रुद्रनाथ ने समस्त सामग्री दान की, अर्पित की, मेरी सामग्री भी उसी में ही थी, महा-दीप प्रज्ज्वलित हुई, इसी को महा-अलख कहते हैं! चिमटों की खड़खड़ाहट और 'अलख-निरंजन' के स्वर ने एक अलग ही माहौल बना दिया वहां! शोभना अभी भी अनवरत मेरे सामने खड़ी थी, मैं उसी से सटा हुआ था! मै कभी शोभना के सर पर हाथ फेरता, कभी केश-राशि को, कभी उसको दोनों बाजुओं से जकड़ कर और भींच लेता अपने शरीर तक! मेरी भुजाएं उसके आते जाते श्वास-संचार को महसूस करतीं! वो वैसा ही करती जैसा मै चाहता था, वो अनवरत बने रही, निर्विरोध! और वहाँ कटम्ब नाथ और धर्मा फुक फूंक के स्वाहा हुए जा रहे थे! महा-अलख उस स्थान पर नहीं उनके शरीर में उठी थी! ये प्रकरण कोई आधा घंटा चला! अब वहाँ से वापिस चलने का समय आया! शर्मा जी ने मेरे कंधे को दबाया और वहाँ से निकल पड़े! मैंने शोभना को अपने बाहु-पाश से मुक्त किया और उसका हाथ थाम, फिर उसको अपने साथ ले चला! उसने अभी तक एक शब्द नहीं कहा था!
मै उसके कक्ष तक उसको लाया, अब अप्रत्याशित भय ने करवट बदली! अब ना जाने क्या हो? क्या सोचेगी वो? क्या कहेगी वो? शशोपंज की स्थिति थी! और इस शशोपंज की नदिया में मै गोते खाने लगा! ।
वो अपने कक्ष में गयी, मै भी तैयार हो कर कक्ष में गया, अब मैंने उसके कक्ष को अन्दर से बंद किया, एक भय था मन में, कहीं बाहर तक ये प्रपंच ना चला जाए! शोभना लेट गयी अपने बिस्तर पर! पेट के बल! मैंने उसके शरीर की मुद्रा देखी तो मेरे मन में फिर से काम-हूक उठने लगी! किसी प्रकार स्वयं-विवेक के बाण से उसको छलनी किया! परन्तु उसके शरीर के खुले भागों, कमर और कंधे के नीचे, ने जैसे फिर से आग में घी डाल दिया! चिंगारी शोला बन गयी! लपटें उठने लगी और मै सुलगता चला गया! और मित्रगण, जब काम-भाव उत्पन्न होता है और अपने पूर्ण रूप तक पहुँचता है तो विवेक को भी मूर्छा आने लगती है! यही मेरे साथ हो रहा था! मैंने उसके समीप बैठा, अपना हाथ उसकी कमर पर रखा, उसकी कमर की कोमल त्वचा को मैंने छुआ, मेरा हाथ उसके हर ढलान और उठाव को नापने-तोलने लगा! हैरत थी, उसने अभी भी कोई विरोध नहीं किया! मै तो । काम-धारा में बहे जा रहा था, श्वास तेज हो चलीं थीं! हलक सूखे का मारा हो चला था! मुझसे उसकी इस मुद्रा को सहा ना गया, मैंने उसके उदर तक अपना हाथ पहुंचाया और उसको पलटने के लिए ज़ोर लगाया, वो पलट गयी! अब उसने मुझे मेरी आँखों में देखा! मित्रगण! विश्व की प्रत्येक स्त्री पुरुष की आँखों से ही कामासक्ति पढ़ सकती है! ऐसा ही हुआ! और, अब मैंने अपनी नज़रें उस से हटायीं, और उसका हाथ थामा! उसके हाथ से मुझे ताप महसूस हुआ! पसीना आ चला था उसके हाथ में! जिस भाव का मै मारा था उसी भाव में वो भी थी! कम अज कम उस दरिया में उसके पाँव तो भीग ही चले थे! अब मैंने उसका पल्लू उसके वक्ष स्थल से हटाया, गौर-वर्णी शोभना उस समय मुझे साक्षात काम-मूर्ति प्रतीत हुई! हाथ लगाने से पूर्व, मै उठ गया! मेरे विवेक ने मेरी काम-धारा को अवरुद्ध कर दिया था! ये स्थिति बड़ी विकट होती है मित्रगण! जब आपका मस्तिष्क दो किनारों को मिलाना चाहता है! देह साथ नहीं देती, वो विद्रोह कर देती है और मस्तिष्क पहरेदार हो जाता है!
मै उठा और वहां रखे जग से पानी निकाला और गिलास में डाल कर गटक गया! कम से कम हलक़ तो बोलने लायक़ हो! मैंने दो गिलास पानी लिया! मैंने अब शोभना को देखा, उसका पल्लू अभी भी हटा हुआ था! इस दृश्य ने जैसे फिर से मेरी काम-धौंकनी में हवा भरनी आरम्भ कर दी!
