मैं तैयार था!
वो सांप फिर से आगे आया!
फिर से फुंकार मारी उसने!
मैं इरादे भांप गया उसके!
मैंने अब महाताम-विद्या का संधान किया, ज़ोर ज़ोर से बोलते हुए में आगे बढ़ा!
वो सांप भी आगे बढ़ा!
हम दोनों एक दूसरे की तरफ बढ़ रहे थे!
उसने मुंह खोला!
उसके दांत मुझे दिखायी दिए!
मैं आगे बढ़ चला!
और फिर जैसे ही संपर्क हुआ,
मैंने त्रिशूल का वार किया, दायी से बायीं तरफ!
वो सांप सीधे बायीं तरफ उड़कर जा गिरा!
धम्म की आवाज़ हुई!
जैसे कोई भैंसा पछाड़ खा के गिरा हो!
उस फन बंद हो चुका था!
अब शायद वो मूर्छित था!
ये महाताम-विद्या का आघात था!
मैं दौड़ा गया उसके पास गया!
शर्मा जी ने मुझे आगाह किया चिल्ला कर!
मैं उस सर्प के पास गया!
वो फन को नीचे रखे मूर्छित पड़ा था!
मेरा उद्देश्य किसी को क्षति पहुंचाना कदापि नहीं था! इसीलिए मैंने त्वष्टार-विद्या का संधान किया, इस से महाताम विद्या की काट हो जाती है! मैंने मिट्टी उठायी, ग्यारह बार उसको फूंका और फिर उस मूर्छित सर्प पर फेंक मारी!
मिट्टी पड़ते ही सर्प जागा!
महाताम विद्या का नाश हुआ!
मैं भागा पीछे!
लेकिन वो मेरे पीछे नहीं आया!
उसने मुझे घूर के देखा!
मैं रुका,
पीछे देखा,
वो मुझे देख रहा था!
फिर तेजी से उठा,
और भाग चला गड्ढे में!
गड्ढे में घुसा!
मुझे देखा और फिर झम्म से अंदर सरक गया!
मेरी जान में जान आयी!
बहुत प्रबल सर्प था ये!
बहुत प्रबल!
कुछ पल शान्ति!
असीम सी शान्ति!
मैं वहीँ खड़ा रहा!
और तब!
तब वहाँ उस गड्ढे से, कुछ घड़े निकलने लगे!
बड़े बड़े घड़े!
वे कुल पांच थे!
मैं आगे गया!
घड़े देखे!
वे घड़े सुनहरे चर्म से बंद थे, मुझे नहीं पता वो सुनहरा चर्म किसका का था, किसी पशु का तो कदापि नहीं था!
मैंने एक घड़े का चर्म हटाया,
अंदर देखा,
अंदर लाल मिट्टी थी!
फिर दूसरा खोला!
उसमे भी लाल मिट्टी!
फिर तीसरा,
फिर चौथा,
फिर पांचवा और आखिरी,
इसमें भी लाल मिट्टी थी!
मुझे कुछ समझ नहीं आया!
कुछ भी!
और फिर तभी, तभी वो ही संपोला बाहर आया,
मैंने उसको देखा,
वो आगे आया,
मेरे जूते के पास!
मैं नीचे बैठा!
और फिर………………
उस संपोले ने मुझे ऊपर की तरफ देखा, गर्दन पीछे करके! जैसे मुझे इशारा किया हो ऊपर उठाने का! मैं नीचे बैठा, और हाथ आगे किया, उसने अपना फन फैलाया, जीभ लपलपाई! और वो मेरे हाथ पर चढ़ गया, मैंने उसको उठाया, उसने मुझे देखा, अपनी छोटी छोटी नीली सी आँखों से! मैंने उसके फन पर अपना अंगूठा लगाया, उसने लगाने दिया, वो मेरी ऊँगली से भी पतला था, वी फिर मेरी कलाई की ओर बढ़ा, मैंने अपनी कमीज़ ऊपर की, वो मेरे हाथ के मणिबंध में लिपट गया, फन फैलाया, उसका वो मित्रवत व्यवहार देखा कर मेरे दिल में उसके लिए, उस संपोले के लिए भी स्नेह उमड़ आया! मैं नहीं जानता था कि ये किसकी चाल है, क्या चाहता है वो? कौन है वो? मैंने हाथ ऊपर उठाया, और मैं उसको अपने चेहरे तक लाया, उसे फिर से फन खोला, अब मैंने उसके फन पर बना वो छल्ला सा देखा! बड़ा होगा तो स्पष्ट हो जाएगा वो छल्ला! मेरी आँखें उस छोटे से संपोले की आँखों से मिलीं! उसने जीभ बाहर निकाली, मेरे हाथ और आगे किये, अपने माथे तक, यदि उसने काटना होगा तो काट लेगा, इतना समय मिलेगा कि मैं उसकी काट कर सकूँ! यदि समय मिला तो!
