मित्रगण! प्रेतात्माएं भटकती रहती है! अपने किसी विशेष स्थान पर! घूमती हैं, फिरती हैं और फिर वहाँ आ जाती हैं! वर्ष गुजर जाते हैं लेकिन इनका ये भटकना अनवरत चलता रहता है! मुझे ऐसी ही एक प्रेतात्मा मिली थी! नाम था निशा! वर्ष १९८२ में उसकी मृत्यु हुई थी, कारण था अकाल-मृत्यु! दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पर ये प्रेतात्मा भटक रही थी! एक सड़क दुर्घटना में निशा की मौत हुई थी। परिवार के अन्य सदस्य उस दुर्घटना में बच गए थे लेकिन ये अभागी नहीं बच पायी थी! जिस व्यक्ति के पास ये विद्या या सक्षमता होती है कि वो इनको देख ले, इनसे वार्तालाप कर ले ये स्वतः ही उस ओर चले आती हैं!
मै १२ अक्टूबर २००९ को यहीं से गुजर रहा था, रात्रि-समय था, मैं पटौदी आया हुआ था किसी कार्यवश, तभी ये मुझे मिली थी! रात्रि का समय होगा कोई १२ या साढ़े १२ का, मै शर्मा जी के साथ उनके बगल में बैठा हुआ था, तभी मैंने एक औरत को सड़क किनारे खड़े देखा, शॉल लपेटे हुए, वो कभी बैठ जाती फिर खड़े हो जाती और फिर कभी लेट जाती! वहाँ सड़क पर और हाथों से तालियाँ मारते हुए सड़क पर फिर ऐसे खड़े हो जाती जैसे अपने किसी जानकार की गाडी को तलाश रही हो!, मै समझ गया था कि ये माजरा क्या है! मैं उसको देख ही रहा था कि हमारी गाडी उसको पार कर गयी, मैंने शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, ज़रा गाडी रोकिये एक तरफ!"
"क्या हुआ गुरु जी?" वे बोले,
"कोई मिला है बेचारा!" मैंने कहा,
"अच्छा! अच्छा!" वे बोले और सारी बात समझ गए!
"देखना चाहते हो आप शर्मा जी?" मैंने पूछा,
"हाँ गुरु जी, दिखाइये!" वे बोले,
"तब मैंने एक मंत्र पढ़कर उनके नेत्रों पर स्पर्श किया, उन्होंने अपने नेत्र खोले तो दृश्य स्पष्ट हो गया!
"ओह! ये तो कोई अभागन है!" उनके मुंह से निकला,
"हाँ शर्मा जी, है तो कोई अभागन ही!" ये कहते हुए मै गाडी से बाहर निकला, और उसके पास पहुंचा! हम दोनों की आँखें मिलीं! उसने ताली मारना बंद किया और मुस्तैद खड़ी हो गयी! मैंने कहा, "कौन हो तुम?"
"निशा अग्रवाल" वो बोली,
"यहाँ क्या कर रही हो?" मैंने पूछा,
"इंतज़ार, मेरा भाई आने वाला है जयपुर से मेरे पति के साथ" उसने कहा,
"वे जयपुर में और तुम यहाँ? ये कैसे?" मैंने कहा,
"उन्होंने यहीं छोड़ा था मुझे" वो बोली और गाड़ियाँ देखने लगी,
"क्यूँ छोड़ा तुमको यहाँ, ऐसी सुनसान और बीहड़ जगह में?" मैंने पूछा,
"मुझे मालूम नहीं, बस यहीं छोड़ा था" उसने कहा,
"अच्छा, तुम्हारी उम्र क्या है?" मैंने पूछा,
"२६ साल" उसने कहा,
"कहाँ रहती हो?" मैंने सवाल किया,
"करोल बाग, दिल्ली में" उसने कहा,
"पति का क्या नाम है?" मैंने कहा,
"योगेश अग्रवाल" उसने कहा,
"आज क्या तारीख है?" मैंने पूछा, मै जानता था वो मुझे वो ही तारीख बताएगी जब वो आखिरी दिन जीवित थी!
