अगस्त महीने के आखिरी दिन चल रहे थे, मै उस समय गढ़वाल के क्षेत्र में था, एक साधना में सामिलित हुआ था और कुछ पुराने जानकार भी मिले थे! इन्ही में से एक थे पद्मानंद, वयो-वृद्ध और निपुण! अब उनका शरीर साथ नहीं देता था, उनका एक प्रधान शिष्य था, नाम था धर्मा, नाम तो उसका धर्मा था परन्तु अधर्म का कोई कोना उसने बिना छुए नहीं छोड़ा था! मेरा उसके साथ कई सालों से छत्तीस का आंकड़ा था! पद्मानंद अब खटिया पर टिक चुके थे, किसी भी क्षण उनके अगले पड़ाव का निमंत्रण आ सकता था! मैंने उसने मिलने गया था, ये अंतिम अवसर था उनसे मुलाक़ात करने का, इसके बाद संभवतः कभी अवसर नहीं मिल पाता! जब मै उनके पास गया तो धर्मा वहीं बैठा सुलपा सूंत रहा था! उसके साथ उसके चेले, हरामी चेले कहना अच्छा रहेगा, उसके इर्द-गिर्द डेरा जमाये बैठे थे! मदिरा का दौर चल रहा था! तभी मेरे पास उसका एक चेला आया, नशे में धुत्त, बोला, "कहिये?"
"बड़े बाबा से मिलना है" मैंने कहा,
"अभी पूछता हूँ" उसने कहा और धर्मा के पास चला गया! मै उत्तर जानता था,
चेले ने धर्मा से झुक कर कुछ पूछा, और फिर वहाँ से खड़ा हुआ आया मेरी तरफ! इधर उधर गिरता पड़ता! अब उसका चेला डगमगाता हुआ आया और बोला," बाबा सो गए हैं, अब कल आना"
"धर्मा से बोल मै आया हूँ" मैंने कहा, मैंने उसको अपना नाम बताया था!
"क्या मुसीबत है" वो बडबडाया और फिर हिलता-डुलता वहीं पहुँच गया! फिर से उसने धर्मा से बात की, धर्मा ने मुझे देखा और खड़ा हुआ, और अब स्वयं आया मेरे पास!
"बता तो दिया था? बाबा सो रहे हैं, अब सुबह आना" उसने कहा,
"धर्मा, मुझे मिलना है बाबा से, मै परसों जा रहा हूँ वापिस" मैंने कहा,
"तो क्या आफत हो गयी? कल मिल लेना?" उसने कहा,
"मुझे आज ही मिलना है" मैंने कहा,
अब वो चुप हुआ! और हाथ के इशारे से मुझे अन्दर भेज दिया! मै और शर्मा जी अन्दर चले गए! अन्दर एक कक्ष में पद्मानंद लेटे हुए थे, आँखें बंद किये हुए, मेरे दादा श्री के कभी शिष्य हुआ करते थे ये! मुझे सदैव अपने पौत्र के समान व्यवहार करते थे! मैंने उनका भी शिष्यत्व ग्रहण किया हुआ था, अतः वे मेरे गुरु भी थे!
"अलख निरंजन" मैंने कहा,
उन्होंने आँखें खोली अपनी!
मैंने उनके पैंताने बैठ गया! उन्होंने मुझे देखा लेटे लेटे! मुख से शब्द नहीं निकले! वृद्धावस्था ने अपना राज पूर्ण रूप से कायम कर लिया था पद्मानंद की देह में! मैंने उनके पाँव छुए तो उन्होंने अपने हाथ से मुझे आशीर्वाद दिया! और मेरा ठहरने का यहाँ कोई औचित्य नहीं था! मैं अब वहाँ से उठा और कक्ष से बाहर चला गया! उनके दर्शन हो गए थे और मुझे, और कोई इच्छा शेष नहीं बची थी! मै जब बाहर आया तो धर्मा ने चिल्ला कर पूछा, "मिल लिया? बाबा से?" उसके इस प्रश्न में उपहास था!
"हाँ! मिल आया" मैंने कहा,
"इधर आ, मजमा जमा है!" उसने कहा,
"और तू कर भी क्या सकता है!" मैंने कहा,
"आज की रात कोई गड़बड़ नहीं!" उसने हाथ हिला कर मना किया!
"नहीं मै नहीं बैलूंगा मजमे में! तू लगा रह इन भिखारियों में! साले समाज से बचने वाले, तिरस्कृत कमीने चोर डाकू!" मैंने कहा,
इतने में वहां से एक चेला उठा और मेरे पास आया, बोला, "क्या बोला तू अभी?
"तूने क्या सुना अभी?' मैंने पूछा,
"हमारे डेरे पर आकर हमें धमकाता है?" वो बोला,
"ये डेरा ना तेरा है और ना तेरे बाप का!" मैंने कहा,
अब उसने धर्मा की तरफ देखा! धर्मा मूक-स्वीकृति दे रहा था उसको!
"अब निकल जा इस से पहले कि इस बाबा को क्रोध आ जाए" उसने कहा,
"तू कौन होता है निकालने वाला, कुत्ते?" मैंने कहा,
उसने फिर से धर्मा को देखा!
अब उसने जैसे ही मेरी तरफ देखा, मैंने कस के एक झापड़ लगा दिया उसके गाल पर! नशे में धुत्त था, गिर पड़ा नीचे! जब तक संभालता, तब तक धर्मा आ गया! धर्मा ने उसको उठाया और मुझसे बोला, "अब चला जा यहाँ से, नहीं तो तमाश खड़ा हो जाएगा!"
