वर्ष २००९, एक साधना...
 
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वर्ष २००९, एक साधना, अक्षुण्ण भार्या वेणुला!

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श्रीशः उपदंडक
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तो मित्रगण! ठीक ग्यारह बजे दो बोलेरो गाड़ियां चल पड़ीं! एक में मैं और बालचंद्र, दो सहायक और दो ही महिलायें थीं, शेष लोग आगे वाली गाड़ी में थे, अब रास्ता तो ऐसा था कि एक पसली दूसरी को सहारा न दे तो रीढ़ की हड्डी कीर्तन करने लगे! वो तो गाड़ी में कमानियां थीं जो उन गड्ढों से बच कर निकल जाते थे, हमारी मंज़िल उन गाड़ियों में बस नदी तक ही थी! उसके बाद तो पैदल ही चाल भिड़ानी थी!
"अबे कैसा रास्ता है?" बोला मैं,
"गाड़ी में हैं न!" बोला वो,
"पता नहीं वहां तक क्या हाल हो!" बोला मैं,
तभी एक महिला ने हमें पीछे मुड़कर देखा, हम चुप नहीं होने वाले थे, इतने सभ्य भी नहीं थे हम उस समय तो! मुंह से आह निकले और चुप रहें तो हम तो काठ ही ठहरे!
"क्या रास्ता ऐसा ही है?'' पूछा एक महिला ने,
"जी!" कहा मैंने,
"जंगल है न?" बोला बालचंद्र,
"जब आये थे तब भी ऐसा ही था!" बोली वो,
"होगा पक्का!" कहा मैंने,
"आप यहां के नहीं लगते?'' बोली वो,
"नहीं हैं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
मैंने बता दिया कि हम दोनों कहां से हैं! बोली थोड़ी अलग ज़रूर थी लेकिन आराम से घुलती थी अर्थ में!
"और आप?" पूछा मैंने,
"मैं तो पटना से हूं, सरोज!" बोली वो,
"ख़ुशी हुई आपसे मिल कर!" कहा मैंने,
"हमें भी!" बोली वो,
अब दूसरी महिला ने देखा हमें, नाक, होंठ ढके हुए थे उसने चुन्नी से! आंखों में गहरा काजल लगाया हुआ था, चालीस बरस की रही होगी वो!
"जी आप?" पूछा मैंने,
"प्रिया!" बोली वो,
"आप भी पटना से?" पूछा मैंने,
"लखनऊ से!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आपको शायद धूल से दिक्क्त है?" बोला बालचंद्र,
"हां!" बोली वो,
"बस नदी तक ही है!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोली वो,
बातें होती रहीं और तभी सामने वाली गाड़ी रुक गयी, हमारी भी रुक गयी तभी!
"आ गए?" पूछा प्रिया ने,
"हां, शायद!" कहा मैंने,
"दूसरे रास्ते से आये हैं!" बोला बालचंद्र,
"तभी पहचान नहीं सका!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला ड्राइवर! और इंजन बंद!
"चलो!" बोला बालचंद्र!
और हम सभी उतर आये नीचे, वे महिलाएं भी, वे दोनों उतारते ही, सामने गाड़ी की तरफ चल पड़ीं!
"चलो!" बोला मैं,
"आओ!" बोला वो और बैग उठा लिया!
आ गए हम उनके पास!
"यहां से आगे जाना है!" बोले आचार्य जी,
"अच्छा!" बोला मैं,
"ये आशुतोष जी हैं, ये संग रहेंगे आपके!" बोले वो,
"जी ठीक!" कहा मैंने,
"आओ सब!" बोले वो,
और हम चल दिए, गाड़ी वहीं रह गयीं, शायद वापिस चले जानी थी, कुछ सामान उतार लिया गया था, वो उठा लिया गया था!
"अभियान शुरू!" बोला बालचंद्र,
"हां!" कहा मैंने,
"इस बार कुछ मिल ही जाए!" बोला वो,
"तो मजा आ जाए!" कहा मैंने,
''चौगुना!" बोला वो,
"हां, ये तो ठीक!" कहा मैंने,
"पिछली बार यहां रुके थे!" बोला वो,
"रात को?" पूछा मैंने,
"दिन में कुछ नहीं होता!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये नदी तीन जगह घूमती है!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"अब ये वहीं रुकेंगे!" बोला वो,
"रुके होंगे पहले तुम?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
हम आगे चले तो सरोज रुक गयी थी, पीछे देख रही थी!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"सामान में चश्मा है मेरा!" बोली वो,
"पहन तो रखा है?" पूछा मैंने,
"धूप का!" बोली वो,
"अच्छा, ले लो!" कहा मैंने,
"आप चलो, आती हूं!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
हम आगे चल दिए फिर!
"यहां की ज़मीन अलग सी नहीं?" पूछा मैंने,
"काली सी है न?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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ये ज़मीन कुछ काली सी है! हैरत कि बात एक और! यहां, पत्थरों में से ही हरी वनस्पति भी फूटती है! कमाल ये कि न पानी, न मिट्टी! शायद नमी के कारण ही! यहां का चप्पा चप्पा ही रहस्य से भरा सा मालूम पड़ता है! कौन कहता है कि रहस्य नहीं हुआ करते! यहां आएं एक बार और स्वयं ही देखें!
"अजीब सी जगह है!" कहा मैंने,
"सो तो है!" बोला वो,
"लगता है जैसे ज़मीन में कोयला हो!" कहा मैंने,
"हां, रंग ही ऐसा है!" बोला वो,
"लेकिन है भी नहीं!" बताया मैंने,
"अंदर?" बोला वो,
"तब ये पौधे?" कहा मैंने,
"अरे हां!" बोला वो,
"ये क्या रहस्य है?" बोला मैं,
"एक बात कहूं?" बोला वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"गौर किया?" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"दो केंद्र!" बोला वो,
"दो केंद्र?" पूछा मैंने,
"एक हुआ अक्षुण्ण और वेणुला!" बोला वो,
"हां, दूसरा?" बोला मैं,
"दूसरा ये कीमियागरी!" बोला वो,
"अरे हां!" कहा मैंने,
"अब ये आचार्य कहां चले?" बोला वो,
"अक्षुण्ण?" कहा मैंने,
"स्वर्ण!" बोला वो,
"नहीं यार!" कहा मैंने,
"देख लेना!" बोला वो,
"कैसे पता?" पूछा मैंने,
"वे अटक गए हैं!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"क्या करें पहले!" बोला वो,
"स्वर्ण?" बोला मैं,
"यही लगता है!" बोला वो,
"कैसे कह सकते हो?" बोला मैं,
"ये रास्ता!" बोला वो,
"मतलब?" बोला मैं,
"अक्षुण तो पीछे छूटा!" बोला वो,
"क्या सच?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
तभी पेड़ के सहारे खड़ी दिशि और उसकी सहायिका बाहर आयीं!
"ओहो! डरा दिया!" कहा मैंने,
"सच में!" बोला बालचंद्र!
"डरते हो?" बोली वो,
"अब जंगल में, दिशि हो, और मैं या हम, तो डरेंगे नहीं!" कहा मैंने,
"मुझसे?" बोली वो,
"अरे ना! आचार्य जी से!" कहा मैंने,
"वो क्या कह रहे हैं!" बोली वो,
"कुछ कहेंगे तो?" बोला मैं,
"नहीं तो?'' बोली वो,
"नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
मैंने तब बालचंद्र को आगे चलने को कहा और उस सहायिका को! वे आगे बढ़ गए, पीछे मुड़कर, बस बालचंद्र ने ही देखा!
