हनुमानगढ़ की वो हवेली!
हाँ! वो हवेली! मुझे अच्छी तरह से याद है! काफी बड़ी हवेली! आलीशान! नायाब! बेहतरीन! बीस बीस फीट की दीवारें! वो कालीन! वो बड़े बड़े सागर! वो बेल-बूटे! वो भाले! वो तलवारें! वो गद्दे! वो जाम! वो खाना! वो बड़े बड़े कमरे! सब याद है मुझे! वो हवेली, आज भी है! आज भी!
और तो और, वहां अंग्रेजी कपड़े पहने बाबू लोग भी हैं! वो रक्काशाएं! ऐसी, कि जैसी मैंने कभी नहीं देखीं! वो नाच-गाना! वो ऐय्याशियां! वो मदिरा! वो नशा!
सब याद है! सूरज सिंह! रेलवे में नौकरी करते हैं!
गाँव है उनका वहाँ, एक रात, वो अपनी ड्यूटी ख़त्म कर, अपने कमरे पर गए, उनकी छुट्टी मंजूर हो गयी थीं, घर जाना था उन्हें,
खुश थे,
परिवार वहीं गाँव में ही रहता था उनका, बालक अभी छोटे थे, घर कुनबा बड़ा था, संयुक्त परिवार है उनका, अगला दिन दफ्तर में बिताने के बाद, शाम को, चल देना था घर के लिए उन्हें, घर, यानि के अपने गाँव, गाँव दूर था, दूरदराज में पड़ता था,
और उन दिनों, मौसम भी सही नहीं था, बारिश भी पड़ जाया करती थी, घर के लिए, खरीदारी कर ली थी, बड़े भाई और, छोटे भाई के बालकों के लिए, कपडे-लत्ते, खिलौने आदि सब ले लिए थे!
और कुछ वस्त्र आदि भी, घर के सदस्यों के लिए, तो अगला दिन, उन्होंने अपनी ड्यूटी की,
और बाद में साँझ ढले, वे चल दिए कोई सवारी पकड़ने के लिए, बस जाया करती थी, बस ही लेनी थी, तो शाम को, अपने कमरे को ताला आदि लगाकर, अपना सामान उठा कर, वे चल दिए, बस भी मिल गयी, बैठ गए, बस में उन्हें, नींद आ जाया करती थी,
और इसीलिए, अपना सामान बढ़िया ढंग से रखवाया उन्होंने,
और अपनी सीट पर बैठ गए, थोड़ी ही देर में, ऊँघने लगे, नींद तो तब खुली, जब उनके चेहरे से बारिश की बूंदें टकराई, खिड़की बंद कर ली उन्होंने,
और बाहर झाँकने लगे, बियाबान था बाहर, बस, बस की ही बत्तियां जली थीं! उन्हें उबासियां आयीं फिर से,
और फिर से ऊँघने लगे! नींद ने आ घेरा, सो गए, कोई एक घंटे के बाद, बस रुकी, एक तरफ खड़ी हो गयी, बस का टायर फट गया था,
अब टायर बदलना था,
और समय हो गया! टायर बदला गया, बारिश अभी भी, पड़ रही थी, धीरे धीरे! बस वक़्त से घर पहुँच जाएँ,
और क्या चाहिए, चिट्ठी डाल ही दी थी,
तो आज सब इंतज़ार कर रहे होंगे उनका! यही ख़याल आ रहे थे, बस फिर से चली,
और कोई आधे घंटे के बाद, बस फिर रुकी, एक तरफ! अब बस में कोई तकनीकी खराबी आ गयी थी! अब तो रुकना ही था! रुके सभी!
और ये सामने आया कि अब, बस नहीं चलने वाली! या तो कोई और बस आये, या फिर कोई और सवारी पकड़ी जाए! यात्री लोग गुस्सा! लेकिन क्या करें! कुछ लोग तो जाने लगे पैदल ही, बारिश में भीगते हुए, जिनके गाँव पास में ही थे! कुछ वहीं रुक गए!
और सूरज साहब, अपना सामान लेकर, वो भी सड़क किनारे बने, एक खंडहर से के पास, जा खड़े हुए, कोई सवारी ही आ जाए!
एक घंटा, दो घंटे, ढाई घंटे, बीत गए! कोई नहीं आया!
