वर्ष २००९ गढ़वाल की...
 
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वर्ष २००९ गढ़वाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"एक काम करना, उस साध्वी को लाना मेरे पास, मुझे जांच करनी है, एन वक़्त पर कुछ नहीं हो पायेगा" मैंने कहा,

"मै अभी दो घंटे तक उसको ले आऊंगा" उसने कहा,

"ठीक है" मैंने कहा,

"हाँ, जाँच आवश्यक है" उसने कहा,

मित्रगण! साधक को क्रिया में साध्वी का स्वयं चयन करना पड़ता है, अपनी कद-काठी के अनुसार, साधक के भार के अनुसार!

रुद्रनाथ चला गया वापिस! और कोई आधे घंटे में आया! इस बार स्वयं छील के लाया था फल!

"यहाँ भी फल!" मैंने कहा,

"हाँ जी!" उसने मुस्कुराते हुए कहा,

"बढ़िया है!" मैंने कहा और खाना आरंभ किया!

"रुद्रनाथ? तूने देखी है वो साध्वी?" मैंने पूछा,

"हाँ, आपके लिए उपयुक्त है" उसने कहा,

एक चिंता और हटी!

फल ख़तम हुए तो और ले आया काट कर!

"रुद्रनाथ! तूने बड़ी सहायता की है मेरी!" मैंने कहा,

"अरे गुरु जी, ये मेरा कर्तव्य है!" उसने कहा,

"तुझे बजंग नाथ के समक्ष खड़ा कर दूंगा!" मैंने कहा,

उसने मेरे पांव पकडे!

"आपका आशीर्वाद बना रहे बस!" उसने कहा,

"सदैव!" मैंने कहा,

"बजंग नाथ कहाँ है आजकल?" मैंने पूछा,

"हरिद्वार की तरफ है कहीं" उसने बताया,

"अच्छा! समझ गया, मस्त-बाबा के पास!" मैंने कहा,

"हां! हाँ!" उसने कहा,

अब उसने तश्तरी उठाई और चला गया बाहर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ग्यारह बजे करीब रुद्रनाथ एक चिलम को और एक साध्वी को ले आया, साध्वी ठीक थी, देह उसकी उन्नत थी, उम्र होगी कोई बीस-इक्कीस वर्ष, मैंने रुद्रनाथ और शर्मा जी को और उस चिलम को बाहर भेज दिया, रह गयी अब अकेली वो, और दरवाज़ा बंद कर दिया अन्दर से!

"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,

"आरिका" उसने बताया,

"बड़ा छांट के नाम रखा है! इसका अर्थ होता है वो स्त्री जिसका शरीर मादकता से भरपूर होता है!" मैंने कहा,

वो मुस्कुराई!

"किसने रखा?" मैंने पूछा,

"मेरी बड़ी बहन ने" उसने बताया,

"उसका क्या नाम है?" मैंने पूछा,

"सारिका" उसने बताया!

"वाह! सारिका और आरिका! लेकिन नाम अच्छा है तुम्हारा!" मैंने कहा,

वो हंसी अब, संकोच समाप्त होने का आरम्भ होने लगा था उसका!

"उम्र कितनी है तुम्हारी?" मैंने पूछा,

"इक्कीस में चल रही हूँ" उसने बताया,

"कहाँ रहती हो?" मैंने पूछा,

"यहीं के एक गाँव में" उसने बताया,

"कभी किसी क्रिया में बैठी हो?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने बताया,

"ये पहली बार है?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"कोई दिक्कत-परेशानी तो नहीं है तुमको, पैसे की या अन्य कोई विवशता?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

ये पूछना पड़ता है, कई बार कुछ स्त्रियाँ विवशता में ऐसा कार्य कर डालती हैं और फिर उनका निरंतर शोषण होता है! इसीलिए मैंने पूछा,

"स्वेच्छा से आई हो?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"किसी से कोई प्रेम-प्रसंग तो नहीं?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"कभी पुरुष-संसर्ग किया है?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने बताया,

"कभी किसी पुरुष को 'स्पर्श किया है?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने बताया,

"कौमार्य सुरक्षित है तुम्हारा?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"मै जांचूंगा तुमको!" मैंने कहा,

"जांच लीजिये" उसने कहा,

"अपने वस्त्र उतारो" मैंने कहा,

वो थोडा सा सकपकाई लेकिन फिर उसने अपने वस्त्र उतारने आरम्भ किये, उसके शरीर पर कहीं भी कोई ज़ख्म अथवा त्वचा-रोग नहीं होना चाहिए, लेशमात्र भी!

उसने अपने वस्त्र उतारे और मेरे सामने कड़ी हो गयी, परन्तु उसने अपने अन्तःवस्त्र नहीं उतारे थे!

"इन्हें भी उतारो" मैंने कहा,

उसने धीरे धीरे अपने अन्तःवस्त्र उतारने आरंभ किये,

उसने अन्तःवस्त्र उतार दिए, उसकी देह सुडौल और सुगठित थी, ये सही था, केश भी कमर तक थे, नाभि भी कूप-रुपी थी, ये भी सही था, उसकी योनि-प्रदेश भी अवतल-रुपी और उत्तम परिमाप में था, पिंडलियाँ पुष्ट थीं, स्तन भी उन्नत थे और पांसू नहीं दिख रहे थे, ये भी ठीक था! नितम्ब-क्षेत्र भी उन्नत था, देह के हिसाब से वो उत्तम साध्वी थी, अब जांच करनी थी उसके कौमार्य की!

"सामने लेट जाओ" मैंने कहा,

वो लेट गयी,

"अपनी टांगें फैला लो" उसने फैला लीं,

अब मैंने एक मंत्र-जागृत किया और फिर उठकर उसके पास गया, मैंने उसकी नाभि में ऊँगली डाली और कुछ क्षण ऑखें बंद कर लीं, उसका कौमार्य सुरक्षित था! कुल मिलकर रुद्रनाथ ने उत्तम साध्वी का चयन किया था!

"ठीक है, वस्त्र धारण कर लो पहले" मैंने कहा,

उसने वस्त्र धारण कर लिए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सुनो, क्रिया-स्थल में जैसा मै कहूँगा, करूँगा और करवाऊंगा उसमे कोई ना-नुकुर नहीं होनी चाहिए, स्वीकार है?" मैंने पूछा,

"जी" उसने कहा,

"कोई शंका हो तो अभी निवारण कर लो" मैंने पूछा,

"नहीं, कोई शंका नहीं" उसने कहा,

"रजस्वला हुए कितने दिने हुए?" मैंने पूछा,

"ग्यारह दिन" उसने फ़ौरन ही बता दिया!

"ठीक है, अब जाओ और ठीक आठ बजे यहाँ आ जाना, तुम्हारी देह-शुद्धि करनी है" मैंने कहा,

"जी, मै आ जाउंगी" उसने कहा,

अब उसने प्रणाम किया और दरवाज़ा खोलकर बाहर चली गयी! उसके बाहर जाते ही रुद्रनाथ और शर्मा जी आ गए अन्दर!

