वर्ष २००९ गढ़वाल की...
 
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वर्ष २००९ गढ़वाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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कोई विरोध नहीं!

"कुछ बात कहूँ? यदि ध्यान दो तो?" मैंने कहा,

उसने कोई जवाब नहीं दिया! मैंने हाथ छोड़ दिया! उसने वही हाथ अपने दूसरे हाथ में भर लिया!

"मै ध्यान दूंगी" उसने बिना आँखें मिलाये कहा,

"सुख दो प्रकार के हैं!" मैंने कहा,

"कौन कौन से?" उसने पूछा!

"अन्तःसुख और बाह्य-सुख" मैंने उत्तर दिया!

"अन्तःसुख क्या?" उसने प्रश्न किया!

"वो सुख जो स्वतः अपने चित्त में जन्म लेता है! ये सुख आपका सुख है! अपना सुख! जिसको कोई छीन नहीं सकता, चुरा नहीं सकता अथवा क्षति नहीं पहुँच सकता!" मैंने कहा,

"ऐसा कौन सा सुख है?" उसने प्रश्न किया! ।

"ज्ञान अर्जन करना! परोपकार करना! दया करना! क्षमा करना! जो स्व-अर्जित किया हो उसको दान करना, जिससे आपके उदर की क्षुधा शांत होती है वही भोजन किसी भूखे को खिलाना, किसी पशु को खिलाना, किसी पक्षी को खिलाना! विश्वास रखो, खायेगा तो वो! परन्तु क्षुधा आपकी शांत होगी! ये अन्तःसुख है!" मैंने कहा!

उसने गर्दन उठाकर मुझे ध्यान से देखा!

"और बाह्य-सुख?" उसने पूछा,

"कामावेग शांत करना, पुरुष के लिए स्त्री-संसर्ग और स्त्री के लिए पुरुष-संसर्ग, किसी और के धन पर कब्ज़ा करना, किसी और की अर्जित संपत्ति पर आधिपत्य जमाना, अच्छे-महंगे वस्त्र पहनना, वाहन-सुख प्राप्त करना, अपनी संतान को सर्व-श्रेष्ठ कहना! अपने दंभ में जीना, छोटे-बड़े का भेद करना, मनुष्य का मूल्यांकन उसके धन से करना, उसके ज्ञान अथवा गुण से नहीं! ये सभी बाह्य-सुख हैं! काम-क्षुधा पूर्ण होने पर आसक्ति चूर्ण हो जाती है, धन स्थायी नहीं! वाहन-सुख स्थायी नहीं! वस्त्र स्थायी नहीं! भूमि वहीं रहेगी, उत्तराधिकार बदलते जायेंगे! दंभ चूर हो जायेगा! संतान भी अपनी नहीं रहेगी! ये अस्थायी सुख हैं! मनुष्य इन्ही बाह्य-सुखों के छद्मजाल में फंसा हुआ है! उसको फुर्सत नहीं अपने अन्तःसुख की! और जब जागता है तो प्रातःकाल तो छोडिये संध्या का भी अवसान हो जाता है! घुप्प मृत्यु-रुपी रात्रि उसके समक्ष होती है!" मैंने कहा!

"अनुपम!" उसने कहा,

"कहाँ से ज्ञान-लाभ किया ये?" उसने पूछा,

"ज्ञान तो सर्वत्र बिखरा पड़ा है! लाभ लेने वाला होना चाहिए!" मैंने कहा!

"मेरे अधूरे ज्ञान को पूर्ण करेंगे आप?" उसने याचनापूर्वक कहा,

"यदि संभव हुआ तो अवश्य!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"संभव क्यूँ नहीं होगा?" उसने कहा,

"कटम्ब नाथ की चुनौती है ना अभी, ना जाने क्या हो!" मैंने कहा,

"आप विजयी होंगे, अवश्य!" उसने कहा,

"कैसे?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा, -

"आप में विवेक कूट कूट के भरा है" उसने कहा,

"आपने जान लिया?" मैंने कहा,

"विवेकपूर्ण कार्य कभी असफल नहीं होता!" उसने कहा,

"सही कहा!" मैंने कहा,

"कब होगा मेरा ज्ञान पूर्ण?" उसने पूछा,

"अभी समय है" मैंने कहा,

"कब?" उसने पूछा,

"शीघ्र ही" मैंने कहा!

कब शीघ्र?" उसने पूछा,

"पहले इन कमीन इंसानों से निबट लूँ, उसके बाद देखता हूँ" मैंने कहा,

"देख तो आपने लिया ही है" उसने कहा,

"नहीं, अभी तो देखा भी नहीं मैंने तुमको" मैंने कहा,

"फिर कैसे देखोगे?" उसने पूछा,

"मुझे देह नहीं, मन देखना है!" मैंने कहा,

"वो किसलिए?" उसने पूछा,

"मन से ही तो ये देह संचालित है!" मैंने कहा,

"ये तो सत्य है" उसने कहा,

"तुम कितने वर्षों से ब्रह्म-तपस्विनी हो?" मैंने पूछा,

"९ वर्षों से" उसने कहा,

"सब व्यर्थ!" मैंने कहा,

"व्यर्थ?" उसे जैसे डंक लगा!

