वर्ष २००९ गढ़वाल की...
 
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वर्ष २००९ गढ़वाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और ऐसा कह मै आगे चल दिया, वे हमे जाते हुए ताकती रहीं!

आगे एक बड़ा सा मैदान था, वहाँ तैयारियां हो रही थीं महा-दीप की! महा-दीप में सभी तांत्रिक-साधक सामग्री दान करते हैं और एक बड़ा सा दीप जलाया जाता है! फिर पूजा आरम्भ होती है! इसमें भोग का विशेष विधान है! ये तांत्रिकों और उनके डेरों के बीच किसी वाद-विवाद को निपटाने और उनके बीच भाईचारे को बढाने के लिए किया जाता है! यहाँ सब एक रहते हैं और यहाँ से जाते ही ईर्ष्या और द्वेष वहीं जस के तस रहते हैं!

तैयारियां जोर-शोर से चल रहीं थीं, मंडप सजाया जा रहा था, फूल इत्यादि के टोकरे भरे पड़े थे! और समीप ही बकरे, मेढ़े व अन्य भोग के पशु भी थे! सभी के गले में गेंदे की मालाएं लटकी थीं!

मै अन्दर गया उधर! अन्दर जाकर देखा तो एक कालीन पर शोभना बैठी थी, कागज़ पर कुछ लिख रही थी! मै उसी की तरफ बढ़ा, शर्मा जी समझ गए थे तो वो वहीं एक जगह बैठ गए, मै शोभना तक पहुंचा और खड़ा हो गया! उसने अपनी नज़र, पहले मेरे पांवों पर फिर, ऊपर उठा मेरे चेहरे को देखा, उसके देखते ही मैंने कहा,

"नमस्कार!"

"नमस्कार!" उसने भी जवाब दिया! और फिर लिखने लगा गयी!

"तैयारियां जोर-शोर से हो रही हैं" मैंने आस-पास देखते हुए कहा,

"हाँ!" उसने कहा,

"ये उसी का हिसाब है?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने उत्तर दिया,

कुछ देर खड़ा रहा मै, क्या बात करूँ, कहाँ से आरम्भ करूँ? इस से पहले मैं कुछ बोलता उसने कहा, "आप दिल्ली से हैं ना?"

मुझे हैरत हुई!

"हाँ, आपको कैसे मालूम?" मैंने पूछा,

"मैंने रुद्रनाथ से पूछा" उसने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"कल की तांक-झाँक के लिए?" मैंने पूछा,

"हूँ..." उसने कहा,

"घबरा गयीं थी?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"तो पूछा किसलिए?" मैंने पूछा,

"ऐसा कौन है जो एक अवधूत की पुत्री के साथ तांक-झाँक करे, इसलिए!" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हम्म!" मैंने उस से कहा,

वो बोले जा रही थी लेकिन नज़र नहीं मिला रही थी!

"आप बैठ जाइये" उसने कहा,

मैंने जूते उतारे और उसके समीप बैठ गया!

"एक बात पूछू?" मैंने पूछा,

"पूछिए?" उसने कहा,

"ये औघड़ सम्मलेन है, शराब, शबाब, मांस और ना जाने क्या क्या? कैसे बर्दाश्त कर रही हो?" मैंने पूछा,

"वो आपका मार्ग है, है तो एक मार्ग ही, बर्दाश्त का क्या प्रश्न?" उसने उत्तर दिया,

"मेरा अर्थ नहीं जाना आपने" मैंने कहा,

"बताइए" उसने कहा,

"मेरा मतलब कोई बदतमीज़ आपके साथ बदतमीज़ी से पेश आ गया तो?" मैंने पूछा,

"कौन है यहाँ ऐसा बदतमीज़?" उसने अपने उत्तर से मुझसे ही प्रश्न कर दिया!

"हैं दो तो हैं यहाँ, मेरी नज़रों में" मैंने कहा,

अब मै अपने मतलब की बात पर आ गया था!

"कौन दो?" उसने अब मेरी आँखों में देखा!

उसकी चौड़ी, सुन्दर आँखों ने फिर से मेरे अन्तःमन को झकझोर दिया!

"एक कटम्ब नाथ और दूसरा वो धर्मा" मैंने कहा,

"वो ऐसे हैं?" उसने पूछा,

"हाँ, मैंने कहा,

"ठीक है मै ध्यान रखूगी" उसने कहा,

"बेहतर है, ऐसे भेड़ियों से बच कर रहना" मैंने कहा,

"आपको कोई ईर्ष्या है उनसे?" उसने पूछा,

तब मैंने पद्मानंद, धर्मा और कटम्ब नाथ की असलियत बता दी उसको! उसने एक एक शब्द ध्यान से सुना!

"मै ख़याल रखूगी" उसने कहा,

"ठीक है, बताना मेरा फ़र्ज़ था, बता दिया" मैंने कहा,

"गुरु कौन हैं आपके?" उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हैं नहीं, थे, आज उनकी शिक्षाएं ही मेरी गुरु-शिला हैं" मैंने कहा,

उसे प्रसन्नता हुई!