और बारिश, बारिश ने तो अब ज़ोर पकड़ लिया था! तब साहब, कुछ ऊँट वाले आ रहे थे, पैदल पैदल! वे भी रुक गए! देखा उन्होंने, कुछ बातचीत भी हुई, तो पता चला, ये ऊँटवाले, सूरज साहब के गाँव से पहले ही मुड़ जाएंगे, लेकिन! वहां तक, उनका साथ तो था! दो आदमी और साथ हो लिए, अब भीगते भीगते, चल पड़े! घर पहुंचना ज़रूरी था! चाहे कितनी भी रात हो, वो ऊँटवाले, करीब बारह थे, सूरज साहब को बिठा लिया था उन्होंने ऊपर, ऊँट के, एक मोमजामा दे दिया था, सामान ढकने को! सामान ढक लिया था उन्होंने!
और अब यात्रा शुरू हो गयी थी! वो जो दो आदमी और थे,
उनका रास्ता आया,
तो वे भी निकल लिए! अब रह गए वे बारह और एक ये, सूरज साहब! तभी मेह बरसा तेज! कड़कता हुआ! वे बारह लोग, जैसे चिंतामुक्त थे!
जो उस ऊँट को हाँक रहा था, जिस पर सूरज साहब बैठे थे, उसने अब बात अकर्णी शुरू की, "क्या नाम है जी आपका?" बोला वो, "सूरज सिंह" बोले वो, "क्या करते हो आप जी?" पूछा, "रेलवे में मुलाज़िम हूँ" बोले वो, "अच्छा , गाँव जा रहे हो!" वो बोला, "हाँ" बोले वो, "मेह को देख लो, कैसे बरस रहा है" बो बोला, ऊपर देखते हुए, "हाँ, आज तो काफी तेज है" वे बोले,
और फिर वे चुप हुए, कुछ देर के लिए, ऊँट, एक के पीछे एक, चले जा रहे थे, सजे-धजे थे! "आपका क्या नाम है?" पूछा सूरज साहब ने, "मेहर सिंह" वो बोला, "कहाँ जा रहे हैं?" पूछा, "हमे तो बहुत आगे जाना है, रास्ते में ठहरना भी है" वो बोला, "व्यापारी हो?" उन्होंने पूछा, "हाँ जी, तिजारती" वो बोला, "रात को इतने वक़्त?" पूछा,
"क्या करें साहब" वो बोला, हँसते हुए,
"आपकी तो सरकारी नौकरी है, यहां क्या दिन और क्या रात" वो बोला, सही कहा था उस मेहर सिंह ने,
और फिर से कड़की बिजली, आवाज़ गूंज उठी! समय करीब, बारह का हो गया होगा,
और फिर मेहर सिंह रुका, एक रास्ता आ गया था, और बारिश भी तेज थी, एक आदमी आया, मेहर के पास, उनमे बात हुई, पता चला, पानी भर गया है आगे, कहाँ गड्ढा हो कहाँ नहीं, पता नहीं, अँधेरा बहुत है, रात ज़्यादा, अब कहीं रुक ही लिया जाए! मेहर ने बताया सूरज साहब को, बात तो सही थी,
अँधेरा भी था,
और समय भी अधिक था, वे भी मान गए, अलसुबह निकल जाएंगे, "कहाँ जाएंगे?" पूछा सूरज साहब ने, "हमारे एक सेठ जी हैं, लाला बिंदा मल, वहीं चलते हैं" बोला मेहर,
और चल पड़े, कोई आधा घंटा चले, सामने एक हवेली दिखाई पड़ी, रौशन थी हवेली!
वहीं जा रहे थे सभी!
और पहुँच गए! ऊँट लगा दिए गए, एक जगह,
और सूरज साहब को, उतार लिया गया!
आलीशान हवेली थी वो! बाहर बारिश थी!
और अंदर अब राहत मिली, मेहर ने सामान उठा लिया था उनका, मना करने पर भी! वे अंदर आये, दो भालेधारी मिले, सूरज सिंह का दिमाग खड़का! बंदूकों के ज़माने में भाले?
पूछा मेहर से, मेहर ने कहा की ये, सेठ जी का,
और इस हवेली का रिवाज है! ठीक है जी! रिवाज है,
तो कोई बात नहीं! वे अंदर गए! मेहर सिंह, एक कमरे में ले आया उन्हें, सामान रखा उनका,
और फिर बाहर गया, और फिर आया, पानी लाया था,
और कुछ सूखे कपड़े भी धोती और एक कुरता, ले लिया उन्होंने, साफ़ किया शरीर, सर पोंछा,
और पहन लिए कपड़े, फिर पानी पिया, फिर मेहर सिंह, बाहर गया, एक थाली लाया, थाली में, हलवा! खीर, मिठाइयां थीं! रबड़ी भी!