"आज? आज २२ जनवरी १९८२ है" उसने कहा
बेचारी! २६ वर्षों से वो यूँ ही इसी सड़क पर ऐसे ही अपने पति और भाई का इंतज़ार कर रही है! भटक रही है! मुझे दया आ गयी!
"कैसे आ रहे हैं वे लोग?" मैंने पूछा,
"गाडी से आयेंगे वो, सफेद रंग की गाडी है, भाई चला रहा है। उसने कहा,
"कोई और भी है तुम्हारे साथ यहाँ?" मैंने पूछा,
"हाँ, एक लड़की है, कुसुम, वो यहाँ नहीं आती, उसको डर लगता है सड़क से" उसने कहा और फिर एक सफेद गाडी पर निगाह गड़ाई! जब गाडी पार हो गयी तो फिर से देखने लगी उसी तरफ जहां से यातायात दिल्ली की ओर आ रहा था!
"मुझे कुसुम से मिलवाओ ज़रा!" मैंने कहा,
"वो वहाँ उस पेड़ के नीचे है, जा के खुद ही मिल लो, मेरी गाडी कभी भी आ सकती है" उसने कहा,
मैंने वहाँ एक पेड़ देखा, पिलखन का पेड़ था, काफी बड़ा! मै वहाँ की ओर चला, पेड़ के पास आया, लेकिन वहाँ कोई नहीं था! तब मैंने आवाज़ दी, "कुसुम?"
कोई आवाज़ नहीं आई!
"कुसुम?" मैंने फिर आवाज़ दी!
कोई आवाज़ नहीं आई!
मैंने फिर ऊपर देखा तो वो लड़की एक मोटी सी डाल पर लेटी हुई थी! उम्र होगी कोई २०-२२ बरस! काला सूट पहने हुए, चुन्नी सर पर रखे हुए! मैंने उसको देखा और उसने मुझको!
"कुसुम? नीचे आओ ज़रा!" मैंने कहा,
वो वहीं से नीचे कूद गयी और बोली, "तुम कौन हो?"
"मेरी छोडो कुसुम तुम बताओ, तुम कौन हो?" मैंने कहा,
"मै कुसुम हूँ" उसने कहा,
"वो तो ठीक है, कहाँ रहती हो तुम?" मैंने कहा,
"गुडगाँव में" उसने बताया,
"आज क्या तारीख है कुसुम?" मैंने जानकार ये सवाल किया!
"आज ७ अगस्त १९९९ है" उसने कहा,
"अच्छा! यहाँ क्यूँ बैठी हो? घर क्यूँ नहीं जातीं तुम"
"निशा दीदी ने रोका हुआ है, कहती हैं उनका भाई आने वाला है लेने, वो मुझे रास्ते में छोड़ देंगी" उसने कहा,
बेचारी! किसका इंतजार कर रही हैं ये दोनों! जो कभी नहीं आएगा!
"अच्छा कुसुम, तुम कब मिली निशा दीदी से?" मैंने पूछा,
"आज ही, मैं सड़क किनारे खड़ी रो रही थी, तभी मुझे दीदी यहाँ ले आयीं"
"क्यूँ रो रही थीं तुम?" मैंने पूछा,
"कोई मुझे नहीं पहचान रहा था, न माँ, न पापा, न भाई, न बहन" उसने कहा,
"अच्छा, तो फिर तुम रो पड़ीं?" मैंने कहा,
"हाँ, अब मै घर भी नहीं जा सकती, मुझे याद ही नहीं" उसने कहा और मुस्कुरा पड़ी
मै जानता था, ये घर क्यूँ नहीं जा सकती, मुझे इन दोनों पर बहुत दया आई! बहुत दया! मैंने अपनी घडी देखी, रात के एक बीस हो चुके थे!
"मेरे साथ चलोगी कुसुम?" मैंने कहा,
"कहाँ?" उसने पूछा,
"तुम्हारे घर" मैंने कहा,
वो खुश हो गयी!