"हाँ! व्यर्थ!" मैंने कहा,

"कैसे?" उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गंगा किनारे बैठ कर आप ये सोचो कि एक लहर आयेगी और आपको स्नान करा देगी, ये परम मिथ्या है! वो । तो गति है, गति किसी की प्रतीक्षा नहीं करती! समझीं आप?" मैंने कहा,

"ओह! यही स्थिति है मेरी!" उसने कहा,

"जब तक क्रिया का निष्पादन आप नहीं करोगे, यथावत ही रहोगे! चलायमान बनो! परिवर्तन आवश्यक है! जिस प्रकार एक वृक्ष को उसका भोजन उत्पन्न करने वाली पत्तियाँ पतझड़ में उसका साथ छोड़ जाती हैं और वृक्ष एक ढूंठ सामान हो जाता है, तो जीवित कैसे रहता है? अपने सृजित प्राण-संचन से! ऐसे ही पुण्य-संचन होता है! फिर नव-अंकुरित पत्तियाँ वही करती है जो उसकी पूर्व-वृति पत्तियाँ करती थीं! उन्होंने स्थान बदला परन्तु अपना गुण नहीं! ऐसे ही मनुष्य है, यदि एक जीवन में स्थान नहीं बदल पाता है तो उसे अपने उत्तम मार्ग पर सदैव प्रशस्त रहना चाहिए! एक वृक्ष पर, शाकाहारी और मांसाहारी दोनों पक्षी विश्राम करते हैं, परन्तु वृक्ष किसी में भेद नहीं करता, सभी को समान रूप से आसरा देता है! ऐसे ही है वो रचियता! वो तुम्हारे कर्म को नहीं, कर्मफल को देखता है! उसी के अनुसार आपके जीवन और भोग का निधारण करता है!" मैंने कहा!

"अतुलनिय वर्णन!" उसने कहा,

"कैसा वर्णन! ये तो समस्त संसार का नियम है! बीज जब तक अंकुरित नहीं होगा, वृक्ष नहीं बन सकता!" मैंने कहा,

"ये अंकुरण कैसे हो?" उसने पूछा, ।

"ज्ञान वो खाद है जो इसको पोषित करता है, निष्ठा वो भूमि है जो इसको जन्म देती है, लगन वो शक्ति है जो इसको शक्ति देती है और विवेक इसकी रक्षा करता है! सत्य इसका आधार-स्थल है! फिर वृक्ष बनता है! समय लगता है इसमें, परन्तु फल तभी आते हैं जब फलदाई-ऋतु आती है!" मैंने कहा,

"ये ऋतु कौन सी है?" उसने पूछा,

"ये ऋतु भाव-सिद्धि है!" मैंने बताया,

"इसका आशय क्या हुआ?" उसने पूछा,

"आशय स्पष्ट है! अपने चित्त को निर्मल करो! उसको अपने विवेक के अनुसार मोड़ो, ना कि आप मुड जाओ उसके अनुसार!" मैंने बताया!

"ये कैसे पता चलेगा?" उसने पूछा,

"स्व-आंकलन करो!" मैंने कहा,

"अर्थात?" उसने पूछा,

"आपके कर्मों का यदि कोई साक्षी है तो मात्र आप!" मैंने कहा,

"ओह! मैं समझ गयी!" उसने कहा,

"धन्यवाद!" मैंने कहा,

"धन्यवाद तो मुझे कहना चाहिए", उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अब मै चलूँगा, भोग का समय है" मैंने कहा,

"नहीं, अभी ठहरिये, कुछ शंकाएं हैं" उसने कहा,

"कैसी शंकाएं?" मैंने पूछा,

"चलिए, कभी फुर्सत से पूछूगी" उसने कहा,

"मुझे प्रसन्नता होगी!" मैंने कहा,

वो मुस्कुराई अब!

"मै दो दिनों के बाद प्रस्थान करूँगा, कल महा-दीप है, फिर भोज, उसके पश्चात" मैंने कहा,

"मै जानती हूँ" उसने कहा,

"ठीक है, अब मै महा-भोग अर्पित करने जा रहा हूँ, अच्छा लगा आपसे वार्तालाप करके" मैंने कहा,

"उचित है" उसने कहा,

उसने मुझे जिस तरह से देखा मै स्वयं शशोपंज में पड़ गया! एक ब्रह्म-तपस्विनी एक भस्म-लेपी औघड़ पर विश्वास कर बैठी थी!

अब मै उठा वहाँ से! उसको देखा, उसकी आँखों में मूक-स्वीकृति नहीं थी! परन्तु मुझे जाना था, सो औघड़ निकल आया!

शर्मा जी बाहर वहीं एक बेंच पर बैठे थे, मुझे देखते ही बोले, "बड़ा लम्बा हो गया व्याख्यान!"

"हाँ, शर्मा जी, यदि आप किसी प्रश्न का उत्तर जानते हों और आप नहीं उत्तर दें, तो ये भी आपका दंभ ही कहलायेगा!" मैंने कहा,

"ये तो सही है" वे बोले,

"बस यही पूछा उसने" मैंने कहा, |

"शंका समाधान हो गया उसका?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, परन्तु स्वयं उलझ गयी है!" मैंने कहा,

"कैसे?" उन्होंने पूछा,

विचार-सागर में उसकी सिद्धांत-नैया हिचकोले खाने लगी है!" मैंने कहा,

"कर दिया औघड़-कलाप!" वे बोले!

"नहीं! ऐसा नहीं!" मैंने कहा!

