मित्रगणों! आज का युग आधुनिक है! विज्ञान निरंतर प्रगति कर रहा है! पुरानी विचारधाराएँ खंडित हो रही हैं। पर जानते हो? कौन खंडित कर रहा है? विज्ञान तो कदापि नहीं! केवल वे लोग जिनको इन विचारधाराओ का मूल या तो पता नहीं, बोध नहीं या फिर समझ नहीं आया! आज के युग वाले अपने आपको सुसंस्कृत, आधुनिक, जागृत कहते हैं परन्तु ये सब मिथ्याभ्रम है जिनके जाल में वो जकड़े हुए हैं। इस संसार में रचियताने कोई भी वस्तु, जीव, सजीव, निर्जीव, गुण, दोष, काम, क्रोध, दया, धर्म, अधर्म निरर्थक सृजित नहीं किये! सभी की कहीं न कहीं उपयोगिता है! स्वाद ५ हैं, मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वाऔर फीका! परन्तु ये स्वाद एन्द्रयिक है! जिन्हें हमारी इन्द्रियां बताती हैं! ४ स्वाद और हैं, वे हैं देव, असुर, व्योम और ठोस! इनको मानव से दूर रखा गया है, परन्तु साधना से इनका बोध संभव है! गंध२ हैं,सुगंध और दुर्गन्धा परन्तु गंध ४ प्रकार की और हैं! ये गहन विषय है! तत्व इस संसार में ५ हैं! वे ठोस हैं, इसीसे समस्त सृष्टि की रचना हुई है! परन्तु एक तत्व और है ये है सूक्ष्म-तत्व! ये ही तत्व मनुष्य को देव,असुर,गान्धर्व,राक्षस,यक्ष,भूत, प्रेतसे दूर करता है! आज का विज्ञान इस विषय में चुप है, परन्तु खंडन भी नहीं करता! एक तत्व अलौकिक है! ये तत्व त्रिमूर्ति में ही समाहित है!
खैर, वो एक अलग चिंतन-विषय है! इस विषय में कभी और वर्णन करूंगा! ये जो कहानी है ये ऐसे ही तीन आधुनिक मित्रों की कहानी है! ये तीनों मित्र आज भी मित्रता के सूत्र में बंधे हैं! इनके नाम है, जयेश, शैलेश और धवन! ये तीनो मित्र बैंगलोर के रहने वाले हैं! इनमे से धवन के पिता मेरे परिचित हैं और कामख्या भी आते-जाते हैं!
एक बार की बात है, मेरे पास धवन के पिता सुनील का फ़ोन आया, बड़े घबराए हुए थे वे! मैंने उनसे पहले हाल-चाल पूछे, फिर मैंने उसने कहा, "क्या बात है सुनील जी? इतने घबराए हुए क्यूँ हैं आप?"
"गुरु जी, बात ही कुछ ऐसी है,लेकिन मै आपको फ़ोन पर नहीं बता सकता, मै कल दिल्ली पहुंच रहा हूँ, तभी आपको बाऊंगा, गुरूजी, अगर कहीं और जाना हो, तो वहाँ मना कर देना, कृपा करना! मै कल आ रहा हूँ दिल्ली!" उन्होंने कहा बड़ी जल्दी जल्दी!
"ठीक है, वैसे मुझे जाना कहीं नहीं है, आप आ जाइए" मैंने कहा,
उनकी बातों का प्रवाह देख कर लगता था कि कोई बड़ी ही समस्या है, तब मैंने शर्मा जी को फोन करके कल दोपहर में आने को कह दिया उन्होंने हामी भर ली!
