंडहर तो, वे अपने दादा के ज़माने से देखे आ रहे थे, फिर भी,
पता बता दिया उनको, खंडहर अधिक दूर नहीं थे! बेचारे, अब क्या करें?
और नूर? मज़ाक करेगी क्या? नहीं नहीं! वो क्यों करेगी मज़ाक? कहीं गलती तो नहीं हो गयी, पता लिखने में? नहीं नहीं! पता तो सही ही लिखा था!
खैर,
सर पर चढ़ा था! जाना ही था! चल दिए, थोड़ा दूर जाकर, एक हवेली पड़ी! टूटी-फूटी! उनका दिमाग गरम हुआ अब! चक्कर से आने लगे! उनको लगा, कि वो आये हैं इस हवेली में! लेकिन कैसे?
ये हवेली तो, क़तई उसी सेठ जी वाली सी ही है!
तो।
वो जगह, जहां ऊँट बांधे जाते हैं! वो, बो बेडा, वो फाटक, सब वैसा ही है! वे बढ़े उस तरफ! खंडहर ही खंडहर! आज उस हवेली में, बरसों बाद, किसी इंसान के कदम रखे जा रहे थे!
वे आगे बढ़े, वो जगह आई, फाटक वाली! वो अंदर घुसे, वो दरबान? कहाँ हैं? कोई नहीं था वहाँ,
अब तो फाटक के निशान भी नहीं थे! अंदर चले, दीवारों पर, घास-फूस उगी थी, परिंदों ने घोंसले बना रखे थे, चमगादड़ पनाह लिए बैठे थे उसकी छत से, नीचे, घास-फूस थी! आगे चले, रास्ता मुड़ा, यहीं..... यहीं से थोड़ा आगे, एक कमरा है! नूर का कमरा,
और जहां मैं आया था मेहर के साथ, वो...
वो रहा, छत नहीं है उसकी, वो आगे बढ़ चले, उस कमरे तक आये, कमरा सिर्फ नाम का कमरा ही बचा था! दीवारें टूटी थीं, छत में, जगह जगह छेद थे!
आँखें भर आयीं उनकी तो! कहाँ है नूर? कहाँ गयी? कहाँ मिलेगी? नूर? नूर? कहाँ हो? चारों तरफ घूम के देखा,
आवाजें दीं, आवाजें! पहले गला फाइ कर!
और फिर, धीमी होती चली गयीं, रुंधे हुए गले में,
अटक गयीं! नहीं निकलीं बाहर! अटक गयीं! अब दिल में, दरक पड़ीं! चटक गया दिल शीशे की मानिंद! बड़े बोझ के साथ, चले बाहर, बार बार, पीछे देखते हुए! कि कहीं,
मिल जाए नूर उन्हें!
नहीं तो, अब जिंदगी दूभर होने में, कोई कसर नहीं! रुमाल! वो रुमाल हार्थों में लिए, मुट्ठी में दबाये, बार बार पीछे देखते!
और आ गए बाहर, उसी सड़क पर, उसी पेड़ के नीचे, रुमाल को देखते, बार बार!
और रख लिया अपनी जेब में, तह लगाकर, नूर नहीं मिली! बस अब तो!
क्या हाल होना था, ये मैं भी जानता हूँ,
और आप भी! सवारी मिली, बैठे,
और चल दिए वापिस, शाम हो ही चुकी थी! दिल में भी, अँधेरा था, घुप्प रात का, घुप्प अँधेरा! लौट आये! खाली हाथ! बैरंग! मायूस! थके-पिटे!
हारे हुए, मोहरे की तरह! अब मन नहीं लगा! किसी भी चीज़ में,
कोई मन नहीं! लग रहा था, कि जिस्म छोड़ आये हैं कहीं, दिल, टूट गया है, सूना हो गया है सबकुछ! जिंदगी ही वीरान हो गयी है!
