डटे थे अपने नाग कुमार की सुरक्षा हेतु!
ये उनका कर्त्तव्य था!
मैं हतप्रभ था!
सेवा-पराकाष्ठा देख कर!
फिर कुछ और पल बीते!
कुछ न हुआ,
कोई हरक़त नहीं!
कुछ नहीं!
सब शांत!
सब शांत!
हवा मेरे गले पर लगी, पसीने से बहती वो गर्म हवा मुझे एक सर्द एहसास करा गयी! मैं मुस्तैद हो गया!
तैयार!
अपने तंत्राभूषण के सहारे मैं डटा हुआ था!
अपने गुरु के आशीर्वाद के सहारे!
उनकी शिक्षा के सहारे!
उनके मार्गदर्शन के सहारे!
मैंने गड्ढे को देखता रहा!
छन छन आवाज़ आयी!
जैसे किसी ने लोहे के घुँघरू बजाये हों!
जैसे कोई लोहे की ज़ंजीरें टकरा रही हों वहाँ!
और फिर!
फिर!
गड्ढे से बाहर निकल कर मेरे सामने कुछ गिरा!
ये एक घड़ा था!
कांसे से बना एक घड़ा!
मैं आगे गया,
और आगे!
मैंने घड़ा देखा,
घड़े का मुंह खुला!
मैंने नीचे बैठा!
घड़े में झाँका!
बहुमूल्य रत्न!
हीरे!
पन्ने!
माणिक!
और भी न जाने क्या क्या बहुमूल्य रत्न!
मुझे हंसी आ गयी!
ये क्या!
लोभ!
किसलिए?
मेरे प्रयोजन जाने बिना?
किसने दिया ये लोभ?
नाग कुमार ने?
नहीं!
नहीं! उसके रक्षकों ने!
मैंने शर्मा जी को आवाज़ दी!
वे आये वहाँ!
मैंने नीचे बिठाया!
“ये देखो!” मैंने कहा,
“ओह! रत्न! हीरे!” वे बोले,
“अकूत दौलत!” मैंने कहा,
“लोभ!” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
“किसलिए?” उन्होंने पूछा,
“यहाँ से जाने के लिए!” मैंने कहा,
फिर हम खड़े हुए!
मैंने शर्मा जी को वापिस भेजा!
घड़ा उठाया,
और चला गड्ढे की तरफ!
गड्ढे को देखा,
वहाँ बड़ी बड़ी नीचे की तरफ दायी बायीं ओर नालियां बनी थीं! यहीं से आते थे वे सांप! मैंने तभी वो घड़ा उस गड्ढे में डाल दिया वापिस!
और पीछे हट गया!
कुछ पल ऐसे ही बीते!
मैं और पीछे हुआ!
और तब!
तब एक छोटा सा सर्प निकला उसमे से!
ये तो कोई संपोला लगता था! छोटा सा, कोई बारह इंच का! उसका छोटा सा फन था! बिलकुल छोटा सा! मैं उसको देखता रहा, वो मुझे, मैं उसकी आँखे नहीं देख पा रहा था! वो आगे बढ़ा, मेरी तरफ! और फिर मेरे पास आकर रुक गया!
मैं नीचे बैठा!
वो थोडा और आगे हुआ!
मैंने त्रिशूल थाम लिया!
न जाने क्या हो?
कोई माया?
कोई चाल?
उसने अपना फन ज़मीन में मारा दबा कर!
ज़मीन हिल गयी, मैं संतुलन नहीं बना सका, पीछे गिर गया, वो सांप वहीँ बैठा रहा, भूमि में दरार पड़ने लगी, मैं पीछे भागा, और पीछे! और पीछे!
“शर्मा जी! भागो पीछे!” मैं चिल्ला के बोला,
वे भी भागे,
हम एक पत्थर पर चढ़ गए!
दरार चौड़ी हुई!
उसमे से काला धुंआ निकला!
भयानक काला!
मैंने नज़रें गड़ा दी उस जगह!
न जाने क्या था वहाँ!
और तब!
तब एक छोटा सा सर्प निकला उसमे से!
ये तो कोई संपोला लगता था! छोटा सा, कोई बारह इंच का! उसका छोटा सा फन था! बिलकुल छोटा सा! मैं उसको देखता रहा, वो मुझे, मैं उसकी आँखे नहीं देख पा रहा था! वो आगे बढ़ा, मेरी तरफ! और फिर मेरे पास आकर रुक गया!
मैं नीचे बैठा!
वो थोडा और आगे हुआ!
मैंने त्रिशूल थाम लिया!
न जाने क्या हो?
कोई माया?
कोई चाल?
उसने अपना फन ज़मीन में मारा दबा कर!