"चलिए शर्मा जी, थोडा प्रांगण घूमा जाए" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब हम खुले प्रांगण में आ गए, यहाँ वहां, सहायक अपना अपना सामान ले जा रहे थे! मेरे ठीक सामने कुछ साधक और साध्वियां गीत गा रहे थे, बिना तर्ज की गीत! ये गीत नहीं सिर्फ ये जताना था की मदिराभोग ले लिए गया है! ठिठोलियाँ हो रहीं थीं! साध्वियां तालियाँ मार रही थीं! कुछ कभी-कभार उठ के नाचने भी लगती थीं! पीत-वस्त्रधारी, श्वेत-वस्त्रभारी, श्याम-वस्त्रधारी आदि आदि अपनी शाखाओं के परिचायक थे! पीत-वस्त्र उत्तर भारतीय, श्वेत-वस्त्र मध्य भारतीय और श्याम पूर्वी भारतीय पहचान है! हम इनके गुटों से बचते बचाते आगे गए! आगे कटम्ब नाथ बैठा था अपनी साध्वियों के साथ! नशे में धुत्त! हाँ उसके चमचे नज़र नहीं आ रहे थे, शायद रास-रंग में तल्लीन हों! कटम्ब नाथ ने मुझे देखा और अपना चिमटा खड़खड़ाया! उसकी उन्मत्त साध्वियों ने मुझे देखा! 'अलख निरंजन!' उसने नाद किया! मै चुपचाप खड़ा देखता रहा उसको! उसने अपनी एक साध्वी की कमर पै हाथ फेरा, साध्वी ने तख्त के नीचे से मदिरा की बोतल निकाली और एक गिलास में डालकर दे दी कटम्ब नाथ को! कटम्ब नाथ मुझे घूरते हुए खींच गया गिलास! मित्रगण, शत्रु को अपनी सेना अथवा साधन से नहीं, अपने भय से त्रस्त रखना चाहिए! इस से उसका आधा बल वैसे ही क्षतिग्रस्त हो जाता है! मै उसको घूर रहा था! उसने फिर से 'अलख निरजन!' का नाद किया! उसकी मदिरा अब उसके सर चढ़ के बोल रही थी! अब मैंने अपनी जेब से एक हस्तांगल-माल निकाल और उसको दिखाया और उस माल को ऐसे नमन किया जैसे किसी शत्रु पर विजय प्राप्त करने के पश्चात किया जाता है! ये देख वो और भड़क गया, उसने अपनी साध्वी को फिर से कोहनी मारी तो उसने फिर से एक और गिलास भर दिया मदिरा से! ये देख मेरी हंसी छूट गयी!

"चलिए गुरु जी!" शर्मा जी ने कहा,

"चलिए" मैंने कहा,

अब जैसे ही मै मुड़ा, कटम्ब नाथ का और उसकी साध्वियों का व्यंग-हास्य-स्वर सुनाई दिया! कटम्ब नाथ ने अट्टहास किया! मै रुका और पीछे देखा! स्वर मंद हो गया! हाँ उसकी साध्वियों की ठिठोली निरंतर चलती रही!

मै वहाँ पर रुद्रनाथ को ढूँढने आया था, अब न जाने वो कहाँ चला गया था! रात्रि-भोग देना था और वो होता तो अवश्य ही मदद करता! वो ढूँढने पर भी नहीं मिला मुझे, मै वापिस अपने कक्ष की ओर मुड़ा, वहाँ तक आया तो सामने के कमरे में शोभना को देखा, वो अपने रुद्राक्ष उतार चुकी थी, कमर में बंधी श्वेत-पट्टिका भी उतार ली थी! गले में धारण ज्योति-माल भी उतार लिया था! उसे देख मै मंद मंद मुस्कुराया! मुझे इतना विश्वास नहीं था कि एक अवधूत की पुत्री इतना त्वरित निर्णय ले लेगी! न जाने क्यूँ, मुझसे रहा नहीं गया, मै उसके कक्ष में दाखिल हुआ, रात्रि के साढ़े दस बजे होंगे, हाँ इतना ही समय हुआ होगा उस समय!

"रुद्राक्ष, माल, पट्टिका सब उतार लिए??" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"क्यूँ?" मैंने पूछा,

"अधूरे ज्ञान वाले व्यक्ति को सदैव उसे पूर्ण करने की चेष्टा करनी चाहिए, तभी ये सब धारण किया जाता है" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तुम्हे इस क्षेत्र में कौन लाया था?" मैंने पूछा,

"मेरे पिता जी" उसने कहा,

"अब किस क्षेत्र में जा रही हो?" मैंने पूछा,

"स्व-क्षेत्र में" उसने उत्तर दिया!

"अत्युत्तम कहा आपने!" मैंने कहा,

"आप मेरा आशय समझ ही गए होंगे" उसने कहा,

"हाँ! व्यक्ति को सर्व-प्रथम स्व-क्षेत्र पर विजय पानी चाहिए! उसका विश्लेषण करना चाहिए! जब तक स्व-क्षेत्र पर विजय नहीं पाओगे कोई मार्ग आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता! गुरु-वाणी भी सार्थक नहीं होगी! उचित गुरु-दिशा भी भ्रमित कर देगी! जिस प्रकार छेद हुए मृदभांड में जल नहीं ठहर सकता उसी प्रकार बिना स्व-क्षेत्र पर विजय पाए बिना कोई ज्ञान सार्थक नहीं हो सकता! भले ही ये ज्ञान स्वयं किसी सिद्ध-पुरुष अथवा सिद्ध-आत्मा अथवा स्वयं रचियता द्वारा ही प्रदत्त हो!" मैंने कहा,

