ये जून के आस पास की बात है, मेरे पास मेरे किसी परिचित के भेजे हुए एक सज्जन आये, नाम था संजय, उनकी समस्या बड़ी अजीब सी थी, उससे पहले मैंने ऐसा देखा नहीं था, उनके अनुसार उनके खेतों में से एक खेत में, एक विशेष स्थान पर, ये स्थान पश्चिमी सिरे पर था, लगातार मिट्टी खिसके जा रही थी, जब वहाँ ३ फीट से अधिक खिसकाव हो गया तो उन्होंने वहाँ कई ट्रेक्टर-ट्राली मिट्टी की भरवा दि, लेकिन कोई ६दिनों के बाद फिर से एक गड्ढा हो गया था! वो अपने सेलफोन में उस जगह की एक-दो फोटो भी खींच के लाये थे, मैंने गौर से देखा तो मुझे वहाँ कुछ भी अजीब सा नहीं दिखाई दिया! हाँ एक बात और, जो उन्होंने बतायी, ये की एक बार उनकी पुत्री, श्रुति अपनी एक सहेली के साथ जब विद्यालय से वापस आ रही थी तो उन्होंने वहाँ धुआं देखा था, आकाश की ओर उठता धुआं, जैसे की यज्ञ आदि में से उठता है, और वहाँ गंध भी वैसी हवन वाली थी! लेकिन जब वो उसके पास गयीं तो वहाँ कुछ भी नहीं था! दोनों डर के मारे भागी वहाँ से और सब-कुछ अपने घर में बता दिया! घरवालों को भी हैरत हुई! लेकिन दिन प्रतिदिन वहाँ भूमिका खिसकना जारी रहा! आखिर हारकर, वे लोग वहाँ एक एक स्थानीय पंडित जी को ले आये, उन्होंने वहाँ एक हवन किया, परन्तु भूमि-स्खलन निरंतर होता रहा, वो कुछ ओझे गुनिये, तांत्रिक भी लाये लेकिन कुछ न हुआ! इसके बाद उन्होंने उस जगह को फूस की ढेरियों से ढककर, ईटों से । चहारदीवारी बनवा दी, लेकिन दो दिन बीते वहां की पूर्वी दीवार भी धसक गयी! अब वो डर गए हैं। उन्होंने ये सब मेरे एक परिचित को बताया और उन्होंने फिर मेरे से बात की, इसीलिए मैंने संजय को अपने पास बुलाया था, मैंने संजय से पूछा, "ये खेत कब से आपके पास हैं?"
"जी ये तो दादालाई हैं, काफी दिनों से हैं हमारे पास" उन्होंने बताया,
"तो ऐसी कोई घटना कभी उनके साथ भी हुई थी? जो आपके संज्ञान में हो?" मैंने पूछा,
"कभी नहीं हुई गुरु जी, ये तो अभी एक साल से हो रही है!" उन्होंने जवाब दिया,
"वहाँ कहीं और, किसी और के खेत में ऐसा हुआ है क्या?" मैंने प्रश्न किया.
"जी नहीं, कहीं भी नहीं" उन्होंने बताया,
"और कोई ऐसी विशेष बात जो आप बताना चाहते हों?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, एक बात है विशेष, साल भर पहले वहाँ हमारे ढोर-डंगर चारा चर लिया करते थे, लेकिन अब वहाँ कोई नहीं जा रहा, बकरी वगैरह भी नहीं, वो वहीं से वापिस मुड जाते हैं, पता नहीं क्या बात है?" उन्होंने बताया,
ये और भी एक अलग विचित्र बात थी!
फिर मैंने पूछा, "कोई पेड़ वगैरह हैं वहाँ?"