अब नूर नहीं, तो कुछ भी नहीं! इश्क हुआ, हुस्न में कैद हुए,
और अब, अब दीवाना भी हो गए! कोई कसर बाकी न रही! बड़े टूटे से, उन्होंने वो रात बितायी, बरात,
सुबह ही जानी थी, न नाश्ता किया, न भोजन, कुछ अच्छा ही न लगे! किसी को कुछ बताएं भी न!
और बताएं, तो भी कैसे बताएं! क्या बताएं? खैर जी, बरात चली वापिस, हए सवार सभी, और तड़के ही,
पहुँच लिए वो अपने घर, बड़े मायूस थे, करें तो क्या करें? कहाँ चली गयी नूर? वो पता गलत कैसे हो गया? क्या और कहाँ, कौन सी गलती हुई? अब कहाँ है नूर? ऐसे ऐसे सवाल आते गए! दिन बीते, हफ्ते हुए,
महीने भी बन गए! कोई चार महीने बाद, उनका बुलावा आया घर, बड़े भाई बीमार थे, कुछ रुपये-पैसों की ज़रूरत थी, वो मंगाए थे, चलो! घर जाने का तो अवसर मिला, अब उस हवेली में जाएंगे, वहीं पूछेगे उसका पता! वहाँ से पता चल जाएगा, कोई तो बताएगा! बस, एक यही आस बची थी! इसी एक आस के सहारे, उनमे कुछ जान बची थी!
और इसी तरह, एक दिन, चल दिए अपने गाँव, बालकों के लिए कपडे-लत्ते, खिलौने आदि लिए,
और सदस्यों के लिए भी सामान लिया, और चल दिए गाँव!
बस पकड़ ली उन्होंने, उस शाम, उन्हें पिछली यात्रा याद आ गयी! कैसे बारिश पड़ रही थी, कैसे बस खराब हुई, कैसे वो बारह लोग मिले, वो, मेहर और उसके साथी! यहीं से तो रास्ता खुला था, जो जा ठहरा था नूर के पास! सब याद आ गया उन्हें! इसी सोच की उहापोह में,
आ गए रात को अपने गाँव की सड़क तक! उत्तर गए वो, एक दो और लोग भी मिले, अब तो यहां खोमचे पड़ने लगे थे, रात बेरात कोई मुसीबत हो जाए, तो मदद मिल सकती थी, अब चल पड़े आगे वे तीन लोग, बातें करते हुए, सड़क का काम चल रहा था उन दिनों, पत्थर और मिट्टी पड़े थे, दिक्कत तो नहीं हुई, लेकिन अगर बारिश पड़ी होती, तो बड़ी मुसीबत थे!
और जब कोई आधे रास्ते में आये, तो वही रास्ता दिखा! हवेली को जाने वाला! मन तो किया, कि दौड़ चलें उस हवेली के लिए! लेकिन.... नूर तो होगी नहीं, कल इत्मीनान से आएंगे, और पूछगे नूर के बारे में!
चल दिए आगे,
और पहुँच गए गाँव! सभी इंतज़ार कर रहे थे! उन्हें देख, सभी खुश हुए, बालक तो बहुत ज़्यादा!
अपनी पत्नी को सारा सामान पकड़ा दिया,
और बड़े भाई के पास चले, बड़े भाई बीमार थे, उन्ही का हालचाल पूछा उन्होंने, काफी देर बात की,
और अंटी में से, पैसे निकाल आकर दे दिए उन्हें, बड़े भाई ने रख लिए, अब उठे,
और चले गए वापिस अपने कमरे में, पत्नी ने भोजन लगा रखा था, हाथ-मुंह धोया,
और फिर भोजन किया, और सो गए! ज़ाहिर न होने दिया कि दिल में, क्या चल रहा है! बस रात काटनी थी!
और सुबह, जाना था हवेली! सुबही हुई साहब! जागे वो, निवृत हुए,
नहाये-धोये, खान-पान हुआ, दूध पिया,
और फिर अपनी साइकिल उठा ली, बता दिया घर में,
कि किसी गाँव में खबर करनी है,
और निकल गए। साइकिल के पहिये घूमे अब! मोटर लग गयी उनमे! फर्राटे से दौड़ पड़े!
