वर्ष २००९, एक साधना...
 
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वर्ष २००९, एक साधना, अक्षुण्ण भार्या वेणुला!

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श्रीशः उपदंडक
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"क्या कहते हो!" कहा मैंने,
मैंने मज़ाक़ में ही लिया था ये सब!
"नहीं यक़ीन?" बोला वो,
"मतलब ही नहीं!" कहा मैंने,
"आपने कहा कि सामग्री!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सबसे अहम क्या है उसमे?" पूछा उसने,
"एक पौधा, जो अमावस को खिलता है, जिसका रंग सफेद लेकिन कलियां लिंग समान होती हैं, इसको शतलिंगी कहा जाता है! और भी कई हैं!" कहा मैंने,
"पारद?" बोला वो,
"हां, पारद भी!" कहा मैंने,
"क्या शतलिंगी पौधा देखा है कभी?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ये देखो!" बोला वो,
उसने अब हाथों के इशारे से समझाना शुरू किया!
"इतना ऊंचा!" बोला वो,
"डेढ़ फ़ीट?" कहा मैंने,
"हां, पत्तियां छोटी छोटी!" बोला वो,
"कैसी?" पूछा मैंने,
"भुइँ-आवंले की तरह!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और उसके तने से फूटता वो फूल!" बोला वो,
"मैंने पढ़ा है, की ये शायद केले के वृक्ष है, जिसे शतलिंगी कहा जाता रहा है!" कहा मैंने,
"क्या केले का स्वाद तिक्त होता है?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"इस पौधे का होता है!" बोला वो,
"गंध कैसी?" पूछा मैंने,
"जैसे तिल का तेल!" बोला वो,
"और क्या उसके फूल से भी तेल निकलता है?" मैंने पूछा,
"हां!" बोला वो,
"और फूल कैसा?" पूछा मैंने,
तभी एक सहायक, दो प्लास्टिक कि थालियां ले आया, उसमे आलू की सब्जी, चावल और दो दो रोटियां थीं!  रखवा लीं, और खाने लगे, अब स्वाद कहां से आये! विषय ही ऐसा चला था!
"फूल करीब ढाई इंच का होता है, इसकी फलकें मोटी सी, लिंग समान होती हैं!" बोला वो,
"रंग?" पूछा मैंने,
"लाल!" बोला वो,
"और पौधा?" पूछा मैंने,
"सफेद सा!" बोला वो,
"यहां हैं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"और पारद?" पूछा मैंने,
"यहां है!" बोला वो,
"और कचिया?" पूछा मैंने,
"वो भी!" बोला वो,
मैं सन्न रह गया!
"कचिया जानते हो?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या होता है?" पूछा मैंने,
"लौह-आश्म!" बोला वो,
"वाह!" कहा मैंने,
"कहां मिलता है?" पूछा मैंने,
"नदी के तल पर!" बोला वो,
"किस रूप में?" पूछा मैंने,
"चूर्ण!" बोला वो,
"क्या मिला पत्थर बनाते हैं उसका?" पूछा मैंने,
"बेल-पत्थर और सालिज-नागफनी का रस!" बोला वो,
"कीमियागर हो क्या?" पूछा मैंने,
"अरे कहां!" बोला वो,
"ज्ञान तो पूरा है!" कहा मैंने,
"जुटाया है!" बोला वो,
"समझ गया, तो तुम्हारा मतलब...?" कहा मैंने,
"यहां अवश्य ही कीमियागर रहे होंगे!" बोला वो,
"कोई और सबूत?" पूछा मैंने,
"भट्टियां!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वो ज़मीन में गुफा नहीं, भट्टियां हैं!" बोला वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
"आप स्वयं देख लेना!" बोला वो,
"बिलकुल! बिलकुल!" कहा मैंने,
और पानी पिया तब मैंने गटकते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आचार्च जीवक ने उड़न-विद्या के लिए कुछ सामग्री बताई थी! ये कुल सोलह है, यदि इनको कूट कर, पांव के तलवों और गर्दन के पीछे रीढ़ पर मल दिया जाए तो भारी से भारी पाषाण भी, मात्र एक ही फूंक से उड़ जाए! अर्थात, ऐसा व्यक्ति, वायु-गमन करेगा!" बोला वो,
"हां, गुरुत्व-हीनता!" कहा मैंने,
"हां, वही!" बोला वो,
"लेकिन लेविटेशन से अलग है ये!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"आचार्य जीवक ने जो लिखा, वो कूट-भाषा सी लगती है, स्पष्ट रूप से नहीं समझ आता!" कहा मैंने,
"उसका कारण भी रहा होगा!" बोला वो,
"हां, कुव्यवस्था ही फ़ैल जाती!" कहा मैंने,
"हां और स्वयं भगवान बुद्ध ने मना कर दिया था उसे सभी को बताने को, वो आवश्यक जानकारी थी, संचय कर, रखे जाने हेतु इसीलिए उसे कूट-भाषा से लिख दिया गया!" कहा उसने,
"ठीक! उनमे से कुछ जान ली गयी हैं, कुछ अभी भी लुप्त सी हैं, तिब्बती लामाओं के बारे में कहा जाता है कि उनको ये ज्ञान है! मैंने स्वयं देखा था, कि किस प्रकार एक लामा ने अपने शरीर की छाया एक तेल अपने ऊपर लगा, अपनी ही परछाईं को लोप कर दिया था!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"हां, उस समय कुछ प्रबुद्ध लोग भी थे वहां!" बोला मैं,
"फिर? वो जीवित हैं?" बोला वो,
"होंगे, उनके अनुसार उनकी आयु करीब सौ की थी, परन्तु लगते नहीं थे, झुर्रियां नहीं पड़ी थीं! दृष्टि सामान्य थी, रोग कदापि नहीं हुआ था! उनके अनुसार ये सब बौद्ध-क्रियाएं हैं!" बोला मैं,
"वे सभी को नहीं बताते!" कहा उसने,
"हां, कहते हैं कि देह पर कोई चिन्ह होता है, जिसके हो, उसे ही सिखाया जाता है!" बोला मैं,
"चलो?" आयी आवाज़,
ये उस महिला की थी, हम उठ गए, बर्तन-भांडे उठा लिए गए थे, कपड़े साफ़ कर, हम फिर से आगे बढ़ चले!