"ये क्या?'' बोली वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"कहां जा रहे हैं हम?'' पूछा मैंने,
"टीले!" बोली वो,
"टीले क्यों?" पूछा मैंने,
"आचार्य जी ने कहा!" बोली वो,
"कहीं कोई...योजना?" बोला मैं,
"कैसी योजना?'' बोली वो,
"स्वर्ण?" कहा मैंने,
"तो बुरा क्या?'' बोली वो,
"दिशि?" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"तुम भी?" कहा मैंने,
"पिता जी के साथ!" बोली वो,
"मुझे अलग ही मसझना!" कहा मैंने,
"ठीक! चलें?'' बोली वो,
"चलो!" कहा मैंने,
मेरा तो दिल कांप कर रह गया था, या तो मैं नहीं समझा था या फिर उसकी समझ में फेर थी कोई!
"आज वहीं?" पूछा मैंने,
"देखो!" बोली वो,
"हद है भाई!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"इतना प्रपंच क्यों!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोली वो,
"मेटल-डिटेक्टर लाते, सब पता चल जाता!" कहा मैंने,
"सब है!" बोली वो,
"वाह दिशि!" कहा मैंने,
"आओ!" बोली वो और मेरा हाथ पकड़ ले चली आगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"वैसे दिशि!" कहा मैंने,
"अब क्या?" बोली वो,
"खीझ क्यों रही हो?" पूछा मैंने,
"सवाल ही खतम नहीं होते?" बोली वो,
"ओ? सुनो?" कहा मैंने,
"हां? बोलो?" बोली वो,
"कोई एहसान नहीं कर रहीं मुझ पर तुम?" बोला मैं,
"एहसान ही समझो!" बोली वो,
"सच सुना था!" कहा मैंने,
"ये भी बताओ?" बोली वो,
"हाथ छोड़ो मेरा?" कहा मैंने,
और एक झटके से हाथ खींच लिया मैंने, अब समझ गयी वो कि मुझे सच में ही बुरा लगा गया था उसका ये व्यवहार!
"गुस्सा न दिखाओ?" बोली वो,
"दिशि?" कहा मैंने,
"कह लो!" बोली वो,
"ये रहा तुम्हारा रास्ता, स्वर्ण और अक्षुण्ण! मैं चला वापिस!" कहा मैंने,
और झट से मुड़कर, लौटने लगा! अब कुछ न बोली, मैं तेज कदमों से लौटने लगा था तभी उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा, दौड़ते हुए!
"हद करते हो?" बोली वो,
"हटाओ हाथ?" कहा मैंने,
और हटा दिया हाथ उसका!
"बुरा क्यों लगा?" बोली वो,
"व्यवहार देखा?" बोला मैं,
"कैसा है?" बोली वो,
"अभी तो कुछ मिला नहीं, मिल गया तो पहचानोगी भी नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा, गलती हो गयी!" बोली वो,
"अरे जाओ!" कहा मैंने,
और फिर से लौटने लगा!
"रुको?" बोली वो,
और आ गयी पास मेरे!
"जाना हो तो चले जाना, एक बात आचार्य जी से मिल लो, बता दो!" बोली वो,
"ठीक है! मुझे कोई रूचि नहीं इसमें अब!" कहा मैंने,
और मैं चल पड़ा उसके साथ फिर वापिस, बीच में बालचंद्र रुक गया था, हमें देखा तो चलने लगा!
"स्वर्ण तो अच्छे से अच्छे का दिमाग चला दे!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं चाहिए!" बोली वो,
"छोड़ो भी!" कहा मैंने,
"सच में!" बोली वो,
"अक्षुण्ण की गाथा जाननी है मुझे बस!" बोला मैं,
"वो वहीं से शुरू है!" बोली वो,
"एक और झूठ!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"चलो, देख लेते हैं!" कहा मैंने,
और हम अब बिन बातें किये चलने लगे साथ साथ!
"वे रहे!" बोली वो,
एक जगह वे रुक गए थे सभी, बैठे हुए थे! हम भी जा पहुंचे!
"लो! पानी!" बोला बालचंद्र,
"हां!" कहा मैंने,
पानी पिया और आसपास देखा!
"सच कहा था तुमने!" कहा मैंने,
"क्या?' बोला वो,
"ये लोग सोना ही खोजने आये हैं!" बोला मैं,
"मैं न कहता था!" बोला वो,
"सच है!" कहा मैंने,
"वो बाबा नंदनाथ!" बोला वो,
"मिला हुआ है!" कहा मैंने,
"जानता हूं!" बोला वो,
"तब भी?" बोला मैं,
"क्या करूं?" बोला वो,
"नज़र रखो!" कहा मैंने,
"दिशि को देखो!" बोला वो,
"बता रही होगी!" कहा मैंने,
"बड़ी शातिर है!" बोला वो,
"निकल जाएगा शातिरपन!" कहा मैंने,
"मैं तो भांप गया था!" बोला वो,
"मुझ से थोड़ी देर हुई!" कहा मैंने,
"जान तो गए!" बोला वो,
"हां पक्का!" कहा मैंने,
"अब पता नहीं ये गाथा है भी या नहीं?" बोला वो,
"अभी तक तो है!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"बाबा नंदनाथ!" कहा मैंने,
"अरे हां!" बोला वो,
"हां?" आयी आवाज़ आचार्य जी की!
"जी?" कहा मैंने,
"कुछ खा लो!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बालचंद्र, ले आओ!" कहा मैंने,
"अभी लाया!" बोला वो,
और चला गया उस महिला के पास, जो दोने में कुछ भर के दे रही थी एक थैले से निकाल कर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लगभग तीन बजे हम एक गड्ढ में थे, दूर तक फैला था ये गड्ढ! गहरा भी था, लगता था कि जैसे कोई पर्वत उखाड़ कर फेंक दिया हो यहां से या फिर उल्का-पात हुआ हो इधर! ये एक बड़ा सा क्रेटर है आज ही वहां! ज़मीन, कुछ कुछ रेतीले कणों की सी चमक रही थी! काली मिट्टी थी और आसपास अजीब सी वनस्पतियां लगी हुई थीं! मैंने गौर किया, उनके साथ जो लोग आये थे, अपना अपना सामान निकाल कर, वहां की जांच करने लगे थे, लेकिन उस गड्ढ में उन्हें मिलेगा क्या? और फिर दिशि भी नहीं थी वहां, वो कहां थी?
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"दिशि कहां गयी?" पूछा मैंने,
"यहीं होगी?" बोला वो,
"नहीं है!" बोला मैं,
"कहीं पीछे होगी?" बोला वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
अब वहां जांच गहन हुई, किताबें, पेंसिल निकाल लिए गए, नाप-माप सब होने लगे! सभी के सभी किसी वैज्ञानिक-अनुसंधान में जुटे से लगते थे!
"ये तो टीम है पूरी!" कहा मैंने,
"लगता है!" बोला वो,
"बाबा कहां हैं?" पूछा मैंने,
"उधर, वहां देखो?'' बोला वो,
"अकेले?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"चलना ज़रा!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
हम उधर से बाबा की तरफ चले, बाबा कुछ चबा रहे थे, शायद सुपारी या फिर कुछ और, जबड़े की हड्डियां चलतीं तो दाढ़ी हिलती-डुलती उनकी!
"प्रणाम बाबा!" कहा मैंने,
"प्रणाम!" बोले हाथ उठाकर,
एक कुर्सी पर बैठे थे वो, कुर्सियां लायी गयी थीं साथ में!
