वर्ष २००९ पुष्कर के...
 
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वर्ष २००९ पुष्कर के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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चूहे बिल बनाते हैं उसके नीचे, सांप से सुरक्षा के लिए!” मैंने कहा,

”अच्छा!” वे बोले,

“पक्षी कोटर बना लेते हैं, वहाँ भी सांप नहीं आ पाता!” मैंने कहा,

“अच्छा!!” वे बोले,

“हाँ!” मैंने कहा,

“बहुत खूब!” वे बोले,

“और ये पानी भी देती है! भूख लगने पर इसका नरम गूदा खाया भी जा सकता है!” मैंने कहा,

“वाह!” वे बोले,

“हाँ!” मैंने कहा,

कांटे निकाल लिए,

अब नीचे उतर गए हम!

बड़ी मुश्किल से,

मिट्टी धसकने वाली थी वहाँ!

“आराम से आइये” मैंने कहा,

वे आराम से उतर आये!

अब मैंने मुआयना किया!

वहाँ उस गड्ढे पर एक उभार था!

“यही है” मैंने कहा,

वे विस्मित!

“क्या हुआ?” मैंने पूछा,

“बाबा कैवट जीवंत हो गए!” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“हाँ!” मैंने कहा,

मैंने और भी स्थान देखे, वो जगह एक तिगड्डा थी! तीन तरफ टीले से घिरी हुई, और दोनों तरफ खड़े टीले! मिट्टी और पत्थर के!

शर्मा जी ने गड्ढे को देखा,

“जे तो बंद हो गया है” वे बोले,

“हाँ” मैंने कहा,

“अब?” उन्होंने पूछा,

“खोलना होगा!” मैंने कहा,

“अच्छा!” वे बोले,

“यहाँ ही घटी थी वो घटना! विश्वास नहीं होता!” मैंने कहा,

“हाँ जी” वे बोले,

तभी पेड़ पर बैठे पक्षी चिल्ला पड़े!

हम खड़े हो गए,

मुस्तैद!

“इन्हे क्या हुआ?” वे बोले,

“या तो कोई पशु है या कोई सांप!” मैंने कहा,

”अच्छा!” वे बोले,

और तभी मित्रगण!

वहाँ अनेक सांप इकट्ठे हो गए! ना जाने कहाँ कहाँ से आये थे वे! लेकिन गड्ढे से कोई नहीं आया था!

सभी ज़हरीले!

दो क़िस्म के थे वे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक मनीर जो काला-नीला होता है, बहुत ज़हरीला होता है, नाग से दस गुना अधिक ज़हर होता है इसमें! शरीर पर सफ़ेद सी धारियां होती हैं, लम्बी सी! कुछ में ये गोल होती हैं! दूसरा था वहाँ वो फरसा, ये आकार में छोटा और सुतवां सांप होता है! चपल और तेज-तर्रार! अत्यंत ज़हरीला! साहिर पर काले और भूरे धब्बे होते हैं! मुंह बड़ा होता है इसका! बीच में से शरीर सुतवां होता है!

वे सभी वहीँ गड्ढे के पास खड़े थे! शुरुआत हो गयी थी!

सभी हमे ही देख रहे थे!

कौन हैं हम?

किसलिए आये हैं?

क्या करने?

ऐसे सवाल होंगे उनके मस्तिष्क में!

“सच कहा था बाबा ने!” मैंने कहा,

“हाँ जी” वे बोले,

अब वे सांप हमारी तरफ दौड़े!

“शर्मा जी! भागो पीछे!” मैंने कहा,

हम पीछे भागे!

रुक गए झटका खा कर!

वहाँ भी ऐसे ही सांप थे!

“घिर गये हम!” वे बोले,

“ऐसे ही खड़े रहो!” मैंने कहा,

अब मैंने सर्प-मोहिनी विद्या चलायी!

मिट्टी उठायी और फेंक दी सामने के तरफ!

झप्प!


   
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श्रीशः उपदंडक
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झप्प से सभी सांप लौट चले!

विद्या की गंध ने उनको लौटने को विवश कर दिया!

रुकते तो मूर्छा को प्राप्त होते और फिर किसी का शिकार!

इसीलिए लौट पड़े!