"जाता हूँ मै, लेकिन अपने इस पालतू कुत्ते को मेरे बारे में ज़रूर बता देना, नहीं तो ऐसा हाल करूँगा इसका, इसकी चमड़ी साथ छोड़ जायेगी इसके मांस से!" मैंने कहा और बाहर चला गया!
बाहर गया तो अपने गुट के बीच आ बैठा! मैंने वहाँ के एक औघड़ रुद्रनाथ को धर्मा के बारे में बता दिया, उनको चिंता तो हुई, लेकिन वो धर्मा को समझाने की योग्यता रखते थे! अब मैं अपने कक्ष में आया! वहाँ शर्मा जी बैठे थे! ।
"कहाँ चले गए थे?" उन्होंने पूछा,
अब मैंने उनको सारी बात बता दी!
"अच्छा! इतना बड़ा हो गया वो!" उन्होंने पूछा,
"हाँ! कमीनता में!" मैंने कहा,
"भाड़ में जाने दो साले को!" वे बोले,
"हाँ, भाड़ में जाये साला!" मैंने कहा,
उसके बाद शर्मा जी ने निकाली एक बोतल! गिलास उठाये, साफ़ किये और ठंडा पानी ले आये बाहर से! साथ में 'प्रसाद' भी था! ताजा पका प्रसाद! ये पहाड़ी खरगोश था! हमने बोतल खींच दी! भुने मांस ने और ज़ायक़ा बांध दिया था!
तभी रुद्रनाथ मेरे पास आये और बोले, पद्मानंद के डेरे से कोई कटम्ब नाथ औघड़ आया है मिलने आपसे, बोलो तो भेजूं?"
"भेज दो!" मैंने कहा,
"शर्मा जी, खुराक और बनाओ, आज यहाँ खेल खेला जाएगा नहीं तो भूमिका निर्धारित होने वाली है" मैंने कहा,
"साले ने अगर कोई हरक़त की तो याद रखेगा जीवन भर!" शर्मा जी ने कहा,
"आने दो साले को" मैंने कहा,
शर्मा जी ने और दो गिलास तैयार कर दिए! तभी काले रंग के चोगे में एक औघड़ आया, सर पर मुंडासा लपेटे हुए! रुद्रनाथ भी साथ ही था! मैंने रुद्रनाथ को भेज दिया वापिस!
"आओ!" मैंने कहा उस से!
वो बैठ गया वहां!
मुझे गौर से देखा उनसे!
"बोलो किसलिए आये हो?" मैंने पूछा,
"कौन हो तुम?' उसने पूछा,
"धर्मा ने नहीं बताया?" मैंने पूछा,
"तुम ही बता दो" उसने कहा,
"शांडिल्य नाम सुना है?" मैंने पूछा,
"हाँ, इलाहाबाद वाले" उसने कहा,
"हाँ, मै उनका पौत्र हूँ!" मैंने कहा!
उसका रंग उड़ा अब!
अब मैंने और शर्मा जी ने अपने अपने गिलास खाली कर दिए!
"धर्मा ने कहा तुमने उसके चेलों के साथ मार-पीट की?" उसने पूछा,
"हाँ! धर्मा बच गया!" मैंने हंस के कहा,
"मुझे जानते हो?" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
"मै निन्यावे सिद्ध झार वाके औघड़ भदंग नाथ का पुत्र हूँ कटम्ब नाथ!" उसने कहा,
"असम वाले?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"धर्मा के हिमायती बनके आये हो?" मैंने पूछा,
"नहीं तुमको समझाने आया हूँ" उसने कहा,
मैंने उसको देखा, और उसका गिरेबान पकड़ा! उसको खड़ा किया और बाहर धक्का दे दिया!
वो खड़ा हुआ! और बोला, काल को निमंत्रण दिया है तूने!" उसने कहा,
मैंने शराब वाला गिलास उठाया और फेंक के मारा उस पर! वो फुनकता हुआ बाहर चला गया!
तभी रुद्रनाथ मेरे पास दौड़ा दौड़ा आया, आकर बैठा हमारे पास, बोला, "क्या कह रहा था ये, काफी गुस्से में गया है पाँव पटकता हुआ?"
"मरने दो कुत्ते को, ऐसे ऐसे कटम्ब नाथ काशी के घाटों पर बाजीगिरी दिखाते हैं!" मैंने कहा,
"ये धर्मा का मित्र है, कोई चार सालों से, उसी ने भेजा होगा इसको" उसने कहा,
"धर्मा को मै काफी समय से बख्श्ता आ रहा हूँ, केवल पद्मानंद के कारण, नहीं तो अब तक ये भी कटोरा थामे घूम रहा होता काशी की गलियों में!" मैंने कहा,
"आप आराम से प्रसाद ग्रहण करें, मै और भिजवा देता हूँ, चिंता न करें, मै देख लूँगा उसको" रुद्रनाथ ने उठते हुए कहा,
"चिंता काहे की रुद्रनाथ! ऐसे भिखारियों से चिंता?" मैंने कहा,
"मेरा अर्थ ये नहीं था, छोडिये मै प्रसाद भिजवाता हूँ अभी" उसने कहा और बाहर चला गया!
थोड़ी देर में एक सहायक आया और, और प्रसाद दे गया, हम लग गए अपने प्रसाद ग्रहण करने में! अब शर्मा जी ने कहा, "ये डेरे वाले कभी नहीं सुधरेंगे"
"अरे शर्मा जी, आजकल, आप जानते हैं कि साले ऐसे धर्मा और कटम्ब नाथ जैसे लोगों ने ही तंत्र को दाग लगाया है! खाना-पीना, सुरा-सुन्दरी! बस! हरामज़ादे!" मैंने जवाब दिया!
