वर्ष २००९ बालेश्वर ...
 
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वर्ष २००९ बालेश्वर ओडिशा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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मै उन दिनों कोलकाता में था शर्मा जी के साथ, किसी साधना के कारण यहाँ आया था, लेकिन साधना भंग हो गयी थी, दरअसल, यहाँ दो भिन्न भिन्न गुट थे विभिन्न मतान्तर वाले, अत: साधना भंग हो गयी थी, ये दो गुट कालेष और जालेष थे, मै कालेष गुट से था और जालेष गुट वाले हमारा विरोध कर रहे थे कोई संधि न हो सकी तो साधना त्यागनी पड़ी! एक दिन संध्या समय मुझे एक गौरान्गना साध्वी वहाँ दिखाई दी! श्वेत वस्त्र धारण किये ये साध्वी, उज्जवल-वर्णी और आत्मविश्वासी लगी मुझे! बरबस ही मेरा ध्यान उस पर खिंचा चला गया! आयु होगी कोई ३४-३५ वर्ष! मैंने वहाँ के एक साधक से उसके बारे में पूछा,

"ये साध्वी कौन है?"

"ये तरूणी है, बाबा व्योम नाथ के डेरे से आई है" उसने कहा,

"व्योम नाथ कौन? वो नेपाल वाला?" मैंने कहा,

"हाँ! वही! नेपाल वाला!" उसने कहा,

बाबा व्योम नाथ उन दिनों अपने शिखर पे था! २०-२७ प्रबल अघोरी सदैव उसकी शरण में रहते थे! उसका डेरा पशुपतिनाथ के पास ही था, मै उसको जानता तो था परन्तु विभिन्न मतान्तर होने के कारण व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं मिला था!

"वो भी आया है क्या यहाँ?" मैंने पूछा,

"नहीं, वो अपने डेरे में ही रहता है, बाहर कम ही आता है, हाँ उसके आदमी आये हैं यहाँ,ये साध्वी उन्ही में से एक है" उसने बताया,

"अच्छा!" मैंने कहा,

सच कहता हूँ मित्रगण! वो साध्वी जैसे अपने चारों ओर सम्मोहिनी-माल एवं आवरण धारण किये हो, प्रतीत होती थी! लम्बी कद-काठी, गौर-वर्ण, उन्नातांगी, संपुष्ट देहायाष्टि! साक्षात रंभा!

जो एक बार उसको देखा लेता बार बार उसको देखता था!

जब मेरी उस पर दृष्टि पड़ी थी, तब वो अपनी एक सहायिका या सखी के साथ थी, हाथों में दुग्धपात्र लिए मेरे सामने से गुजरी थी! मै उठ कर उसको देखने लगा, जब तक वो ओझल न हो गयी!

अगले दिवस भी मुझे वो दिखाई पड़ी, वही दुग्धपात्र हाथों में लिए,लेकिन अब उसकी सहायिका या सखी न थी उसके साथ! मै भी उसको समीप से देखना चाहता था, ये एक


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रकार का कामाकर्षण सा हो गया था मुझे लालसा सी जाग गयी थी मुझमे वो जब वहाँ से गुजरी तो मैंने उसका मार्ग रोक लिया! मैंने कहा,

"तुम जालेष व्योम नाथ के डेरे से आई हो?"

उसने न तो कोई आपत्ति ही दिखाई न ही कोई क्रोधावेश भाव! न ही ऐसा की उसको मेरा मार्ग रोकना अखरा हो! और मुझसे आँखें मिलाये हुए न ही कोई लज्जा-भाव! उसने मुझे अपलक देखा! और फिर बोली, "हाँ, मै व्योम नाथ के डेरे से ही आई हूँ, बाबा व्योम नाथ!"

उसने अपना उत्तर दम्भपूर्ण दिया था! उस पर व्योम नाथ की 'अति-कृपा' का प्रभाव था ये!

मैंने कहा, "मै जानता हूँ तुम्हारे व्योम नाथ को!" मैंने भी दम्भपूर्ण उत्तर दिया था!

"नहीं जानते आप!" उसने कहा,

"तुम्हे ऐसा क्यूँ लगता है!" मैंने पूछा,

"यदि जानते होते तो इस प्रकार मेरा मार्ग न रोकते आप!" उसने मुस्कुराते हुए एक कुटिल भाव से कहा!

"तुम उसकी साध्वी ही हो या और अधिक?" मैंने भी कुटिलता से जवाब दिया!

"आपका आशय क्या है?" उसने कहा,

"मुझे प्रतीत होता है की तुम उसके साथ अन्तरंग हो कुछ अधिक ही!" मैंने कहा,

"ठीक है, जैसा आप सोचो!" उसने कहा,

"तुम मुझे जानती हो?" मैंने कहा,

"जहीं, मै नहीं जानती आपको" उसने हँसते हुए कहा,

"तो एक काम करना व्योम नाथ से पूछना शांडिल्य-कुलीन मिला था एक दिल्ली से, वो बता देगा तुमको!" मैंने कहा,

"मुझे कोई आवश्यकता नहीं है न जानने की, न ही वार्तालाप करने की, अब आप मेरा मार्ग छोड़ दें" उसने कहा,

मुझे उसके इस व्यवहार से आश्चर्य हुआ! मैंने कहा, "सुनो, क्या नाम है तुम्हारा?"

