और उसके गुर्दे भी, फिर उनको उसी रक्त-पात्र में डुबो कर रख दिया और फिर अलख के सम्मुख बैठ गया! भुवन नाथ ने भी लगभग ऐसा ही किया था और बस अंतर ये था कि मैंने जहां गुर्दे निकाले थे उसने अंडकोष निकाले!
अब दोनों अलख पर बैठे और अलख-जाप आरंभ हुआ! वो मंत्र पढने में निपुण था! एक श्वास में पूरा मंत्र पढ़ जाता था! मेरे से अच्छी गति थी उसकी! उसने फिर से एक साध्वी को आसन बनाया और मैंने उस घाड़ को! कटम्ब नाथ अब पीछे हट गया था! अर्थात अब सञ्चालन मात्र भुवन नाथ के हाथों में ही था! भुवन नाथ हवा में त्रिशूल लहराता हुआ अभय-जाप करता जाता और मै यहाँ अपना चिमटा खड़खड़ाकर मस्त हो गया था! मदिरापान निरन्त चलता रहा दोनों का ही! दोनों ही अडिग थे और शत्रु-भेदन को अग्रसर! मेरी साध्वी नीचे पड़ी थी! भयावह माहौल था वहाँ! मरघट में जान आई हुई थी! पूर्ण-यौवन था उसमे! मै चिमटा खड़खड़ाता झूमे जा रहा था! वहाँ भुवन नाथ मस्त हो गया था! हवा में त्रिशूल कि चक्रावस्था में लहराता जा रहा था! मंत्र-ध्वनि से शमशान गुंजायमान था!
भुवन नाथ उठा, कलेजे के नौ टुकड़े किये, और एक थाल में जाए एक त्रिभुज बनाकर रक्त से! ये महा-भोग था काकड़ा का! सेवड़ा की भांति काकड़ा भी परम शक्तिशाली महाशक्ति है! उसका भोग सजाया जा रहा था! धूपबत्ती सुलग रही थी! अलख पूर्ण यौवन पर थी! अब मेरा जप समाप्त हुआ! मै उठा और एक थाल में एक वृत्त अंकित किया रक्त से! उस वृत्त में त्रिभुज बनाया! इनको शक्ति-चिन्हांकन कहा जाता है! इसमें मैंने अब सम्पूर्ण कलजी राखी और फिर गुर्दे! ये कूष्मांडा-सुन्दरी का भोग था! दो प्रलय-रुपी औघड़ शक्तियां!
रात्रि के दो बज चुके होंगे! दो औघड़ अपने अस्तित्व और मान-सम्मान के लिए प्राण दांव पर लगाये बैठे थे! अब अंतिम जाप आरम्भ हुआ! भुवन नाथ ने खड़े हो कर अपना त्रिशूल उठाया और फिर नृत्य-मुद्रा में आह्वान करने लगा! और यहाँ मैंने भी ऐसा ही किया! मैंने कूष्मांडा-सुन्दरी का आह्वान कर लिया! वायुमंडल में जैसे सबकुछ स्थिर हो गया था! कण आदि जैसे स्थिर हो गए! वृक्ष जैसे हिलना भूल गए, कीड़े-मकौड़े जैसे जड़ हो गए और मेरा हृदय धड़कने लगा! उसके सेवकगण प्रकट हुए! ये परम शक्तिशाली कूष्मांडा-सुन्दरी के सेवक हैं, ये उस स्थान को वो रूप देते हैं जहां ये सुन्दरी प्रकट होती है! दस सहस्त्र कपाल-रुदन प्रेतों द्वारा सेवित, चौरासी महाशक्तिशाली सहोदारियों से सेवित होती है ये सुन्दरी! नभ-मंडल वासिनी ये सुन्दरी सदैव जागृत रहती है, सर्वकाल बली है! और काकड़ा रात्रिकाल बली! वहाँ काकड़ा प्रकट हुई