खायीं उन्होंने! दोनों ने मिलकर खायीं! मेहर ने, बताया कि, यहां कभी भी आ जाओ, खाना हमेशा ही मिलेगा! चाहे मांस खाओ, चाहे ये मिठाइयां, सूरज साहब के माथे पर, टीके का निशान था, चंदन के टीके का, इसीलिए वो मिठाइयां लाया, बाद में वो, भोजन करेगा, अगर वो चाहें तो खा सकते हैं, वे खा लेते थे मांस, मेहर खुश!
और ले गया उनको अपने साथ! एक गलियारे से, वहां,
औरतें, श्रृंगार किये हुए, आ-जा रही थीं! जैसे घर में कोई,
उत्सव हो!
और फिर तबले की आवाज़ आई! नाच-गाना चल रहा था! वहीं ले गया मेहर उन्हें, मेहर के सभी साथी वहीं थे! सभी ने स्वागत किया सूरज साहब का! बैठ गए वो! नाच-गाना चलता रहा! अब मेहर ने, मदिरा का गिलास दिया उन्हें,
पी लिया करते थे, छटे-छमाही में! सो पी उन्होंने! थकावट थी, तो और पी गए! अब लगा खाना, लजीज़ खाना! मुग़लई सा खाना! खाने लगे वे सब! अब रक्काशाओं ने, नाचना शुरू किया! ऐसा नाच, उन्हों एकभी किसी फिल्म में भी नहीं देखा था! बहुत बढ़िया लगा उन्हें! तालियां पीटने लगे! खाते रहे, पीते रहे,
और आनंद उठाते रहे! फिर उठे सूरज साहब! मेहर के साथ,
और चले अपने कमरे में, जा सोये,
मेहर वापिस चला गया था! उस रात, अच्छी नींद आई उन्हें! अब हुई सुबह! मेहर आया, मेहर से कही उन्होंने जाने की, मेहर ने उनको छोड़ने के लिए, अपना ऊँट निकाल लिया, सामान उठा लिया, बैठे सूरज साहब,
और चल पड़े! बातें करते हए, रात की! मेहर ने बहुत कुछ बताया सेठ जी के बारे में!
और ये भी कि, सेठ जी के यहां अभी दो दिन और रुकेंगे, आज रात भी आ जाएँ, दावत का मजा लें! मान गए सूरज साहब! वो खाना! वो पीना! वो नाच-गाना! बहुत पसंद आया था उन्हें! इसी कारण!
और जब गाँव का रास्ता आया सूरज साहब का, तब ऊँट रोक दिया उसने,
और अब विदा ली, आज रात को, फिर से आना था उन्हें!
वे चलते गए! चलते गए! गाँव सामने ही था!
और आ ही गया गाँव!
वो दिन सूरज साहब का, बड़ी बेचैनी में बीता! उस हवेली के बहुत याद आ रही थी उन्हें! मन कर रहा था कि, अभी भाग जाएँ वो वहाँ! हालांकि,
काफी दिनों के बाद आना हुआ था उनका अपने गाँव, लेकिन जी उचाट था! अब शाम का इंतज़ार था उन्हें, कि कब शाम हो,
और वो जाएँ उस हवेली में, वो भोजन, वो मिठाइयां,
और वो इठलाती, कामुक रक्काशाएं, सारी याद आ रही थीं उन्हें! सेठ साहब से भी नहीं मिल पाये थे, सोचा आज मिले, तो धन्यवाद कहेंगे उनको! आखिर भोजन किया था, रात गुजारी थी!
और सकुशल घर भी आ गए थे वो! पत्नी ने कोई कस न छोड़ी थी, "खुश करने में, फिर भी मन नहीं लग रहा था उनका, किसी तरह अलसाया हुआ वो, दिन काटा,
और हुई शाम, घर से कह कर गए कि, अपने किसी साथी के गाँव तक जा रहे हैं वो,
और साइकिल उठा, चल दिए, तेज तेज साइकिल चला,
वो डेढ़ घंटे में पहुँच गए थे वहाँ, अब अँधेरा छाने लगा था,
और वो दूर दराज में खड़ी हवेली, फिर से रौशन हो गयी थी!
