वहाँ से शर्मा जी अपने निवास के लिए गए और मैं अपने निवास के लिए! अब कल सुबह मिलना था हम दोनों ने ही!
सुबह हुई!
शर्मा जी आये मेरे पास, यहाँ से हम निकल पड़े अपने स्थान के लिए, वहाँ पहुंचे और फिर वहाँ अपना सामान रखा, और फिर उसके बाद आ बैठे अपने बिस्तर पर! शर्मा जी कुर्सी पर बैठ गए!
मैं वहीँ बिस्तर पर बैठ गया!
दोनों ही चुप!
“क्या कहते हो आप? वो मुक्ति है या अभी क़ैद?” मैंने पूछा,
“पता नहीं, एक मन कहता है कि मुक्त है, एक कहता है कि क़ैद है” वे बोले,
“यही झंझावात मेरे साथ है!” मैंने कहा,
“बाबा ने तो फंसा दिया!” वे बोले,
“हाँ! हम फंस गये हैं” मैंने कहा,
“कैसे निकलें?” उन्होंने पूछा,
“जाए बिना बात ना बने!” मैंने कहा,
“मैं भी यही सोच रहा था” वे बोले,
‘चलो, चलते हैं!” मैंने कहा,
“कब?” उन्होंने पूछा,
“जब टिकट मिल जाए?” मैंने कहा,
“मैं आज पता कर लेता हूँ” वे बोले,
“कर लीजिये” वे बोले,
“बेचैन है मन” वे बोले,
“मेरा भी” मैंने कहा,
“यहाँ तो चार ही दिन हुए हैं, बाबा चंद्रन को देखो, चालीस साल!” वे बोले,
वहाँ से शर्मा जी अपने निवास के लिए गए और मैं अपने निवास के लिए! अब कल सुबह मिलना था हम दोनों ने ही!
सुबह हुई!
शर्मा जी आये मेरे पास, यहाँ से हम निकल पड़े अपने स्थान के लिए, वहाँ पहुंचे और फिर वहाँ अपना सामान रखा, और फिर उसके बाद आ बैठे अपने बिस्तर पर! शर्मा जी कुर्सी पर बैठ गए!
मैं वहीँ बिस्तर पर बैठ गया!
दोनों ही चुप!
“क्या कहते हो आप? वो मुक्ति है या अभी क़ैद?” मैंने पूछा,
“पता नहीं, एक मन कहता है कि मुक्त है, एक कहता है कि क़ैद है” वे बोले,
“यही झंझावात मेरे साथ है!” मैंने कहा,
“बाबा ने तो फंसा दिया!” वे बोले,
“हाँ! हम फंस गये हैं” मैंने कहा,
“कैसे निकलें?” उन्होंने पूछा,
“जाए बिना बात ना बने!” मैंने कहा,
“मैं भी यही सोच रहा था” वे बोले,
‘चलो, चलते हैं!” मैंने कहा,
“कब?” उन्होंने पूछा,
“जब टिकट मिल जाए?” मैंने कहा,
“मैं आज पता कर लेता हूँ” वे बोले,
“कर लीजिये” वे बोले,
“बेचैन है मन” वे बोले,
“मेरा भी” मैंने कहा,
“यहाँ तो चार ही दिन हुए हैं, बाबा चंद्रन को देखो, चालीस साल!” वे बोले,
“हाँ! क्या करें! इस बोझ तले चालीस साल!” मैंने कहा,
“कल्पना से ही मन विचलित हो जाता है” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
“वे दोनों आदमी कहा गए होंगे?” उन्होंने पूछा,
“भाग गए होंगे, अपने घर चले गए होंगे!” मैंने कहा,
“सम्भव है” वे बोले,
“यही हुआ होगा” मैंने कहा,
“बाबा कैवट को क्या सूझी? अंत वक़्त में बुद्धि फिर गयी!” वे बोले,
मुझे हंसी आयी!
“ये घमंड है शक्तियों का!” मैंने कहा,
“ठीक है, लेकिन हुआ क्या? क्या मिला?” उन्होंने पूछा,
“इतना पता होता बाबा कैवट को तो वो ऐसा करते ही नहीं!” मैंने कहा,
“जान गयी!” वे बोले,
“हाँ, आमंत्रण दिया मौत को!” मैंने कहा,
“लेकिन एक बात है!” वे बोले,
“क्या?” मैंने पूछा,
“उन सबकी जान बच गयी!” वे बोले,
“जान बख्श दी!” मैंने कहा,
“हाँ!” वे बोले,
“फिर भी दया कर दी!” मैंने कहा,
“हाँ, नहीं तो नामोनिशान ही मिट जाता!” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
फिर हम चुप हो गए!