"नहीं जी वहाँ तो नहीं हैं, थोडा कोई ५०-६० फर्लाग पर हैं जी ५ पेड़, २ बरगद के हैं, और बाकी जामुन के" उन्होंने बताया,
"साल भर पहले सब कुछ ठीक ठाक था वहाँ? कोई समस्या नहीं थी?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, सब कुछ ठीक था, कोई समस्या, दिक्कत-परेशानी नहीं थी" उन्होंने बताया,
मैंने थोड़ी देर सोचा और फिर मै बोला, "संजय जी, मै वो जगह स्वयं देखना चाहूँगा"
"ज़रूर गुरु जी, जब भी आप कहें" संजय जे कहा,
मैंने तब शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, आप इनका पता नोट कर लीजिये, इनका नंबर और कोई स्थानीय-निशानी भी, हम कल वहाँ पहुँच जायेंगे दिन में कोई ११ बजे"
शर्मा जी ने एक कागज़ पर उनका नाम, पता, गाँव का पता आदि नोट कर लिया! संजय उठे और हमसे विदा ली!
हमारा कल के लिए कार्यक्रम निर्धारित हो गया!
अगले दिन मै और शर्मा जी बादशाहपुर पहुँच गए, संजय वहाँ अपने ज्येष्ठ पुत्र के साथ हमको मिल गए! नमस्कार इत्यादि से फारिग होते ही हम उनके गाँव की ओर रवाना हो गए, उनकी गाडी आगे थी और हमारी पीछे! कोई आधे घंटे के बाद हम गाँव में उनके घर पहुँच गए! दूध से स्वागत हुआ! उन्होंने घर के प्रत्येक सदस्य से मिलवाया और हमारा परिचय भी दिया, थोड़ी देर मैंने उनको अपने उस खेत पर जाने के लिए कहा, उन्होंने अपने बड़े लड़के, प्रदीप, को साथ लिया और खेत की तरफ निकल पड़े, खेतों में सब्जी लगी थी, चुकंदर के पौधों ने जैसे ज़मीन पर कालीन बिछा रखा था! हरे धनिये की सुगंध मनमोहक थी! जब हम आगे बढे तो मुझे दूर से ही वो चारदीवारी दिखाई दे गयी! एक तरफ की दीवार धसक गयी थी! ये क्षेत्र कोई २० गुणा ३० का होगा, मैं थोडा और करीब गया, मैंने शर्मा जी को बुलाया, वो भी मेरे साथ आगे बढे, मैंने देखा, वहाँ मिट्टी धसक गयी थी और एक कुँए के समान वहाँ गड्ढा हुआ पड़ा था! ये कुआँ सा काफी चौड़ा और डरावना लग रहा था, भराव वाली मिट्टी ऊपर ही पड़ी थी और उसके ऊपर दीवार की ईटें गिरी हुई थीं! मै पीछे हटा, चारों तरफ देखा, लेकिन कुछ समझ नहीं आया, कोई तर्क सफल नहीं जान पड़ा, भौगोलिक रूप से भी ये असंभव लगरहा था!
तब मैंने वहाँ एक खबीस को हाज़िर किया, उसको अपना प्रश्न बताया, खबीस ने उस जगह चक्कर लागाये और दौड़ के मेरे पास आ गया लेकिन बोला कुछ नहीं! मैंने उससे पूछा, लेकिन वो नहीं बोल पाया! इसका मतलब था वहाँ कोई भयानक और आप्लावी शक्ति व्याप्त है! मैंने खबीस को कोई नुक्सान होने से पहले, उसको उठा लिया! और वहाँ से हट गया!
मै वहाँ से थोडा दूर जाके, खड़ा हुआ, शर्मा जी को वहाँ खड़े रहने को कहा, तब मैंने एक शक्ति का आह्वान किया! शक्ति प्रकट हुई! मेरे प्रश्न का उत्तर ऐसे मिला,
"नीचे करीब 30 फीट, श्री महामंगला-मंदिर है, कोई १००० वर्ष पुराना, वहाँ एक सिद्ध-पुरुष का समाधि-स्थान है, उन सिद्ध पुरुष की अब निंद्रा भंग हुई है, उनका नाम देवश्री है, अब से ११वें माह को वो समस्त भू-मंडल का अवलोकन करेंगे, सिद्ध स्थानों की यात्रा करेंगे, इन लोगों ने, जिनकी ये भूमि है, यहाँ पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था, और सारी गंदगी यहाँ एक गड्ढा करके दबा दी थी, उसमे अवशिष्ट पदार्थ भी थे, मानव-अवशिष्टों से रिसाव हुआ और मंदिर के गर्भ-गृह में पहुंचा, इनकी निंद्रा भंग हो गयी!...."