"एक प्रश्न है मेरे मस्तिष्क में" उसने कहा,

"पूछिए?" मैंने कहा,

"ज्ञानार्जन आरम्भ कहाँ से हो?" उसने पूछा,

"चिंतन से" मैंने उत्तर दिया,

"किस प्रकार का चिंतन?" उसने पूछा,

"आत्म-चिंतन कीजिये सर्व-प्रथम!" मैंने बताया,

"किस प्रकार?" उसने पूछा,

"चिंतन कीजिये कि ये देह आपकी है या नहीं? है तो कैसे, नहीं है तो भी कैसे, दोनों का उत्तर दूँढिये! आपकी देह के नाखून, केश क्या आपसे पूछ के बढ़ते हैं? फिर चिंतन कीजिये कि इस संसार में मेरा क्या है? है तो क्या, नहीं है तो भी क्यों? मनुष्य-जीवन का ध्येय क्या है? किसलिए सृजित हुए हैं हम? कहाँ से आये और कहाँ जायेंगे? ये चिंतन कीजिये! आपकी देह आपके प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दे देगी!" मैंने कहा,

"बेहद कठिन है ये चिंतन" उसने कहा,

"क्यों?" मैंने पूछा,

"बिना गुरु ज्ञान कहाँ?" उसने कहा,

"एक प्रश्न पूछू?" मैंने कहा,

"अवश्य" उसने कहा,

"जब शिशु गर्भ में रहता है नौ माह, तो कौन होता है उसका गुरु?" मैंने पूछा,

अब वो शांत हो गयी! उत्तर न मिला उसे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मेरे कहने का आशय ये था, कि जब तक अप मूलभूत सत्यों का ज्ञानार्जन नहीं कर लेंगे स्वयं ही, कोई गुरु आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता!" मैंने कहा,

"सत्य है" उसने कहा,

"और शो......." मैंने बोलते बोलते रुक गया,

"शोभना, आप मुझे मेरे नाम से पुकारिए" उसने कहा,

"और शोभना, मेरा मार्ग दुष्कर है! देह-कष्ट, इच्छा-दमन तो दो गहने हैं इसके, जो सदैव धारण करके रहने पड़ते हैं!" मैंने कहा,

"मै जानती हूँ" उसने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"वे तीनों महानुभव कब आ रहे हैं?" मैंने पूछा,

"कल सुबह, वो कोलकाता में हैं अभी" उसने बताया,

"हम्म!" मैंने कहा,

"ठीक है शोभना! सुबह मिलूंगा आपसे, शुभ रात्रि!" मैंने कहा,

"भोजन नहीं किया आपने?" उसने पूछा,

"वो रुद्रनाथ ले आएगा!" मैंने कहा,

"ठीक है" उसने कहा,

अब मै कक्ष से बहार निकला, उसने कक्ष के कपाट बंद करने से पहले मुझे शुभ-रात्रि कहा! मुझे सच में ही बहुत अच्छा लगा!

हम दोनों उसके बाद अपने कक्ष में चले गए, रुद्रनाथ भोजन ले आया, भोजन आदि लिया, रात्रि-भोग दिया और फिर आराम से सो गए!

प्रातःकाल उठे, स्नान, देह-मार्जन से निवृत हुए! समय सुबह के छह बजे होंगे, अब थोडा घूमा जाये इसी कारण से हम नीचे चले गए, शोभना का कक्ष अभी बंद था, अर्थात उसकी नींद नहीं खुली थी, अथवा स्नानादि में व्यस्त होगी, हम आगे बढे और चलते चलते प्रांगण में आ गए, आज सजावट का माहौल था, सहायकों ने बढ़िया कार्य किया था, मैंने और शर्मा जी ने मंडप में प्रवेश किया, मंडप में एक ब्रह्म-अलख बना ली गयी थी, ये महा-दीप था! आज रात्रि यहाँ आचार-विचार, सामंजस्य और परस्पर सौहार्द के विषय में वे तीन महानुभव अपने विचार रखने वाले थे! उनके इस अभिभाषण के पश्चात फिर से वही आरम्भ होने वाला था! जहां ब्रह्म-अलख मंगल हुई, उसके साथ ही ये समस्त आचार-विचार, सामंजस्य आदि आदि भी मंगल हो जाने थे!

अब हम एक स्थान पर जाकर घास पर जा बैठे, शर्मा जी बोले,"तो आज का दिन और कल का दिन, यही हैं मुख्य तो?"

"हाँ, हैं तो यही, लेकिन कटम्ब नाथ ने परचा भी देना है ना!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ! अपने दुर्भाग्य का परचा!" वो बोले,

"देखते हैं क्या होता है" मैंने कहा,

"कोई संदेह है क्या?" वे बोले,

"नहीं, संदेह तो नहीं" मैंने कहा,

"फिर?" उन्होंने पूछा,

"ना जाने और किसकी बुद्धि फिर जाये!" मैंने कहा,

"अच्छा, आपका अर्थ की कटम्ब नाथ किसी की मदद लेगा?" उन्होंने पूछा,

"स्वाभाविक है!" मैंने कहा,

"अपने आपको जमघड़ औघड़ कहता है!" वे बोले,

"कहने दो! अपने आपको सम्राट बोले, तो भी कहने दो!" मैंने कहा,

"लीजिये, सामने देखिये!" उन्होंने सामने इशारा करते हुए कहा!

