वर्ष २००९ गढ़वाल की...
 
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वर्ष २००९ गढ़वाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"इन कुत्तों के लिए यही सजा होनी चाहिए!" वे बोले!

"आप देखना शर्मा जी!" मैंने कहा,

"मै जानता हूँ" वे बोले!

अब हम उठे वहाँ से! चले वापिस अपने कक्ष की तरफ, साढ़े आठ हो चुके थे, हम अन्दर आये तो मैंने देखा कि शोभना का कक्ष अभी भी बंद है, सोचा कोई विशेष कार्य हो सकता है, हिसाब-किताब है और भी काम बहुत!

"रुद्रनाथ को फ़ोन कर दीजिये आप, वो भोजन का प्रबंध कर देगा!" मैंने कहा,

शर्मा जी ने फ़ोन कर दिया! रुद्रनाथ ने थोड़ी देर में ही प्रबंध करने के लिए कह दिया!

हम अपने कक्ष में वापिस आ गए!

उस रात मुलाक़ात ना हो सकी शोभना से! मन में व्याकुलता तो पसरी परन्तु सुबह की प्रतीक्षा ने उसको शांत किया! सुबह हुई, शोभना से कल ना मिल पाने की एक कसक सी थी अभी भी दिल में, सुबह होने के साथ ही व्याकुलता ने फिर से पाँव फैलाने आरम्भ कर दिए थे! सच कहता हूँ, मैंने तो नीति बनाई थी, परन्तु उस नीति में प्रीति का प्रवेश कब हो गया पता ही ना चल सका! विश्लेषण करने का समय भी ना मिला! मै तभी स्नान करने चला गया. सुबह के साढ़े पांच बजे थे, स्नान करके आया तो वस्त्र पहन कक्ष की उत्तरी खिड़की खोली,

चिड़िया सूर्य के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं! अन्य पक्षी भी उस कोलाहल में अपना सुर मिला देते थे! अब तक शर्मा जी भी उठ चुके थे, अलकत से भरे हुए!

"शर्मा जी आप स्नान कीजिये, मै आया तब तक" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

अब मै भागा नीचे, ऐसे कि जैसे कि गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ चुकी हो! ये गति व्याकुलता की थे असल में! नीचे आया, देखा कक्ष बंद है अन्दर से, ताला नहीं लगा था, मैंने अब दरवाज़ा खटखटाया! एक बार, दो बार तीन बार! जब तक कि खुल नहीं गया! दरवाज़ा खुला तो सामने शोभना खड़ी थी! मेरा सूर्योदय तो हो गया था! उसने रास्ता छोड़ा तो मै सीधा अन्दर चला गया, उसने दरवाज़ा भेड़ दिया! वो मेरे पास आई! स्नान कर चुकी थी, केश अभी तक गीले थे! मैंने उसको खींच कर अपनी जांघों पर बिठा लिया! उसके बदन से चन्दन की भीनी भीनी महक आ रही थी! मेरे नथुने और अधिक ग्रहण करने लगे ये मादकता! मैंने अपने हाथ से उसके चहरे पर आई एक लट हटाई और उसके कान से सटा दी! उसके गुदाज़ बदन का वो भार मेरी जांघों को जैसे परम-सुख दे रहा था! ऐसा सुख कि मै लिख नहीं पाऊंगा, वर्णन करना तो दूर की कौड़ी है!

"कल शाम कहाँ थीं आप?" मैंने पूछा!

"कल में यहाँ नहीं थी, बाहर गयी थी" उसने बताया,

"कहाँ?" मैंने पूछा,

"था कुछ काम" उसने बताया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या काम?" मैंने पूछा,

"कुछ वित्तीय कार्य था" उसने कहा,

"अच्छा, मुझे क्यूँ नहीं बताया? मै भी चलता, कल से लेकर अभी तक व्याकुल हूँ मै!" मैंने कहा,

"आपको फुर्सत कहाँ?" उसने तंज लहजे में कहा!

"आपको ऐसा लगा शोभना?" मैंने पूछा,

उसने उत्तर नहीं दिया!

"बताओ" मैंने कहा,

थोड़ी देर कुछ नहीं बोली वो!

"चाय पियेंगे?" उसने पूछा,

"हाँ!" मैंने कहा,

अब वो उठी, अपने बाल एक बार फिर से झाड़े, केशों से रिसते पानी ने उसके बदन पर वस्त्र को चिपका दिया था! मै वहीं देखता रहा! वो भी जान गयी थी, वो पूरी तरह से घूम गयी मेरी तरफ! अब फिर से खलबली सी मची दिल में! मैंने नज़रें हटायीं वहाँ से अब! उसने केश सँवारे और फिर दूसरे कक्ष में चली गयी! हिलोर वापिस लौटी! मै उठा और जग में से पानी लिया और दो गिलास गटक गया!

शीघ्र ही वो चाय ले आई! एक कप मुझे दिया, मैंने चाय की चुसकिया लेनी शुरू की!

"मुझे द्वंद की तिथि मिल गयी है शोभना" मैंने बताया उसे,

"अच्छा? कब?" उसने पूछा जिज्ञासावश!

"इस अष्टमी को" मैंने बताया,

उसने दिनों का हिसाब लगाया!

"आज से दस दिन बाद" उसने कहा,

"हाँ" मैंने उत्तर दिया,

"तो अब वापिस दिल्ली?" उसने पूछा,

"अभी निर्णय नहीं किया" मैंने कहा,

"क्यों?" उसने पूछा,

"आज बात करूँगा रुद्रनाथ से, तब निर्णय लूँगा" मैंने बताया, ।।

"अच्छा" उसने हलके से हाँ में सर हिलाया!

"दस दिन! तुमसे दूर रहना!" मैंने कहा!

उसने कोई उत्तर नहीं दिया! बस हलकी सी मुस्कराहट!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"लेकिन मेरे पास है सब कुछ!" मैंने कहा!

मेरा ये वाक्य उस वार्तालाप के विषय से दूर और उसको अटपटा सा लगा तो उसने प्रश्न किया!

"मै समझी नहीं" उसने कहा,

"तुम्हारा सुकोमल स्पर्श! उसका एहसास! तुम्हारे बदन की तपिश और उसकी महक! तुम्हारे होंठों की वो लरज और छुअन! तुम्हारी आँखों की मादकता और उनमे उठते प्रश्न! सबकुछ है मेरे पास! दस दिन काट लूँगा!" मैंने बताया!