"कैसी है?" रुद्रनाथ ने पूछा,

"उत्तम! मानना पड़ेगा तुझे!" मैंने मज़ाक किया!

"कम से कम दस देखीं, तब जाके ये मिली" उसने बताया,

"बढ़िया किया" मैंने कहा,

"मै खाना लाता हूँ" उसने कहा और चला गया बाहर,

"ठीक है ये साध्वी?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ ठीक है" मैंने कहा,

"चलो ठीक है" वो बोले,

"आठ बजे बुलाया है इसको मैंने, शुद्धि एवं मार्जन कार्य है" मैंने कहा,

"हम्म" वे बोले,

रुद्रनाथ खाना ले आया, हमने हाथ धोकर खाना, खाना आरम्भ किया! साथ में मदिरा भी लाया रुद्रनाथ! पैग बनाए और धीरे धीरे आनंद लेते रहे!

"क्या एवज ली इस चिलम ने?" मैंने पूछा,

"वो मै देख लूँगा" उसने कहा,

"फिर भी?" मैंने कहा,

"कुछ नहीं" वो बोला,

"कुछ नहीं??" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं बता दूंगा, आप पहले अपनी क्रिया से निबट लीजिये" उसने कहा,

"ठीक है" मैंने कहा,

हमने खाना खा लिया! अब थोडा आराम करना था, सो लेट गए! आँख लग गयी!

और जब नींद खुली तो पांच बज रहे थे!

"शर्मा जी? उठिए" मैंने कहा,

वे उठ गए!

"क्या समय हुआ?" उन्होंने पूछा,

"पांच बज गए हैं" मैंने कहा,

"बड़ा समय हुआ!" उन्होंने कहा!

"हाँ!" मैंने कहा,

"रुद्रनाथ को देखिये कहाँ है?" मैंने कहा,

"अभी देखता हूँ" वे बोले और चप्पल पहन चले गए बाहर, वापिस आये,

"यहाँ तो है नहीं?" वे बोले,

"गया होगा कहीं" मैंने कहा,

"क्या काम था?" उन्होंने पूछा,

"कुछ नहीं, ऐसे ही! सोचा चाय ही पी ली जाये!" मैंने कहा!

अब संध्या हुई! मैंने क्रिया-स्थल का निरीक्षण किया, रुद्रनाथ ने साफ-सफाई करवा दी थी वहाँ! के, मैंने अपना सारा सामान वहाँ ला कर रख दिया! अभी सात बजे थे, अब मै स्नान करने गया, वापिस आया और फिर मैंने वहाँ का निरीक्षण किया, अब मै वहां से बाहर नहीं जा सकता था, ये एक साधक की विवशता तो नहीं हाँ तांत्रिक-नियम है! समय तेजी से भागे जा रहा था! मैंने रुद्रनाथ के लाये हुए मांस एवं उनके रक्त-पात्र वहीं रख दिए, थाल सजा दिए! उनमे तांत्रिक-चिन्ह अंकित किया रक्त से! मेरे पास ज़िन्दा बकरा और एक मेढ़ा भी था, वो पास में ही बंधा हुआ था, और मुर्गे एक पिंजरे में बैठे थे! एक पात्र में मैंने चिता-भस्म डाली और अपने । अंगूठे का रक्त भी, और कुछ रक्त उस भोग का भी जो अर्पित किया जाना था, अब उसको आटे की तरह गूंदा और अपने शरीर पर मल लिया, केश खोल दिए, केशों पर भी चिता-भस्म मली और गूंथ लिए केश उस से! अपने त्रिशूल के फाल को चिता-भस्म से सजाया, तीनों कपालों के माथे पर तिलक किया! और फिर एक महा नाद!

अब तक क्रिया-स्थल पर आरिका भी आ गयी थी, मैंने उसको वहीं बिठाया, अब अपना आसन लगाया, उसके लिए भी आसन लगाया, और तभी कोई आधे घंटे के बाद, एक बुग्घी में रुद्रनाथ दो सहायकों के साथ एक घाड़ को ले आया! उन्होंने एक कपडा बिछा कर उस घाड़ को वहाँ रख दिया, मुझे घाड़ में प्राण सृजन नहीं करने थे, बल्कि उसको आसन बनाना था! ये था उसका औचित्य! रुद्रनाथ वहां से मुझे हाथ जोड़ कर चला गया! मैंने अपनी लंगोट खोली और लिंग को मदिरा से धोया, और फिर उस पर


   
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श्रीशः उपदंडक
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भस्म लेप कर लिया! अब मै चला अरिका के ओर! मुझे देख आरिका खड़ी हो गयी, मैंने उसको पूर्ण-नग्न किया और उसके शरीर पर रक्त से चिन्ह अंकित किये और फिर उसकी योनि को मदिरा से धो दिया और उसको भस्म से एक मंत्र पढ़ कर लीप दिया! और उसके शरीर पर भस्म मल दी!

"आरिका?" मैंने कहा,

"जी?" उसने कहा,

"वो मांस के इक्कीस टुकड़े उठाओ, इस सुएँ से इनको बीन्धों और अपने केश तोड़ कर उसका धागा बनाओ और फिर माला" मैंने कहा!

उसने ऐसा ही किया, बाल तोड़े, धागा बनाया और उसे पिरो दिया उन टुकड़ों में, माला बन गयी, वो मैंने उसके गले में अभिमन्त्रण करके ध्हरण कर दी!

"सुनो साध्वी, मेरी गोद में बैठो' मैंने कहा, और मैंने चौकड़ी मार ली!

वो उठी और मेरी गोद में बैठ गयी,

"सामने रखा पात्र उठाओ" मैंने कहा,

उसने उठाया!

"अब इसमें मदिरा परोसो" मैंने कहा,

उसने परोस दी,

"अब इसको एक ही साँस में पी जाओ" मैंने कहा,

उसने वैसा ही किया!

"वो एक टुकड़ा उठाओ मांस का" मैंने कहा,

उसने उठाया!

"अब इसको खा जाओ" मैंने कहा,

उसने खा लिया!

"और मदिरा परोसो" मैंने कहा,

उसने वही किया,

"मुझे दो" मैंने कहा,

उसने दिया, मैंने एक ही सांस में अधिष्ठात्री का नाम ले गटक गया!

अब अलख उठाने का समय था!

"उठो साध्वी" मैंने कहा,

वो उठी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मै भी उठा और अलख उठा दी! अलख नमन किया और अलख भोग दिया!

"साध्वी, वो मदिरा डालो दो पात्रों में" मैंने कहा,

उसने डाली!

एक गिलास उसको दिया और एक मैंने लिया!

"अब पी जाओ" मैंने कहा,

जब वो पी रही थी वो मैंने अपना गिलास उसके सर पर उड़ेल दिया! ये मंत्र-प्रयोग एवं जागरण होता है!

