वर्ष २००९ पुष्कर के...
 
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वर्ष २००९ पुष्कर के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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उस दिन गर्मी का मौसम था! भयानक गर्मी थी, मैं उन दिनों किसी कारण से गया जी में था, गया, बिहार का एक प्रसिद्ध स्थान, मैं शर्मा जी के साथ यहाँ आया था, यहाँ मेरे एक जानकार रहते हैं अवधेश जी, उन्ही के पास आया हुआ था मैं! वे मुझे वहाँ से एक गुप्त स्थान के लिए ले गए थे, शर्मा जी भी मेरे साथ ही थे, अवधेश जी के कई जानकार हैं यहाँ, वे कापालिक हैं और अपने क्षेत्र में निपुण हैं! हम उस धूल भरे रास्ते से वहाँ तक पहुंचे थे, वहाँ जब हम पहुंचे तो मुझे किसी शक्तिपीठ के जैसा नज़ारा मिला! यहाँ उन्होंने हमो एक जगह बिठाया, ये ऐसी जगह थी कि इसको मैं कक्ष कहूं तो वो कक्ष नहीं था! गुफा कहूं तो गुफा नहीं थी! एक अजीब सा स्थान था, कुछ तो प्राकृतिक था और कुछ शायद बाद में बना दिया गया था! चुनिंदा लोगों का ही प्रवेश था यहाँ पर! हाँ, गर्मी! गर्मी ऐसी थी कि खाल उतार दे! जहां सूरज की किरणें पड़ती थीं वही स्थान जैसे झुलस उठता था! जहां हम बैठे थे उसके पास ही पीपल का एक बड़ा सा पेड़ था! उसके नीचे बड़े बड़े घड़े रखे थे, ऊपर प्लास्टिक के मग, मैंने वहाँ से पानी निकाला मग की सहायता से एक ऐसे ही घड़े से! और फिर अपना मुंह धोया, लगा कि जैसे किसी हाँफते हुए घोड़े के नथुनों के सामने हाथ रख दिया हो! ऐसा भभक रहा था चेहरा! फिर मैंने पानी पिया! पानी भी ताप का मारा ही था, शीतलता नाम मात्र की ही थी! अवधेश जी यहीं बिठाकर वहाँ से ऊपर चढ़ गए थे, किसी से मिलना था उनको!

“पानी पिओगे?” मैंने शर्मा जी से पूछा,

“हाँ जी” वे बोले,

मैंने मग से पानी निकाला और पानी ले गया उन तक!

उनको दे दिया!

उन्होंने पहले पानी पिया और फिर चेहरा धोया!

“मार डाला इस गर्मी ने तो!” वे बोले,

“भयानक गर्मी है” मैंने कहा,

“बहुत बुरी!” वे बोले,

शर्मा जी इसके बाद वो मग रख आये उस घड़े पर!

और आ बैठे वहीँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“कैसा अस्त-व्यस्त हो गया है जीवन इस गर्मी से!” वे बोले,

“देख लो, एक परिंदा भी नहीं” मैंने कहा,

“परिंदा तो छोड़िये, एक जानवर भी नज़र नहीं आ रहा!” वे बोले,

“जानवर तो हैं!” मैंने कहा,

“कहाँ?” उन्होंने पूछा,

“वो देखो!” मैंने कहा,

सामने दो कुत्ते लेटे पड़े थे, हॉँकते हुए! जीभ बाहर निकाले!

वे हँसे!

“इन्ही से पूछो क्या हाल है इनका!” वे बोले,

“बुरा हाल है इनका!” मैंने कहा,

मैंने पीछे झाँका, वहाँ जगह थी बैठने की, वहाँ एक सफ़ेद दरी सी बिछी थी,

“आओ, वहाँ बैठते हैं” मैंने कहा,

उन्होंने देखा वहाँ,

“चलो” वे बोले,

“हाँ, इस लू से तो बचाव होगा!” मैंने कहा,

“हाँ जी” वे बोले,

हम दोनों जूते उतार कर वहीँ अंदर चले गए, ये अजीब सी जगह थी, दीवार की जगह पत्थर थे, अजीब से लाल पत्थर! अब काले हो चुके थे! कहीं कहीं लाली दिखाई देती थी! वक़्त के साथ साथ लाली भी धूमिल पड़ती जा रही थी!