"हाँ! ज़रूर चलूंगी, मेरी किताब वहीँ रखी है, मेरी सहेली ढूंढ रही होगी अपनी किताब!" उसने कहा,
"ठीक है, मै तुम्हारी निशा दीदी से भी पूछ लूँ ज़रा रूको" मैंने कहा और वापिस निशा की तरफ आया! वो बेचारी अभी भी अपनी सफेद गाडी को ढूंढ रही थी! ।
"निशा?" मैंने कहा, उसने पलट के मेरी तरफ देखा,
"मिल गयी कुसुम?" उसने पूछा,
"हाँ मिल गयी" मैंने कहा,
"निशा, मेरे साथ चलोगी?" मैंने पूछा,
"कहाँ?" उसने पूछा,
"अपने घर!" मैंने कहा,
"घर?" उसने हैरत से कहा,
"हाँ घर!" मैंने कहा,
"फिर मेरा भाई और वो?" उसने पूछा,
"तुम उनसे पहले पहुँच जाओगी, मै तुमको घर छोड़ दूंगा, वो वहीं आ जायेंगे, तुम उनसे मिल लेना वहाँ घर पर!" मैंने कहा,
"अच्छा, और ये कुसुम? अकेली है यहाँ" उसने इशारे से कहा,
"वो भी हमारे साथ चल रही है, हम रास्ते में उसको छोड़ देंगे" मैंने कहा,
"ठीक है, मुझे मेरे घर छोड़ देना" वो बोली,
"हाँ, घर छोड़ दूंगा तुमको मै निशा!" मैंने कहा,
फिर मैंने उनको एक डिब्बी में डाल लिया! बेचारी उन दोनों ने मुझ पर यकीन किया था! मै चाहता तो उनसे कोई भी काम करवा सकता था! जैसे किसी वांछित स्त्री-भोग हेतु किसी भी स्त्री में प्रवेश करा सकता था! चोरी करवा सकता था, किसी की पिटाई भी करा सकता था! लेकिन अघोर में ये त्याज्य है! पाप का भागी बनाता है ऐसा तुच्छ कर्म! मुझे तो उनका भटकना समाप्त करना था! मुक्त करना था!
मैंने अपनी घडी पर नज़र डाली, रात के एक पचास हो गए थे! शर्मा जी ने अब गाडी स्टार्ट की और हम वहाँ से अपने स्थान दिल्ली की तरफ चल पड़े!
रास्ते में एक जगह और गाडी रोकी, वहाँ चाय पी और फिर चल पड़े!
हम दिल्ली पहुंचे! शर्मा जी सुबह अपने घर के लिए प्रस्थान कर गए। उसके बाद दो दिनों तक मै मिलने वालों के साथ व्यस्त रहा! २ दिनों के बाद मुझे उन दोनों का ध्यान आया!
सुबह शर्मा जी आये! बोले, "गुरुजी, उस निशा और कुसम का क्या हुआ?"
"अभी मेरे पास ही हैं, कोई शुभ दिन आने में ४ दिन बचे हैं, अभी 'कपाट बंद हैं" मैंने कहा,
"अच्छा" वे बोले,
"अभागी हैं बेचारी, अच्छा हुआ, उन पर नज़र पड़ गयी" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी, अब बेचारी ये आत्माएं मुक्त तो हो जायेंगी" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी, लेकिन इनकी अपनी अपनी इच्छाएं हैं, जिस कारणवश ये यहाँ भटक रही है, इनको इनकी इच्छा भी पूर्ण करवानी हैं हमे!" मैंने कहा,
"आप बेहतर जानते हैं गुरु जी" शर्मा जी बोले,
"इनसे पहले पूछना पड़ेगा शर्मा जी, बिना इनकी स्वीकृति के ये मुक्त नहीं होंगी" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"तो आप कब बात करोगे इनसे गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"आज रात ही बात करूँगा इनसे" मैंने कहा,
"तो मै आज यहीं रुक जाऊं?" वे बोले,
"हाँ, आप यहीं रुक जाओ, ये ठीक रहेगा"
उस दिन शर्मा जी वहीं रुक गए! मैं रात में अलख उठा कर उन दोनों से बात करने वाला था!