"आचार्य जीवक की ज्ञात सामग्री क्या है?" पूछा उसने,
"कुछ ही जानता हूं!" बोला मैं,
"बताओ?" बोला वो,
"एक है, केशलोच के बीज!" कहा मैंने,
"ये क्या है?" बोला वो,
"जंगली बेल है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"दूसरा है, पलोनी चावल!" बोला मैं,
"और ये?" बोला वो,
"देखा नहीं कभी, लेकिन जंगली चावल है, भूरे से रंग का! गोल सा!" कहा मैंने,
"मैंने भी नहीं देखा, और?" बोला वो,
"ऋषिकंद का अर्क!" बोला मैं,
"ये कौन सा कंद है?" बोला वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"और?'' बोला वो,
"बछुआ मछली के अंडे!" कहा मैंने,
"वो ही बछुआ?" बोला वो,
"कौन सी?" पूछा मैंने,
"जिस पर तीन सिक्के होते हैं?" बोला वो,
"हां, वो ही!" कहा मैंने,
"तभी!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"उसके अंडे चमकते हैं!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"नर बछुआ खतरनाक होता है!" बोला वो,
"बहुत!" कहा मैंने,
"जल-सर्प खाता है?" बोला वो,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
"सुना है!" बोला वो,
"रक्षा करते समय काट लेता हो!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोला वो,
"और कोई?" बोला वो,
"शायद, काली-हल्दी!" कहा मैंने,
"हां! ये होगी!" बोला वो,
"क्यों?" बोला मैं,
"अरे लोग पागल हुए पड़े हैं इसके पीछे!" बोला वो,
"जानता हूं!" कहा मैंने,
"इसमें ये है, और वो है, पता नहीं क्या क्या!" बोला वो,
"कुछ तो है!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"कील गला देती है कुछ ही देर में!" बोला मैं,
"होती भी है?" बोला वो,
"हां, अदरक जैसी!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तो ये किस काम आती है?" पूछा उसने,
"कहते हैं कोई दवा बनती है कैंसर की इस से!" बोला मैं,
"हो सकता है!" बोला वो,
"ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं, लोग पागल हुए पड़े हैं! डबल-इंजन, बीसा कछुआ, सुनहरा चमगादड़, सुनहरा उल्लू, और तो और 'टमाटर' भी!" कहा मैंने,
"टमाटर?" बोला वो,
"हां! टमाटर!" बोला मैं,
"कोई ख़ास टमाटर है क्या?" बोला वो,
"हां! ख़ास ही!" कहा मैंने,
"क्या ख़ासियत जी?" बोला वो,
"सबसे पहले ये जानो!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"एक अठारह साल की अविवाहित लड़की!" कहा मैंने,
"लड़की?" चौंका वो!
"हां!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"उसके एक स्तन, बाएं पर एक काला टिल हो, दाएं पर हो तो लाल हो, दोनों ही काले हों तो कोई लाभ नहीं, दोनों ही लाल हों तो 'कजरी' बन जाए अगर चाहे हो!" बोला मैं,
वो हंसा पड़ा!
"मज़ाक़ नहीं है, सच है!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"जब लड़की जंच जाए तो, हां, कोई दांत न टूटा हो, न खराब हो, न ही टेढ़े-मेढ़े हों!" कहा मैंने,
"ओहो!!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोला वो,
"फिर उस पर, खबीस उतारा जाता है!" कहा मैंने,
"ख़बीस?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"वो तो आंत-गुर्दे बाहर निकाल दे?" बोला वो,
"सुनो तो सही!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"जब ख़बीस 'रत' में हो, तब शोर मचाया जाता है, एक ढाकरी बजा!" कहा मैंने,
"किसलिए?'' बोला वो,
"ख़बीस तंग न हो और जो मांगो सो दे!" बोला मैं,
"ओह! मिलता है?" बोला वो,
"पता नहीं, लेकिन दो लड़की ज़रूर मर लीं! एक रेवाड़ी में और एक जींद में! हड्डी और मांस एक कर दिए थे!" बोला मैं,
"बाप रे!" बोला वो,
"और जो मिल जाए तो धन मिलता है?" बोला वो,
"हां, उसके 'रत' से उतरने तक, लगातार बरसता रहता है!" कहा मैंने,
"सोना?" बोला वो,
"हां, सोना, चांदी!" कहा मैंने,
"कौन चाहेगा ऐसा भला?" बोला वो,
"मूर्ख लोग!" कहा मैंने,
"तो ये है टमाटर!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"भाड़ में जाए ऐसा टमाटर!" बोला वो,
"सो तो है ही!" कहा मैंने,
"कोई उतारा ख़बीस?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"बहुत अच्छा किया!" बोला वो,
"हां, ये सब अजैब है!" कहा मैंने,
"सो तो है!" बोला वो,
"अब और कितना?" पूछा मैंने,
"बस आ ही लिए!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अरे हां!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कजरी! वो क्या?" बोला वो,
"वो लड़की जो ज़मीन में, ज़मीन के अंदर, अभिमंत्रित काजल लगा झांक सके!" कहा मैंने,
"अभिमंत्रित से तो कोई भी देखे?" बोला वो,
"चोट खा जाए तो?" बोला मैं,
"हां! सही बात!" बोला वो,
फिर हम चलते रहे, चुप हो गए थे! थकावट अब होने लगी थी, साथ लाये पानी की बोतल का बड़ा सहारा था!
"किसी कीमियागार से मिले कभी?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कहां?" पूछा उसने,
"बंगाल में!" कहा मैंने,
"क्या करता था?" बोला वो,
"ज़रायमपेशी का काम!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोला वो,
"सोने को मिट्टी बनाता था!" कहा मैंने,
"मिट्टी?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"किसलिए?'' बोला वो,
"तस्करी के लिए!" कहा मैंने,
"फिर सोना कैसे बचता था?" बोला वो,
"वो एक रसायन डालता था मिट्टी में, गूंथ देता था, ढेले बन जाते थे सोने के!" बोला मैं!
"अरे वाह!" बोला वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"वो देखो?" बोला वो,
मैं रुक गया, सामने देखा, एक अजीब सी पहाड़ी थी वो, आधी लाल रंग की सी और आधी सफेद से रंग की!
"ये दो-रंगी क्यों?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोला वो,
मैं आगे चला, आसपास की पहाड़ियां देखीं, वो तो ठीक थीं, सभी लाल रंग की सी, कुछ पेड़ लगे थे और कुछ झाड़ियां भी!
अचानक ही!
"समझ गया!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"ये दुरंगी क्यों!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"ये पानी के बहने के निशान हैं!" कहा मैंने,
"कोई झरना?" बोला वो,
"नीचे कुछ नहीं अब, तो झरना सूख गया है!" कहा मैंने,
"नीचे?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या होना चाहिए था?" पूछा उसने,
"कोई ताल-तलैय्या या फिर कोई नदी, या उसके निशान!" कहा मैंने,
"बहुत तेज नज़र है!" बोला वो,
"या फिर!" कहा मैंने,
मैं फिर से रुक गया था!
"क्या?" बोला वो भी, रुकते हुए,
"ऊपर कोई बड़ा सा गड्ढा होगा!" कहा मैंने,
"जिस से पानी रास्ता बनाता हो, रिसता हो?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"रुको!" बोला वो,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"वो रास्ता!" बोला वो,
सामने एक जंगली सा रास्ता था, रास्ता क्या, बस उधर पेड़ नहीं थे, संकरा सा रास्ता दीखता था वो!
"देख लिया!" कहा मैंने,
"वहीं से जाना है!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"हां! वे भी वहीं चले हैं!" बोला वो,
"हां, उतर गए हैं!" कहा मैंने,
और हम भी चल दिए! ये जगह बड़ी ही अजीब सी थी! लगता था कि बरसों पहले, हरियाली और रेगिस्तान यहां मिले हों! ज़मीन सफेद सी और उन पर हरियाली ही हरियाली!