खो गए वहीँ!
वहीँ उस नाग कुमार के पास!
वहीँ!
वहीँ उन सर्पों में!
वहीँ!
वहीँ उन भयानक सर्पों की बीच!
और फिर!
वो झोला!
उसमे क़ैद वो नाग कुमारी!
वो सामने आ गयी!
क़ैद!
तड़पती हुई!
झोले में क़ैद वो!
निहारता उसको वो नाग कुमार!
सब सामने आ गया!
कैसे निहार रहा होगा?
क्या गुजर रही होगी?
क्या हो रहा होगा?
चालीस वर्ष!
इतना लम्बा समय?
इतनी लम्बी क़ैद?
उफ़!
मैं खड़ा हो गया!
दिल तेजी से धड़का!
मैंने फौरन पानी पिया!
अपने चारों ओर जैसे ताप महसूस किया!
वही ताप!
बाबा चन्द्रन ने जो बताया था!
वो बाबा कैवट!
क्यों किया ऐसा उन्होंने?
उहापोह शुरू!
दिमाग में अब बजे हथौड़े!
क्या मिला बाबा को?
क्या हाथ लगा?
जान गयी ना?
काश!
कुछ मांग ही लिया होता!
दे देते वो प्रसन्न हो कर!
लेकिन मति मारी गयी बाबा की!
मैंने कोशिश की कि विचारों से बाहर निकलूं! जितना निकलूं उतना धंस जाऊं! ये कैसी अजीब दलदल?
कौन निकाले?
मैं फिर से बैठा!
“शर्मा जी?” मैंने कहा,
“जी?” उन्होंने गर्दन उठायी,
“आप टिकट कराइये जल्दी” मैंने कहा,
“आज करा देता हूँ” वे बोले,
“अब नहीं रहा जाता!” मैंने कहा,
“मेरा भी यही हाल है, बिलकुल आपके जैसा!” वे बोले,
“आप कराइये आज ही” वे बोले,
“मैं कराता हूँ, अजमेर तक?” उन्होंने कहा,
“हाँ” मैंने कहा,
“मैं करा देता हूँ, अब चलूँगा मैं!” वे उठते हुए बोले,
“ठीक है” मैंने कहा,
“शाम को आता हूँ” वे बोले,
“ठीक” मैंने कहा,
वे चले गए!
रह गया मैं अकेला!
अकेला?
नहीं? नहीं!
अकेला नहीं!
मैं तो विचरण कर रहा था उन सर्पों में!
शर्मा जी शाम को आये! माल-मसाला लेते आये थे! उन्होंने सहायक को आवाज़ दी, सहायक नहीं था, उसकी पत्नी थी, वो आ गयी, शर्मा जी ने उसको भेज दिया वापिस और स्व्यं चले गए
बाहर, वहाँ से रसोईघर पहुंचे और सारे बर्तन आदि ले आये, फिर पानी भी ले आये थे, बर्फ तो साथ ही लाये थे, पन्नी से बर्फ निकाली और जग में डाल दी, पानी ठंडा होने लगा!
“क्या हुआ टिकट का?” मैंने पूछा,
“हो गयी!” वे बोले,
“वाह! कब की?” मैंने पूछा,
“परसों की!” वे बोले,
“ये बढ़िया हुआ!” वे बोले,
“हाँ!” वे बोले,
अब उन्होंने सामान खोला और बर्तन में डाल दिया, मैंने चम्मच से चखा, बढ़िया था सारा मामला!
फिर उन्होंने गिलास में मदिरा डाली और दो पैग बना दिए!
एक मुझे दिया और एक खुद ने लिया!
हमने फिर भोग दिया!
और गटक गए!
“परसों!” मैंने कहा,
“हाँ” वे बोले,
“ठीक है, मैं तब तक विद्याएँ जागृत कर लेता हूँ” मैंने कहा,
“जी गुरु जी” वे बोले,
फिर हम खाते-पीते रहे!