"क्या आपका भी कोई डेरा है?" उसने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"फिर?" उसने पूछा,

"मात्र एक शमशान!" मैंने कहा,

और उसको वो स्थान बता दिया!

"आप कभी हमारे स्थान आये हुए हैं?" उसने पूछा,

"नहीं, कभी नहीं" मैंने कहा,

"लेकिन ये कटम्ब नाथ तो आता है!" उसने बताया,

मुझे बड़ी हैरत हुई अब!

"वो? किसलिए?" मैंने पूछा,

"मेरे पिता जी से मिलने" उसने कहा,

"वो क्यूँ?" मैंने पूछा,

"मुझे इतना नहीं मालूम" उसने कहा,

"हम्म" मैंने कहा,

इसके बाद शांति छा गयी! अब मै उठा वहाँ से!

"मै अब चलता हूँ, दोबारा मुलाकात होगी" मैंने कहा,

"अवश्य" उसने कहा,

मैंने जूते पहने अपने और चल पड़ा वापस! शर्मा जी के पास आया!

"हो गया परिचय?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"कोई काम की बात?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, कटम्ब नाथ की पहुँच है केशवानंद तक!" मैंने कहा,

"क्या?" उन्होंने विस्मय से पूछा,

"ये आता जाता है वहां" मैंने बताया!

"आता जाता है ये वहां, हम्म्म!" उन्होंने अचम्भा व्यक्त किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मरने दो साले को, मेरे रास्ते में आया तो देखा जायेगा!" मैंने कहा,

अब हम चले वापिस आपके कक्ष की ओर, चाय-नाश्ता आदि के लिए सहायक को कह दिया, वो थोड़ी ही देर में ले आया चाय-नाश्ता! चाय-नाश्ता किया तो थोड़ी देर लेट गए, लेकिन अभी तक मेरे दिमाग में कटम्ब नाथ का केशवानंद के आश्रम पर जाना, खटकता रहा! मै इसके कारन सोचता रहा परन्तु कुछ ख़ास औचित्य ना पता चल सका, शोभना को भी मालूम नहीं था, तो मैंने अपना ध्यान हटा लिया इस तरफ से!

कुछ फ़ोन आये कुछ जानकारों के, एक फ़ोन बसंत नाथ का भी आया, वो नहीं सम्मिलित हुआ था वहाँ! जब उस से कटम्ब नाथ के वहाँ जाने का कारण पूछा तो भी उसने अनभिज्ञता ही ज़ाहिर की!

तभी हमारे कमरे में एक औघड़ ने प्रवेश किया, आते ही बोला, "दिल्ली वाला कौन है?"

"मै हूँ" मैंने कहा और बिस्तर से उठा,

"तूने ही उन कन्यायों से बात की थी अभी?" उसने गुस्से से पूछा,

"क्यूँ? तू क्या खलीफा है?" मैंने कहा,

"उत्तर दे?" उसने पूछा,

"हाँ, अब बोल?" मैंने कहा,

"मुझे जानता है?" उसने पूछा,

"शक्ल से तो भिखारी लगता है काशी-घाट का और वस्त्रों से नौटंकीबाज!" मैंने कहा,

"तू नहीं जानता मै कौन हूँ??" उसने अब गुस्से से पूछा,

"बताइये महाराज!" मैंने हाथ जोड़कर पूछा!

"मै चांडाल अघोरी हूँ! झार का!" उसने कहा,

"तो?" मैंने कहा,

"तेरी इतनी हिम्मत कैसे हुई उनसे बात करने की?" उसने कहा,

अब मैं खड़ा हुआ, उसके पास तक गया और बोला, "तेरी माँ की **! निकल जा वैसे ही जैसे आया था और घुस जा उस कटम्ब नाथ की में!" मैंने कहा, गुस्से से!

"चांडाल अघोरी को चुनौती?" उसने चिमटा खडकाया!

"तेरा चिमटा तेरे मुंह से डाल के तेरी से निकाल दूंगा अभी, अब निकल यहाँ से!" मैंने धक्का दिया उसको! वो बाहर गलियारे में गिरते गिरते बचा!

उसने अपने खड़ाऊं पटके और पाँव पटकता हुआ चला गया!

"गुरु जी! ये हो क्या रहा है?" उन्होंने पूछा,

"धुआं उठ रहा है कटम्ब नाथ की *** से!" मैंने हँसते हुए कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"साला अबकी आया तो सर मूंड दूंगा इसका!" वे बोले,

"ये नहीं आयेगा अब, किसी और को भेजेगा या वो खुद आएगा कटम्ब नाथ!" मैंने कहा,

"अरे आप लेटो आराम करो!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा और लेट गया, शर्मा जी ने दरवाज़ा अन्दर से बंद कर दिया!

