“कौन हो तुम?” मैंने कहा,
एक छोटी सी फुंकार!
“बताओ मुझे?” मैंने कहा,
फन बंद किया!
“मुझे बताओ कौन?” मैंने पूछा,
फिर से एक छोटी सी फुंकार!
तभी एक विचार आया!
हाँ!
सही सोचा मैंने!
क्यों न कलुष-मंत्र पढ़ा जाए?
हाँ!
हाँ!
इस से पता चल जाएगा!
मैं खड़ा हुआ!
उसने सर उठा कर मुझे देखा!
मैंने नेत्र बंद किये!
और कलुष-मन्त्र पढ़कर मैंने अपने नेत्र पोषित कर लिए!
आँखें खोलीं!
ये क्या?
वो श्याम-नील संपोला चंदीला-सुनहरी कैसे हो गया?
मुझे झटका लगा!
मैं झट से नीचे बैठा!
अपना हाथ आगे बढ़या!
और मेरे हाथ पर चढ़ गया!
अब उसका फन सुनहरी हो गया था,
आधी देह चंदीली!
“कौन हो तुम?” मैंने फिर पूछा,
उनसे जीभ लपलपाई!
जैसे मेरी बात समझ गया हो!
मानव-रूप में होता तो पाँव पड़ जाता उसके मैं!
धन्य हो जाता मैं!
ओह!
कौन है ये?
कौन?
मैंने उसको उठाकर अपने चेहरे के सामने किया!
और पास लाया,
और पास!
इतना पास कि मेरी नाक उससे टकराने लगी!
“कौन हैं आप?” मैंने आप!
मेरा तुम अब आप में बदला!
“मुझे बताइये?” मैंने कहा,
फिर से मेरी नाक पर एक छोटी सी फुंकार!
मैंने आँखें बंद कर लीं!
मेरी लटकती जटाओं में वो चढ़ गया!
आँखें खोलीं, मैंने देखा,
उसकी पूंछ मेरी नाक से टकरायी!
वो मेरे सर पर बैठ गया चढ़ कर!
परछाईं में बैठे बैठे मुझे वो मेरे सर पर दिखायी दिया!
मैंने हाथ से उसको पकड़ा!
और हाथ में लिया!
वो हाथ के मध्य बैठ गया!
“कौन हो आप?” मैंने पूछा,
फिर…………….
“कौन हो आप?” मैंने फिर से पूछा,
फिर से उसने छोटी से फुंकार मारी!
मेरे हाथ पर!
हलकी सी फुंकार!
मैंने महसूस की!
“मुझे न तरसाओ!” मैंने कहा,
उसने फिर से फुंकार भरी!
मैंने फिर से गौर से देखा!
वो शांत था!
अपनी छोटी छोटी आँखों से मुझे देख रहा था!
लेकिन!
उसकी इन छोटी आँखों में स्नेह था!
मित्रता थी!
प्रेम था!
और सबसे विशेष,
विश्वास था!
उसने मुझ पर विश्वास किया था!
ये एक विलक्षण बात थी!
“मुझे बताओ?” मैंने फिर से पूछा,
वो चुप!
फन खोले मुझे देखता रहा!
मैं उसे!
“बताओ?” मैंने पूछा,
फिर से एक छोटी सी फुंकार!
काश!
वो बोल पाता!
मैं जान पाता!
उफ़!
क्या स्थिति है!
ये संपोला और मैं!
किस जंजाल में फंसे थे!
उसे मुझ पर विश्वास!
और मुझे उस पर!
कैसा प्रेम!
कैसा स्नेह!
कैसा विश्वास!
बिना शब्द का विश्वास!
मेरी आँखों में फिर से जल छलका!
“बताओ मुझे?” मैंने फिर से पूछा,
फिर से फुंकार!
वो जवाब तो दे रहा था,
बस,
मैं नहीं समझ पा रहा था!
ये तो एक अजीब सी भाषा थी!