अब मै उस घाड़ के पास गया! कपडा हटाया, ये कोई तीस-पैंतीस वर्ष होगा, मैंने उसके पांव के दोनों अंगूठे एक रस्सी से खींच खींच के बांध दिए! उसके शरीर पर चिन्ह अंकित किये और उसको पेट के बल लिटा दिया! उसके सर के पीछे के बाल काटे और अलख में झोंक दिए! घाड़-आसन तैयार था अब!

मैंने साध्वी को और मदिरा पिलाई! वो उन्मत्त हुई! जैसा मै चाहता था वैसा ही हुआ!

मै आसन पर लेटा!

"सुनो साध्वी, मेरे लिंग के ऊपर इस तरह से बैठो जैसे की सम्भोग-स्थिति होती है" मैंने कहा, ये अंतिम प्रयोग था उसके बाद उसमे मैंने किसी का प्रवेश कराना था! तब वो आरिका नही रहने वाली थी!

वो उठी, उसका शरीर मदिरा के प्रभाव में आ गया! वो मेरे ऊपर बैठ गयी! मित्रगण! ऐसी अवस्था में यदि साधक के लिंग में तनाव आ जाये तो सारी क्रिया समाप्त हो जाएगी वहीं! उस से अपने शरीर का वजन नहीं संभल रहा था! वो बार बार कभी आगे तो कभी पीछे गिरने लगती थी! मैंने उसको संभालने के लिए उसके बाल पकड़ रखे थे! अचानक मुझे अपने लिंग-स्थान में उसका योनि-स्राव महसूस हुआ! अब समय आ पहुंचा था! मैंने उसको वहां से हटाया और अलख के सामने बिठा दिया, वो गिर पड़ी नीचे! उसका योनि-स्राव निरंतर हो रहा था! अब मैंने तीन गिलास मदिरा के डकोसे! और आरम्भ कर दिया महा-मंत्रोच्चार! मै उस साध्वी के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता और उस पर मूत्र-त्याग करता जाता!

सहसा वो उठी! उठते ही तेज तेज सांसें ली! अब हुआ उसका अट्टहास आरम्भ! वो खड़े हो कर नाचने लगी! अट्टहास पर अट्टहास! कभी आकार मुझे लात मारती कभी केश खींचती! मैं अपना त्रिशूल दिखा कर उसको हटा देता! फिर एक दम धड़ाम से गिर गयी! भद्रांगी का प्रवेश हो गया था उसमे!

ये क्रिया अथवा भद्रांगी-प्रवेश उस साध्वी की देह-रक्षण एवं प्राण-रक्षण के लिए किया जाता है, कहीं दूसरा औघड़ साध्वी को कोई कष्ट ना पहुंचा दे! इसीलिए! अब मैंने कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान किया! उसका भोग समक्ष रखा अपने! मंत्रोच्चार आरम्भ किया! रक्त के छींटे छिडके! और करीब पंद्रह मिनट के बाद वो प्रकट हो गयी! भोग अर्पित कर दिया! वो लोप हुई! अब अदृश्य रूप में मेरी सहायता के लिए तत्पर थी!

मै अब उठकर साध्वी के पास गया! उसको खड़ा किया उसके हाथ पकड़ कर! वो वहीं बैठ गयी! उसके चेहरे पर क्रोध, काम के भाव आ जा रहे थे! मैंने अपना चिमटा लिया और उसके स्तन पर मारा! उसने क्रोध से मुझे देखा! मैंने मदिरा पिलानी आरंभ की उसको, वो ओख लगा पूरी बोतल पी गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"भद्रांगी?" मैंने कहा,

"बोल?" उसने चिल्ला के बोला,

"मेरी रखैल है ना तू?" है या नहीं?" मैंने पूछा,

वो बस कुत्ते की तरह से गुर्राती रही! अब मैंने अपने चिमटे से उसके स्तन को और ज़ोर से मारा!

"जवाब दे?" मैंने कहा,

"हाँ! हूँ!" उसने कहा और अट्टहास किया!

"जैसा मै कहूँगा करेगी?" मैंने कहा,

"हाँ!" उसने कहा,

"जा उस घाड़ के सर पर मूत्र-त्याग कर!" मैंने कहा,

वो उठी और खड़े खड़े मूत्र त्याग कर दिया! घाड़ भी रक्षित हो गया!

"इधर आ" मैंने कहा और प्रेयसी के समान प्रेम किया उसको! करना पड़ता है! ये भद्रांगी की शक्ति बटोरने के लिए होता है!

"आ जा! बैठ यहाँ" मैंने ज़मीन पर चिमटा मारके कहा,

वो वहाँ आके बैठ गयी! उसकी निगाह मेरे लिंग पर पड़ी! उसने एक हाथ से लिंग पकड़ा और दूसरे से मेरे अंडकोष! भयावह स्थिति! कोई गलती, तो जान पर बनी! मैंने फिर से उसके सर पर चिमटा मारा!

"अभी रुक जा! रुक जा!" मैंने कहा और अपने आपको पीछे खींचा, पीड़ा तो हुई परन्तु मै छूट गया!

वो उठके आने लगी, मैंने अपना त्रिशूल दिखाया तो वापिस बैठ गयी!

मित्रो! भद्रांगी काम-पिपासु महा-शाकिनी होती है! ये रखैल के नाम से जानी जाती है! इस से प्रेमवत व्यवहार करना पड़ता है! साधक की शक्ति दोगुनी कर देती है! इसीलिए इसका प्रवेश कराया जाता है! अब मैंने फिर से मदिरा पी और अपने आसन पर बैठ गया! देखने को! कटम्ब नाथ और भुवन नाथ को! दस बजने में मात्र बीस मिनट शेष थे!

अब मैंने शत्रु-वेध-साधन का संधान किया और नेत्र बंद किये! मेरे मस्तिष्क में कटम्ब नाथ और भुवन नाथ का दृश्य स्पष्ट होता चला गया! वे जिस स्थान पर बैठे थे वे नदी किनारे का एक स्थान था, स्थान उचित प्रकार से चुना गया था! बड़े बड़े वृक्षों के मध्य उन्होंने अपनी अलख उठाई थी, उसने कुछ ही दूरी पर धर्मा अपनी चेलामण्डली के साथ बैठा था, मदिरा चल रही थी! अब मैंने दृष्टि कटम्ब नाथ पर टिकाई! कटम्ब नाथ अलख की बायीं ओर बैठा था, अस्थि-माल धारण किया, अस्थि-भुजबंध धारण किये! चिता-भस्म से उन दोनों ने ब्रह्म-स्नान किया था! भुवन नाथ के साथ दो साध्वी बैठी थीं! हाँ कोई घाड़ नहीं था वहाँ, दूर दूर तक! कटम्ब नाथ और भुवन नाथ के खबरी और भेद-विद्या उन्हें मेरे पल पल की जानकारी दे रहे थे! और फिर! फिर कटम्ब नाथ ने द्वन्द आरम्भ किया! उसने अलख में रक्त की बूंदें छिड़क कर द्वन्द आरम्भ कर दिया! अब भुवन नाथ उठा और अलख के समक्ष खड़ा हो गया! ब्रह्म-नाद किया और अपना त्रिशूल उसने तीन बार भूमि में गाड़ा! ये एक संकेत था! यदि द्वन्द नहीं चाहता मैं, तो मैं भी ऐसा ही करूँ और हार स्वीकार कर लूँ! मैं खड़ा हुआ और ब्रह्म-नाद किया! अपना


   
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श्रीशः उपदंडक
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त्रिशूल तलवार की तरह से लहराया अलख के चक्कर काट काट कर और फिर तीन बार हवा में लहराया! अर्थात मै हार नहीं स्वीकार करने वाला! मै द्वन्द के लिए तैयार हूँ!