वो वहीं चले, एक जगह, साइकिल रखी, ताला लगाया उसे,
और फिर ऊँट देखे, ऊँट वहीं खड़े थे! इसका मतलब, अभी मेहर और उसके साथी मौजूद थे वहां, वे अंदर जाने लगे तो, पीछे से एक आवाज़ आई. "साहब? ओ साहब?" ये एक व्यक्ति था, कोई पचास साल का, दाढ़ी-मूंछे सफ़ेद थीं उसकी,
सर पर, रंग-बिरंगा साफ़ा बाँधा था, हाथ में एक लड था!
वो आया उनके पास, नमस्कार हुई,
और अब पूछा मेहर के बारे में उन्होंने, वो ले गया अपने साथ, एक जगह, चारपाई बिछी थी, वहाँ बिठाया, पानी लाया,
और फिर मेहर को ढूंढने के लिए, चला गया, कुछ ही देर बाद, मेहर आ गया,
बड़ा खुश हुआ उन्हें देखकर मेहर! हाल-चाल पूछा,
घरबार के बारे में पूछा, बाल-बच्चों के बारे में पूछा,
और फिर बैठ गया उनके साथ! बताया कि कल निकलेंगे वो यहां से,
और अगले महीने की, नवमी को, वापिस आयेंगे वो यहां!
और फिर एक आदमी आया, हाथ में लोटा लिए,
और सकोरे लिए, मिट्टी से बने सकोरे,
और लोटे में से, वो अफीम का घोटा डाला उसमे, और सम्मान के साथ दे दिया दोनों को, दोनों ने, दो दो सकोरे, खींच मारे! और फिर, मेहर ले गया उन्हें अपने साथ, हवेली के अंदर,
वहीं भालाधारी दरबान मिले, उन्हों रास्ता छोड़ा,
और चले गए वो अंदर, अब मेहर के साथी मिले, उनसे भी मिले सुरज साहब, सभी खुश हुए सूरज साहब से मिलकर! कि न जाने कब से जानते हों! जबकि ये पहचान, मात्र एक रात की थी!
और तभी, तबले की थपक गूंजी!
कोई साजवान, साज सजाने चला था उस तबले पर! उनका ध्यान वहीं गया, मेहर ने यही कहा कि, आज की रात, सूरज साहब, जिंदगी भर के लिए याद रखेंगे! मित्रगण!
सच कहा था मेहर ने! सूरज साहब को वो रात, कभी नहीं भूली,
और न ही भूलेंगे! अब, सूरज साहब ने, सेठ जी से मिलने की, इच्छा जाहिर की, मेहर उठा, उनका हाथ थामा,
और ले गया भीतर, सीढ़ियां चढ़ा वो,
और गलियारे में पहुंचे, फिर मुड़े,
और फिर एक कमरे में जाने से पहले, दरवाज़ा खटखटाया! अंदर से, एक औरत आई, उस से मेहर की बात हुई, मेहर को कुछ बताया,
और मेहर फिर से आगे चल पड़ा, और ले आया एक बड़े से, बारामदे में उन्हें! वो बारामदा, सजा था तस्वीरों से!
ह
मूर्तियों से! कालीन बिछे थे! दीवार पर, तलवारें और, किरिच लटकी थीं!
दो बख्तरबंद भी थे!
और तभी किसी के आवाज़ आई, जूतियों की, चर्रमचर आवाज़ आई,
और जो आदमी वहाँ आया, वो बेहद खूबसूरत था! उसने, सफेद धोती पहनी थी, तावदार मूंछे थी! गोरा रंग था! बदन बेहद कसा हुआ,
और डील डौल, किसी पहलवान की तरह था!
ऊपर शरीर पर, सोने की मालाएं पहनी थीं, सोने के कड़े!
और एक छोटी सी, कसी हुई कमीज, मर्दाना कंधे साफ़ दीख रहे थे। चौड़ा सीना था उसका! उम्र कोई तीस के आसपास होगी! वो आया, और बैठा! उनको भी बिठाया!
सूरज साहब से, गले लग के मिला, मेहर से पूछा, कि मेहमान को कुछ खिलाया पिलाया या नहीं?
फौरन ही, बुलाया गया किसी को,
और सूखे मेवे परोसे गए, बर्फियां, जलेबियाँ!
और खिलाईं सूरज साहब को! ऐसा स्वाद, कभी नहीं चखा था उन्होंने!
वो सेठ नहीं, सेठ का बेटा था! राणा कहते थे उसे, सेठ जी किसी काम से, बाहर गए हुए थे! कोई बात नहीं, बेटे से मुलाक़ात तो हुई! खूब खातिरदारी की सूरज साहब की, उन सेठ जी के लड़के राणा ने!