"गौधरा, है मेरा नाम!" उसने कहा,

"तो ये तरुणी कौन है?" मैंने पूछा.


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रकार का कामाकर्षण सा हो गया था मुझे लालसा सी जाग गयी थी मुझमे वो जब वहाँ से गुजरी तो मैंने उसका मार्ग रोक लिया! मैंने कहा,

"तुम जालेष व्योम नाथ के डेरे से आई हो?"

उसने न तो कोई आपत्ति ही दिखाई न ही कोई क्रोधावेश भाव! न ही ऐसा की उसको मेरा मार्ग रोकना अखरा हो! और मुझसे आँखें मिलाये हुए न ही कोई लज्जा-भाव! उसने मुझे अपलक देखा! और फिर बोली, "हाँ, मै व्योम नाथ के डेरे से ही आई हूँ, बाबा व्योम नाथ!"

उसने अपना उत्तर दम्भपूर्ण दिया था! उस पर व्योम नाथ की 'अति-कृपा' का प्रभाव था ये!

मैंने कहा, "मै जानता हूँ तुम्हारे व्योम नाथ को!" मैंने भी दम्भपूर्ण उत्तर दिया था!

"नहीं जानते आप!" उसने कहा,

"तुम्हे ऐसा क्यूँ लगता है!" मैंने पूछा,

"यदि जानते होते तो इस प्रकार मेरा मार्ग न रोकते आप!" उसने मुस्कुराते हुए एक कुटिल भाव से कहा!

"तुम उसकी साध्वी ही हो या और अधिक?" मैंने भी कुटिलता से जवाब दिया!

"आपका आशय क्या है?" उसने कहा,

"मुझे प्रतीत होता है की तुम उसके साथ अन्तरंग हो कुछ अधिक ही!" मैंने कहा,

"ठीक है, जैसा आप सोचो!" उसने कहा,

"तुम मुझे जानती हो?" मैंने कहा,

"जहीं, मै नहीं जानती आपको" उसने हँसते हुए कहा,

"तो एक काम करना व्योम नाथ से पूछना शांडिल्य-कुलीन मिला था एक दिल्ली से, वो बता देगा तुमको!" मैंने कहा,

"मुझे कोई आवश्यकता नहीं है न जानने की, न ही वार्तालाप करने की, अब आप मेरा मार्ग छोड़ दें" उसने कहा,

मुझे उसके इस व्यवहार से आश्चर्य हुआ! मैंने कहा, "सुनो, क्या नाम है तुम्हारा?"

"गौधरा, है मेरा नाम!" उसने कहा,

"तो ये तरुणी कौन है?" मैंने पूछा.


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं तरुणी व्योम नाथ की हुँ, साधारण के लिए गौधरा!" उसने कहा,

"व्योमनाथ का नशा चढ़ा है तुम पर!" मैंने कहा,

"और आप पर? मेरा?" उसने मुझे चकित करने का उत्तर दिया! और मै चकित भी हुआ, वास्तविकता तो यही थी!

"हाँ, वास्तविकता तो यही है तरूणी!" मैंने कहा,

"मेरा मार्ग छोडिये आप, आपके लिए अच्छा होगा!" उसने मुस्कुरा के कहा,

"मार्ग तो छोड़ दूंगा मै साध्वी, लेकिन........." मै कहते कहते रुक गया!

"आप मार्ग छोडिये" उसने कहा,

मैंने मार्ग छोड़ दिया, मै हट गया, वो आगे बढ़ गयी, फिर पीछे मुड़ कर मुझे एक बार देखा और चली गयी

इस साध्वी को अपने व्योम नाथ पर बड़ा घमंड था! ये स्पष्ट था! अब मैंने व्योम नाथ की इस साधिका के विषय में और जानकारी जुटाने की सोची! पता चला की ये साध्वी पिछले वर्ष से ही उसके साथ है, रहने वाली हिमाचल प्रदेश की है! व्योम नाथ स्वयं इसको लाया था अपने डेरे में!

अर्थातये व्योम नाथ की विशेष साध्वी है! व्योम नाथ ५० वर्षीय साधक था, निपुण एवं प्रवीण! अपने गुरु वृहद् नाथ से शिक्षित! सर्व-गुणसंपन्न साधक!

अगले दिन प्रातः काल मुझे वो दिखाई दी! दुग्धपात्र लिए! अपनी एक सहायिका के साथ मै उसके पास गया लेकिन मार्ग नहीं रोका! उसने मुझे देखा और मैंने उसे! वो रुक गयी, उसने दुग्धपात्र अपनी सहायिका को दिया और उसको भेज दिया! वो मेरे पास आई और बोली, " नमस्कार!"

"नमस्कार!" मैंने उत्तर दिया!