भुवन नाथ इस द्वन्द की अगुवाई कर रहा था! उसने अपना आसन जहां लगाया था, वहां उसने अपने सोलह कपाल भूमि में दबा रखे थे! उसकी साधिकाएँ नशे में उन्मत्त और बैठी बैठी चक्कर खाए जा रही थीं! कभी रोती और कभी हंसती! भुवन नाथ अपने पांव का अंगूठा उनके माथे पर लगा देता और वो चक्कर खाना बंद कर देती! अब भुवन नाथ ने भूमि पर अपना त्रिशूल मारा और एक वृत्त खींचा! उसमे मांस के टुकड़े रखे और फिर मदिरा डाली! स्पष्ट था, ये उसका सुरक्षा-ढाल थी! द्वन्द से पहले की क्रिया! यहाँ मैंने ऐसा अपने चारों ओर रक्त से एक घेरा खींच लिया था! मेरी साध्वी कभी खड़ी हो जाती, कभी बैठ जाती कभी नाचने लगती, मेरी ओर आती तो मै उसको अपना त्रिशूल दिखा देता, वो नीचे वहीं बैठ जाती! अब यहाँ भूत-प्रेत की शक्तियों का युद्ध नहीं था, ये महाशक्तियों के अस्तित्व का युद्ध था! अस्तित्व का अर्थ यहाँ पर अपने से प्रबल शक्ति के सामने ओझल होना था! मैंने अपने त्रिशूल से घाड़ के सर पर तीन बार थाप दी! और फिर महाशूल-मंत्र पढ़ा! और अपना त्रिशूल भुवन नाथ की तरफ मोड़ दिया! इस से उसकी अलख और भड़क गयी! ऐसा देख भुवन नाथ ने एक ठहाका लगाया! और उसने अलख में अपना त्रिशूल उसकी राख से छुआ और मेरी तरफ कर दिया एक मंत्र पढ़कर! यहाँ मेरी अलख भड़क गयी! कड़क-चटक की आवाज़ करती हुई! अब भुवन नाथ ने एक मुर्गा लिया और अलख की ओर करते हुए उसकी गर्दन चाकू से काट डाली! उसका रक्त उसने एक पात्र में डाला और एकत्रित कर लिया! फिर उसको फाड़ कर उसकी कलेजी और पित्त निकाल लिया, शेष वहीं रख दिया, पित्त काटा उसने और दो टुकड़े कर दिए उसके! मै समझ गया! ये भुजंगा का आह्वान है! भुजंगा एक महा-शक्ति है!

औघड़ों की महा-शक्ति! भुजंगा के नेत्र बहुत दीर्घ, नाक छोटी सी, मुंह बहुत बड़ा, उसके होंठ नीचे तक लटके रहते हैं! किसी वृक्ष के समान काया होती है उसकी! उसका वार अचूक होता है! मैंने शीघ्र ही काल-रूपा का आह्वान किया! काल-रूपा उसे से बड़ी शक्ति है! श्याम-वर्णी, श्याम-केशधारिणी होती है, उसके केश उसके शरीर से तीन गुना बड़े होते हैं! भयानक रूप होता है उसका! उसके शरीर पर जैसे भुजंग रेंगते रहते हैं विष के! वहाँ भुजंगा प्रकट हुई और उसके दो तीन क्षणों के पश्चात यहाँ काल-रूपा! मैंने नमन किया! भुवन नाथ ने भुजंगा को उसका लक्ष्य बताया और वो वहाँ से उन्मत्त अवस्था में उड़ चली! एक क्षण के चौथाई भाग में मेरे समक्ष प्रकट हुई! हवा में करीब चार फीट ऊपर! भुजंगा को देख काल-रूपा ने क्रंदन आरम्भ किया! भुजंगा एक ही क्षण में ओझल हो गयी! मैंने नमन कर काल-रूपा को उसका भोग अर्पित किया और वो ओझल हुई! ये देख भुवन नाथ घबराया नहीं बल्कि ज़ोर ज़ोर से ठहाके लगाने लगा! ये खीझ थी उसकी!

अब भुवन नाथ ने अपनी एक साध्वी को नीचे लिटाया और उसके ऊपर बैठ गया! फिर उसको चेत्नाहर्ता-मंत्र से चेतना-हीन कर दिया! ये महा-युद्ध का पहला चिन्ह था! उसने अपना चिमटा खड़खड़ाया, मंत्रोच्चार किया! उसके एक एक मंत्र से वहाँ विष-वाहिनी कन्यायें उत्पन्न होती जाती! कम से कम पंद्रह विष-वाहिनी कन्यायें एक ही क्षण में वहाँ से ओझल हो यहाँ प्रकट हो जाती और मेरे शरीर को छूते ही मेरा शरीर किसी मृत देह समान हो जाता! विष-वाहिनी कन्यायें उमुक्त स्वभाव वाली, भयानक, रूप परिवर्ती करने वाली, कभी मक्खी कभी कोई अन्य कीड़ा बन कर शरीर से छू जाती हैं! और फिर मृत्यु संभव थी! मैंने इसके लिया कपाल-भंजिनी का आह्वान कर डाला! मैंने नर-कपाल उठाकर उसके मुख में मदिरा डाली और फिर उसको अपनी गोद में रखा! फिर उसको अपने समक्ष


   
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रख दिया! कपाल-कटोरे में मदिरा डाली और उस कपाल के सर पर रख दिया! मंत्र पढ़े, आह्वान किया, और गटक गया! कपाल-भंजिनी प्रकट हो गयी! ये मसानी-शक्ति है! एक ही वार में हाथी को भी असंख्य छोटे टुकड़ों में बदल देगी, एक ही पल में! कपाल-भंजिनी की साधना इक्यासी दिनों की है, नौ स्त्रियों का । मासिक-स्राव एकत्रीत कर उसमे वीर्य मिलाता है साधक अपना, फिर उसको अपने माथे, वक्ष पर मल कर नित्य एक पशु-बलि द्वारा पूर्ण होती है! प्रकट होने पर साधक को मूर्छित करती है और कोई चार घटी तक सवारी करती है! साधक जीवित रहा तो प्रसन्न होती है अन्यथा मृत्यु निश्चित है! मेरे यहाँ कपाल-भंजिनी प्रकट हुई! 'घोओम' की सी आवाज़ से वो स्थान गूंज पड़ा! मैंने नमन किया! विष-वाहिनी वहाँ से चल चुकी थीं! मेरे यहाँ पहुंची तो कपाल-भंजिनी के अंगार-रुपी प्रभाव से उनका स्थूल-शरीर टकरा के राख हो गया! हवा में जैसे जुगनू टिमटिमा गए! मैंने अब महा-नाद किया! और कपाल-भंजिनी के समक्ष भोग अर्पित किया! वो लोप हुई!