"सही कहा आपने" वे बोले,
उसके बाद हमने पाँव पसारे और निन्द्रालीन हो गए! प्रातःकाल मेरी नींद खुली, बाहर गया तो पक्षियों की चहचाहट ने बता दिया कि सूर्य की सवारी आने को ही है बस! ये उनका स्वागत-गान है! मैंने स्नान करने चला गया! स्नान करके वापिस आया तो शर्मा जी को भी जगाया, वे भी उठे और फिर भी भी स्नान हेतु चले गए! वापिस आये तो हम दोनों ने सुबह सुबह टहलने की सोची!
हम बाहर आये, थोडा आगे चले तो प्रांगण से थोडा आगे धर्मा की चिलम बैठी थीं! उन्होंने हमे देख कानाफूसी आरम्भ कर दी, हमने ध्यान न दिया और अपनी सुबह की सैर का आनंद लेने लगे! पहाड़ियों में सुबह का एक अलग ही आनंद होता है, स्वच्छ वायु और वातावरण! चहचहाते हुए पक्षी और शीतल बयार का स्पर्श! हम आगे चलते रहे!
"गुरु जी, शहर में और यहाँ कितना अंतर होता है!" शर्मा जी ने कहा,
"वो तो है ही शर्मा जी" मैंने कहा,
"यहाँ देखिये, ये है प्राकृतिक सौन्दर्य और शहरों में कृत्रिमता का आवरण!" वे बोले,
"सही कहा आपने" मैंने कहा,
तभी एक झाड़ी के पास मुझे एक बड़ी मादा नेवला दिखाई दी, अपने एक छोटे दुधमुंहे के साथ, वो हमें देख ठहरी और हम उसे देख ठहरे! थोड़ी देर मूक वार्तालाप हुआ और फिर वो झाड़ी में चली गयी!
"कितनी बड़ी मादा नेवला है ये!" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ, यहाँ इनके लिए भरपूर भोजन है! और वैसे भी नेवले का कोई शिकारी भी नहीं!" मैंने कहा,
"हाँ ये तो है" वे बोले,
जंगली पक्षियों ने शोर मचा रखा था! दूर पूर्वी क्षितिज पर लालिमा और दैदीप्यमान हो चुकी थी! उजाला पाँव पसारने लगा था अब! अब हम वापिस हुए और टहलते टहलते अपने डेरे की तरफ चल पड़े! रास्ते में वापिस आते हुए रुद्रनाथ मिला, नमस्कार हुई, किसी के साथ शहर जा रहा था काम से, उसने बताया कि दोपहर तक आ जायेगा वो! वो अपने रास्ते हुआ और हम अपने रास्ते!
डेरे में वापिस आये, अब सामने ही धर्मा की चिलमें बैठी हुई थीं, स्नान के पश्चात केश संवार रही थीं! उनमे फिर से कानाफूसी आरम्भ हो गयी, कुछ शब्द मेरे कान में पड़े, 'वो उधर, कमीज़ पहने' मैंने पीछे मुड़ कर देखा, और उनमे से एक को इशारा किया अपनी तरफ आने का, उनको सांप सूंघ गया! फिर भी उनमे से एक आ गयी मेरे पास, "क्या नाम है तेरा?" मैंने पूछा,
"आशा" उसने कहा,
"आशा, ये क्या कानाफूसी हो रही है हमारे बारे में?" मैंने पूछा,
"न......नहीं तो" उसने कहा,
"मैंने स्वयं सुना है!" मैंने कहा,
"नहीं तो" उसने कहा,
"अच्छा! किसके डेरे से हो?" मैंने पूछा,
"धरम सिंह के" उसने कहा,
"अच्छा! धर्मा कमीने के!" मेरे मुंह से निकला!
"कहाँ है इसका डेरा आजकल?" मैंने पूछा,
"मालदा में" उसने बताया,
"तू मुझे बंगाली तो नहीं लगती?' मैंने कहा,
"मै काशी से हूँ" उसने कहा,
"अच्छा, कितने साल हुए?" मैंने पूछा,
"चार साल" उसने कहा,
"एक बात बता, कटम्ब नाथ को जानती है?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"हम्म! उसी के और हमारे बारे में कानाफूसी चल रही थी यहाँ, है ना?" मैंने पूछा,
"जी....जी" उसने कहा,
तभी उसकी सरंक्षिका ने उसको उसका नाम लेकर बुलाया,
"रुक जा, उठा के नहीं ले जा रहा इसको, मुंह बंद कर" मैंने उसकी सरंक्षिका को कहा,
"ये भंडी कौन है?" मैंने उस से पूछा,
"कटम्ब नाथ के साथ है" उसने बताया,
"अच्छा! तो हरामज़ादा कटम्ब नाथ भी आ गया धर्मा के डेरे में!" मैंने कहा,
"हाँ, कबसे है वो तो!" उसने बताया,
"कल क्या बातें हुईं तेरे डेरे में मेरे बारे में?" मैंने पूछा,
"मुझे नहीं मालूम" उसने कहा,
"कुछ तो पता होगा?" मैंने पूछा,
"यही कि आपने कटम्ब नाथ से बैर लिया है" उसने कहा,
"मैंने नहीं लिया अभी तक बैर, अगर ले लिया तो ये डेरे की झाड़ ही मारेगा फिर!" मैंने कहा,
उसके चेहरे पर मुस्कराहट आई परन्तु उसने किसी तरह से दबा ली अपनी मुस्कराहट! मेरे हर सवाल पर वो अपनी उंगलियाँ अपनी हतेली पर रगड़े जाती थी, संकोच में डूबी थी, मुझे दया आई, मैंने कहा, 'जा अब"
वो चली गयी!