"यहां क्या हो रहा है?'' पूछा मैंने,
"खोज!" बोले वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"किसी निशानी की!" बोले वो,
"कैसी निशानी?" पूछा मैंने,
"कोई सभ्यता हो, सम्प्रदाय हो!" बोले वो,
"उसका अक्षुण्ण से कुछ लेना?" पूछा मैंने,
"अरे? क्यों नहीं?" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"एक दिशा-ज्ञान तो मिलेगा!" बोले वो,
"और वो अदृश्य जल?" पूछा मैंने,
"उद्गम यहीं है!" बोले वो,
"सच में क्या?'' बोला मैं,
"झूठ क्यों?" बोले वो,
"तो ऐसे तो बहुत समय लगे!" कहा मैंने,
"सो तो लगेगा!" बोले वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोले वो,
"तो आप?" पूछा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"झांक लो?'' कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"चलती नहीं!" बोले वो,
"बाबा लोचनाथ?" बोला मैं,
"सही समझे!" बोला वो,
"तब तो अज्ञात ही रहे!" कहा मैंने,
"प्रयास में क्या हर्ज़ा?" बोले वो,
"कोई नहीं!" कहा मैंने,
"तो देखते रहो!" बोले वो,
''देख रहा हूं!" कहा मैंने,
"यहां कुछ मिलेगा ज़रूर!" बोले वो,
"पक्का?" कहा मैंने,
"हां, पक्का!" बोले वो,
"आपने ही बताई होगी?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां जल की धाराएं हैं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और सम्भवतः कुछ छिपा हो!" बोले वो,
"सम्भवतः स्वर्ण?" बोला मैं,
"कुछ भी!" बोले वो,
"एक बात पूछूं?" बोला मैं,
"दो पूछो?" बोले वो,
"ये यहां कहीं स्वर्ण के लिए तो नहीं आये?" पूछा मैंने,
"आये हों तो?'' बोले वो,
"मतलब?" बोला मैं,
"पैसा नहीं लगता?'' बोले वो,
"लगता है!" कहा मैंने,
"कुछ मिल ही जाए तो बुरा है?'' बोले वो,
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"तब अक्षुण की खोज आरम्भ होगी!" बोले वो,
"अच्छा जी!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ठीक साढ़े छह बजे, वे लोग अपना अपना काम छोड़ कर वापिस हुए उसी जगह! यहां अब एक कामचलाऊ कनात सी लगा दी गयी थी, पानी और खाने की कोई कमी न थी, स्पष्ट था कि ये लोग इस बार तो पूरी ही तैयारी से आये थे, लेकिन मेरा मन खिन्न था, क्या सोचा था और ये खोज कहां चली आयी थी! ये मुझे पहले ही बता देती दिशि, तो कम से कम में भूपाल जी के साथ ही जा कर, उस क्रिया का हिस्सा तो बन जाता! अब न तो घर के ही बचा और न घाट का ही! लेकिन बुज़ुर्ग लोग कह गए हैं, जो नज़र आये पहले और जो पहुंच में हो, उसे ही थामना चाहिए! और यहां थामने के लिए, ये अभियान ही था, सो अब बिना मन के ही, जैसे भी बने, हिस्सा बन ही जाना था! जहां आचार्य जी बैठे थे, उन्हें घेर चार लोग और थे, वे सभी बातों में मशगूल थे, हां दिशि ज़रूर दिखाई दे गयी थी, शायद इस से पहले वो किसी और स्थान पर खोज करने चली गयी थी, सो, मैं उसके पास ही चला!
"क्या रहा?" पूछा मैंने,
"अभी तो कुछ नहीं!" बोली वो,
"कुछ हाथ नहीं लगा?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई अन्य धातु?" पूछा मैंने,
"ताम्बे की बहुतायत सी बताई!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हां, मिश्रण में है!" बोली वो,
"होगा!" कहा मैंने,
"आप तो साथ दे नहीं रहे!" बोली वो,
"मेरा काम ही नहीं ये!" बोलै मैं,
"बाबा नहीं है?" बोली वो,
"उन्हें तो एक बड़ा सा आश्रम बनाना होगा!" कहा मैंने,
हंस पड़ी वो!
"विद्रोही स्वभाव है आपका!" बोली वो,
"नहीं तो!" कहा मैंने,
"और क्या!" बोली वो,
"आपको लगा हो!" कहा मैंने,
"वो, दोपहर के लिए क्षमा चाहती हूँ, मैं ही गलत बोल गयी थी!" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ न कहोगे?'' बोली वो,
"सर पर नशा चढ़ा था सोने का!" कहा मैंने,
फिर से हंस पड़ी वो!
"सुनो!" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"मेरे पिता जी क़र्ज़ में हैं!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अब समझे आप?" बोली वो,
"यही कि यहां से कुछ मिले तो क़र्ज़ उतरे!" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोली वो,
"भगवान करे उतर जाए!" कहा मैंने,
"यही तो चिंता है!" बोली वो,
"समझता हूं!" कहा मैंने,
अब कर्म जैसे होंगे, फल भी वैसा ही मिलता है, आचार्य जी यहां तो किसी राजा से कम लग ही नहीं रहे थे, पता नहीं कर्ज़ा किस बात का किया होगा उन्होंने!
"बहुत पैसा चाहिए!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या करें!" बोली वो,
"आप जानें ये तो!" कहा मैंने,
"तो साथ दीजिये न?'' बोली वो,
"अब इसमें मेरी क्या ज़रूरत?" पूछा मैंने,
"बताइये कि कहां कुछ मिलेगा?'' बोली वो,
"ये जानता तो मैं क्यों वन वन भटकता!" कहा मैंने,
"आप बता तो सकते हैं?" बोली वो,
"यही प्रयोजन था मेरा?" पूछा मैंने,
"कह सकते हैं!" बोली वो,
"चलो, देखता हूं!" कहा मैंने,
"रात को भी यही काम चलेगा!" बोली वो,
"रात को भी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"प्रशासन?" पूछा मैंने,
"सब इंतज़ाम है!" बोली वो,
"यों लगा पैसा!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"चलो जी, करो काम!" बोलै मैं,
"स्नान आदि के लिए नदी है उधर!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अकेले मत जाना!" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"आप बैठो, हम महिलाएं जाएं पहले!" बोली वो,
"हां, ज़रूर!" बोलै मैं,
वो तो चली गयी वहां से, और बालचंद्र चला आया!
"कुछ न मिला!" बोला वो,
"ऐसे मिल रहा है?'' पूछा मैंने,
"देखते हैं!" बोला वो,
"लालच कभी पूरा नहीं पड़ता!" कहा मैंने,
"सो तो है ही!" बोला वो,
"इन्हें करने दो जो करते हैं!" बोला मैं,
"हम हैं ही कौन रोकने वाले!" बोला वो,
"हां, सही कहा!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोलै वो,
"ये लोग तो लौट आये!" कहा मैंने,
"खाली हाथ!" बोला वो,
"जगह ही गलत चुनी है!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोला वो,
"इन्हें स्वर्ण चाहिए, जो अक्सर बहता हुआ आता है, अब शायद कहीं फंस के रह गया हो, वो वाला, शुद्ध रूप से तो स्वर्ण मिले नहीं!" कहा मैंने,
"कोई गड़ा हो?" बोला वो,
"ये हो सकता है!" कहा मैंने,
"उसी की खोज है!" बोला वो,
"फिर भी!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"इस गड्ढ में कहां से होगा?" पूछा मैंने,
"वो सरोज? देखी?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"उसने ही बताया था!" बोला वो,
"पिछली बार?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"तो वो कुछ जानती है क्या?" पूछा मैंने,
"रसायनशास्त्री है!" बोला वो,
"तो यहां कौन से रसायन ढूंढ रही है?" पूछा मैंने,
"स्वर्ण-रसायन!" बोला वो, और हंस पड़ा!
"मिल गया!" कहा मैंने,
"पिछली बार कुछ परीक्षण किये थे!" बोला वो,
"और किया होगा तय!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"मुझे तो इस सरोज में ही कुछ रासायनिक-लोचा लगता है!" कहा मैंने,
"लोचा?" बोला वो,
"उठा-पटक!" बोला मैं!