"मुझे आपके बारे में पता चला गिरिशानंद ने बताया मुझे!" उसने कहा,

"क्या बताया उसने?" मैंने पूछा,

"कि आप जम्भेश्वर श्री से शिक्षित हैं!" उसने कहा,

"हाँ! वे मेरे गुरु रहे हैं" मैंने कहा,

"आपने किस कारण वश मुझे रोका था कल?" उसने पूछा,

"यही, कि ऐसी साध्वी और वो भी व्योम नाथ के पास!" मैंने हंस के जवाब दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं व्योम नाथ के पास गत वर्ष से हूँ, पहले हिमाचल में थी, अब नेपाल में हूँ" उसने बताया

"उसने तुमको चेतनावृत किया अभी तक? और यदि किया है तो मै तुम्हे कोई प्रस्ताव नहीं दूंगा, मेरा प्रश्न निरर्थक समझना" मैंने पूछा,

"नहीं, अभी तक नहीं, किसी भी साधना में नहीं" उसने कहा,

"मेरे पास आ जाओ! मै तुमको चेतनावृत कर दूंगा!" मैंने मुस्कुरा के कहा!

"नहीं आ सकती, व्योम नाथ की स्वीकृति बिना" उसने कहा,

"और वो तुम्हे कभी स्वीकृति नहीं देगा, है ना?" मैंने पूछा,

"हाँ! कभी नहीं!" उसने कहा,

"डरती हो उससे?" मैंने पूछा,

"हाँ, वो आपका भी अहित कर देगा!" उसने बताया,

"हित-अहित की तुम ना सोचो, वो मेरा विषय है!" मैंने कहा,

"लेकिन........." वो कहते कहते रुक गयी,

"क्या लेकिन?" मैंने कहा,

"आपको बताना होगा व्योम नाथ को" उसने संकुचाते हुए कहा,

"ठीक है, मै अभी बता देता हूँ!" मैंने कहा और अपना फ़ोन नेब से निकाला, तरुणी घबरा रही थी, मैं ये भाँप रहा था!

"बताओ उसका नंबर?" मैंने पूछा,

"रुकिए अभी नहीं, मै पहले गिरिशानंद से बात कर लूँ" उसने कहा,

"ठीक है, कर लो, फिर मुझे बता देना" मैंने कहा,

"कोई अनर्थ तो नहीं होगा ना?" उसने पूछा,

"कोई अनर्थ नहीं होगा!! निश्चिन्त रहो!" मैंने कहा,

"मै बात करती हूँ आज" वो बोली,

"सुनो, वो तुमको उड़ा के लाया, और मै तुमको उससे उड़ा के ले जा रहा हूँ!" जिसमे सामर्थ्य होगा वही टिकेगा!: मैंने कहा,

वो मुस्कुराई और वहाँ से चली गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब ये मेरे लिए आत्म-प्रतिष्ठा का प्रश्न उठ खड़ा हुआ था! व्योमनाथ ने उसको चेतनावृत भी नहीं किया था, ये एक कारण अपने आप में पर्याप्त था! अब द्धन्द आरम्भ होना था! कालेष एवं जालेष के मध्य!

उसी दिन संध्या समय गिरिशानंद का एक सहायक मुझे पूछते हए वहाँ आया, मै जान गया तरुणी ने वार्तालाप कर लिया है! मैं उस सहायक के साथ गिरिशानंद के पास चला गया मिलने!

नमस्कार आदि हुई, मै वहाँ बैठ गया, गिरिशानंद ने मुझसे कहा, "आप जानते हो क्या कह रहे हो?"

"हाँ, भली-भांति जानता हूँ" मैंने कहा,

"अनर्थ हो जाएगा, आपको पता है?" उसने कहा,

"हो जाने दो!" मैंने कहा,

वो चुप हो गया! फिर बोला, "मैंने अभी तक ये बात व्योम नाथ को नहीं बताई है, उन्हें पता चलते ही कहर टूट जाएगा" उसने मुझे धमकाते हुए कहा,

"तो बता दो, कहर से मै निबट लूँगा!" मैंने कहा,

वहाँ बैठे सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे!

"ठीक है, मै बता देता है, फिर आप जानो" उसने कहा,

"जब बात हो जाए तो मुझे सूचित कर देना!" मैंने कहा और वहाँ से उठ गया!

अगली सुबह मुझे तरुणी मिली उसके हाव-भाव बदले हुए थे, स्पष्ट था, व्योम नाथ ने मना कर दिया था! मैंने उसको देखा तो वो रुक गयी, आज कोई दुग्धपात्र नहीं था उसके हाथों में, मैंने कहा,"क्या हुआ? बात हुई व्योम नाथ से?"