रास्ता भले ही खराब था, लेकिन अपना जौहर खूब दिखाया उन्होंने!
और, आ गया वही रास्ता! वही!
जो नर तक जाकर, रुक जाता था! वो रुमाल निकाला, जेब से, उसको देखा,
और फिर से जेब में खोसा! और चला दी साइकिल उसी रास्ते पर! दौड़ाते रहे! भागम-भाग! फर्राटेदार!
रास्ते की झाड़ियाँ भी, हंसती जा रही थीं उन पर!
गड्ढे आते, साइकिल उछलती, पहिये चर्र चर्र करते, लेकिन हमारे सूरज साहब, कलाकार की तरह, बढ़ते रहे आगे!
और ठीक सामने, थोड़ा दूर, वही हवेली दिखी! जान में जान आई! भगाई साइकिल सरपट! और जैसे ही पास आये,
Haniolika
साँसें रुक गयीं उनकी! हवेली के आसपास, बीहड़ था! झाड़ियाँ! नागफ़नियाँ! कंटीली झाड़ियाँ! देसी कीकर के छोटे छोटे पेड़! दीवारों में, बड़े बड़े छेद! उन्हें यकीन ही नहीं हुआ! कांपते कांपते वे आगे बढ़े, वहाँ तक आये, वो ऊँट बाँधने वाली जगह, अब नहीं थी, टूट चूका था सब! काल के गाल, लील चुके थे सब!
और आगे बढ़े, कोई फाटक नहीं! अंदर गए,
मुड़े,
mwalitu
उस कमरे तक गए, कमरा था ही नहीं, धंस चुका था वो!
अब तो बस, उस कमरे के अँधेरे को, सूरज की दीवारों के छेदों के रास्ते अंदर आती, रौशनी ही चीर रही थी! धक्क रह गए सूरज साहब! अब कुछ नहीं था वहाँ! बस घास-फूस, कुछ झाड़ियाँ, कुछ परिंदे,
और कुछ टूटे हुए पत्थर! राणा साहब की वो जिंदा हवेली, अब बस खंडहर थी! जिसे भूतकाल ने तो परित्यक्त कर ही दिया था,
अब वर्तमान उसे धूमिल करने में लगा था! भविष्य तो उसका नामोनिशान देखने को भी, राजी नहीं था! नूर! चली गयी थी भूतकाल में वापिस! जहां की थी वो! जहां से आई थी वो! वहीं चली गयी थी! छोड़ गयी थी, अपने वर्तमान काल के आशिक़ को, तड़पने के लिए! रोने के लिए, बिलखने के लिए! उन तीन-चार रातों के सहारे ही, अब जिंदगी काटनी थी सूरज साहब को!
और सूरज साहब! वो तो अब अस्त हो चुके थे! निस्तेज हो चुके थे! उनकी एक आस, जो बची थी, यहां आकर, चकनाचूर हो चुकी थी! वे बैठ गए वहीं! एक पत्थर पर!
और आंसू भर लाये आँखों में! एक प्रेत से प्रेम! सूरज जी का, एक प्रेत से प्रेम! कमाल था!
वो वो नर! कहाँ थी? क्या देख नहीं रही थी? अपने इस आशिक को? नूर तू तो चली गयी, इस मानस को छोड़ गयी रोने के लिए! कितना गलत है, कितना सही,
ये तो तू ही जाने, मैं तो मानस हूँ, मानस का ही साथ दूंगा! क्या गुजर रही थी सूरज जी पर! कोई पूछे तो सही? अब तो शब्द भी नहीं हैं उनके पास!
और तभी! तभी मित्रगण! वहाँ सुगंध फैली! वही सुगंध! वहीं! नूर के वस्त्रों में लगे इत्र की सुगंध! चौक पड़े! उठ पड़े! चारों तर्ज, बदहवास से देखने लगे! नूर! नूर! चिल्लाने लगे!