सूरज साहब बड़े खुश थे! किसी अनजान आदमी से, इतना प्यार! इतना लगाव! ऐसी खातिरदारी! हैरत में पड़ गए थे, हमारे सूरज साहब! उसके बाद, मेहर ले गया उनको अपने साथ, अब रात का आँचल, फैलने लगा था, उस हवेली में, अब, रौनक छाने लगी थी! इत्र की सुगंध फैलने लगी थी! लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी थी!
जो भी मिलता,
वही नमस्कार करता सूरज साहब से! अब मेहर, उनको अपने साथियों के पास ले गया, उन सभी ने हाथ जोड़कर, नमस्कार किया, उन्होंने भी किया,
और उन सभी ने, उस कालीन पर,
आगे पीछे खिसक कर, जगह बनायी उन दोनों के, बैठने के लिए! वे बैठ गए, मीठे मीठे फल परोसे गए, खुरमैनी, आलूबुखारे, कच्चे बादाम आदि आदि! सभी खाते रहे, मेहर, उनको कच्चे बादाम छील छील कर, खिलाता रहा,
और तभी थाप बजी! तबले की थाप, घुघरू बजे, सारंगी बजी! नाच गाने का बंदोबस्त चल रहा था!
और फिर शराब लायी गयी! बेहतरीन शराब! वो परोसी गयी, साथ में सूखे मेवे आदि भी!
सूरज साहब ने, खींच मारे दो गिलास! शराब थी या शहद मिला पानी! ऐसी शराब तो, जिंदगी में भी नहीं पी थी!
और फिर तबले की ताल चली!
सभी उठ खड़े हुए। सूरज साहब भी!
और चल पड़े सभी उस नाच गाने में शरीक होने! रक्काशाएं सब तैयार थीं! राणा साहब अपने मसनद पर,
अपनी कोहनी टिकाये, इंतज़ार आकर रहे थे उन रक्काशाओं के नाच गाने का!
और फिर हुआ नाच गाना शुरू! तबले बज चले! सारंगी चल पड़ी!
और भी वाद्य बज उठे! माहौल में, अय्याशी तैरने लगी! नाच गाना चला! कुल छह रक्काशाएं, बारी बारी से थिरकने लगती थीं! उनकी इस थिरकन से, सभी घूरती आँखें, अंदर तक थिरक जाती थीं! ऐसे ही सूरज साहब! तन और मन से, बस उसी नाच गाने में मग्न थे! मदिरा परोसी जा रही थी! व्यंजन भी परोसे जा रहे थे!
सूरज साहब, सभी का आनद ले रहे थे!
और अब! अब वो रक्काशाएं, अपने उन आतशी जिस्मों को, उन कपड़ों की कैद से आज़ाद करने लगी थीं! धीरे धीरे, कमरबंद खोले जा रहे थे! वस्त्र धीरे धीरे खिसकने लगे!
सभी लोग, जो टेक लगाए बैठे थे, सीधे बैठ गए! सूरज साहब! सूरज साहब का तो मुंह ही खुला रह गया! जल्दी जल्दी गिलास खींचे उन्होंने!
अब उन रक्काशाओं के कपडे, बस उनके जिस्मों के उभार और उठावों पर ही, लटके थे! राणा साहब से रहा न गया! अपनी पसंदीदा रक्काशा के वो कपड़े भी, खींच लिए!
और रख दिए एक तरफ! सूरज साहब को तो उबाल आ गया! ऐसे खूबसूरत जिस्म! फिर धीरे धीरे, सभी रक्काशाएं अपने कामुक और हुस्न से लबरेज़ जिस्मों को, लहराने लगीं! एक रक्काशा, सूरज साहब के पास आई, उनकी गोद में बैठ गयी.
और मचा दिया बवाल सूरज साहब के अंदर! सूरज साहब के हाथ पकड़े उसने,
और रख लिए अपने ऊपर! अब बाकी का काम, उनके हाथ जानते थे ही! सभी आनंद ले रहे थे! फिर उस रक्काशा ने,
अपने हाथ से मदिरा परोसी,
और पिलाने लगे उन्हें मदिरा, अपने जिसमे से ढलका के, अपने स्तनों से ढलका के! सूरज साहब के तो होश उड़ गए!
जो नशा हुआ था, वो भी फुर्र हो गया! अब तो, दूसरा ही नशा था!