अगले दिन ढाई बनेधवन अपने २ और मित्रों के साथ मेरे पास आ गए, तीनों के चेहरे देख कर पता चल रहा था कि कोई मुसीबत अवश्य ही है! सुनील बोले,"गुरु जी, ये मेरे साथ आये मेरे पुत्र धवन के मित्रों के पिता जी हैं, इनका नाम, हरीश और दिलीप हैं, गुरु जी, आजसे ८ दिन पहले
मेरे पुत्र धवन कितबियत खराब हुई, जब वोसुबह सोके नहीं उठा तो मै उसको देखने गया, मैंने देखा उसके मुंह से खून निकला था, और वो खून तकिये और बिस्तर पर बिखरा था, मै घबरा गया, मैंने फ़ौरन एम्बुलेंस बुलाई और उसको लेके अस्पताल पहुंचा, डॉक्टर्स ने कहा कि सुसाइड का केस लग रहा है, इसीलिए उन्होंने पुलिस को भी बुला लिया, लेकिन उसको होश अगली रात को आया, और जब होश आया तो उसने किसी को पहचाना नहीं, हमारे तो होश उड़ गए गुरु जी, डॉक्टर्स ने कहा, कि शायद दिमाग में खून के कतरे जमा हो गए हैं, इसी कि वजह से ऐसा हो रहा है, उन्होंने औरटेस्ट लिखवा दिए और किये, उसके शरीर में, पेट में कहीं भी किसी प्रकार का ज़हर नहीं मिला! सुसाइड की तो आशंका ही खतम हो गयी थी, लेकिन कोई अगले दिन में फिर से बेहोश हो गया और तब से वो २ घंटे होश में रहता है और फिर बेहोश हो जाता है, डॉक्टर्स को खुद हैरत है! लेकिन गुरुजी, जिस दिन मेरे बेटे के साथ ऐसा हुआ उसी दिन ऐसा ही इनके पुत्रों के साथ भी हुआ है, बिलकुल वैसा ही जैसा धवन के साथ हो रहा है! अब मेरा माथा ठनका, मैंने इनके साथमशविरा किया और मै यहाँ आ गया गुरु जी, ज़रा बताइये किये क्या माजरा है? हम बहुत डरे हुए हैं, कुछ कीजिये गुरुदेव"
मुझे सुनके बड़ी हैरत हुई
मैंने उन तीनों को हिम्मत बंधाई और इस समस्या से निकालने की भी बात कही! उनकी तब जान में जान आ गयी! मैंने उन तीनों से कहा, की वो मुझे कोई ऐसी ख़ास बता सकते हैं जो उनके रोज़मर्रा के व्यवहारसे अलग हो और उन्होंने उस पर गौर किया हो?
तब जयेश के पिताजी बोले, "हाँ एक बात मै बताता हूँ आपको जो मैंने गौर की थी, एक दिन की बात है, जब धवन यहाँ आया था तब वो सीधे जयेश के कमरे में चला गया था और फिर उसके पीछे ही शैलेश आ पहुंचा था, शैलेश के पास एक बैग था, मैंने उनसे पूछा की वो क्या कहीं जा रहे हैं तो उसने कहाँ वो कहीं नहीं जा रहे बस इसमें उसका कोई ज़रूरी सामान है, मै फिर अपने कमरे में चला गया, ये तीनों अक्सर मिलते रहे, निश्चित समय पर कोई रात १० बजे और फिर कभी वहीँ सो जाया करते ये दोनों देर रात को जाया करते, उनको कोई १५ दिन ऐसे हो गए थे, फिरतकरीबन तीन दिनों तक एक दुसरेसे नहीं मिले बस सारा दिन अपने कमरों में बैठे रहते थे, मैंने उन दोनों के घरवालों से पूछा तो उन्होंने भी वैसा ही बताया था, मैंने सोचा की कोई दोस्ताना मन-मुटाव हो गया है, जिसकी वजह से ऐसा हुआ है, फिर मैंने कोई ज्यादा गौर नहीं किया, लेकिन एक दिन जयेश के साथ ठीक ऐसा ही हुआ जैसा धवनकेसाथ हुआ था"
इस कहानीसेतो ऐसा कुछ पता नहीं चल पा रहा था, ये एक आमसी घटना लगी मुझे, फिर दुबारा मैंने उनको हिम्मत बंधाई, इतने में जयेश की माता जी का फ़ोन आया की जयेश की तबियत बिगड़ गयी है, उसकी नाक और कानों से खून आ रहा था, जयेश के पिता जी कीरूलाई फूट पड़ी, शर्मा जी ने उनकोसमझाया, अब इनको वहाँ वापिस जाना था, उन्होंने
हमसे विदा ली और वो लोग वापिस चले गए, मैंने उनको सुबह या देररात में फ़ोन करने की बात कही,
मैंने शर्मा जी से कहा की वो ज़रा'सामान' का प्रबंध करें आजरात के लिए, ज़रा देखते हैं की मसला क्या है, शर्मा जी तभीउठे और गाडी लेकर सामान लेने चले गए,
जो कुछ उन्होंने बताया था,लगता था के तीनों ही एक साथ चपेट में आ गए हैं कहीं, प्रथमदृष्टया तो ऐसा ही लगता था, लेकिन कहाँ चपेटे में आये, क्यूँ और कैसे?