सामने से शोभना चली आ रही थी! गहरे हरे रंग के वस्त्र पहने! उसके हर कदम में आकर्षण था! कोई भी प्रघाड़ साधक उसको अपनी साध्वी बनाने की लालसा पाल सकता था! मै टकटकी लगाए देख रहा था! वो और करीब आई, इतना करीब एक एक दूसरे को पहचान सकें! उसने मुझे देखा और मैंने उसे! उसने पास आके नमस्ते की!

"कहाँ चल दीं सुबह सुबह?" मैंने पूछा,

"वे तीनों घंटे भर में आ रहे हैं, उनके आवास-कक्ष वहीं है मंडप के समीप, कुछ परिचायिकों को भेजा था साफ़सफाई के लिए, वही देखने जा रही हूँ" उसने बताया,

"अच्छा! ठीक है, पहुँचिये" मैंने कहा,

फिर वो आगे बढ़ गयी! संयत-चाल से चलती हुई! संयत-चाल अर्थात नपे-तुले कदम! मै उसी को निहारता रहा जब तक वो मुड़ कर ओझल ना हो गयी!

और तभी वो कटम्ब नाथ आता दिखाई दिया मुझे धर्मा के साथ! बीड़ी सुलगाते हुए! उन दोनों ने हमें नहीं देखा, बस वहीं हमारी ओर पीठ करके घास पर बैठ गए! बीड़ी चल रही थी उनकी, साझी!

कुछ देर बातें की मैंने और शर्मा जी ने और फिर मुझे वापिस आते हुए शोभना दिखाई दी, उसने हमें देखा और मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गयी! वो आगे बढ़ी और कटम्ब नाथ और धर्मा के पास से गुजरी! उसको देख कर कटम्ब नाथ कुत्ते की तरह से उठ खड़ा हुआ, उसे रोका और कुछ बातें कीं, उसके हाथों के इशारे मै समझ नहीं पा रहा था! कुछ देर के बाद शोभना ने मेरी तरफ दृष्टि की तो कटम्ब नाथ ने भी मेरी तरफ दृष्टि की! कटम्ब नाथ ने मुझे देखते हुए टाल दिया और फिर से शोभना से बातें करने लगा! थोड़ी देर बाद शोभना वापिस चली गयी! कटम्ब नाथ वापिस जा बैठा, उसने धर्मा को भी हमारी उपस्थिति के विषय में बता दिया, धर्मा ने नज़रें बचाते हुए हमें देखा और फिर बातचीत में मशगूल हो गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हमें करीब आधा घंटा हुआ बैठे बैठे, फिर हम उठे, अपने कपड़े झाड़े और चल दिए वापिस चाय-नाश्ते के लिए! हम उन दोनों के करीब से गुजरे तो दोनों शांत हो गए, जब हम गुजर गए तो उनके मौन ने ठहाकों का रूप ले लिया!

हम अन्दर गए और सीधे अपने कक्ष की ओर जाने लगे, तभी शोभना मुझे दरवाजे पर खड़ी मिली,

मै रुक गया और शर्मा जी सीधे सीढियां चढ़ते हुए ऊपर कक्ष की ओर चले गए! मैंने शोभना के कक्ष में प्रवेश किया, अबकी प्रश्न मैंने ही किया, "क्या कह रहा था वो कटम्ब नाथ आपसे शोभना?"

"कुछ नहीं" उसने कहा,

"कुछ तो?" मैंने कहा,

"कुछ नहीं, विशेष नहीं" उसने कहा,

मुझे क्रोध आ गया!

"शोभना?" मैंने कहा और उसकी भुजा को उसकी कोहनी के ऊपर से पकड़ लिया!

"क्या बोला वो कटम्ब नाथ?" मैंने पूछा उस से!

उसने मेरी आँखों में देखा! कभी दायीं आँख कभी बायीं आँख!

मैंने उसकी भुजा अभी तक पकड़ रखी थी कस कर!

उसने अपनी भुजा को देखा, मुझे गलती का एहसास हुआ और उसकी भुजा छोड़ दी!

मेरी पकड़ ने उसकी कोमल भुजा पर मेरी उँगलियों के निशान छोड़ दिए थे!

"क्षमा कीजिये" मैंने कहा,

"क्या बोला वो कटम्ब नाथ, यही जानना चाहते थे ना आप!" उसने मुस्कुरा के कहा,

"हाँ" मैंने मंद स्वर में कहा,

"उसने मुझ से पूछा कि वे तीनों कब तक यहाँ आ जायेंगे, और अब कहाँ हैं वो" उसने बताया,

"बस?" मैंने पूछा,

"बस" उसने गर्दन हिला के कहा,

"दरअसल मुझे कटम्ब नाथ का आपसे बातें करना अच्छा नहीं लगा, बस" मैंने कहा,

"वो क्यों?" उसने पूछा,

"वे कमीन लोग हैं, मै उनकी सोच जानता हूँ, इसीलिए" मैंने कहा,

"वो मुझे कुछ क्षति पहुंचा सकता है?" उसने पूछा,

"नहीं! उसके बाप में भी हिम्मत नहीं!" मैंने कहा,

"तो फिर?" उसने पूछा, ये अंदाज़ ऐसा था कि मै उस से नज़र नहीं मिला सका!