अब मुझे कहानी समझ में आ गयी! मैंने उस स्थान को नमस्कार किया और शक्ति को वापिस किया! मै वहां से हटा और संजय के पास पहुंचा, मैंने उनसे पूछा, "क्या आपने वर्ष भर पहले, यहाँ कोई कार्यक्रम किया था?"
"हाँ जी, किया था, अपने सबसे बड़े लड़के के ब्याह के बाद यहाँ पार्टी दी थी" उन्होंने बताया,
"और सारी गंदगी का क्या किया? यहीं दबा दी?" मैंने ये पूछा तो उनके चेहरे का रंग बदल गया!
"हाँ जी, यही पास में ही दबा दी थी" उन्होंने कहा,
"वहाँ लोगों ने 'गंदगी भी की होगी?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, अब किस किस को मना किया जा सकता है" वो बोले,
"यही इसकी वजह है........." मैंने जैसे ही ऐसा कहा, जामुन के एक पेड़ से एक बड़ी शाख'कडाक की आवाज़ के साथ टूटी और वहाँ गिर पड़ी! हमसे कोई १० फीट दूर!
मामला गंभीर हो गया था, हम वहाँ से निकले और उनके घर पर आ गए! उन्होंने खाना बनवा लिया था सो हमने खाना खाया! उसके बाद मैंने जस की तस सारी बात उनको बता दी, उनके होश उड़ गए!
"अब क्या हो गुरु जी? बाबा गुस्से में आ गए हैं, वो शाख इसीलिए टूटी होगी!" उन्होंने घबरा के कहा,
"हाँ ये एक कारण अवश्य ही है" मैंने सहमति जताई,
अब मुझे कुछ न कुछ अवश्य ही इसका हल निकालना था..........
मै उनको आश्वासन देकर वापिस आ गया! शर्मा जी से सलाह ली और फिर मैंने आगे की रण-नीति निर्धारित की, ऐसा मेरे साथ एक बार पहले भी हुआ था, झाँसीसे थोडा आगे एक जगह पड़ती है बरुआ सागर, बस यहीं पर मेरा और एकसिद्ध-पुरुष का सामना हो गया था, मुझे उनके सम्मान में वो स्थान छोड़ना उचित समझा था और इसीलिए मै उनका आशीर्वाद प्राप्त करके वहाँ से वापिस आ गया था! ये सिद्ध-पुरुष स्वयं-सिद्ध हुआ करते हैं, प्रबल-सात्विक! इनसे झगड़ना अपने आप में एक घमंड करने के समान है, मै इनसे भी भिड़ना नहीं चाहता था, वरन उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता था! और
इसके लिए मुझे सशक्तिकरण की आवश्यकता थी! मैंने तीन दिनों तक स्वयं को सशक्त बनाया और पूजन के पश्चात वहाँ के लिए चल पड़ा!
मै और शर्मा जी ठीक और सीधे वहाँ पहुंचे, मैंने और सभी को वहाँ से हटाया और शर्मा जी के साथ वहाँ पहुँच गया! मै तामसिक और वोसात्विक! बात बिगड़ी तो मेरा नुक्सान होना तय था! हर कदम फूंक-फूंक के रखना था! मैंने उनका ध्यान किया! स्वयं को जागृत कर में ध्यान में बैठ गया! तभी मैंने ध्यानचित अवस्था में एक वयोवृद्ध साधू को देखा, वो अपने झोंपड़े के बाहर अपने कमंडल से पानी का छिडकाव कर रहे थे। उनकी उम्र उनके सफेद लम्बे बालों और लम्बी पेट तक की दाढ़ी से मालूम पड़ती थी! कद-काठी भी सामान्य से अधिक! बस! इसके बाद मेरा ध्यान टूट गया!