ज़मीन हिल गयी, मैं संतुलन नहीं बना सका, पीछे गिर गया, वो सांप वहीँ बैठा रहा, भूमि में दरार पड़ने लगी, मैं पीछे भागा, और पीछे! और पीछे!
“शर्मा जी! भागो पीछे!” मैं चिल्ला के बोला,
वे भी भागे,
हम एक पत्थर पर चढ़ गए!
दरार चौड़ी हुई!
उसमे से काला धुंआ निकला!
भयानक काला!
मैंने नज़रें गड़ा दी उस जगह!
न जाने क्या था वहाँ!
दरार चौड़ी हुई! भयानक मंजर था वहाँ! कोई और होता तो या तो भाग जाता या पछाड़ खा कर गिर पड़ता! भूमि फटी! मैंने गौर से देखा! धुआं बंद हुआ! मिट्टी बाहर आने लगी! मैं और शर्मा जी आँखें फाड़े वहीँ देखते रहे! और तब उस गड्ढे से दो भयानक धारीदार सर्प निकले! एकदम सफ़ेद दाढ़ी उनकी! भौंहे उनकी एकदम सफ़ेद! वे दोनों तो मुझे इन सर्पों के गुरु जैसे, कोई मनीषी आदि से लगे! भयानक रूप था उनका! उन दोनों ने हमे देखा और फिर एक ने फुफकार मारी! गरम हवा हमारे शरीर से होती हुई चली गयी! तंत्राभूषण न होते तो सम्भवतः हम भी अस्थियों तक फुक जाते! और अस्थियां काली राख बनकर बिखर जातीं!
समय स्थिर हो गया!
पक्षी भाग छूटे!
वायु शांत हो गयी!
हम अटक गए!
तभी दूसरे सांप ने ज़ोर से फुफकार मारी!
फिर से गरम हवा टकरायी!
पलकों के बाल गरम हो गए!
हम वहीँ चढ़े खड़े रहे!
फिर मैं नीचे कूदा!
शर्मा जी से थाली ली,
थाली ले कर मैं आगे बढ़ा!
एक ने फिर से फुंकार मारी!
मिट्टी उड़ चली!
मैं आगे बढ़ता रहा!
और आगे!
वे क्रुद्ध हुए!
उठ खड़े हुए, करीब सात फीट!
मैं आगे बढ़ा!
वे शांत हुए!
मैंने थाली रखी नीचे!
नीचे बैठा,
और थाली को आगे खिसकाया!
एक ने देखा,
और अगले ही पल अपने सर से थाली को फेंक मारा!
मैं खड़ा हो गया!
त्रिशूल सम्भाल लिया!
मामला बिगड़ गया था!
मैं उनकी जद में था!
और!
फिर एक ने मुझे अपने फन के नीचे ढक लिया, मेरे सर पर छतरी सी तन गयी! मैंने त्रिशूल उठाया ऊपर और फन से टकरा दिया! खनाक! खनाक की आवाज़ हुई और वो सांप दूर पीछे उड़ कर गिर पड़ा! दूर गड्ढे के पार!
एक वहीँ रह गया!
गुस्से में!
उसने मुझे अपना सर नीचे करके देखा!
आँखें मिलीं,
मैंने त्रिशूल आगे किया!
उसको दिखाया!
उसने फुंकार मारी और सीधा उस दरार में घुस गया!
वो दूसरा वाला जो गड्ढे के पास था, फ़ौरन ही गड्ढे में घुस गया!
रह गया वो संपोला!
वो वहीँ बैठा था!
छोटी सी कुंडली मारे!
वो आगे बढ़ा,
मैं वही रुका रहा!
वो मेरे जूते के पास तक आ गया!
शांत!
एकदम शांत!
लेकिन ये था क्या?
कैसा सर्प था?
इतना छोटा?
मुझे टकराने चला था?
मैं नीचे बैठा!
न जाने मुझे क्यों उस पर विश्वास हो गया!
न जाने क्यों!
नहीं कह सकता!
मैं नीचे बैठा!
अपना हाथ आगे किया, फैलाया,
वो मेरे हाथ पर चढ़ गया!
मैं खड़ा हुआ,
वो बेहद प्यारा सा, छोटा सा सर्प था, अठन्नी भर का फन था उसका! आँखें एकदम छोटी छोटी! उसने फन बंद किया और मेरी हथेली पर सर टिकाया! मैंने उसके सर के पीछे देखा! मैं सिहर गया! ये तो पद्म-नाग था! शिशु-नाग!
लेकिन उसने भी मुझ पर विश्वास किया था! मैंने हथेली खुली रखी थी, उसने मेरे हाथ के अंगूठे को लपेटा और उस से लिपट गया! फिर उसने अपना छोटा सा फन खोला! मुझे सर उठाकर देखा, मैंने भी देखा!
सच कहता हूँ!