मैंने इतना कहा और वो मुझसे लिपट गयी! मुझे जकड़ लिया! आज उसकी जकड़ विशेष लगी मुझे! मैंने उसकी पीठ पर हाथ फिराता रहा!

कुछ पल बीते!

मैंने उसको अपने से अलग किया, अलग करते ही मेरा दिल धड़क गया उसके चेहरे को देखकर! उसकी आँखों में आंसू छलक आये थे! उस समय उसके वो आंसू मुझे अपने आंसू लगे! मैंने अपने हाथों से उसके गालों पर ढलके आंसू साफ़ किये!

"क्या हुआ शोभना?" मैंने पूछा,

"कुछ नहीं" उसने कहा और अपने वस्त्र से आंसू पोंछे उसने!

"बताओ ना? क्या हुआ? क्या बात है??" मैंने पूछा,

"कुछ नहीं" उसने दोबारा कहा,

"नहीं बताओगी?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"नहीं?" मैंने फिर से पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"नहीं?" मैंने फिर पूछा!

उसने गर्दन हिला कर ना कर दिया!

अब मेरी मूर्खता देखिये! मै उस से वो प्रश्न कर रहा था जिसका उत्तर मै स्वयं जानता था! आप भी स्वयं जानते हैं पाठक मित्रो!

ये मानव-प्रवृति है! इस से कोई अछूता नहीं!

"मै ग्यारह बजे निकल जाऊंगा यहाँ से कोलकाता" मैंने कहा,

उसने गर्दन उठा के देखा, फिर घड़ी पर नज़र दौड़ाई, साढ़े छह बज चुके थे!

"आप कब निकलोगे यहाँ से?" मैंने पूछा,

"दो बजे" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कोलकाता?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"तो हमारे साथ ही चलो?" मैंने कहा,

"कुछ और सहायिकाएं भी हैं, वे भी जाएँगी मेरे साथ" उसने कहा,

अब मैंने जेब से पेन निकाला और वहाँ रखे एक रजिस्टर में अपने फ़ोन नंबर लिख दिए, और उसका नंबर भी ले लिया!

"अब चलता हूँ मै, जाने से पहले अवश्य मिलने आऊंगा!" मैंने कहा!

मै अब खड़ा हुआ और उसके माथे को चूमा! और फिर बाहर आ गया कक्ष से! अपने कक्ष के लिए सीढ़ी चढ़ने लगा!

मै कक्ष में गया, रुद्रनाथ चाय-नाश्ता ले आया था! इस रुद्रनाथ ने बहुत सहायता की थी! इसकी एवज में मै उसको अष्टांग-सिद्धि कराने को सहर्ष तैयार था! अष्टांग-सिद्धि से उसको और सिद्धियों में आने वाला कष्ट समाप्त हो जाने वाला था! वो सच में अब औघड़-पंथ में प्रवेश लेने वाला था! अन्यथा उसको ये सिद्धि कोई गुरु उसको पांच-सात वर्ष में करवाता, पूरी सेवा करवाने के बाद!

रुद्रनाथ ने रात भर गुणा-भाग किया था इसीलिए मैंने उस से पूछा, "रुद्रनाथ, कोई मिला ऐसा ब्रह्म-शमशान?"

"हाँ, गुरु जी, इस समय दो ही शमशान हैं जहां कोई सिद्धि नहीं चल रही" उसने बताया,

"कौन कौन से?" मैंने पूछा,

"एक तो गोरखपुर वाला और एक गढ़वाल वाला" उसने बताया,

"गोरखपुर में भुवन नाथ का वर्चस्व होगा, हाँ गढ़वाल ठीक रहेगा" मैंने कहा,

"ठीक है, मै सारा प्रबंध करा दूंगा, आप चिंता ना कीजिये" उसने कहा,

"ठीक है रुद्रनाथ, मै आज यहाँ से कोलकाता जाऊँगा और फिर उसके बाद वहाँ से दिल्ली, दिल्ली पहुँचने के बाद फ़ोन करूँगा तुझे, फिर मै एक दिन पहले गढ़वाल पहुंचूंगा" मैंने कहा,

"ठीक है, मै आपको वहीं मिलूँगा" उसने कहा,

"वाह! ये ठीक रहेगा!" मैंने कहा,

"मै सारा प्रबंध करके रखूगा, निश्चिन्त रहिये!" उसने कहा,

"बहुत बढ़िया रुद्रनाथ!" मैंने कहा,

"कोई बात नहीं गुरु जी" उसने हाथ जोड़ कर कहा!

"नहीं रुद्रनाथ, तुम्हारी सहायता का विशेष महत्त्व है यहाँ!" मैंने कहा,

"छोडिये, मै आपके लिए फल लाता हूँ!" उसने कहा और चला गया कक्ष से बाहर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मानना पड़ेगा गुरु जी, ये रुद्रनाथ बेहद शरीफ़ और ख़ालिस आदमी है!" शर्मा जी बोले!

"बिलकुल है शर्मा जी" मैंने कहा,

इतने में रुद्रनाथ फल ले आया! लग गया छीलने और लगा बनाने सलाद! रुद्रनाथ ने हमको रोज ही फल खिलाये थे! फलाहार उत्तम आहार है यदि आप कहीं बाहर है तो!

"लीजिये गुरु जी" रुद्रनाथ ने थाली रख दी मेरे सामने, अंगूर, अनानास, सेब और संतरे लाया था रुद्रनाथ! हमने खाना आरम्भ किया!

अब तक सवा नौ हो चुके थे! रुद्रनाथ थाली ले गया था!

"शर्मा जी, बांधिए सामान" मानिने कहा,

"हाँ जी" वो बोले,

और फिर हम अपने कपडे-लत्ते उठाते गए और बैग में भरते गए! सामान बांध लिया! अब हम तैयार थे! थोड़ी देर बैठे, गप्प-शप की! बस समय बिता रहे थे!

"यहाँ से कोलकाता?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, जैसे आये थे" मैंने कहा,

"शाम तक ही पहुंचेंगे" वो बोले,

"हाँ, लगभग" मैंने कहा,

"ठीक है, जब निकल लिए तो पहुँच ही जायेंगे!" वे बोले!

"हाँ!" मैंने भी समर्थन किया उनका!