प्रेम की भाषा!
एक अलग ही भाषा!
“मुझे न तड़पाओ!” मैंने फिर से कहा,
उसने फन बंद किया!
मेरे हाथ में आगे बढ़ा!
मेरे मणिबंध पर आया,
उसे जकड़ा,
एक गांठ सी लगायी,
फिर मुझे देखा!
और तभी अचानक!
उसने सर घुमाया!
गड्ढे की तरफ देखा!
मैंने भी देखा,
और तभी शोर सा हुआ!
अजीब सा शोर!
और तभी!
तभी हज़ारों काले, पीले, सुनहरी, मटमैले और श्याम-नील सर्प, जैसे कोई सर्प-सेना निकली उस गड्ढे से, भयानक विषैले!
लेकिन हैरत!
मुझे भय नहीं लगा!
ना!
कोई भय नहीं!
मैं जैसे आश्वस्त था!
कोई भय नहीं!
वो सर्प मुझे अपने जैसे ही लगे!
फिर कैसा भय?
ना!
कोई भय नहीं!
भय तो छूट गया!
छूट गया कहीं पीछे!
कैसा भय?
कौन सा भय?
ये दैविक संपोला है ना?
फिर?
कैसा भय?
तभी उसने मेरा मणिबंध छोड़ा!
हाथ के मध्य आया!
नीचे देखा,
फुंकार भरी!
मुझे देखा!
मैं समझ गया!
उसको नीचे जाना है!
वे सांप सभी मुझे देख रहे थे!
एकटक!
घूरते हुए!
मैं नीचे बैठा,
मैं साँपों से घिरा था!
चारों और सांप!
सांप ही सांप!
मैंने हाथ नीचे रखा,
वो उतरा!
सामने गया!
सांप हटे सभी के सभी पीछे!
सभी!
जैसे कोई राजा आया हो!
जैसे कोई मुखिया!
सभी हटे!
वो एक मिटटी के ढेले पर चढ़ा,
मुझे देखा,
फिर सर घुमाकर सभी साँपों को देखा,
फिर एक ज़ोरदार फुंकार!
पहली बार सुनी मैंने उसके गले से ऐसी फुंकार!
सभी सांप जैसे सहमे!
डरे!
भयभीत हुए!
भीरु!
भीरु समान!
उन्होंने अपने सर नीचे किये,
भूमि को स्पर्श करते हुए,
और फिर सभी के सभी,
घुसने लगे,
वापिस गड्ढे में!
एक और चमत्कार!
मैं हैरान!
अवाक!
फिर से वही सवाल!
कौन है ये?
कौन?
कौन बतायेगा?
है कोई?
मैंने चारों और देखा,
सभी सांप जैसे धकेले गए!
सारे,
उस गड्ढे के अंदर!
जैसे हड़का दिया गया हो!
जैसे उनको आदेश दिया गया हो!
वे सभी घुस गए!
रह गया वो,
अकेला!
ढेले से उतरा!
मेरे पास आया,
मैं बैठा,
उसने मुझे देखा,
मैंने हाथ बढ़ाया आगे,
वो मेरे हाथ पर चढ़ा,
कुंडली जमाई!
और फन चौड़ा किया!
फिर एक फुंकार!
लरजती हुई,
छोटी सी,
अपने मनुष्य मित्र के लिए स्नेह की फुंकार!
प्रेम की फुंकार!
मैंने फिर अपनी तर्जिनी ऊँगली से उसके सर को छुआ!
उसने फन झुकाया!
प्रेम से!
मेरा मन किया कि,
हृदय से लगा लूँ उसको!
उस छोटे से संपोले को!
मैंने हाथ ऊपर किया,
अपने सामने लाया,
और करीब,
और करीब!
अपने मुख के पास!
और,
मैंने उसको चूम लिया,
एक मानव-अभिव्यक्ति!
प्रेम-अभिव्यक्ति!