और भुवन नाथ के इंगित करने पर मेरा भक्षण करने हेतु वहाँ से दौड़ चली! यहाँ प्रधान सहोदरी सुभगिनी प्रकट हुई, जैसे कि सीढियां उतर रही हो! मैंने नमन किया उसका! और तब क्षण भर में ही काकड़ा अपना मुंह चौडाए प्रकट हुई अपनी सहोदरी के साथ! यहाँ सुभगिनी ने अपनी भृकुटी तानी और फिर एक भयानक शोर हुआ! शून्य में से दिव्य-प्रकाश सहित कूष्मांडा-सुन्दरी प्रकट हुई! कूष्मांडा ने अपना खडग ऊपर उठाया और फिर देखते ही देखते काकड़ा हुई लोप! मै अब गिरा भूमि पर! काकड़ा वापिस हुई और उनके समक्ष भूमि में समा गयी! ये देख दोनों के प्राण सूख गए! तभी सुभगिनी यहाँ से लोप हुई और सीधा प्रकट हुई भुवन नाथ और कटम्ब नाथ के यहाँ! कूष्मांडा-सुन्दरी उसके पास थी नहीं! उसने कभी स्वपन में भी इस पल के बारे में नहीं सोचा होगा! अब दोनों भागे वहाँ से! अलख बुझ गयी उनकी! ये सुभगिनी ने भुवन नाथ और कटम्ब नाथ को पांव की एक थाप से नीचे गिराया!
कपल-रूदन महाप्रेतों ने दोनों को अब पटकना आरंभ किया! कभी भूमि पर पटकते कभी वृक्षों पर पटकते! मार मार के हड्डियां तोड़ डालीं उनकी! कटम्ब नाथ का एक हाथ जड़ से उखाड़ डाला! भुवन नाथ खून की उल्टियां करने लगा! उसकी हड्डियां चरमरा गयीं! दोनों ने हाय हाय चिल्लाना आरंभ किया! अब आया धर्मा वहाँ! उसने दोनों की हालत देखी तो भाग छूटा! धर्मा को उठा लिया गया हवा में! पटक के मारा नीचे! दोनों टाँगे घुटने से नीचे की उखाड़ के फेंक दी नदी में! वहाँ अब कराहने का मेला सा लग गया! भुवन नाथ बेहोश हो गया था! और मैं यहाँ मैंने खड़े होने की कोशिश की पर नीचे गिर पड़ा! मैंने कूष्मांडा-सुन्दरी को नमन किया और चेतनाहीन सा हो गया! देह साथ नहीं दे रही थी! लग रहा था वर्षों से सोया नहीं हूँ मै!
मै कितनी देर वहाँ पड़ा रहा पता न चला! पर कूष्मांडा-सुन्दरी को एक बार फिर से नमन किया! पर मुझे चिंता थी उस घाड़ की और अपनी साध्वी की!
मैंने चेतना बटोरी! खड़ा हुआ! मैंने अनेकों मंत्र साध्वी के लिए पढ़े और किसी तरह से अपनी साध्वी को चेतना में लाया! वो सामान्य हो गयी! मैंने उसको वापिस जाने के लिए कह दिया! वो गिरती पड़ती किसी तरह से भागी रुद्रनाथ के पास! मै उसे जाते देखता रहा और फिर मेरा मुंह मिटटी में धंस गया! फिर अचानक से खड़ा हुआ और अट्टहास किया! फिर अचानक मेरे आंसू निकले और रो पड़ा! मै उस घाड़ को अपनी विजय-गाथा सुनाता रहा! उसको चिमटे से कोंचता, उसके कानों के पास जाकर उसको बताता! रोता रोता! फिर हँसता! कभी उसके हाथ को हाथ में लेता कभी उसके ऊपर बैठता! फिर चिल्लाता! फिर रोता!