अब मै लेट गया! लेटते ही फिर से शोभना का ख़याल आया! आज अलग हो जाना था उस से! भले ही कुछ दिनों के लिए, लेकिन ये दिन मुश्किल से कटने वाले थे, ये निश्चित तो हो ही चुका था! कितना अजीब सा लगता है! कोई शख्स चुपके से आपकी जिंदगी में आता है, दखल देता है और फिर आपका वजूद चुरा ले जाता है कुछ ही लम्हों में! ऐसा ही हो रहा था मेरे साथ! एक शख्स चुपके से आया और वजूद चुरा के ले गया! कुछ ना हो सका! और उसकी छुअन, ख़याल और मुहब्बत वाबस्ता हो गयी दिलोदिमाग में! कैसे कैसे हुआ, पता ही ना चला! है ना कमाल!

मै कुछ देर करवट लेके शोभना के साथ बीते पलों को एक एक करके जोड़ने लगा!

तभी रुद्रनाथ ने कमरे में प्रवेश किया!

"गुरु जी, गाड़ी बुला ली है मैंने, छोड़ देगा आपको कोलकाता" उसने बताया,

"अरे वाह रुद्रनाथ!" मैंने कहा,

"चलो अब आराम से जायेंगे, धक्का-मुक्की से जान बची!" शर्मा जी ने कहा!

"हाँ! ये सही रहा!" मैंने कहा,

समय देखा तो पौने ग्यारह हो चले थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ठीक है, गाड़ी आते ही सूचित करना मुझे" मैंने रुद्रनाथ से कहा,

"जी, मै आ जाऊँगा" उसने कहा और वापिस चला गया!

अब मै उठा! शोभना से विदाई लेने का समय आ पहुंचा था! मैं सीढ़ियों से नीचे उतरा, उसके कक्ष तक गया और दरवाज़ा खटखटाया, केवल एक बार! दरवाज़ा खुल गया! मै अन्दर गया! शोभना चुपचाप बैठ गयी!

"अब मै जा रहा हूँ शोभना, समय हो चुका है" मैंने कहा,

उसने मुझे देखा मुझे, गौर से! शांतचित्त!

"मै अब उस कटम्ब नाथ और भुवन नाथ के विषय में क्रियाएं करूँगा, परन्तु आपको प्रत्येक दिवस फ़ोन करूँगा!" मैंने कहा,

उसने अपना हाथ बढ़ाया, उसका हाथ बंद था, मेरा हाथ खोला और उसमे एक माला रख दी! मैंने माला देखी ये माला शंख-माला थी! विजय-की सूचक! मैंने तभी माला धारण कर ली!

"शोभना! धन्यवाद!" मैंने कहा,

उसने मेरे मुंह पर अपना हाथ रख दिया!

मैंने हाथ हटाया उसका!

"आपने रण-भेरी बजा दी है शोभना! इसकी गूंज जब कटम्ब नाथ तक पहुंचेगी आधा तो वो तभी अशक्त हो चुका होगा!" मैंने कहा!

"अष्टमी को है ना द्वन्द?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"स्थान?" उसने पूछा,

"गढ़वाल" मैंने बताया,

"अब सीधे वही?' उसने पूछा,

"नहीं, मै दिल्ली जाऊँगा, सप्तमी को गढ़वाल पहुँचूँगा" मैंने कहा,

"मै तब काशी के समीप ही होउंगी" उसने बताया,

"तब मै सीधा आपके पास आऊंगा" मैंने कहा,

"ये आप कहना छोड़ दीजिये अब" उसने कहा,

"क्यूँ?" मैंने पूछा,

"मै दूरी नहीं बर्दाश्त कर पा रही हूँ" उसने कहा!

बड़ा गहरा मतलब था उसकी बात का!

"नहीं कहूँगा आप" मैंने कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मेरा फ़ोन घनघनाया! गाड़ी आ चुकी थी!

"चलता हूँ शोभना! नवमी को मुलाकात होगी अब तुमसे!" मैंने कहा!

वो उठी मै भी उठा! उसने मेरा माथा चूमा और मैंने उसके होंठ!

मै निकल आया कक्ष से बाहर! पीछे मुड कर भी नहीं देखा! शर्मा जी सामान ले गए थे नीचे रुद्रनाथ के साथ! रुद्रनाथ ने मेरा सामान उठाया! हम बाहर निकले! रुद्रनाथ ने सामान गाड़ी में रखवाया! और हम निकल पड़े कोलकाता के लिए!

कटम्ब नाथ के खराब दिन आ चुके थे उसी पल से!

हम कोलकाता पहुँच गये! शाम का समय हो चला था, पहले वहाँ चाय पी फिर एक टिकेट-एजेंट से उसी दिन के टिकेट भी ली लिए ट्रेन के! थोडा इंतज़ार तो करना पड़ा लेकिन फिर ट्रेन में सवार हो गए! मै अपने शयनस्थान पर लेट गया! लेटते ही मुझे फिर से शोभना का चेहरा याद आ गया! विदा लेते समय का चेहरा! सहसा मेरा हाथ उसकी दी हुई माला पर गया मैंने उसको छुआ तो उसके करीब होने का एहसास हुआ! उस पल तो यही बहुत लगा मुझे! सच कहता हूँ!

शर्मा जी भी अपने शयन-स्थान पर लेटे हुए थे, मैंने उनको देखा, आँखें बंद थीं उनकी, मै फिर से लेट गया, शून्य में ताका तो शोभना का झिलमिलाता चेहरा नज़र आया! मेरे होंठों पर मुस्कराहट आई! मुझे पहले दिन से आखिरी पल तक सारा किस्सा शून्य में घटता दिखा! ट्रेन की आवाज़ जैसे मुझे और तन्मयता से उसको देखने देती!