   
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"चलिए, मै चलता हूँ अब, आज आप भी व्यस्त रहेंगी!" मैंने कहा,

"हाँ, व्यस्त तो हूँ" उसने कहा,

"ठीक है, आप अपना काम कीजिये, मै चलता हूँ" मैंने कहा,

"दोपहर में समय हो तो आइयेगा यहाँ" उसने कहा,

"समय रहा तो अवश्य ही आऊंगा" मैंने कहा,

"समय रहा? वैसे नहीं आ सकते?" उसने पूछा,

"आ... आ जाऊँगा" मैंने कहा,

"ठीक है" वो बोली और अपने एक हाथ से अपनी उस भुजा को पकड़ा जहां मैंने पकड़ा था!

खैर, मै निकल पड़ा वहाँ से! ऊपर आया तो रुद्रनाथ ने चाय-नाश्ते का प्रबंध कर लिया था!

हमने चाय-नाश्ता करना आरम्भ कर दिया!

चाय-नाश्ता किया तो थोडा आराम कर लिया जाए, ऐसा सोचा! रुद्रनाथ चला गया था कुछ फल लेने के लिए, फल लेके आया और छीलने बैठ गया! उसने बताया कि वे तीनों आ गए हैं और सभी डेरे वाले उनके स्वागत में जुट गए हैं!

"हमारा तो कोई डेरा नहीं रुद्रनाथ! तेरा है, तू क्यूँ नहीं गया?" मैंने पूछा,

"जब आप नहीं गए तो मैं क्या करता!" उसने कहा,

उसने फल काट लिए थे, हमने खाने शुरू किये!

"अच्छा एक बात बता रुद्रनाथ" मैंने कहा,

"पूछिए?" उसने पपीते का एक टुकड़ा खाने से पहले पूछा,

"कभी केशवानंद के आश्रम गया है तू?" मैंने पूछा,

"हाँ, कई बार" उसने बताया,

"क्या करता है ये केशवानंद?" मैंने पूछा,

"पांवों से लाचार है, बस नाम का सरंक्षक है, काम केशवानंद का एक मित्र है, वो बनारस का है, वही चलाता है" उसने बताया,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"और उसकी ये बेटी शोभना, इसके विषय में क्या जानता है?" मैंने कहा,

"अधिक नहीं, बस इतना कि किसी को घास नहीं डालती!" उसने कहा और हंस पड़ा!

"इसका ब्याह?" मैंने पूछा,


   
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"केशवानंद ने कई बार कहा, अपने मित्र के पुत्र से विवाह के लिए, लेकिन कभी नहीं मानी वो, आज तक नहीं" उसने कहा,

"तुझे किसने बताया?" मैंने पूछा,

"अब अन्दर की बात तो अंदरवाले ही बताते हैं ना!" उसने फिर से मुस्कुराते हुए कहा!

"वाह! तू आदमी बढ़िया है भाई रुद्रनाथ!" मैंने उसके पीठ पर दो-चार थाप लगायीं!

"अच्छा एक बात और बता, ये कमीना कटम्ब नाथ क्यूँ जाता है वहाँ?" मैंने पूछा,

"कटम्ब नाथ का बाप और केशवानंद पुराने मित्र हैं, भदंग नाथ यहीं आके ठहरता है हमेशा, जब भी आता है तो" उसने बताया,

"अच्छा! ये है कारण!" मैंने अपने आपसे कहा!

रुद्रनाथ उठा, बर्तन हटाये और बाहर चला गया, दस बज चुके थे, बदन में अलकत पाँव पसारने लगी थी, सो कमर सीधी करने के लिए लेट गए हम दोनों!

"शर्मा जी, है ना ये कमाल का आदमी!" मैंने कहा,

"हाँ! आदमी सच में ही बढ़िया है!" उन्होंने कहा,

"हाँ, काम का आदमी है" मैंने कहा,

"सही कहा" वे बोले,

अब थोड़ी देर में ही आँख लग गयी!

किसी ने दरवाजा खटखटाया, जब आँख खुली! दरवाज़ा खोला तो रुद्रनाथ हाथ में एक झोला लिए हुए और एक सहायक भोजन लिए खड़ा था, वे दोनों अन्दर आये, सहायक ने भोजन रखा और चला गया, रुद्रनाथ ने झोले में से मदिरा की बोतल निकाल ली, कुल दो बोतल लाया था वो!

मैंने खाने की तश्तरी हटा के देखी तो लज़ीज़ खुशबू ने और जठराग्नि भड़का दी! रुद्रनाथ बाहर गया और ठंडा पानी ले आया!

रुद्रनाथ ने भुना हुआ मांस डाला एक जगह और फिर शोरबे वाला भी! फिर उसने गिलास भरे तीनों और मैंने काल-भोग देकर गिलास गटक लिया! फिर रुद्रनाथ ने और शर्मा जी ने भी! भुना हुआ मांस बेहद लज़ीज़ था! देसी मसालों की महक थी उसमे! एक बोतल कब निबट गयी, पता ही ना चला! अब रुद्रनाथ ने दूसरी बोतल भी खोल ली! और हम आराम आराम से खाते-पीते रहे!

