कनकभद्रा, तांत्रिक शक्ति है, अक्सर इसका डोरा खींचा जाता है ताकि आसपास बिखरा हुआ, ज़मीन में दफन धन, एक जगह इकट्ठा हो जाए और तब भूमि का कोई हिस्सा ऊपर उठा जाता है, वहाँ से मन्त्र फोड़ा जाता है, फलस्वरूप धन, बाहर दिखाई देने लगता है, चूंकि कनकभद्रा भूमि में गड़े धन को एकत्रित कर ऊपर को भेजती है, नीचे जो भी वस्तु होगी वो भी साथ आ जायेगी! कैसे कोई बक्सा, कोई संदूकची या कुछ भी! परनतु ये मंत्र और तंत्र सिर्फ सूखी मिट्टी, खेत, मैदान में ही प्रयोग में लाया जाता है, किसी भवन, हवेली, इमारत के अंदर, या कोई ऐसी ज़मीन जहां, पिंडियां हों, कब्रें हों, जल हो, नाला हो या चट्टानें हों, वहां नहीं प्रयोग में लाया जा सकता! इमारत गिरने, चट्टान खिसकने, जलधारा के फूटने आदि का भय रहता है! यही सब मैंने उनको बताने का प्रयास किया था, लेकिन धन के लालच में अंधे हो चुके ये लोग, अब क्या झेलने वाले हैं ये तो वो ही जानें! मैंने हालांकि, सभी को चेताया था, लेकिन वैज्ञानिकों को तो कोई असर पड़ा ही नहीं था, आचार्य जी के सामने क़र्ज़ था और धन का ढेर, दिशि के सामने उसके पिता जी थे, कहा जाए कि ये लोग नहीं जानते थे, अनभिज्ञ थे इस तथ्य से कि कनकभद्रा का प्रयोग यहां नहीं किया जा सकता, बाबा ये सब जानते थे, अब कारण क्या था, ये तो वो ही जानें! जहां तक मंत्र-ध्वनि जायेगी, वहां तक की कोई भी वस्तु अपनी स्थिति छोड़, केंद्र की तरफ भाग लेगी! हमारे यहां कोई मन्त्र-ध्वनि नहीं थी, हम उस सब से दूर आ गए थे!
"अब क्या हो?" पूछा उसने,
"देखते रहो!" कहा मैंने,
और तभी एक धमाका सा हुआ! जैसे भूमि में छेद सा हुआ हो, प्रकाश की चिंगारियां ऊपर तक उठ गयीं! वो चौंध इतनी तेज थी कि आसपास का सारा माहौल उस प्रकाश में नहा उठा! और फिर सब शांत! कुछ देर हम वहीं खड़े रहे! कुछ देर तक!
"आओ?" कहा मैंने,
हम दौड़ कर आगे तक चले! तभी कुछ फुहारें हम पर पड़ीं! इसका मतलब भूमि में से जल का सोता फूटा था! जल का सोता फूटा और जल ऊपर तक उठा होगा! अब वहां अंधेरा भी हो चला था हां, उस अलख की लकड़ियां दूर दूर गिरी हुई अभी तक कहीं न कहीं जल रही थीं, उनका ही प्रकाश फैला था वहां, मद्धम सा! हम दौड़ कर वहां चले तो मिट्टी की सुगंध सी फैली थी, जल अभी तक बह रहा था उस अलख के सामने की भूमि से, ये एक नाली सी बना, नदी की तर बहने लगा था!
"वे कहां हैं?" पूछा उसने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"वो?" बोलै वो,
हम दौड़ कर पहुंचे, बाबा का हाथ एक जगह भूमि से बाहर झांक रहा था, इसका मतलब बाबा भूमि में समा गए थे, हम फौरन ही दौड़े और हाथ पकड़ा, हाथ रक्त के प्रवाह के कारण, नसों ने जगह जगह से गांठें मार दे थीं! तभी जल की भयानक सी आवाज़ हुई, जो जल वहां भरा था उसने उसी छेद से नीचे, वापिस लौटना आरम्भ किया, हाथ भी खिंचता चला गया! हम कुछ भी न कर सके, बाबा ज़मींदोज़ हो गए थे!