“गए सारे!” मैंने कहा,

“हाँ जी” वे बोले,

“भयानक सांप थे!” मैंने कहा,

“कैसे अजीब थे! काले-नीले!” वे बोले,

हाँ!” मैंने कहा,

“चलो यहाँ से अब” मैंने कहा,

“वहीँ?” वे बोले,

“हाँ” मैंने कहा,

“चलिए” वे बोले,

“सामान ले आयें” मैंने कहा,

“ठीक है” वे बोले,

हम ऊपर चढ़े!

और फिर नीचे उतरे!

नीचे देखा तो सांप सूंघ गया!

हज़ारों सांप आपस में लिपटे हुए थे वहाँ!

ज़मीन तो दिख ही नहीं रही थी!

बस उनके बीच फंसी झाड़ियाँ ही दिख रही थीं!

“अरे बाप रे!” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं भी चौंक गया!

“वो हमारे बैग पर भी हैं” मैंने कहा,

घेर रखा था उन्होंने हमारे सामान को!

अब मैंने ताम-विद्या का संधान किया!

वहाँ उन साँपों के हिस्स हिस्स की आवाज़ आ रही थी! जैसे लाखों मधु-मक्खियां एक साथ गुंजन कर रही हों!

एक अजीब सी गंध फैली थी वहाँ!

मुंह कसैला हो गया!

ये ज़हर का प्रभाव था शायद!

ताम-विद्या चलायी मैंने अब!

मिट्टी ली, उसको पढ़ा और फूंक मारी उस पर, पांच बार!

और फेंक मारी सामने!

झप्प!

झप्प से सारे सांप लोप हो गए!

“ये तो मायावी थे?” मैंने कहा,

“और पहले वाले?” उन्होंने पूछा,

“असली!” मैंने कहा,

वे उलझे!

“चलो नीचे!” मैंने कहा,

“चलिए” वे बोले,

हम अब नीचे उतरने लगे!

उतर गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपने सामान तक आ पहुंचे!

 

हम अपने सामान तक आये, वहाँ हमने अपने चारों ओर देखा, वहाँ अब कोई सांप नहीं था, पक्षी भी आ बैठे थे पेड़ों पर! सबकुछ शांत था वहाँ! लेकिन वो सन्नाटा बेहद खौफनाक था! वहाँ के सन्नाटे में एक अजीब सा भय भरा हुआ था, लगता था जैसे बराबर कोई न कोई नज़र रखे हुए है आपके ऊपर, आपके प्रत्येक क्रिया-कलाप पर! उनको जैसे आपके पल पल की खबर है! ऐसा लग रहा था, मैं बार बार पेड़ों और उनकी लटकती हुई शाखों को देख लेता था, जहां कोई सांप हो सकता था! कोई भी ज़हरीला सांप! उसको मौक़ा मिलता तो हमको डस ही लेता!

“वो थाली निकालिये शर्मा जी!” मैंने कहा,

“जी” वे बोले,

उन्होंने थाली निकाल दी,

“वो थैला भी निकालिये” मैंने कहा,

उन्होंने निकाल लिया,

“इसका सारा सामान इस थाली में रख दीजिये” मैंने कहा,

उन्होंने उस थैले में से निकाल कर वो सारा सामान रख दिया थाली में!

अब मैंने अपना बैग खोला, उसमे से अपना तंत्राभूषण निकाले और फिर मैं स्व्यं धारण किये मंत्र पढ़ते हुए और फिर शर्मा जी को भी धारण करवा दिए, माथे पर भस्म लगा ली, और फिर मैंने चहुँ-नमन करते हुए स्थान पूजन किया! अब यहाँ से या तो जीवित ही जाना था अथवा यहीं मृत्यु को प्राप्त होना था! पता नहीं कोई हमारे बारे में जानेगा कि भी नहीं! लेकिन अब जो सोच लिया था, वो अटल था, अब वापसी सम्भव नहीं थी! दिन ही था उस समय और काम किया जा सकता था, अतः मैं तैयार हुआ! मैंने अपना त्रिशूल ले लिया अपने साथ! इसकी बहुत आवश्यकता थी!

“आइये शर्मा जी!” मैंने कहा,

“चलिए” वे बोले,

हम ऊपर चढ़े,

फिर नीचे उतरे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आराम से!

गड्ढे तक आये!

अब मैंने गड्ढे की एक परिक्रमा की!