उस रात ही मैं अपने क्रिया-स्थल में जा पहुंचा स्नान के पश्चात, और वहाँ मैंने अब अपनी विद्याएँ जागृत करनी आरम्भ कीं! एक एक करके मैं विद्याओं को जागृत करता चला गया! फिर मैंने धौज अर्थात कलुष-मंत्र जागृत किया! वो भी जागृत हो गया!
अगले दिन भी मैंने विद्याएँ और मंत्र आदि जागृत किये! इन सबकी आवश्यकता पड़नी थी वहाँ! ना जाने क्या हो जाए? कहीं देखते ही ना दाग दे मारण-बाण! कहीं आरम्भ में ही अंत हो जाए!
बस, इसी लिए मैंने सभी मंत्र आदि जागृत कर लिए थे! अपने तंत्राभूषण आदि को भी जीवंत कर लिया था पूजन से! उनमे प्राण फूंक दिए थे! वे अब सामना करने को तैयार थे! इन्ही में से कुछ शर्मा जी ने भी धारण करने थे! वे पल पल मेरे साथ ही रहने वाले थे! वहाँ रात को रुकना पड़ सकता था, अतः बिस्तर, चादर, दरी और सोने वाला सारा सामान तैयार कर लिया था, एक बड़ी सी लाइट भी ले ली थी! बारिश से बचने के लिए भी इंतज़ाम कर लिया था, मक्खी-मच्छर से बचने के लिए भी उपाय कर लिए थे!
अब हम तैयार थे!
और वो दिन भी आ गया!
हम निकल पड़े स्टेशन के लिए!
वहाँ पहुंचे!
प्लेटफार्म तक गए,
और गाड़ी में सवार हो गए!
अब तो बू यही लगी थी कि जल्दी से जल्दी हम अजमेर पहुंचें! वहीँ से आगे के लिए निकलना था! मैं बाबा चन्द्रन के मुताबिक़ ही चल रहा था, हालांकि उस वक़्त के समय में और आज के समय में बहुत अंतर है! अब भीड़-भाड़ है, यातायात है, कई साधन हैं! पहले तो वो कैसे पहुंचे होंगे ये अंदाजा लगा नहीं मुश्किल काम है!
और गाड़ी ने हॉर्न दिया!
और बस, थोड़ी देर में छूटी वहाँ से!
हम चले अजमेर की ओर!
मित्रगण!
हम अजमेर पहुंचे!
एक रात वहीँ ठहरे!
थोड़ी जानकारी जुटाई!
और फिर सुबह सुबह वहाँ से निकल पड़े अजमेर के लिए! साधन बहुत हैं, आराम से पहुँच गए! एक रात वहाँ ठहरे!
अगली सुबह,
अब हमे एक मंदिर ढूंढना था, एक पुराना मंदिर, उसकी बगल से ही वो रास्ता था जहां हमको जाना था सीधे सीधे!
हमने ढूँढा!
मिल गया!
बड़ी ख़ुशी हुई!
अब हमने वहाँ खाना खाया!
अपने साथ रखने के लिए खान एक सामान लिया जो कि चार-पांच दिनों तक खराब ना हो! वो भी ले लिया! विदेशी सैलानी बहुत थे वहाँ! नशाखोरी बहुत थी!
खैर,
कोई ग्यारह बजे हम उस मंदिर के साथ से चल दिए आगे के लिए, साथ ही साथ एक सड़क भी थी, शायद किसी गाँव को जाती थी, हम पैदल चल पड़े! रास्ता ऐसा कि जान ही ले ले! तभी एक ऊँट-गाड़ी दिखी, हम भी बैठ गये उसमे! हिलते-हिलाते हम चलते रहे! चलते रहे! उस ऊँट-गाड़ी वाले का गाँव आ गया, हम उतर गए और फिर वहाँ से आगे चले, कम से कम अठारह-बस किलोमीटर तो बैठ ही गए थे!
हम फिर से पैदल चले!
ऊबड़-खाबड़ रास्ता!
भयानक गर्मी!
पानी ले ही लिया था भर के! सो अपनी बोतल से एक एक घूँट पानी पीकर हलक गीला करते थे!
अब हुई सांझ!
पाँव दुखे!
एक जगह रुके!
ये एक खंडहर था!
कोई पुराना सा खंडहर!
दूर दूर तक बियाबान!