"हाँ, कल रात हुई, उसने मना कर दिया" वो बोली,

"किसने बात की थी? तुमने या गिरिशानंद ने?" मैंने पूछा,

"गिरिशानंद ने बात की थी, बाद में मेरे से भी बात हुई" वो बोली,

"उसको बताया मेरे बारे में?" मैंने कहा,

"हाँ" उसने नीची गर्दन करके कहा,

"अच्छा, क्या बोला फिर वो?" मैंने पूछा,

" हाँ वो आपको जान गया, फिर मना कर दिया" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हम्म! एक बात बताओ, मेरे साथ चलोगी? वहाँ क्यूँ जीवन नष्ट करती हो? जब तक व्योम नाथ का साया है तुम पर कोई कुछ नहीं कहेगा, लेकिन उसके बाद केवल संगिका ही बनके रह जाओगी" मैंने कहा,

"जानती हूँ मै, लेकिन निर्णय नहीं कर पा रही"

"हो गया निर्णय, तुम चलो मेरे साथ, मै देखता हूँ व्योम नाथ को!" मैंने कहा,

"मै अभी निर्णय करने में असमर्थ हूँ" उसने कहा,

"ठीक है, जब निर्णय कर लो तो मुझे बता देना, मै आज यहाँ से जा रहा हूँ, बालेश्वर, वहाँ सर्वांग-साधना है, यदि तुम मेरे साथ होतीं तो तुमको चेत्नावृत कर देता मै, परन्तु तुम्हारे निर्णय के बिना मै कुछ नहीं कर सकता" मैंने कहा,

उसने मुझे अपलक देखा और मै वापिस मुड गया,

आज दोपहर तक मुझे ये स्थान छोड़ना था, अत: अपनी तैयारियों में लगा गया, शर्मा जी को क्रम से सारी बातों से अवगत करा दिया।

दोपहर होते होते मैं समस्त तैयारियाँ कर चुका था, मैंने अपना सामान उठाया और कमरे से बाहर आ गया!

बाहर आके मुझे तरूणी खड़ी दिखी! मैंने अपना सामान नीचे रखा और स्वयं उसके पास चला गया!

"निर्णय हो गया?" मैंने पूछा,

"हाँ, मै आपके साथ चलने को तैयार हूँ" उसने कहा,

"ठीक है, तुम्हारा सामान कहाँ है?" मैंने पूछा,

"वहाँ अन्दर कमरे में" उसने कहा,

"ठीक है, तो फिर लेके आओ?" मैंने कहा,

उसके मुंह से शब्द नहीं निकले, मैं समझ गया कि उसको गिरिशानंद का डर है! मैंने कहा, "चलो मेरे साथ वहाँ, किसी कि औकात नहीं मुझे वहाँ रोकने कि और साध्वी मुक्त रहती है सदैव उसकी अनिच्छा से कोई कार्य संपूर्ण नहीं होता, चलो मेरे साथ!" मैंने कहा और उसका हाथ थाम कर मै गिरिशानंद के कमरे की तरफ बढ़ गया, गिरिशानंद तरुणी का हाथ मेरे हाथ में देखकर चौंक गया! उसने मुझे देखा फिर तरुणी को! उठ के खड़ा हुआ! और  समीप आया, मुझे घूर केदेखा, लेकिन बोला कुछ नहीं! फिर तरुणी की तरफ मुड़ा, मैंने तरुणी का हाथ खींच कर अपने पीछे कर लिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ऐ लड़की? तू जानती भी है? तू क्या कर रही है?" उसने तरुणी से कहा,

तरुणी चुप रही, मैंने कहा, "जो कर रही है, सही कर रही है, और सुन व्योमनाथ के चेले, मेरे सामने से हट जा, इसी क्षण! कटोरा थामने को विवश हो जाएगा तू!"

वो झट से मेरे सामने से हट गया, वहाँ सभी सहायिकाएं तरुणी को देख रही थीं!

"जाओ तरुणी, अपना सामान उठा लो" मैंने उसको अपने सामने लाकर कहा,

तरुणी अन्दर गयी और वहाँ खड़ा एक एक व्यक्ति, सहायिका आँखें फाड़ के कभी मुझे देखता कभी तरुणी को

थोड़ी देर में तरुणी अपना सामान ले आई! मै उसका सामान उठाकर उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले गया!

मै अगले दिन बालेश्वर आ गया! कोकर जोगन के पास! अलमस्त जोगन! बंगालन जोगन! काफी पकड़ और पहुँच वाली जोगन है ये! उसने हमारा उचित स्वागत किया! मैंने उसको व्योमनाथ और तरुणी के बारे में बताया! वो हंस पड़ी! खैर, उस दिन हमने तैरयारियाँ आरम्भ कीं! जोगन के यहाँ सर्वांग-साधना होनी था, इसीलिए मै यहाँ आया था!

उसी रात को मैंने तरुणी को बुलाया और उसको स्नान करने के लिए भेज दिया, वो स्नान करके आई, गीले केशों में केवल तन पर एक गीला वस्त्र धारण किये! मित्रगण! मै आपसे छुपाऊंगा नहीं! मेरे मस्तिष्क में हलचल मच गयी! मै उसके बदन के सौंदर्य को देख कर हैरान रह गया! उसका सौंदर्य अप्रतिम था!

मैंने उसके बदन को स्पर्श किया! उसके गले में धारण किये हुए सभी बंधन एवं माल तोड़ डाले! उसकी कमर में बंधा पीत-सूत्र काट डाला! पाँव में बंधे सभी बंधन तोड़ डाले! अब उसके शरीर पर कोई धागा तक शेष नहीं था, वो मेरे समक्ष सर झुकाए खड़ी थी! मैंने अपना हाथ उसके हृदय पर रखा, उसमे तीव्र-स्पंदन हो रहा था!