अब तो जैसे होड़ लग गयी! सभी ऐसे ही पीना चाहते थे! राणा साहब ने,
और रक्काशाएं बुला भेजीं! और यही सब होता रहा! सूरज साहब को उठाया उस रक्काशा ने,
और ले चली भीड़ से लग! वे चलते चले गए! जैसे सम्मोहित हो! ले आई एक कक्ष में, कक्ष बंद किया,
और विवश कर दिया सूरज साहब को! सूरज साहब तो, वैसे ही तड़प रहे थे! लिपट गए!
और हुआ फिर खेल शुरू! सूरज साहब हॉफते, तो रक्काशा ज़ोर-आजमाइश करती! सूरज साहब का, पूरा 'खयाल' रखा उसने! उस समय, सूरज साहब तब तक, मढ़े रहे, जब तक कि, आँखों के सामने अँधेरा न आ गया! जोश जोर मारता, तो फिर से मढ़ जाते! बात करने की तो, फुर्सत ही नहीं थी!
और जब खेल बंद हुआ, तब बातें हुईं! उस रक्काशा का नाम, नूर था! नूर! जयपुर की रहने वाली थी! अपना पता भी दिया था सूरज साहब को, सूरज साहब, आजतक, वो पता ढूंढ रहे हैं!
और जब मुझसे मिले, तभी मालूम पड़ा उन्हें, कि नूर, नूर थी तो सही, लेकिन अब नहीं है! वो तारीख के सफ़ों में, दर्ज है!
तो अब चूर चूर हो चुके थे! नूर ने उन्हें, पानी पिलाया,
और फिर से मदिरा! फिर से ज़ोर मार जवानी ने!
और फिर से, ज़ोर-आजमाइश शुरू! उस रात, नूर के साथ, कोई चार बार चूर हुए सूरज साहब! या यूँ कहें, कि बदन ने साफ मना कर दिया, नहीं तो न जाने कितनी बार,
और चूर होते नूर के साथ! नर ने उस रात,
बड़ी 'सेवा' की, हमारे सूरज साहब की! ऐसी सेवा, जो उन्हें अब इस जिंदगी में तो, शायद ही नसीब होती! उनका तो जी कर रहा था, कि इस हवेली में ही रह जाऊं! कहीं न जाऊं! बेचारे सूरज साहब! अभी सुबह होने में समय था, गलबहियां मार, लेटे हुए थे सूरज साहब! कि तभी, फिर से ईधन झोंक दिया नूर ने, उस मंद पड़ी आग में, अब भले ही, बदन के जोड़ खुलने की नौबत पर थे, लेकिन, बची-खुची ताक़त इकट्ठा कर, फिर से,
मैदान-ए-रंग में, रंग! जंग नहीं! मैदान-ए-रंग में, कूद पड़े! जम के लड़ाई हुई।
नूर,
सूरज साहब को, दरअसल, उनकी धधकती आग को,
और हवा दिए जाती थी! इस से,
आग और भइकती!
और सूरज साहब, जैसे भाप के रेल-इंजन की, बड़ी बड़ी कैंचियां चला करती हैं, ऐसे आगे बढ़ते जाते!
और जब, हुई आग शांत,
तो धम्म से, ढेर हो गए! अब समेट लिया अपनी बाजुओं में सूरज साहब को नूर ने!
आँखें भी न खोली गयीं उनसे! वो उनके सर को, कमर को,
और न जाने कहाँ-कहाँ सहलाते रही! सूरज साहब के बदन का, एक एक जोड़ अब रहम मांग रहा था,
रहम!
रहम उनके दिमाग से!
आग तो वहीं से लगती है न! इसीलिए! पांच-छह बार, किला फतह कर चुके थे!
लेकिन वो रक्काशा, जैसे कुछ और ही ठान के आई थी! फिर से चिंगारी भड़का दी! सूरज साहब कसमसाए, मन में हाँ, तन में न! कैसे फंसे! एक बार और! यही कहा उनके दिमाग ने!
और जुटाई हिम्मत! देह में जहां जहां ताकत बची थी,
बुला ली गयी 'एक' जगह!
और रम गए फिर से! इस बार संघर्ष विकट हआ!
आखिर संग्राम था ये, इसीलिए!
और जब सग्राम, आया अपने अंजाम पर, तो इस लोक से दूर चले गए सूरज साहब! अब तो उनके बदन ने, साथ छोड़ दिया था उनका! तड़प से पड़े थे बेचारे!
और वो रक्काशा! उनको सहलाये जा रही थी! मीठी मीठी बातों से, बहलाये जा रही थी! लेकिन अब चूल हिल चुकी थी सूरज साहब की! अब पतवार चलाने लायक भी नहीं बचे थे! उनके बदन की नैया, अपने आप बहे जा रही थी!