उसकी सरंक्षिका उस पर टूट पड़ी! गुस्से में अनाप-शनाप बोलने लगी! मै खड़ा तो वहीं था, मुझ से बर्दाश्त नहीं हुए, मै उस भंडी की तरफ गया, मुझे आते देखा दूसरी साध्वियां छिटक गयीं इधर उधर! मैंने उस से कहा, "ओ भंडी, क्या कहा तूने इसको?"
"मैंने आपके बारे में कुछ नहीं कहा, मैंने इसी को कहा" उसने कहा,
"मेरे बारे में कहा तूने तभी तो आया मै यहाँ? मैंने कहा,
"मैंने नहीं कहा" उसने कहा,
"तेरी ये कड़वी जुबान हलक़ से खींच कर तेरे खसम कटम्ब नाथ में मुंह ढूंस दूंगा अगर मेरा जिक्र भी आया तो!" मैंने कहा,
अब वो घबरा गयी! वहां से सामान बटोरने लगी! आशा पहले ही चली गयी थी! और तभी वहां कटम्ब नाथ आ गया अपने दो साथियों के साथ! भंडी दौड़ी और कटम्ब नाथ को शुरू से लेकर आखिर तक सारी बात बता डाली! कटम्ब नाथ ने मुझे देखा और मैंने उसको! अब मै स्वयं ही गया उसके पास!
"क्या हुआ? आँखें क्यूँ फाड़ रहा है?" मैंने पूछा उस से!
"तू मुझे जानता नहीं है अभी" उसने कहा,
"कमीन सारे एक जैसे! किसी की शक्ल याद नहीं रहती!" मैंने कहा, उसके साथ खड़े दोनों चेले रह गए अवाक!
"पहले मुझे जान" उसने कहा,
"सुन ओये! मै तेरे बाप भदंग नाथ को भी जानता हूँ, तुझे भी जान गया हूँ, तेरे दोस्त धर्मा हरामजादे को भी जानता हूँ और पद्मानंद जी को भी, वे मेरे गुरु रहे हैं, टिहरी में!"
पद्मानंद का मै शिष्य रहा हूँ, ये सुनकर कटम्ब नाथ चौंक पड़ा!
"अपनी इन चिलमों को समझा लेना, मेरा जिक्र भी आया इनकी जुबान पर तो जुबान खींच के तेरे मुंह में ठूस दूंगा!" मैंने कहा!
उसको काटो तो खून नहीं!
अब तक वो कुत्ता धर्मा भी आ गया था वहां!
"क्या हुआ?" उसने कटम्ब नाथ से पूछा,
"ये यहाँ इन औरतों से बदतमीज़ी कर रहा था" कटम्ब नाथ ने कहा, ।
"बद्तमीज़ी? कुत्ते की औलाद! तुम तो सालो वो आदमी हो जो सोने को भी अगर हाथ लगा दो तो वो भी काला पड़ जाए! जंग खा जाए! और तेरी औरतें? आक्क थू!" मैंने गुस्से से कहा!
धर्मा के नथुने फूलने लगे! कटम्ब नाथ गुस्से से भर गया! लेकिन जब तक पद्मानंद जिन्दा थे, ये रांड सास के जंवाई मुझे कुछ नहीं कह सकते थे!
"अब हट जा यहाँ से!" मैंने कटम्ब नाथ से कहा,
वो नहीं हटा!
"हटता है या नहीं?" मैंने कहा,
वो नहीं हटा!
"नहीं हटेगा?" मैंने पूछा,
थोडा कुलमुलाया तो धर्मा ने उसको हटा दिया!
"शर्म करो! डूब मरो हरामज़ादो, डूब मरो!" मैंने बिना पीछे देखे कहा!
अब शर्मा जी की हंसी छूटी!
"वाह! इसे कहते है प्रबल औघड़! वाह! हिला के रख दिए साले मात्र वाणी से!" शर्मा जी ने कहा!
"इनके लिए वाणी ही बहुत है शर्मा जी!" मैंने कहा,
और बातें करते करते हम वापिस अपने कक्ष में आ गए!
मै अपने कक्ष में आया और लेट गया, शर्मा जी भी लेट गए, तभी एक सहायक चाय-नाश्ता दे गया, हमने चाय नाश्ता किया और फिर थोड़ी देर आराम, अब शर्मा जी ने पूछा, "गुरु जी, आपने कहा था कि आप भदंग नाथ को जानते हैं, वो कैसे?"
"ये पहले हिमाचल में था" मैंने कहा,
'अच्छा, क्या उम्र होगी उसकी?" उन्होंने पूछा,
"होगी कोई पैंसठ-सत्तर साल" मैंने बताया,
"औघड़ है?" उन्होंने पूछा,
"था अब नहीं" मैंने उत्तर दिया,
"कैसे?" उन्होंने पूछा,
"एक साधना में उसके साथ हादसा हो गया था, बायाँ हाथ काटना पड़ा उसका, अब मार्गदर्शन करता है, सभी विद्याएँ उसने इस कटम्ब नाथ को दे दी हैं, ऐसा लगता है" मैंने कहा,
"ये कटम्ब नाथ इसका बेटा है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो ये धर्मा?" उन्होंने पूछा,
"ये दोनों मित्र हैं, धर्मा पहले कटम्ब नाथ के साथ था, पद्मानंद के डेरे में बाद में आया,
'अच्छा! इसीलिए ऐसी यारी है इनमे!" उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,
"हाँ, यही कारण है" मैंने कहा,
"कमीने हैं साले सारे के सारे!" वे बोले,
"महा कमीन कहो शर्मा जी!" मैंने कहा,
"आओ शर्मा जी, पद्मानंद के पास हो कर आया जाए" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले,
हम दोनों खड़े हुए और पद्मानंद के कक्ष के पास जा पहुंचे! बहार धर्मा बैठा था, नज़रें चुरा रहा था! मै सीधा अन्दर घुस गया शर्मा जी के साथ! अन्दर कटम्ब नाथ बैठा था पद्मनद के सिरहाने! मैं आगे बढ़ा, पद्मानंद ने मुझे देखा और बैठने को कहा, मैंने उनके पैंताने बैठ गया, मैंने नमस्कार की और पाँव छुए! उन्होंने मेरे सर पर हाथ रखने के लिए अपना हाथ उठाया, मै आगे झुका और उनका आशीर्वाद ले लिया! मैंने टेढ़ी निगाह से कटम्ब नाथ को देखा, उसने भी नज़रें चुरा लीं! मैंने नमस्कार किया और वहाँ से उठ गया!