"घबरा रही हो?" मैंने पूछा,

उसने अपनी गर्दन ना करने के अंदाज़ में हिलाई,

"डर लग रहा है व्योम नाथ से?" मैंने पूछा,

उसने फिर ना में गर्दन हिलाई,

"फिर तुम्हारे हदय में कुछ अप्रत्याशित घटने का भय क्यूँ तरुणी?" मैंने पूछा,

वो कुछ नहीं बोली परन्तु जानता मै भी था और वो भी "सुनो, अब मै तुम्हारे शरीर का शुद्धन करूंगा तनिक भी विचलित ना होना! समझीं?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने हाँ में गर्दन हिलाई!

मैंने तब उसके शरीर पर अपने थूक से निशान बनाए और मंत्राभूत किया! अब मुझे उसका आलिंगन करना था, मैंने एक महामंत्र पढके उसको आलिंगनबद्ध कर लिया! मित्रगण, मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था की मेरा संयम हिम के पिघलने के समान धीरे-धीरे अपघटित हो रहा हो! मैंने इस आलिंगन-मुद्रा में ११ मंत्र-जाप किये और उसको सशक्त कर दिया! उसको मैंने अपने बंधन पहनाये, अपना श्याम-सूत्र धारण करा दिया!

"अपने वस्त्र धारण कर लो तरुणिका, मैंने तुम्हारा नाम भी परिवर्तित कर दिया है! आज से तुम तरुणिका हो!" मैंने कहा,

उसने मुझे शांत भाव से देखा और पास में रखे अपने वस्त्र धारण करने आरम्भ कर दिए। मै कमरे से बाहर आ गया!

"हो गया आलिंगन?" जोगन ने हंस के पूछा,

"जोगन, तू मुझे जानती है ना?" मैंने भी हंस के कहा,

"वैसे, ये तुम्हारे साथ जंचती है, ऐसा मेरा मानना है" उसने कहा,

"नहीं जोगन! ये डेरे में रहने योग्य नहीं है, इसका भी वही हाल होगा जो शेश्ना का हुआ, याद है तुझे? मैंने कहा,

"हाँ, मार डाली गयी बेचारी, कितनी सजग थी" वो बोली,

"मै इसको इसीलिए लाया हूँ, इसको मै इलाहबाद में रखूँगा, सामाजिक-कार्य करेगी वहाँ, यहाँ कोई लाभ नहीं इसका" मैंने कहा,

"हाँ, सही है, सही निर्णय है तुम्हारा" उसने शराब का एक गिलास मुझे मेरे हाथ में पकडाया और एक अपने हाथ में पकड़ा!

"अलख-निरंजन!" हम दोनों ने कहा और मदिरा पान किया!

भोजनादि पश्चात मै साध्वी के पास गया, उसको भोजन जोगन की सहायिका दे गयी थी, उसने भी भोजन कर लिया था, मुझे देख खड़े हो गयी, मैंने कहा, "सुनो, यहाँ कोई भी कैसी भी परेशानी हो तो कोकरा जोगन से कह देना, नहीं तो मुझे बता देना, अब आराम से सो जाओ, बाकी बात मै प्रातः काल पश्चात करूंगा"

ये कह के मै वापिस मुड़ा तो उसने मुझे आवाज़ देके रोका "सुनिए?"

"बोलो साध्वी?" मैंने कहा,

"आप यहाँ बैठ नहीं सकते?" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ! अवश्य बैठ सकता हूँ, अवश्य! कोई विशेष कार्य है?" मैंने उसके साथ बैठते हुए कहा,

"आपने मेरी खातिर व्योम नाथ से बैर लिया है" उसने कहा,

"हाँ, तो?" मैंने कहा,

"आप जानते हैं ना व्योम नाथ को?" उसने कहा,

"हाँ, उसके गुरु को भी" मैंने हंस के कहा,

"वो प्रचंड है बहुत" उसने मुझे कम शब्दों में भय जताया!

"सुनो साध्वी, ये व्योम नाथ मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, वो जानता है की कालेष से वैर रखने वाला जीवित ही शेष नहीं रहता, जहां तक प्रचंड की बात है तो मैं भी अति-प्रचंड हूँ!" मैंने कहा

"आपको बताना मैंने अपना कर्तव्य समझा" उसने कहा और मेरे घुटने पर अपना गर्म हाथ रख दिया!

मैंने उसके हाथ पर हाथ रखा और कहा, "उचित किया!"

उसके बाद वो बैठे बैठे मुझसे आलिंगनबद्ध हो गयी! मै मदिरावेश में था, संयम रख पाना दुष्कर होता है उस समय इसी लिए मै तभी उठा गया!