वहां कटम्ब नाथ की आँखें चौड़ी हो गयीं! भुवन नाथ ने अलख में और मांस का ईंधन दिया! अब मैंने यहाँ अपनी साध्वी को उठाया, उसको मूर्जा मंत्र से चेतनाहीन किया वो मेरी बाजुओं में झूल गयी! मैंने उसको उठाया और घाड़ पर पेट के बल लिटा दिया! अब मै उनके ऊपर चढ़ बैठा! बैठते ही औघड़-संचार हुआ! भय-समाप्त हुआ! संसार से कट गया! लक्ष्य, केवल लक्ष्य!

अपने दो वार खाली जाते देख भुवन नाथ क्रोधी हुआ और कटम्ब नाथ भयभीत! मुझे शव-आसन पर बैठे देख वो समझ तो गया ही था की मै कोई नौसिखिया औघड़ नहीं हूँ! उसकी भुजंगा और विष-वाहिनी कन्यायें लोप हो चुकी थीं! और यहाँ मै शैव-भाव में डूब गया था! लक्ष्य-भेदन ही उद्देश्य था! मै चिल्लाया और फिर अट्टहास किया! भुवन नाथ से ये सहा न गया! उसने अपनी एक लट बालों की तोड़ी और उसको घूरते हुए मंत्र पढ़े! और उस लट को पात्र में रखे रक्त में डुबोकर अलख में झोंक दिया और फिर त्रिशूल उठाकर मंत्रोच्चार करने लगा! उसने जो क्रिया अपनाई थी वो महाप्रलापी का आह्वान था! रौद्र-रूप महाप्रलापी! सहस्त्र मसानों से सेवित महाप्रलापी! शव-आरूढा की सहोदरी! भयानक एवं विकराल! क्षण में उलट-पलट कर देने वाली महाप्रलापी! मुझे उसका अवरोध करना था, अतः मैंने गुहा-वासिनी शाकम्भी का आह्वान किया! महाप्रलापी और शाकम्भी एक दूसरे की जन्म-जन्मान्तर से कट्टर शत्रु रही हैं! महाप्रलापी ही शाकम्भी रोक सकती थी! मैंने अपने साध्वी के ऊपर बैठे बैठे ही मूत्र-त्याग किया भूमि पर और उसकी गीली मिट्टी उठाई और चारों दिशाओं में फेंकी और फिर महा-मंत्र का जाप किया! इस बीच मैंने अपनी माध्यम ऊँगली काट कर उसका रक्त हाथ में लिया और फिर अपने वक्ष पर मल कर मैंने शाकम्भी का आह्वान किया! राख की बरसात होने लगी! मांस के असंख्य लोथड़े गिरने लगे! भूमि उनसे पट सी गयी! फिर एक दिव्य-रौशनी प्रकट हुई! यही शाकम्भी का आने का चिन्ह था! मैं अपनी साध्वी से उठा और एक मुर्गा निकाला पिंजरे से उसकी गर्दन को मुंह से काटा और रक्त एक पात्र में इकठ्ठा कर लिया! वहाँ महाप्रलापी प्रकट हुई! भुवन नाथ ने भोग अर्पित कर दंडवत प्रणाम कर उसको लक्ष्यभेदन हेतु भेजा! श्याम-जिव्हा वाली महाप्रलापी अट्टहास कर रवाना हुई वहाँ से, भय-नाद करते हुए! और यहाँ घंटों की आवाज़ करते हुए गुहा-वासिनी शाकम्भी प्रकट हुई! मैंने नमन किया भोग दिया और तभी वायु-वेग से आई महाप्रलापी प्रकट हो गयी! शाकम्भी के समक्ष उसकी आभा धूमिल हुई! आक्रान्त महाप्रलापी क्रंदन करते हुए लोप हो गयी! मैं घुटनों पैर बैठ गया! शाकम्भी को नमन किया तो शाकम्भी भी लोप हुई! साथ ही साथ मांस के लोथड़े और राख भी लोप हो गए! कटम्ब नाथ और भुवन नाथ हाथ मलते रह गए! महाप्रलापी लोप हो गयी थी! उनका एक अचूक


   
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श्रीशः उपदंडक
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वार कुंद हो कर ओझल हो गया था! यहाँ उनकी स्थिति देख मैंने अट्टहास लगाया! औघड़-नृत्य करने लगा! मांस, चर्बी डाल कर अलख को ईंधन दिया! मेरी अलख मेरी जीवन डोर को थामे थी।

वहाँ! अब भुवन नाथ ने एक बकरा लिया, उसका पूजन आरम्भ किया और बलि-शैल पर ले आया! उसने महाशक्ति के स्वामिनी तारा की सहोदरी महामर्दनी का आह्वान किया! द्वन्द गहराता गया! भुवन नाथ के तीन वार खाली गए थे! मुझे उसकी काकड़ा-जोगन की प्रतीक्षा थी, वही उसका अंतिम अमोघ बाण था! उसने बलि-शैल पर उसका आह्वान किया और फिर फरसे के एक ही वार से बकरे का सर धड़ से अलग कर दिया!

रक्त-प्रवाह फव्वारे के समान फूट पड़ा, उसने वो रक्त एकत्रित किया और बलि-शैल पर रख दिया! ज्वालन-मंत्र से भूमि-पूजन किया और अपना एक कपाल रख कर उसके ऊपर बकरे का सर रखा, और उस कपाल से वार्तालाप आरंभ हुआ उसका! महामर्दनी पूर्व दिशा में वास करती है! ये सैंकड़ों महाप्रेत, चुडैल, डाकिनी-शाकिनी द्वारा सेवित है! कपाल से इसका आह्वान किया जाता है! वो वहाँ आह्वान में लगा और मैंने यहाँ स्थिति जांचनी आरम्भ की! मदिरा का एक प्याला भरा और गटक गया! मेरी साध्वी लम्बे लम्बे सांस लेते हुए घाड़ के ऊपर लेटी थी! वो मूर्छित तो अवश्य ही थी परन्तु नेत्र खुले थे, मुंह से थूक निरंतर बह रहा था, ये थूक घाड़ के सर से होता हुआ भूमि पर गिर रहा था, मैंने उस समय महामर्दनी को रोकने के लिए धूमावती की प्रधान सहोदरी कुरंग्नी का आह्वान किया! कुरंग्नी एक प्रबल महाशक्ति है! कुरंग्नी पश्चिम दिशा-वासिनी है! मुंड-माल से सुसज्जित, पूर्ण नग्न एवं रुक्ष केश वाली होती है! वर्ण नीला-काला होता है! हाथ और पांवों में अस्थियों से सुसज्जित माल होते हैं! हाथ में अजेय-फरसा धारण किये हुए होती है! फरसा सदैव रक्त-रंजित ही होता है! मैंने अपने शरीर के पांच जगह का रक्त लिया, उसको अभिमंत्रित किया और पी गया, अब कुरंग्नी का आह्वान किया, ये आहवान एक गीत के रूप में होता है, इसके ये मंत्र एक विशेष भाषा के होते हैं! मुझे मेरे दादा श्री ने कुरंग्नी-साधना के समय कई विशेष चरणों में कई रहस्य और नियम बताये थे, उन सभी का पालन आवश्यक होता है, वही मैंने कंटस्थ किये और आज कुरंग्नी से मदद लेने का समय आ पहुंचा था!