"रुद्रनाथ, यहाँ ऐसे इलाके में तू ऐसी बेहतरीन अंग्रेजी शराब कहाँ से लाता है?" मैंने पूछा,

"अब ये ना पूछिए" उसने हँसते हुए कहा,

"बता तो सही?' मैंने पूछा,

"यहाँ मालदा में बहुत चेले-चपाटे हैं मेरे, आप समझ गए!" उसने कहा,

"समझ गया! तू तो कैंची है भाई! वाह!" मैंने कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"और ये खाजा?" मैंने पूछा,

"रोज ताज़ा दे जाते हैं, बना मै लेता हूँ अपने कक्ष में!" उसने कहा,

"वाह!" मैंने कहा,

आखिर वो बोतल ख़तम हुई, और भोजन भी! जठराग्नि शांत हो गयी! मैंने घड़ी देखी पौने दो बज चुके थे, नशा भी हो गया था! मैंने हाथ मुंह धोये और फिर वापिस आ बैठा! सहसा मुझे शोभना का ध्यान आया! नशा तो था ही, तभी उठा और नीचे चल पड़ा! नीचे गया तो शोभना के कक्ष में शोभना और कुछ और लोग भी थे, कुछ स्त्रियाँ भी, मै भी वहीं खड़ा हो गया, वे लोग संभवतः कक्ष-प्रबंध हेतु आये थे, इसीलिए फिर चले गए! अब मै और शोभना ही रह गए वहाँ!

"माफ़ करना थोड़ी देर हो गयी" मैंने कहा, ।।

"कोई बात नहीं" उसने कहा,

"एक बात बताओ, आप कब वापिस जाओगी?" मैंने पूछा,

"दो दिनों के बाद" उसने कहा,

"अर्थात महा-भोज के बाद?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"और फिर कभी मुलाकात करनी हो तो, या मन हो जाये कभी मिलने का तो?" मैंने पूछा,

"वहीं, काशी आ जाइये" उसने कहा,

"नहीं मै वहाँ नहीं आ सकता" मैंने कहा,

"कहाँ, काशी अथवा आश्रम?" उसने पूछा,

"आश्रम" मैंने कहा,

"क्यूँ?" उसने पूछा,

"मै ऐसी जगह नहीं घुसता" मैंने कहा,

"वो क्यों?' उसने फिर से सवाल किया,

"मुझे वहाँ का माहौल रास नहीं आता" मैंने कहा,

"तो आप माहौल से मिलने आओगे अथवा मुझसे?" उसने पूछा,

"आपसे, लेकिन मुझे टोका-टाकी पसंद नहीं" मैंने कहा,

"कौन टोकेगा?" उसने पूछा,

"आपके पिता" मैंने कहा,

"नहीं, नहीं टोकेंगे" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कोई औघड़ उनकी लड़की को बरगलाए, उसे जबरन उठा के ले जाये तो कोई नहीं टोकेगा?" मैंने इक्का छोड़ा अब! नशे की खुमारी में जुबान फिसल ही जाती है!

"ओह! तो आप मुझे उठाने आयेंगे!" उसने कहा,

"हो सकता है!" मैंने कहा!

"फिर तो टोकेंगे" उसने कहा,

"तभी तो नहीं आऊंगा!" मैंने कहा,

"हम्म!" उसने मुस्कुराते हुए कहा!

"सुनो, आज महा-दीप है, मै चाहता हूँ आप मेरे साथ खड़े रहो वहाँ" मैंने कहा,

"है कोई बात" मैंने कहा,

"मैं नहीं जान सकती?" उसने कहा,

"अभी नहीं, तब ही" मैंने कहा,

"ठीक है, केवल खड़े ही तो होना है, है ना?" उसने कहा!

"हाँ!" मै उसका आशय समझ चुका था, परन्तु मै हद में ही रहा!

"ठीक है, कोई बात नहीं" उसने कहा,

"मै संध्या-समय आऊंगा अब!" मैंने कहा,

"ठीक है" उसने कहा!

अब मै उठा और वापिस अपने कमरे में आ गया! जब कटम्ब नाथ मुझे उसके साथ देखेगा खड़े हुए तो उसकी छाती पर सांप लोट जायेंगे!

और यही मै चाहता था!

और फिर संध्या हुई! मेरी नींद खुली तो मै स्नान करने चला गया, वापिस आने पर शर्मा जी को जगाया! वे जागे, घड़ी देखी सवा सात हुए थे, नशे की खुमारी अब नदारद थी! घोड़े बेक के जो सोये थे! मैंने वस्त्र धारण किये और शर्मा जी को भी तैयार होने को कहा! मंडप की ओर से चिमटों की खड़कन आ रही थी! सभी एकत्रित हो चुके थे वहाँ! मैंने शर्मा जी से कहा कि वो मंडप की ओर चलें और वहां जाकर स्थान ग्रहण कर लें, मै शोभना के साथ आऊंगा! ये एक 'नीतिगत' कार्य था! अब मै नीचे उतरा और शोभना के कक्ष का दरवाज़ा खटखटाया, थोड़े देर के बाद शोभना ने दरवाज़ा खोला! मै उसको देखता ही रह गया! खुले केश, दमदमाता चेहरा और बदन पर श्वेत साड़ी! हालाँकि साड़ी एक दम साधारण थी, परन्तु शोभना के बदन ने उसको भी शोभायमान कर दिया था! अभिभूत कर देने वाला और काम-हिलोर आल्हादित करने वाला अनुपम स्त्री-सौंदर्य! मेरे नज़रें उसके अंग-प्रत्यंग पर पड़ती तो स्त्रियोचित गुण के कारण कुम्हला जाती वो! मै अविरल अपने चक्षुओं से उसका सौन्दर्यपान करता जाता! उसके केश उसके वक्ष-स्थल पर पड़े थे, मैंने धीरे से बायीं तरफ के उसके केश उसके कंधे के पीछे किये और फिर दायीं तरफ के भी! मै इसके भाव में उसकी आँखों में नहीं देख पा रहा था! चन्दन


   
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श्रीशः उपदंडक
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की भीनी-भीनी सुगंध से मै जैसे उन्मादित हो गया था, और जब मैंने उसकी आखों में देखा तो उसके नेत्र बंद थे! मैंने अपना हाथ उसके चेहरे के दायें भाग पर रखा, उसने तब भी नेत्र नहीं खोले!