परन्तु अब विवेक जाग उठा था! क्या गलत था और क्या सही! इस तराजू में मुझे गलत का पलड़ा भारी दिखाई दिया! मैंने अपने कामवेग पर काबू किया!
मैंने अब उसके निकट आकर बैठा, उसका वक्ष-स्थल वापिस पल्लू से ढका और फिर मैंने कहा,
"शोभना?"
"हूँ?" उसने कहा,
"मै क्षमाप्रार्थी हूँ" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
"मैं अपने कामवेग पर काबू नहीं रख पाया" मैंने कहा,
"ऐसा हुआ था क्या?" उसने मासूमियत से पूछा,
ये सुन मेरे ऊपर वज्रपात सा हुआ!
"हाँ, मै मिथ्याभाषी नहीं हूँ, मुझ में कामवेग उत्पन्न हुआ था" मैंने कहा,
"हम्म! जाइये फिर मदिराभोग करके आइये फिर!" उसने कहा,
"किसलिए?" मैंने पूछा,
"कामवेग अधूरा नहीं रहना चाहिए किसी औघड़ का!" उसने मुस्कुरा के कहा,
"उपहास उड़ा रही हो मेरा?" मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा,
"उपहास? उपहास तो आपने उड़ाया है मेरा!" उसने कहा,
ओह! अब मै समझा! काहे उसने विरोध नहीं किया था! काहे उसने एक शब्द नहीं कहा था!
"मैंने?" मैंने पूछा,
"हाँ, आपने" उसने कहा,
"कैसे?" मैंने फिर पूछा,
"आपने मुझे अपनी नीति का मोहरा बनाया!" उसने कहा,
"क्या?" मैंने कहा, ऐसे, जैसे मै चोरी करते वक़्त रँगे हाथ पकड़ लिया गया हूँ!
"मै यदि गलत हूँ तो कृपया स्पष्ट करें?" उसने कहा,
स्पष्ट करूँ! मै! क्या स्पष्ट करूँ मै! क्या करता मै स्पष्ट! क्या होता स्पष्टीकरण!
मै हारे हुए प्रतिद्वंदी के समान चुप हो गया!
"मैंने अनुचित तो नहीं कहा?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने सारी साँस एकत्रित करते हुए कहा!
"ऐसा ही था ना?" उसने पूछा, ।
"हाँ" मैंने कहा,
"और यहाँ इस कक्ष में, ये क्या था?" उसने पूछा,
अब मैं फिर से पछाड़ खा के गिरा!
"वो.........मैंने बताया ना, की मुझमे काम जाग गया था" मैंने कहा,
"अच्छा?" उसने कहा,
"तो फिर पीछे क्यों हटे?" उसने पूछा,
"ये अनुचित होता" मैंने पूछा,
"अनुचित? कैसे?" उसने पूछा,
"बिना आपकी स्वीकृति के बिना, कदापि नहीं" मैंने कहा,
"और आपको क्या लगा, मेरी स्वीकृति है या नहीं?" उसने प्रश्न किया!
इस प्रश्न ने तो मुझे पूरी तरह से चारों खाने चित्त कर दिया!
"मुझे नहीं पता" मैंने प्रश्न से बचने का यही एक मार्ग चुना!
"पता नहीं या बताना नहीं चाहते?" उसने पूछा,
एक और तीक्ष्ण-प्रहार!
"मैं नहीं जानता!" मैंने कहा,
"मेरी आँखों में देखो" उसने मेरे चेहरे को अपने हाथ से अपनी तरफ किया!
मैंने उसकी आँखों में देखा! वो स्वयं अपने प्रश्नों के झंझावत में डूबी थी!
वो अपना चेहरा मेरे समक्ष लायी! मैंने अपनी चिबुक पर उसकी गरम सांसों को महसूस किया! कुछ पल ऐसे ही मूक चक्षु-वार्तालाप हुआ!
"मेरी स्वीकृति थी अथवा नहीं?" उसने फिर से धीमे से मेरे आँखों में देखते हुए प्रश्न दोहराया!
"मुझे लगा............." मै चुप हुआ! औघड़ बेबस हो गया! कैदी हो गया इस लम्हे का!
"क्या लगा?" उसने पूछा,
"लगा.....स्वीकृति है" मैंने कहा,
मैंने इतना कहा और वो मेरे कंधे से चिपक गयी!
उस क्षण! उस क्षण मुझे नहीं पता! नहीं पता क्या हुआ! नहीं लिख सकता! वर्णन नहीं कर सकता! ये अहसास आज तक मेरे पास है!
मैंने उसको अपने कंधे से हटाया, उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में लिया! उसकी सुन्दर आँखों में झाँका! उसकी भौं में आई हुई उस नन्ही सी पसीने की बूंद को देखा! और उसके सुर्ख, लरजते होंठों पर चुम्बन दाग़ दिया!