"भागो?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
हम दौड़ के पीछे हटे, किसी बोतल में जल भरे जाने की सी भारी आवाज़ गूंज रही थी! हम वहां तक आये जहां वे लोग ठहरे थे, लेकिन अब वो वहां नहीं था, न ही उनका कोई अंश ही था, या तो वे भाग लिए थे, जिसको जहां जगह मिली हो, वहां या फिर, अब वे भी ज़मीन का ही हिस्सा बन चुके थे!
"अब यहां कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"ये सब कहां गए?" बोला वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"सामान भी नहीं है?" बोला वो,
"शायद कहीं बिखरा हो!" कहा मैंने,
"क्या ढूंढें उन्हें?" बोला वो,
'हां!" कहा मैंने,
मित्रगण, जहां तक ढूंढ सकते थे, ढूंढा, लेकिन कुछ न मिला! वे दौड़ कर कहीं और ही निकल गए हों, लगता था!
"क्या करें?" बोला वो,
"नदी!" कहा मैंने,
"वहां चलें?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
बालचंद्र भी घबरा गया था, ऐसा उसने शायद पहले कभी देखा नहीं था, मारे भय के उसके शब्द ही नहीं निकल रहे थे, वो बार बार पीछे देखता था!
हम नदी पर आ गए, अब यहां सब शांत था! वहां क्या हुआ था, बाहरी दुनिया को कोई खबर नहीं, कोई सुध लेने वाला नहीं, कोई सम्पर्क करे भी तो कैसे भला?
उस रात नींद नहीं आयी, बस हर आवाज़ को सुनते रहे, बीचे बीच में आवाज़ें भी देते हम कि कोई हो तो सुन ले हमें, आवाज़ दे तो हम उसकी मदद करें!
"जीवित तो होंगे?" बोला वो,
"यदि समय पर भाग लिए होंगे तो!" कहा मैंने,
"नहीं तो?" बोला वो,
''तब पता नहीं!" कहा मैंने,
"वहां कोई छेद तो नहीं था?" बोला वो,
"उस छेद के बने वेग ने परखच्चे उड़ा दिए हों, हो सकता है!" कहा मैंने,
"हे ईश्वर!" बोला वो,
''अब सुबह के उजाले का इंतज़ार करो!" कहा मैंने,
वो रात बड़ी भारी गुजरी, कोई आवाज़ नहीं, कोई पलट-जवाब नहीं आया था, अभी, रात तीन बजे तक तो!
रात के तीन बज रहे थे, सन्नाटा पसरा हुआ था, सन्नाटे की एक बोली हुआ करती है, लगता है कि मंद मंद से स्वर में कुछ गुनगुना रहा हो! उसे भय नहीं होता, भय के साथ उसका लम्बा नाता है! भय और सन्नाटा आपस में अभिन्न से मित्र हैं! उस बीयाबान में, उस समय तक तो इसी सन्नाटे की ही सत्ता विराजमान थी! कोई चीखे भी तो उस सन्नाटे की चादर नहीं फट सकती थी! मनुष्य का भय ही उसका मुख्य आहार भी है! इसी से वो बलवान होता चला जाता है! जो कुछ गुज़रा था, उसमे इस निरपराध सन्नाटे को दोष देना उचित नहीं था, कोई मंत्र-विद्या से उसके अंदर दाखिल होना चाहता था, उसने चेताया भी होगा, भूमि से तेज क्रंदन निकला भी होगा और ये मूर्ख उस को, धन की खनक सोच रहे होंगे! बाबा नंदनाथ कोई नए नए साधक नहीं थे, उनका अच्छा-ख़ासा अनुभव रहा होगा, फिर ऐसी चूक कैसे हो गयी? इस कारण स्पष्ट रूप से समझ आता है, कि हम, प्रकृति के संकेतों को समझ नहीं पाते, या फिर अपनी ही समझ के अनुसार उन पर अपनी ही सोच का मुलम्मा चढ़ा देते हैं! यही हुआ होगा, उस घूर्णन को उन्होंने धन की गति समझा होगा, जल उछला, भूमि फ़टी और वेग से एक विस्फोर सा हुआ! इस विस्फोट में में सब लपेटे गए, बाबा ने तो जहां आसन लगा था वो पूरी की पूरी भूमि ही नीचे धंस गयी थी! वेग का प्रवाह सब ओर समान रूप से होता है, यही हुआ होगा, वो वेग उन सभी से टकराया होगा और उड़ा ले चला होगा उनको अपने साथ! कौन कहां टकराया, कौन कहां गिरा, कुछ पता नहीं चला था, पहाड़ धसके तो टूटे वृक्ष की आवाज़, मात्र एक तृण समान ही होती है! और फिर मानव देह? इसमें इतना बल कहां? एक तिनका आंख में पड़ जाए तो गति ही रुक जाती है!