तभी खाना आ गया, शर्मा जी ने मुझे आवाज़ दी, मै जागा हुआ था, बस खोया हुआ था उन पलों में! मै नीचे उतरा और खाना खाने लगा, खाना खाया और साथ में थोड़ी मदिरा भी ले ली! हालाँकि इसकी मनाही है परन्तु हो ही जाता है प्रबंध! खाना खाया तो मै हाथ धोने चला, हाथ धो कर आया और फिर से ऊपर अपने शयनस्थान पर चढ़ गया! शोभना भी निकल चुकी होगी वहाँ से, कहाँ होगी? अब कहाँ होगी? बस ऐसे ऐसे विचार उमड़ते-घुमड़ते रहे मस्तिष्क में! मैंने अब अपनी आँखें बंद की और फिर से शोभना के प्रेम-ताल में गोते खाने लगा! उसका एक एक हाव-भाव मुझे क्रमबद्ध रूप से स्मरण होने लगा! उसका एक एक शब्द मेरे कानों में खनकने लगा! उसको छूने के एहसास ने माथे पर पसीने छलका दिए! उसके साथ बीते पलों ने मुझे इस ट्रेन से उठाकर फिर से वहीं पहुंचा दिया! उस कक्ष में, जहां शोभना थी! वो पुरानी दीवार-घड़ी! याद आ गयी मुझे! वो सीढ़ी! जहाँ मै लप्प-झप्प चढ़ता था उतरता था! वो चाय जो उसने बनाई थी! वो मंडप! वो मंडप-प्रकरण! जब वो मेरे साथ खड़ी थी सट कर! आँख खुल गयी मेरी! भार बहुत बढ़ गया था! अब तो सच में उसकी कमी खलने लगी थी! लग रहा था मेरी देह ही यही है, मन कहीं और चला गया है! शोभना के पास!

मै अब उठ बैठा! अपने आपको वहाँ से खींचना चाहता था! जितना याद करता था उतना और भार बढ़ जाता था! ये भार मेरे सीने में गुबार सा उठा देता था!

नीचे उतरा, जूते पहने मन को कहीं और फंसाने के लिए ट्रेन के परिचायकों के पास चला गया, एक कॉफ़ी भी पी! उन लोगों से बात भी की! वो क्या कहते समझ में नहीं आता था, आता भी कैसे? ध्यान भंग ही नहीं होता था! करीब आधे घंटे के बाद वहाँ से वापिस अपने शयन-स्थान पर गया! लोग सो रहे थे! बेखबर! परदे लगाकर! ट्रेन की आवाज़ और उसका हॉर्न ही सुनाई देता था उस समय तो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या बात है, नींद नहीं आ रही?" शर्मा जी पलट कर बोले!

"हाँ!" मैंने उत्तर दिया!

"लेट जाइये, आ जाएगी" वो बोले,

"लेटे लेटे भी नींद नहीं आ रही!" मैंने कहा,

"ध्यान हटाइये" उन्होंने इशारे से कहा,

"हूँ" मैंने कहा,

मै उठा और फिर से ऊपर चढ़ गया, इस बार सिरहाना बदल लिया, आँखें बंद की! आँखें बंद करते ही जैसे मन छलांग मार जाता था! विद्रोही हो गया था मन!

मैंने करवट ली, करवट ली तो वो शंख माला मेरे होंठों पर टकरा गयी! अब तो जैसे आग में घी डाल दिया गया हो! दिल धड़का और फिर से तार झनझना गए! अब तो हद ही हो गयी थी! एक औघड़ बह चला था प्रेम-प्रवाह में! मै अब उठा, नीचे उतरा, एक गिलास लिया, उसमे मदिरा का बड़ा सा पेग बनाया, पानी मिलाया, एक संतरा छीला और गटक गया! अब सिर्फ इसी का सहारा बचा था!

मैंने तीन पेग लिए! मदिरा-प्रभाव होना आरम्भ हुआ! मैं फिर से ऊपर चढ़ा और लेट गया! ध्यान हटाया वहाँ से! आखिरकार रात बारह बजे के बाद निंद्रा ने दस्तक दी! मै सो गया!

सुबह उठा तो छह बज रहे थे! नीचे उतरा और खिड़की से बाहर देखा, अभी भी दिल्ली दूर ही थी! मै हाथ-मुंह धोने गया और वापिस आया!

तभी मेरा फ़ोन घनघनाया! मैंने फ़ोन जेब से बाहर निकाला! ये तो शोभना का नंबर था! मुर्दे में जान आ गयी! मै वहां से हटा और एक खाली जगह जाकर फ़ोन सुना! काफी बातें हुई! दिल को राहत हुई! शोभना अभी कोलकाता में ही थी, वो आज निकलने वाली थी वहां से! जब उसने पूछा तो मैंने सब कुछ सही सही बता दिया उसे! अब मिला सुकून! अब हुआ मै सामान्य! फौरी तौर पर राहत मिल गयी थी! और ये राहत मेरे लिए जैसे संजीवन-बूटी सिद्ध हुई!

मै अब वापिस आया! शर्मा जी भी उठ चुके थे! वो हाथ-मुंह धोने के बाद आराम से खिड़की के बाहर के नज़ारे का लुत्फ़ ले रहे थे! मै भी बैठ गया! लोग-बाग जागने लगे थे, चहल-पहल मचने लगी थी! चाय आई तो चाय भी पी!

और इस तरह से हम दिल्ली पहुँच ही गए! और फिर अपने स्थान! क्या खोया क्या पाया! खोया भी बहुत और पाया भी बहुत!

"लीजिये शर्मा जी, आ गए दिल्ली!" मैंने कहा,

"हाँ जी" उन्होंने भी कहा!

तभी मै उठा वहाँ से और फ़ोन कर दिया शोभना को, सूचित कर दिया कि हम सकुशल सिल्ली पहुँच गए हैं, शोभना ने कहा कि वो भी काशी पहुँचने पर मुझे सूचित कर देगी! दिल बल्लियों उछल पड़ा!

अब स्नान का समय था! मै स्नान करने चला गया! वापिस आया तो अपने बैग से सामान निकाल लिया! वस्त्र बदल लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आप भी चले जाइये स्नान करने?" मैंने शर्मा जी से कहा,

"हाँ, वहीं जा रहा हूँ" वे बोले,

वे चले गए!

मेरा हाथ फिर से उस शंख-माला पर गया! हलकी सी मुस्कान आई मेरे होठों पर! अब शर्मा जी भी आ गए स्नान करने के बाद! मै बाहर गया और क सहायक को चाय का प्रबंध करने के लिए कह दिया, वो चला गया!

"गुरु जी, शाम के लिए सामग्री बताइये, क्या क्या लाना है?" उन्होंने पूछा,

मैंने लिखवा दिया!

"शर्मा जी, आज मै वेध-साधन करूँगा, तदोपरान्त एवंग-साधन!" मैंने बताया,

"उचित है!" वे बोले,

"कटम्ब नाथ के दिन खराब हो चले हैं अब!" मैंने गुस्से से कहा!