"क्या शब्द दिया है!" बोला वो,
"एक बात नहीं समझ आयी?" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"जब सबकुछ वैज्ञानिक परीक्षण से ही होना है तब बाबा नंदनाथ क्या कमेंटरी करने आये हैं?" पूछा मैंने,
"जब परीक्षण खत्म हो जाएंगे तब कुछ विद्या भिड़ाएंगे बाबा!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हां, आज कुछ नहीं हुआ!" बोला वो,
"कल भी नहीं होगा!" कहा मैंने,
"पक्का?'' बोला वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"वो देखो!" बोला वो,
"प्रिया?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"वो क्या है?'' पूछा मैंने,
"भूगर्भशास्त्री!" बोला वो,
"भाई वाह! कहां की ईंट, कहां का रोड़ा, आचार्य जी ने कुनबा जोड़ा!" कहा मैंने,
वो ज़ोर से हंस पड़ा! मैं भी!
"देखो ज़रा!" बोला वो,
"ये क्या कर रही है?" पूछा मैंने,
"मिट्टी लायी है, जांच के लिए!" बोला वो,
"अंगड़ाई तो ऐसे ले रही है जैसे आज सारा काम इन्हीं मोहतरमा ने किया हो!" बोला मैं,
"अब ये ही जानें!" कहा मैंने,
"लो जी, देखो!" कहा मैंने,
"सरोज को?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"हमसे अच्छे तो ये ही हैं वैसे!" बोला वो,
"देखो, शायद मदिरा है उस बोतल में!" कहा मैंने,
"और नहीं तो आड़ू का जूस है!" बोला वो,
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"यार कुछ लाये हो तुम भी?" पूछा मैंने,
"हां, ले आया!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"नहीं तो मच्छर काट काट के पगलैट कर देंगे!" बोला वो,
"मच्छरों के लिए?' बोला मैं,
"लाया हूं!" बोला वो,
वो तुलसी का ढेढा लाया था, ढेढा मायने, तुलसी के तीस पत्ते लो, सरसों के तेल में, एक चम्मच, पीस लो! और फिर सूखा दो! जब सूख जाएं तो पानी में भर लो! हिलाओ और धूप में रख दो! अब इसकी दो बून्द लगा लो खुली त्वचा पर! मच्छर नहीं फटकेंगे पास!
"बढ़िया किया!" कहा मैंने,
"पिछले अनुभव याद हैं!" बोला वो,


   
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"बालचंद्र?" बोला मैं,
"हां जी?" बोला वो,
"ये सरोज अकेली है न?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"प्रिया कहां गयी?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
''रुको, आया मैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
मैं चल पड़ा सरोज के पास जाने को! सरोज देखने में सुशिल महिला ही लगती थी, अपने काम से काम रखने वाली, और ऐसी की तन्मयता कूट के भरी हो उसमे! अपने कार्य के लिए पूर्ण रूप से समर्पित!
"नमस्कार सरोज जी!" कहा मैंने, पहुंच कर!
"नमस्कार!" बोली वो,
"आज का दिन व्यस्त ही रहा?" बोला मैं,
"हां, अक्सर ही रहता है!" बोली वो,
"ये प्रिया जी कहां गयीं?" पूछा मैंने,
"यहीं होंगी!" बोली वो,
"तो आज मिट्टी की जांच की?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कुछ मिला?" पूछा मैंने,
"वो नहीं जो मिलना चाहिए!" कहा उसने,
"शायद, मिले भी नहीं!" कहा मैंने,
"व्हाट?" बोली ज़ोर से! चौंक पड़ी थी अचानक से ही!
"हां!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"क्या आप भी किवदंती सुन कर ही आयी हैं?" पूछा मैंने,
"क्या किवदंती?" बोली वो,
"यही की आसपास के गांव वाले अक्सर बाढ़ के बाद या समय यहां से धन इकट्ठा करते हैं!" कहा मैंने,
"ये किवदंती नहीं!" बोली वो,
"तो आपने देखा वो धन?" पूछा मैंने,
"हां, तभी यहां हैं हम!" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"कि इस बार भी खाली हाथ ही लौटना है!" बोला मैं,
"आप, इन बाबा के साथ हैं?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?'' पूछा उसने,
"दिशि के साथ!" कहा मैंने,
"किसलिए?" बोली वो,
"जिसलिये आप हैं!" कहा मैंने,
"गोल्ड?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"वो भवन?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये किवदंती नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोला मैं,
"क्यों?" बोली वो,
"क्योंकि आचार्य जी ने तस्दीक़ किया!" कहा मैंने,
"कोई सलाह?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सो क्या?'' पूछा उसने,
"व्यवहार!" कहा मैंने,
"ये क्या हुआ?" बोली वो,
"इस भूमि का व्यवहार!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोली वो,
"सरोज जी, वैसे आप मृदा-विज्ञानी हो! परन्तु ये कैसे चूक गयीं कि जिस भूमि में धन गड़ा होगा, माना जाए, सिक्के,या सिल्लियां या ने कोई रूप, वो बिन रक्षण के कैसे रखा जाएगा?" पूछा मैंने,
अवाक! शब्द खो गए उसके!
"यू हैव अ पॉइंट! यस!" बोली वो,
"और यहां कुछ है नहीं ऐसा!" कहा मैंने,
''सही कहा!" बोली वो,
"इस ज़मीन का रंग देख कर बताऊं क्या मिला?" पूछा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
"ताम्बा! मिश्रित! जस्ता, कच्चा! लोहा, प्रचुर मात्रा में! कुछ अंश अभ्रक के, कुछ, चांदी के अंश ही! और कुछ नहीं! अर्थात, दस टन पत्थर कूटो तो सौ ग्राम चांदी मिले!" कहा मैंने,
"बिलकुल! बिलकुल!" बोली वो,
"तब उनको बोलिये, नदी किनारे चलें!" कहा मैंने,
'वहां होगा?" बोली वो,
"यहां से तो अच्छे ही अवसर होंगे!" कहा मैंने,
"सही कहा आपने!" बोली वो,
"धन्यवाद!" बोला मैं,
"आप विज्ञान के विद्यार्थी हो?" बोली वो,
"कभी नहीं!" कहा मैंने,
अब तो चुपचाप मेरे वस्त्र देखे वो! मैं उसको देख मंद मंद मुस्कुराऊं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सरोज जी! सच कहूं?" कहा मैंने,
"क्यों नहीं?" बोली वो,
अब तो सरोज भी दबने सी लगी थी, मेरी तरफ ही! ये अच्छी बात थी, कम से कम इंसान दिमाग चला ले यहां तो बेकार की फजीहत से तो बच जाएं!
"यहां कुछ नहीं मिलेगा!" कहा मैंने,
''चलो, मन लिया, बात कर लूंगी आचार्य जी से!" बोली वो,
"कुछ पर्सनल सवाल पूछ सकता हूं?" पूछा मैंने,
"ज़रूरत है क्या?" पूछा उसने,
"नहीं, ख़ास नहीं!" कहा मैंने,
"पूछो चलो!" बोली वो,
"आप शादीशुदा हैं?" पूछा मैंने,
"क्या लगता है?'' पूछा उसने,
"नहीं कह सकता!" बोला मैं,
"खैर, छोड़िये!" बोली वो,
छोड़ना क्या! उत्तर पता चल गया था मुझे! अब जो बातों में से इतना भी न समझे वो क्या समझे फिर! उनके अनुसार वे शादीशुदा तो हैं, परन्तु पति से कोई संबंध ठीक वैसा नहीं, जैसा अमूमन होता है! खैर, मुझे क्या करना!
"आप ये तो लेते होंगे?'' बोली वो,
"हां, क्यों नहीं!" कहा मैंने, वो शराब देखते हुए!
"एक मिनट!" बोली वो,
और आवाज़ दी एक महिला को, वो आयी, उस से कहा कुछ और महिला लौटी, सामान तक गयी, एक बड़ा सा बॉक्स निकाला, उसमे से फिर एक बॉक्स और फिर एक स्टील का बॉक्स! उसे खोला उसने, और एक जग में पानी ले लिया, साथ में से ही, कुछ पैकेट भी उठा लिए! कुछ भी हो, ये महिलायें अपने हर क्षेत्र में आगे ही थीं!