"अब सो जाओ साध्वी, समय काफी हो चुका है!" मैंने खड़े हो कर कहा,

"एक बात पूछ सकती हूँ आपसे यदि आज्ञा दें तो?" उसने संकोच वश कहा,

"निःसंकोच कहो साध्वी, आज्ञा कैसी?" मैंने कहा

"आप आज रात्रि मेरे साथ शयन करें!" उसने कहा,

उसका ये वाक्य मेरे मस्तिष्क में हुंकार मार गया! मेरा काम वेग हिलोरें मारने लगा! मै स्वयं को भभकता हुआ महसूस कर सकता था, अपनी नसों में बहते तीव्र लहू-वेग में आवेग महसूस कर सकता था! मेरी जिव्हा, मेरा हलक, कंठ शुष्क हो गए। उसके बड़े बड़े तीक्ष्ण नेत्रों में लगा काजल मुझे उनको चूमने हेतु आमंत्रित करने लगा! मेरे दोनों हाथों में पसीने आ गए!

और वो! वो बिस्तर पर ऐसी मुद्रा में बैठी थी कि ना तो बैठी ही थी ना लेटी ही थी! उसके अंग-प्रत्यांग को मैंने अपने नैत्रों से पूरा माप लिया था! मैंने अपने नेत्र बंद किये और खोले, फिर बोला, "नहीं साध्वी मै आज तुम्हारे साथ शयन नहीं कर सकता!"

"क्या मै इस योग्य नहीं हूँ?" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं ऐसा ना कहो, तुम मेरे जीवन की ऐसी पहली साध्वी हो जिसके लिए मेरा कामवेग मुझसे बिना आज्ञा लिए जागृत हुआ है!" मैंने कहा,

"तो फिर शयन कीजिये जा!" उसने हलकी मुस्कराहट से कहा,

"नहीं साध्वी, मै नहीं करूंगा आज शयन!" मैंने कहा,

"तो मुझे कारण बताइये आप" उसने पूछा,

"यदि मै तुम्हे कारण बता दूंगा तो निश्चित हार जाऊँगा साध्वी!" मैंने कहा,

"मेरी बात मान लीजिये ना?" उसने कहा,

"नहीं साध्वी, आज नहीं!" मैंने कहा,

उसके बाद में तपाक से वहाँ से बाहर आ गया, पीछे मुड़कर भी नहीं देखा!

दो दिन गुजर गए थे आज तीसरा दिन था! व्योम नाथ वहाँ आग बबूला हो रहा होगा! ना तो वो और ना मै ही कोई कारिन्दा या खबीस भेज सकते थे, दोनों ही उनको पकड़ने में सक्षम थे! बस एक ही काम वो कर सकता था या तो मुझे पर या तरुणिका पर शक्ति-आघात! अभी तक वैसे कुछ नहीं हुआ था!

प्रात: काल पश्चात स्नानादि से निवृत हो कर मैं तरुणिका के पास गया! वो स्नान करने के बाद अपने केश संवार रही थी! मुझे देख कर बोली, "प्रणाम!"

"प्रणाम!" मैंने भी उत्तर दिया!

और मै फिर वहाँ उस बिस्तर पर जा कर बैठ गया! उसके, नितम्बो को ढकते केश, बहत सुन्दर थे! जब वो अपने केशों को हिलाती थी तो कुछ बूँदें जल की मुझ पर भी गिर जाती थीं.

"सुनो साध्वी, आज रात्रि तुम मेरे साथ क्रिया में बैठोगी, मै आज तुमको चेत्नावृत करूंगा!" मैंने कहा,

"आपके धन्यवाद हेतु मेरे पास शब्द नहीं हैं!" उसने नैत्र मुझ से अलग ले जाते हुए कहा,

"सुनो साध्वी, जैसा मै कहूँ वैसा करना, कुछ तुम्हे करना हो तो मुझसे पहले पूछ लेना!" मैंने कहा,

"जैसी आपकी आज्ञा" उसने कहा,

"एक बात बताओ मुझे तुम तुम्हारा रजस्वला-समय कब आता है माह में?"

उसने मुझे बता दिया क्रिया समय कोई व्यवधान नहीं था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने उसको एक उबटन दिया और कहा, "इसको स्नान से पहले अपने बदन पर लगा लेना, केवल योनि को छोड़कर"

"जी" उसने कहा,

फिर मै उठ कर बाहर चला गया, शर्मा जी को सारी घटनासे अवगत करवाया, तभी मेरे फ़ोन पर घंटी बजी! फ़ोन नेपाल से था! अर्थात व्योम नाथ जाग गया था! मैंने फ़ोन उठाया! बातें हुई! करीब १० मिनट तक! ये व्योम नाथ का ही फोन था!

व्योमनाथ ने मुझे तीन बातें कहीं थीं! पहली-साध्वी को जहां से लाया हूँ वहीं छोड़ आऊं! दूसरी-साध्वी को स्पर्श ना करूँ! तीसरी- इन दोनों बातों का यदि मैंने उल्लंघन किया तो वो मुझे सबक सिखा देगा!

मैंने भी उसको तीन उत्तर दिए थे! पहला-साध्वी व्योम नाथ के पास अब नहीं जायेगी, वो वहीं रहेगी जहां मै उसको रखूँगा! दूसरा-साध्वी को मैं स्पर्श कर चुका हूँ और उससे रमण भी करूंगा! और तीसरा-यदि व्योम नाथ मुझे सबक नहीं सिखाता है तो वो ये जान ले, वो अपने ज्ञात पिता की औलाद नहीं है!