वहां पर महामर्दनी प्रकट हुई! पीत-प्रकाश में लिपटी महामर्दनी काल का ही रूप होती है! भुवन नाथ ने महामर्दनी का थाल-पूजन किया और फिर अपना रक्त उसको अर्पित किया! महामर्दनी चल पड़ी अपना लक्ष्य भेदने! और यहाँ, कुरंग्नी की सह-सहोदरी प्रकट हो चुकी थीं! एक लक्ष भयावह शक्तियों से सेवित कुरंग्नी प्रकट हुई! उसके ताप से मै जैसे जलने लगा! साँसें तेज हो गयीं! और तभी महामर्दनी यहाँ प्रकट हुई और फिर एक व्योम-स्थान में स्थित! उसने अट्टहास किया! और यहाँ कुरंग्नी ने अट्टहास किया! महामर्दनी ने कुरंग्नी को देखा और क्षण में ही व्योम में लोप हो गयी! मै भूमि पर लेट गया! कुरंग्नी ने अट्टहास किया और मैंने नमन और फिर भयानक आवाज़ करती हुई लोप हो गयी! मेरी नेत्रों में जैसे फिर से दृष्टि की किरण जागी! श्वास नियंत्रित हुई! मै उठकर फिर से अपनी साध्वी पर चढ़ बैठा!

ये देख कर भुवन नाथ को जैसे काठ मार गया! उसने कटम्ब नाथ से बातें की कुछ और फिर आगे की योजना पर विचार किया! कटम्ब नाथ अब अपने आप में सिमटे जा रहा था और मै यहाँ अट्टहास पर अट्टहास लगाये जा रहा था!

अब वहाँ भुवन नाथ ने पड़े हुए बकरे का पेट फाड़ा और उसका तौलिया निकाल लिया बाहर, चाकू से काट कर आंतें, कलेजा अलग किया, फिर उसको निचोड़ा और उसको अलख के सामने बिछा दिया! मेरी दृष्टि उसके इस कृत्य पर पड़ी, बकरे के तौलिये पर बैठ कर रोड़का-शूलनी का आह्वान किया


   
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श्रीशः उपदंडक
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जाता है! ये भी परम शक्तिशाली एवं अभेद्य शक्ति है! तंत्र-जगत में इसकी गति सबसे अधिक है! एक क्षण के सौवें भाग में पृथ्वी की परिक्रमा कर लेती है शत्रु चाहे नभ में हो अथवा पाताल में अथवा जल में! शत्रु को ढूंढ कर उसके प्राण हर लेती है! श्वेत-वर्णी होती है, धुंए का सा आकार और रूप होता है, ये अलख के मध्य प्रकट हुआ करती है! कोई भी मंत्र इस पर प्रभावहीन होता है! एक सौ बयासी दिनों की अत्यंत क्लिष्ट इसकी साधना होती है!

मुझे शीघ्र ही निर्णय लेना था, मैंने तभी एक निर्णय लिया, मैंने साध्वी को वहां से हटाया और घाड़ को सीधा कर उस पर चढ़ बैठा! मैंने अपना चिमटा उठाया और घाड़ को तीन जगह से कीलित किया, वो इसलिए की इस कीलन से जैसे उसके शरीर को बड़े बड़े शूलों से बींध कर भूमि में गाड़ दिया हो! रोड़का-शूलनी का वेग ऐसा होता है की साधक अपने आसन समेत वायुमंडल में उड़ जायेगा और नीचे गिरते ही मृत्यु उसको गोद में ले लेगी!

मैंने अब कमलाक्षी-त्रिशाला का आह्वान किया! वहाँ भुवन नाथ को समय लग रहा था रोड़का-शूलनी के आह्वान में और मुझे एक एक पल बचाना था! मैंने त्रिशाला का आह्वान किया! मंत्रोच्चार आरम्भ किया और फिर मंत्र पढ़ते हुए एक मुर्गा उठाया और उसको हिला हिला कर मंत्रोचार किया! फिर उसकी गर्दन काट दी, उसके रक्त से भूमि पर एक चतुर्भुज बनाया, और उसमे मदिरा, नपुंसक-कपाल सुसज्जित किया! कपाल कटोरे में उस अभिमंत्रित मुर्गे का रक्त लिया और मदिरा पी कर उसके तीन बार कुल्ले किये और शेष पी गया! अब त्रिशाला का आगमन होने को था! त्रिशाला भयानक शोर करती हुई प्रकट हुई! हाथ में खडग और नर-मुंड लिए, नर-मुंड से टपकता रक्त उसकी जांघों से होता हुआ पिंडलियों से नीचे टपकता रहता है, ये उसी पर पारगमन किया करती है! मैंने उसको भोग अर्पित किया और वो यथावत स्थिर हो गयी! वहाँ, अलख भंभोड़ती रोड़का-शूलनी प्रकट हुई! कटम्ब नाथ और भुवन नाथ भूमि पर शाष्टांग मुद्रा में लेट गए! भुवन नाथ का उद्देश्य जान वो वहाँ से लोप हुई और राख, मेद, मांस बिखराती हुई मेरे यहाँ प्रकट हुई! त्रिशाला की माया से कोई भी वस्तु नीचे नहीं गिरी! त्रिशाला के मुख-मंडल की रौद्रता देख रोड़का-शूलनी ओझल हो गयी! त्रिशाला को मैंने अब नमन किया! वो अट्टहास लगाते हुए लोप हो गयी! मैं घाड़ से पीछे की तरफ लुढ़क गया! अट्टहास किया लेटे लेटे ही! मैंने अपनी साध्वी को उठाया और इस बार पीठ के बल उसको लिटा दिया घाड़ पर! और मैंने आसन संभाल लिया!

वहाँ अब पहली बार भुवन नाथ के माथे पर शिकन पड़ी! वो मेरा अहित नहीं कर पाया था अभी तक! कटम्ब नाथ के होश संभवतः ठिकाने आने ही वाले थे!

तभी भुवन नाथ ने क्रोध से अपनी एक और साध्वी को मूर्छा-मंत्र से मूर्छित किया और उस पर मूत्र-त्याग कर उसको सोलह-कपाल भूमि पर पीठ के बल लिटा दिया!