मै फिरसे ध्यान अवस्था में बैठा, इस बार उन्होंने मुझे क्रोधवश देखा और बोले, " यहाँ आने की सोचना भी मत!" उन्होंने अपना ब्रह्म-दंड दिखा कर ऐसा कहा था! आशय स्पष्ट था! उनको मेरा यहाँ आना स्वीकार्य नहीं था! मै वहां से उठा और एक ऐसी जगह पर जा बैठा जहां मै क्रिया करने हेतु किसी को दिखाई न दूँ ये कुछ बेरी के पेड़ों का झुरमुट सा था, मै वहाँ खड़ा हुआ, मैंने एक शक्ति का आह्वान किया! शक्ति प्रकट हुई! मैंने उस शक्ति से कहा की वो किसी भी प्रकार से उन साधू बाबा को बाहर निकालो! मेरी शक्ति ने उस स्थान का भ्रमण किया और अन्दर प्रवेश कर गयी! थोड़ी देर में वापिस आ गयी! उसको अन्दर प्रवेश के लिए एक ऐसी बंदिश से भिड़ना पड़ा था जिसको वो काट नहीं पायी थी! मैंने उसको वापिस किया और दूसरी शक्ति को प्रकट किया और उसको भेज दिया! वो अन्दर गयी और काफी देर बाद वहाँ से वापिस आई! उसने बताया की अन्दर ३ कक्ष हैं एक पूर्व-मुखी, एक दक्षिण-मुखी और एक पश्चिम मुखी, वहाँ बीच में एक छोटा सा मंदिर है और उस मंदिर के समक्ष एक समाधि-स्थल, ये इन्ही साधू बाबा की समाधि है! वो उस समाधि को लांघ नहीं पायी थी!
मेरे दो प्रयास विफल हो गए थे! अब मुझे उनको पीड़ित करना ही पड़ेगा ऐसा मेरे मन में ख़याल आया! मै वहाँ से उठ गया और वापिस अपने स्थान पर आ गया! मैंने संजय को कह दिया था की मै अमावस वाली रात्रि को वहाँ आऊंगा! मैंने संजय को सारी सामग्री लिखवा दी थी, जो मुझे उस दिन यानि अमावस को चाहिए थी!
और फिर ६ दिनों के बाद अमावस आ गयी! मैं शर्मा जी के साथ वहाँ ४ बजे तक पहुँच गया था, मैंने सारी सामग्री जाँची, सभी कुछ सही था! मैंने अपने आप को और शर्मा जी को रक्षा-मन्त्रों से बाँधा और गले में अपनी सिद्ध मालाएं धारण की, शर्मा जी को भी पहनायीं और सारी सामग्री लेके मै उस स्थान पर पहुँच गया! संजय को मैंने कह दिया था कि कोई भी वहाँ मेरे आने तक वहाँ ना आये! नहीं तो अनिष्ट हो जाएगा! संजय ने डर के हाँ की!
मै उस गड्ढे के पास आया, अपना आसन लगाया, अलख उठायी और अलख भोग दिया! जोर की हवा चली! भयानक क्रंदन हुआ! ऐसा लगा कि हम जहां बैठे हैं, वो जगह धसकने वाली है!
अब मैंने क्रिया करनी आरम्भ की! पहले ज़मीन का हिलना बंद किया! फिर वो भयानक क्रंदन! मैंने मांस के टुकड़े लिए! उनको अपने त्रिशूल के त्रि-फल पर लगाया और अलख में झोंक दिया और तेज तेज मंत्रोच्चारण आरम्भ किया! मैंने अपने चाकू से अपना हाथ काटा और रक्त की बूंदों से गड्ढे तक एक निशान बना दिया! गड्ढे में से धुआं निकलना आरम्भ हुआ! और हवन की गंध आनी शुरू हई! मैंने शराब की कुछ बूंदें अलख में डाली! बहुत तेज शोर हुआ! गड्ढे में से प्रकाश पुंज दैदीप्यमान हुआ! गड्ढे
में से एक थाल उत्पन्न हुआ और हमारी ओर आया! इस थाल में सोना-चांदी-हीरे-जवाहरात आदि आदि थे! वो थाल हमारे वक्ष-स्थल तक आया! तात्पर्य स्पष्ट था! कि हम वो रख लें और वहाँ से चले जाएँ! मैंने महा-अमोघ-मंत्र से उस पर मिटटी पढ़ कर फेंकी, वो गायब हो गया! हमने वो पेशकश ठुकरा दी थी!