मैंने उसको चुम्बन किया और उसने मुझे पूर्ण सहयोग! हम दोनों की साँसें एक दूसरे से टकराती, काम सर उठाता और विवेक उसका मर्दन करता! कुछ पल ऐसे ही बीते! मेरा और उसका चेहरा बढ़ते रक्त-संचार से लाल हो गया था! मैंने उसको अपनी बाजुओं में भर लिया था, फिर हम शयन-मुद्रा में आ गए! उसके खुले केश जब मेरी गर्दन से टकराते तो लगता की कामाग्नि को उसके केश और हवा दे रहे हैं! देह विद्रोह करने पर आमादा थी और मस्तिष्क उसको कुंद करने में लगा था! कितनी विकट स्थिति थी! एक तो उसकी सुकोमल एवं सुगठित देह का काम-प्रभाव ऊपर से मेरी नसों में बहता तीव्र रक्त! और फिर उसका पूर्ण सहयोग! मुझे अपने ह्रदय का स्पंदन स्वतः ही सुनाई दे रहा था! काम विवेक के बांधे काम-बांध को कभी भी तोड़ सकता था! संयम शब्द बहुत कठिन सा लगा मुझे उस पल!
तभी मैंने उसको छोड़ा, परन्तु जितना मै छुड़ाता वो और मुझे अपने अंक में खींचती! मैंने किसी तरह से संयम एकत्रित किया टुकड़े टुकड़े! और हट गया! उसने मुझे काम-आल्हादित दृष्टि से देखा और मैंने अपने संयम पर विश्वास किया! उसने अपने अस्त-व्यस्त वस्त्र को व्यवस्थित किया परन्तु मेरी निगाह उसके स्त्री-सौंदर्य से हट ही नहीं रही थीं! उसके प्रत्येक अंग में मादक-सौंदर्य भरा था! छलकने को बेताब! और मेरी देह उस मादक सौंदर्य में डूबने को लालायित थी! मैंने घड़ी देखी, सवा दस हो चुके थे!
"शोभना" मैंने कहा,
"हूँ?" उसने उत्तर दिया,
"एक बात कहूँ?" मैंने पूछा,
"कहो" उसने उत्तर दिया,
"मानोगी?" मैंने पूछा,
"क्या?" उसने पूछा,
"यदि मै कटम्ब नाथ से द्वन्द में विजयी हो गया तो उसका श्रेय आपको ही लेना होगा!" मैंने कहा,
"वो क्यूँ?" उसने पूछा,
"शोभना, मेरे अन्दर एक हूक जगी है" मैंने कहा,
"कैसी हूक?" उसने पूछा,
"शोभना की हूक" मैंने कहा,
उसने आँखें नीचे की अब!
"आप अवश्य ही विजयी होंगे" उसने कहा,
अब मै उसके पास बैठा!
"जब मै विजयी होऊंगा तो अवश्य ही तुम्हारे पास आऊंगा वापिस!" मैंने कहा,
उसने कोई उत्तर नहीं दिया!
"परन्तु वहाँ नहीं!" मैंने ऊँगली के इशारे से मना किया!
"कहाँ?" उसने पूछा,
"आपके पिता जी के आश्रम पर!" मैंने कहा,
"तो फिर?" उसने पूछा,
"जहां मै कहूँगा" मैंने कहा,
"कहाँ?" उसने पूछा,
"पहले हाँ बोलो?" मैंने कहा,
"बताइये तो सही?" उसने कहा,
"हाँ तो बोलो?" मैंने कहा,
"हाँ!" उसने कह ही दिया!
"ठीक है शोभना!" मैंने कहा, और खड़ा हो गया!
उसने अपना हाथ उठाया, मैंने हाथ पकड़ा! और उसको खींच कर खड़ा किया! मैंने उसको फिर से अपनी भुजाओं में जकड़ लिया!
"अब मै चलता हूँ शोभना!" मैंने कहा,
उसने कुछ ना कहा!
"शोभना?" मैंने फिर से कहा,
उसने फिर कुछ ना कहा!
अब मैंने उसको अलग करने के लिए उसकी भुजाओं को पकड़ा, लेकिन वो नहीं हटी! मैंने उसको और भींच लिया!
"शोभना?" मैंने कहा,
"हूँ?" उसने कहा,
"मै अब चलता हूँ, कल महा-भोज है, उसके बाद आप भी जाओगी और मै भी!" मैंने कहा,
"जानती हूँ" वो बोली,
"इन्ही दो दिनों में मुझे चुनौती-पत्र मिलेगा!" मैंने कहा,
"हूँ, जानती हूँ" उसने कहा,
"फिर होगा द्वन्द! कटम्ब नाथ के साथ, भदंग नाथ और ना जाने कौन कौन होंगे मेरे सामने!" मैंने कहा,
"पता है" उसने कहा,
"मै चलता हूँ अब शोभना!" मैंने कहा,
अब वो मुझसे अलग हुई!