उस रात मै अलख में बैठा! मंत्रोच्चार किया और भूमि-कीलन किया! अब वो प्रेतात्माएं कहीं नहीं भाग सकती थीं! मैंने शर्मा जी के नेत्रों को भी 'दृष्टि से पूर्ण किया और फिर डिब्बी उठायी! इसी डिब्बी में वो अन्दर थीं! मैंने डिब्बी खोली! वे दोनों छिटक कर बाहर आ गयीं! दोनों बाहर आते ही घबराने लगीं अपने आसपास देखती, कभी छिपने की कोशिश करतीं! मैंने कहा,
"तुम दोनों घबराओ मत! डरो मत!"
वो चुप रहीं
"कोई तुम्हे कुछ नहीं कहेगा, न मै, न ये, और न ही कोई और, डरो मत बिलकुल" मैंने कहा,
उनकी थोड़ी हिम्मत बंधी, संयत हुई और फिर भूमि पर बैठ गयीं, एक दूसरे का हाथ थामे हुए!
"निशा, जो मै पूछंगा उसका उत्तर स्पष्ट देना तुम, ठीक है?" मैंने कहा,
"हाँ" वो सहमे सहमे बोली,
"तुम्हारी शादी को कितने वर्ष हुए?" मैंने पूछा,
"१ वर्ष हुआ है" वो बोली,
"आखिरी बार पति से कब मिली थीं?" मैंने पूछा,
"हम जयपुर से आ रहे थे, तब मिली थी मै" उसने कहा,
"मानेसर में?" मैंने पूछा,
"मुझे जगह याद नहीं" उसने कहा,
"अच्छा, तुम अब कौन से घर जाओगी? मैके या ससुराल" मैंने पूछा,
"पहले ससुराल फिर मैके जाउंगी, वहाँ से" उसने कहा,
"ठीक है निशा मै तुमको लेके जाऊँगा वहाँ! और कोई इच्छा?" मैंने पूछा,
"नहीं कहीं और नहीं, न कोई इच्छा, बस दोनों घर" उसने कहा,
"ठीक है, लेकिन अगर तुमको वहाँ किसी ने जाना नहीं पहचाना नहीं तो तुमको मेरे साथ आना होगा, बोलो? स्वीकार है?" मैंने कहा,
"हाँ स्वीकार है और पहचानेंगे कैसे नहीं, मेरा भाई मुझे बहुत प्यार करता है और मेरे पति भी!" उसने कहा,
बेचारी! मै चाहता तो जवाब दे सकता था लेकिन जवाब नहीं दिया!
फिर मैंने कुसुम से कहा, "कुसुम कहाँ जाओगी? अपने घर?"
"हाँ! अपने घर!" उसने कहा,
"और घर में कोई न मिला तो?" मैंने कहा,
"ऐसा नहीं हो सकता, सब मिलेंगे!" उसने कहा,
"तुमने मुझे बताया था कि तुमको किसी घरवाले ने नहीं पहचाना था और अब भी न पहचाने तो?" मैंने पूछा,
वो चुप हो गयी!
फिर बोली, "आप मेरे मदद करना उनको बता देना मेरे बारे में"
"ठीक है, मै बता दूंगा! और कोई इच्छा?"
"हाँ, मेरी एक किताब है वहाँ, वो मेरी सहेली की है, वो वापिस करनी है उसको" वो बोली,
"ठीक है, वापिस कर देंगे, कोई बात नहीं!" मैंने कहा,
उसके बाद मैंने उनको वापिस डिब्बी में डाल लिया!
"गुरु जी, मुझे दया आती है ऐसी प्रेतात्माओं पर, बेचारे!" शर्मा जी बोले,
"हाँ शर्मा जी, न जाने कितनी अनगिनत आत्माएं ऐसे ही भटक रही हैं संसार में!" मैंने कहा,
"चलो इनका तो भला हो जाएगा अब, इनका भटकना बंद! और मुक्त हो जायेंगे अब ये दोनों!" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी! इनको मुक्त कर दूंगा मै!" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी, भला हो जाएगा इनका" वे बोले,
"कल मै इनसे इनका पता लूँगा, फिर चलते हैं इनके घर, बात करते हैं, बाकी मै संभाल लूँगा!" मैंने कहा,
"ठीक है गुरु जी" वे बोले,
उसके बाद मै और शर्मा जी वहाँ से उठे और बाहर आ गए!