"दिशि?" बोलै वो,
"पता नहीं क्या हुआ होगा?" कहा मैंने,
"आचार्य जी की ज़िद ने सब तबाह कर दिया....!" बोला वो,
"सच कहा!" कहा मैंने,
"ये कनकभद्रा है क्या?" पूछा उसने,
"ये एक विद्या है, मां भुवनेश्वरी की, ये अत्यंत ही भयानक शक्ति है!" कहा मैंने,
"इसी कार्य हेतु होती है?" पूछा उसने,
"नहीं, सुना जाता है, कि प्राचीन समय से ही इसका संधान, शिलाओं, पाषाणों को हटाने के लिए प्रयोग किया गया, जैसे कोणार्क, उधर उस लिपि में कनकभद्रा का भी उल्लेख है!'' कहा मैंने,
"ओह! तभी इतने विशाल मंदिर, आदि बनाये गए?'' बोला वो,
"सटीक रूप से नहीं कह सकता, लेकिन इतने बड़े, टनों भारी पत्थर कैसे विस्थापित किये गए, जब की औजार आज जैसे थे ही नहीं, कैसे किया गया होगा? कोई न कोई विज्ञान अवश्य ही रहा होगा!" कहा मैंने,
"सच कहा!" बोला वो,
"तभी देखो आप!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"वे भूकंप झेल गए, बाढ़ झेल गए, स्खलन झेल गए!" कहा मैंने,
"आज भी वहीं के वहीं!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
बातें करते रहे हम, बार बार उन सभी का ज़िक्र आ जाता और इस तरह सुबह का उजाला हुआ, हम फिर से वापिस चले! वहां गए तो देखा, सबकुछ सामान्य सा ही था, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था! ये देख अब मुझे खटका हुआ!
"कोई चिन्ह नहीं?" बोला वो,
"बालचंद्र!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"बाबा लोचनाथ!" कहा मैंने,
"ओह! ओह!" निकला उसके मुंह से,
"इसका अर्थ ये हुआ, कि अवश्य ही यहां जो कुछ भी घटा उसके पीछे अभी तक कोई न कोई कीलन कार्यरत है!" कहा मैंने,
वैसे ये मेरा अपना ही मत है, ऐसा हो भी सकता था और नहीं भी, नहीं इसलिए कि हमें भव की स्थिति पता नहीं थी, यदि ये क्षेत्र ही था उन विद्या या कीलन के आधीन तब भी कुछ प्रश्न खड़े हो जाते थे!
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"आप उधर देखो!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
और मैं दूसरी दिशा में चल दिया! एक एक चिन्ह को खोजता हुआ, लेकिन कुछ नहीं मिल रहा था, कहां गए वे सब के सब? उनका सामान कहां गया? वो कहां गए सारे? हमने करीब दी घंटे आसपास खोजबीन की, लेकिन कुछ नहीं पता चला, उनका अवश्य ही भूमि लील गयी, अब तो यही लगने लगा था, नहीं तो कुछ न कुछ चिन्ह तो अवश्य ही दिख जाता?