जैसे ही हम बैठे, पता चला हम अकेले नहीं हैं! वहाँ एक वृद्ध बाबा लेटे हुए थे, अब वहाँ प्रकाश नहीं था, या तो ये कारण था, या फिर दिन की चमक के कारण हम अंदर अँधेरे में नहीं देख पाये थे! मेरा पाँव टकरा गया था उनके सर से!

“क्षमा कीजिये” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“कोई बात नहीं” वे बोले,

अब मैंने उनको देखा, स्पष्ट देखा!

अस्सी की आयु होगी उनकी! इकहरा शरीर और वृद्धावस्था के असंख्य चिन्ह लिए हुए उनका शरीर!

मैं थोड़ा हट गया था वहाँ से!

वे अब बैठ गए!

“कहीं बाहर से आये हो?” बाबा ने पूछा,

“हाँ बाबा, दिल्ली से” वे बोले,

”अच्छा अच्छा!” वे बोले,

“हाँ जी” मैंने कहा,

“किसके साथ आये हो?” उन्होंने पूछा,

“अवधेश जी के साथ” मैंने कहा,

“अच्छा!” वे बोले,

“हाँ जी” मैंने कहा,

“अब कहाँ हैं वो?” उन्होंने पूछा,

“किसी से मिलने गए हैं” मैंने कहा,

“अच्छा सरूपा से मिलने” वे बोले,

“हाँ जी” मैंने कहा,

“अच्छा” वे बोले,

फिर कुछ चुप रहे वो और हम!

“साथी हो उनके?” बाबा ने जम्हाई लेते हुए पूछा,

“मेरे जानकार हैं” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“अच्छा!” वे बोले,

“उनके संग ही बैठते हो?” उन्होंने पूछा,

अब मैंने बाबा को अपने बारे में बता दिया! उन्होंने सारी बात सुनी मेरी! और फिर समझ गए! हालांकि उनका और मेरा मार्ग अलग है! लेकिन मेरे और अवधेश जी का आपस में सौहार्द का नाता है! वे दिल्ली आते हैं तो मेरे पास, मैं वहाँ जाता हूँ तो अवधेश जी के पास! मुझसे आयु में भी बड़े हैं, तो आदर योग्य भी हैं!

कुछ पल शान्ति!

“आप कभी पुष्कर गए हैं?” उन्होंने पूछा,

“हाँ, कई बार” मैंने कहा,

“अच्छा!” वे बोले,

फिर से चुप हम!

“आप गये हैं?” मैंने पूछा,

“हाँ, एक बार” वे बोले,

“कब?” मैंने पूछा,

“चालीस साल पहले” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“हाँ, एक नाग को पकड़ने!” वे बोले,

मैं चौंका!

नाग? नाग तो यहीं बहुत हैं? इतनी दूर?

“नाग पकड़ने इतनी दूर?” मैंने पूछा,

“हाँ! इतनी दूर” वे बोले,

“कोई ख़ास नाग है क्या?” मैंने पूछा,

“हाँ! वो राजा है, एक राजकुमार!” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे आश्चर्य हुआ!

“नाग कुमार?” मैंने पूछा,

“हाँ!” वे बोले,

“पकड़ा आपने?” मैंने पूछा,

वे चुप हुए!

शायद उसी समय में खो गए!

“क्या पकड़ा आपने?” मैंने पूछा,

“नहीं!” वे बोले,

“अच्छा!” वे बोले,

मैं चुप!

“पकड़ नहीं पाये!” वे बोले,

“अच्छा….” मैंने कहा,

”वो आज भी वहीँ है” वे बोले,

अब मुझे फुरफुरी दौड़ी!

मुझे ऐसे मामले बहुत अच्छे लगते हैं! बहुत अच्छे!

”आज भी वहीँ है?” मैंने पूछा,

“हाँ! वहीँ रहेगा!” वे बोले,

“वहीँ रहेगा?” मैंने पूछा,

“हाँ, उसको कोई नहीं पकड़ सकता!” वे बोले,

“क्यों?” मैंने पूछा,

“उन दिनों हमारे तीन आदमी मारे गए थे इसी चक्कर में, फिर बचे लोग वापिस आ गए वहाँ से, वो आज भी वहीँ है” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा ने तो जैसे मेरे सर में हथौड़ा बजा दिया था ये सब बताकर! अब मुझे और उत्कंठा हुई जानने के लिए!