"ये यहां रख दो!" बोली सरोज उस महिला से,
जग पकड़ा उसने, छू कर देखा,
"ठीक है!" बोली वो,
और फिर पैकेट ले लिए, ये पीनट्स थे! पैकेट मुझे दिया, मैंने खोला और निकाल लिए, मारे गर्मी के लू बैठ गयी थी उनमे तो!
"ये लो!" बोली वो,
"आप!" कहा मैंने,
"अरे आप!" बोली वो,
"आप ही बनाओ!" कहा मैंने,
उसने पैग बनाये तो मैंने लिया, ये महंगी शराब थी, अफ़सोस, स्कॉच थी, मुझे पसंद नहीं, मुंह बिचका बिचका के मैं तो पागल सा ही हो लिया, ऐसी कड़वी कि पूछो मत और वो, ऐसे पी रही थी जैसे शहद का शर्बत! हां, पाने ठंडा था अभी!
"तो यहां से चलें!" बोली वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"नदी किनारे?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कुछ मिलेगा?" बोली वो,
"आका नसीब!" बोला मैं,
"आपका नहीं?" बोली वो,
"मुझे नहीं चाहिए!" कहा मैंने,
"अरे? क्यों?" बोली वो,
"इतनी औकात कहां जी!" कहा मैंने,
"क्या मतलब?" बोली वो,
"खुद का जीवन संवर जाए, एक करवट लगे, इसी से फुरसत मिले तो कुछ सोना देखूं!" कहा मैंने,
"ये तो टॉन्ट हो गया? है न?" बोली वो,
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"वैसे सोना देखा कभी?" बोली वो,
"सरोज जी!" कहा मैंने,
"हां जी!" बोली वो,
"इतना देखा कि जीवन भर न ख़तम हो!" कहा मैंने,
"कहां?" बोली वो, चौंक गयी थी!
"बहुत जगह!" कहा मैंने,
"असली?" बोली वो,
"सौ फी सदी!" कहा मैंने,
"तो बताओ कहां?" बोली वो,
"वहां पहुंच आसान नहीं!" कहा मैंने,
"प्रेत-चुड़ैल?" बोली वो,
"ये तो कुछ भी नहीं!" बोला मैं,
"तो बाबा हैं न?" बोली वो,
"बाबा की न बचे लंगोट भी!" कहा मैंने,
हंस पड़ी वो! मैं भी हंसा साथ साथ!
"यहां का बताओ!" बोली वो,
"यहां तो आचार्य जी बता रहे हैं!" कहा मैंने,
"अब सुनो!" बोली वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"कल शाम तक यहां से मिलेगा सब!" बोली वो,
"ये आप नहीं बोल रहीं सरोज जी!" कहा मैंने,
"मैं ही!" बोली वो,
"ये चमक-खनक बोल रही है!" कहा मैंने,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने मुस्कुराते हुए, वो पैग उठाया, और चल पड़ा वापिस, बीच में ही वो पैग फेंक दिया! मुंह को रुमाल से पोंछा और वापिस बालचंद्र के पास चला आया! बालचंद्र, लेट गया था, एक छांवदार पेड़ था उधर, वहीं, अब गर्मी में कुछ कमी सी आने लगी थी!
"आओ!" बोला वो,
"उठो यार!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
''सामान निकाल लो!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
और निकाल लिया सामान का झोला, साथ में कुछ फल भी ले आया था वो, ये तो बढ़िया किया था उसने!
"बोतल भर लाओ, पानी की वहां से!" बोला मैं,
"लाता हूं!" बोला वो,
और भर लाया वो दो लीटर पानी!
"ठंडा है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"आओ यार!" बोला मैं,
"बताओ कहां?" बोला वो,
"नदी की तरफ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
चलने लगे हम दोनों उधर के लिए!
"क्या बोली मैडम?" बोला वो,
"बड़ा विश्वास भरा है!" कहा मैंने,
"निकालेंगे सामान!" बोला वो,
"देखो!" कहा मैंने,
"कुछ तो होगा ही?" बोला वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
हम निकले थे तो सामने से दिशि आती दिखाई दी, बातें नहीं हुईं, वो अपनी राह और हम अपनी राह!
"आचार्य जी और खजाना!" कहा मैंने,
"मिल जाए तो!" बोला वो,
''क्या लगता है?" पूछा मैंने,
"कह नहीं सकता!" बोला वो,
"चल कल देखेंगे!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
कुछ पल धीरे से चले!
"आ गयी!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"धो लो फलादि!" कहा मैंने,
"आप तब तक सामान निकालो!" बोला वो,
वो चला और मैंने सामान निकाल लिया, वो आया तो तौलिया बिछा लिया, अब सूरज छिप चुके थे, धुंधलका बस पौने घंटे में हो जाता!
तो हम शुरू हुए, अमरुद और अन्नानास काट लिया गया, और आराम से खाते पीते रहे हम!
"अरे?" बोला मैं,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"वो क्या है?" बोला वो एक तरफ नदी में इशारा करते हुए!
"नाव?" बोला मैं,
"देखो?" बोला वो,
"हां, नाव ही है!" कहा मैंने,
"बरसात में छोड़ी गयी होगी!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"कल देखते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"ये बाबा नंदनाथ?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"क्या पकड़ है?'' पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"हैं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"आदेश हुआ, संग आया!" बोला वो,
"बालू भाई!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"तुम भी काट लिए गए!" कहा मैंने,
"क्या करूं!" बोला वो,
"खजाना मालूम था?" पूछा मैंने,
"अंदाजा तो था!" बोला वो,
"कल अगर कुछ न हुआ तो वापिस लौटें?" बोला मैं,
"जो इच्छा!" बोला वो,
"बोल दोगे बाबा से?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"वहां कोई दिक्क्त?" पूछा मैंने,
"जब उद्देश्य ही नहीं तब क्या?'' बोला वो,
"ये भी ठीक!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मुझे तो लगा था वो पांडुलिपि विशेष होगी! इतने प्रबुद्ध लोग आये हैं, अवश्य ही कुछ न कुछ हल निकलेगा, लेकिन हल तो क्या, इनका तो काहल ही निकलता लगता है! धन किसी का हुआ क्या? इन बेवकूफों से पूछो, जिसने यहां दबाया होगा, वो ही संग ले गए क्या? जाने क्यों दबाया, क्या वजह थी, इस जंगल बीहड़ में भला कोई धन का करेगा क्या?" कहा मैंने,
"लेकिन इनकी तो आशाएं शिखर पर हैं!" बोला वो,
"जितना ऊपर हैं उतना ही नीचे जा सकते हैं!" कहा मैंने,
"अब ये कौन समझाये!" बोला वो,
"वो देखो!" कहा मैंने,
"सरोज? प्रिया?" बोला वो,
"हां, शायद टहलने आयी हैं!" कहा मैंने,
"खड़े हो जाओ!" कहा उसने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"अरे कहीं....समझा करो!" बोला वो,
"अरे हां!" कहा मैंने,
और हम दोनों ही खड़े हो गए, उन दोनों की नज़रें तब हम पर पड़ गयीं, हाथ हिलाया प्रिया ने और हमने भी, फिर हम बैठ गए!
"आ रही हैं!" बोला वो,
"आने दो!" कहा मैंने,
वे चली आयीं उधर!
"क्या बढ़िया जगह चुनी है!" बोली सरोज!
"आप वहां व्यस्त होंगे सभी, तो यहां चले आये!" कहा मैंने,
"बैठ जाएं? आपत्ति तो नहीं?" बोली वो,
"नहीं, कैसी आपत्ति! हम कोई स्वर्ण थोड़े ही बांट रहे हैं!" कहा मैंने,
वे ये सुन हंस पड़ीं दोनों ही!
"आप हो कहां से?" पूछा उसने,
"आपको बताया तो था?" कहा मैंने,
"अरे हां! लो!" बोली वो,
"यहां कोई आता जाता नहीं?" बोली प्रिया,
"नहीं एकांत जो है!" बोली सरोज!