पंद्रह-बीस मिनट बीते होंगे! दरवाजे पर दस्तक हुई! शर्मा जी ना दरवाज़ा खोल, बाहर वही खड़ाऊं पहने औघड़, कटम्ब नाथ, रुद्रनाथ और धर्मा खड़े थे! उनको देख कर मुझ में जैसे आह भड़क गयी!

"अन्दर आओ रुद्रनाथ" मैंने कहा,

वो अन्दर आया!

"क्या हुआ? ये कुत्ते क्यूँ लाये हो अपने साथ?" मैंने कहा,

"जी...वो...." वो सकपकाया!

"क्या बात है? साफ साफ़ बताओ?" मैंने कहा,

"केशवानंद चाहते हैं कि अप ये डेरा अभी छोड़ दीजिये" उसने आँखें नीचे करते हुए कहा!

"अच्छा! किसने कहा ऐसा?" मैंने पूछा,

"कटम्ब नाथ की बात हुई है केशवानंद से" वो बोला,

"इसको अन्दर बुलाओ" मैंने कहा,

रुद्रनाथ बाहर गया और वे तीनों अन्दर आये, मैंने खड़ाऊं पहने वाले को चुटकी मारके बाहर ही खड़े रहने दिया!

हाँ, क्या बात है?" मैंने कटम्ब नाथ से पूछा,

"ये डेरा छोड़ दो अब" उसने कहा,

"क्यूँ? तेरे बाप का डेरा है ये?" मैंने पूछा,

वो क्रोधित हुआ!

"ले, बात कर ले केशवानंद से" वो सेलफोन निकलते हुए बोला,

"क्यूँ? क्यूँ बात कर लूँ उस से?" मैंने पूछा,

"वो नहीं चाहते कि तुम यहाँ रहो और लड़ाई-झगडे का माहौल उत्पन्न करो" वो बोला,

"किसने किया लड़ाई-झगडा?" मैंने पूछा,

"तूने आज धर्मा की साध्वियों को धमकाया है" वो बोला,

"धमकाया?" मैंने पूछा,"

"हाँ हाँ, धमकाया" अब धर्मा बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तेरे से बात नहीं कर रहा मै, तू चुप रह" मैंने धर्मा से कहा,

"तेरी उन रंडियों को मैंने धमकाया नहीं था, समझाया था!" मैंने कहा,

"नहीं, तूने धमकाया था" कटम्ब नाथ बोला,

"और ये? ये हरामजादा भेजा था तूने मेरे पास धमकाने को?" मैंने उस खड़ाऊं वाले की तरफ इशारा करके कहा,

"मै कुछ नहीं जानता, तू ये डेरा छोड़ दे, अभी!" वो बोला,

अब मै खड़ा हुआ!

"सुन ओये बहन के **! मेरे तेरे केशवानंद को नहीं जानता, मुझे यहाँ रुद्रनाथ ने बुलाया था, ना मै तेरा नौकर और ना तेरे केशवानंद का!" मैंने कहा,

"गाली-गलौज मत कर!" उसने कहा,

"चल, निकल यहाँ से, पहले यहाँ की संचालिका से बात कर, वो कहेगी तो मै अभी चल जाऊंगा, अब निकल यहाँ से, अभी!" मैंने कहा,

अब वे तीनों निकले वहाँ से! रुद्रनाथ रह गया!

"कान भर दिए हैं इन्होने केशवानंद के" रुद्रनाथ ने कहा,

"कोई बात नहीं, अभी देखो आप!" मैंने कहा,

"ये साले हैं ही हरामजादे!" उसने कहा,

"अब नहीं रहेंगे ऐसे, अब इनका समय समाप्त!" मैंने कहा,

अब कोई बीस मिनट बीते! उनमे से कोई नहीं आया! वापिस!

करीब आधे घंटे के बाद मेरे कक्ष के बाहर एक स्त्री आई, उसने मुझे कहा कि मैं एक बार आते-जाते समय शोभना जी से मिल लूँ! इतना कह कर वो चली गयी! अब मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आई, रुद्रनाथ भी मुस्कुराया और शर्मा जी तो हंस ही पड़े!

"गुरु जी, दाद देनी पड़ेगी दूरगामी सोच की!" वे बोले,

"अब आप समझे ना!" मैंने उत्तर दिया,

रुद्रनाथ को इसके बारे में पता नहीं था, वो सोच में डूबा था, हमारे वार्तालाप का अर्थ निकालने का प्रयास कर रहा था! फिर बोला, "गुरु जी, इसका अर्थ ये है कि केशवानंद मान गया!"