अब कटम्ब नाथ ने पांच मुर्गे लिए, उनको एक एक कर काटा और उनका पेट फाड़कर हाथ से उनकी कलेजियाँ खींची! और एक कलेजी उसने कच्ची ही चबाई! वहां भुवन नाथ अपनी साध्वी पर बैठा हुआ मंत्रोच्चार कर रहा था! कटम्ब नाथ ने दूसरी साध्वी को पेट के बल लिटाया और चढ़ बैठा, उसने रक्त का प्याला उठाया और भुवन नाथ पर कुल्ला कर दिया! अब मैं समझ गया ये शमशान-भैरवी का कलाप है! शमशान-भैरवी! औघड़ की शान! औघड़ की प्रचन्ड-शक्ति! मुझे ये देख हंसी छूटी! उनको इतना तो मालूम होगा कि मैं भी औघड़ हूँ, मैंने भी शमशान-भैरवी सिद्ध की होगी! लेकिन मै उनको अब इसका उत्तर देना चाहता था! अतः मैंने अपनी साध्वी को मूर्छा-रहित किया और उसको बिठा


   
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श्रीशः उपदंडक
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दिया घाड़ पर, फिर परिक्रमा की उसकी तीन बार! चिमटा छुआ कर भद्रांगी को शांत किया! वो अब हिलने लग गयी! घाड़ भी हिलने लगा! मैंने भैरवी आह्वान नहीं किया बल्कि उसके स्वागत के लिए मैंने तयारी की! अब मैंने शमशान-भैरवी की सखी औदांगी का आह्वान किया, वो प्रकट हुई, उसे मैंने साध्वी में प्रविष्ट करा दिया! अब वो अट्टहास करती हुई और तेजी से झूमने लगी, खड़ी हुई और मुझ पर ऐसे टूटी जैसे सिंह अपने शिकार पर टूटता है! उसने मुझे नीचे गिराया और सम्भोग-मुद्रा में मेरे ऊपर बैठ गयी! भयानक स्वर में आलाप-प्रलाप करती हुई वो मेरा मर्दन करने लगी! उसके झटकों से मेरी पसलियों में पीड़ा होती और मुझे उसको सहन करना होता! वो लिंग-प्रवेश के लिए लालायित थी, अतः मुझे मेरे केशों से पकड़ कर उठाती और भूमि पर मारती! मुझे चांटे मारती और मेरी छाती पर प्रहार करती! फिर गति तीव्र कर देती! और तभी वहाँ शमशान-भैरवी के रूप में अमोघ शक्ति प्रकट हुई! औदांगी थमी और पीछे हट गयी! उतर गयी! और भूमि पर गिर पड़ी! मैं खड़ा हुआ और उसको नमन-मुद्रा कर देखने लगा! भैरवी पलटी और लोप हुई! वो इस दृश्य से कुपित हुई और वहाँ जाकर उनकी अलख में कूद गयी! भैरवी शांत हो गयी थी और औदांगी

लोप!

अब तो जैसे वहाँ क़यामत आ गयी! भुवन नाथ खड़ा हुआ गुस्से में और कटम्ब नाथ का गिरेबान पकड़ कर धक्का दे दिया उसने!! वो अपने खाली वारों से झुंझला गया था! उसने फरसा उठाया और भूमि पर ग्यारह बार मारा! फिर अपनी हथेली काट कर अपना रक्त उस स्थान पर टपका दिया! और मंत्रोच्चार किया! फिर वहाँ जा कर बैठ गया! अपनी साध्वी को बालों से पकड़ कर और लात मार कर वहाँ लिटा दिया उसने! उसके ऊपर चढ़ बैठा! उसने कटम्ब नाथ से मांस माँगा और कच्चा मांस खाने लगा, उसने अब मदिरा की बोतल उठाई और गटकने लगा! मांस खाता और मदिरापान करता! फिर वो बैठे बैठे ही मुड़ा और अपनी साध्वी के केश उखाड़े उसने! केश उखाड़ कर उसने एक छल्ला बनाया! छल्ला बना कर उसने उसमे प्राण संचारित किये! वायु में से कांडप-कन्यायें उत्पन्न हो गयी! प्रबल तामसिक कन्यायें, साधक को हर लेने वाली अपने माया-पाश में! अपने रूप से रिझाने वाली! यदि शत्रु साधक उन पर रीझ जाये तो जीवनभर उसके साथ रहती हैं अर्धांगनी बनकर! बस साधक उसी दिन से सब कुछ भूल जाता है, विस्मृति का शिकार हो जाता है और ये मृत्योपरांत पर ही समाप्त होता है! उसकी चाल लाजवाब और ग़ज़ब की थी! मुझे उसका लोहा मानना पड़ा उस समय! यदि वो कटम्ब नाथ के कहने में नहीं आता तो संभवतः एक ऊंचे शिखर पर होता! पर वो अपनी नियति स्वयं तय कर चुका था! उसने ज्येष्ठ कांडप-कन्या को अपना वीर्य-पान करवाया! और भेज दिया लक्ष्य की ओर! मेरे यहाँ कांडप-कन्यायें प्रकट हुईं! मेरे चारों ओर भीनी भीनी मादक और मनमोहक सुगंध फैल गयी! नेत्र बंद होने से लगे! मन में उनकी सुन्दरता बसने लगी! वो नग्न होने लगी! अतुलनीय यक्षिणी का सा उनका सौंदर्य किसी भी शक्तिशाली मनुष्य को क्षण मात्र में ही उनके रूप का दास बना देने को विवश कर देता! जब मुझसे सहन नहीं हुआ तो मैंने माया-हरणी विद्या का प्रयोग किया! मेरी माया-हरणी में और उनकी मद-माया में टकराव हुआ, मेरा लिंग उत्तेजित होने लगा, विकट स्थिति आ गयी थी उस समय! मैंने जीत की कगार पर आकर नीचे गिरने वाला था! कांडप-कन्यायें अपना शरीर मुझसे छुआति तो मुझे सुखानुभूति प्राप्त होती! उनके मद से मै ग्रस्त होने लगा! मन कर रहा था उन सभी से एक एक करके संसर्ग करूँ और अपनी काम-क्षुधा मिटा लूँ! मेरी माया-हरणी विद्या की एक न चली! उत्तेजना चरम-स्तर पर पहुँचने लगी! मै खड़ा हुआ अब! और मैंने मदिराभोग किया! वे कामुक-नृत्य करती हुईं मेरे और समीप आने लगीं! मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैंने कभी संसर्ग-सुख न लिया हो! और आज ये


   
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श्रीशः उपदंडक
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अवसर है और कहीं हाथ से ये अवसर निकल ही न जाए! ये उनकी माया का अचूक प्रभाव था! सहसा मुझे मेरे गुरु-शिष्य ज्वाला नाथ का ध्यान आया, उन्होंने मुझे कांडप-कन्या से बचने का एक उपाय बताया था, मैंने वही किया, मै अपनी साध्वी के ऊपर लेट गया और महा-भीषण उत्क्रंता-जाप आरम्भ किया! करीब दो मिनट बीते! मैंने आँखें खोली वहाँ जहां सुन्दर कांडप-कन्यायें थीं वहाँ अब कृशकाय शरीर वाली वृद्धा स्त्रियाँ खड़ी थीं! उत्कंता-जप सफल हो गया था! मैंने ज़ोर से अट्टहास लगाया! लिंग की उत्तेजना का नाश हो गया! मेरी देह उनके मोहपाश से मुक्त हो गयी! मै खड़ा होकर नाचने लगा! कपाल में मदिरा डाली और गटक गया!