शर्मा जी सामान ला चुके थे, मुझे रात में अलख पर बैठना था, मैंने एक कारिन्दा हाज़िर किया, कारिन्दा आया और, अपना भोग लेकेवो रवाना हो गया! १० मिनट बाद वो एक हैरतंगेज़ खबर लाया! उन तीनो दोस्तों ने एक प्लेन-चिट बोर्ड बनाया था! और वो उस बोर्ड सेरोजाना कोई अनजानी रूह को बुलाया करते थे लेकिन बार-बार करने पर भी कोई रूह नहीं आई! तब जयेश ने बताया की अगर शमशान याकब्रस्तान की मिट्टी बोर्ड के ऊपर रख दी जाए तो कोई न कोई रूह आ ही जायेगी! जिस दिन उन्होंने शमशान की मिट्टी उठायी उस दिन अमावस थी! बोर्ड पे डाली, लेकिन कुछ नहीं हुआ! तीनों ने बोर्ड को लात मारी और सारी बात को अफवाह कहा और मजाक उड़ा दिया!
ये थी सारी मुसीबत की जड़! अगर केवल बोर्ड को ही मारते तो ठीक था, लेकिन उन्होंने शमशान की मिट्टी को लात मारी थी, अब खामियाजा भुगतना पड़ रहा था! लेकिन इसके पीछे कौन था, कौन है ये मुझे वहाँ जाके ही पता लग सकता था, क्यूंकि मेरे मालूम करने से कई चेहरे आ-जा रहे थे!
मैंने शर्मा जी से सलाह की, उन्होंने भी यही कहा की जाना ही उचित है! कार्यक्रम बना और बैंगलोर फोन किया गया, उनको इत्तिला दी गयी की हम वहाँ कल दोपहर में आ रहे हैं!
हम बैंगलोर पहुंचे, वहां धवन के पिता आये थे हमको लेने के लिए, हमने सीधे अस्पताल ही जाने की सोची और वहीं चल दिए,तीनों अलग-अलग अस्पताल में दाखिल थे, मैंने सबसे पहले धवन को देखना सही सोचा, धवन के पिता जी हमको सीधे धवन के पास पहुंचे, धवन की हालत काफी खराब थी, ये तो दिख रहा था, मै उसके पास पहुंचा, उसके ऊपर अभी कोई शय नहीं थी, लेकिन चपेट साफ़ दिखाई दे रही थी, मैंने अपनी जेब से एकधागा मंत्र पढ़कर उसके हाथ में बाँध दिया, इससे कोई भी शय उस पर सवार नहीं हो सकती थी, फिर मै बाकी दूसरों के पास भी गया और एक-एक करके धागा बाँध दिया!
करेब एक घंटे के बाद उनको होश आ गया,कोई खून आदि की परेशानी नहीं हुई और तीनों ने अपने परिजनों को पहचान लिए!धवन के घरवालों कीखुशी का ठिकाना न रहा! और साथ की सात्त सारेपरिवारजनों का! डॉक्टर्स अवाक रह गए!!
तीनों के पिता मेरे सामने आके प्रार्थना करने लगे की आप इनको बिलकुल ठीक कर दें! मैंने उनको बताया की मैंने अभी सिर्फ मार्ग बंद किया है, आगे का रास्ता ये मुझे स्वयं बताएँगे
इसके बाद मैधवन के घर आया, नहाया-धोया थोडा आराम किया, अब आगे की रण-नीति बनानी थी, मैंने शर्मा जी से सलाहमशविरा किया और फिर हम सीधे धवन के पास अस्पताल चले गए!
जब मै अस्पताल पहुंचा तो धवन को होश आ चुका था और वो अपने परिजनों से बातें कर रहा था, मैं तभी सभी परिजनों को वहाँ से ज़रा अलग हटने को कहा, वे लोग हट गए, अब मै और शर्मा जी और धवन ही थे वहाँ, मैंने धवन से पूछा, "धवन? क्या तुमने प्लेन-चिट बोर्ड इस्तेमाल किया था?"