"हाँ रुद्रनाथ!" मैंने कहा,

"अब बताओ, थूक के चाट लिया ना इन जाहिल लोगों ने!" उसने भी हंस के कहा,

"मरने दो सालो को!" मैंने कहा,

"मै अभी आया" रुद्रनाथ ये कहते हुए उठा और बाहर चला गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गुरु जी, वैसे क्या कहा था आपने शोभना से? यही सब?" शर्मा जी ने पूछा,

"हां, असलियत बताई थी मैंने इन दोनों कुत्तों की उसको!" मैंने कहा,

"बहुत बढ़िया किया!" शर्मा जी ने कहा,

"शर्मा जी, कल महा-दीप है, परसों महा-भोज, तदोपरान्त हम चल देंगे वापिस!" मैंने कहा,

"हाँ और क्या?" वे बोले,

"मुझे एक बार शामसिंह से मिलना है, उसे भी इन कमीनों की असलियत बता दूँ!" मैंने कहा,

"तो वो तो आज आ रहा है ना?" उन्होंने कहा,

"हाँ, कल महा-दीप है तो आज आना ही चाहिए उसको" मैंने कहा,

"ठीक है, आज चहल-पहल बढ़ने वाली है!" उन्होंने कहा,

"हाँ, आज बढ़ जाएगी. कुछ और डेरे वाले भी आयेंगे" मैंने बताया,

"आप शोभना से ये तो पूछना कि इन्होने कहा क्या था केशवानंद को?" शर्मा जी ने सुझाव दिया,

"हाँ, अवश्य ही पूछंगा" मैंने कहा,

तभी रुद्रनाथ आ गया वापिस! कुछ फल ले आया था! उनको छीलने बैठ गया, एक तश्तरी में रखे और हमारे सामने रख दिए, हमने खाना शुरू किया! ।

"गुरु जी, ये रुद्रनाथ कहाँ से मिला आपको?" शर्मा जी ने रुद्रनाथ के सामने ही पूछा,

"मेरे एक जानकर हैं दुर्गापुर में, ये उनके साथ ही था, जब मै इस से पहले पहल मिला था तो ये बहुत संकोची स्वभाव का था, जब मैंने उनसे इसके बारे में पूछ, तो उन्होंने बताया कि ये इलाहबाद में था पहले, वे ही इसको लेकर गए थे, वहां ये बेचारा चाकरी करता था, आज इसको नाथ बना दिया है उन्होंने, और इसने भी अपनी कर्तव्य-परायणता से उनका ह्रदय जीत लिया है!" मैंने बताया,

"है बहुत बढ़िया आदमी ये!" शर्मा जी ने रुद्रनाथ की कमर पर हाथ मारते हुए कहा!

"हाँ, ये मुझे भी पसंद है, विश्वासपात्र है!" मैंने कहा,

"अरे गुरु जी, जैसे वो मेरे लिए ऐसे ही आप!" रुद्रनाथ ने बताया, और वो तश्तरी एक तरफ रख दी!

"रुद्रनाथ, ज़रा देख कर आओ, शोभना के साथ कौन है अभी?" मैंने कहा उस से!

"अभी देखता हूँ" उसने कहा और उठ कर चला गया,

वो थोड़ी देर में आया, उसने बताया कि वो कक्ष में नहीं है अपने!

"कोई बात नहीं, दोपहर समय भोज उपरान्त देखेंगे" मैंने कहा,

"मै भोजन-प्रबंध कर दूंगा, मै लेता आऊंगा" रुद्रनाथ ने कहा,

"उचित है रुद्रनाथ!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब रुद्रनाथ चला गया वहाँ से!

अब मै और शर्मा जी लेट गए अपने अपने बिस्तर पर!

"बताओ शर्मा जी, साला वो खड़ाऊं-धारी कैसे आया था धमकाने हमको!" मैंने कहा,

"हाँ! क्या नाम है उसका?.....अ........हाँ चांडाल नाथ!" वे बोले,

"ये साले चमचे हैं कटम्ब नाथ के!" मैंने कहा,

"हाँ, तभी तो आया था, कह रहा था कि उन साध्वियों को धमकाया है मैंने!" मैंने कहा,

"ये साध्वियों ने ही कहा होगा ऐसा?" वे बोले,

"अरे नहीं, उन्होंने जस का तस बताया होगा, उनको चिढ ये है कि मैंने बात कैसे कर ली उनसे!" मैंने कहा,

"ये हो सकता है!" वे बोले,

और उसके बाद थोडा विश्राम किया, आँख लग गयी हमारी!

दरवाजे पर दस्तक हुई, शर्मा जी ने दरवाज़ा खोल, सामने रुद्रनाथ था, भोजन ले आया था अपने एक सहायक के साथ! भोजन में मछली, चावल और सलाद थे!

भोजन समाप्त कर लिया, घडी देखी तो पौने दो बजे थे! अब मै उठा और हाथ-मुंह धोने गया, फिर अपने जूते पहने और शर्मा जी को बताया कि मै शोभना से मिलने जा रहा हूँ नीचे! मैं चला गया!

नीचे आया तो शोभना अपने कक्ष में ही थी, उसके साथ एक और परिचायिका थी, मैंने दरवाजा खटखटाया, शोभना ने मुझे देखा और गर्दन हिला कर मौन-स्वीकृति दे दी! मैं अन्दर चला गया, उसने मुझे एक कुर्सी पर बैठने का इशारा किया, मै बैठ गया!