और इसी बहने में, आँख लग गयी उनकी! और जब आँख खुली, तो सब याद आया! बदन की अकड़न-जकड़न ने, सारे राज खोल मारे! वे उठे,
और नूर को ढूंढने लगे! आवाज़ भी दी उन्होंने! और तभी, नूर कमरे में आई! सजी-धजी! मुस्कुराते हुए, हाथ में एक बड़ा सा गिलास लिए!
उनके हाथ में दिया, उन्होंने पकड़ा, ये दूध था, केसर-बादाम मिला! रात बहुत मेहनत की थी उन्होंने, इस से कुछ राहत मिलती! गटक गए सारा! नूर, साथ आ बैठी!
और जब दूध खत्म हुआ, तो उनकी गोद में आ चढ़ी! अब चढ़ी फिर से गर्मी! और बैठी भी ऐसे कि, अब जो मर्द होगा, वो तो पकड़ा ही जाएगा! अब क्या करें? दर्द था उन्हें! टीस उठ जाती थी, रह रह कर!
और ये कमबख्त, सुबह सुबह ही, 'जुध' (युद्ध) के लिए आ इटी!
सूरज साहब ने, जुध ही कहा था, तो मैंने भी, जुध ही लिखा!
अब क्या करते! बिछ गयी बिसात!
और हो गया संग्राम शुरू! और जब निबटे, तो बहुत देर तलक, चिपटी रही नूर उनसे! एक मेहबूबा की तरह!
अब तो! सर कनस्तर में,
और हाथ कड़ाही में थे उनके! सूरज साहब के! लेकिन तभी आई घर की याद! वे उठे,
और दरवाज़ा खोला, सुनसान पड़ी थी हवेली, शायद सो रहे हों सभी, यही सोचा! दिन तो चढ़ चुका था! अब जाना था उन्हें! घर! अपने घर! उन्होंने नूर से कहा कि, वो अब घर जायेंगें! नूर के चेहरे का नूर जाता रहा! ऐसा सुनकर, आखिर में, आज रात आने के लिए, मना ही लिया सूरज साहब को! बाहर तक चली नूर, ऊँट बंधे थे अभी भी, अर्थात, मेहर और उसके साथी अभी भी, वहीं थे! अब नूर से ली विदा! और चल पड़े बाहर, रात की खुमारी, और वो संग्राम, जब याद आता, तो चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती अपने आप! अब साइकिल उठायी अपनी उन्होंने,
और चल पड़े फिर! आ गए बाहर रास्ते पर, पीछे देखा, हवेली वहीं थी! वे मुस्कुराये,
और चल दिए घर, घर पहुंचे, बहाने लगाए,
और पत्नी से भी बहानेबाजी की, अब क्या करते! करनी ही पड़ती बहानेबाजी! वो दिन कैसे काटा उन्होंने, ये मैं भी समझ सकता हूँ,
और आप भी! बहुत बुरा दिन कटा उनका वो! एक एक पल, एक एक साल के बराबर, सारा दिन सोये ही रहे,
और खोये रहे, उस नूर में! मुहब्बत का शिकार हो चले थे शायद! यही हाल था उनका! अपने आप से ही, बात करना अच्छा लग रहा था! कोई दूसरा करता, तो बकवास ही लगता! पत्नी से भी, कटे ही रहे वो उस दिन! पत्नी ने बहुत रिझाया, लेकिन नहीं रीझे! उनको तो,
आज रात फिर से, नूर के नूर में,
गोते जो लगाने थे!
और फिर हई शाम! उठायी साइकिल, बनाये बहाने,
और घोड़े की तरह से, भाग निकले घर से! आज साइकिल तो, मोटरसाइकिल सी चल रही थी! न पसीना देखा, नगड्ढे! बस वो हवेली!
वो नूर!
भागम-भाग! साँसें चढ़ें! पसीने छलके! लेकिन, कैसी चिंता!
अब सड़क से मुड़े,
और डाल दी साइकिल, उस रास्ते पर! तेज तेज! भागम-भाग!
और दिखाई दी वो हवेली! जान में जान आ गयी!
और अब दौड़ा दी साइकिल! आज तो नए कपड़े पहने थे! चटख सफ़ेद! शहर से लाये हए! दूर से ही उन्हें, हवेली ऐसी लग रही थी कि, जैसे वो हवेली उनके लिए,
और वो इस हवेली के लिए ही बने हैं! स्वर्ग लग रही थी उन्हें!