सर्द हवा के झोंके, छूने लगे उनको! वो कभी आगे भागें, कभी पीछे, नाम ले लेकर पुकारते हुए! रो रो कर नाम लेते हुए!
उस सुगंध का पीछा करते हुए!
नूर!
नूर एक बार! बस एक बार! एक बार मिल लो! मिल लो!
मैं जी जाऊँगा! नहीं तो, नहीं रह सकता! एक बार! बस एक बार! पागलों की तरह से,
सूरज साहब, यही चिल्लाते रहे!
और .....
कोई नहीं आया! कोई भी नहीं! वे तक गए, सांस फूल गयी! बैठ गए एक जगह! हवा,
जो दीवारों से टकराती, तो आवाज़ करती! झाड़ियाँ, हवा से बातें करने लगती! सुनसान था वहाँ! बदहवास से, सूरज साहब उसी कमरे को देखने लगे,
और तभी, तभी किसी की पायल बजी! उन्होंने सुना,
साफ़ सुना! ये पायल ही थी, कोई आ रहा था, या कोई जा रहा था! लेकिन कौन? वे खड़े हुए, पायल की आवाज़ के पीछे चले,
ये आवाज़, एक टूटी हुई सीढ़ी की तरफ से, ऊपर से,
आ रही थी! कोई चहलकदमी कर रहा था! नूर? नूर? वे चिल्लाये! किसी बालक की ज़िद की तरह!
नूर? नूर? तुम्ही हो न? मुझे मिलो! मिलो नूर! एक बार! मान जाओ! बस एक बार! आवाज़ बंद! कोई चला गया था!
और फिर से सुनसान! सन्नाटा! वीराना! फिर से आ बैठे, घंटा हुआ, कोई नहीं आया सारी गुहार,
गुजारिश, पत्थरों से ही टकरा गयीं! वे उठे अब, थके-हारे, एक बार फिर से आवाजें दी, कोई नहीं आया! कोई भी! आये अपनी साइकिल तक, फिर से हवा का एक सर्द झोंका छू कर गया उन्हें, उन्होंने हवेली को देखा, कुछ बड़बड़ाये,
और चले वापिस, आखिरी उम्मीद ने भी, दम तोड़ दिया यहां आ कर, अब साइकिल चलाने लायक जान नहीं बची थी, साइकिल को खींच कर ही चले! मित्रगण!
इस बात को कोई साल बीत गया था!
सूरज साहब, अब अवसादग्रस्त रहने लगे थे, किसी से बात नहीं करते, किसी से भी,
अपने आप ही बड़बड़ाते रहते, उस रुमाल को, संग ही रखते! हमेशा! किसी चीज़ में मन नहीं लगता था उनका,
घरवालों को चिंता हुई, ऊपरी इलाज आरम्भ हुआ, चिकित्सकों ने तो, मानसिक-अस्पताल के लिए, लिख दिया था! नौकरी पर,
कभी जाते, कभी नहीं, जिंदगी बदल गयी थी उनकी,
नूर की याद, उसका नाम, उसके साथ बिताया वक़्त, दिल में, नासूर बन गया था! लेकिन! उम्मीद कहीं बाकी थी! ज़रा सी! बाकी थी कहीं!
और यही ज़रा से उम्मीद, उन्हें जिंदा रखे हए थी! मित्रगण!
समय बीता! अब तो सूरज जी, अपना ध्यान रखना ही भूल गए! दाढ़ी-मूंछे बढ़ गयीं! घंटों अकेले बैठे रहते! किसी से बात तो करते नहीं थे,
घर पर सभी दुखी, क्या करें,
और क्या न करें! जिन जिन से इलाज करवाया,
वो ठीक न कर सके, कोई कहता, कुछ करा दिया है, कोई कहता प्रेत लगे हैं साथ, कोई कहता, प्रेतों के साथ खाना खाया है, जितने इलाज करने वाले, उतने ही जवाब!