"वो तो उसी दिन से खराब हो चले थे जिस दिन टकराया था" वे बोले,

"हाँ, उसी दिन से!" मैंने कहा,

"मै कटम्ब नाथ, धर्म, भुवन नाथ इनको ऐसा पाठ पढ़ाऊंगा कि मरते दम तक स्मरण रहेगा!" मैंने कहा,

"रहना भी चाहिए!" वे बोले,

चाय आ गयी थी, सो चाय पीने लगे!

"शर्मा जी, अब मै केवल कटम्ब नाथ पर ही ध्यान केन्द्रित करूँगा और किसी पर नहीं, अष्टमी तक किसी से भी संपर्क नहीं करना" मैंने कहा,

"ठीक है!" वे बोले,

चाय ख़तम हुई तो शर्मा जी विदा ले चले गए! अब शाम को आने वाले थे!

शाम को शर्मा जी आ गए सामग्री लेकर! थोड़ी बातें हुईं और फिर मै करीब नौ बजे अपने क्रिया-स्थल में पहुँच गया! सर्वप्रथम त्रिशूल को नमन किया, फिर आसन, फिर अलख, फिर भूमि, फिर अष्ट-कोण नमन और फिर महाशक्ति को नमन किया! मैंने अलख उठाई और अलख भोग दिया! महानाद किया! वेध-साधन हेतु सामग्री निकाली! ये साधन शत्रु-वेध हेतु किया जाता है! इस से साधक में शत्रु के प्रति दयाभाव समाप्त हो जाता है! साधक को वो शत्रु महाशत्रु प्रतीत होता है, क्रोध भड़कता है और क्रोध एक औघड़ी क्रिया के लिए विशेष ईंधन होता है! मैंने वेध-साधन आरंभ किया और उस से समन्धित शक्तियों को भोग अर्पित करता चला गया! करीब दो घंटे में वेध-साधन पूर्ण हो गया! मेरी एक माला सिद्ध हो गयी! अब वो मैंने धारण कर ली!

अब मै एवंग-साधन के लिए तत्पर हुआ! एवंग महा-तीक्ष्ण साधन है! एक चूक और शरीर के परखच्चे उड़ जायेंगे! अवांग-साधन अत्यंत कठिन एवं दुष्कर क्रिया है! मैंने एवंग-अधिष्ठात्री का आह्वान किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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दो घंटे बीते! हवा में अग्नि के अंगार नज़र आये! भीष्ण-चक्रेश्वरी प्रकट हो गयी! मैंने नमन किया और उसके दर्शन मात्र से मेरा एवंग-साधन सम्पूर्ण हो गया! मैं उसके प्रभाव से भूमि पर गिर पड़ा, सामने की ओर! एवंग-प्रभाव देह में प्रविष्ट होता चला गया! मेरे नेत्रों से पीड़ा के अश्रु फुट पड़े! कुछ क्षण बाद मेरा एवंग-मंत्र जागृत हो गया था! दूसरी माला भी सिद्ध हो गयी! अब वो भी मैंने धारण कर ली!

रात्रि का एक बज चुका था! अब प्रेत-भोग देना था! मैंने प्रेतों को भोग दिया और फिर स्नान करने चला गया! वापिस आया,शर्मा जी सो चुके थे, मैंने भी अब सो जाना ही उचित समझा! मै भी सो गया!

सुबह उठे और दैनिक-कर्मों से निवृत हुए! अभी तक शोभना का कोई फ़ोन नहीं आया था, मैंने फ़ोन एक बार फिर से देखा, कोई कॉल नहीं आई थी! उस दिन शर्मा जी जल्दी ही चले गए थे, कुछ आवश्यक कार्य था उनके पास, वो अब शाम को आने वाले थे!

दिन में कोई ग्यारह बजे रुद्रनाथ का फ़ोन आया और उसने बताया के प्रबंध किया जा चुका है! अष्टमी वाले दिन वो स्वयं वहाँ मौजूद रहेगा और स्वयं प्रबंध देखेगा! ये अच्छी बात थी! अष्टमी का दिन निर्णय का दिन था!

मैं फिर से क्रिया-स्थल में पहुंचा, वहां एक बक्सा खोला, उसमे कुछ आवश्यक तांत्रिक-सामग्री थी, जैसे कपाल, बाल-कपाल एवं नपुंसक-कपाल! मैंने उसको निकाल कर एक जगह रखा! और फिर साफ़ किया! फिर हस्तांगुलमाला निकाली और उसको भी रख दिया, फिर रीढ़ की हड्डी के टुकड़ों से बना एक ब्रह्म-माल निकाला और उसको भी सहेज कर रख दिया! कपाल-कटोरा निकाला और उसे भी रख दिया! इस कपाल-कटोरे में मदिरा डाल कर पी जाती है और फिर मसान जगाया जाता है!

मैंने समस्त सामान एक चादर में लपेटा और दूसरे कक्ष में चला गया, अब सारे सामान की गहन जाँच करनी थी, कहीं टूट-फूट तो नहीं, कोई चटक, कोई दरक तो नहीं? क्रिया समय ऐसी कोई भी चूक साधक को खतरे में डाल सकती है! मुझे जाँच में ही करीब एक घंटा लगा गया और तभी शोभना का फ़ोन आ गया! बांछे खिल गयीं! उसने बताया कि वो भी काशी पहुँच चुकी है और कटम्ब नाथ भी यहाँ आया हुआ है! उसके साथ कोई और भी है! ये भुवन नाथ हो सकता है! और जब मैंने उस से उसके पिताजी के बारे में ये पूछा कि कुछ कहा तो नहीं, तो उसने बताया कि अभी तक तो कुछ नहीं कहा किसी ने! तब मैंने उसको अपना ख़याल रखने की सलाह दी और कुछ और बातें करने के बाद फ़ोन काट दिया शोभना ने!

तो कटम्ब नाथ, भुवन नाथ के साथ पहुंचा था वहां! इसका अर्थ ये था कि कटम्ब नाथ काशी के ही किसी शमशान से ये द्वन्द लड़ेगा! कोई बात नहीं! लड़ने दो! मैंने यही सोचा! सामान सही था कोई टूट-फूट नहीं थी उसमे, अतः मैंने उसको रख दिया वापिस वहीं पर!