मैंने ही बात शुरू की!

"वे आये थे यहाँ?" मैंने पूछा,

"कौन?" उसने पूछा,

"धर्मा और कटम्ब नाथ" मैंने उत्तर दिया,

"हाँ, आये थे" उसने कहा,

"उन्होंने आपके पिता जी से बात के थी?" मैंने पूछा,

"वो पहले ही कर चुके थे" उसने बताया,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"वो नहीं चाहते थे कि अप यहाँ रुको" उसने बताया,

"मेरे पास भी आये थे दोनों, यही बताने, फिर मैंने उनको आपके पास भेजा था" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, आये थे, मैंने पिता जी से बात कर ली थी, उनको समझा दिया कि मैंने उनको लड़ाई-झगडा करते हुए नहीं देखा" उसने कहा,

ये तो मै जानता ही था, बस सुनना चाहता था!

"आपका धन्यवाद!" मैंने कहा,

"कोई बात नहीं" उसने मुस्कुराते हुए कहा,

"मैंने आपको बताया था ना उनके बारे में, ये महाकमीन इंसानों में से हैं!" मैंने कहा,

"होने दो! आपका कार्यक्रम कल और परसों का है, बस" उसने बताया,

"हाँ" मैंने कहा,

"तो बस आप चिंता ना कीजिये!" उसने कहा,

"और अगर ये मुझ पर फब्तियां कसें तो?" मैंने पूछा,

"मुझे बताइये" उसने कहा!

"धन्यवाद!" मैंने कहा!

उसने कोई जवाब नहीं दिया!

अब मै उठा और सीढियां चढ़ कर ऊपर अपने कक्ष में चला गया!

मै कक्ष में आया तो शर्मा जी बैठे हुए थे, मैंने उनको शोभना के साथ हुआ सारा वार्तालाप बता दिया, शोभना ने ही अपने पिता जी को समझाया था! अब शर्मा जी बोले, "गुरु जी, ऐसे लोग साले इस क्षेत्र में होने ही नहीं चाहियें"

"बात तो सही है, लेकिन ये होता आया है शर्मा जी" मैंने कहा,

"हाँ, सही कह रहे हो आप" वे बोले,

"चलिए, ज़रा नीचे देख के आते हैं, मंडप-कार्य कहाँ तक हुआ?" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले और उठ खड़े हुए, कमरे में सांकल लगाई और फिर सीढ़ी से नीचे उतर गए! शोभना अभी भी अपने कमरे में ही व्यस्त थी! नज़रें नहीं मिलीं, हम बाहर चले गए!

बाहर पहुंचे तो सभी में आज जोश दिखा, सभी सहायक अपने अपने काम में लगे थे! तभी मेरी नज़र उस खड़ाऊं-धरी पर पड़ी, एक पेड़ के नीचे तख्त पर दो साध्वियों के पास बैठा था, साध्वियां उसके लिए मदिरा का प्याला बना रही थीं! मैंने गौर से देखा तो ये उन्ही तीन साध्वियों में से दो थीं जो आज सुबह मिली थीं मुझे! अब मै बढ़ा उसकी तरफ, रहा ना गया मुझसे! उस चांडाल नाथ ने मुझे देखा और उसकी साध्वियों ने भी! तीनों सकपका गए! मैं वहाँ जा के खड़ा हुआ और उन साध्वियों से बोला, "किस ने ये कहा था कि मैंने आज सुबह तुमको धमकाया था?"

दोनों को सांप सूंघ गया!


   
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"किसने इस नौटंकीबाज को बोला था ये? सही सही बता दो नहीं तो ऐसी जगह बिठाऊंगा कि कुत्ता भी मूत नहीं करेगा!" मैंने कहा,

अब घबरायीं वो!

"क्या बोला था?" मैंने पूछा और एक पांव मैंने उस तख्त पर रख लिया!

"हमने कुछ नहीं बोला था" उसमे से एक ने कहा,

अब वो चांडाल नाथ बोला,"तेरे से कोई मतलब नहीं हमारा, अपना रास्ता नाप यहाँ से" उसने चुटकी मारते हुए कहा!

मैंने नीचे झुक, उसकी बोतल को लात मार के नीचे गिरा दिया! ये देख बौखलाया वो! वो अब तख़्त से उतरा और बोला,"क्या समझता है तू अपने आपको?"

मैंने आव देखा ना ताव! एक करारा सा तमाचा जड़ दिया उसके गाल पर! चांडाल नाथ गिरा तख़्त पर! ये देख वो दोनों साध्वियां भागी वहाँ से! एक दो सहायक भी रुक गए काम करते करते!

अब मुझे क्रोध चढ़ चुका था! मैंने उसको उसकी दाढ़ी से पकड़ के खींचा और नीचे गिरा दिया! उसने विरोध तो किया लेकिन उधर का मोर्चा शर्मा जी ने संभाल लिया! मैंने उसका तख्त पर रखा चिमटा उठाया और भांजना शुरू कर दिया उसके पेट और छाती पर! अब पस्त हुआ वो! पांच फीट को वो नौटंकीबाज अब माना हार!