मैंने फिर से अलख में मांस के टुकड़े डाल कर एक हड्डी पर अभिमन्त्रण किया और उस हड्डी को गड्ढे में फेंक दिया! हड्डी बीच रास्ते में ही सुलग उठी और जल के नीचे गिरी! मुझे अब किसी भी क्षण कुछ न कुछ होने की आशंका होने लगी! मैंने फिर से अभिमन्त्रण किया और अपनी आँखें गड्ढे पर ही टिकाये रखीं! वहाँ से ५ भयानक विषधर निकले! बेहद भयानक! गले में सोने के आभूषण पहने! उन्होंने मेरे और शर्मा जी के चक्कर लगाने शुरू किये! प्रत्येक चक्कर में उनका और हमारे बीच का दायरा छोटा होने लगता था!
अब जब वे इतना पास आ गये कि हाथ भर की दूरी पर ही रह गए, मेरा मंत्रोच्चारण घोर होता गया! मैंने त्रिशूल उठाया, मंत्र से प्राण-सृजन किया और उन साँपों में से एक में घुसेड दिया! सांप ने पलटी खायी, मैंने त्रिशूल निकाला और फिर घुसेड दिया! सांप दूसरे वार के बाद गायब हो गए!
मैंने अपना त्रिशूल देखा, न तो रक्त था और नहीं कोई और निशान!
अब मैंने फिर से एक हड्डी पर अभिमन्त्रण किया और उसको फिर से गड्ढे में फेंका! इस बार हड्डी नीचे चली गयी! परन्तु अगले ही क्षण वो बाहर आई और मेरी अलख में गिरी! ये इन सिद्ध-पुरुष का सामर्थ्य था! मै उनको पीड़ित करके साक्षात्कार करना चाहता था, इसीलिए तंत्र-अभिमन्त्रण करता जा रहा था!
मैंने गड्ढे को देखा! उसमे से ताज़े नीले फूल निकले और गड्ढे के आसपास फैल गए! मैंने उनमे से एक फूल उठाया! फूल बर्फ से भी ठंडा! मैंने उस फूल को अपनी अलख में डाला, बाहर निकाला, और मांस के साथ एक काले धागे से बाँधा! उस पर शराब से अभिमन्त्रण किया और फेंक दिया गड्ढे के अन्दर! सारे गिरे हुए फूल गायब हो गए।
मेरे फेंके हुए फूल ने एक बंदिश काट दी थी! अब मैंने अपनी एक शक्ति को प्रकट किया! और इंगित कर उसको गड्ढे के अन्दर भेज दिया! अट्टहास करती हुई वो अन्दर गयी और अन्दर से एक पोटली उठा लायी! मैंने उसको वापिस किया! मैंने वो पोटली खोली तो उसके अन्दर २ रोटियां, गुड और ७ मिर्च थे! मैंने उनको वापिस रखा और पोटली को बाँध दिया!
सहसा ही! गड्ढे में से एक यक्ष प्रकट हुआ! भयानक यक्ष! एक हाथ में एक तलवार और दूसरे हाथ में एक खडग! ये क्रान्तिवर्मन यक्ष था! मैंने अपनी अलख में, अपनी एक लट तोड़ी और रक्त में डुबोकर भस्म होने के लिए छोड़ दी! एक यक्षिणी का आह्वान किया! एक महा-यक्षिणी प्रकट हुई! उसके एक हाथ में कटा हुआ भैंसे का सर और दूसरे हाथ में इंसानी आतें! वो हवे में खड़ी थी! अलख के ठीक ऊपर क्रान्तिवर्मन पीछे हटा! और वापिस जाके गड्ढे में घुस गया! मैंने अपनी महायक्षिणी को लोप किया और अगले प्रतिघात की प्रतीक्षा करते हुए, अभिमन्त्रण और अधिक तेज कर दिया!