अब तक रुद्रनाथ और शर्मा जी आये भागे भागे! शर्मा जी ने मुझे चादर में लपेटा! मुझे सहारा दिया! परन्तु मै उनको भी नहीं पहचान पाया! उनको मै कभी भुवन नाथ कहता और कभी कटम्ब नाथ! शरीर में जान नहीं रही थी! हाथ उठते नहीं थे, पांव हिलते नहीं थे! पर शर्मा जी और रुद्रनाथ के साथ आये लोगों ने मुझे उठाया और ले गए डेरे पर! वहाँ से रुद्रनाथ ने सारा सामान और वो घाड़ उठवा दिया रात ही रात में! मै कक्ष में आते ही बेहोश हो गया!
मै बेहोश हो गया था, पर शर्मा जी ने मुझे बताया कि मै रात को यकबायक कटम्ब नाथ और भुवन नाथ को गालियाँ देता रहा! उसको मै गालियाँ देता और फिर हँसता और फिर रोता! इतनी चोट थी मेरे हृदय में उनकी! मुझे लग रहा था कि अभी तक द्वन्द चल रहा है वहाँ! मै साध्वी साध्वी चिल्लाता था! ऐसा होता रहा मेरे साथ!
मै करीब दिन में दो बजे उठा! अपने आसपास देखा, लगा मै यहाँ कैसे आ गया? मै तो क्रिया-स्थल में था? फिर ध्यान आया मुझे कि हुआ क्या था! मुझे हंसी आई अब! मै उठा और स्नान करने चला गया! जब वापिस आया तो शर्मा जी और रुद्रनाथ वहीं खड़े थे! रुद्रनाथ ने मुझे प्रणाम किया और पाँव छुए!
"गुरु जी! हो गया फैसला!" उसने कहा,
"हाँ रुद्रनाथ! हो गया फैसला! मिल गया करनी का फल उनको!" मैंने कहा,
"ये तो हमको मालूम ही था गुरु जी!" रुद्रनाथ ने कहा!
तभी मेरा फ़ोन बजा! मैंने उठाया और देखा, ये शोभना का फ़ोन था! मैंने झट से बात करनी शुरू की और कमरे से बाहर आ गया! उसको मैंने अपनी विजय-गाथा सुनाई! वो सुन कर खुशी से झूम उठी!
उसने बताया कि वो कल रात से सोई नहीं बस वो प्रतीक्षा करती रही इस खबर का! बहुत बातें हुईं! फिर मैंने उसको बताया कि मैं आज यहाँ से चलूँगा और कल उसके पास पहुँच जाऊँगा! ऐसा सुन शरमा गयी शोभना! फ़ोन बंद किया और मै कमरे में आया!
"रुद्रनाथ, वो आरिका कहाँ है?" मैंने पूछा,
"अभी लाता हूँ बुला कर, यहीं है वो" उसने बताया,
रुद्रनाथ गया, अब शर्मा जी मुझसे गले मिले! मुझे अपने गले से काफी देर तक लगाया! और फिर बोले, "अब, काशी?"
"हाँ!" मैंने कहा,
"ठीक है!" वे बोले,
मै बैठ गया!
तभी वो अरिका आ गयी! मैंने उसको भी गले से लगाया! और कहा,"आरिका यदि तुम न होती तो मै भी न होता आज यहाँ!" मैंने कहा,
"आपकी आज्ञा निर्वाह करनी थी मुझे!" उसने कहा,
"रुद्रनाथ, जो भी ये चाहे इसको दे देना!" मैंने कहा, और फिर मैंने एक बार उसको फिर से गले से लगाया!
आरिका गयी! तब रुद्रनाथ ने हमें भोजन-पानी करवाया! मैंने सारा सामान बंधा और फिर कोई आधे घंटे के बाद हम वहाँ से रवाना हो गए! रुद्रनाथ ने हमको बस अड्डे छोड़ा और विदा ली हमने!