"कोई भी गांव यहां से कितना दूर होगा?" पूछा मैंने,
"पंद्रह किलोमीटर!" बोला वो,
"क्या नाम है?" पूछा मैंने,
"बंथी!" बोला वो,
"पहाड़ी गांव है ये?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"पुराना है?" पूछा मैंने,
"होगा!" बोला वो,
"वो कहीं किसी कस्बे से मिलता होगा?" कहा मैंने,
"मतलब कोई सड़क?" पूछा उसने,
"हां!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"कितनी दूर है क़स्बा?" पूछा मैंने,
"करीब पैंतीस किलोमीटर?" बोला वो,
"गांव से?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"और कस्बे से शहर?" पूछा मैंने,
"बंगाल में है!" बोला वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"बोली?" बोला मैं,
"मिश्रित!" बोला वो,
"लोग?'' पूछा मैंने,
"जनजाति!" बोला वो,
"इसका मतलब ये सारा ही क्षेत्र अनछुआ सा है!" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोला वो,
"लोग कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"ठीक ही हैं!" बोला वो,
"हिंसक?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आओ, इधर!" कहा उसने,
"वे कहां हैं?" पूछा मैंने,
"आगे गए हैं!" बोला वो,
"अच्छा! चलो!" कहा मैंने,
और हम आगे चल दिए, एक जगह कुछ छाया सी मिली तो वे लोग वहीं रुके हुए थे! हम भी वहीं चले आये!
"अब यहां से जंगल है!" बोली दिशि!
"दीख रहा है!" कहा मैंने,
"सावधान रहें, चौकस रहें. संग रहें!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने, और आगे चल दिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कोई शिकारी जीव है क्या यहां?" पूछा मैंने,
"वैसे तो नहीं मिलता, लेकिन गुलदार और रीछ से सामना न ही हो तो अच्छा ही है!" बोला वो,
"हां, ये तो है!" कहा मैंने,
"बाकी अन्य तो कोई नहीं, सियार हैं तो वो दूर ही रहते हैं!" बोला
"हां, ठीक!" कहा मैंने,
"सुनो? तुम?" बोली दिशि रुकते हुए, बालचंद्र से बोलते हुए,
"हां?" बोला वो,
"इन्हें साथ रखना!" बोली वो,
"हां!" कहा उसने,
"एक दूसरे को नज़र में रखना!" बोली फिर,
"जी!" कहा उसने,
पलटी वो, और चल पड़ी, वो महिला उसके संग चलने लगी, जो दो सहायक थे, वे आगे चल रहे थे!
"बाढ़ के समय यहां तो पानी होता होगा?" पूछा मैंने,
"हां, बहुत!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तब यहां नाके भी आ जाते हैं!" बोला वो,
"मगरमच्छ?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"वो भला कहां से?" पूछा मैंने,
"नदियों से, नदियां मिल जाती हैं सारी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"फिर वे लौट जाते हैं!" कहा उसने,
"हां!" बोला मैं,
"अब लोग तो पता नहीं क्या क्या कहते हैं!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कहते हैं, कि पनडुब्बा आता है, गोंता आता है, रेहणु चली आती है!" बोला वो,
"ये पनडुब्बा तो एक बड़ा, मांसाहारी सैलामंडोर है, एक प्राचीन, उभयचर जीव! ये नदी के तल में रहता है, बाहर भी आ जाता है, छिपकली सा ही होता है! इसका अगर कोई पाँव या हाथ कट भी जाए तो तो दोबारा आ जाता है, अब कैसे करता है ये, इस पर वैज्ञानिक शोध ज़ारी हैं!" कहा मैंने,
"तो मतलब होता है!" बोला वो,
"हां, इंसान को उठा लेता है, भैंस को भी, नदी में, तल में गाड़ देता है, नदी का रेत, उसकी देह में घुस जाता है, जो कभी किनारे लग जाए तो हर छिद्र में रेत ही रेत होता है!" कहा मैंने,
"बाप रे!" बोला वो, 
"और गोंता एक मछली है, बहुत ही बड़ी! इसके गौंच भी कहते हैं, ये भी बदनाम है! इंसान को हज़म कर जाती है!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"गंडक में रहती है, बाढ़ में अक्सर, दूसरी नदियों में चली आती है, और लोग शिकार हो जाते हैं इसका, इतनी हिम्मती है कि नाव में से ही इंसान को झपट ले!" कहा मैंने,
"ओ भगवान!" बोला वो,
"और रेहणु, इसे किसी ने देखा नहीं, जिसने भी देखा, अलग अलग ही बताया!" कहा मैंने,
"वो क्या?'' बोला वो,
"एक सांप, जिसके कई हाथ और पैर होते हैं, हर हाथ और पैर के बीच में मछली जैसी झिल्ली होती है, इसका मुंह बड़ा होता है, कुल लम्बाई बीस फ़ीट तक हो सकती है, देखने में, काला और पीला सा और हिंसक सांप है!" कहा मैंने,
"और दूसरा?" बोला वो,
"कोई कहता है, सांप तो होता है ये, लेकिन इसके हाथ पांव नहीं होते, हां, पूंछ में दो कांटे होते हैं, जिनसे शिकार को अपने विष से मारता है!" कहा मैंने,
"क्या क्या बनाया है!" बोला वो,
"ये किवदंतियां ही हैं, कोई ठोस आधार अभी तक उपलब्ध नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोला वो,
"हां, गौंच अवश्य ही देखी गयी है!" कहा मैंने,
"ये सब नदी के जीव हैं, क्या पता सच हैं या झूठ!" बोला वो,
"हां, जो देखे वो माने!" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोला वो,
फिर पानी पिया और फिर से चले!
"वो वहां है!" बोला वो,
"वो?" पूछा इशारे से,
"हां!" कहा उसने,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम चलते रहे आगे!