मुस्कुराई
मैंने उसका पल्लू उसके वक्षस्थल पर रखा और अपनी एक तुलसी-माला अपने गले से उतार कर उसके गले में पहना दी!
उसने माला देखी और फिर मुझे! मैंने उसके चेहरे को पकड़ कर उसके माथे पर एक चुम्बन अंकित किया!
अब मै पीछे हटा और उसके कक्ष से बाहर आ गया! बड़ी राहत मिली!
मै अपने कक्ष में आया! रुद्रनाथ और शर्मा जी बतिया रहे थे आपस में!
"आइये गुरु जी" रुद्रनाथ ने कहा,
मै बैठ गया!
"कहाँ है भोग भाई रुद्रनाथ?" मैंने कहा,
"आप ही का इंतज़ार कर रहा है!" उसने कहा,
अब उसने बोतल खोली और तीन गिलास बना दिए! मैंने अपना गिलास खटाक से खींच लिया!
"आज तो कटम्ब नाथ और धर्मा को नींद आने से रही!" वो बोला!
'अच्छा! क्यूँ?" मैंने पूछा,
"वो शोभना जी जो थीं आपके साथ!" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"रुद्रनाथ! कटम्ब नाथ का क्या होगा ये पता चलेगा अब!" मैंने कहा,
"मै जानता हूँ" उसने हँसते हुए कहा!
"इनका दंभ ऐसे ही निकलता है!" मैंने कहा,
"हाँ! वो नहीं जानते आपके दर्जे के बारे में!" उसने कहा,
"जानते होंगे तब भी दंभ के आवरण ने ढक दिया होगा उनका विवेक!" मैंने कहा,
"तो अब जान जायेंगे ना!" उसने कहा,
"हाँ! विवशता है!" मैंने कहा,
"गुरु जी, कोई विवशता नहीं!" उसने कहा,
"हाँ ये भी ठीक है कहना!" मैंने कहा,
"लीजिये" रुद्रनाथ ने मुझे एक टुकड़ा दिया मांस का!
"और भोग डाल!" मैंने कहा,
उसने डाल दिया! वो भी ख़तम!
"आज कल में मैं आपको सूचना दे दूंगा उनकी!" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
शोभना के बदन की महक को मदिरा की महक भी नहीं हटा पा रही था! वो शुद्ध मद था और ये कृत्रिम!
फिर और भोग लिया, भोजन किया और फिर रुद्रनाथ चला गया!
मैंने पाँव पसारे और खो गया उन बीते लम्हों में!
सुबह हुई! रात की खुमारी अभी तक हुई पड़ी थी! सहसा मुझे कल का प्रकरण स्मरण हुआ, दिल धक से उछल पड़ा! मै स्नान करने चला गया, स्नान किया और फिर वस्त्र पहने, शर्मा जी भी उठ गए!
"चलिए स्नान कीजिये, फिर चलते हैं बाहर घूमने" मैंने कहा,
"बस अभी" उन्होंने कहा,
वे स्नान करने गए और फिर स्नान कर आये! वस्त्र पहने और हम कक्ष से बाहर चले गए! सीढ़ी से नीचे उतरे, शोभना का कक्ष देखा, कक्ष बंद था अभी! खैर, हम बाहर चले गए! पक्षियों के गान ने खुमारी का अंत कर दिया! बाहर शीतल बयार बह रही थी! प्राकृतिक-आनंद था वहाँ! अब हम आगे बढे! मंडप जस का तस था, आज यहीं महा-भोज था! आगे बढे तो एक पेड़ की नीचे घास पर जा बैठे! सहायक लोग अपने अपने काम पर चल दिए
"तो आज का ही दिन शेष है" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
तभी मुझे रुद्रनाथ जाता दिखाई दिया! मैंने उसको आवाज़ दी तो भागा भागा आया हमारे पास!
"कहाँ की सैर हो रही है रुद्रनाथ?" मैंने कहा,
"कहीं की नहीं गुरु जी, बस आपके पास ही आ रहा था!" उसने कहा और बैठ गया! अपना झोला खोला तो उसमे से संतरे निकाल लिए तीन, एक एक मुझे और शर्मा जी को थमा दिया! हमने संतरे छीले और लग गए खाने!
"कोई खबर?" मैंने कहा,
"हाँ, कल खबर मिली कि कटम्ब नाथ ने भुवन नाथ को बुलाया है!" उसने बताया,
"वो भुवन, गोरखपुर वाला?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"अच्छा?" मैंने कहा,
"हाँ" उसने कहा,
"बुलाने दो!" मैंने कहा,
"गुरु जी उसने काकड़ा-जोगिनी सिद्ध की है अभी, असम से" उसने बताया,
"कोई बात नहीं, मेरे पास काट है उसकी" मैंने कहा,
"कौन सी?" उसने पूछा,
"कूष्मांड-सुन्दरी" मैंने कहा,
"अरे वाह!" उसने कहा,
"कहाँ? कब?" उसने विस्मय से पूछा,
"नेपाल! तीन वर्ष पहले!" मैंने बताया, "वाह!" उसने कहा और फिर झोले में से तीन संतरे निकाले और एक एक हमको थमा दिया! हमने छीले और। फिर खाना शुरू!