अब हमारा गंतव्य था काशी! जहां शोभना प्रतीक्षारत थी!
सफ़र बहुत लम्बा और नीरस था! पूरे सफ़र में मुझे फिर से शोभना के साथ बीते पल याद आते रहे! और अगले दिन संध्या से पहले हम वहाँ पहुंचे! मै अपने एक जानकार के होटल में ठहरा, मैंने अब शोभना को फ़ोन किया कि मै आ चुका हूँ काशी! और मुझे बताये कि मै कहाँ आऊं? उसने मुझे उस जगह का पता दे दिया जहां मुझे उस से मिलना था! मैंने करीब आधे घंटे आराम किया! अब आराम क्या करना था! बेचैनी बढती जा रही थी! मै निकल पड़ा!
उस जगह पहुंचा, ये कोई मठ सा था! मै यहाँ पहली बार आया था उस रोज़ वहाँ! मैंने फ़ोन किया शोभना को तो उसने एक सहायिका को नीचे भेज दिया, वो मेरे पास आई और मैं उसके साथ चल पड़ा! रात्रि हो चली थी, बत्तियां जल चुकी थीं! सहायिका मुझे दूसरी मंजिल पर ले गयी! और एक कक्ष के सामने मुझे छोड़ दिया और मुझे इशारा कर बता दिया कि शोभना अन्दर हैं! और चली गयी वापिस!
मैंने कंपकंपाते हाथ से दरवाज़ा खटखटाया, केवल एक बार!
दरवाज़ा खुला और मेरे सामने शोभना खड़ी थी! गहरी नीले रंग की साड़ी पहने! मै और वो एक दूसरे को ऐसे ही देखते रहे कुछ पल तक! उसने मेरा हाथ थामा और अन्दर खींच लिया! दरवाज़ा बंद किया अन्दर से! उसके बदन की महक की याद ताज़ा हो गयी! मैंने उसको खींच के गले लगाया! मै और वो इसी तरह एक दूसरे के प्रेम-पाश में जकड़े हुए खो गए! |
पूरी रात मैंने उसके साथ गुज़ारी! मेरा और उसका मिलन हो गया था!
आज भी मेरा उसके साथ संपर्क है! मैं जब भी काशी जाता हूँ तो सबसे पहले उसी से मिलता हूँ! कह सकते हैं कि मै उसके स्पर्श के लिए सदैव लालायित रहता हूँ!
अब बात धर्मा, कटम्ब नाथ और भुवन नाथ की! धर्मा की दोनों टाँगे घुटने से नीचे की नहीं हैं! अपंगता के कारण वो कोई सिद्धि-साधना करने से लाचार है! उस दिन के बाद से आज तक वो अपने डेरे में ही है! अपंग और लाचार!
कटम्ब नाथ के साथ भी ऐसा ही हुआ था! वो भी अपंग होने के कारण लाचार है, गत-वर्ष वो मुझे एक बार काशी में टकराया था! उसने नज़रें बचा ली थीं मुझसे! ये मेरी उस से आखिरी मुलाक़ात थी!
अब भुवन नाथ! भुवन नाथ को बहुत गहरी अंदरूनी चोटें पहुंची थीं, आतें फट गयी थीं और फेंफड़े भी फट गए थे, साढ़े तीन महीने अस्पताल के बिस्तर पर लेटे लेटे उसकी मौत हो गयी! मुझे उस प्रबल-औघड़ की मौत का बेहद अफ़सोस है! आज भी
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प्रबल शक्तिशाली गुरुजी, किन्तु लेश मात्र भी शक्ति का कोई दिखावा नहीं निश्छल एक शिशु भांति सिर्फ शुद्ध चेतन मन, सीखने ओर सिखाने को सदैव तत्पर, कोटिशः प्रणाम आपके श्री चरणों में, स्वीकार करें 🌹🙏🏻🌹