"छोड़ दो, छोड़ दो" उसने कहा, वो घुटने के बल बैठा था!

मैंने एक और लात जमाई उसके सर पर! वो नीचे गिरा और मिट्टी में में मुंह घुस गया उसका! मैंने फिर से चिमटा लिया और उसकी कमर पर भांजने लगा!

"छोड़ दो, मर जाऊँगा, मेरी गलती नहीं है" वो बोला,

मै रुक गया!

"किसने भड़काया था तुझे?" मैंने कहा,

"कटम्ब नाथ ने" उसने कहा,

मैंने एक और लात जड़ी उसको!

अब तक साध्वियों ने ये खबर कर दी कटम्ब नाथ को और धर्मा को! दोनों आये वहां दौड़े दौड़े! चांडाल नाथ नीचे पड़ा था, धर्मा को देख कर किसी तरह खड़ा हुआ और लिपट गया उस से!

"क्या हुआ?' शर्मा ने उस से पूछा,

चांडाल नाथ ने सच्चाई तो बताई, लेकिन मिर्च-मसाला लगा कर! मुझे हंसी आई! कटम्ब नाथ गुस्से से मुझे देख रहा था!

कटम्ब नाथ आया मेरे पास!

"बस बहुत हुआ!" उसने हाथ के इशारे से कहा!


   
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"निकल यहाँ से और अपने इस चमचे को लेजा यहाँ से, नहीं तो ये चिमटा इसके पेट में घुसेड़ दूंगा!" मैंने कहा,

"बस!" वो गरजा!

"ओहो! भड़क गया औघड़!" मैंने कहा!

"हाँ! और अब तू अपनी ज़िन्दगी के दिन गिन ले आज से!" उसने धमकी दी मुझे!

"थू! ऐसा बोलने से पहले अपनी औक़ात तो देख लेता!" मैंने कहा!

"तुझे तेरी औकात दिखाने का वक्त आ गया है अब!" उसने ऐसा कहा, और धर्मा और वो चांडाल नाथ उस से कन्धा सटा कर खड़े हो गए!

"काहे बिन मौत मरता है, और अपने साथ इन पिल्लों को भी मरवाता है!" मैंने हंस के कहा!

"कौन मरता है, कौन जीता है, ये तय हो जायेगा!" उसने कहा,

"तेरी मर्जी!" अब मैंने भी कहा,

"मैंने तेरे जैसे बहुत देखे! आज नाम नहीं है उनका दुनिया में!" उसने कहा,

"मेरे जैसा नहीं देखा होगा तूने कटम्ब नाथ! हाँ, मै तुझे मारूंगा नहीं, लेकिन जिंदा भी नहीं छोडूंगा! और ये दोनों! ये दोनों ज़िन्दगी भर लाठी टेकते हुए भीख मांगेंगे! किस से भीख? मौत से! कि वो आती क्यूँ नहीं इनको!" मैंने कहा,

"इसका फैसला हो जायेगा!" उसने कहा,

"फैसला हो गया! कटम्ब नाथ, तूने मुझे ऐसा कहा! आज से तू अपनी दुर्दशा के आने के दिन गिनने लग जा!" मैंने कहा,

"किसकी होगी दुर्दशा ये मै बताऊंगा तुझे!" उसने कहा,

"अरे कमीन इंसान! तेरे बाप ने वेगनाथ से विश्वासघात किया! उसको मारा! और डेरे पर काबिज़ हो गया! अब तेरा बाप भी उसका फल पायेगा तेरे साथ!" मैंने कहा,

वेगनाथ का नाम सुनकर थोडा चौंका वो!

"अपनी चिंता कर!" उसने कहा!

"मुझे चिंता नहीं!" मैंने कहा!

अब वहां मजमा लग गया!

तभी शोभना को ये खबर पता चल गयी! वो वहाँ आ गयी! सब शांत हो गए! लेकिन तीर तो कमान से निकल गया था! कटम्ब नाथ ने मुझे चुनौती दे डाली थी! और चुनौती मैंने स्वीकार कर ली थी!

शोभना ने बीच-बचाव किया और हम अपने अपने रास्ते हो गए!

"आ गया कुत्ता अपनी औक़ात पर आखिर!" शर्मा जी ने कहा!


   
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"अपनी दुर्दशा के कागज़ पर स्वयं ही हस्ताक्षर कर दिए इसने!" मैंने कहा,

"साले को ऐसा कर देना कि आँखों से दिखाई ना दे और हाथों से कुछ उठा ना सके!" वे बोले,

"आप देखो अब!" मैंने कहा,

"चलिए, वापिस चलते हैं, मुझे क्रोधावेश है, आप रुद्रनाथ से कह कर मदिरा-प्रबंध करा लीजिये!" मैंने कहा,

हम वापिस आये! शर्मा जी ने रुद्रनाथ को ठीक वैसा ही कह दिया! उसने प्रबंध कर दिया! अब हम तीनों मदिरापान करने लगे!