"तो भुवन नाथ यहाँ तो नहीं आयेगा?" मैंने पूछा,
"नहीं, इसके डेरे पर" उसने कहा,
"हम्म!" मैंने कहा,
"तू कहाँ जाएगा वापिस? आसनसोल?" मैंने पूछा,
"नहीं, अभी नहीं, अभी कुछ दिन यहीं मालदा में रहूँगा" उसने कहा,
"यहाँ क्या करेगा?" मैंने पूछा,
"यहाँ काम है अभी मेरा, मैं कल निकालूँगा यहाँ से" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
"और आप कहाँ जाओगे, दिल्ली वापिस?" उसने पूछा,
"नहीं, देखता हूँ ये कब की तिथि निर्धारित करता है, उसी के अनुसार निकलूंगा यहाँ से" मैंने कहा,
"हाँ ये मै भूल ही गया था" उसने कहा,
"आज पता कर लूँगा मै, अब चलता हूँ, आपके लिए चाय-नाश्ते का प्रबंध करता हूँ!" उसने कहा और उठा, फिर चला गया!
"गुरु जी, ये काकड़ा-जोगन क्या है?" उन्होंने पूछा,
"यक्षिणी की अस्त्र-वाहिनी शक्ति!" मैंने बताया,
"ओह! कौन सी यक्षिणी?" उन्होंने पूछा,
"भीषनी-यक्षिणी" मैंने कहा,
"ओह!" उन्होंने विस्मय से कहा!
"घबराइये मत! मेरे पास कूष्मांडा-सुन्दरी है!" मैंने कहा,
"अभी बताया आपने" वे बोले,
"मै इतनी आसानी से नहीं गिरने वाला शर्मा जी!" मैंने मुस्कुरा के कहा,
"मै जानता हूँ" वे बोले,
अब हम उठे वहाँ से! वापिस अपने कक्ष के लिए, रुद्रनाथ चाय-नाश्ते का प्रबंध करने गया था! ।।
वापिस आये तो शोभना के कक्ष के कपाट अधखुले थे! मैंने कक्ष में झाँका तो कोई नहीं था! शायद बहार गयी हो कहीं, इसीलिए मै ऊपर सीढियां चढ़ गया! कक्ष में पहुंचा, थोड़ी देर बाद रुद्रनाथ चाय-नाश्ता ले आया था! हम चाय पीने लगे!
फ़ारिग हुए तो रुद्रनाथ बर्तन उठाकर ले गया!
"शर्मा जी, मै अभी आया" मैंने कहा और नीचे के लिए सीढियां उतरने लगा, शोभना के कक्ष के कपट अब बिलकुल बंद थे, मैंने दरवाज़ा खटखटाया, दरवाज़ा शोभना ने ही खोला! मैंने अन्दर प्रवेश किया!
"कहाँ गयी थीं सुबह सुबह?" मैंने पूछा,
"कहीं नहीं" उसने कहा,
"कपाट अधखुले थे" मैंने बताया,
"आप आये थे?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"मै सामने वाले कक्ष में थी, वस्त्र लेने गयी थी" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"बैठिये" उसने कहा,
मै बैठ गया!
"आपके पिता जी को खबर लग गयी?" मैंने पूछा,
"हाँ, लग गयी" उसने कहा,
"देखी कमीनों की कमीनता!" मैंने कहा,
"वो तो लगनी ही थी। उसने कहा,
"डर लग रहा है?" मैंने पूछा,
"कैसा डर?" उसने पूछा,
"पिताजी पूछेगे तो?" मैंने पूछा,
"कह दूंगी कि एक औघड़ के साथ थी" उसने कहा,
"तब तो और परेशानी होगी" मैंने कहा,
"नहीं होगी" उसने कहा,
"वाह शोभना!" मैंने कहा और उसका हाथ थाम लिया!
"चाय-नाश्ता किया आपने?" उसने पूछा,
"हाँ कर लिया" मैंने कहा,
"और चाय पियोगे?" उसने पूछा,
"आप बनाओगे?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"फिर पी लूँगा!" मैंने कहा,
वो उठी, दूसरे कक्ष में चली गयी, और शीघ्र ही चाय ले आई!
"आप कल निकलोगे यहाँ से?" मैंने पूछा,
"हाँ, और आप भी ना?" उसने पूछा,
"हाँ, मै भी" मैंने कहा,
"कहाँ के लिए? दिल्ली?" उसने पूछा,
"पता नहीं, आज तिथि मिल जाएगी, द्वन्द की, तब ही निर्णय लूँगा" मैंने कहा,
"अच्छा अच्छा!" उसने कहा,
"मेरी प्रतीक्षा करना शोभना!" मैंने कहा और चाय समाप्त की!