धवन के होश फाख्ता हो गए! वो घबरा गया! "बताओ धवन, मेरा ये जानना बेहद ज़रूरी है, मुझे बताओ, और अपनी और अपने दोस्तों की सलामती के लिए अब बोलना शुरू करो" मैंने कहा,
"जी...........जी........जी हाँ" वो बोला और अपनी नज़रें मुझसे हटा लीं,
"येप्लेन-चिट बोर्ड खोलता कौन था? मेरा मतलब इसके बिलकुल ठीक सामने कौन बैठता था?" मैंने पूछा,
"जी जयेष, वो ही खोलता था" उसने बताया,
"कितने दिन तुमने प्लेन-चिट बोर्ड इस्तेमाल किया?" मैंने सवाल किया,
"जी, यही कोई १३-१४ दिनों तक" उसने बताया,
"अच्छा, क्या हुआ? कोई रूह आई वहाँ? दस्तकदी उसने? मैंने पूछा,
"जी कभी नहीं, कोई रूह नहीं आई वहाँ" उसने बोला,
"तो फिर शमशान की मिट्टी कौन लाया था?" मैंने फिर सवाल किया,
अब वो फिर चौका! बगलें झांके लगा, "घबराओ मत, मै तुमको इस समस्या से निकाल लूँगा, डरो मत" मैंने उसे आश्वासन दिया,
"शैलेश लाया था वो मिट्टी" उसने जवाब दिया,
"जिस दिन वो मिट्टी लाया उस दिन अमावस थी! क्या तुमको मालूम था?" मैंने पूछा,
"जी नहीं, नहीं मालूम था, हिंदी के महीने और तिथियाँ ज्ञात नहीं हमको" उसने उत्तर दिया,
"जब शैलेश मिट्टी लाया तो क्या तुम्हे पता था कि वो मिट्टी ही है?" मैंने पूछा,
"लग तो मिट्टी कि तरह ही रही थी वो? अगर वो मिट्टी नहीं थी तो फिर क्या चीज़ थी सर? उसने मुझसे सवाल किया,
"शमशान में वो गया, लेकिन उसने मिट्टी नहीं उठायी, क्यूंकि उसको कोई भी मना कर देता,तब उसने वहाँ मुर्दा फूंकने वाले को पैसे दिए, उस आदमी ने उसको बाहर जाने को इंतज़ार करने को कहा, और कोई १५ मिनट के बाद एक छोटी सी पोटली दे दी, इस पोटली में मिट्टी नहीं धवन, चिता की राख थी, उस मुर्दा फूंकने वालेने यही समझा होगा कि, किसी क्रिया के लिए मंगवाई होगी! समझे?" मैंने खुलासा किया,
उसके होश उड़ गए, रंग पीला पड़ गया, "डरो मतधवन! मै आ गया हूँ, घबराओ मत!"
'हमेबचाइयेसर............हम तीनों को" वो बोला,
"मै बचाऊंगा तुम तीनों को चिंता न करो तुम अब" मैंने फिर उसकी हिम्मत बंधाई.
इतने में एक नर्स आई और हमको वहाँ से जाने को कह दिया, डॉक्टर अपने रूटीन चेक-अप के लिए आने वाला था!
हम बाहर आ गए, मैंने धवन के पिता जी से बोला, मुझे अब शैलेश के पास ले चलो, थोड़ी देर में हम, शैलेश से मिलने चल पड़े
अब हम शैलेश के पास पहुंचे, शैलेश की भी हालत अब सुधर गयी थी और वो बात करने की स्थिति में था, हमारे वहाँ जाते ही शैलेश के परिवारजन मेरे सम्मुख आये और नमस्कार किया, धवनके पिता जी हमारे साथ ही थे, मै शर्मा जी के साथ शैलेश के कमरे में घुसा, बाकी सभी कोशर्मा जी ने बाहर जाने को कहा, सभी लोग बाहर चले गए, शैलेश के पास हमारीखबर थी, उसने हमको नमस्कार किया, मैंने नमस्कार का जवाब दिया और मै उसके करीब बैठ गया, मैंने उससे सीधे ही पूछा," शैलेश, ज़राये बताओ, उस पोटली की बाकी मिट्टी का आपने क्या किया?"
शैलेश अपनी जगह से उछल पड़ा! हालांकि उसको धवन के पिता जी और जयेश के पिता जी ने हमारे बारे में उसको बता दिया था, फिर भी वो बोला, " सर.....कौन सी पोटली..?"
"वही पोटली जो आप उस शमशान से लाये थे?" मैंने हंस के कहा,
"आपको कैसे पता?" उसने हैरत से कहा, अब शर्मा जी खड़े हुए और बोले, "सुन लड़के! क्या नाम है तेरा...??? हाँ शैलेश, सुन तेरी गलती से बेचारे वो दोनों अब जान की बाजी लगा के बैठे हैं, अब ड्रामा न कर, जल्दी बता, बाकी की मिट्टी का तूने किया क्या ?"