मैंने हाथ आगे किया, माथे की तरफ! उसने अपने सर से मेरे माथे को छुआ! वो नन्हा सा सर्प मुझे बहुत अच्छा लगा! उसन इन्ही काटा मुझे! मैंने हाथ दूर किया! उसने मेरा मणिबंध छोड़ा और हाथ के मध्य आ गया, उसका ठंडा शरीर बर्फ के टुकड़े जैसा ठंडा था! उसने नीचे जाने के लिए अपना फन बंद किया और नीचे देखने लगा, जीभ लपलपाते हुए! मैं नीचे बैठा, और फिर उसको नीचे छोड़ दिया, वो आगे बढ़ा रेंगता हुआ और उस एक घड़े पर अपना फन मारा!
अद्भुत!
अद्भुत दृश्य!
मेरी आँखों के सामने एक अद्भुत दृश्य!
शर्मा जी की आँखों के सामने एक अद्भुत दृश्य!
उसके फन छुआते ही वो घड़ा फूट पड़ा!
कड़ाक की आवाज़ हुई!
और उसके अंदर से सोने के खनखनाते सिक्के और आभूषण आ गिरे!
मैंने तो मिट्टी देखि थी उनमे?
लाल मिट्टी?
ये क्या हुआ?
ये कैसी माया?
उस संपोले ने उन सभी घड़ों पर अपना फन मारा और वहाँ अकूत दौलत का अम्बार लग गया! चमचमाता हुआ सोना!
इतना सोना कि मेरी चौदह पुश्तें आराम से बैठे खाएं और तब भी बच जाए!
अथाह दौलत!
मैंने इतनी दौलत नहीं देखी थी,
इस रूप में!
उसी अम्बार पर वो सपोला चढ़ कर बैठ गया!
फन खोला,
मुझे देखा!
फिर छोटी सी फुंकार!
मैंने हाथ आगे बढ़ाया!
मैं मन्त्र-मुग्ध सा हुआ!
उस पल!
मैंने हाथ बढ़ाकर उसके सामने रखा,
वो मेरे हाथ पर चढ़ा!
हाथ के मध्य बैठा!
मैंने उठाया!
उसको देखा!
उसके फन पर ऊँगली फिराई!
कौन हो तुम?” मैंने पूछा,
मैं जानता था, वो नहीं बोलेगा!
लेकिन,
फिर भी मैंने पूछा,
नहीं रोक सका अपने आपको!
“कौन हो तुम?” मैंने फिर से कहा,
उसने छोटी से फुफकार भरी!
जैसे उत्तर दिया हो!
“इतनी दया किसलिए?” मैंने पूछा,
वो मुझे देखता रहा!
गौर से!
“किसलिए?” मैंने पूछा!
वो मुझे देखता रहा!
मैंने फिर से फन सहलाया उसका!
अठन्नी भर का छोटा सा फन!
एक झिल्ली जैसा!
“कौन हो तुम?” मैंने फिर से पूछा,
फिर से एक छोटी सी फुंकार!
मैंने उस बिखरी हुई दौलत को देखा!
फिर उसको!
“तुम चाहते हो मैं ले जाऊं इसको?” मैंने पूछा,
फिर से एक फुंकार!
बड़ों जैसी!
“नहीं!” मैंने कहा,
उसने फिर से फन बड़ा किया अपना!
“नहीं! इस स्नेह से बड़ी कोई दौलत नहीं! मैं नहीं लूँगा इसको! ये मेरी नहीं! ये आपकी है! आप सब हैं इस संपत्ति के अधिकारी! मेरा कोई अधिकार नहीं है इस पर! नहीं! मुझे नहीं चाहिए!” मैंने कहा,
मैंने इतना कहा और वो सारा धन उस गड्ढे में समाता चला गया!