कुछ नहीं बोली वो!
"शोभना? प्रतीक्षा नहीं करोगी?" मैंने पूछा,
मैंने उसकी चिबुक से उसके चेहरे को उठाया,
"बताओ?" मैंने कहा,
"करोगी?" मैंने पूछा,
अब भी ना बोली वो!
"मुझे बताओ शोभना?" मैंने कहा,
"मै प्रतीक्षारत ही हूँ" उसने कहा, और चेहरा नीचे कर लिया!
मैंने उसको खींच कर अपनी भुजाओं में जकड लिया!
"मुझे भी बेसब्री से प्रतीक्षा है शोभना!" मैंने मन की बात कह ही दी!
"मै अवश्य ही आऊंगा शोभना!" मैंने कहा,
वो चुपचाप मेरी जकड़ में बंधी रही!
"मै आऊंगा, तुम्हारे लिए!" मैंने कहा,
"और अपने लिए नहीं?" उसने कटाक्ष सा किया!
"अपने लिए ही तो आऊंगा मै! तुम्हारे पास!!" मैंने कहा,
अब उसको मैंने अलग किया अपने से!
"कल जब जाओगी तो मुझसे मिलके जाना!" मैंने कहा,
"यही मेरा भी प्रश्न था!" उसने कहा,
"मै ऐसा सोच भी नहीं सकता शोभना!" मैंने कहा, .
अब वो फिर से मेरे गले लगी! ये तो प्रेम हो गया मुझे! सच में! एक औघड़ प्रेम में पड़ गया! मेरे अन्तःमन ने ठहाके लगाये जम जम के!
मेरा हाथ उसकी कमर पर गया! उसकी त्वचा से जैसे ही मेरा हाथ टकराया मुझमे जैसे आवेश जागृत हो गया! मैंने हाथ हटा लिया तभी!
"क्या हुआ?" उसने पूछा, वो भांप गयी थी!
"कुछ नहीं" मैंने अपनी कमज़ोरी छिपाई!
"क्या हुआ, बताओ?" उसने पूछा,
"आवेश चढ़ जाता है मुझे तुमको छूते ही शोभना!" मैंने सच्चाई बता ही दी! आखिर कब तब अपनी कमजोरियां छिपाता!
"ऐसी बात है?" उसने फिर से कटाक्ष किया! प्रेम-कटाक्ष!
"हाँ, ऐसी ही बात है!" मैंने कहा!
"और तब क्या होगा?" उसने कहा!
जैसे ही मैंने सुना मेरे दिल में फिर से हथौड़े बजने लग गए!
"तब?" मैंने बात घुमाने का प्रयास किया!
"हाँ" उसने पूछा,
"तब तो मै भी नहीं जानता कि क्या होगा शोभना!" मैंने कहा,
वो मेरे कंधे से हटी और मुझे देखने लगी! मुझे अहसास हुआ कि इस कामाग्नि में मै तो जल ही रहा हूँ, सुलग भी रहा हूँ, अंगार मेरे समक्ष है, परन्तु शोभना की स्थिति मेरे से उलट है! वो ना जल रही है, ना सुलग रही है! बस उसकी काम-सामाग्री किसी चिंगारी की प्रतीक्षा कर रही है! दहकने को! धधकने को! उफ़! कैसी स्थिति में है वो! ये स्थिति बड़ी विकट होती है! पुरुष पक्ष के लिए नहीं, किसी
कौमार्यशील स्त्री के लिए! मेरे फेंफड़ों में जैसे वायु समाप्त हो गयी! गला रुंधने लगा, हलक सूखने लगा! मस्तिष्क जैसे जड़वत हो गया! ।
"मै जानना चाहती हूँ" उसने कहा,
"मैं नहीं बता सकता शोभना!" मैंने कहा,
"अंशात्मक भी नहीं?" उसने जैसे छेड़ा मुझे!
"किंचितमात्र भी नहीं बता सकता" मैंने कहा,
"कारण?" उसने पूछा,
"सच्चाई ये है कि मै भी नहीं जानता!" मैंने कहा,
"ओह" उसने कहा,
मैंने उसकी आँखों में देखा! गहराई वाली ऑखें! हर स्त्री को नहीं नसीब होती ऐसी आँखें! उसके सुर्ख होंठ! करीने से सजाई हुई होठों की किनारियाँ! उसकी मांसल चिबुक! रूप ऐसा कि दर्पण भी शर्मा जाए! उसके होंठ अधखुले थे, मैंने एक चुम्बन उसके होठों पर दिया, मेरे होंठ उसकी दंतमाला से टकराए! फिर तो जैसे मेरे अन्दर चक्रवात सा घुमड़ गया! मैंने उसके माथे पर, गालों पर, चिबुक पर, नाक और होंठों के बीच, आँखों पर प्रेम-चिन्ह अंकित कर दिए! उसकी देह फिर से समर्पण भाव में आ गयी! उसने अपना एक हाथ मेरी गर्दन तक पहुँचाया, शायद मुझे खींचना चाहती थी अपनी तरफ! मैंने विरोध किया तो उसके नाखून मेरी गर्दन पर अपनी निशान छोड़ते चले गए! मैंने बड़ी मुश्किल से उसका हाथ छुड़ाया!