"जी, जब उसने मुझे वो मिट्टी दी तो मै उसको घर लाया, मुझे पता तो था की घर में शमशान की कोई वस्तु लानी नहीं चाहिए लेकिन मै लेकर आया, मैंने उसमेसे 3-४ चुटकी मिट्टी निकाली और बाकी टॉयलेट के फ्लश में बहा दी" उसने बताया,
"ओह! तोये बात है!" शर्मा जी के मुंह से निकला,
"सुनो, मै अब आपसे कल मिलूंगा, जो मै जानना चाहता था जान लिया" मैंने कहा और बाहर निकल आया, अब मुझे जयेश के पास जाना था!
अब मै शर्मा जी और धवन के पिता के साथ जयेश से मिलने पहुंचा, जयेश के पिता जी और उनके परिवारजनों को हमारे आने कीखबर लग चुकी थी, मैं सीधा जयेश के पास पहुंचा, वहाँ से सभी को बाहर भेजा, जयेश ने नमस्कार किया, मैंने नमस्कार स्वीकार किया और उसके पास जाके बैठा, मैंने पूछा, "जयेश? जब प्लेन-चिट बोर्ड से कोई रूह नहीं आई, तो तुम लोगों ने शमशान की मिट्टी का प्रबंध किया, लेकिन फिर भी कोई रूह प्रकट नहीं हुई, आखिरी रात वहाँ क्या क्या हुआ? मुझे विस्तार से बताओ"
"सर........जब आखिरी बार भी कोई रूह नयी आई तो हमने वो बोर्ड बंद किया, और इसको मनघडंत कहा" जयेश ने बताया,
"लेकिन उस बोर्ड का तुमने क्या किया?" मैंने पूछा,
"जी हमने वो तोड़ दिया" वो बोला,
"कैसे तोडा?" मैंने पूछा,
"उसको ज़मीज में फेंक के मारा हमने" वो बोला,
"उसके बाद तुमने उसको लात मार मार केतोड़ दिया है न?" मैंने पूछा,
"जी..जी...हाँ" जयेश ने बताया,
"वो मिट्टी अभी भी बोर्ड के ऊपरही थी, तुमने जब उसको अपनी लात से तोडा?" मैंने सवाल किया,
"जी हाँ" उसने जवाब दिया,
"यानि की तुमने बोर्ड के साथ साथ उस मिट्टी को भी लात मारी?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, वो तो उसी के ऊपर थी" जयेशसकपकाया,
"तुमने येही गलती की, तुम तीनों ने, अगर तुम केवल बोर्ड को ही लात मारते तो कुछ नहीं होता, तुमने शमशान की लायी हुई मिट्टी को लात मारी, दर-असल वो मिट्टी नहीं जयेश, वोकिसी
चिता कीराखथी, वो भी राख उस इंसान की, जिसकी मृत्यु एक सड़क दुर्घटना में हुई थी, एक अकाल मृत्यु!" मैंने उसको बताया,
वो घबरा गया, उसका हलक सूख गया!
"और फिर तुमने कहा, 'साला कोई तो आये, जो भटक रहा हो वो ही आ जाए!' और तुमने और तुम्हारे दोस्तों ने, तुम तीनों ने मिलके गाली-गलौज करके, उस बोर्ड को अपने जूते मार-मार केतोडा दिया! है न?" मैंने थोडा गंभीर होके कहा,
"जी..जी..जी हाँ, ये ही कहा था" उसने घबरा के कहा,
मै थोड़ी देर शांत रहा फिर बोला, "जयेश, तुम्हारे बोर्ड से कोई रूह नहीं आई, लेकिन तुम्हारे लात मारने, उस मिट्टी का अपमान करने से रूहें वहाँ आ गयीं, जो अभी भी यहाँ खड़ी है, इस प्रतीक्षा में, कि कब ये धागा तुम्हारे हाथ से खुले और वो तुम तीनों को भी अपने साथ शामिल करें!" मैंने उसको बताया,
मेरे ऐसा कहते ही, वो बिस्तर से उठ खड़ा हुआ! बद-हवास सा अपने चारों ओर देखने लगा! मैंने उससे कहा, "जयेश तुम बैठ जाओ आरामसे, आगे मै देख लूँगा, जब तकयेधागा तुम्हारे हाथ में बंधा है कोई रूह तुम्हारा अहित नहीं कर सकती, अब मैधवन के घर जाकर इस भटकती रूहों से बात करता हूँ की वो क्या चाहती हैं? फिर मै तुमसे मिलने आऊंगा!"