बाहर आया तो धर्मा वहीं बैठा था, बतिया रहा था किसी चेले से, मैंने वहाँ से अब चलना ही बेहतर समझा! वापिस हम अपने कक्ष में आ गए, भोजन तैयार था, भोजन किया और फिर विश्राम!
अगले दिन प्रातःकाल निकलना था वहाँ से सो कपड़े आदि संजोये और बैग में भर दिए, मात्र एक जोड़ी जो पहने थे वही रहने दिया!
दोपहर में विश्राम किया!
संध्या हुई और फिर रात्रि, अब सामूहिक अलख उठ चुकी थी, शर्मा जी को मैंने वहीं छोड़ा और बोतल ले अलख भोग देने चला गया! अलख भोग दिया, वहाँ मुझे एक और औघड़ मिला बसंत नाथ, उसने मुझसे बात करने का आग्रह किया, उम्र होगी उसकी कोई पैंतालिस बरस, मै उसको अपने साथ अपने कक्ष में ले आया, रुद्रनाथ को थोडा 'प्रसाद’ भिजवाने को कहा और कमरे में बैठ गया, शर्मा जी से उनका परिचय करवाया, शर्मा जी जग उठा कर ठंडा पानी लेने चले गए! इतने में रुद्रनाथ ने भुनी हुई कलेजी भिजवा दी, गरम गरम!
"हाँ, बोलो बसंत नाथ?" मैंने पूछा,
"आप ही हैं दिल्ली से?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने उत्तर दिया,
"मै उसी डेरे से हूँ" उसने कहा,
"किस डेरे से?" मैंने पूछा,
"कटम्ब नाथ के' उसने बताया,
"अच्छा! मुझ से मिलने का क्या कारण है?" मैंने कहा,
"कटम्ब नाथ को मैंने सुना था आपसे बदला लेने की" उसने बताया,
"अच्छा! बदला!" मुझे हंसी आई,
"मेरी बात को हलके में मत लीजिये, मै उसकी बात बता रहा हूँ आपको" उसने कहा, .
"बताइये" मैंने कहा,
"पद्मानंद जी अब अधिक दिन के नहीं है, उसके बाद धर्मा का शासन चलेगा" उसने कहा,
"जानता हूँ" मैंने कहा,
"उसने कहा कि इस दिल्ली के औघड़ का पत्ता साफ़ करो जल्दी से जल्दी" उसने बताया,
"किसने कहा?" मैंने पूछा,
"धर्मा ने" वो बोला,
"उसको छोडो भाई!" मैंने कहा,
"आप यकीन कीजिये मेरा" उसने कहा,
"कर लिया" मैंने जवाब दिया,
"आप को सूचना देना मैंने उचित समझा" उसने बताया,
"धन्यवाद" मैंने कहा,
अब तक शर्मा जी गिलास तैयार कर चुके थे, बसंत नाथ को भी चखवा दिया अंग्रेजी प्रसाद!
उसके बाद बसंत नाथ थोड़ा खुलने लगा,
"एक बात बताओ बसंत नाथ, मुझे क्यों बताया आपने ये सब?" मैंने पूछा,
"मैंने सुना था आपके बारे में" उसने कहा,
"किस से?" मैंने पूछा,
"जोगन से" उसने बताया,
'अच्छा! कैसी है जोगन?" मैंने पूछा,
"ठीक है" उसने कहा,
"काफी समय हो गया जोगन से मिले हुए मुझे" मैंने कहा,
"अच्छा, वैसे कटम्ब नाथ ने बैर साध लिया है आपसे" उसने कहा,
"साधने दो, मेरा कुछ बिगाड़ेगा तो मिट्टी में मिला दूंगा उस हरामज़ादे को" मैंने कहा,
अब एक गिलास मैंने और खतम किया! एक गिलास बसंत नाथ भी खींच गया!
"बसंत नाथ, एक बात बता, ये भदंग नाथ नहीं समझाता इसको?" मैंने कहा,
"नहीं, कटम्ब नाथ ने पर्दा डाल दिया है उनकी आँखों पर" वो बोला,
"मरेगा फिर वो भी" मैंने कहा,
"आप कब निकल रहे हैं?" उसने पूछा,
"कल, सुबह" मैंने कहा,
"अच्छा, दिल्ली का पता दे दीजिये" उसने कहा,
तब मैंने उसको शर्मा जी का नंबर दे दिया, और उसका नंबर ले लिया!
"बसंत नाथ, तुम्हारा शुक्रिया, इस कटम्ब नाथ के बाद तू संभालना वहां की बागडोर! जा, मैंने कह दिया!" उसके चेहरे पर लम्बी मुस्कान आ गयी!
साले! सभी कमीन है! लालची! ओछे!
अब बसंत नाथ उठा और नमस्कार कर बाहर चला गया!