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"यहां कोई बड़ा पेड़ नहीं!" कहा मैंने,
"तो?" बोला वो,
"इसका मतलब, यहां बदलाव जल्दी होता है!" कहा मैंने,
"मतलब?'' बोला वो,
"शायद, चार या पांच सालों में यहां कोई बड़ी ही बाढ़ आती है!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"प्रकृति के चिन्ह बखूबी जानते हो आप!" बोला वो,
"ये अनुभव से ही आता है!" कहा मैंने,
"हां, सही कहा!" बोला वो,
"और श्री गुरु-ज्ञान!" कहा मैंने,
"वो सबसे पहले!" बोला वो,
"प्रकृति हमें स्वयं ही बताती है!" कहा मैंने,
"भविष्य?" बोला वो,
"भूत और वर्तमान भी!" कहा मैंने,
"सही कहा!" बोला वो,
"ये भूमि देखो!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"इस भूमि पर पत्थर नहीं!" कहा मैंने,
"हां, रेत सी है!" बोला वो,
"और देखो उधर!" कहा मैंने,
"पेड़?" बोला वो,
"पेड़ की जड़!" कहा मैंने,
"हां?'' बोला वो,
"क्या विशेष?" पूछा मैंने,
"कुछ भी नहीं!" बोला वो,
"वृक्ष के नीचे मन्डक(अर्थात, जड़ों वाली मिट्टी का चबूतरा सा) नहीं है, किसी भी वृक्ष के नीचे!" कहा मैंने,
"हां, तो?" बोला वो,
"इसका अर्थ ये हुआ कि जल वो मन्डक बनने नहीं देता, बहा ले जाता है, छोटे छोटे पाषाण भी बहे चले जाते हैं!" कहा मैंने,
"और वो बाढ़ के कारण!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बहुत बढ़िया जानकारी!" कहा उसने,
"ऊपर देखो?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"ऊपर कोई मांसाहारी पक्षी नहीं, न चील, न बाज़!" कहा मैंने,
"हां, दूर दूर तक!" बोला वो,
"इसका अर्थ ये हुआ कि ये क्षेत्र सुरक्षित है! यहां किसी का शिकार नहीं हुआ, किसी भी पशु का!" कहा मैंने,
"क्या बात है!" बोला वो,
"वृक्षों में घोंसले भी नहीं!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बाढ़ के कारण?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोला वो,
"चारा या भोजन नहीं, दूर दूर तक!" कहा मैंने,
"अरे हां!" बोला वो,
"पक्षी कृमि, कीड़े या बीज खाते हैं, वो यहां नहीं, अर्थात, यहां नमी नहीं, जो है, वो उस नदी के पास ही! वहीं के वृक्षों में घोंसले भी हैं!" कहा मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"यदि किसी को यहां भूख लगे तो?" बोला वो,
"जल!" कहा मैंने,
"जल?" बोला वो,
"हां, जांचना चाहिए कि जल किस दिशा में है!" बोला वो,
"कैसे जांचें?" बोला वो,
"जिव्हा!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"चारों दिशाओं में मुख खोलिये कुछ देर, नमी का अहसास जिस दिशा से हो, उधर चल पड़िये! जिव्हा के रंध्र पहचान लेंगे नमी!" कहा मैंने,
"वाह! वाह!" बोला वो,
"जहां जल, वहां वनस्पति, पक्षी या मछली, या जो कुछ भी हो!" कहा मैंने,
"ये हुई कुछ जानकारी!" बोला वो,
"ऐसी जगहों पर सर्प रहते हैं! दिन में ताप ग्रहण करते हैं और रात को शिकार!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब कोई सर्प भी काट सकता है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कौन अधिक ज़हरीला है, कैसे पता चले?" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"भारी शरीर! भारी को और जबड़ा ज़मीन से छुआए तो ज़हर नहीं! भारी शरीर लेकिन देह में वक्र बनाये, पीछे हटे तो भयानक ज़हरीला! लम्बी देह, चपल हो और लकीरें हों तो ज़हरीला, लकीरें न हों, रंग चटख हो, तो ज़हरीला! पूंछ को मध्य में रखे तो ज़हर नहीं! अपने सर को छिपाए तो ज़हर नहीं! नेत्रों में चीयर हो, तो ज़हरीला, ऐसा सर्प और उसका विष देह का रक्त गाढ़ा करने लगता है, ऑक्सीजन खत्म होने लगती है और आंतरिक रक्त-स्राव होने से मृत्यु हो जाती है!" कहा मैंने,
"कोई त्वरित उपाय?" बोला वो,
"है!" कहा मैंने,
"सो क्या?" बोला वो,
"मंत्र!" कहा मैंने,
"और?" बोला वो,
"वनस्पति, औषधि!" कहा मैंने,
"हम्म! अच्छा!" बोला वो,
"औषधि की पहचान हो न हो, मिले न मिले समय पर, पर मंत्र अवश्य ही काम करेगा!" कहा मैंने,
"मंत्र क्या है?" पूछा उसने,
"बता दूंगा! किसी भी ग्रहण-समय या अमावस-प्रतिपदा मिलन-समय, या किसी प्रसूता स्त्री का वस्त्र हो पास, या तेरह मास से छोटी कन्या हो कोई(ये न ही करें तो उचित), या कुश, खजूर एवं अरहर के पौधे से स्वयं बनाई हुई झाड़ू हो, तब ये मंत्र, मात्र एक सौ एक बार जपने मात्र से ही सिद्ध हो जाता है! अब कोई भी सर्प, विषैला कीड़ा-मकोड़ा, बिच्छू, गोह आदि काट ले, फौरन अपना थूक उस स्थान पर रगड़ दो और ग्यारह बार मन ही मन, नेत्र बंद कर पढ़ दो, ज़हर तत्क्षण ही समाप्त!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अरे वाह!" बोला वो,
"हमारे ज्ञानीजनों ने सदैव लोक-कल्याण हेतु कई विद्याएं, मंत्र, सरल प्रयोग सिद्ध कर, लोक में ही दे दिए! इसमें श्री गोरख नाथ जी अग्रणी हैं!" कहा मैंने,
"जय श्री गोरख!" बोला वो,
"जय श्री गोरख!" कहा मैंने,
"वो मंत्र क्या है?" पूछा उसने,
मैंने उसे तब वो मंत्र बता दिया!
(ये मंत्र आप आदरणीय कुमार साहब से ले सकते हैं)
"सर्पों के कारण आज भी बहुत से लोग जान गंवा देते हैं!" बोला वो,
"हां, ये सही कहा!" कहा मैंने,
"इस मंत्र के बाद?" बोला वो,
"मंत्र से ज़हर का प्रभाव शून्य हो जाएगा, परन्तु ज़ख्म बना रह जाता है, अक्सर सूज जाए तो ज़्यादा दिक्कत करता है, अतः, चिकित्सा अवश्य ही करवा लेनी चाहिए!" कहा मैंने,
"हां, ये ज़रूरी भी है!" बोला वो,
"संक्रमण न होगा फिर!" कहा मैंने,
"हां, आजकल का एक तो मौसम भी वैसा ही है!" बोला वो,
"फिर, आजकल वैसी कोई भी शाक या औषधि नहीं बची! जो बची भी हैं, उनकी खेती होती है, खेती से उसमे प्राकृतिक अवयव नहीं आ पाते!" कहा मैंने,
"बाज़ार में जो औषधि मिलती हैं?" बोला वो,
"मात्र चौथाई भर प्रभाव करे तो करे!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"आप आजमा कर देखिये, यदि किसी के मुख में छाले हो जाएं, या कहीं कट जाए या चुने के कारण माउथ-अलसर हो जाएं तो उसके लिए, अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति की दवाएं मिलेंगी, अमूमन जैल ही अधिक या फिर आयुर्वेदिक हो तो कुल्ला करने की और फिर परहेज आदि!" कहा मैंने,
"कोई और दवा?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सो क्या?'' पूछा उसने,
"नीम की निबौरी की गुठली पीस लें, दस, गीली हों या सूखी, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता! पीस कर चार सौ मिलीलीटर पानी में उबाल लें, फिर जब दो सौ मिलीलीटर रह जाए तो उतार लें और ठंडा कर लें, अब एक घूंट पानी लें इसका, मुख में कम से कम दो मिनट रखें, बस एक बार ही, दिन में चार या पांच बार करें, अगले दिन तक नब्बे प्रतिशत लाभ हो जाएगा! नीम दो तरह का होता है, एक कड़वा नीम, और एक बकांद, नीम ही लेना है, गोल निबौरी वाला बकांद नहीं! वो लिए तो कामोत्तेजना बढ़ा देगा!" कहा मैंने,
"अरे!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कमाल है!" बोला वो,
"अब निबौरी हर जगह!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"निबौरी के कुछ प्रयोग और?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"दो गिरी निबौरी की, सुबह सुबह बासी मुंह, नीम्बू के आधा चम्मच रस के साथ लें तो भूख बढ़ेगी! कब्ज़ नहीं रहेगी! अफारा, डकारें और अपच नहीं रहेगी! बच्चों को निम्बू की जगह शहद दें, एक गिरी, उदर-कृमि मर जाएंगे, भूख लगने लगेगी, बदन को कैल्शियम की मात्र सुचारु रूप से मिलेगी!" कहा मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"पकी निबौरी का गूदा, आधा चम्मच, कच्चे पपीते का रस, आधा चम्मच, यदि रात को चेहरे पर मल कर सोएं, तो चेहरा कांतिवान, झुर्रिहीन, अलसाया चेहरा, मुहांसे आदि न रहेंगे!" कहा मैंने,
"बहुत खूब!" बोला वो,
"वे रुक गए!" कहा मैंने,
"हां, आओ!" बोला वो,
हम चले उनकी तरफ!