मैंने शर्मा जी को सब बता दिया! शर्मा जी ने कहा, "संभल के काम करना आप, हमेशा की तरह!"

"मत घबराइये शर्मा जी, व्योम नाथ के दिन अब पूरे हो गए हैं! वो मातंग-जालेश-साधक है तो मै भी काल-कालेष-साधक हूँ!"

"मै जानता हूँ गुरु जी आपको! व्योम नाथ का अब युग बीत जाने वाला है!" वे बोले,

"मै आज ही रात्रि ये कार्य प्राम्भ करूंगा!" मैंने कहा,

"ठीक है, मेरे मदद की आवश्यकता हो तो अवश्य बताइये!" वे बोले

"अवश्य बताऊंगा मै आपको!!" मैंने कहा,

तब मैंने अपने अस्त्र-शस्त्र सजाये! और उनका पूजन करने चला गया! उनका संधान परम-आवश्यक होता है!

मै पूजा आरम्भ करने ही वाला था, वो साध्वी वहाँ आ गयी! उसने मुझे देखा और बोली, "व्योम नाथ से बात हो गयी आपकी?"

"हाँ! हो गयी!" मैंने कहा!

"अब क्या होगा? मुझे डर लग रहा है" वो बोली और थोडा सिमट के मेरे पास बैठ गयी,

"डरती क्यूँ हो? क्या तुमने भी उसको हारते हुए नहीं देखा साध्वी?" मैंने हंस के कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, कभी नहीं देखा, उसने काफी को मटियामेट किया है, मै जानती हूँ" उसने डर से कहा,

"तो आज वो मटियामेट होगा साध्वी!" मैंने कहा,

वो चुप हो गयी और उठ के बाहर चली गयी! मैंने पूजन आरम्भ किया! सशक्तिकरण किया और अभय-सिद्धि जागृत की! मैंने समस्त वस्तुओं का अभिमन्त्रण कर दिया, मुझे घंटे लगे!

मै उठा, और उस क्रिया-स्थान को नमन किया! फिर मै साध्वी के पास चला गया! वो बेचारी नेत्रों में आंसू भरे लेटी हुई थी! मैंने आवाज़ दी, "साध्वी?"

वो उठ के खड़ी हुई और अपने नेत्र पोंछे,

"मत घबरा ओ साध्वी! आज तुमको एक नया आयाम प्राप्त होगा!" मैंने कहा,

वो दौड़े आई और मुझसे लिपट गई! मैंने उसके आंसू पोंछे! और कहा, "साध्वी, संध्या-समय स्नान कर लेना, वैसे ही जैसे मैंने कहा था"

"जी जैसी आपकी आज्ञा" उसने मुझसे लिपटे हुए ही कहा!

संध्या-समय उसने स्नान कर लिया! मैंने उसको अभिमंत्रित आभूषण पहना दिए! और कहा, "साध्वी, किसी भी साधक की प्राण-वायु होती है उसकी साध्वी, साधक के गिरने तक स्थान नहीं छोडती! मुझे तुमको अपनी साध्वी बनाने का गौरव है!" मैंने कहा,

वो मुझे फिर से अपने भूजाओं में जकड़ने के लिए उठी और अब उसने मुझे और कस के जकड़ लिया

"घबराना नहीं! आज व्योम का नाश कर दूंगा मै!" मैंने कहा और उसको अपने से अलग किया!

"जी" उसने कहा,

"तुम घबरा रही हो, मेरी आयु और उसकी आयु के अंतर पर है ना?" मैंने कहा,

उसने असमंजस में अपनी गर्दन हाँ में हिलाई!

"सुनो, व्योम नाथ साधक भगोड़ा है! २ बार का भगोड़ा! वो यदि वृहद् नाथ का प्रिय ना होता तो अब तक मर गया होता या मारा गया होता! वो जालेष है, और मै कालेष! कालेष के सामने आज तक ना तो कोई जालेष टिका है, रुका है, डटा है! अब न घबराओ!"

उसको जैसे मेरी बातों पर विश्वास नहीं था! मैंने अब इसका फैसला उसी पर छोड़ दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सुनो साध्वी, रात्रि ग्यारह बने मै क्रिया आरम्भ करूंगा, व्योम १२ बने करेगा, उसके साथ और भी औघड़ हैं, ये उनकी और मेरे बीच द्वन्द की भूमि ही नहीं मान-सम्मान और प्राण का प्रश्न भी है! तुम ग्यारह बने ठीक, मेरे पास आ जाना! मै यही बैठा हुआ होऊंगा! आगे बात नहीं करूँगा, अब से दो घंटे के बाद मौन-धारण करूंगा, केवल क्रिया-समय ही वार्तालाप होगा अब हमारा!" मैंने कहा,

मै वहाँ से बाहर आ गया, शांत भाव से मंत्रोच्चार करता रहा! अब मेरा मौन आरम्भ हो गया! मौन से शक्तियां जागृत होती हैं!