न जाने कैसा बंधन था उस समय!
मैंने उस पर विश्वास किया था और उसने मुझ पर!
मैंने उसके फन को हाथ लगाया!
उसने अपना सर नीचे किया!
वो मेरी मित्रता जान गया था!
उसने अपनी छोटी सी जीभ लपलपाई!
अब उसने मेरा अंगूठा छोड़ा और हाथ के मध्य आ गया!
फिर नीचे देखा!
मैं जान गया कि उसको जाना है अब!
मैं नीचे बैठा,
हाथ ज़मीन पर रखा,
वो हाथ से उतरा,
और ज़मीन पर बैठ गया!
फिर वो पलटा!
और चल पड़ा पीछे, गड्ढे की ओर!
मैं देखता रहा उसको!
वो गड्ढे में जाने से पहले मुझे देखता रहा और फिर गड्ढे में घुस गया! और तभी ज़मीन फिर से हिली, वो दरारें फिर से बराबर होने लगीं, मैं हट गया वहाँ से!
सामने वो गड्ढा फिर से भरने लगा!
मैं भागा वहाँ!
गड्ढा फिर से भर गया!
अपने आप!
आसपास की मिट्टी सब घुस गयी उसमे, अब वो फिर से पठार सा बन गया! कुछ ऐसा ही हुआ था पहले भी, जब सबकुछ शांत हो गया था! इसका अर्थ ये था कि आज का खेल ख़तम हो गया है!
शर्मा जी उस पत्थर से नीचे उतर चुके थे!
वो मेरे पास तक आये!
“गड्ढा बंद?” उन्होंने पूछा,
“हाँ!” मैंने कहा,
हम कुछ देर ठहरे वहाँ!
“चलो” मैंने कहा,
“जी” वे बोले,
अब हम ऊपर चले!
चढ़े,
फिर उतरे!
आ गए अपने सामान के पास!
चादर निकाली, और बिछायी!
बहुत थक गए थे!
पानी पिया!
बहुत प्यास लगी थी!
हलक सूख चला था बिलकुल!
मैं लेट गया!
शर्मा जी बैठे रहे!
“बड़ा भयानक है ये मामला!” वे बोले,
“हाँ, है तो!” मैंने कहा,
“बाबा कैवट ने कैसे सम्भाला होगा!” वे बोले,
“सही बात है” मैंने कहा,
अब शर्मा जी ने बिस्कुट निकाल लिए, मुझे भी दिए, मैंने भी खाये! और फिर पानी पिया! तक कर चूर हो चुका था मैं! बस फिर क्या था, आँख लग गयी मेरी! मैं सो गया!
संध्या-समय मुझे शर्मा जी ने जगाया,
मैं जागा,
देखा तो अँधेरा गहरी चुका था!
अब लकड़ियां इकट्ठी कीं और आंच जला ली!
फिर मैं एक सुरक्षा घेरा खींच दिया!
और हम बीच में बैठ गए!
“गुरु जी?” उन्होंने पूछा,
“हाँ?” मैंने कहा,
“वो छोटा सा जो संपोला था? वो क्या था?” उन्होंने पूछा,
सहसा मुझे ध्यान आया उसका!
“अरे हाँ!” मैंने कहा,
“क्या था वो?” उन्होंने पूछा,
“वो था तो एक पद्म-नाग!” मैंने बताया,
“पद्म-नाग!” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
“बहुत मित्रवत था वो!” वे बोले,
“पता नहीं क्यों?” मैंने कहा,
“कारण नहीं समझ आया!” वे बोले,
“मुझे भी नहीं!” मैंने कहा,
“किसलिए आया था वो?” उन्होंने पूछा,
“शायद जायज़ा ले रहा हो?” मैंने कहा,
“जायज़ा? कैसा जायज़ा?” उन्होंने पूछा,
“कि हम शत्रु हैं या मित्र?” मैंने कहा,
“लेकिन बाबा ने तो ऐसा नहीं बताया था?” वे बोले,
“हाँ, नहीं बताया” मैंने कहा,
“समझ से बाहर है!” वे बोले,
“अब लेट जाओ, कल देखते हैं!” मैंने कहा,
हम लेट गए!
लेकिन सच में मुझे भी समझ नहीं आया कि वो क्यों आया था?
किसलिए?
कोई क्षति भी नहीं पहुंचायी उसने?
ऐसा क्यों?
समझ नहीं आया!
अब कल ही देखना था!
कल ही पता चलता!
सुबह हुई!
हम जागे,
हाथ-मुंह धोये!
फिर कुछ खाया-पिया!