तभी गड्ढे के अन्दर से एक सुन्दर नव-यौवना गांधर्वी प्रकट हुई! आभूषणों से युक्त! सुगंधी-पूर्ण! ये कोमलाक्षी गान्धर्व कन्या थी! तांत्रिक साधक इसकी साधना करते हैं, लगातार ३ साधनाओं के पश्चात ये प्रकट होती है! साधना का पहला चरण ५३१ दिनों का है! सिद्ध होने के पश्चात ये काम-सिद्धि और
अर्धांगिनी की तरह जीवन-पर्यंत सेवा करने वाली होती है! इसके साथ भोग करने से साधक को, धन, यश, कीर्ति और यश प्रदान करती है! ये कन्या जो प्रकट हुई थी, मुस्कुरा रही थी! अर्थात मै यदि चाहूँ तो ये मुझे प्राप्त हो सकती है! सच कहता हूँ, आप ऐसी सुन्दरता का विकल्प इस समस्त धरा पर नहीं ढूंढ सकते! अतुलनीय सुन्दरता की धनी होती है ये
मैंने तब अपनी अलख में रक्त के छींटे डाले और वहाँ की भस्म की एक चुटकी अपने मुंह में रखी और मंत्रोच्चारण किया! एक अप्रतिम सुंदरी प्रकट हुई! ये वावी-यक्षिणी कन्या थी! काले वस्त्रों में लिपटी, समस्त आभूषण-युक्त, ओंस की कोमलता जैसा बदन और धवल-चांदनी जैसा मुख! मैंने उसका आलिंगन किया! ये देख कोमलाक्षी गान्धर्व कन्या लोप हो गयी! मैंने अपनी यक्षिणी को भी वापिस भेज दिया!
दूसरी पेशकश भी मैंने ठुकरा दी!
तभी, उस गड्ढे में से एक अजीब गुंजन हुआ! एक अजीब सा गुंजन, जैसा पहले कभी न सुना हो!
फिर ये गुंजन बढ़ता गया! 'भन्न' की आवाज़ बढती गयी! अन्दर से हज़ारों भँवरे, मधुमक्खियाँ, बर्रे, आदि हमारी और झपटे! मैंने अपना त्रिशूल उठाया और ज़मीन थूका! उनके और अपने बीच एक रेखा खींच दी! वो सब इस रेखा से टकराते और गिरते जाते! वहाँ ढेर लग गया उनका! मैंने लुपिक-मंत्र का प्रयोग किया और त्रिशूल उनकी ओर करके इंगित कर दिया! सभी गड्ढे में वापिस धसक गए!
थोड़ी देर शान्ति रही! मैंने एक गिलास मदिरापान किया और खड़ा हो गया! चारों दिशाएँ कीलित करी, भूमि और आकाश कीलित किये और बैठ गया!
अब गड्ढे में से एक प्रकाश उत्पन्न हुआ! उस प्रकाश में एक अद्वित्य सुंदरी प्रकट हुई! ये कामातुरी यक्षिणी थी! इसके दर्शन मात्र से ही साधारण पुरुष की देह का समस्त वीर्य स्खलित हो जाता है! कामातुरी काम मुद्रा में लेटी हुई आई थी पूर्णतया नगन! सुगंधिपूर्ण चन्दन की भीनी भीनी सुगंध इस सुगंध से ठूंठ वृक्ष भी हरे-भरे हो जाते हैं! वो उठ उठ कर काम-मुद्राएँ बना रही थी, मंद-मंद मुस्कुराती थी! और प्रणय-निवेदन उसकी देह के हाव-भाव से फूट रहा था! मैंने अपना त्रिशूल उठाया और भूमि पर उसके बड़े फाल का स्पर्श किया! श्वेत-प्रकाश उत्पन्न हुआ! यम-सुंदरी प्रकट हुई! कामातुरी से भी अधिक मादक! नग्न, श्वेत-देह और काले चौड़े नेत्र! वो झुक कर मेरी गोद में बैठ गयी! फिर पलटी और अपनी पीठ मेरी और करते हुए उसने कामातुरी को देखा! कामातुरी लोप हो गयी! यम-सुंदरी से प्रणय-वचन पश्चात उसको मैंने वापिस भेजा!