रात्रि समय मै अपने क्रिया-स्थान पर आया, अपने समस्त वस्त्र उतारे, मांसादी के ५ थाल सामने रखे, ५ बोतल मदिरा रखीं, ४ कटोरे बकरे का और मेढे का मिश्रित रक्त रखा! उनकी कलेजियों के टुकड़ों से २ माला बनायीं, अपने त्रिशूल को भूमि में अट्टहास करके गाड़ दिया!

अलख उठायी, भोग दिया, अलख भड़की! मैंने मंत्रोच्चार आरम्भ किया! बाल-कपाल, नपुंसक-कपाल और पूर्ण-कपाल अपने त्रिशूल-नख पर धारण किया!

ठीक उसी समय साध्वी ने वहाँ प्रवेश किया! उसने मुझे दंडवत प्रणाम किया!

"मेरे सामने आओ साध्वी!" मैंने एक मानव-हस्त-अस्थि से उसको इशारा किया!

वो मेरे समक्ष खड़ी हो गयी!

"अपने वस्त्र उतारो ओ साध्वी!" मैंने कहा,

उसने धीरे-धीरे समस्त वस्त्र उतारे, मैंने कहाँ "यहाँ लेट जाओ"

वो नीचे लेट गयी!

मैंने उसके शरीर पर रक्त से कई चिन्ह बनाए और तीनों कपालों को उतार के  उनको साध्वी के ऊपर से २१ बार उतार किया! मैंने कलेजी की एक माला उठायी और उसको पहना दी, एक माला में ३१ कलेजियाँ अर्थात टुकड़े लगाए जाते हैं। प्रत्येक टुकड़े को अभिमंत्रित किया जाता है!

अब मैंने साध्वी को अपने सामने बैठा दिया और क्रिया आरम्भ कर दी! मैंने चिता-भस्म लेकर अपने शरीर पर और अपनी जटाओं पर लगाई! और नाद किया! मैंने अलख में मांस के टुकड़ों का भोग दिया! दो गिलासों में शराब डाली, एक साध्वी ओ दिया और एक खुद ने लिए! एक महानाद करते हुए मैंने पहले उसको और फिर स्वयं शराब पी!

अब मैंने अपनी शक्तियों का आह्वान किया! पहले रुद्राणी-पिशाचिनी का आह्वान किया! ५ मन्त्रों में ५ टुकड़े कच्चे मांस की खाए जाते हैं! पिशाचिनी जागृत हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसके बाद कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान किया! कच्ची कलेजी चबाते हुए उसका आह्वान किया जाता है! कर्ण-पिशाचिनी जागृत हुई!

फिर उसके बाद त्राशाका-यक्षिणी का आह्वान किया! इस आह्वान में खड़े होकर अपने त्रिशूल के मध्य में मांस के तीन टुकड़े भोग में डाले जाते हैं, फिर अपना हाथ पर एक छेर लगा कर, अभिमंत्रित मांस पर छिड़क कर उसको खाया जाता है! २१ महामंत्रों के जाप से ये जागृत होती है! वो जागृत हुई!

साध्वी ये सब देख कर चकित रह गयी!

मैंने तब अपनी तीन और महा-शक्तियों का आह्वान कर डाला!

मैंने कर्ण-पिशाचिनी को रवाना किया! वो रवाना हुई और अगले ही क्षण वो वापिस हुई! उसके अनुसार वो तीन औघड़ों से साथ क्रिया आरम्भ करने जा रहा है!

कर्ण-पिशाचिनी समीप रहकर शत्रु के अगले वार का पता करती जाती है और साधक के कान में बताती जाती है!

रात्रि करीब १२ ४० पर व्योम नाथ ने पहला वार किया! ये वार स्थूल-वाहिनी का था! मुझे काटना था नहीं तो वो मुझे मेरी साध्वी समेत किसी कांच की तरह से तोड़ सकती थी, फाड़ सकती थी! मैंने यम-वाहिनी का आह्वान किया! दोनों शक्तियां टकराई और वापिस हो गयीं!

व्योम नाथ का एक औघड़ वहाँ से उठ गया!

अब व्योम जाथ ने दमनाक्षिका यक्षिणी को भेजा! मैंने करालिका को जागृत किया! दोनों में महा-नाद हुआ! फिर दोनों वापिस आ गयीं!

व्योम नाथ सशक्तिकरण से वार कर रहा था! आदि औघड़ उसके शरीर रक्षा हेतु तत्पर थे।

व्योम जाथ ने फिर से एक कुपित-सेना संचारित की और भेज दी!

मैंने कुपांत-सेना जागृत की और भेज दी! दोनों आमने सामने खड़े हो गए! त्रिपल-विलम्ब होने पश्चात लोप हो गयीं दोनों ही!

व्योम नाथ को मै उचित जवाब दे रहा था! चकित तो वो भी था!

मैंने कोई वार नहीं किया था, मै केवल बचाव मुद्रा में लगा था! उसके सामने दो लक्ष्य थे, एक मै और एक साध्वी! और मेरे सामने केवल एक!

व्योम नाथ ने एक चित का परिसीमन किया! और एक महा-शक्ति जागृत कर दी! उसको नमन करने के बाद उसने उसको उसका लक्ष्य बता दिया!


   
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