मेरी आँखों के सामने!
सब साफ़ हो गया!
कुछ भी नहीं बचा!
मैंने उस संपोले को देखा,
वो मेरी और अपनी पीठ करके उस धन को जाते हुए देख रहा था! जब धन चला गया तो उसने सर घुमाया और मुझे देखा!
एक छोटी सी फुंकार!
मैं मुस्कुरा गया!
और तभी!
तभी गड्ढे से एक बड़ा सा सांप निकला, इस से पहले कि मैं कुछ समझ पाता उसने मेरे शरीर को अपने लपेटे में ले लिया!
मेरे हाथ में वो संपोला था,
मुझे उसकी चिंता हुई!
मैं चाहता तो विद्या चला सकता था!
लेकिन उस से इस संपोले को भी क्षति पहुँचती! उस बड़े सांप ने अपना फन मेरे सामने खोला, ओह! ये तो एक दीर्घ पद्म-नाग था!
उसकी निगाह मुझसे मिली!
मेरी उस से!
उसकी पीली डरावनी आँखें ऐसी कि जैसे तलवार की धार की चमक!
फिर उस सांप में फन बंद किया!
मुझे अपने लपेटे से ढीला किया,
और अपना फन मेरी गर्दन तक ले आया,
मैं नहीं घबराया!
पता नहीं क्यों!
सच में नहीं पता!
वो छोटा संपोला घूमा और उस बड़े सांप को देखा! बड़ा सांप पीछे खिसका! और पीछे, और पीछे!
फिर संपोले ने मुझे देखा!
कुंडली खोली,
मैं समझ गया,
वो नीचे जाना चाहता है!
मैं नीचे बैठा,
हाथ नीचे रखा,
वो संपोला मेरे हाथ से उतरा!
और सीधा उस बड़े सांप की ओर चला!
फिर वहाँ बैठ कर मुझे देखा!
मैं वहीँ बैठा रहा!
वो बड़ा सांप गड्ढे में घुस गया वापिस!
रह गया वो संपोला!
मैं आगे बढ़ा!
और आगे!
गड्ढे तक पहुंचा!
गड्ढे की मिट्टी काली हो चुकी थी!
मैं नीचे बैठा!
मित्रगण!
क्या हो रहा था और क्या नहीं?
कुछ नहीं पता!
मैं शत्रु हूँ या मित्र?
पता नहीं!
उस सांप का मुझे छोड़ना?
क्या था?
चाहता तो मेरी इह-लीला कभी की समाप्त कर देता!
लेकिन नहीं!
ऐसा नहीं किया!
और फिर?
ये कौन है?
कौन है ये संपोला?
ये इतना दैविक कैसे?
क्या है ये?
कुछ समझ नहीं आया!
“कौन हो तुम?” मैंने फिर से पूछा,
उसने मुझे देखा,
फन फैलाया!
“बताओ?” मैंने कहा,
एक फुंकार!
छोटी सी फुंकार!
“अपने दर्शन तो दो?” मैंने हाथ जोड़कर कहा!
फिर से फुंकार!
वो साधारण सांप नहीं था!
दैविक था!
निःसंदेह दैविक!
सबसे अलग!
शांत!
जबकि संपोले तो बहुत तेज-तर्रार और गुस्सैल हुआ करते हैं!
लेकिन ये नहीं!
कौन है ये?
“दर्शन दीजिये!” मैंने हाथ जोड़े तब!
फिर से एक फुंकार!
सुनायी भी नहीं दी!
छोटा सा फन!
कभी खुलता,
कभी बंद होता!
मैं जान तो गया था, कि ये संपोला कोई विशेष है! लेकिन है कौन? एक और जिज्ञासा बढ़ गयी! अभी मैं सोच ही रहा था कि………………..
अभी मैं सोच ही रहा था कि एकदम से वहाँ भूमि हिली! मैंने किसी प्रकार से संतुलन बनाया अपना! मेरा त्रिशूल मेरे हाथ से गिरने ही वाला था कि मैंने कस कर पकड़ लिया! वो संपोला वहीँ बैठा था, ज्यों का त्यों! वो न हिला और ना ही उस पर कोई प्रभाव ही पड़ा! मुझे हैरत हुई! वो ज़मीनी हलचल मुझे तो क्या दूर खड़े शर्मा जी को भी हिला गयी थी! वहाँ कुछ होने वाला था, अवश्य ही! यही लगा! मैं मुस्तैद हुआ, लेकिन वो संपोला बार बार मेरा ध्यान खींच लेता था अपनी ओर! मैं हर जगह देखता लेकिन फिर से निगाह वहीँ, उसी पर टिक जाती!