"शोभना" मैंने कहा,
उसने नेत्र खोले!
"शोभना, मुझे विवश ना करो!" मैंने कहा,
उसने कुछ नहीं कहा!
"मै कहीं विवश ना हो जाऊं, भय लगता है मुझे!" मैंने कहा,
कुछ नहीं बोली वो!
मै अब उठा!
"अब मै चलूँगा शोभना!" मैंने कहा,
"क्यूँ?" उसने पूछा,
"मुझे कल की तैयारी करनी है शोभना!" मैंने कहा!
"आज रात्रि मेरे साथ भोज करना आप" उसने कहा,
"मेरा भोज पृथक है शोभना, मुझे 'संगी-साथियों को भी खिलाना पड़ता है!" मैंने कहा,
"नहीं, आज नहीं, आज मेरे साथ" उसने ज़िद सी पकड़ी!
'आयेगा वो वक़्त भी शोभना, शीघ्र ही आयेगा!" मैंने कहा,
वो चुप!
"मैं अब चलता हूँ, भोजन उसी दिन करेंगे साथ साथ!" मैंने कहा!
उसने मुझे देखा! गौर से!
अब मै वहाँ से पलटा और कक्ष से बाहर निकल गया! अग्नि में और ईंधन डलवा लिया था मैंने! यही कहा मेरे अन्तःमन ने!
मै ऊपर कक्ष में आ गया! वहाँ शर्मा जी बैठे थे और रुद्रनाथ भी! रुद्रनाथ भोजन का प्रबंध करने चला गया, शर्मा जी ने पूछा," गुरु जी, ये कटम्ब नाथ कैसे भिजवाएगा खबर?"
"ये चुनौती है, उसने दी है, वही समय देगा, आज दे ही देगा" मैंने बताया,
"अच्छा!" वे बोले,
उसके बाद मै लेट गया! शोभना के साथ गुजरा हर लम्हा बार बार आके मुंह चिढ़ा जाता था! और मै बेबस सा बस टका सा रह जाता था! कल क्या होगा? कल तो जाना है, फिर उसका स्पर्श कैसे मिलेगा? क्या करना होगा? यदि मै हार गया तो? तो, तो बुरा हाल होगा! मै ठगा सा रह जाऊँगा! नहीं! हारना तो है ही नहीं! इस से तो मौत भली! लेकिन यदि हार हुई तो ना ज़िन्दगी और ना मौत! इसीलिए शोभना आई थी मेरे करीब! मेरी लालसा! यही जिताएगी मुझे! ऐसे ऐसे ख्यालों के बीच मेरा मस्तिष्क हिचकोले खा रहा था!
"गुरु जी? गंभीर से दिख रहे हो? क्या बात है?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं, कोई बात नहीं" मैंने कहा,
"ऐसा नहीं है, कोई ना कोई बात तो अवश्य ही है" वे बोले,
"नहीं शर्मा जी, ऐसा कुछ भी नहीं" मैंने कहा,
"कटम्ब नाथ से तो आप गंभीर होने वाले नहीं, फिर ये है शोभना!" वे बोले,
मैंने उनको देखा! यही बात थी!
"गुरु जी, इसमें गंभीर क्या होना!" उन्होंने कहा,
"नहीं मै गंभीर नहीं" मैंने कहा,
"मै जानता हूँ कि मन में क्या चल रहा है! सब जानता हूँ!"वे बोले!
"ऐसा कुछ भी नहीं!" मैंने कहा,
"सुनिए, इधर कटम्ब नाथ गिरेगा, उधर आपका मार्ग शोभना तक जाने के लिए प्रशस्त हो जायेगा!" वे बोले!
बात लाख टके सही कही थी शर्मा जी ने! शोभना और मेरे बीच इस कटम्ब नाथ का गिरना ही महत्त्व रखता था!
"सही कहा आपने" मैंने कहा,
रुद्रनाथ भोजन ले आया था, हमने भोजन किया और साथ ही साथ मदिरापान! मेरे मस्तिष्क में शोभना के ख्यालों के बुलबुले उठ रहे थे लगातार!
भोजन संपन्न किया हमने! रुद्रनाथ गया और मैं लेट गया! शायद नींद आ जाये और कुछ समय के लिए मैं 'मै' रह सकूँ! नींद ने रहम किया मुझ पर, आ गयी, मै सो गया!