"लग रहा है!" बोली वो,
"कोई आ कर करेगा क्या!" बोली सरोज!
"आते हैं!" कहा मैंने,
"कौन?" बोलीं दोनों ही,
"वहां एक नाव है, अब अंधेरा सा है, कल देखना!" कहा मैंने,
"बह आयी हो?'' बोली प्रिया,
"पहाड़ों से?'' पूछा मैंने,
"अरे हां जी!" बोली सरोज!
"कल देखना!" कहा मैंने,
"प्रिया? बोली सरोज,
"हां?" बोली वो,
"ये कहते हैं यहां कुछ नहीं!" बोली वो,
"कैसे नहीं?" पूछा उसने,
अब उसने कुछ तर्क बताये!
"बात तो सही लगती है!" बोली वो,
"और सही है भी!" कहा मैंने,
"सोचो, कौन दबाएगा?" बोला बालचंद्र,
"वे पुराने लोग!" बोली प्रिया!
"किसलिए?'' पूछा उसने,
"सुरक्षित करने के लिए!" बोली वो,
"मान लिया!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"तब सुरक्षा ऐसी होगी?" कहा मैंने,
"कैसी?'' बोली वो,
"कि आराम से जांच में आ जाए?" कहा मैंने,
"उस वक़्त के हिसाब से किया होगा न?'' बोली वो,
"खैर प्रिया जी, समझाने से कोई लाभ ही नहीं!" कहा मैंने,
"आप कल देखना!" बोली प्रिया!
"चलो जी, कल भी देखते हैं!" कहा मैंने,
"आप लोग भव के लिए आये हैं?" पूछा उसने,
"जी हां!" कहा मैंने,
"वो मिल जाएगा?" बोली वो,
"कम से कम कुछ पता तो चलेगा!" कहा मैंने,
"ये ही हम कहें तो?'' बोली वो,
"हम उधार पर नहीं आये!" कहा मैंने,
"ये अलग बात है!" बोली प्रिया!
"मिल गया तो समझो कुछ करने की ज़रूरत नहीं फिर!" बोली सरोज!
"ठीक!" कहा मैंने,
"मिले तो सही?" बोला बालचंद्र,
"क्यों नहीं मिलेगा!" बोली सरोज!
"अच्छा है जी! आपकी लैब में हम भी घूमने आ जाया करेंगे!" बोला बालचंद्र!
मैं हंस गया उसकी इस बात पर!
"सरोज जी तो यहां बना लेंगी लैब!" कहा मैंने,
अब वे सब हंसने लगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खैर साहब! जितना समझना बस में था, समझा लिया! न उन्होंने माननी ही थी और न ही उन्होंने मानी! मेरे विचार उन्हें इस विषय पर, पहले भी बेमायनी लगे थे, और अब ज़्यादा ही लगने लगे थे! चलो जी! उनकी मर्ज़ी! अब जितनी चाबी आचार्य जी ने भरी थी, उसे तो खुलना ही था! और फिर स्वर्ण का लालच, इतिहास भरा पड़ा है ऐसे लालच के बारे में! लेकिन सब अपनी मशाल उठाये हुए, इतिहास को ही झुठलाने चल पड़ते हैं! ये भी उन्हीं में से थे, ये सब लोग! और तो और, वो बाबा नंदनाथ, उन्हें तो बस अपना आश्रम ही नज़र आता था कि कब कनखल में उनका आश्रम बने, और वो किसी विशेष महंत की तरह से ही जावन-यापन कर दें! पूजन ठहरा सो अलग और भगवान पर एहसान किया, सो सबसे अलग!
तो उस रात हमने आराम से नींद ली! मच्छर हालांकि बहुत थे, कीड़े आदि सब खबर लेने चले आते थे! उड़ा उड़ा आखिर हम ही पस्त हो गए! वो मोटी बुद्धि के कीट, नहीं माने हार! ओढ़ी चादर, देह लपेटी और जय सिया राम!
सुबह तड़के ही आँख खुल गयी, तो स्नान आदि से भी फारिग हो आये! रात में ालक्त तो बहुत हुई थी लेकिन फिर अभियान का आनंद ही कहां!
आज तो कुछ विशेष ही तैयारियां थीं, लगता था कि जैसे वन में ही प्रयोगशाला बना दी गयी हो! या तो आज स्वर्ण नहीं या फिर आज देह में प्राण नहीं! ऐसी हालत थी उन सभी की! चाय आयी, पाउडर वाली, मन मार के, पी ही ली! ऐसा बकबका स्वाद था कि जैसे कीचड़ में ही चीनी मिला दी हो!
"आओ बालचंद्र!" कहा मैंने,
"बाबा से बोल आऊं!" बोला वो,
"बोल दो!" कहा मैंने,
वो गया, बाबा को बता दिया, अब बाबा कहां सुन रहे थे उसकी! वो तो ज़मीन से निकलने वाले धन की बाट जोह रहे थे! खैर, वो चला आया!
''आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
"बता दिया?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या बोले?" पूछा मैंने,
"जाओ!" कहा उसने,
"तो आओ!" कहा मैंने,
"तो चलो!" बोला वो,
और हंस पड़े हम दोनों ही! बालचंद्र से मेरी सही घुटने लगी थी, वो वहां न होता तो सच में नदी के जल को ही देखता रहता मैं तो उठे, बढ़ते और घटते हुए! भूपाल जी से और सुननी पड़ती सो अलग!
"बालू?" बोला मैं,
"जी?" बोला वो,
''एक बात तो बताओ?" पूछा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"जो इंसान, कीमियागर हो, वो धन या स्वर्ण बनाये तो बिगाड़ भी सकता है?" कहा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"इन वैज्ञानिकों से पूछो कि अगर बिगाड़ दिया होगा तो ये उस पर चल भी रहे हों तब भी न जांच पाएं!" कहा मैंने,
''सो तो है ही!" बोला वो,
"अब कौन समझाये!" बोला मैं,
''समझ जाएंगे!" बोला वो,
"तब तक कहीं हमें न जाना पड़ जाए?" कहा मैंने,
"नहीं नहीं!" बोला वो,
"देखो यार!" कहा मैंने,
"अरे सुनो?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
''वो नाव देखें?" बोला वो,
''वाह!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
तो हम अब वो नाव देखने चल पड़े! तेज तेज चले! कोई नहीं था वहां और नाव भी किनारे ही लगी थी! आ गए हम वहां पर!
"ये तो टूटी-फूटी है!" बोला वो,
"छोड़ दी होगी!" कहा मैंने,
"बेकार है!" बोला वो,
"हमें कौन सा घर ले जानी है!" कहा मैंने,
"सही!" बोला वो,
"नाव पुरानी है बहुत!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"शायद मछली आदि मारने के लिए हो!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तला तो ठीक है?" कहा मैंने,
"धंसा है!" बोला वो,
"अरे हां!" कहा मैंने,
"आओ यार! बेकार है!" कहा मैंने,
"कील निकाल लूं?" बोला वो,
"निकाल लो!" कहा मैंने,
उसने आराम से दो बड़ी बड़ी कीलें निकाल लीं, जंग खा गया था उन्हें, दुबारा पीट कर ही कुछ बनता उनका! ये पुरानी नाव की कील, ठीक काले घोड़े की नाल की तरह से ही काम किया करती है! कई लाभ भी हैं इसके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो उसे दो कीलें निकाल लीं और रख लीं! बहुत ही कम ऐसा होता है कि किसी जर्जर नाव की कीलें मिलें! इसके बाद हम, फिर थोड़ी देर वहीं रहे, आसपास का जायज़ लिया और फिर से वापिस हो गए! उस स्थल पर, कोई नहीं था, सभी अपने अपने स्तर पर खोज में जुटे थे! आज तो बाबा भी चले गए थे! सामान वहीं रखा था, और एक महिला सहायिका ऊंघ रही थी! हेम आते देख अपने वस्त्र ठीक किये उसने और फिर से लेट गयी!