शाम हुई, शर्मा जी आये सामग्री लेकर! आज मुझे यमाक्षी-साधन करना था! ये भी तीक्ष्ण साधन है! इस साधन से सुप्त-सिद्धि भी पूर्ण जागृत हो जाती हैं! चुटकी मारते हुए ही काम होता जाता है! रात्रि समय मै बैठ गया अलख पर! ग्यारह कटोरियाँ सजायीं! ग्यारह जगह मांस रखा और कपाल-कटोरे में अपने लिए मदिरा डाली, अपना लिंग मदिरा से नहलाया, ये अत्यंत आवश्यक है अन्यथा यमाक्षी-साधन में रक्त-स्राव हो सकता है लिंग द्वार से! यमाक्षी-साधन में साधक पूर्ण नग्न होकर साधन करता है! अब मैंने कपाल-कटोरा उठाया और महानाद करता हुआ उसको पी गया!

अपना त्रिशूल गाड़ा भूमि में, फिर तीनों कपालों को मदिरा-भोग चढ़ाया! और मंत्र पढने आरम्भ किये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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करीब डेढ़ घंटे के बाद कमरे में अन्धकार छा गया! बस अलख की लपटें उठती दिखाई दे रही थीं! कमरे में हँसने और रोने के स्वर आने लगे! यमाक्षी-साधन अपने चरम पर पहुँच चुका था! मैंने और मंत्रोच्चार किया! स्वर बढ़ते गए! और तीव्र! और तीव्र! कपाल-कटोरे में मदिरा डाली और पी गया! फिर से मंत्र पढ़े और तभी वहाँ प्रकाश हो गया! मेरे शरीर पर ओंस जैसी बूंदें गिरने लगीं! कभी गरम और कभी हिम जैसी शीतल! मेरे केशों में पानी भर गया! पानी रिसता हुआ मेरे मुंह तक आया! मैंने वो पानी अपने अंजुल में एकत्रित किया और फिर कपाल-कटोरे में डाल कर, मदिरा मिला कर, एक महा-मंत्र पढ़ कर पी गया!

वो पी कर मै जैसे निढाल हो गया! देह की सारी जान निचुड गयी हो! बदन ऐंठ गया! लगा कि जैसे कै आ जाएगी! सर्प-विष का कसैला स्वाद सा हो गया मुंह का स्वाद! गले के काक में भयानक पीड़ा होने लगी! ना थूक अन्दर जाये ना बाहर! मैंने अपनी ग्रीवा को सहलाया, लगा कि जैसे असंख्य बबूल के कांटे मेरे हलक में घुसेड़ दिए गए हों! मै तड़प सा बैठा! ये यमाक्षी-साधन सम्पूर्ण होने का चिन्ह होता है! और फिर तभी बदन में झटके लगे! हवा में हँसने के स्वर आने लगे! एक झटका लगा, लगे कि किसी ने पीठ में ज़बरदस्त प्रहार किया! मेरी श्वास अब ठीक हो गयी! पीड़ा समाप्त हो गयी! मैं लेट गया वहीं पर!

कितनी देर लेटा पता ना चला! जब संयत हुआ तो बाहर आया, स्नान किया और फिर अपने विश्राम-कक्ष की ओर मुड गया, घड़ी देखी तो चार बजने में बस कुछ ही मिनट शेष होंगे!

और फिर आई षष्ठी की रात्रि! शोभना के फ़ोन निरंतर आते थे, उसके फ़ोन आने से मुझे हिम्मत और साहस प्राप्त होता था! अब तक मैंने कई तांत्रिक-शोधन कार्य निबटा लिए थे! इनमे मंत्र-जागरण, मंत्र-प्रयोग, शक्ति आह्वान एवं प्रयोग और भी तांत्रिक विधियाँ मैंने निबटा ली थीं! वहाँ कटम्ब नाथ और भुवन नाथ भी ऐसे ही शोधन कार्यों में लगे थे! अब केवल एक दिन शेष था और दो रात्रि! अब मुझे गुरु-नमन और अघोर-पुरुष नमन करना था! अनुमति मिलते ही, अनुमति का यहाँ अर्थ हुआ कुछ ऐसी शक्तियों का आह्वान जो महा-तीक्ष्ण हुआ करती हैं, मै उनका प्रयोग कर सकता था! और उस षष्ठी-रात्रि मैंने ऐसा ही किया! करीब चार घंटे अनवरत मंत्रोच्चार उपरान्त मुझे अनुमति प्रदान कर दी गयी! अब कटम्ब नाथ को और उसके सहयोगी भुवन नाथ का मै सामना करने को तैयार हो चुका था!

अगले दिन की सुबह आई! ये सप्तमी थी उस दिन! मै स्नानादि से निवृत हुआ और जाकर एक बार फिर से अलख-नमन किया! आज के दिन ही मुझे गढ़वाल निकलना था, रुद्रनाथ की खबर आ गयी थी, उसने समस्त प्रबंध कर दिया था! मै चाय-नाश्ते से भी फारिग हआ और अपना आवश्यक सामान अपने बैग में रखने लगा! सभी वस्तुएं ध्यान में रखते हुए मैंने रख ली थीं! और फौरी तौर पर काम आने वाली वस्तुएं मुझे वहीं मिल जानी थीं! गढ़वाल में!

कोई दस बजे शर्मा जी भी आ गए, अपने साथ अपने वस्त्र एवं प्रसाधन-सामग्री भी रख ली थी उन्होंने, अपनी गाड़ी उन्होंने वहीं एक बरामदे में लगा दी और फिर मेरे साथ आ कर बैठ गए!

मैंने उनके लिए चाय-नाश्ते का प्रबंध करवा दिया था, उन्होंने चाय पी, नाश्ता किया और फिर बोले," हो गया सब प्रबंध?"

"हाँ, सारा प्रबंध हो गया है, रुद्रनाथ का फ़ोन आ गया था" मैंने बताया,

"तो अब कटम्ब नाथ और भुवन था के पास यही दो दिन शेष हैं!" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ" मैंने उत्तर दिया!

"अब पता चल जाएगा उनको कि क्या और कितनी औक़ात है उनकी!" वे बोले,

"हाँ, ऐसी मार लगवाऊंगा के चार पीढ़ी तक किस्से-कहानियाँ बन जायेगी!" मैंने कहा,

वे हँसे!