“आज यहीं रुकना पड़ेगा!” मैंने कहा,
“ठीक है” वे बोले,
हमने एक जगह देखी, साफ़ सी! वहीँ रुकने का फैंसला किया! मैंने अब सुरक्षा-घेरा खींचा! जैसे कैवट बाबा ने खींचा था! वैसे हम सही रास्ते पर थे! करीब आधा रास्ता तय कर लिया था! थोडा बहुत खाया! और रात घिरते ही सो गए हम! हाँ, आंच ज़रूर जला ली थी वहाँ लकड़ियां इकट्ठी करके! रात में जाड़ा सा पड़ा था! दिन गरम और रात सर्द! ऐसा मौसम था!
सुबह हुई,
हाथ मुंह धोये,
कीकर की दातुन की!
सामान उठाया और चल पड़े फिर आगे!
दिन में करीब ग्यारह बजे!
सामने एक तालाब सा दिखायी दिया! ये वही तालाब था जिसका ज़िक्र बाबा चन्द्रन ने किया था, तालाब आधा सूखा था, लेकिन पानी बढ़िया था उसका! हम नहाये वहाँ पर! मजा आ गया! ताज़गी आ गयी!
वहाँ से फिर आगे चले!
एक और निशानी दिखायी दी, दो छोटी पहाड़ी जो एक ख़ास हिंदी का अक्षर बनाती थीं!
“यही है ना वो?” मैंने पूछा,
“हाँ!” वे बोले,
“चलो फिर” मैंने कहा,
“चलिए” वे बोले,
हम धीरे धीरे चल पड़े!
चार बजे करीब हम पौन रास्ते से अधिक को तय कर चुके थे! अब आराम किया हमने वहाँ एक पेड़ के नीचे!
पाँव जवाब दे रहे थे!
जूते खोले तो ताज़ा हवा लगी!
“पहुँच जायेंगे रात तक!” वे बोले,
“उम्मीद तो है” मैंने कहा,
तभी मेरे सामने से एक गोह गुजरी! मुंह में एक अंडा उठाये! उसने हमे भी देखा! वो हमे देखते रही! मैंने एक पत्थर उठाकर उसकी ओर फेंक दिया! वो भाग गयी मटकती हुई!
“चलें?” मैंने कहा,
“चलो” वे बोले,
सामान उठाया,
लादा,
और फिर से चल दिए आगे!
शाम होते होते हम एक जगह पहुँच गए, ये खुली जगह तो नहीं थी, रेत था वहाँ, और एक तरफ बड़े से पत्थर थे, पत्थरों में ही अक्सर सांप बैठे या छिपे रहते हैं, ठन्डे रक्त के प्राणी हैं ना, इसलिए, कई पत्थरों की दरारों में छिप जाते हैं, दिन भर ऊंघते हैं और फिर दिन की ऊर्जा एकत्रित करने के बाद रात्रि में शिकार के लिए निकलते हैं, ऐसे ही बिच्छू! ये भी रात्रि समय ही शिकार पर निकलते हैं! इसीलिए पत्थरों के आसपास सावधानी से जगह चुननी चाहिए, हमने ऐसी ही एक बढ़िया जगह चुन ली थी, अब आगे नहीं जा सकते थे, रात्रि बस आने को ही थी, दिन में तपती रेत अब शीतल होने लगी थी! खैर, हमने अपने सोने का इंतज़ाम कर लिया था, मैंने फिर सुरक्षा-घेरा खींचा और हम कुछ खा कर सो गए! आंच जला ही ली थी, इस से सुरक्षा मिलती है, प्रकाश भी रहता है और कीड़े-मकौड़े आदि भी दूर ही रहते हैं!
सुबह हुई,
हम आराम से सोये थे!
अपना सामान इकठ्ठा किया!
बैग में भरा!
और फिर से कीकर की दातुन की!
हाथ-मुंह धोये और फिर चल पड़े!
आज पहुँच जाना था उस जगह!
बारह बजे!
सामने एक और छोटा सा तालाब दिखायी दिया! बगुले और दूसरे पक्षी जल-क्रीड़ा में मस्त थे!
“वो देखो!” मैंने इशारे से कहा,
“हाँ, तालाब है” वे बोले,
“वही दूसरा तालाब जो बाबा ने बताया था!” मैंने कहा,
“हाँ, करीब ही हैं हम!” वे बोले,
“हाँ, लगता है!” मैंने कहा,
“आओ, स्नान किया जाए!” मैंने कहा,
“हाँ!” वे बोले,
तभी ऊपर से एक हवाई जहाज गुजरा!
हम दोनों ने देखा!