"आराम किया जाए?" बोली दिशि,
"हां!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
और वे दोनों ही एक अलग सी जगह जा बैठीं! हम भी बैठ गए!
"अब?" पूछा मैंने,
"पास ही है!" बोला वो,
"अब क्षेत्र उजाड़ है!" कहा मैंने,
"आगे देखना!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"वहां पत्थर ही पत्थर!" बोला वो,
"वही?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कोई खंडहर भी है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"गुफाएं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"पहाड़ियां?" पूछा मैंने,
"टीले सी!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"एक बात नहीं समझ आयी?" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"ये जगह कोई कार्यशाला है उनकी या फिर कोई आवासीय स्थान?" कहा मैंने,
"इतना तो नहीं पता!" बोला वो,
"और उम्मीद क्या है?" पूछा मैंने,
"कैसे?'' बोला वो,
"उस अक्षुण्ण से लेना देना है कोई?" पूछा मैंने,
"सम्भव है?'' बोला वो,
"ज़रा सोचो!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"एक तपस्वी, या साधक को क्या आवश्यकता कीमियागरों की?'' पूछा मैंने,
"हां, होनी तो नहीं चाहिए!" बोला वो,
"तो हम यहां ढूंढेंगे क्या?" पूछा मैंने,
"अब जो मिल जाए?'' बोला वो,
"स्वर्ण?" बोला मैं,
"हां?" बोला वो,
"इस स्वर्ण ने आज तक न जाने कितनों को इसी निन्यानवें के खेल में फंसा के रखा हुआ है!" कहा मैंने,
"सच बात है!" बोला वो,
"पता नहीं क्या मिले!" कहा मैंने,
"आपको क्या उम्मीद है?'' पूछा उसने,
"कोई संबंध!" कहा मैंने,
"अक्षुण्ण से?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"यही तो ढूंढना है!" बोला वो,
"मिल जाए तो बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"बस, इसीलिए यहां हूं!" कहा उसने,
"मैं भी!" कहा मैंने,
"हां, आप भी!" बोला वो,
"यहां का पता कैसे चला?'' कहा मैंने,
"मतलब, जगह का?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोला मैं,
"स्वर्ण का?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"ये खबर आचार्य जी से मिली थी!" बोला वो,
"कि यहां जाओ?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"और उन्हें?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"अब मुझे कुछ खटका सा लगता है!" कहा मैंने,
"खटका?" वो चौंका!
"हां!" कहा मैंने,
"सो कैसे?" बोला वो,
"यहां देखो!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"ऐसी कितनी जगह हैं यहां!" बोला मैं,
"बहुत!" बोला वो,
"तो वो जगह यही है, कैसे पता?" पूछा मैंने,
"मतलब वो हडुकी लिपि......??" बोला और रुका!
"हां! सही समझे!" कहा मैंने,
"ओहो!" बोला वो,
"लगता है मुझे!" कहा मैंने,
"तो हम यहां क्यों?" बोला वो,
"शायद कोई मक़सद?" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"अभी खुला नहीं!" बोला मैं,
"कब खुले?'' बोला वो,
"आचार्य जी के आने पर!" बोला मैं,
"सच्ची क्या?" बोला वो,
''अंदेशा ही है!" कहा मैंने,
"अंदेशा ही हो!" बोला वो,
"मुझे भी!" कहा मैंने,
"बड़ा ही उलझा सा मामला है ये!" बोला वो,
"सुनो!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"यहां कुछ न कुछ रहस्य है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और कुछ ऐसा भी, जिसमे हम नहीं जानते!" बोला मैं,
"हम, हम सभी?" बोला वो,
"हम दोनों या बाबा नंदनाथ भी!" कहा मैंने,
"खेल?" बोला वो,
"शायद!" कहा मैंने,
"लाभ?" बोला वो,
"अपार!" कहा मैंने,
"आप जानो!" बोला वो,
"देखो अभी!" कहा मैंने,
"मुझे तो अब हर कोण ही संदेहास्पद सा लगने लगा!" बोला वो,
"क्या?" कहा मैंने,
वो खड़ा हुआ और मुझे भी खड़ा होने को कहा, मैं भी खड़ा हो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"इधर आओ!" बोला वो,
मैं चुपचाप उसकी तरफ चला गया!
"हां?" कहा मैंने,
"मुझे आपकी बात कुछ यही लगती है!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कि हम दोनों शायद किसी खेल का हिस्सा हैं!" बोला वो,
मैं चुप हो गया, उसको गौर से देखा!
"बाबा नंदनाथ भी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"उन्हें कुछ मालूम है?" पूछा मैंने,
"कुछ तो मुझे भी!" बताया उसने,
"क्या?" पूछा मैंने,
"मैंने बाबा को सुना था कि....!" उसने कहा कि मैंने इशारे से रोक दिया उसे!
"किसके साथ कहते सुना था?" पूछा मैंने,
"दिशि के साथ!" बोला वो,
"क्या सुना था?" पूछा मैंने,
"मेरा अंदाजा है कि वो जो बाबा था, जिसने वो पाण्डुलिपि दी थी, वो यहां तक तो आया था!" बोला वो,
मेरे तो बाल खड़े से हो गए! रोयें बाहर निकलने चाहिए थे, अंदर जा, चुभने से लगे फौरन ही!
"आया था?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"मुझे पहले क्यों नहीं बताया?" पूछा मैंने,
"सोचा दिशि ने बताया हो?" बोला वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"इसीलिए कुछ खटका सा हुआ अभी!" बोला वो,
"तभी!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"तभी मैं कहूं कि वो लिपि जब पढ़ी ही नहीं जा सकी तो इतने अंदर तक की बातें कैसे पता चलीं इनको?" कहा मैंने,
"हां! सही कहा!" बोला वो,
"अच्छा? वो बाबा कहां है?'' पूछा मैंने,
"शायद आचार्य जी के पास!" बोला वो,
"हैं?" मैं चौंका!