"इनके साथ होना भी ऐसा ही होना चाहिए गुरु जी, नहीं तो ये कमीन लोग कहाँ कहाँ गंदगी फैलायेंगे!" वे बोले,

"ऐसा ही होगा, अब गति खराब उनकी" मैंने कहा,

"चलें अब?" उन्होंने पूछा,

"चलिए, चलते हैं अब" मैंने कहा,

अब हमने अपना अपना सामान उठाया और वहाँ से चल दिए, एक ऑटो किया और बस अड्डे आ गए, वहाँ से गढ़वाल के लिए बस ले ली! ये करीब तीन सौ किलोमीटर की यात्रा है, खैर, अपनी सीट पर बैठे और तब मैंने रुद्रनाथ को इत्तला दे दी कि हम दिल्ली से निकल चुके हैं, उसने कहा कि शाम तक या रात्रि तक हम पहुँच जायेंगे तो वो वहीं मिलेगा हमे! अब मैंने शोभना को फ़ोन मिलाया, उसको मैंने बताया कि हम दिल्ली से निकल चुके हैं, आज पहुँच जायेंगे वहाँ और अष्टमी के दिन द्वंद समाप्त करके मै सीधा अगले दिन कूच कर जाऊंगा उस से मिलने के लिए! उसने मुझे विजयी होने की शुभकामना दी! ये तो ब्रह्मास्त्र लग गया था मेरे हाथ में! अब तो क्या कटम्ब नाथ और क्या वो भुवन नाथ!

रस्ते में बस रूकती तो हम उतर कर कुछ खा-पी लेते, फिर चल पड़ती बस, फिर रूकती किसी होटल पर तो फिर से कुछ खा लेते! ऐसे ही रुकते रुकाते कोई शाम सात बजे हम पहुंचे वहाँ! रुद्रनाथ को इत्तला दे दी गयी थी कि कोई आधे घंटे में हम वहाँ पहुँच जायेंगे, रुद्रनाथ हमको वहीं मिला! उसने नमस्कार की और फिर पांव पड़े, हम दोनों के! अपने साथ अपने एक जानकार का वाहन लाया था, हम उसमे सवार हुए और चल पड़े रुद्रनाथ के सुझाये हुए डेरे! आदिनाथ का डेरा! आदिनाथ उस समय गए हुए थे यात्रा पर! अब वहां का संचालन उसकी एक चिलम कर रही थी! खैर, रुद्रनाथ आदमी काम का था, उसने समस्त प्रबंध किया था तो इसका अर्थ था किसी भी चीज़ में कोताही नहीं बरतना!

"रुद्रनाथ, तू कब आया यहाँ?" मैंने पूछा,

"मै जी कल आ गया था यहाँ" उसने बताया,

"और उनकी कोई खबर?" मैंने पूछा,

"आपका अर्थ उन दोनों कटम्ब नाथ और भुवन नाथ?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"वे काशी में हैं, मुझे कल ही जानकारी मिली" उसने बताया,

और धीरे धीरे करते हम उस डेरे पर पहुँच गए! रुद्रनाथ ने सामान उठाया और चल पड़ा एक तरफ, हम उसके पीछे, पहुंचे एक साफ़ सी जगह! जगह तो ठीक थी, खुली खुली! हमको एक कक्ष दे दिया गया! कक्ष बढ़िया था, खुला खुला, मैंने बाहर देखा, फूलों के पौधे लगे थे, पेड़ थे वहाँ, पहाड़ी पेड़!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैंने और शर्मा जी ने हाथ-मुंह धोये और अपने अपने बिस्तर संभाल लिए! रुद्रनाथ बाहर गया और ठंडा पानी ले आया, फिर गया और एक बोतल और पहाड़ी मुर्गा ले कर आया! ऐसे मामलों में कोई सानी नहीं उसका!

"लीजिये, गुरु जी" रुद्रनाथ ने कहा और वो तश्तरी सामने रखी, मैंने शर्मा जी को भी वहीं बुला लिया,

"पहले से ही तैय्यारी कर रखी थी तूने तो!" मैंने कहा!

"जब आपका फ़ोन आया था तो मैंने पकवाने के लिए रखवा दिया था, रास्ते भर में थकावट तो हो ही जाती है!" उसने कहा और पैग बना दिए! हमने अपने अपने पैग उठाये और ख़तम कर दिए!

"अच्छा, वे श्वेत-साध्वी और घाड़?" मैंने पूछा,

"साध्वी कल आ जाएगी कोई चार बजे और घाड़ का प्रबंध भी हो जायेगा तभी" उसने बताया,

अब मै निश्चिन्त हो गया!

अब रुद्रनाथ फिर से बाहर गया और फिर कुछ अलग मांसाहारी व्यंजन ले आया! काफ़ी ज़ायकेदार था वो व्यंजन!

"ये क्या है रुद्रनाथ?" मैंने पूछा,

"जंगली मुर्गा है" उसने कहा,

"वाह!" मैंने कहा!

रुद्रनाथ ने और पैग बनाये और फिर से हमने ख़तम किये!

"रुद्रनाथ, अष्टमी के बाद मै तुझे अष्टांग-साधना करवाऊंगा, काशी में!" मैंने कहा,

"आपका आशीर्वाद है गुरु जी" उसने कहा और मेरे पाँव छुए!

रुद्रनाथ फिर से बाहर गया और एक और बोतल ले आया और साथ में चावल और रोटियाँ भी!

उस रात जम के खाया पिया और चूंकि सफ़र की थकावट तो थी ही, इसीलिए जल्दी ही सो गए, रुद्रनाथ का कक्ष बगल वाला ही था, उसने कहा था कि यदि कोई आवश्यकता हो तो उसको जगा लें अथवा आवाज़ दे दें! अब मै सुबह उठा, सुबह के चार बजे थे, मै सीधा गुसलखाने में गया, नहाया धोया और दैनिक कर्मों से फ़ारिग हुआ, मुझे उठे देखा, तो शर्मा जी भी उठ गए! वे भी नहाने धोने चले गए, मैंने जग में से पानी निकाल कर पिया, और बिस्तर पर बैठ गया, अब शर्मा जी भी आ गए! |

"लीजिये गुरु जी, आ गया निर्णायक दिवस!" वे बोले!

"हाँ! सही कहा!" मैंने कहा,

बाहर अभी अँधेरा था, कुछ दूर पर कुछ बत्तियां चमक रही थीं, डेरे के कुछ और लोग भी जाग गए थे तब तक, मै दरवाजे तक गया, बगल वाला कमरा अभी बंद था, रुद्रनाथ नहीं जागा था अभी तक शायद!