जहां आनंद था! देहानन्द असीम आनंद! वो जा पहुंचे वहां!
और अब साइकिल से उतरे, उस बेड़े में आये,
आज ऊँट नहीं थे वहाँ! इसका मतलब, मेहर और उसके सभी साथी,
जा चुके थे वहाँ से! बताया तो था मेहर ने, कि वो लोग सभी, दो रोज ठहरेंगे वहाँ! कोई बात नहीं! बस नूर मिल जाए। साइकिल लगाई उन्होंने!
और चले अंदर! अंदर गए तो फाटक बंद था! उन्होंने वो बड़ी सी सांकल खड़कायी, कोई चल कर आ रहा था! फाटक खुला, वो एक दरबान था, उसने बुला लिया अंदर!
आज भी खूब रौनक थी वहाँ! उस दरबान से, उस नूर के बारे में पूछा, दरबान ने बता दी जगह, अब चल पड़े, दिल धड़का उनका!
देह में रसायन छुट चले! भुजाएं फड़क गयीं! वे चले तेज तेज!
और जा पहुंचे उस नूर के कमरे तक!
दरवाज़ा बंद था, खटखटाया, दरवाज़ा खुला, ये तो कोई और थी, नूर के बारे में पूछा, तो अंदर बुला लिया उनको, बिठाया, पानी पिलाया,
और बुलाने चली गयी! थोड़ी ही देर में, नूर अंदर आई! उस रूप देखकर तो, उनकी देह के सभी बाहरी अंग,
सलामी ठोंकने लगे! नूर मुस्कुराई, उस हरे वस्त्र में जैसे, चाँद को कैद कर दिया था किसी ने! उसका गोरा रंग, दमक रहा था! उसके आभूषण, अपने भाग्य पर, इतरा रहे थे!
और उसके अंग! चीख चीख कर जैसे,
सूरज साहब से गुखार लगा रहे थे कि, उनको आज़ाद करो! पास आ बैठी! अब तो आवेश चढ़ना ही था! ऊपर से उसका लगाया हुआ,
वो मादक सुगंध वाला इत्र, कुल मिलाकर, सूरज साहब को, हलाक़ करने के लिए,
पूरा इंतज़ाम कर लिया गया था! तभी वो कनीज़ आ गयी अंदर! एक गिलास, बड़ा सा, एक तश्तरी में रखे! अपने हाथ से उठाया नूर ने वो गिलास,
और कनीज़ लौट चली, दरवाज़ा बाहर से, भेड़ दिया, अब वो गिलास, आगे बढ़ाया नूर ने, ये बादाम-केसर वाला दूध था! चराई हो रही थी! मेहनत जो करनी थी सूरज साहब ने! तो जी, दूध पी लिया!
और अब नूर ने, शुरू किया वो खेल! और सूरज साहब! भूखे श्वान से,
मढ़ पड़े! उनकी देह का कोई अंग ऐसा नहीं था,
जो व्यस्त न हो! क्या हाथ! क्या पाँव! और क्या समूची देह! इस बार, जुध कांटे का हुआ! नूर की भी, फजीहत सी कर दी उन्होंने! कोई ऐसा आसन नहीं था, जो नहीं अपनाया गया हो!
और दो चार तो,
स्वयं-निर्मित थे! सोचिये! ऐसा जुध! लेकिन मित्रगण! जब हुआ खेल का अंत, तो हए ढेर वो! कराह से पड़े थे! आँखों के आगे, फुलझड़ियाँ छूट चली थीं! लेकिन नूर नहीं 'जल-मग्न हुई थी! उसने फिर से उत्तेजित किया!
और सूरज साहब! फिर से कूद पड़े, मैदान-ए-रंग में! नूर ने बहुत साथ दिया उनका! नहीं तो बेचारे हमारे सूरज साहब, गिर ही जाते नीचे!
और फिर से खेल हुआ समाप्त! नूर ने 'मालिश' की उनकी! 'सेवा' की!
और कोई बीस मिनट में ही, फिर से कहलने लगे सूरज साहब!
और फिर से मढ़ गए! अब तो चूमा-चाटी भी करने लगे थे! एक मेहबूबा की तरह! नाम लेते थे नूर का! सूरज और नूर! बात तो एक ही लगती है, लेकिन ये हमारे सूरज साहब, जिस से 'भिड़' रहे थे, उसको हराने के लिए तो, पूरी उम्र भी लगा देते तब भी, नूर को ढा नहीं सकते थे!