लेकिन ठीक कोई करे नहीं! तीन महीने और बीते, उनका भतीजा, अश्वनी साथ रहने लगा था उनके, पढ़ाई कर रहा था, चाचा का ख़याल भी रखता,
और खुद पढ़ता भी, अश्वनी के साथ एक उसका सहपाठी पढ़ता था, अर्जुन, अर्जुन के पिता का एक छोटा सा व्यवसाय था, उसी सिलसिले में वे दिल्ली आते रहते थे, सदर बाज़ार में, खरीदारी करने, उनके एक जानकार थे, यहां दिल्ली में, ताराचाँद जी, ये ताराचंद मेरे वाकिफ़ हैं, इनका एक काम किया था मैंने, तभी से प्रेम मानते हैं, अमीरी की बू नहीं है उनमे! बहुत मददगार और खुशमिजाज़ इंसान हैं! अर्जुन के पिता जी को, अश्वनी के चाचा जी से. रेलगाड़ी में मदद मिल जाया करती थी,
उनकी हालत वे जानते ही थे, इसी सिलसिले में एक बार उनका दिल्ली आना हुआ, अपने व्यवसाय के सिलसिले में, तब ताराचंद जी के साथ मैं भी बैठा हुआ था, बात निकली,
और बात मुझे बताई. अब सौ कारण हो सकते हैं सूरज जी के साथ, बात सिर्फ इतनी थी, कि या तो वो यहां आएं,
या फिर मेरा इंतज़ार करें! वहाँ आने का!
और फिर, मेरा मन भी नहीं था वहां जाने का, एक तो गर्मी,
और कुछ काम भी लगे थे, मैं चला आया उस दिन, अर्जुन के पिता तीन दिन रुके,
और आखिरी दिन मुझसे मिले, अब मुझे लगा कि, जब ये इतने परेशान हैं, उन सूरज जी के लिए, तो मुझे भी मदद करनी ही चाहिए, बस! हो गया कार्यक्रम निश्चित! जिस दिन वे जा रहे थे, उसके एक हफ्ते बाद का कार्यक्रम बन गया! टिकट करवा ही लिए थे हमने,
और इस तरह, एक हफ्ते पश्चात, हम हो गए रवाना, हनुमानगढ़! देखें तो सही, ऐसा कौन सा मर्ज़ है जो पकड़ में ही नहीं आ रहा! हम पहुँच गए हनुमानगढ़! हनुमानगढ़! एक खूबसूरत शहर! राजस्थान के समृद्ध इतिहास को समेटे एक ऐतिहासिक शहर! अर्जुन के पिता जी और अश्वनी लेने आये थे हमे! अर्जुन के पिता जी ने ही, हमारे ठहरने का बंदोबस्त किया था! अगले दिन, हमे मिलवाना था उन सूरज साहब से!
रात बीती,
और सुबह हुई,
सुबह चाय-नाश्ता करवा दिया उन्होंने,
और अब हम चले सूरज साहब को देखने! उसकी रिहाइश पर!
अश्वनी मिला,
और हम अंदर चले, सूरज साहब साफगोई से मिले, मुझे नहीं लगा कि, कोई समस्या है उनके साथ! लेकिन अब तक, मुझे अर्जुन के पिता जी, बता ही चुके थे उनके बारे में! अब मैंने उनसे बातें की, बिलकुल ठीक बातें कीं उन्होंने! कोई कमी नहीं थी, देह भी मज़बूत थी उनकी, छह फ़ीट के करीब रहे होंगे, तो समस्या क्या है? ये जानना ज़रूरी था! वो रुमाल! रुमाल झाँक रहा था उनकी जेब से! मैंने निकाला,
और जैसे ही निकाला, सूरज साहब बदल गए! गाली-गलौज पर उत्तर आये! हाथा-पायी करने लगे! इस रुमाल में ही था कुछ न कुछ! अब समझ आया! मैंने रुमाल रख लिया! अपने पास, सूरज साहब रोने लगे! गिड़गिड़ाने लगे,