तीसरी पेशकश भी मैंने ठुकरा दी थी!
अब मैंने एक मांस का टुकड़ा लिया! उसको आधा खाया और फिर मुंह से निकाल लिया! उसको एक तश्तरी पर रखा, और मंत्रोच्चारण आरम्भ किया! मैं उस तश्तरी वाले मांस को अभिमंत्रित करके गड्ढे पर फेंका! धमाका हुआ! वायु-प्रवाह रौद्र हो गया! मेरी अलख की लौ भटकने लगी!
अब उन महा-सिद्धपुरुष की आमद होने वाली थी!
ये मैं समझ गया!
कुछ क्षणों पश्चात गड्ढे में से ४ कलश निकले! कलश उलटे हुए! उनमेसे उत्तम सुगंध वाले नीले फूल नीचे गिरे। और तभी.. ...................गड्ढे के मध्य से एक बड़ा, काफी बड़ा! स्वर्ण-त्रिशूल प्रकट हुआ! उसकी चमक से मेरी और शर्मा जी की आँखें चुंधिया गयीं समय जैसे थम गया हो! प्रकृति की जैसे हर वस्तु वहीँ देख रही हो! श्वेत-धूम्र गड्ढे से निकल रहा था! हवन-सुगंध से वातावरण सुगन्धित हो गया।
और तब!
तब एक गौर-वर्णी सिद्ध-पुरुष प्रकट हुए! लम्बे घुटनों तक श्वेत केश! उन्नत शरीर, हाथों में रुद्राक्ष धारण किये! गले में रुद्राक्ष-मालाएं नाभि तक धारण किये हुए! एक भुजा में कमंडल लटका हुआ और दूसरे हाथ में वो स्वर्ण-त्रिशूल थामे हुए!
मै और शर्मा जी खड़े हुए और उनको दंडवत प्रणाम किया! उन्होंने मुझे क्रोध से देखा! मुझे लगा की जैसे मैं साक्षात काल की निगाहों में झाँक रहा हूँ! मैंने अपने दोनों हाथ जोड़े! उन्होंने मेरी इस मुद्रा को देखा! मेरी अलख को देखा! फिर उन्होंने कहा, " नाम क्या है तुम्हारा पुत्र?
उनकी आवाज़ ऐसी की जैसे स्वयं आकाश गर्जन कर रहा हो! मैंने उनको अपना नाम बता दिया!
"शिष्ट का परिचय दो" उन्होंने कहा,
मैंने उनको शिष्ट-परिचय दे दिया!
"निसंदेह! तुम्हारा तंत्र-ज्ञान प्रशंसनीय है पुत्र!"
मै भावाभिभूत हो गया! मेरे नेत्रों से आंसूं छलक पड़े! मैंने मन ही मन अपने दादा श्री को नमस्कार किया!
"मै तुम्हारे विवेक से भी प्रसन्न हूँ! तंत्र संतुलित-मस्तिष्क के लिए ही सृजित हुआ था!" उन्होंने कहा!
मैंने अपने हाथ जोड़ के उनको प्रणाम किया!
"मुझे क्यूँ बुलाया है पुत्र" उन्होंने पूछा,
बड़ा साहस बटोर के मेरे मुंह से शब्द निकले, " बाबा मै आपका परिचय जानने हेतु उत्सुक हूँ"
"पुत्र! मेरा नाम देवश्री है! मेरे पिता श्री सुध्वाज का आश्रम चित्रकूट में हुआ करता था! मेरे पिता श्री ने ये भूमि एक दान में ली थी, और यहाँ महा-मंगला-मंदिर का निर्माण करवाया था, मुझे यहाँ ही रहने का आदेश दिया! मैंने १४८ वर्ष की आयु में यहाँ समाधि ली! इस भूमि के नीचे वही मंदिर विद्यमान है और मेरा समाधि स्थल!" उन्होंने अवगत कराया!