"धडकनें तो उनकी भी तीव्र हो रही होंगी!" वे बोले!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ! भुवन नाथ को पता है मेरे बारे में!" मैंने बताया,

"कैसे?" उन्होंने पूछा,

"खचेडू नाथ था उसका गुरु और खचेडू नाथ मुझे और मेरे बारे में अच्छी तरह से जानता था! लाजमी है कि खचेडू नाथ ने उस भुवन नाथ को मेरे विषय में बताया होगा!" मैंने कहा,

"निश्चित ही बताया होगा गुरु जी" वे बोले,

"लेकिन खचेडू नाथ ने कभी मेरी प्रहार-शैली नहीं देखी!" मैंने कहा,

"अच्छा?" उन्होंने विस्मय से पूछा!

"हाँ! उसने कभी नहीं देखा!" मैंने कहा,

"इसका लाभ आपको अवश्य ही मिलेगा!" वे बोले!

"मिलना चाहिए" मैंने कहा,

"अच्छा, ये भुवन नाथ कौन है?" उन्होंने पूछा,

"ये भुवन नाथ गोरखपुर के पास का रहने वाला एक औघड़ है, ये नेपाल में प्रवीण हुआ है, इसमें लगन है आगे तक जाने की, यहाँ तक तो ठीक है, परन्तु किसी लालचवश ये कटम्ब नाथ की मदद कर रहा है!" मैंने बताया,

"ओह! अच्छा, ये प्रबल है?" उन्होंने पूछा,

"आज तक मै इस से भिड़ा नहीं, मुझे मालूम नहीं" मैंने कहा,

"हम्म! अच्छा, एक बात और, रुद्रनाथ ने बताया था कि उसके पास काकड़ा-जोगन है, और आपने बताया था कि आपके पास कूष्मांडा-सुन्दरी है, इनमे कौन प्रबल है?" उन्होंने पूछा,

"दोनों ही बराबर हैं! शर्मा जी!" मैंने बताया,

"ओह!" वे बोले,

"शर्मा जी, शक्तियां एकत्रित करना एक अलग बात है और उनको प्रयोग करना एक अलग बात, यहाँ औघड़ अपनी बुद्धि से काम लेता है, जो उचित निर्णय समय पर ले ले वही जीतेगा!" मैंने कहा,

"सही कहा आपने!" वे बोले,

"शर्मा जी, मेरे पास और भी कई इनसे ऊंची शक्तियां है, परन्तु ये एक दूसरे से क्रमबद्ध बंधी रहती हैं, इनका यथोचित प्रयोग द्वारा ही लक्ष्य-भेद करवाया जाता है!" मैंने बताया!

"हम्म! समझ गया!" वे बोले,

अब पांच बज चुके थे, आकाश में पक्षियों की भी हलचल हो चली थी, वृक्षों पर बैठे पक्षी सूर्य-आगमन में गीतगान गा रहे थे! हम दोनों उठे वहाँ से, थोडा घूम आयें, सोचा, बाहर आये, कक्ष बंद किया, चाबी जेब में डाली शर्मा जी ने, और हम चल दिया, आगे चले तो देखा डेरा काफ़ी व्यवस्थित हैं, आदिनाथ ने मेहनत की है यहाँ! फूलों के पौधे बड़े खूबसूरत थे! खुशबू फैली थी वहाँ! आनंद ही आनंद!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"शर्मा जी, बड़ी खूबसूरत जगह है, वाह!" मैंने कहा,

"हाँ, बेहद खूबसूरत!" वे बोले,

वहाँ दो पिल्ले खेल रहे थे! बड़े प्यारे थे! एक दूसरे से मस्ती करते हुए! उन्होंने हमें देखा, एक भौंका हमें देख कर! उसके छोटे से गले से उसकी भूक भी बड़ी प्यारी लगी! और जब मै उनके पास गया तो डरे और जब प्यार से बुलाया तो ऐसे दोस्त बन गए जैसे काफ़ी पुरानी दोस्ती हो!

खैर, आगे चले! एक जगह एक साफ़ से पत्थर पर बैठ गए हम! मै उठा और एक तरफ गया, मैंने शोभना को फ़ोन मिलाया, उसने उठाया, मैंने उसे अब तक की सभी स्थिति से अवगत करा दिया! काफ़ी देर बात की हमने! मैंने कहा कि मैं कल उसके पास पहुँच जाऊंगा, मिलने! और फ़ोन काट दिया!

तसल्ली हो गयी!

थोड़ी देर और बैठे वहाँ, शीतल बयार बह रही थी, बेहद सुकून देने वाली! तभी शर्मा जी ने पूछा," गुरु जी, आज कितने बजे स्थान-ग्रहण करेंगे आप?"

"करीब दस बजे" मैंने कहा,

"अच्छा" वो बोले,

"एक काम करना मेरे इर्द-गिर्द ही रहना आप, उस रुद्रनाथ के साथ!" मैंने कहा,

"अवश्य" वे बोले,

अब हम उठे वहाँ से! वापिस आये अपने कक्ष में! रुद्रनाथ का कक्ष खुला था, जाग चुका था, काहिर हम अन्दर चले गए अपने कक्ष में! अन्दर बैठे, जूते उतारे और बिस्तर पर पसर गए! तभी रुद्रनाथ अ गया, प्रणाम हुआ और उसने चाय का एक एक कप हमे पकड़ा दिया, साथ में कुछ नमकीन और बिस्कुट भी थे!

"अच्छा रुद्रनाथ, वो साध्वी कब आएगी?" मैंने पूछा,

"वो यहीं है" उसने कहा,

"अच्छा! फिर ठीक है" मैंने कहा,

"मैंने समस्त प्रबंध कर दिया है, क्रिया-स्थल एकांत में है, चारों तरफ से घिरा है, प्रवेश एक गेट से है उसका, पास में ही है, वहाँ आज साफ़-सफाई करवा दूंगा" उसने कहा,

"बहुत बढ़िया!" मैंने कहा,

"और वो घाड़?" मैंने पूछा,

"वो आपको क्रिया से आधे घंटे पहले मिल जायेगा" उसने कहा,

"वाह!" मैंने कहा,

चाय ख़तम हई तो उसने केतली से और चाय डाल दी कप में! और शर्मा जी को भी दी!


   
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