अगली रात मैंने दुबारा से उनको बाहर निकाला और उनसे उनका पता पूछा, दोनों ने अपना अपना पता दे दिया, नाम भी बता दिए, निशा के भाई का नाम हरीश था, और पति का नाम योगेश, कुसम के पिता का नाम वसुदेव था, और माता जी का नाम मंजू, मैंने अपने सामने बैठीं दोनों से कहा, "तुम दोनों जब वहाँ जाओगी तो बोलना कुछ नहीं, ना ही कोई हरक़त करना, पहले उनकी सुनना और फिर निर्णय करना, यदि तुम नहीं मानोगी मेरी कोई बात तो मेरा खबीस तुमको नहीं छोड़ेगा, समझीं?"
दोनों ने मेरी बात से सहमती जताई! और फिर अगले दिन हम उनके बताये पते पर जा पहुंचे, पहले हम करोल बाग में रहने वाले योगेश के यहाँ पहुंचे, योगेश घर पर ही मिले, ५०-५५ साल उम्र लगती थी उनकी! हमने एक दूसरे को अपना अपना परिचय दिया! अब मैंने निशा को हाज़िर कर दिया, निशा ने उनको पहचान लिया! शर्मा जी ने उनको हमारे आने का कारण बता दिया! वो चौंक गए! वो हमको अन्दर ले गए, एक एकांत कमरे में और बोले, "हाँ जी, मेरी एक पहले पत्नी थी, निशा नाम था उसका, सन १९८२ में मानेसर के पास हमारी गाडीका एक्सीडेंट हआ. हमको अस्पताल पहुंचाया गया. निशा ने गाडी में ही दम तोड़ दिया था, मेरा, मेरे साले हरीश और एक और थे हमारे साथ, सभी का इलाज हुआ, हम ठीक हो गए, २ वर्ष के पश्चात मुझे विवाह अपने माता-पिता के कहने पर करना पड़ा, आज मेरे दो संतान हैं, एक लड़का और एक लड़की"
फिर वो उठे और निशा की एक तस्वीर ले आये! हु-ब-ह वैसी ही जैसी मैंने देखी थी निशा! निशा ये देख और सुन भौंचक्की रह गयी!
"अच्छा निशा के मैके के बार में बताइये ज़रा?" शर्मा जी ने पूछा
"उसका मैका बलजीत नगर में है, अब वहाँ निशा का एक छोटा भाई दिलीप रहता है, निशा के माँ-बाप गुजर चुके हैं, पिछले साल हरीश की भी मौत हो चुकी है बीमारी से" योगेश ने बताया,
ये सुन निशा को एक और झटका लगा! अब हमारा काम यहाँ ख़तम हो गया था, हम उठने ही वाले थे कि चाय आ गयी, हम चाय पीने लगे, चाय पीते-पीते मैंने सारी बात का खुलासा कर दिया! योगेश बेचारे डर गए! बोले, "साहब, उसको मुक्त कर दीजिये, जो खर्चा आएगा, मै दे दूंगा"
"खर्चे की कोई बात नहीं है योगेश जी! आप हमसे, मिल लिए ये ही सबसे बड़ी बात है!" मैंने कहा,
उसके बाद हम वहाँ से उठे, मैंने तब निशा को डिब्बी में डाल लिया! और योगेश से विदा ली, योगेश ने हमारा मोबाइल नंबर ले लिया था! हम हमको जाना था गुडगाँव!
हम गुडगाँव पहुंचे पता पूछना पड़ा वहाँ, आखिर वो घर मिल गया! मैंने कुसुम को हाज़िर कर लिया! पहले शर्मा जी घर तक गए और घर की घंटी बजा दी, अन्दर से कोई ५५-६० वर्षीय व्यक्ति आया, शायद तबियत खराब थी उसकी! कुसुम ने बताया ये उसका बड़ा भाई है, जीतेन्द्र, शर्मा जी ने उस व्यक्ति से बात की और फिर थोड़ी देर बाद शर्मा जी मेरे पास आये और हम दोनों अन्दर चले गए! कुसुम बहुत खुश थी!