और एक जगह फिर त्रिशूल गाढ़ दिया!

बन गयी वो क्रिया-स्थली!

“पीछे हट जाइये” मैंने कहा,

वे पीछे हटे,

मैं आगे गड्ढे तक गया,

वहाँ खड़ा हुआ,

और फिर अपनी जेब से एक जोड़ा लौंग का उस गड्ढे का फेंका, लौंग अभिमंत्रित थी! जैसे ही लौंग गड्ढे पर पड़ी, गड्ढे में जैसे हलचल हुई! आवाज़ हुई, जैसे लोहे के घन टकरा रहे हों! जैसा कि बाबा चंद्रन ने बताया था! वैसा ही हुआ! गड्ढा धसकने लगा! धीरे धीरे! मिट्टी अंदर जैसे किसी कुँए में खिसकती चली गयी! उसक साथ वहाँ की घास और कंकड़-पत्थर भी!

अब मैं पीछे हटा!

शर्मा जी तक आया!

“और पीछे!” मैंने कहा,

हम और पीछे हुए!

तभ मिट्टी ने धसकना बंद किया!

कुछ पल ऐसे ही रहे हम!

फिर मैं आगे बढ़ा!

गड्ढे तक पहुंचा!

गड्ढा धसक चुका था!

करीब चार फीट के दायरे में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वैसा ही जैसा बाबा ने बताया था!

मैंने अंदर झाँका,

अंदर से आवाज़ आयी कुछ अजीब सी!

जैसे कुछ हलचल मची हो!

मुझे किसी के ऊपर आने का अहसास हुआ,

मैं पीछे हटा!

सफ़ेद सी मिट्टी ऊपर को आने लगी!

मैं पीछे भागा!

और पीछे! और पीछे!

तभी जैसे एक धमाका सा हुआ!

वो सफ़ेद मिट्टी हवा में उड़ गयी करीब पंद्रह फीट!

मैंने, शर्मा जी ने उस मिट्टी को देखा!

ओह!

उस मिट्टी में छोटे-बड़े सांप थे, उस सफ़ेद मिट्टी से ढके हुए!

ढप ढप!

ढप ढप गिरे वो नीचे ज़मीन पर! और गिरते ही मुस्तैद हो गए!

गड्ढा ज़िंदा हो गया!

चालीस साल के अंतराल के बाद आज फिर से इतिहास ने करवट बदल ली थी!

वे सभी सांप कुंडली मार कर बैठ गए उस गड्ढे के चारों ओर!

कम से कम हज़ार से अधिक होंगे वो संख्या में!

वे हमे देख रहे थे और हम उन्हें!

फिर से शान्ति!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे एक दूसरे के सामर्थ्य को तोल रहे हों!

वे सांप अब फुफकारने लगे! हमे चेतावनी देने लगे! जैसे कह रहे हों भाग जाओ! भाग जाओ!

हम अडिग रहे!

नहीं हिले!

तभी गड्ढे में हलचल हुई!

एक विशाल सा सांप निकला!

पीले और काले रंग का!

इसका ज़िक्र नहीं किया था बाबा ने! वो सांप बहुत क्रोध में था! उसने फुंकार मारी! मिट्टी उड़ चली, हम करीब दस मीटर दूर खड़े थे! हाँ, वो चाहता तो इतना फांसला वो कुछ ही पलों में पूर्ण कर सकता था, वो डटा रहा, आशय स्पष्ट था! ये उसकी चेतावनी थी कि हम लौट जाएँ! मैं आगे बढ़ा!

और आगे,

आप अपने सर को आगे लाया!

मैं करीब पांच मीटर रह गया उस से!

उसने फिर से गुस्से में फुंकार मारी!

मिट्टी उड़ चली फिर से!

वो गड्ढे से बाहर निकलने को ज़ोर लगा कर ऊपर आया, मैं खड़ा हो गया वहीँ, वो बाहर आ गया! बैठ अगय कुंडली मार कर, ये करीब दस मीटर का रहा होगा! भारी-भरकम और खौफनाक सांप! हाथी देख ले तो वो भी भाग खड़ा हो!

सांप ने फिर से फुंकार भरी!

लेकिन आगे नहीं आया!

हाँ, वे छोटे सांप आगे ज़रूर आये!