मदिराभोग करते करते रुद्रनाथ को भी मैंने कटम्ब नाथ की चुनौती के बारे में बता दिया! उसे चिंता तो हुई लेकिन फिर बोला, "गुरु जी, आपको जो चाहिए, स्थान, घाड़ अथवा श्वेत-साध्वी, आपको मिल जाएगी! सब कुछ मिल जायेगा!"

ऐसा कह के तो उसने मेरी सारी चिंताएं ही हर ली थीं!

"यहाँ मालदा में है कोई?" मैंने पूछा,

"हाँ, है" उसने कहा,

"वाह रुद्रनाथ वाह!" मैंने कहा!

"चुनौती-मंच की तिथि तो वही बताएगा आपको" रुद्रनाथ ने कहा,

"हाँ!" मैंने कहा,

"वो अपने स्थान से करेगा फिर, यहाँ कोई ठिकाना नहीं है उसका, आप एक काम कीजिये, आप मेरे साथ काशी चलिए, मेरा है वहां पर एक गुप्त ठिकाना, आपके लिए सबकुछ उपलब्ध हो जायेगा वहाँ!" रुद्रनाथ ने कहा,

"ये ठीक रहेगा!" मैंने कहा,

मध्यान्ह तक हम मदिराभोग करते रहे, रुद्रनाथ ने जम कर खिलाया पिलाया! उसके बाद वो भी अपने कक्ष में चला गया और मै और शर्मा जी विश्राम करने के लिए सो गए!

जब आँख खुली तो सात बज रहे थे, शर्मा जी उठ चुके थे, मैंने हाथ-मुंह धोया और फिर हम बाहर चले! मै जैसे ही नीचे उतरा, शोभना को पाया अपने समक्ष, वो अपने कमरे में जाने ही वाली थी, मुझ से नज़रें मिली तो उसने मुझ से कहा, "एक मिनट इधर आइये" और ऐसा बोल अपने कमरे में चली गयी, मैंने शर्मा जी को वहीं रोक और स्वयं उसके कमरे में चला गया!

"मैंने सुना है आपको कटम्ब नाथ ने दंड-चुनौती दी है?" उसने पूछा,

"हाँ, मैंने स्वीकार भी कर ली" मैंने कहा,

"वो एक जमघड़ औघड़ है, ये पता है आपको?" उसने कहा,

"हाँ, मालूम है" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"फिर भी?" उसने कहा,

"हाँ" मैंने कहा,

"ये दंभ है अथवा शक्ति-भार?" उसने अपनी सुन्दर सी आँखों को छोटा करके पूछा,

"शक्ति -भार!" मैंने कहा,

"सच?" उसने विस्मय से पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"मुझे आपकी योग्यता के विषय में रुद्रनाथ ने बताया! मुझे प्रसन्नता हुई ये जानकर" उसने मुस्कुराते हुए कहा,

"धन्यवाद" मैंने कहा,

कुछ पल शांति रही, मैंने इतने में उसका मुख-मंडल जाँच लिया!

"एक बात पुछू आपसे?" मैंने कहा,

"हाँ?" उसने कहा,

"आपने ये ब्रह्म-तपस्विनी का निर्णय क्यूँ लिया?" मैंने पूछा,

"मुझे सत्व-सत्ता अथवा तम-सत्ता में कोई भेद नज़र नहीं आया कभी, इसीलिए, मै अपने ब्रह्म-मार्ग पर प्रशस्त हूँ" उसने कहा,

"बहुत बढ़िया!" मैंने कहा,

"कभी साधना-कर्म में बैठी हो?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"तम-सत्ता के विषय में क्या जानती हो?" मैंने पूछा,

"वही जो मुझे मेरे पिता जी ने बताया" उसने कहा,

"अधूरा ज्ञान!" मैंने कहा,

"कैसे?" उसने पूछा,

"आपकी आयु कितनी है?" मैंने पूछा,

"अट्ठाईस वर्ष" उसने कहा,

"कभी पुरुष-गमन किया है?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"कभी इच्छा हुई?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने बताया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"इच्छा का शमन किया?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"किसलिए?" मैंने पूछा, अब मेरे प्रश्न तीक्ष्ण होते गए! उसके हाव-भाव से मुझे नहीं प्रतीत हुआ कि मैं उसको विवश कर रहा हूँ उत्तर देने हेतु!

"विवेक का प्रयोग!" उसने उत्तर दिया!