मित्रगण!
फिर बजे कोई तीन, इस बीच दो बार वे लोग आये, परन्तु चिंताएं चेहरों से छिप न सकीं! स्पष्ट था, कुछ भी हाथ नहीं लगा था उनके, दोपहर बाद के भोजन के लिए वे सब आये, हमने भी भोजन किया, चावल बनाये गए थे, चावल ही खाये हमने भी! इस बीच मैंने दिशि को देखा, एक किताब से लड़ते हुए! जा पहुंचा उसके पास!
"नमस्कार!" कहा मैंने,
"नमस्ते!" बोली वो, बिन देखे ही,
"तो मिला कुछ?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अब?" पूछा मैंने,
"जगह बदल रहे हैं!" बोली वो,
"अब कहां?" पूछा मैंने,
"भवन!" बोली वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
"स्वर्ण?" पूछा मैंने,
"यहां नहीं है!" बोली वो,
"वे मृदा-वैज्ञानिक?" पूछा मैंने,
"स्पष्ट कर दिया!" बोली वो,
"आचार्य जी?" बोला मैं,
"हताश हैं" बोली वो,
"बाबा जी?" पूछा मैंने,
"तैयारी कर रहे हैं!" बोली वो,
"ये?" पूछा मैंने,
"कॉपी!" बोली वो,
"लिपि की?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"मुझे दिखा सकती हैं?' पूछा मैंने,
"लो!" बोली वो,
"आप?" पूछा मैंने,
"पढ़ ली!" बोली वो,
"आचार्य जी कहां हैं?" पूछा मैंने,
"मीटिंग है!" बोली वो,
"बाकी सभी से?' पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"आप नहीं गए?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मन उदास है!" बोली वो,
"स्वर्ण?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तो भवन ओर कितने बजे?" पूछा मैंने,
"एक घंटे में!" बोली वो,
"यहां सब ख़तम?" पूछा मैंने,
"हां!" बताया उसने,
"पहले ही कहा था!" कहा मैंने,
"मान लिया!" बोली वो,
"दो दिन लगा दिए!" कहा मैंने,
"प्रयास आवश्यक था!" बोली वो,
"ये भी ठीक!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और वो कॉपी ले आया साथ अपने! अब पढ़ने लगा उसे!
"ये क्या है?'' बोला बालचंद्र,
"कॉपी!" कहा मैंने,
"लिपि?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सोना भूल गए?'' बोला वो,
"ऐसे मिल रहा है!" कहा मैंने,
"ये अब भी खोजेंगे!" बोला वो,
''मर्ज़ी इनकी!" कहा मैंने,
"बेडा ग़र्क़!" बोला वो,
"सो तो होगा ही!" कहा मैंने,
"अब चलना है?" बोला वो,
"एक घंटे बाद!" कहा मैंने,
"तभी बांध रहे हैं सामान!" बोला वो,
"जगह बदल ली!" बोला मैं,
"वही!" बोला वो,
"अब भवन देखें!" कहा मैंने,
"इन्हें क्या?" बोला वो,
"कुछ मिल जाए?'' बोला मैं,
"अब क्या बताएं!" बोला वो,
"देखते रहो!" कहा मैंने,
"और करें भी क्या!" बोला वो,
"सही बात है!" कहा मैंने,
"सरोज आ रही है!" बोला वो,
"आने दो!" कहा मैंने,
"वही रोना-झींकना!" बोला वो,
"आ जाए पहले!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तभी सरोज चली आयी! काले रंग की जींस में और नीले रंग की टीशर्ट में, देखने में कोई वैज्ञानिक नहीं, कोई ब्यूटी-सलून की मालकन सी लग रही थी, पांवों में उसने, शूज पहले थे, नाइके के! इस से उसके विचार आदि परिलक्षित होते थे!
"आओ!" कहा मैंने,
"नमस्ते!" बोली वो,
"नमस्ते!" कहा मैंने आउट जगह छोड़ दी उसके बैठने के लिए! वो बैठ गयी उधर ही!
"क्या रहा?'' पूछा मैंने,
"पता चला कुछ!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कि यहां सामान तो था, लेकिन?" बोली वो,
"लेकिन क्या?'' पूछा मैंने,
"निकाल लिया!" बोली वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"देहातियों ने!" बोली वो,
"कैसे पता चला?" पूछा मैंने,
"खुदा पड़ा है!" बोली वो,
"तब मेहनत बेकार?" पूछा मैंने,
"क्या कहें?" बोली वो,
"अब?" पूछा मैंने,
"अब?" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"चल रहे हैं!" बोली वो,
"वापिस?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"फिर??" पूछा मैंने,
"पहली जगह पर!" बोली वो,
"जहां से पहले कुछ मिला था?" पूछा मैंने,
"हां, वहीं!" बोली वो,
"उम्मीद है?" कहा मैंने,
"दुनिया क़ायम है!" बोली वो,
"तो आप भी!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"चलो अच्छी बात है!" कहा मैंने,
"उम्मीद है कुछ मिले!" बोली वो,
"चलो जी!" कहा मैंने,
''अपना बताओ?" बोली वो,
"आज से शुरू होगा!" कहा मैंने,
"काम क्या है?'' बोली वो,
"रहस्य है!" कहा मैंने,
"सुलझेगा?' बोली वो,
"उम्मीद है!" कहा मैंने,
"बाबा भी कह रहे हैं!" बोली वो,
"कहेंगे ही!" बोला मैं,
"ज़्यादा दूर नहीं है!" बोली वो,
''हां!" कहा मैंने,
"आप ही सफल हो जाओ!" बोली वो,
"लगे हैं!" कहा मैंने,
"सही है!" बोली वो,
"हां जी!" कहा मैंने,
"आज कुछ न हुआ तो मैं लौटूंगी!" बोली वो,
"प्रिया जी भी?" पूछा मैंने,
"सभी!" बोली वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
''हां! सब बेकार है!" बोली वो,
"बेकार तो नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे भला?" बोली वो,
''सबकुछ स्वर्ण ही नहीं!" कहा मैंने,
"ये बात जानती हूँ!" बोली वो,
"आज देख लेना!" कहा मैंने,
"ज़रूर!" बोली वो,
तभी आचार्य जी भी चले आये उधर!
"निकल रहे हैं!" बोले वो,
"अभी?" पूछा मैंने,
"बस अभी!" बोले वो,
"हताश हैं?" पूछा मैंने,
"पता नहीं होगा क्या?'' बोले वो,
"आप प्रबुद्ध हैं!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
''बस दिशा में चूक हुई!" कहा मैंने,
"चूक?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या चूक?" बोले वो,
"जगह गलत है!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"जो मिले इस पार नहीं!" कहा मैंने,
''फिर?'' बोले वो,
"उधर ही!" कहा मैंने,
"सबकुछ उलझा है!" बोले वो,
"उलझा दिया है!" कहा मैंने,
"हमनें?" बोले वो,
"बाबा ने!" कहा मैंने,
"लगता है!" बोले वो,
"यही है!" कहा मैंने,
"अब कुछ मिलेगा?'' बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आचार्य जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"एक बात पूछूं?" बोला मैं,
"अवश्य!" बोला वो,
अब तक, आचार्य जी को मुझ से बतलाते देख दिशि भी चली आयी थी, अब उसके चेहरे पर दुविधा थी! एक भारी सी दुविधा, एक तरफ वो पुत्री थी, उस पिता की जो क़र्ज़ में था, और दूसरी तरह एक खोजी, जो अपना सबकुछ त्याग, इसी अभियान में लगी थी!