“इन्होने पकड़ लिया हमे!” वे बोले हंसकर!
“हाँ!” मैंने कहा,
फिर हमने स्नान किया,
वस्त्र बदले!
हलके-फुल्के वस्त्र पहन लिए!
गर्मी बहुत थी!
हम अब बढ़ चले आगे!
करीब तीन बजे हमको एक और छोटी पहाड़ी दिखायी दी, उसके बगल में ही एक और छोटी सी पहाड़ी थी, बस, यहीं जाना था हमको!
“लगता है, आ गए” मैंने कहा,
“हाँ, लगता है” वे बोले,
“बढ़ते चलो” मैंने कहा,
“चलो” वे बोले
हम बढ़ चले!
पानी पिया!
एक जगह छायादार पेड़ मिले!
“यहाँ रुक लेते हैं थोड़ी देर!” मैंने कहा,
“ठीक है” वे बोले,
हमने सामान नीचे रखा!
और बैठ गए!
थोड़ी देर आराम किया!
“गर्मी बहुत है” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
भभक रही थी वहाँ की रेत! बस हम जहां बैठे थे वो सही थी, पेड़ों के छाया की वजह से!
“चलें?” मैंने पूछा,
“चलो” वे बोले,
हम उठे!
और चल पड़े अपना सामान उठाकर!
शाम हो गयी!
लेकिन हम उस जगह पहुँच गए!
वो टीले नज़र आ गए!
वो पहाड़ी नज़र आ गयी!
हम पहुँच गए थे!
सही-सलामत!
“वहाँ!” मैं इशारा करके बताया,
”अच्छा!” वे बोले,
“यही बताया था, यहीं वो ऊपर चढ़ते थे और नीचे उतारते थे दूसरी तरफ, वहीँ होगा वो गड्ढा!” मैंने कहा!
“अच्छा!” वे बोले,
“अब यहीं रुका जाए!” मैंने कहा,
“ठीक है” वे बोले,
सामान रखा, और बैठ गए!
थक गए थे!
बुरी तरह!
“मंजिल आ ही गयी!” मैंने कहा,
“हाँ जी!” वे बोले,
पानी की बोतल निकाली!
पानी पिया!
प्यास बहुत लगी थी!
सुनसान!
बियाबान!
कोई नहीं!
कोई पशु भी नहीं!
बस परिंदे!
और ऊपर उड़ती चीलें!
शाम बीती, रात आयी!
मैंने सुरक्षा-घेरा खींचा और फिर हम सो गए, कुछ खा पीकर!
सुबह हुई,
उठे!
हाथ-मुंह धोये!
फिर कुछ देर आराम किया!
“वो देखो!” वे बोले,
मैंने पीछे देखा!
“मकड़ी के जाले!” मैंने कहा,
“इतने बड़े?” उन्होंने पूछा,
“हाँ! ये समुदाय में रहने वाली मकड़ियां हैं!” मैंने कहा,
“ओह!” वे बोले,
अब मैंने सामने देखा!
शर्मा जी ने भी देखा!
मैंने अपना बैग खोला!
कुछ सामान निकाला और कुछ शर्मा जी को दिया! फिर तंत्राभूषण निकाले, स्व्यं पहने और शर्मा जी को भी धारण करवाये!
फिर नमन किया!
सभी को!
“चलें?” मैंने पूछा,
“चलिए” वे बोले,
हमने सामान वहीँ छोड़ा और चल दिए ऊपर की ओर!
अब नागफनी लगी थीं वहाँ! बड़ी बड़ी!
उनसे बचे!
और ऊपर चढ़ गए!
नीचे झाँका!
वो जगह दिखायी दे गयी!
लेकिन वहाँ गड्ढा नहीं था!
एक उभार था!
“वही है” मैंने कहा,
और हम नीचे चले अब!
हम नीचे उतर गए! बड़ी मुश्किल से उतरे, घुटनों में नागफनी के कांटे घुस गए थे, बारीक बारीक कांटे, अब दुःख दे रहे थे! मैंने निकाले वे सब! अब चाक़ू से रास्ते में आने वाली वो नागफनियाँ काट दीं मैंने, बड़ी बड़ी थीं वो नागफनी!
“बंजर की रानी हैं ये!” शर्मा जी बोले,
“हाँ, कइयों को बसेरा देती है!” मैंने कहा,
“वो कैसे?” उन्होंने पूछा,