 

“बाबा? आपको कैसे पता चला उस नाग कुमार के बारे में?” पूछा मैंने,

“कभी असम गए हो?” उन्होंने पूछा,

“हाँ बाबा, कई बार, मैंने साधना भी की है वहाँ, कई बार” मैंने कहा,

“असम एक नाग-भूमि है” वे बोले,

“हाँ है” मैंने कहा,

“मेरे पास एक बाबा आते थे, कैवट बाबा, वो पहुंचे हुए बाबा थे, मैं उनके साथ ही रहा करता था, उनको उनके किसी साथी ने उस नाग कुमार के बारे में बताया था, वे आये थे और उन्होंने ही कहा था कि कोण न उस नाग कुमार को पकड़ कर कुछ शक्ति अर्जित की जाए?” वे बोले,

”अच्छा बाबा!” मैंने कहा,

“हमने बहुत विचार किया, और फिर बाबा कैवट के साथ वहाँ के लिए चल पड़े हम, वहाँ पुष्कर के लिए, काफी दिन लग गए हमको वहाँ पहुँचने में, हम पहले किसी तरह से अजमेर पहुंचे और फिर वहाँ से किसी तरह पहुंचे हम पुष्कर” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“हम पुष्कर में ठहरे कोई चार दिन, यहाँ से योजना बनाई आगे जाने की, जंगल का रास्ता था, बाबा कैवट के पास यूँ कहो कि नक्शा था वहाँ का, वहाँ तक जाने का, हम उनके साथ चल पड़े” वे बोले,

“अच्छा! कुल कितने आदमी थे आप बाबा?” मैंने पूछा,

“हम कुल सात आदमी थे” वे बोले,

“भयानक जंगल था वहाँ, कोई रास्ता नहीं था, बस हम कैवट बाबा के साथ आगे बढ़ते रहे, कोई गाँव भी नहीं मिला था हमको रास्ते में जो ठहर जाते, पैदल जा रहे थे, हम पहली रात जंगल में ही रुके, आंच जलाई गयी थी, पुष्कर से जो भोजन हम लाये थे वहीँ खाया” वे बोले,

“आपका रास्ता जंगल से होकर गुजरता होगा” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“हाँ, गहन जंगल था उस समय” वे बोले,

“फिर बाबा?” मैंने पूछा,

“अगली सुबह हम फिर चले वहाँ के लिए, कैवट बाबा ने हमको समझाया कि सभी साथ साथ रहें, इस से कोई दिक्कत-परेशानी नहीं आयगे, तो हम एक के पीछे एक चल रहे थे, रास्ते में एक जगह एक छोटा सा बरसाती तालाब मिला, यहाँ हम नहाये धोये, कुछ देर आराम किया और फिर वहाँ से फिर चल पड़े आगे के लिए” वे बोले,

“शाम हो गयी चलते चलते, हम थक गए, और जंगल जैसे और गहरा हो गया, हम शाम के धुंधलके में ही कहीं ठहरना चाहते थे, एक जगह देखी, वो जगह सही लगी, हमने वहीँ बसेरा बना लिया, आंच जला ली गयी और फिर जो भोजन साथ था, वो खाया और फिर रात्रि-समय हम सो गए” वे बोले,

बाबा खो गए थे उसी यात्रा में!

जीवंत हो उठा था उनका वो प्रयत्न आज चालीस वर्ष के बाद!

“अच्छा, फिर बाबा?” मैंने पूछा,

“अगले दिन हम फिर चल पड़े आगे के लिए, हमारी हिम्मत जवाब दे चली थी, लेकिन जीवट के पक्के बाबा कैवट ने हमारी हिम्म्त नहीं टूटने दी, हम आगे चलते रहे, तभी कैवट बाबा को कोई निशानी देखने को मिली, वे खुश हो गए, उनके अनुसार हम कुछ घंटों के बाद उस स्थान पर पहुँचने वाले थे!” वे बोले,

पसीने पोंछे उन्होंने माथे के अपने अंगोछे से!