"वाह! एक तीर दो शिकार!" शर्मा जी ने हंस के कहा,
"शत्रु का शत्रु मित्र होता है शर्मा जी!" मैंने कहा,
"मान गया आपको!" उन्होंने कहा,
"ये कटम्ब नाथ और धर्मा, इनका वक़्त आ पहुंचा है शर्मा जी!" मैंने कहा,
"दिख रहा है!" वे बोले!
उसके बाद हमने छक के मदिराभोग किया और फिर बातें करते करते कब आँख लग गयी, पता न चल सका!
सुबह उठे, स्नानादि से फारिग हुए और थोडा दूध पिया, अब निकलने का समय हो चला था वहाँ से, मैंने रुद्रनाथ को ढूँढा तो वो बाहर आँगन में बैठा था, मैंने उसको बताया की हम चल रहे हैं और उस से विदा ली, वापिस कक्ष में आये और अपना सारा सामान उठाया और बाहर निकल गए, बाहर आ कर एक सवारी ली और बस अड्डा पहुंचे, वहाँ इंतज़ार करना पड़ा थोडा और फिर दिल्ली की बस मिल गयी, दिल्ली की पकड़ी और दिल्ली के लिए रवाना हो गए!
हम रात होने से पहले दिल्ली पहुंचे, सफ़र की थकावट हो चुकी थी, सो पहले स्नान किया और फिर आराम, अब जो भी करना था वो अगले दिन ही करना था!
अगले दिन बसंत नाथ का फ़ोन आया, उसने पहले तो पूछा कि हम सुरक्षित पहुंचे अथवा कोई दिक्कत-परेशानी तो नहीं हुई? मैंने बताया कि हम आराम से पहुँच गए हैं, उसने ये भी बताया कि हमारे वहाँ से जाने के बाद कटम्ब नाथ और धर्मा ने बहुत तमाशा मचाया रुद्रनाथ के साथ, अब उस जगह का संचालन रुद्रनाथ के पास था अतः उसने धर्मा और कटम्ब नाथ से साफ़ कह दिया था कि दिल्ली वाले तो अवश्य ही आयेंगे यहाँ, जब भी वे चाहें! रुद्रनाथ मुझे अब से नहीं कम से कम दस वर्षों से अधिक समय से जानता था, मेरा विश्वासपात्र था और मै उस से आश्वस्त भी था!
खैर, समय अपनी गति से बीता, महीना बीत गया, बसंत नाथ अक्सर फ़ोन कर लिया करता था, बता दिया करता था कटम्ब नाथ और धर्मा के बारे में!
और फिर एक दिन उसने मुझे खबर की कि पद्मानंद का देहांत हो गया है, उनका अंतिम संस्कार उसी दिन किया जाना है, मुझे बहुत अफ़सोस हुआ, एक अध्याय समाप्त हो गया था, परन्तु उनकी मृत्यु से उस जंगली जानवर धर्मा को मुक्ति मिल गयी थी! पद्मानंद का संचालित डेरा अब धर्मा के हाथ में आ गया था! वैसे मेरा उस से कोई लेना देना तो था नहीं, उसके डेरे में जाना मैंने कभी स्वीकार नहीं किया था! पद्मानंद के मृत्योपरांत मेरे लिए वहाँ के कपाट सदैव के लिए बंद हो चुके थे!
और फिर आया महा-पर्व! इस पर्व में मुझे कोलकाता जाना था, इसमें एक गुरु के सभी शिष्य सम्मिलित होते हैं, या एक शाखा के सभी साधक सम्मिलित हुआ करते हैं, यही अवसर था ये! मै और शर्मा जी दिल्ली से रवाना हुए और कोलकाता जा पहुंचे, कोलकाता से ये स्थान एक सौ पच्चीस किलोमीटर पूर्व में हैं, यहीं होता है ये सम्मलेन! रुद्रनाथ भी आया हुआ था वहाँ और वो दोनों कटम्ब नाथ और धर्मा भी! रुद्रनाथ ने शानदार स्वागत किया हमारा! उसने हमारे रहने का स्थान एकांत में चुना था, हमने शेष दिवस विश्राम किया और फिर रात्रि समय भोजन के समय मै रुद्रनाथ के साथ और शर्मा जी के साथ भोजन-कक्ष में गया, वहाँ पंद्रह-सोलह और लोग भी थे, लेकिन मेरी निगाह एक ब्रह्म-तपस्विनी पर पड़ी, गेरुए वस्त्र-धारी वो तपस्विनी अपनी एक सखी के साथ बैठी थी, रूप-रंग में वो किसी साध्वी से अलग ही थी, सर ढके हुए और हाथों में रुद्राक्ष धारण किये हुए थी, औघड़ों के बीच
एक ब्रह्म-तपस्विनी का भला क्या काम? मुझे समझ नहीं आया, मैंने रुद्रनाथ से पूछा, तो उसने बताया कि वो अवधूत केशवानंद की पुत्री है शोभना, ये केशवानंद हरिद्वार और देहरादून मार्ग के मध्य बने एक आश्रम के संचालक हैं! सच कहता हूँ मित्रगण, उसमे एक मादक-सौंदर्य था! एक क्षण का चढ़ा मेरा वो आवेश मेरे काम-कूप में जैसे शांत पानी को उसके मादक-रुपी पाषण ने गिर कर शांति-भंग कर दी हो! वो बैठी भी ऐसी मुद्रा में थी कि मै ही नहीं और भी औघड़ और उनके चेले नज़रें बचा बचा के उसके मादक-सौंदर्य का रसपान कर रहे हों! सभी पुरुषों की बैठने की दिशा ऐसी थी कि जब गर्दन ऊपर हो तो नज़र उसके बदन से ही टकराए! अब मै वहां एक दरी पर बैठ गया, साथ में शर्मा जी भी बैठे, मैंने रुद्रनाथ से कह कर मदिरा-प्रबंध कराया! वो मदिरा-प्रबंध करके लाया और साथ में 'प्रसाद' भी ले आया! मैंने उसके सौन्दर्य को कांच के गिलास से देखा! निहारा और एक बड़ा सा पैग बनाकर पी गया! इतने में वो उठी और वहाँ से चल दी, उसके साथ जो और संचालिकाएं थीं वो भी उठ गयीं! वहाँ बैठे सभी भंवरे जैसे रस के अभाव में प्यास से मरने लगे, सबकी सीधी तनी पीठ, ताकि उसके सौंदर्य को वो एक दूसरे के कंधे और सर के ऊपर से देख सकें, झुक कर ढलवां हो गयीं थीं!