"मुझे लगता है!" बोला वो,
"वो इनके पास है तो अभी तक ये भी हाथ-पांव ही मार रहे हैं, क्यों?" पूछा मैंने,
"बस, यहीं कुछ अटका है!" बोला वो,
"अब समझा!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"अब आचार्य जी जब भी आएंगे तो वो बाबा संग ही होगा या फिर कुछ पुख्ता सी जानकारी लाएगा, ये दिशि इसीलिए यहां है!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोला वो,
"नहीं तो इस बीहड़ में कौन आएगा?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और ये सब चोरी-छिपे ही हो रहा होगा!" कहा मैंने,
"हां, शायद!" बोला वो,
"शायद नहीं, पक्का!" कहा मैंने,
"हां, माना मैंने!" बोला वो,
"अब इसे भी कैसे सच मानूं?" कहा मैंने,
"किसे?" बोला वो,
"जो दिशि ने बताया?" पूछा मैंने,
"जांच करो!" बोला वो,
"हां?" आयी आवाज़ एक सहायक की,
"हां?" बोला मैं,
"आ जाओ!" बोला वो,
"चलो!" बोला मैं,
"हां!" कहा बालचंद्र ने,
और हम दोनों चल दिए उधर की तरफ! उनके पास चले आये!
"अब यहां से एक किलोमीटर ही होगा!" बोली दिशि,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अब सब साथ रहो!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
चल दिए हम अब सभी साथ!
"अब वही जगह आएगी?" पूछा मैंने,
"हां, आभूषणों वाली!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ज़रा गौर करना!" बोला मैं,
"जगह पर?'' पूछा मैंने,
"दिशि पर!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कुछ चूके नहीं!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
हम चल दिए थे, पहले एक पठार सा आया, उस पर जा चढ़े, और फिर दिशि दाएं चल दी, हम उसके पीछे चल दिए, ढलान सी आ गयी और वहाँ का भू-क्षेत्र अब बदलने लगा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम फिर ढलान उतरे और नीचे की तरफ पहुंचे! यहां की ज़मीन बड़ी ही अजीब सी थी, उसे न तो मैं मिट्टी ही कह सकता था और न पत्थर ही, ये कुछ जमी हुई सी, सख्त सी, पपड़ीदार सी थी, रंग इसका गहरा भूरा था, कमाल की बात तो ये कि घास का एक तिनका भी नहीं उगा था उस पर!
"ये कैसी ज़मीन है?" पूछा मैंने,
"ये सख्त है बहुत!" बोला वो,
मैं झुका और छोटी सी पपड़ी उठायी, उसको दबाकर देखा, टूटी नहीं, वो अवश्य ही मिट्टी थी, लेकिन मिट्टी ऐसी थी जैसे मुल्तानी मिट्टी या गाची मिट्टी हुआ करती है! इसके गुणों की पहचान के लिए मैंने उसे मुंह में रख कर देखा, छोटा सा टुकड़ा इसका, चबाया, किरकिरा भी नहीं, स्वाद भी नहीं कुछ, हां कुछ अजीब सा था, जैसे यहां सिरका बिखेरा गया हो! लेकिन खट्टापन भी नहीं था! ये गाद भी नहीं थी, न ही चिकनी मिट्टी! खैर, हम आगे चले!
"वो देखो!" बोला वो,
मैंने सामने देखा, एक टीला सा था, दिशि और वे सभी वहीं जा खड़े हो गए थे! जैसे हमारा इंतज़ार कर रहे हों! हम पहुंच गए उधर! अब जो मैंने देखा वो तो और भी अजीब! उस ज़मीन में जगह जगह काले काले से गड्ढे बने हुए थे, कोई गहरा था और कोई ज़रा भी गहरा नहीं!
"ये है वो जगह!" बोली दिशि!
मैंने आगे बढ़ा और उस जगह को ध्यान से देखा, उस जगह अभी भी कुदाल के निशान बने थे, इसका मतलब यहीं से वो आभूषण निकाले गए थे!
"इस गड्ढे से!" बोली वो,
मैंने गड्ढे में झांक कर देखा, काला गड्ढा था, अंदर कुछ पपड़ी जमी थी! ये कोई ढाई  फ़ीट चौड़ा और पांच या छह फ़ीट गहरा होगा!
"इसके अंदर से?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कमाल है!" बोला मैं,
"क्यों?" पूछा उसने,
"इतनी ख़ास जगह आपको पता कैसे चली?" पूछा मैंने,
"पिता जी ने यहां कुछ आभूषण बाहर देखे थे!" बोली वो,
"मतलब? बाहर?" पूछा मैंने,
"आधे अंदर और आधे बाहर!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हां! हम्म!" बोली वो,
"वो यहां कैसे पहुंचे?" पूछा मैंने,
"आसपास का पूरा क्षेत्र खंगाल लिया था उन्होंने!" बोली वो,
"और कुछ न मिला?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"इज़ाज़त हो तो मैं देखूं?" पूछा मैंने,
"इज़ाज़त कैसी भला?'' बोली वो,
"धन्यवाद!" कहा मैंने,
"और मैं बालचंद्र की तरफ पलटा, इशारा किया उसे!
"आना?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"आओ, ज़रा आसपास देखते हैं!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
"उधर चलो!" कहा मैंने,
"वहां तो कुछ नहीं!" बोला वो,
"चलो तो?'' कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
और हम उधर चले फिर!
"एक एक पत्थर देखना!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
अभी मैं कह ही रहा था कि मेरी नज़र एक पेड़ के टूटे शहतीर पर पड़ी! ये शहतीर काफी बड़ा था, पक्का था कि यहां का तो है नहीं! शायद बह कर आया हो!
"उधर!" कहा मैंने,
"किधर?" बोला वो,
"शहतीर!" कहा मैंने,
"वो?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ऐसे तो और भी हैं!" बोला वो,
"और देखेंगे!" कहा मैंने,
हम उस शहतीर तक जा पहुंचे, मैंने देखा उसे, सूखा हुआ, अब जर्जर था, हाथ लगाओ  तो चूर्ण हो जाए , ऐसा, शायद बरसों से यहां पड़ा था!
"वो?" कहा मैंने,
"बाम्बी!" बोला वो,
"हां, आओ!" कहा मैंने,
"सांप होंगे!" बोला वो,
"सांप की नहीं है!" कहा मैंने,
"फिर?'' पूछा उसने,
"दीमक की.................!!" मैं कहते कहते रुका! मेरे चेरे पर आश्चर्य के भाव आ गए! तुरंत ही भांप गया वो!
"क्या?" बोला वो,
"दीमक!" कहा मैंने,
"तो?" बोला वो,
"आओ! दिखाता हूं!" कहा मैंने,
और हम दौड़ कर वहां चल पड़े!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाम्बी तक जा पहुंचे! वहां दीपंक तो नहीं थी, लेकिन उनकी छोड़े हुए अवयव अवश्य ही थे, अर्थात, दीमक वहां पर उस समय तक, उस दिन तक तो वहीं थीं! मैंने आसपास देखा,  कुछ तलाश करने की कोशिश की और तब एक लकड़ी उठा ली, पतली से, झाड़ू की सींक बराबर!