मैं और बालचंद्र लौट आये, इशारों में ही पता चल गया कि कुछ नहीं मिला, कोई नहीं था, कहां फेंक दिए गए वे सब के सब?
"बैठो!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
कुछ देर मैंने उधर देखा, और कुछ निर्धारण किया!
"यदि वेग इधर आया तो वे पीछे गए होंगे?" कहा मैंने,
"हां? लेकिन वहां कुछ नहीं?" बोला वो,
वेग शक्तिशाली रहा होगा तो शायद टुकड़े हो गए होंगे उनके!" कहा मैंने,
"हे ईश्वर!" बोला वो,
"तब भी कुछ अंग तो मिलते?" कहा मैंने,
"हां, कुछ तो? वस्त्र आदि?" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने अपने आप से ही!
तब लगातार, बदहवास से हम उन्हें ढूंढते रहे, चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं, क्या जवाब देंगे, क्या उत्तर दे पाएंगे, शक हम पर ही जाएगा, वहां, उधर तो लोग जानते ही हैं कि हम सभी साथ ही थे? ये क्या हो गया? आखिर उन्होंने हमारी बातें क्यों नहीं मानी? क्या धन, जान से बढ़कर है? क्या इस जीवन से ऊपर है? क्या इतना अनमोल है कि जीवन ही ताक पर रख दिया जाए?
"अब क्या करें?" बोला वो,
"वापिस ही जाना होगा" कहा मैंने,
"क्या बताएंगे?" बोला वो,
"जो कुछ देखा" कहा मैंने,
"कौन यक़ीन करेगा?" बोला वो,
"सम्भवतः कोई नहीं" कहा मैंने,
"तब क्या करेंगे?" बोला वो,
"कुछ नहीं" कहा मैंने,
"क्या यहां से भाग चलें?" बोला वो,
"तब तो शक हम पर ही पुख्ता होगा" कहा मैंने,
"हां, सही कहा" बोला वो,
"यही होगा, कि स्वर्ण मिला होगा, हम दोनों ने ही एक एक करके इन सभी कोई मौत के घाट उतार दिया होगा, ये हमारी पहले से ही योजना रही होगी, और वजह भी खरी ही है, हम ही सच होते हुए, सच को साबित नहीं कर पाएंगे" कहा मैंने,
"मर गए हम तो" बोला वो,
"सच कहा, जीते जी मर गए" कहा मैंने,
बहुत देर तक हम ऐसे ही बैठे रहे,न वहां कोई आया और न ही कोई गया! एक पशु भी नहीं, आकाश में चीलें भी नहीं, वे नहीं थीं, इसका मतलब वे वहां थे ही नहीं!
"आओ, वापिस चलें" बोला मैं,
"चलो" कहा मैंने,
"वहाँ से कुछ लोग लेते हैं, और खोजते हैं" कहा मैंने,
"ये ठीक रहेगा" बोले वो,
और हम चल दिए फिर वहां से, बातें करते हुए, कि क्या जवाब देंगे? पुलिस में केस हुआ तो क्या होगा? कौन हमारा यक़ीन करेगा? धन कहां है? कहां छिपाया है? क्या जवाब देंगे...यही सोचे जा रहे थे कि अचानक!
"वो देखो?" चीखा बालचंद्र!
मैंने फौरन ही बाएं देखा! कोई खड़ा था, हमारी तरह देखता हुआ, हाथ हिलाते हुए! हमने न आव देखा न ताव, भाग लिए उसकी तरफ ही!
मित्रगण! ये एक व्यक्ति था, एक सहायक ही जो साथ आया था उन सभी के, उसके अनुसार वे सब, वहीं पड़े थे, सब के सब मूर्छित! लेकिन वे वहां पहुंचे कैसे?
तब, जो कुछ उत्तर मिला वो ये....
जब बाबा ने मंत्र पढ़े और जैसे ही स्फुटं कहा, कि ज़मीन में हलचल हुई! इस से पहले कि कोई कुछ समझा पाता, उनके नेत्र बंद हो गए! हर तरफ अंधेरा छा गया! वे अपनी सुध खो बैठे, फिर पता नहीं क्या हुआ!