अभी पानी था हमारे पास, कम से कम दो दिन और गुजारे जा सकते थे! इतना पानी तो हम लेकर चले ही थे! खाने के बिना तो काम चल सकता था, लेकिन पानी के बिना नहीं! पानी नहीं रहता तो वापिस आना पड़ता वहाँ से! अभी दो बड़ी बोतल पानी बचा था हमारे पास, किफ़ायत से पानी खर्च किया था अभी तक!
हम अब खड़े हुए, मैंने कुछ और सामग्री ली अपने साथ और फिर त्रिशूल को अभिमंत्रित किया, अब तक मेरे त्रिशूल ने बहुत साथ निभाया था मेरा! नहीं तो कल ही काम तमाम हो गया होता!
दस बजे!
हम अब तैयार हुए!
सभी कुछ जांचा!
तन्त्राभूषण धारण किये!
“तैयार हो?” मैंने पूछा,
“जी” वे बोले,
“चलो फिर” मैंने कहा,
“चलो” वे बोले,
हम अब चल पड़े!
ऊपर पहुंचे,
फिर नीचे उतरे!
सामने देखा!
गड्ढा खुला पड़ा था!
ये चेतावनी थी!
मैं समझ गया!
मैंने शर्मा जी को पीछे भेजा!
वे पीछे गए!
अब मैंने एक मुट्ठी मिट्टी ली!
उसको अभिमंत्रित किया,
और गड्ढे में फेंक मारी!
भयानक आवाज़ हुई!
जैसे ज़मीन में कोई बड़ी सी गरारी घूमी हो!
मैं पीछे हटा!
फिर से पटाक पटाक की आवाज़ हुई!
आवाज़ तेज होती गयी!
और तेज!
तेज!
मैं पीछे हटा!
और तभी वहाँ एक विशाल फन वाला सर्प निकला उस गड्ढे से! पसलियों में सिहरन दौड़ गयी! उसके नेत्र ऐसी विशाल कि मेरे सर से भी बड़े!
इतना बड़ा सर्प!
ऐसा विशाल फन!
ऐसी भीषण काया!
ऐसा विशाल शरीर!
सच कहा था बाबा चंद्रन ने! नहीं देखा था ऐसा सर्प कभी! पूरे जीवन में! मैंने सच में, ऐसा विशाल सर्प नहीं देखा था! उसके गले पर धारियां थीं! सोने की सी धारियां! कोई शाही सांप
लगता था वो! मुझे तो साक्षात नागराज वासुकि अथवा नाग राजकुमार तक्षक सादृश प्रतीत हुआ वो! बहुत विचित्र सांप था वो!
बहुत विचित्र!
मैं आजतक नहीं भूला उसको!
इस संसार में ऐसे बहुत अद्भुत रहस्य हैं मित्रगण!
ये सांप भी एक ऐसा ही रहस्य था!
कम से कम!
मेरे लिए तो!
भयावह!
विकट!
उसने अब फुंकार भरी!
ऐसी भयानक फुंकार कि जैसे सैंकड़ों अश्वों ने श्वास छोड़ी हो!
एक बार को तो मैं भी सिहर गया!
मेरा हाथ मेरे तंत्राभूषण पर जा लगा, अपने आप!
उनका ही सहारा था मुझे!
फिर से फुंकार भरी!
गरजना सी हुई!
मैं जस का तस खड़ा रहा!
उसने अपने तपते नेत्रों से मुझे देखा!
मैंने अपने भीरु-नेत्र उस से भिड़ाये!
उसने फिर से फुंकार भरी!
लेकिन मैं हिला नहीं!
उसने मुझे घुङकाने का प्रयास किया, मैं फिर भी नहीं हिला!
मैं वहीँ खड़ा रहा!
डर तो लग रहा था, लेकिन डर को दबाना ज़रूरी था!
वो सांप आगे बढ़ा!
मैं वहीँ खड़ा रहा!
वो आगे बढ़ा!
मैं वहीँ!
वो थोड़ा और आगे आया, मैं वहीँ बना रहा!
अब उसने सर उठाकर फिर से फुंकार भरी!
कान के पर्दे जैसे फट पड़े!
हिस्स की आवाज़ उस बियाबान में गूँज गयी!
वो आगे बढ़ा और सर उठाया!
मैंने अपना त्रिशूल आगे किया और महानाद करते हुए उस सर्प के गले से छुआ दिया, झटका खाया!
दोनों ने ही!
उसने भी और मैंने भी!
वो उड़ के पड़ा दूर गड्ढे के पास!
और मैं गिरा जाकर पीछे रेत में कमर के बल!
शर्मा जी मेरी तरफ भागे!
मैंने उन्हें देखा और हाथ के इशारे और चिल्ला के उनको वापिस पीछे भेज दिया! वे डरते हुए पीछे खड़े हो गए, मुझे देखते रहे!
मैं खड़ा हो चुका था!
त्रिशूल मेरे हाथ में था!