"यहाँ तक तो सत्व-सत्ता और तम-सत्ता साथ साथ चलते हैं! इसके बाद उनसे मार्ग पृथक हो जाते हैं!" मैंने

कहा,

"कैसे? कृपया समझाएं?" उसने पूछा,

"तुमने विवेक से इच्छा-दमन किया, यदि मै तुम्हारा विवेक कुंठित कर दूँ तो?" मैंने पूछा,

"संभव है मै समर्पण कर दूं" उसने कहा,

"यदि तुम समर्पण कर दो तो रति-सुख प्राप्ति किसे होगी? पुरुष को अथवा तुमको?" मैंने पूछा,

"दोनों को" उसने कहा,

उसके इस उत्तर से में चकित नहीं हुआ! बस एकटक उसके हाव-भाव देखता रहा!

"बिना विवेक के रति-सुख?" मैंने पूछा, ।

"फिर समर्पण का अर्थ?" उसने भी प्रश्न किया,

"समर्पण किसका? देह का अथवा मन का?" मैंने पूछा,

अब वो हतप्रभ रह गयी! कोई उत्तर नहीं दे पायी!

"अधूरा ज्ञान! यही कहा था ना मैंने?" मैंने हँसते हुए कहा,

"निन्यानवे प्रतिशत लोग देह-समर्पण से रति-सुख प्राप्त करते हैं! परन्तु सुख एक भाव है! भला स्थूल-शरीर कैसे इस सूक्ष्म-भाव की बराबरी कर सकता है? देह-समर्पण तो माध्यम है! देह स्थूल माध्यम है! परन्तु हम औघड़! मन से रति-सुख प्राप्त करते हैं! स्थूल, स्थूल का जनक है! सुख का नहीं! स्थूल क्षणिक है, स्थायी नहीं! सुख भाव है! ये सागर है! प्रश्न ये है कि इस सागर तक पहुंचा कैसे जाये?"

वो एकटक मेरे व्याख्यान को सुनती रही!

अब मै उठा! वो शून्य में ताकती रही!

अधूरा ज्ञान!

"और ये जो कटम्ब नाथ जैसे लोग हैं ना? ये स्थूल-प्रेमी हैं! स्थूल तो कहीं है ही नहीं तम-सत्ता में!" मैंने कहा और बाहर आ गया!

मै कमरे से बाहर आया ही था कि उसने मुझे आवाज़ दी, "सुनिए?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैंने पीछे मुड के देखा, ये शोभना ही थी, विचलित सी! संभवतः मेरे प्रश्न रुपी उत्तरों ने उसके ज्ञान-पटल को विदीर्ण कर दिया था!

मैं  वापिस गया! वो फिर से वहीं जा बैठी जहां, पहले बैठी थी, मै भी बैठ गया!

"कहिये?" मैंने कहा,

"आपने विषय अधूरा छोड़ दिया" उसने कहा,

"मैं सोच रहा था कि इस विषय में आप चिंतन-मनन करेंगी तो उत्तर अवश्य ही मिल जायेंगे" मैंने कहा,

"आपने तो मुझे उलझा दिया है" उसने मुझे कहा,

"कैसी उलझन?" मैंने पूछा,

"मुझे ना जाने क्यूँ अब ये रुद्राक्ष और ये आवरण अर्थ-हीन लग रहे हैं" उसने उनको छूते हुए कहा!

इतना विचार! इतना सघन मनन! ऐसी मनोस्थिति! ऐसा त्वरित निर्णय!

"ऐसा क्यूँ?" मैंने पूछा,

"मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं है ना, शायद इसीलिए" उसने कहा,

"हो सकता है" मैंने भी उसका समर्थन कर दिया!

"ये पूर्ण ज्ञान अब कहाँ से प्राप्त हो?" उसने अब बड़े विश्वास और धीरज से मेरी आँखों में देखते हुए पूछा,

कुछ पल मै उसकी आँखों में ऐसे ही देखता रहा! ये ज्ञान-पिपासा है अथवा उपहास?

अब मैंने उसके हाथ को पकड़ा! उसने विरोध नहीं किया! मैंने उसके रुद्राक्ष-माल और उसकी त्वचा के बीच अपनी तर्जनी ऊँगली डाली और उस रुद्राक्ष-माल को ऊपर उठाया! कुछ पल देखा! और पूछा, "ये किसलिए धारण किये आपने?" मैंने पूछा,

"इनसे शारीरिक शुद्धि होती है" उसने अपने रुद्राक्ष-माल को देखते हुए कहा!

"और चित्त की शुद्धि किस से होती है?" मैंने सवाल दागा तुरंत!

अब वो चुप!

"शरीर की शुद्धि से उत्तम है चित्त की शुद्धि! एक बार चित्त शुद्ध हो जाए तो सब शुद्ध हो जाता है, है या नहीं?" मैंने पूछा!

उसने केवल अपनी गर्दन हिला कर मेरी बात का समर्थन किया!

"आज किसी पर-पुरुष का स्पर्श कैसा लगा?" मैंने पूछा,

वो शांत!

मैंने अपनी ऊँगली निकाली उसके रुद्राक्ष-माल से अब! और उसके हाथ को मैंने अपने हाथ में भर कर भींच लिया!


   
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