और तभी, तभी वहाँ कटम्ब नाथ का प्रवेश हुआ, अपनी दो नव-यौवना साध्वियों के साथ! सारा मुंह का ज़ायक़ा कड़वा हो गया! वो बेसुध सा वहाँ आ बैठा, उसकी साध्वियों ने उसके लिए आसन बिछाया और तब वो आराम से बैठा! मेरी दृष्टि उसी पर थी! और तभी उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी, मै और वो एक दूसरे को एकटक देखते रहे! दो शत्रुओं का दृष्टि-मिलन था ये! उसने अपनी साध्वी से कुछ कहा तो उसकी एक साध्वी उठी और बाहर गयी, दूसरी ने एक थैले से शराब की बोतल निकाली और उसके लिए एक पैग बना दिया, दूसरी साध्वी वापिस आई, एक पत्तल में कुछ प्रसाद लेकर और उसके समक्ष रख दिया, मुझसे नज़रें मिलाते हुए उसने अपना पैग ख़तम कर लिया और फिर मूंछों और दाढ़ी पर हाथ फेरा! अब तक मेरे ऊपर भी मदिरा-प्रभाव चढ़ने लगा था! मै भी उसी से नज़रें मिलाते हुए पैग ख़तम कर लेता था! शर्मा जी सारा नज़ारा देख रहे थे, वो भी उस कटम्ब नाथ को देखते और अपना पैग ख़तम करते! उसने अपनी साध्वियों को भी शायद मेरे बारे में अवगत करा दिया था, वो दोनों भी कभी कभार हमारे ऊपर दृष्टिपात कर लिया करती थीं! ।
पर लगता था, नियति ने कुछ परिणाम तय कर ही रखा था, तभी वो कमीना धर्मा भी आ गया! अपने साथ अपनी दो साध्वियां ले कर! वो भी कटम्ब नाथ के साथ आकर बैठ गया, कटम्ब नाथ ने कोहनी मार कर उसको मेरे बारे में बता दिया, उसने मुझे खोजा और मुझ से दृष्टि मिलते ही झेंप गया!
अब शर्मा जी बोले, "एक तो करेला वो भी नीम चढ़ा!"
"हाँ! सही कहा!" मेरी हंसी छूटी! ।
"कैसे छन रही है सालों में!" वे बोले,
"जीजा-साले की तरह!" मैंने कहा,
अब वो हँसे!
और तभी उस ब्रह्म-तपस्विनी ने प्रवेश किया, उसने अपनी एक सखी को कुछ फूल इत्यादि मंगवाने के लिए आगे भेजा! दोनों की गिद्ध-दृष्टि ऐसी जमी उस पर कि जैसे किसी भूखे मर रहे गिद्ध को मांस का भण्डार मिल गया हो! दोनों ने उसको नख-शिख देखा फिर जैसे कोई मूर्ति तराशने वाला किसी स्त्री-
मूर्ति के अंग-प्रत्यंग में काम-भाव सृजित करता है ठीक वैसे ही इनकी दृष्टि रुपी छैनी उसके बदन को तराशने लगी!
"देखिये शर्मा जी" मैंने कहा,
"कमीने कहीं के!" वे बोले,
"ये साले अपनी औक़ात से बाज नहीं आने वाले!" मैंने कहा,
शोभना की सखी ने फूल निकले और चली गयी वहाँ से! उसके जाते ही इन दोनों की वो तराशी मूर्ति भी खंडित हो गयी!
अब रुद्रनाथ आ बैठा हमारे साथ! और मदिरा ले आया था वो!
"ये साले दोनों है यहाँ" मैंने रुद्रनाथ से कहा,
"हाँ, दो दिन पहले ही आये हैं" उसने कहा,
"मैंने सुना हमारे जाने के बाद इन्होने तमाशा किया वहाँ?" मैंने पूछा,
"तमाशा क्या, बोले अब दिल्ली वाले को नहीं बुलाना" उसने कहा,
"दिल्ली वाला क्या इनका जीजा लगता है?" मैंने पूछा,
"आपको तो पता है, ये हैं तो साले कमीन ही" उसने कहा,
"अच्छा, एक बात बताओ, ये शोभना यहाँ क्यूँ है?" मैंने पूछा,
"ये आश्रम शोभना के पिता का ही है, उन्होंने ही यहाँ अनुमति दी है" उसने कहा,
"अवधूत का?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
"लेकिन ये तो धनञ्जय का था ना?" मैंने पूछा,
"धनञ्जय ने इसकी बागडोर अब केशवानंद को सौंप दी है" वो बोला,
"हम्म!" मैंने कहा,
"तो शोभना यहाँ पर उप-संचालक है" मैंने कयास लगाया,
"हाँ" उसने कहा,
"तो महा-दीप कब प्रज्ज्वलित होगा?" मैंने पूछा,
"परसों रात्रि को" उसने बताया,
"अच्छा ! और उसके बाद त्रि-अलख?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" उसने कहा,
"कौन कौन आ रहा है?" मैंने पूछा,
"खेव्तानंद, शामसिंह और गायत्री अवधूत" उसने बताया,
"अच्छा! ये अवधूत गायत्री इस केशवानंद का जानकार तो नहीं?" मैंने पूछा,
"नहीं, ये ओडिशा से आएगा" उसने बताया,
मेरे सामने कटम्ब नाथ और धर्मा मशगूल थे अपने प्रपंचों में!