"क्या देख रहे हैं?" बोला वो,
"ये बाम्बी जीवित है!" बोला मैं,
"तो?" बोला वो,
"यही तो आश्चर्य है!" कहा मैंने,
"कैसा आश्चर्य?" बोला वो,
"ये दीमक, एक समाज बना कर रहती हैं, इनमे शुरू में, एक रानी होती है और एक, दास पुरुष दीमक!" कहा मैंने,
"दास पुरुष?'' बोला वो,
"हां, एक पुरुष, एक नर दीमक, जो उस रानी दीमक के साथ संसर्ग करता है, अंडे होते हैं और उन अण्डों से बच्चे निकलते हैं, उनकी देह और रंग, गंध के अनुसार ये तय होता है कि वो आगे जाकर, इस समाज में क्या स्थान लेगा!" कहा मैंने,
"अच्छा? मधु-मक्खी समान?" बोला वो,
"हां, चींटियों में भी यही होता है!" कहा मैंने,
"इसका क्या अर्थ हुआ?'' बोला वो,
"यही कि इन सभी के पूर्वज एक ही रहे होंगे! भौगोलिक कारणों के कारण, उनका विकास अलग तरीक़ से हुआ, विकासवाद चलता रहा और कोई दीमक, कोई चींटी या कोई मधु-मक्खी बन गए!" कहा मैंने,
"आपको बेहद सूक्ष्म ज्ञान भी है!" बोला वो,
"ये तो साधारण सा प्राकृतिक ज्ञान है!" कहा मैंने,
"एक समान पूर्वज!" बोला वो,
"एक ही!" कहा मैंने,
"समझा! तभी चींटियों के भी पंख निकल आते हैं!" बोला वो,
"हां, और दीमकों में भी!" कहा मैंने,
"समझ गया, लेकिन यहां क्या आश्चर्य?" बोला वो,
"चींटी वहीं होंगी, जहां अन्न होगा!" कहा मैंने,
"हां, सरल सा उत्तर है!" बोला वो,
"और मधु-मक्खी वहां होगी, जहां फूल, पराग होगा!" कहा मैंने,
"हां, ठीक!" बोला वो,
"और दीमक वहां होंगी जहां भूमि के नीचे जल या अतिरिक्त नमी होगी!" कहा मैंने,
"जल?" चौंका वो!
"हां!" कहा मैंने,
"यहां तो कुछ नहीं?'' बोला वो,
"भूमि के नीचे?" बोला मैं,
"अरे हां!" बोला वो,
"दीमकों को जल अवश्य ही चाहिए, अन्यथा, उनका, हवा से,  कीड़ों के वार से, दीमकखोरों से, स्वयं को सूखने से बचाने को और अपने घोंसले या बाम्बी को बचाने के लिए, मुख से निकालने को एक चिपचिपा पदार्थ चाहिए, ताकि उसको मिलाकर, वे बाम्बी की मरम्मत कर सकें, स्वयं को जीवित रख सकें!" कहा मैंने,
"ओह! अब समझा मैं!" बोला वो,
"समझ जाओ कि यहां नीचे अवश्य ही जल है!" कहा मैंने,
"होना चाहिए अब तो!" बोला वो,
"तुमने बताया तो था?" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"कि यहां भूमिगत जलधाराएं हैं!" कहा मैंने,'
"हां, सोचा नहीं था ऐसा!" बोला वो,
"अब मान लो!" कहा मैंने,
"मान गया!" बोला वो,
"ये देखो!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
मैंने तब उस बाम्बी के बीच में वो लकड़ी घुसेड़ दी, लकड़ी अंदर चली और कुछ देर मैंने वहीं छोड़ दी, बाहर निकाली तो लकड़ी पर नमी दिखने लगी, जैसे गीली हो!
"देखा?" कहा मैंने,
"बड़े ही आश्चर्य की बात है!" बोला वो,
"एक बात और बताता हूं!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"ये दीमक वहीं बाम्बी बनाएंगी जहां पर नीचे, चांदी होगी!" कहा मैंने,
"हैं?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आभूषण?" बोला वो,
"नहीं, परन्तु चांदी की उपलब्धता!" कहा मैंने,
"सच?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"इन्हें कैसे मालूम?" बोला वो,
"चांदी का गुण ठंडा होता है, ये नमी को लौटने नहीं देती वापिस, ठंडा रखती है बाम्बी को और सर्दियों में, विपरीत कार्य करती है!" कहा मैंने,
"बताओ! कहने को कीड़ा!" बोला वो,
"हां, और सिखाने को, ये अद्भुत ज्ञान!" कहा मैंने,
"हां, इसका मतलब और भी होंगी बाम्बी यहां?" बोला वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"हां, आओ, देखें!" बोला वो,
"आओ!" कहा मैंने,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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हमने आसपास तलाश की, कुछ दूर गए, और वहां हमने दो और बाम्बियां देखीं, एक शायद अब छोड़ दी गयी थी, उस पर शायद हमला हुआ था, बीच बीच में दीमकों के पर पड़े हुए थे, या फिर उन्होंने स्थान बदल लिया था! दीमक यदि काट ले तो तारे नज़र आ जाएं! इसमें बहुत तेज एस्कॉर्बिक एसिड सा होता है, बहुत जलन करता है! यदि काट ले और उपचार नहीं करो तो ज़ख्म बन जाए, जो बन जाए तो ज्वर आ जाए! हां, देहाती लोग इसके काटने के आदि हो चूके होते हैं, उन्हें बस खुजली ही होती है और फिर सब ठीक! अब यदि ये काट ले, तो फौरन आक का पौधा ढूंढिए, उसका पत्ता तोड़िये और दूध मलिए! ठीक हो जाएगा!
"ये अभी ज़िंदा है!" कहा मैंने,
"ये नयी है?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"अरे वो शहतीर?" कहा मैंने,
"उस जैसे?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"वो उधर हैं!" बोला वो,
"दिखाओ?" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
यहां तो उस जगह के कोने कोने में जैसे रहस्य के पौधे लगे हुए थे, जैसे कुछ कहना चाहते हों!
"अच्छा, एक बात बताओ?" पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"वो जो अष्ट-कोणीय भवन बताया दिशि ने, वो सच में है क्या?" पूछा मैंने,
"जो मुझे पता चला, वही आपको!" बोला वो,
"मतलब है!" कहा मैंने,
"होना चाहिए!" बोला वो,
"एक बात सोचो?" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"बाबा लोचनाथ के ज़माने में यहां अवश्य ही लोग रहा करते होंगे!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अब कोई निशान नहीं उनका?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"क्या लगता है?'' पूछा मैंने,
"कहीं बतंगड़ ही न हो?" बोला वो,
"ये भी हो सकता है!" कहा मैंने,
"अच्छा, ये जो वेणुला थी, क्या उसका विवाह अक्षुण्ण से हो चुका था?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"इतने विश्वास से कैसे कह रहे हो?" पूछा मैंने,
"रात को जो स्त्री, यहां स्नान करते देखी गयी है, या महसूस की गयी है, उस से तो यही लगता है!" बोला वो,
"वो वेणुला है?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कोई और नहीं?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" कहा उसने,
"ये हैं वो शहतीर?" नज़र आये तो पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"ये तो सब बह कर आये हैं!" कहा मैंने,
"ऐसे ही हैं!" बोला वो,
"कभी बाढ़ देखी यहां?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"सुना ही?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"सर घूम गया!" कहा मैंने,
"सो तो है ही!" बोला वो,
"पानी दो यार!" कहा मैंने,
"ओह! बोतल वहीं रह गयी!" बोला वो,
"अरे यार!" कहा मैंने,
"चलें?" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम लौट चले, तभी मुझे एक और अजीब सी बात खटकी!