"जीतेन्द्र साहब!" मैंने कहा, तो वो चौंक गए! मैंने उनको सारा वाकया बता दिया! बेचारे फफक फफक कर रो पड़े! शर्मा जी ने उनको चुप कराया! फिर उन्होंने कहना शुरू किया," हाँ कुसुम थी मेरी छोटी बहन, होनहार, पढ़ाकू, और तेज तर्रार! वर्ष १९९९ में अपने विद्यालय की तरफ से घूमने गई थी जयपुर, वापसी में मानेसर में उनकी गाडी दुर्घटना का शिकार हो गयी कुसुम आगे बैठी थी, वो सामने से बाहर आ कर पड़ी और रास्ते के एक बड़े पत्थर से उसका सर टकराया, सर फट गया था, अस्पताल ले जाते समय उसकी मौत हो गयी! बाद में मेरे माँ-बाप की भी मृत्यु हो गयी, अब मै और मेरा बड़ा भाई हैं, बड़ा भाई भोपाल में रहता है" इतना कह के उनकी आँखें फिर से नाम हो गयीं,
मैंने कुसुम को देखा, मासूम सी बनी देख, सुन रही थी, हतप्रभ थी वो! उसने मुझे उस किताब के बारे में पूछने को कहा,
"जीतेन्द्र साहब! एक किताब थी उसके पास अपनी एक सहेली की, उस किताब का क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"वो किताब उसकी सहेली पूनम की थी, वो बाद में ले गई थी अपनी किताब, मुझे याद है,"
मैंने कुसुम को देखा वो शांत खड़ी थी!
मैंने कुसुम को फिर से डिब्बी में डाल लिया मै तब जीतेन्द्र से विदा लेकर वापिस अपने स्थान पर आ गया! रात्रि-समय उनको हाज़िर किया! मैंने निशा से पूछा, "निशा, तुम्हारी इच्छाएं पूर्ण हो गयीं हैं अब! अब मै चाहता हूँ कि तुम भटकना बंद करो और योनि-चक्र-भोग के लिए प्रस्थान करो! तुम्हे स्वीकार है?"
"मुझे स्वीकार है" निशा ने कहा,
फिर मैंने कुसुम से पूछा, "कुसुम, तुम्हारी भी इच्छा पूर्ण हुई, अब आगे के लिए प्रस्थान करो तुम तुम्हे स्वीकार है?"
"हाँ, स्वीकार है" उसने कहा,
"ठीक है, मै कल की रात्रि तुम दोनों को यहाँ से मुक्त कर दूंगा!" मैंने कहा!
और फिर अगले दिन आवश्यक सामग्री लाकर, रात्रि समय डेढ़ बजे मैंने दोनों को मुक्त कर दिया! दोनों एक दूसरे का हाथ थामे लोप हो गयीं! वो मुक्त हो गयीं थीं!
योनि-चक्र-भोग हेतु वो भटकती प्रेतात्माएं आगे प्रस्थान कर गयीं एक और पड़ाव के लिए!
बाद में योगेश और जीतेन्द्र को इस बारे में बता दिया गया। दोनों ने मेरा आभार प्रकट किया! धन्यवाद कहा!
मित्रगण! मनुष्य-योनि भी एक पड़ाव है! कर्म-विपाक अगली योनि निर्धारित करता है और ये चक्र निरंतर चलता रहता है!
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प्रभुश्री हम सब आपका आभार प्रकट किस प्रकार करें आपके दिखाए मानवता के रास्ते ओर सद्गुनों को देखते हुए ज़ब दृष्टि खुद पे ड़ालते हैँ तो तुच्छता की अनुभूति से भर जाते हैँ, धन्यवाद प्रभुश्री हम सबको अपने ज्ञान की छोटी सी ये झलक मात्र दिखाने के लिए, धन्य हो आप 🌹🙏🏻🌹