और आगे,

फिर रुक गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं तैयार हो गया!

मैंने तभी सर्प-मोहिनी विद्या का संधान किया! और फिर सामने भूमि पर थूक दिया! आंधी सी चली वहाँ! वे सांप उस आंधी में पीछे को फिकने लगे! सभी के सभी, एक साथ, एक दूसरे से टकराते हुए! ये आंधी वैसी नहीं थी जैसे कि प्राकृतिक रूप से होती है, ये मन्त्र की आंधी थी! वे सभी छोटे सांप पीछे फिकते जा रहे थे! और फिर वे सभी उस बड़े से सांप के पीछे हो गए, कोई आगे नहीं आया फिर!

हाँ!

वो बड़ा सांप नहीं हिला!

वो जस का तस वहीँ खड़ा रहा!

उस पर उस आंधी का कोई असर नहीं हुआ!

वो अभी भी मुस्तैद खड़ा था!

हाँ!

उसके नेत्र अब बड़े हो गए थे!

पीले बिल्लौरी नेत्र!

दहकते हुए!

ख़ौफ़नाक!

हौलनाक!

बहुत भयानक मंजर था!

वे सभी वहाँ थे!

और यहाँ हम दो!

आगे मैं ही था!

मैं शत्रु हूँ या मित्र?

ये नहीं जान पा रहे थे वे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कैसे जानते?

बाबा कैवट ने अपमान किया था उनका!

यही कारण था!

और तभी!

तभी!

वो सांप अपनी कुंडली छोड़ भाग छूटा मेरी तरफ! मैंने आव देखा न ताव! अपना अभिमंत्रित त्रिशूल आगे कर दिया! वो उस सांप से टकराया, उस से टकराते ही वो सांप उछला और गड्ढा पार करते हुए पीछे उस टीले से टकरा गया! मिट्टी गिरी उसके ऊपर! वो झुंझलाया और फिर सीधा गड्ढे में घुस गया!

मैं शांत खड़ा रहा!

मैंने उसको क्षति नहीं पहुंचायी थी!

हमला उसने किया था और मैंने केवल अपना बचाव!

फिर शान्ति छा गयी वहाँ!

भयानक शांति!

जैसे आकाश फटने वाला हो!

बस कुछ ही क्षणों में!

मैं वहीँ खड़ा रहा!

कुछ नहीं हुआ!

कुछ भी नहीं!

अब मैं पीछे लौटा!

शर्मा जी के पास!

“कैसा भयानक सर्प था!!” वे बोले,

उनकी साँसें अटक गयीं थीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“हाँ!” मैंने कहा,

“बाबा ने बताया था कि अभी तो और भी हैं वहाँ!” मैंने कहा,

“हाँ! अभी शुरुआत है!” वे बोले,

“हाँ!” मैंने कहा,

तभी फिर से हलचल हुई!

कौवे चिल्ला पड़े!

हवा शांत हो गयी!

पसीना बह निकला!

और तभी!

तभी गड्ढे से एक दुरंगा सांप निकला!

दुरंगा!

काला और भूरा सा!

बहुत बड़ा!

बड़ा ही ख़ौफ़नाक!

एक बार को तो भय सर पर चढ़ कर छिपने लगा! मैंने सर झटका! शर्मा जी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा! उस सांप के आँखें ऐसी खतरनाक की इंसान को तो देखते ही दो फाड़ करके रख दे! जीभ इतनी मोटी कि मेरी भुजा बराबर! गंध ऐसी कि जैसे सड़े हुए मांस के लोथड़ों से आती है! नाक फटने लगी! जी मिचला गया! मुंह में उस गंध के जैसे कण घुस गए! खड़े रहना मुश्किल हो गया! उलटी आने को जी करे!

बड़ा बुरा माहौल वहाँ का!