मै जैसे ही उठा, जयेश ने घबरा के मेरी तरफ देखा, मैंने उसको हाथ के इशारे से बैठने को कहा और शर्मा जी केसाथ बाहर आ गया, फिर हमने धवन के पिता से कहा की वो हमको अपने घर, धवन के कमरे में ले जाएँ! हमधवन के घर की तरफ चल पड़े...
हम धवन के घर पहुंचे, धवन का कमरा खुलवाया गया, और हम तीनों अन्दर घुसे, मैंने सरसरी तौर पर, वहाँ बेतरतीबी से बिखरी वस्तुएं पड़ी थीं, जिनसे यहाँ रहने वाले 'आधुनिक व्यक्ति की 'आधुनिकता का परिचय मिल रहा था! वहाँ मेरी नज़र एक बैग पर पड़ी, जिसका कि जिक्र जयेश के पिता जी ने किया था, मैंने वो बैग उठाया, उसको खोला तो उसमे टूटा हुआ वोबोर्ड पड़ा था, और टेल में कुछ मिट्टी से! मैंने वो बोर्ड बाहर निकला, उसको देखा, ये बोर्ड ही गलत बनाया गया था! मैंने वो राख निकाली और सामने एक कागज़ पर रख दी! मैंने मंत्र पढने शुरू किये! पहले मैंने अपने खबीस प्रकट किये और उसके बाद मैंने वोरूहें जो इन तीनों के जान लेने पर आमादा थीं!
सबसे पहले एक जवान लड़के की रूह आई, मैंने उससे पूछा, "तेरा नाम?"
"अंकित" उसने जवाब दिया,
"उम्र?" मैंने पूछा,
"१९ साल" उसने जवाब दिया,
"कैसे उठा'??" मैंने सवाल किया,
"सड़क हादसे में मेनेस्टिक पर" उसने जवाब दिया,
"तू ही इस सबको यहाँ लाया है? ये ८ और हैं जो तेरे साथ?" मैंने सवाल किया,
"हाँ, जब मै परेशान था तो इन्होने मेरी मदद की, इन तीनों ने मेरी राख का अपमान किया, अभी तो मेरे परिजनों ने मेरे 'फूल' प्रवाहित भीनहीकिये हैं, उनसे पहले इन्होने मुझे प्रताड़ित किया है, मै इनको नहीं छोडूंगा, आप भी हमारी मदद करो" उसनेकहा,
बात उसकी सोलह आने सच थी, उसकी अस्थियाँ और अवशेष अशी प्रवाहित भी नहीं किये गए थे और इन तीनों ने अपमान किया था, भले ही ग़लतफ़हमी में, अनजाने में, लेकिन अपमान तो अपमान है!
"सुनो अंकित, अब तुम्हारा संसार अलग है और इनका अलग, तुम इनको क्षमा कर दो, इनसे अनजाने में ऐसा कुछ हो गया" मैंने उससे कहा,
"नहीं! मै इनको नहीं छोडूंगा" उसने कहा,
"तो मुझे तुमको विवशतावश कैद करना होगा अंकित" मैंने कहा,
अब वो ये सुन के घबरा गया, मैंने एक मंत्र पढ़ा और उसके पढ़ते ही वो९ रूहें उस के घेरे में फंस गयीं! मैंने कहा, "देखो अंकित, इनको क्षमा कर दो, यहाँ जो तुम्हारे अवशेष हैं, येराख मै इन तीनों से सम्मानपूर्वक प्रवाहित करवा दूंगा, आज ही, बोलो?"
अंकित के साथ वो रूहें भी इस बात पर राजी हो गयीं, मैंने उनके बंधन खोले और उनको वहाँ से जाने को कहा, वो चली गयीं, और फिर मैंने अपने खबीस भी वापिस भेज दिए।
उसके बाद जैसा मैंने अंकित की रूह से वायदा किया था, वो मैंने उसी दिन करवा दिया, अवशेष उन तीनों ने सम्मानपूर्वक प्रवाहित कर दिए। उनकी तबियत एक दम ही ठीक हो गयी!
मैंने उन तीनों को भविष्य में कभी भी ऐसा न दोहराने की सलाह दी, उन्होंने मान लिया!
उसके बाद सब ठीक हो गया, मै एक दिन और वहाँ ठहरा, उसके बाद में शर्मा जी के साथ वापिस दिल्ली रवाना हो गया!
साधुवाद!
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