“वहाँ पहुँच गए?” मैंने पूछा,

“हम चलते रहे, लेकिन वो जगह अभी भी बहुत दूर थी, अब सुस्ताने को एक जगह बैठ गए, वहीँ कुछ बड़े बड़े पेड़ थे, छाया थी उनकी, सो वहीँ बैठे” वे बोले,

”अच्छा!” मैंने कहा,

“उस दिन हम थक गए थे बहुत, आगे जाने की हिम्म्त नहीं थी, बाबा कैवट ने भांपा और वहीँ रुकने का फैंसला किया, हम वहीँ रुक गए!” वे बोले,

“अच्छा बाबा” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“अगली सुबह हम उठे, और फिर वहाँ से आगे के लिए चले, गनीमत से वहाँ भी एक छोटा सा तालाब था, पक्षी बैठे हुए थे उसमे, हम नहाये धोये वहाँ! शरीर ताज़ा हो गया! दूर दूर तक कोई नहीं था, बस रेत और जंगल! हम नहाने के बाद वहीँ आ बैठे! खाने को हमारे पास साथ लाये चने, गुड और शकरपारे थे, वहीँ खाये!” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“ए.बी.ए. कैवट बाबा ने हमको समझाया, कि उनके साथ उनका शिष्य बिन्ना रहेगा, शेष आदमी एक साथ रहें, और कोई भी कहीं न जाए, बिना बताये, क्योंकि अब वहाँ से खतरा आरम्भ होता था” वे बोले,

“कैसा खतरा?” मैंने पूछा,

“बाबा ने बताया कि हम उस नाग कुमार के क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“वहाँ से कैवट और बिन्ना एक साथ हुए और आगे चल पड़े, ये चढ़ाई थी बहुत टेढ़ी-मेढ़ी, घुटने कांपने लगते थे बार बार, पत्थर बहुत बड़े बड़े थे वहाँ, हालत खराब थी हमारी” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“और जब हम आगे गए तो जैसे किल्ली निकल गयी मुंह से!” वे बोले,

“क्यों?” मैंने पूछा,

“वहाँ हर तरफ सांप ही सांप थे! सैंकड़ों सांप!” वे बोले,

“ओह!” मैंने कहा,

“तभी बाबा ने हमो रोका और शांत रहने को कहा, पेड़ों और झाड़ियों से दूर रहने को कहा, पेड़ों पर भी सांप बैठे थे, और झाड़ियों में भी, ज़हरीले सांप, बड़े बड़े, ऐसे बड़े कि एक बार गले में बंध मार लें तो फिर प्राण निकले ही निकले!” वे बोले,

“बहुत खतरनाक!” मैंने कहा,

“हाँ!” वे बोले,

फिर से पसीना पोंछा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर पानी लेने बाहर चले!

शर्मा जी ने रोक दिया!

और खुद पानी लेने चले गये उनके लिए!

पानी लाये,

बाबा को दिया!

बाबा ने पानी पिया ओख से!

उन्होंने अपना मुंह पोंछा!

“फिर बाबा?” मैंने पूछा,

“सामने सांप थे, बाबा ने रोक दिया, सर्प-मोचिनी विद्या चलायी, और अपना दंड आगे किया, भूमि को स्पर्श किया, सांप हट चले वहाँ से” वे बोले,

”अच्छा!” मैंने कहा,

“अब बाबा ने हमको आगे आने को कहा, हम आगे बढ़े, ऊपर और ऊपर! और तभी….” वे बोले,

“क्या तभी बाबा?” मैंने पूछा,

“बिन्ना के पीछे खड़े आदमी के पाँव में किसी ने काटा, वो चिल्ला पड़ा, उसके चिल्लाने से सारे पक्षी उड़ पड़े, अपशकुन हो चला था, बाबा फौरन पीछे लाियते और उस आदमी को देखा, ये सांप ने नहीं काटा था, ये शायद बिच्छू ने काटा था, तब बाबा ने तभी मंत्र पढ़ा और उसका विष एक झाडी के पत्ते से हर लिया! वो पीड़ामुक्त हो गया, लेकिन उसको अब बाबा ने वापिस नीचे जाने को कह दिया, ये देख हम डर गए थे, बहुत!” वे बोले,

“बात डरने की ही है बाबा!” मैंने कहा,

“हम आगे बढ़े, और रास्ते के बीच में अ गए, एक जगह गड्ढा दिखायी दिया, नीचे, बाबा रुक गए वहीँ, हाथ के इशारे से हम लोगों को रोक दिया, हम रुक गए!” वे बोले,

“वो गड्ढा क्या था?” मैंने पूछा,

“नाग कुमार का निवास-स्थान!” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“ओह!” मेरे मुंह से बरबस निकल गया!