"शोभना!" मैंने कहा,

उसने कोई उत्तर नहीं दिया!

"शोभना?" मैंने उसके कंधे को झकझोरते हुए कहा,

"हूँ?" उसने उत्तर दिया!

"चलो, मंडप में महा-दीप की तैयारी हो चुकी है" मैंने कहा,

उसने एकटक मुझे देखा! मै, सच कहता हूँ, सिहर गया था, मैंने दुस्साहस किया था, उसके बदन को हाथ लगा कर, ना जाने क्या प्रतिक्रिया हो उसकी!

वो एकटक मुझे देखती रही!

"आओ मै तुमको दिखाता हूँ औघड़-संसार!" मैंने कहा,

उसने कोई उत्तर नहीं दिया, बस एकटक मुझे घूरती रही! मुझ में किसी अप्रत्याशित भय की भावना जागी!

मैंने साहस बटोरा!

मैंने उसका हाथ पकड़ा, उसने विरोध नहीं किया! अब और भय जागा!

"आओ शोभना!" मैंने कहा,

वो नहीं हिली!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,

मैंने उसके हाथ को पकड़ कर खींचा, तो भी वो नहीं हिली! अब तो मेरे भय ने सर उठा लिया! अट्टहास करने लगा!

मैंने फिर से उसका हाथ खींचा! वो नहीं हिली!

"क्या हुआ शोभना?" मैंने पूछा,

उसने कुछ नहीं कहा,

"मुझे बताओ?" मैंने कहा,

कोई उत्तर नहीं, बस एकटक नज़र मेरी आँखों में!

अब मेरे अन्तःमन ने उस क्षण को कोसा जब मैंने पहली बार शोभना से बात करने की कोशिश की थी! कसैलापन फ़ैल गया मन में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर भी मैंने हिम्मत की! मैंने उसका हाथ पकड़ कर जबरन खींचा, झटका दिया तो वो मेरे बाह-पाश में आ गयी! मैंने अपने एक हाथ से उसको अपने वक्षस्थल से चिपकाया और थोडा और भींचा, ताकि कोई विरोध हो!

कोई विरोध नहीं हुआ!

अब मेरा ह्रदय द्रुतगति से धड़का! लगा मैंने जानबूझ कर पाप कर दिया है, और तो और पाप के पौधे को अभी मैंने जल दे दे कर पोषित भी किया है!

मैंने उसको अपने वक्ष-स्थल से हटाया, और पूछा,"शोभना, तुम कुछ बोलती क्यूँ नहीं?"

वो पीछे हटी! और बोली, "चलें?"

मेरे मन में कई प्रश्न पानी के बुलबुलों की तरह से उभरे और फिर ख़तम भी हो गए! परन्तु सबके सब बिना उत्तर के!

"चलो" मैंने कहा,

उसने अपने केश सँवारे और साड़ी का पल्लू किया!

अब हम चले वहाँ से! वो मेरे साथ साथ चल रही थी! परन्तु मुझ में अब उस से बात करने की अथवा उसको देखने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी! मंडप जो दोपहर तक पास में ही था अब कोसों दूर लगने लगा था!

मंडप पहुंचे, वहाँ शर्मा जी दिखाई दिए, वहां अभिभाषण आरंभ हो चुका था! मै शर्मा जी के साथ खड़ा हो गया, पीछे शोभना को देखा, वो मेरे साथ ही खड़ी थी!

और तब नज़र पड़ी कटम्ब नाथ की मुझ पर! शोभना के साथ! उसने धर्मा को दिखाया के मै उस शोभना के साथ हँ! कटम्ब नाथ कोई दस फीट दूर खड़ा था! अब मेरे मन में कुछ और विशेष आया! मैंने तुरंत शोभना का हाथ अपने हाथ में ले लिया! शोभना ने कोई विरोध नहीं किया! वहाँ वे दोनों आगबबूला हो गए! ऐसा लगा कि फट ही पड़ेंगे!

ना जाने कहाँ से मुझ में साहस आया और मैंने शोभना की कमर में हाथ डाल दिया और उसको अपने कंधे से सटा लिया! शोभना ने कोई विरोध नहीं किया! हाँ मेरे हाथ की हथेली में पसीने अवश्य ही आ गए थे!

कटम्ब नाथ को तो जैसे बुखार आ गया! सांसें फूल गयीं उसकी! धर्मा की आँखें जो देख रही थीं उन पर जैसे उसे यकीन ही नहीं हुआ!

अब मैंने शोभना को अपने आगे खड़ा किया, मै उस से साथ, अपनी चिबुक उसके सर पर टिकाई और उसकी कमर में हाथ डाल दिया! मेरा हाथ उसके उदर पर गया, मैंने उसे और पीछे खींचा! कटम्ब नाथ और धर्मा के धुंए उड़ गए! मै अपना युद्ध एक चौथाई जीत चुका था!

पर मित्रगण! अब क्या होने वाला था आगे,ये जैसे मै भूल गया! उसने विरोध नहीं किया था! आखिर क्यों?


   
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