 

दुर्गन्ध असहनीय थी! पेट का सारा गूदा हलक में आये जा रहा था, खट्टी डकारें आने लगी थीं! ऐसी दुर्गन्ध में खड़े रहना तो क्या एक पल के लिए सूंघना भी दुष्कर था! मन तो चाहा कि इस सांप का फौरन ही सर्प-नाशिनी विद्या से नाश कर दूँ इसका! लेकिन नहीं, वो अपनी नीति से


   
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श्रीशः उपदंडक
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आया था लड़ने और मैं अपने नीति से! वो उसकी नैसर्गिकता थी और मैं ठहरा मनुष्य! मुझे, वो दुर्गन्ध नहीं हुई बर्दाश्त और मैंने एक और मूष-विद्या का संधान किया, संधान करने में ही जी मिचलाए और मेरे पेट में मरोड़ सी उठने लगीं! मैंने एक मुट्ठी मिट्टी उठायी और फिर उसको फूंक कर अपने सामने फेंक दिया, उस सांप ने झटका खाया! तीन चार बार घूमा और फिर हवा में उछल और धम्म से नीचे गिरा, सीधे गड्ढे में!

दुर्गन्ध खत्म हुई!

जान में जान आई!

लेकिन मुझे उलटी आ ही गयी!

मैं एक तरफ उलटी कर दी!

शर्मा जी का भी यही हाल था, उन्होंने भी उलटी कर दी!

बड़ी बुरी सड़ांध थी वो!

मैंने आज तक ऐसी सड़ांध नहीं सूंघी!

खैर,

सड़ांध समाप्त हुई!

मैंने अपना मुंह पोंछा!

और शर्मा जी के पास गया!

उनका हाल खराब था मेरी तरह!

वे भी मुंह पोंछ रहे थे!

“जानलेवा गंध थी!” वे बोले,

“हाँ!” मैंने कहा,

“बच गए!” वे बोले,

“मुझे हटाना पड़ा उसको!” मैंने कहा,

”अच्छा किया!” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तभी हम दोनों हिल गए!

पाँव काँप उठे हमारे, जूते उस रेत में धंसने लगे,

और फिर,

फिर हम स्थिर हुए!

मैंने गड्ढे की तरफ देखा!

गड्ढे से सफ़ेद रंग का धुआं सा निकला!

हमारी आँखें वहीँ गड़ गयीं!

धुंआ निकलता रहा,

मैंने और शर्मा जी ने एक दूसरे को देखा और तभी!

होऊम!

ऐसी आवाज़ हुई!

एक जोड़ा वहाँ निकला!

भक्क काले रंग का!

चमचमाता हुआ!

दंखता हुआ!

देखने में वो कोई दूसरे लोक का जोड़ा लगता था! एक नाग-जोड़ा! दोनों ने हमको देखा, गुस्से से, ज़मीन में दोनों ने ही फुंकार मारी!

चेतावनी!

भयानक चेतावनी!

हम नहीं हटे!

मैं आगे गया!

अपना त्रिशूल सामने किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर उनसे करीब चार मीटर पर रुक गया!

उन दोनों ने फिर से फुंकार मारी!

मैं नहीं हिला!

नागिन आगे बढ़ी!

उसकी ग्रीवा पर एक धूमिल सा चिन्ह था, ये गौ-चरण तो क़तई नहीं था, कोई त्रिपुंड सा लगता था!

वो आगे बढ़ी! गुस्से में,

नाग पीछे ही रहा,

हमारी आँखें मिलीं!

और वो मुझ पर अपना फेन फैलाये झपट पड़ी! मैंने अपना त्रिशूल आगे किया, मेरा सर उसके फन से टकराया और मेरे बालों को छूती हुई वो बायीं तरफ पेड़ों के पास दूर जाकर गिरी! वो दूर गिरी उड़ती हुई और नाग उसके लिए भाग छूटा! वो भी पेड़ के पास जाकर बैठ गया, उस से लिपटते हुए!

वे दोनों मुझे ही देख रहे थे!

गुस्से में!

भयानक गुस्से में!

नाग बहुत क्रुद्ध था!

उसकी नागिन को मैंने चोट पहुंचायी थी इसीलिए, ऐसा उसको लगता था!

अगले ही पल वो नाग अपनी कुंडली खोल मेरी तरफ झपट पड़ा! मैंने एवंग-मंत्र का जाप किया और त्रिशूल आगे कर दिया, नाग टकराया उस से और हवा में कोई दस मीटर उछला और सीधे नीचे गिरा एक मिट्टी के ढेर पर! नागिन वहाँ भागी! दोनों ने मुझे उठकर देखा और फिर सीधे गड्ढे में घुस गए वे दोनों!

खेल ज़ारी था!

रक्षपेक्षक डटे थे!


   
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