“अब बाबा ने हमको वही रोक दिया और बिन्ना को साथ लिया, बिन्ना ने अपना झोला उठाया और वे दोनों फिर नीचे उतर गए, हमने उनको जाते हुए देखा, और तभी वे वहाँ से हट गए, हट कर ऊंचे पत्थरों पर चढ़ गए!” वे बोले,

“क्यों बाबा?” मैंने पूछा,

“चंदीले सांप!” वे बोले,

“चंदीले?” मैंने पूछा,

“हाँ, दुरंगे चंदीले सांप!” वे बोले,

“दुरंगे?” मैंने पूछा,

“हाँ, आधा भाग चांदी जैसा और आधा भाग एकदम काला!” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“वे एकदम से निकल कर आये उस गड्ढे से, बहुत बड़े बड़े सांप थे वे, इतने मोटे मोटे!” उन्होंने हाथ के इशारे से समझाया, करीब बारह-चौदह इंच चौड़े!

“वे गड्ढे से निकले?” मैंने पूछा,

“हाँ, सारे के सारे” वे बोले,

“गड्ढा कितना बड़ा होगा?” मैंने पूछा,

“करीब चार फीट का रहा होगा” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

और बचा हुआ पानी मग से मैंने पिया अब!

बाबा ने ऐसे व्यक्त किया था जैसे कल ही गए हों वहाँ! मेरे दिमाग में घंटियाँ बजने लगी थीं! परन्तु कहानी अभी शेष थी, जो मुझे सुननी थी!

 

“अच्छा बाबा! फिर?” मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“वो बड़े बड़े सांप वहाँ आये, और बाबा कैवट और बिन्ना को घेर के खड़े हो गए, कोई काटने के लिए फुफकारता तो कोई खड़ा हो जाता था मीटर भर तक, हम साँसें थामे सारा खेल देख रहे थे! एक बार तो बिन्ना चपेट में आते आते बचा!” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“हाँ, बहुत अजीब था वो सब!” वे बोले,

“रहा होगा बाबा!” मैंने कहा,

“एक बार को तो बिन्ना गिरते गिरते बचा, बाबा ने उसको पकड़ लिया था उसके कंधे से, फिर बाबा ने सर्प-मोहिनी विद्या का संधान किया और वहीँ थूक दिया, विद्या ने काम किया वे सांप वापिस लौटने लगे गड्ढे में!” वे बोले,

”अच्छा!” मैंने कहा,

“हाँ, बाबा ने खूब पढ़ाई की थी इस बारे में, वो सब जानते थे कि क्या होगा वहाँ, अब जब सांप लौट गए तो बाबा और बिन्ना उतरे पत्थरों से और फिर गड्ढे के पास खड़े हो गए, उन्होंने आवाज़ देकर हमको भी बुला लिया, हम पहुँच गए वहाँ, जहां कुछ देर पहले वो भयानक सांप थे!” वे बोले,

”अच्छा बाबा!” मैंने कहा,

“फिर बाबा?” मैंने पूछा,

“अब बाबा ने हमको उस गड्ढे के चारों ओर खड़ा किया और फिर मंत्र प्रयोग किये, इसी बीच वहाँ उस गड्ढे से भायनक आवाज़ आणि शुरू हो गयीं!” वे बोले,

“आवाज़? कैसी आवाज़ बाबा?” मैंने पूछा,

“जैसे कोई बड़ा सा सांप फुफकार रहा हो, हिस्स! हिस्स! आवाज़ इतनी भयानक थी कि कलेजा जैसे मुंह को आ जाए, हमारे तो पाँव तले ज़मीन खिसक गयी थी!” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“हाँ, वो आवाज़ करीब आधे घंटे तक आती रही, बाबा भी मंत्र पढ़ते रहे, फिर वहीँ उस गड्ढे के मुहाने पर बैठ गए, और तभी…..” वे कहते कहते रुके,

मैंने उनके बोलने का इंतज़ार किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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आखिर में मैंने ही पूछा, “फिर?”