मैंने उनके उत्तर देते ही उनको फिर से दंडवत प्रणाम किया! मैंने फिर उनसे पूछा, "बाबा! आपकी तन्द्रा यहाँ के लोगों ने भंग कर दी, ये मुझे ज्ञात हुआ, परन्तु कैसे?"
"उन पापियों ने यहाँ, मूत्र-त्याग, मल-त्याग, मुख-शोधन किया, एक गड्ढे में अशिस्त पदार्थ गाड़ दिए, उनका दूषित जल मंदिर के गर्भ-स्थान में प्रवेश कर गया, इसी कारण से मेरी तन्द्रा भंग हो गयी!" उन्होंने कहा,
"निसंदेह उन्होंने ऐसा किया बाबा! परन्तु ये भी धर्म-भीरु लोग हैं, इनसे ऐसा अज्ञानतावश हुआ, मै उन सभी की ओर से क्षमाप्रार्थी हूँ" मैंने ऐसा कह के उनको फिर से प्रणाम किया!
"हाँ पाप किया उन्होंने! निसंदेह पाप किया अक्षम्य पाप.......परन्तु, सही कहा तुमने पुत्र अज्ञानतावश!" उन्होंने कहा!
मै उनका उत्तर सुनकर उनके समक्ष लेट गया!
मैंने अश्रुपूरित नेत्रों से उनको देखा! मैंने फिर कहा, "बाबा आप जैसा कहेंगे, यहाँ ऐसा ही होगा"
"उचित है, पुत्र यहाँ एक मंदिर का निर्माण करवाइए, उसमे पूर्व-मुखी महा-मंगला की मूर्ति स्थापित करवाइए, ये कार्य चैत्र मास में पूर्ण करवाइए!" उन्होंने कहा!
"अवश्य बाबा अवश्य!" मैंने कहा और मै फिर से भूमि-स्पर्श मुद्रा में आ गया!
"और बाबा एक अति-विशिष्ट अनुनय है आपसे!" मैंने कहा,
"अवश्य पुत्र! अनुनय कैसा!" वो बोले,
"आप अपना आशीर्वाद सदा बनाए रखिये!" मैंने ऐसा कहा और मेरी रूलाई फूट पड़ी!
उन्होंने अपना हाथ उठा अभय-मुद्रा में और कमंडल से एक फूल की डंडी से जल-छित्रण कर दिया!
मैंने भाव-विभोर होकर उनको प्रणाम किया!
"चैत्र मास की तृतीया से कार्य आरम्भ करना, तब तक यहाँ कोई अनिष्ट नहीं होगा! कल चन्दन और ब्रहम-दंडी से यहाँ हवन करवा दो और इस गड्ढे को पाट दो!" उन्होंने ऐसा कहा और अंतर्ध्यान हो गए! सब शांत हो गया!
मैं धन्य हो गया उनका आशीर्वाद प्राप्त कर!
मैंने संजय से सारी बात बता दी! उसने वहाँ मेरी उपस्थिति में हवन करवा दिया! हवन संपूर्ण होते ही, गड्ढा पाटने का कार्य आरम्भ हो गया! गड्ढा पट गया! मै उन अलौकिक बाबा को मन ही मन नमन करके वहाँ से वापिस आ गया!
आज वहां उस खेत में मंदिर है, चैत्र मास में किया कार्य पूर्ण हो गया! जैसा उन्होंने आदेश दिया वैसा की किया! ढोर-डंगर चरने वहाँ वापिस आ गए!
मै आज भी जब वहाँ से निकलता हूँ तो अपना सर श्रद्धा में झुका के ही निकलता हूँ!
-----------------------------------साधुवाद!--------------------------------