"शामसिंह से मेरी मुलाक़ात आसनसोल में हुई थी, काफी पहुंचा हुआ है, आजकल कहाँ है?" मैंने पूछा, ।
"वो आजकल नेपाल में है कहीं" उसने बताया,
"अच्छा!"
उसके बाद हमने और मदिरा-भोग किया और प्रसाद से ही पेट भर लिया! अब मैंने शर्मा जी से थोड़ा घूमने के लिए कहा, कटम्ब नाथ और धर्मा जाते हुए हमे ही घूरते रहे! ।
हम बाहर आये, चांदनी छिटकी हुई थी, शांति का माहौल था बस कभी कभी किसी के ठहाके की आवाज आ जाती थी, वो मदिराभोग में डूबे थे! हम आगे बढे और धीरे धीरे चलते रहे, झींगुरों और मंझीरे अपने अपने तरीके से एक दूसरे की सुर-ताल को दबाने को लगे थे! जैसे कोई प्रतिस्पर्धा हो रही हो उनके बीच! हम वापिस आये अब टहलते टहलते, अपने कक्ष की ओर चले, हमारा कक्ष पहली मंजिल पर था, हम जैसे ही सीढियां चढ़ने लगे, तभी मुझे शोभना दिखाई दी, सीढ़ी शुरू होने से पहले वाले कक्ष में, दायीं ओर, उसने मुझे देखा और मैंने उसको, उसने मुंह फेरा, मैंने नहीं, उसने फिर देखा, मैंने तो एकटक देख ही रहा था, उसने फिर से मुंह फेरा, मैंने नहीं! मुझे थोड़ी हंसी सी आई! उसने फिर से मुझे देखा, इस बार मुंह नहीं फेरा, बल्कि घूम के अपनी पीठ मेरी तरफ कर ली! ये मदिरा का प्रभाव था! औघड़ी-माया ग्रस्त हो जाता ही साधक!
"अब चलिए, खेल ख़तम!" शर्मा जी ने मुस्कुरा के कहा,
"ह...हाँ!" मै थोड़ा ठिठका जवाब देने में!
हम ऊपर चढ़े!
"क्या बात है गुरु जी, लगता है, आपको शोभना की शोभा पसंद आ गयी है!" शर्मा जी ने व्यंग्य किया!
"हाँ, कह सकते हो आप!" मैंने जवाब दिया!
"कोई लाभ?" उन्होंने पूछा,
"लाभ तो कुछ नहीं, बस एक प्रश्न है" मैंने कहा,
"कैसा प्रश्न?" उन्होंने पूछा,
"यही कि भेड़ियों के बीच में एक हिरनी क्यूँ आई है प्राण गंवाने?" मैंने उत्तर दिया,
"वो अवधूत की पुत्री है, उसे कौन कहेगा कुछ?" वे बोले,
"मुख से तो नहीं कहेगा, परन्तु दुर्मुख से ना जाने क्या क्या कहेगा!" मैंने कहा,
"समझ गया मै!" वे बोले,
"तो कल स्वयं बात कर लीजिये, शंका-समाधान हो जायेगा!" वे बोले
"हाँ, सही कहा आपने" मैंने कहा,
अब हम अपने कक्ष में पहुंचे! और लेट गए! लेटते ही नींद ने घेरा तो हमने समर्पण कर दिया!
सुबह उठे और स्नानादि से फारिग हुए, फिर बाहर चले घूमने, सैर करने, सुबह का समय था और मौसम भी अच्छा था! शान्ति का माहौल था! आगे गए तो धर्मा की साध्वियां फूल तोड़ रहीं थीं बेला के, हम वहां से गुजरे तो उन्होंने नमस्कार किया, हमने भी किया, मैंने पूछा, "धर्मा के साथ हो?"
"जी" उसमे से एक बोली,
"आजकल कहाँ है धर्मा का डेरा?" मैंने पूछा,
"वहीं काशी के पास" उसने जवाब दिया,
"कुछ पढ़वाता भी है तुमको?" मैंने पूछा,
मेरा प्रश्न सुनकर तीनों एक दूसरे को देखने लगीं!
"जवाब दो?" मैंने कहा,
"नहीं, अभी समय है" उसने कहा,
"कब से हो वहाँ?" मैंने पूछा,
"दो वर्ष से" उसने उत्तर दिया,
"और कहाँ की हो?" मैंने पूछा,
"अयोध्या" उसने जवाब दिया,
"हम्म! क्या नाम है?" मैंने पूछा,
"कुमुद" उसने कहा,
"नाम तो बढ़िया है, लेकिन तुम्हारा गुरु कमीन है!" मैंने हंस के कहा,
ऐसा सुन तीनों सिहर सी गयीं!
"उसको छोडो, यहाँ एक रुद्रनाथ है, उसके संग हो जाओ, ये कुछ नहीं पढ़ायेगा तुमको, केवल रातें रंगीन करेगा" मैंने कहा,
ये सुन तीनों झेंपी!
"मै गलत नहीं कह रहा, सही कह रहा हूँ, जब तक जवान हो, ये तुम्हे कुछ नहीं पढ़ायेगा" मैंने कहा,
वो चुप रहीं!
"अब आगे तुम्हारी मर्जी, जैसा जी में आये वैसा करो" मैंने कहा,