“वो जो नीचे भेजा गया था आदमी, वो भागता भागता आया वहाँ, और ऊपर से ही बोला कि वहाँ देखो, वहाँ सैंकड़ों गड्ढों से सांप बाहर आ रहे हैं!” वे बोले,

“अरे?” मैंने कहा,

“बाबा खड़े हुए, अपना त्रिशूल उठाया और फिर वापिस हो गए, हम भी उनके साथ चले, लगता था कोई भायनक मुसीबत आ गयी है वहाँ!” वे बोले,

मैं कान लगाए सब सुन रहा था, शर्मा जी भी कान गढ़ाए सब सुन रहे थे! कहानी थी ही ऐसी, और बाबा का सुनाने का अंदाज़ बहुत रोचक था!

“क्या था वहाँ?” मैंने पूछा,

“हम वहाँ से बाबा के पीछे चलते हुए ऊपर पहुंचे, वहाँ से नीचे देखा तो जान निकल गयी हमारी, वहाँ सैंकड़ों नहीं हज़ारों सांप थे, सभी भयानक! सभी फुफकारते हुए! और उन सबके दुश्मन हम! मारे भय के पसीने छूट गए हमारे!” वे बोले,

“हज़ारों ज़हरीले सांप?” मैंने पूछा,

“हाँ!” वे बोले,

मैं सुनता रहा!

“हज़ारों! मैंने पहले कभी नहीं देखे थे इतने सांप! लगा सारे राजस्थान के सांप वहाँ इकट्ठे हो गए हों!” वे बोले,

“कमाल है!” मैंने कहा,

“हाँ!” वे बोले,

“फिर क्या किया आपने?” मैंने पूछा,

“हाँ, तब बाबा ने अपना त्रिशूल उठाया और एक मुट्ठी मिट्टी उठायी, मंत्र से अभिमंत्रित की और नीचे फेंक दी, जैसे ही वो मिट्टी नीचे गिरी, वे सांप एक एक करके भूमि में समाते चले गए! वो नज़ारा ऐसा था कि जैसे भूमि के अंदर से कोई उनका शिकार कर रहा हो!” वे बोले,

“सर्प-संहार विद्या!” मैंने कहा,


   
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“हाँ!” ये कहते हुए मुझे देखा उन्होंने!

“तो बाबा ने संहार किया उन सर्पों का?” मैंने पूछा,

“पता नहीं” वे बोले,

“किया, यदि वे गड्ढों में जाते तो नहीं होता, वे संहार होने से भूमि में समा गए बाबा!” मैंने कहा.

“हो सकता है” वे बोले,

“ये तो गलत हुआ” मैंने कहा,

वे चुप हुए और मुझे देखा,

“उस समय वही उचित था” वे बोले,

“अच्छा, कैवट बाबा को ऐसा ही लगा होगा” मैंने कहा,

“हाँ” वे बोले,

“अच्छा बाबा!” मैंने कहा,

“सारे सांप भूमि में समा गए, और वहाँ मैदान खाली हो गया, वे गड्ढे वैसे के वैसे ही खुले रह गए, हम अब बाबा के कहने पर वापिस हुए, उस बड़े गड्ढे की तरफ! हम ऊपर चढ़े और फिर वहाँ से गड्ढा देखा, गड्ढा बंद हो चुका था!” वे बोले,

“अरे! गड्ढा बंद हो गया?” मैंने पूछा,

“हाँ!” वे बोले,

“फिर?” मैंने पूछा,

“अब बाबा नीचे उतरे, संग बिन्ना को लिया, हम वहीँ रुक गए, बाबा गड्ढे तक गए और वहाँ कुछ सामग्री डाल दी उसके चारों तरफ!” वे बोले,

“सर्प-बंध क्रिया!” मैंने कहा,

बाबा ने फिर से मुझे देखा!