हुआ क्या! उनको होश में लाया गया, सरोज आयी होश में लेकिन चलाना बंद न हुआ, वो पागलपन के आगोश में चली गयी थी शायद, दिशि और प्रिया को, अस्पताल ले जाना पड़ा, आचार्य जी को होश आ गया था, एक कंधा और सीधे पांव का टखना टूट गया था, शेष लोग ठीक थे!
खैर, अंत भले का भला!
वे सभी बच गए, हां, बाबा नहीं बच पाए, उनका अंत हम सभी ने देखा था, हम सभी मतलब हम सभी के सभी ने! जो नुक्सान हुआ, उसकी कोई थाह नहीं, वो पांडुलिपि, जिस तरह से हाथ आयी थी, शायद फिर से दफन हो गयी, रह गए तो कुछ पृष्ठ जो कॉपी कर लिए गए थे, उनके सहारे आगे बढ़ना, अब असम्भव ही था!
दिशि का सीधा पांव कभी नहीं अपनी जगह आ सका, वो आज भी लंगड़ा कर चलती है, आचार्य जी, दो वर्ष पूर्व, क़र्ज़ से लड़ते हुए, पूरे हो गए! सरोज कहां है पता नहीं, प्रिया अपने पति के पास, मुंबई चली गयी, स्थानांतरण करवा कर! वो स्थान, अब कुछ नहीं बचा, खाली पड़ा है, टूट-फाट गया है, आचार्य जी के पुत्र की कोई दिलचस्पी नहीं थी, मैं कभी नहीं मिल सका उस से! दिशि ने एक विद्यालय खोल लिया है, एक छोटा सा, अधिक बात नहीं होती उस से, दो एक बार सम्पर्क करना भी चाहा तो सम्पर्क हुआ नहीं! इस अध्याय का अंत हो गया! वो रहस्य, अब तक रहस्य बन, वहीं दफन है!
हां बालचंद्र! वो मेरा मित्र है! उस से मुलाक़ात होती रहती है! वो तो जहां था, आज भी वहीं है! अब प्रश्न ये कि क्या इस रहस्य को खोलने के लिए, कभी समय आएगा? तो बता देता हूं!
आएगा! अवश्य ही आएगा! कब, ये नहीं पता! लेकिन आएगा अवश्य ही! चूंकि इसकी खबर आज सभी मेरे गुरुजनों के पास पहुंचा दी गयी है, जिस समय, आज्ञा हुई, मैं चल पडूंगा! और बालचंद्र भी!
धन, जिन्होंने एकत्रित किया, उनका भी नहीं हुआ! तो और किसी का क्या होगा! हुआ भी तो क्या हश्र दे, पता नहीं! तो उस राह जाना ही क्यों!
साधुवाद!
अद्भुत, जब भी पढ़ते हैँ, विस्मय और आश्चर्यचकित रह जाते हैँ, प्रभु,,, किमियागारी के विषय मे गूढ और विस्तृत जानकारी, जो अब शायद कही और उपलब्ध ही नहीं, प्रभु,, हमेशा सहेज के रखा जाने वाला ज्ञान, सहज़ परोसने का धन्यवाद, प्रभु,, 🙏🙏
गुरुजी के संस्मरणों को पुनर्जीवित करने के लिए हार्दिक साभार.
बहुत ही गूढ़ ज्ञान की बाते कही गई है, इस संस्मरण में, और सबसे बड़ा ज्ञान तो लालच के बारे में और विद्या संचालन के बारे में मिला।
इस संस्मरण में प्रभु श्री और बालचंद्र(जी) के बीच जो संवाद हुआ है वह बहुत ही गूढ़ है,बार-बार चिंतन मनन करने योग्य है। और धन तो कमाया हुआ भी सगा नहीं होता ,यहाँ पर तो पराया धन और उस में भी लोभ।🙏🙏