कोई आया तो क्या करूँगा?
कैसे विद्या का संधान करूँगा?
कैसा होगा?
कहीं इसको चोट न लग जाए!
क्या अर्थ हुआ इसका?
मैं घबरा गया!
पीछे देखा,
शर्मा जी मुझे ही देख रहे थे!
मैं हड़बड़ा गया!
ज़मीन फिर से हिली!
जैसे चाकी चली हो,
रुकी हुई!
मेरी साँसें तेज हुईं!
लेकिन वो संपोला नहीं डिगा!
वो वहीँ रहा!
जस का तस!
मैं आगे बढ़ा!
और आगे!
भय समाप्त हुआ!
लगा वो संपोला मुझे कुछ नही होने देगा!
कुछ भी नहीं!
मैं आगे बढ़ गया!
अब मेरे और उस संपोले की बीच कोई अंतर नहीं रहा!
मैं नीचे बैठा,
हाथ आगे बढ़ाया,
उसने कुंडली खोली,
फन बंद किया,
और मेरे हाथ पर चढ़ गया!
मेरे हाथ के मध्य बैठ गया,
सर घुमाया, और गड्ढे को देखने लगा,
मैं उसका छोटा सा सर देख सकता था!
वो गड्ढे को देख रहा था,
मैंने भी देखा और!
और वहाँ एक महा-दीर्घ सांप निकला उस गड्ढे से!
बहुत बड़ा!
बहुत विशाल!
उसका फन मुझे पूरा का पूरा ढक ले ऐसा!
मैं विस्मित हो गया!
वो तन के खड़ा हो गया,
करीब आठ फीट,
उसने नीचे देखा,
मुझे,
फुंकार मारी,
हलकी सी!
वो संपोला!
मेरे हाथ में बैठा!
देखता रहा अपना छोटा सा सर उठाकर उस दीर्घ सांप को!
उस बड़े सांप ने फन नीचे किया,
मेरे सर की ऊपर लाया, मैं नहीं घबराया! नहीं लगा डर! कोई डर नहीं!
नहीं!
कोई डर नहीं!
अब उसने अपना फन बंद किया!
और मुझे देखा,
फिर उस छोटे संपोले को!
वो मेरे हाथ में बैठा था!
वो अपना सर उठाये उसको ही देख रहा था!
अब संपोले ने घूम कर मुझे देखा!
अपना फन बंद किया!
और नीचे जाने के लिए सर नीचे किया!
मैं नीचे बैठा!
हाथ नीचे रखा!
वो नीचे उतर गया मेरे हाथ से!
सीधा गड्ढे तक गया!
और जैसे उस बड़े सांप से कुछ कहा उसने!
बड़ा सांप नीचे हुआ,
एकदम नीचे,
ज़मीन पर लेट गया!
अद्भुत दृश्य!
ये क्या?
कैसे हुआ?
फिर वही सवाल!
कौन है ये?
क्यों मेरी मदद की है इसने?
कौन है ये?
कौन बतायेगा?
कौन?
वो बड़ा सांप जैसे आया था वैसे ही अंदर चला गया!
मुझे हैरत हुई!
वो संपोला!
मेरी तरफ घूमा!
मुझे देखा!
और फन खोला!
मैं नीचे बैठा ही था,
अब लेट गया!
आँखों में आंसू आ गए!
पता नहीं किस वजह से!
शायद उसके स्नेह से!
शायद उसके विश्वास से!
एक सांप कहाँ मित्रता करता है!
वो भी मनुष्य से?
नहीं!
कभी नहीं करता!
तो ये?
कौन है ये?
मेरा दिमाग फटने को हुआ!
उफ्फ्फ!
क्या है ये सब?
कौन है ये?
कौन?
बस कौन?
“कौन हो तुम?” मैंने फिर से पूछा,
वो सरक कर मेरे सामने आया,
मेरी आँखों के सामने!