“हाँ!” वे बोले,


   
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फिर?” मैंने पूछा,

“फिर बाबा ने कहा कि वो आज ये काम नहीं करेंगे, वे कल सुबह ये काम करेंगे, और हम सब वहाँ से हट गए, बाबा आये ऊपर बिन्ना के साथ और फिर हम वहाँ से नीचे आ गए, जहां वो सांप थे कुछ समय पहले, बाबा ने कहा कि आज रात वहीँ ठहरेंगे हम सब” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“हाँ, यही कहा था बाबा ने” वे बोले,

“अच्छा!” वे बोले,

“तो सुबह?” मैंने पूछा,

“उस रात हम सो नहीं पाये, डर था कि कल सुबह क्या हो? हमने साथ लाया हुआ खाना खाया, और आपस में बातें करते रहे, बाबा ने हमारे चारों ओर एक घेरा खींच दिया और फिर हमको सुरक्षित कर दिया!” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“हाँ” वे बोले,

“फिर सुबह?” मैंने पूछा,

“सुबह हम उठे, अपने आसपास देखा तो बुरा हाल था, कीड़े-मकौड़े और बिच्छू आदि वहीँ पड़े थे, मरे हुए, बड़े बड़े बिच्छू! बाबा ने रक्षण नहीं किया होता तो वहीं मौत हो गयी होती उस रात हमारी!” वे बोले,

“इसीलिए रक्षण किया था!” मैंने कहा,

“हाँ” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

उसके बाद उन्होंने मग पकड़ा, मग में पानी नहीं था, शर्मा जी पानी लेने चले गए उनके लिए और फिर पानी ले आये, बाबा को पानी दिया और बाबा ने पानी पिया और मुंह पोंछा अपना!

“फिर बाबा?” मैंने पूछा,


   
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“अब बाबा ने हमको संग आने को कहा, हम फिर से ऊपर चढ़े, और गड्ढे को देखा, गड्ढा बंद था, बाबा ने हमको वहीँ रोका और साथ में बिन्ना को लिया..” वे बोले,

तभी खांसी उठी बाबा को, अंगोछे में खांसा उन्होंने, गला साफ़ किया, और फिर से बोलने लगे,

“वे नीचे उतर गए, और गड्ढे के पास बैठ गए दोनों, अपने अपने झोले वहीँ रख दिया गड्ढे के मुहाने पर, हम टकटकी लगाए वहीँ देख रहे थे, अब बाबा ने फिर से मंत्र पढ़ने शुरू किये, कोई आधा घंटा बीटा और गड्ढे की मिट्टी हटने लगी अपने आप!” वे बोले,

”अच्छा!!” मैंने कहा,

“मिट्टी हटती रही, और बाबा के मंत्र और तेज होते रहे, मिट्टी में से छोटे छोटे शंख निकलने लगे, घोंघों के से शंख, लम्बे लम्बे, लेकिन थे छोटे छोटे, फिर मिट्टी का रंग बदलने लगा, पहले सफ़ेद दी, सूखी हुई अब वो गीली सी निकलने लगी, फिर पीली निकली, और फिर लाल!” वे बोले,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“बाबा ने एक मुट्ठी मिट्टी उठायी और उसको उस मिट्टी के ढेर पर एक मंत्र पढ़ते हुए रख दिया, वो मिट्टी धसकने लगी, सारी मिट्टी! और फिर!!!” वे चुप हुए कहते कहते!

“फिर?” मुझसे रहा न गया!

“वो मिट्टी धसकती गयी, नीचे और नीचे और वहाँ एक गड्ढा बन गया!” वे बोले,

“अच्छा! वाह!” मैंने कहा!

“अब वे दोनों खड़े हुए और गड्ढे की एक परिक्रमा की, फिर उसके बाद बाबा फिर से बैठ गए, मुंह से कुछ कहा, मैं नहीं सुन सका! और उनके कहते ही वहाँ एक सुनहरा सर्प निकला, बहुत बड़ा! बहुत बड़ा सर्प! उसके सर को देखकर लगता था कि वो कम से कम आठ-दस मीटर का तो होगा ही!” वे बोले,

“आठ-दस मीटर?” मैंने आश्चर्य से पूछा,

“हाँ! इतना तो रहा होगा!” वे बोले,

“गड्ढे से?” मैंने पूछा,

“हाँ” वे बोले,


   
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