नींद खुली मेरी जाकर कोई सात बजे! शर्म जी भी सोये हुए थे! जागा तो फिर से शोभना का वो स्पर्श कचोटने लग गया! बड़ी ही अजीब सी स्थिति थी! ना भूले बन रही थी, ना जाने बन रही थी!
खैर, मै स्नान करने चला गया! स्नान करने के बाद वस्त्र पहने, शर्मा जी भी जाग गए! तभी कटम्ब नाथ आया एक गुनिया जैसे आदमी के साथ! कटम्ब नाथ ने बताया कि ये बताने आया ही कि इस अष्टमी को द्वन्द होगा!
"रुद्रनाथ, तू ठहर और इसको भेज दे" मैंने कहा,
रुद्रनाथ बैठ गया और उस गुनिया को भेज दिया वहां से उसने!
"जी गुरु जी?" उसने पूछा,
"सुन, अष्टमी आने में अभी नौ दिन बाकी हैं, तू सही कह रहा है कि भुवन नाथ उसके साथ ही है?" मैंने पूछा,
"सौ प्रतिशत" उसने कहा,
"यदि ऐसा ही है तो मुझे एक ब्रह्म-शमशान, एक श्वेत-साध्वी और एक घाड़ चाहिए, बता हो जाएगा प्रबंध?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, आप केवल आदेश करो मुझे, मै जान भी दे दूंगा" उसने कहा,
मै रुद्रनाथ के इस उत्तर से प्रसन्न हो गया!
"तुझे मै अष्टांग-साधना करवाऊंगा रुद्रनाथ!" मैंने कहा,
"मेरा अहोभाग्य!" उसने कहा,
अब रुद्रनाथ उठा और चला गया!
"गुरु जी? अष्टमी?" अब शर्मा जी बोले,
"हाँ! चाल खेल रहा है! कटम्ब नाथ में इतना दिमाग नहीं! ये या तो भदंग नाथ की चाल है या भुवन नाथ का प्रपंच!" मैंने कहा,
'और गुरु जी, ये घाड़?" उन्होंने कहा,
"हाँ, भुवन नाथ सोलह कपालों को भूमि में गाड़ कर उस पर अपना आसन बिछाकर विक्रांत-साधन करता है!" मैंने बताया,
"सोलह कपाल?" उन्होंने हैरान हो कर पूछा, "
"हाँ! सोलह कपाल!" मैंने बताया!
"वो किसलिए?" उन्होंने पूछा,
"ये महा-विलाप साधना का अंश है! किसी औघड़ का सर्वनाश करने हेतु ऐसा साधन किया जाता है!" मैंने कहा,
"और इसीलिए आप घाड़ प्रयोग कर रहे हैं!" शर्मा जी बोले!
"हाँ! घाड़ का तोड़ उसके सोलह कपाल भी नहीं कर सकते!" मैंने कहा,
"वाह!" वे खुश हो गए!
संध्या-अवसान हुआ! रात्रि-देवी की पायल की छमक सुनाई देने लगी थी! ये महा-भोज का भी समय था! अतः हम दोनों वहाँ से निकले, नीचे आये, शोभना का कक्ष बहार से बंद था, ताला लगा था, वो शायद किसी प्रबंधनकार्य में गयी थी! अब हम वहाँ से निकले और मंडप की ओर चले! रास्ते में वो खड़ाऊं-धारी टकरा गया नज़रों में! उसने हमें देखा और हमने उसे! उसकी हंसी गुम हो गयी! उसको याद आ गया कुछ! हम आगे बढे तो पीछे से कानाफूसी आरम्भ हुई! हमने चिंता ना की, आगे बढ़ते गए!
मंडप पहुंचे, पूरी पंगत लगी थी! औघड़ और साध्वियां भूखे कुत्तों की तरह से भोजन खा रहे थे! कोई भी बता सकता था कि इस से अधिक असभ्यता से कोई भी खाना नहीं खा सकता! कलंक! तंत्र-ज्ञान के कलंक! खाते कम, हंसी-ठिठोली करते अधिक! साध्वियों के साथ अश्लील हरकतें! और साध्वियां! सब कुछ करने को तैयार! मात्र एक संसर्ग के लिए!
मन खिन्न हुआ मेरा वहाँ से!
"चलिए शर्मा जी यहाँ से" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम अब वापिस चले!
एक जगह आकर बैठ गए! तब शर्मा जी ने पूछा,"गुरु जी, एक बात बताइये?"
"पूछिए?" मैंने कहा,
"ये भुवन नाथ जानता है कि आप कौन हैं?" उन्होंने पूछा,
"जानता है, ये भी मेरा शत्रु है!" मैंने कहा,
"ओह! तभी उसने हाँ की होगी!" वे बोले!
"हाँ!" मैंने उत्तर दिया,
"ये भी गया अब!" शर्मा जी ने कहा!
शर्मा जी, ये तीन लोग बेकार हो जायेंगे! ऐसी मार लगवाऊंगा कि जब तक जियेंगे हर साँस में आह निकलेगी!" मैंने कहा!