"आपने पहले क्या सोचा था?" पूछा मैंने,
"कब?" बोले वो,
"जब वो पांडुलिपि आपके हाथ लगी थी?" पूछा मैंने,
"उसमे ये बताया गया है कि यहां एक ऐसा सम्प्रदाय वास किया करता था जिसको स्वर्ण बनाने की कला आती थी! उन्होंने बहुत सा स्वर्ण बनाया था!" बोले वो,
"और अक्षुण्ण?" पूछा मैंने,
"ये भी उसी में ही है!" बोले वो,
"क्या लिखा है?'' पूछा मैंने,
"यही कि उन स्वर्ण बनाने वाले हड़ुक लोगों को वो स्थान ज्ञात था और उन्होंने उस भवन-स्थल को बाद में भर दिया था, स्वर्ण से!" बोले वो,
"स्वर्ण!" कहा मैंने,
"हां, स्वर्ण!" बोले वो,
"तब भवन नहीं भरा होगा!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोले वो,
"वे जानते होंगे कि कभी न कभी कोई आचार्य जी, सरोज, प्रिया जी, दिशि आदि जैसे लोग भी आएंगे यहां! तब उन्होंने उस स्थान को ही दृश्य-कील कर दिया होगा!" कहा मैंने,
"ये तो नहीं लिखा?'' बोले वो,
"कहीं आम का वृक्ष लिखा हो तो क्या फल आते देख ही जानोगे आप उसे?" पूछा मैंने,
"ये तो है!" बोले वो,
"अब एक बात कहूं?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"स्वर्ण का अभियान त्याग दीजिये!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोले वो,
"कोई भग्नावशेष ही मिल जाए तो क्या कम है?'' पूछा मैंने,
"उस से क़र्ज़ नहीं पूरा होगा!" बोले वो,
"समझता हूं!" कहा मैंने,
"हम फंस गए हैं!" बोले वो,
"आगे ईश्वर की मर्ज़ी, प्रयास करते हैं!" कहा मैंने,
"ऐसा नहीं सोचिये कि आपको कुछ नहीं मिलेगा?" बोले वो,
"मेरा हिस्सा दिशि को दे देना!" कहा मैंने,
वे हंस पड़े! दिशि भी!
"और क्या! दिशि को और किसी अभियान में आवश्यकता पड़ सकती है धन की, तब कर्ज़ा थोड़े ही करेगी!" कहा मैंने,
"ताना मार रहे हो!" बोली वो,
"नहीं दिशि!" कहा मैंने,
"अब चल रहे हैं!" बोले वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
तो मित्रगण! सब तैयार हो गया थे, तम्बू-खाका सब उखाड़ लिया गया, वो जगह ज़्यादा दूर नहीं थी, आराम से चलते तो एक घंटे में पहुंच जाते!
'"सही जवाब दिया!" बोला बालचंद्र,
"स्वर्ण मिल ही जाए!" कहा मैंने,
"वहीं मिल सकता है!" बोला वो,
"कुछ अटक के रह गया हो बाढ़ में, तो मिल ही जाए!" कहा मैंने,
"देखो!" बोला वो,
"इनके पास पहले भी तो है?" कहा मैंने,
"वो तो सब लग जाएगा!" बोला वो,
"बताओ!" कहा मैंने,
"अब जिसको स्वर्ण ही दिखे उसे क्या तो धरोहर दिखे और क्या उसका महत्व!" बोला वो,
"सही कहा!" कहा मैंने,
तो हम करीब डेढ़ घंटे में वहां पहुंचे! सारा सामना लगा दिया गया था, परली पार ही गाड़ियां आ जानी थी! बस, सम्भव था आज रात अंतिम ही हो यहां, जो निकल कर आता, वो आज पता चला जाता!
"अब क्या करना है?'' बोली दिशि,
"बाबा क्या कहते हैं?" पूछा मैंने,
"पूजन करेंगे!" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"आज रात!" बोली वो,
"तो तभी कुछ हो!" कहा मैंने,
"आज रात लगेगी?" बोली वो,
"लग सकती है!" कहा मैंने,
"खा-पी लो, बन गया है!" बोली वो,
"आते हैं!" बोला मैं,
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"हो जाओ तैयार!" कहा मैंने,
"बताइये?" बोला वो,
"आज हमारा काम शुरू!" कहा मैंने,
"बहुत अच्छा!" बोला वो,
"आओ, कुछ खा लें!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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Topic starter  

रात हुई और उधर पूजन शुरू होने वाला था, वे सभी तो अब आंखें फाड़ फाड़ सब देख रहे थे, बाबा अपने साथ लाये सारा सामान, इधर उधर बिखरा के बैठे थे, बालचंद्र उनकी मदद कर रहा था! उन्होंने ज़मीन में एक छोटा सा गड्ढा कर, एक अलख का रूप दिया था, आसन के रूप में, एक काला कपड़ा बिछाया था और तब मेरी हैरत का कोई अंत ही नहीं रहा जब उन्होंने चार छोटे बांस के टुकड़े अपने चारों तरफ गड़वा लिए! मैं तभी दौड़ कर वहां पहुंचा!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"ये क्या?" पूछा मैंने,
"क्या दिख रहा है?'' बोले वो,
''सब गड़बड़ हो जाएगा!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोले वो, अपना काम करते हुए!
"आप कनकभद्रा का डोरा खींच रहे हैं!" कहा मैंने,
काम रोका, और मुझे गौर से देखा!
"हां? तो?" बोले वो,
"सब गड़बड़ हो जाएगा!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"क्या खींच रहे हो?" पूछा मैंने,
"स्वर्ण!" बोले वो,
"और भवन?" पूछा मैंने,
"स्वतः ही आएगा!" बोले वो,
"नहीं आएगा!" कहा मैंने,
काम छोड़ा तभी! बालचंद्र को बुलाया और कुछ कहा, और उठे!
"आचार्य जी? इन्हें ले जाओ यहां से?" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो, इशारा करते हुए,
उधर आचार्य जी भी आ गये!
"क्या हुआ?' बोले वो,
"मैं कोई विघ्न नहीं चाहता!" बोले बाबा,
"कौन डाल रहा है?" बोले वो,
"ये!" बोले मुझे देखते हुए!
"आ जाओ आप!" बोले वो,
अब मुझे इतना गुस्सा कि बस चले तो अभी छोड़ जाऊं! खैर, कड़वा घूंट भर, मैं लौटा वहां से, बालचंद्र को साथ लिए!
"क्या मंशा है इनकी?" बोला वो,
"सत्यानाश!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"ये डोरा खींच देगा सब!" कहा मैंने,
''सब?" बोला वो,
"हां, सब!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोला वो,
"जो भी नीचे होगा!" कहा मैंने,
"भवन भी?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"इन्हें सिर्फ धन से ही लेना है!" कहा मैंने,
"अब?" बोला वो,
"भाड़ में जाएं ये सब!" कहा मैंने,
"कुछ गड़बड़ है क्या?" दिशि चल कर आयी और पूछा,
"दिशि?" कहा मैंने,
''हां?" बोली वो,
"सुनो, यहां से चलो!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"धंस जाएगा सब!" कहा मैंने,
"धंस?" बोली वो,
"नीचे जल है!" कहा मैंने,
"तो बाबा रोकेंगे न?" बोली वो,
"नहीं मानोगी?" पूछा मैंने,
"कैसे मानूं?" बोली वो,
"तो भुगतो!" कहा मैंने,
"जान का खतरा है क्या?" बोली वो,
"तभी तो कहा?" कहा मैंने,
"क्या करूं?" बोली वो,
"पिता जी को समझाओ, सभी को लाओ!" कहा मैंने,
"सच क्या?" बोली वो,
"हां, सच!'' कहा मैंने,
और तब गूंजी मंत्र-ध्वनि!
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"भागो!" कहा मैंने,
और हम भाग लिए वहां से! अब नहीं देखा पीछे हमने! जहां रुके, वहां अंधेरा था थोड़ा बहुत और तब सांस ली हमने!


   
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