मेरे होंठ उसकी शीतलता से छुए!
उसने मुझे देखा,
अपनी छोटी छोटी आँखों से!
जैसे मुस्कुराया!
मैंने फिर से उसका फन चूमा!
उसने फन खोलकर रखा!
इतना विश्वास!
मैं धन्य हो गया!
ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ!
मेरा मित्र!
वो,
छोटा सा संपोला!
एक औघड़ पर विश्वास किया उसने!
हैरत!
मैं सन्न!
सन्न!
कैसे?
छोटा सा दिमाग और इतनी समझ?
मेरी स्थिति की समझ?
बाबा कैवट!
आप गलत थे!
बहुत गलत!
आपने अनुचित किया!
छल?
इनके साथ छल?
ऐसे प्रेम के साथ छल?
ऐसे विश्वास के साथ छल?
आप गलत थे!
गलत!
गलत!
बहुत गलत!
उचित सजा मिली आपको!
आपने विश्वास का क़त्ल किया!
आप गलत थे!
मैं विचारों में खोया था!
फिर एक फुंकार!
जैसे मुझे जगाया उसने!
मैंने उसको देखा,
उसकी छोटी छोटी आँखों में देखा,
प्रेम!
विश्वास!
अथाह विश्वास!
अब उसने कुंडली खोली,
नीचे देखा,
मैं समझ गया,
वो नीचे जाएगा अब!
मैंने हाथ नीचे रख दिया,
वो उतरा,
सामने चला,
फिर मुझे देखा,
एक फुंकार,
छोटी सी,
मेरी आँखें फिर से नम हुईं!
उसने फिर से फुंकार मारी!
मैंने अपनी ऊँगली से अपने छलकते हुए आन्सू पोंछे,
फिर से फुंकार!
फिर,
वो घूमा,
और गड्ढे में उतर गया!
मैं देखता रह गया!
धक्!
दिल धक्!
धक्!
मैं बरबस खड़ा देखता रहा!
उसी गड्ढे को!
समय बीतता रहा!
मैं व्याकुल!
अत्यंत व्याकुल!
क्या करूँ?
कहाँ है वो संपोला?
कहाँ गया?
क्या हुआ?
बेचैन!
बेसब्र!
बेचैनी ऐसी कि पागल बना दे!
पागलपन की कगार पर ला पटके!
ऐसी बेचैनी!
आधा घंटा बीत गया!
कुछ नहीं हुआ!
कुछ भी!
मैं वहीँ खड़ा रहा!
अब पीछे हटा!
मैंने अब शर्मा जी को देखा, उनको अपने पास आने का इशारा किया, वे चले वहाँ से, मेरे पास आये!
उन्होंने गड्ढे को देखा,
वहाँ कुछ नहीं था!
अब मैंने कलुष-मंत्र से उनके नेत्र भी पोषित कर दिए! फिर उन्होंने अपने नेत्र खोले! दृश्य स्पष्ट हो गया!
एक घंटा बीत गया!
कुछ भी नही हुआ!
सर पर चढ़ा सूरज हमे ही देख रहा था!
और तभी!
तभी!
वहाँ हलचल हुई!
भूमि में स्पंदन हुआ!
हमने अपना संतुलन बनाया!
फिर शान्ति हो गयी!
कुछ क्षण बीते!
कुछ क्षण और!
नज़रें गड़ी रहीं उस गड्ढे पर!
सहसा!
वहाँ सुगंध फैलने लगी!
मदमाती सुगंध!
दैविक सुगंध!
मैं ऐसी सुगंध कभी नहीं सूंघी थी!
आँखें मदहोशी में डूबने लगीं!
शर्मा जी का भी यही हाल था!
वे भी मदहोश हुए जा रहे थे!
और फिर!
फिर!
उस गड्ढे के ऊपर एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ!
ओह!
वही!
वही नाग कुमार!
जैसा बताया था बाबा चंद्रन ने!