वहाँ जैसे उन पर वज्रपात हुआ! कटम्ब नाथ के होश जवाब दे गए! वो भीगी बिल्ली की तरह से अलख के पास बैठ गया! लेकिन अभी भुवन नाथ के तरकश में और भी बाण बाकी थे! परन्तु इस बार मैंने स्वयं वार करने की योजना बनाई! मैंने द्वि-कंटिका का जाप किया! ये रौद्र-रुपी, विकराल और तीक्ष्ण स्वभाव वाली और स्थूल देहधारी होती है, इसके स्तन इसके उदर को ढके रहते हैं! औघड़-क्रिया में इसको घाडला भी कहा जाता है! घाल छोड़ने में इसी का मंत्र पढ़ा जाता है और फिर घाल छोड़ी जाती है, ये उसी विद्या की अधिष्ठात्री है! |

मैंने उसका आह्वान किया, एक मुर्गे की गर्दन काट कर, उसका पेट फाड़कर उसकी आंतें निकालीं और उनको एक थाल पर रख दिया, फिर उसकी कलेजी के टुकड़े किये और एक अलखनाद करते हुए मैंने उसका आह्वान किया! द्वि-कंटिका प्रकट हुई! मैंने उसको भोग अर्पित किया! और उसे भेज दिया भुवन नाथ और कटम्ब नाथ के पास! भुवन नाथ ने अट्टहास लगाया और खड़ा हुआ! द्वि-कटिका वहाँ जा उतरी! भुवन नाथ ने एक कपाल उठाया और उसकी तरफ कर दिया! द्वि-कंटिका आगे बढ़ी! 'ठहर जा! ठहर जा' के शब्द निकले भुवन नाथ के मुंह से! वो न ठहरी! तब भुवन नाथ ने नरक-सिंही बेडना का आह्वान कर दिया! द्वि-कंटिका ये सुन वहां से लोप हो गयी!

'हा हा हा हा!' के अट्टहास गूंज उठे वहां! कटम्ब नाथ और भुवन नाथ उन्मत्त तो थे ही, दोहरे हो गए हँसते हँसते!

हंस तो मै भी रहा था यहाँ!

भुवन नाथ ने भूमि खोदकर दो कपाल निकाले और उनको मदिरा-स्नान करवाया! और फिर से भूमि में दबा दिए! और बैठ गया! यहाँ मै भी बैठ गया! अब हुआ दोनों में वाद-प्रतिवाद! यहाँ कर्ण-पिशाचिनी मदद करती है! ये इशारों में होता है, मै आपको इसका अनुवाद लिख रहा हूँ!

"पीछे हटता है?" उसने पूछा,

"कदापि नहीं!" मैंने कहा,

"मृत्यु निश्चित है तेरी!" उसने कहा,

"स्वीकार है!" मैंने कहा,

उसने अट्टहास लगाया!

मैंने भी अट्टहास लगाया!

"मारा जायेगा!" उसने कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"स्वीकार है!" मैंने कहा,

"अभी समय है" उसने कहा,

"आगे बढ़!" मैंने कहा,

"मेरा नाम भुवन नाथ है!" उसने कहा,

"मै नहीं डरता तुझसे!" मैंने कहा,

उसने अपना त्रिशूल फिर से गाड़ दिया और नमक छिड़क दिया आसपास!

मैंने अपना त्रिशूल उखाड़ा, खड़ा हुआ और सिंह-नाद किया!

अब वो भी खड़ा हुआ! उसने भी सिंह-नाद किया!

अब आ गया निर्णायक समय! अर्थात काकड़ा-जोगन का समय! बस यही था उसके पास एक अंतिम सहारा! और मै भी तैयार था! कूष्मांडा-सुन्दरी के साथ!

अब दो प्रबल औघड़ों के बीच उनके अस्तित्व को लेकर द्वन्द छिड़ा था, अब अपने अंतिम चरण में था! एक को गिरना था और दूसरे को गिराना था! एक का मार्ग आगे के लिए प्रशस्त था और दूसरे का वहीं समाप्त हो जाना था! एक को आगे सीढियां चढ़ जानी थीं और एक को जहां से वो चला था वहीं आ जाना था! दोनों के लिए उनका ध्येय एक ही था अपने शत्रु का नाश करना!

अब मैंने उस मेढ़े के गले में पुष्प-माल डाला और उसका पूजन किया! ये पूजन विशिष्ट होता है, बलि-कर्म से पूर्व ये नियमपूर्वक निभाया जाता है! यही मैंने किया! क्रिया-स्थल में एक ऐसा स्थान होता है जहां पर ये बलिकर्म किया जाता है, वहाँ कहीं पत्थर का होता है और कहीं ये लकड़ी से बनाया जाता है, अंग्रेजी के अक्षर वी के आकार का एक लट्ठा होता है, उसको भूमि में गाड़ दिया जाता है और फिर उस पशु की बलि चढ़ाई जाती है इस पर रख कर! यहाँ इस स्थल पर यह पत्थर का न होकर लकड़ी का था! मैंने मेढ़े को वहीं बांध दिया! ।

अब उसके बाद घाड़ का निरीक्षण किया, उसका पेट फूलने लगा था, ये प्राकृतिक कारण है, मुझे सब कुछ अब शीघ्र ही निपटाना था! अतः मै अब उस घाड़ पर बैठ, उसको कीलित किया और फिर गहन मंत्रोच्चार!

वहाँ, कटम्ब नाथ और भुवन नाथ भी गहन मंत्रोच्चार में लगे थे! उनकी साध्वियां मृतप्रायः सी पड़ी थीं और यहाँ मेरी साध्वी भी! दोनों स्थानों पर शान्ति पसरी थी, अलख की चटक की ध्वनि ही कानों में पड़ती थी! पेड़ों पर बैठे उल्लू कभी कभार अपने स्वर से अपनी मौजूदगी का एहसास करा देते थे! मेरे मंत्रोच्चार और गहन हुए, वहाँ भी ऐसा ही हुआ! और संयोग! हम तीनों ही एक समय पर खड़े हुए! वहाँ भुवन नाथ ने अपनी शक्ति के आह्वान के लिए खडग उठाया और यहाँ मैंने अपनी शक्ति के लिए अपना फरसा! उसने नाद करते हुए उस काले बकरे की गर्दन एक ही वार में अलग कर दी! और यहाँ मैंने मेढ़े की गर्दन फरसे से एक ही बार में अलग कर लुढका दी! रक्त का फव्वारा फूट पड़ा! मैंने उसकी देह को अपने घुटने से दबाया और रक्त एकत्रित कर लिया! अब चाकू लेकर उसका पेट फाड़ा, पेट फाड़ते ही उसकी आंतें बिखर गयीं! उसका कलेजा बाहर निकाला


   
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