"वो झरना?" बोला इशारा करते हुए,
"रहा होगा?'' बोला वो,
"देखें?" कहा मैंने,
"ऊपर?" बोला वो,
"तो क्या?'' पूछा मैंने,
"चलो जी!" बोला वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"कुछ होगा वहां?" पूछा उसने,
"देख लेंगे!" कहा मैंने,
"न हुआ तो वापिस!" बोला वो,
"खाली हाथ!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"चलते हैं!" बोला वो,
"कम से कम कुछ आसपास दिखेगा तो!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
और हम दोनों ही चल पड़े उधर, उस टीले के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम उस टीले के पास पहुंचे! यहां आ कर, इस टीले को देख कर, हमारी मुर्गे की सी तनी हुई कलगी, नीचे झुकती चली गयी! इसकी तो ऊंचाई ही जानलेवा थी! एक बार को तो हिम्मत ही मुंह चिढ़ाने लगी थी! कहीं पांव फिसल गया तो ज़िंदगी भी फिसल सकती थी! और न भी फिसले तो भी देह पर चोटों के इतने टंगे लग जाते कि कुछ तो याद रह जाते और कुछ ज़िंदगी भर साथ ही रहते! अब क्या करें?
"बालचंद्र?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"ये तो बहुत ऊंचा है!" कहा मैंने,
"पूरा पहाड़ है!" बोला वो,
"अब?" कहा मैंने,
"आप सुझाओ?'' बोला वो,
"रास्ता देखते हैं!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
"यहां से आओ!" बोला मैं,
"चलो!" कहा उसने,
अब हमने ऊपर चढ़ने के लिए लगाई जुगत, कहीं पहाड़ सीधा और कहीं भुरभुरा! कोई पौधा नहीं, कोई पत्थर नहीं, जिसको पकड़, ऊपर चल सकते हम!
"ये देखना?'' बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"इस पर कुछ निशान भी हैं, खुरों के हैं?" बोला वो,
"शायद हिरण आदि के हैं!" कहा मैंने,
"यहां से चलें?" बोला वो,
"चलो!" बोला मैं,
हिम्मत कर, हम अब ऊपर चढ़ने लगे! इतना आसान नहीं था यहना चढ़ना, वो भी दो पांवों पर! चौपाये तो चढ़ जाए, उनके शरीर का आकार आयताकार सा हो जाता है, वजन बराबर डाल सकते हैं चारों पांवों पर! हमें तो यहां अपनी पेशियां कस कर ही आगे बढ़ना था!
"बाप रे!" बोला वो,
"बड़ा ही टेढ़ा रास्ता है!" कहा मैंने,
"रास्ता है ही कहां?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
तो, कम से कम पच्चीस मिनट हो गए हमें जूझते हुए और हम एक जगह आ पहुंचे, नीचे का नज़ारा देखा! लगा, हम ही हैं आज तो सभी से ऊपर!
"क्या नज़ारा है!" बोला वो,
"खूबसूरत!" बोला मैं,
"आओ!" बोला वो,
"हां, चलो!" कहा मैंने,
चल दिए जी ऊपर! और एक आखिरी सी चढ़ाई कर हम आ गए ऊपर! ऊपर आये तो आंखें फ़टी रह गयीं! वहां तो के बड़ा सा गड्ढा था! जैसे कोई ज्वालामुखी सा हो!
"इस से दूर रहना!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"यहां पानी कैसे इकट्ठा होता होगा?" बोला वो,
"आसपास कुछ नहीं है, और, पीछे भी ढलान है, इसका मतलब, वो पानी इकट्ठा नहीं होता होगा!" कहा मैंने,
"तब?" बोला वो,
"शायद वो यहां, नीचे से आता होगा!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"लेकिन मुहाने तक जाएं कैसे?" बोला वो,
"खतरनाक है!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोला वो,
"रस्सी!" कहा मैंने,
"बांधेंगे किसमें?" बोला वो,
"सही कहा!" बोला मैं,
"तब?" बोला वो,
"अभी यहां से चलते हैं, लगाते हैं कुछ जुगाड़!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
"पानी नीचे से आता होगा! हां!" कहा मैंने,
"तो यहीं आता होगा?" बोला वो,
अचानक से एक पर्दा सा हटा दिया था उसने ये कह कर!
"अरे हां!" बोला मैं,
"और भी जगह होंगी?" बोला वो,
"होंगी!" कहा मैंने,
"चलो, एक बात मानी, कि पानी नीचे से आता होगा, ठीक, भूतल देखना, इतना कैसे उठ पता होगा पानी?" बोला वो,
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"समझे न?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तब इसका मतलब ये हुआ कि शायद पानी का या तो वेग बहुत ही तेज होता होगा! जो यहां तक उठ जाता होगा, और वो सम्भव है, यहां, नीचे कोई बड़ी ही जलधारा हो, इस ज़मीन के नीचे, जैसे शायद कोई गुफा!" बोला वो,
"गुफा?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"सौ प्रतिशत कोई गुफा ही है!" कहा मैंने,
"आओ, नीचे चलें!" बोला वो,
और अचानक ही..........!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम दोनों अब वापिस हो ही रहे थे कि मेरी नज़र कुछ अजीब सी चीज़ पर पड़ी! वो एक मिट्टी का ढेला सा था, लेकिन दीखता प्राकृतिक ही था, लेकिन प्रकृति कभी एकरूपता, छोटी वस्तुओं में नहीं दिखाया करती, ये बहुत विशाल होती हे! जैसे एक ही प्रजाति के वृक्ष, जल का रंग इत्यादि! तो ये ढेला मुझे असमंजस में डाले जा रहा था!
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"वो क्या है?" पूछा मैंने,
"वो?" बोला एक तरफ इशारा करते हुए,
"अरे, वो?" कहा मैंने,
"वो?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मिट्टी का ढेला है!" कहा उसने,
"उठाना?'' कहा मैंने,
"अभी लो!" बोला वो,
और गया उधर, हल्के हाथों से उठाया तो मैं भांप गया अगले ही पल, कि वो हल्का नहीं था!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
उसने दोनों हाथों से उठा लिया था वो ढेला अब!
"बड़ा भारी है!" बोला वो,
"मिट्टी है?'' पूछा मैंने,
"लगता तो है!" बोला वो,
और ले आया मेरे पास, अब मैंने उठाया, उसका वजन करीब ढाई किलो मान लो आप! वो ज़्यादा बड़ा तो नहीं था, लेकिन अपने आकार और आयतन से कहीं अधिक ही था! मैंने उसे उलट-पलट के देखा!
"इसमें कुछ है!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
और उसे ज़मीन पर मारा मैंने फेंक कर! मिट्टी हटी, फिर से उठाया और फिर फेंका! इस बार कुछ दिखा! ये पत्थर था, काले रंग का!
"पत्थर है!" बोला वो,
अब मैं झुका और देखा उसे!
"हां!" कहा मैंने,
अब हटाई मिट्टी मैंने, और जो निकला वो तो कमाल ही था! देखने वाले के लिए सिर्फ पत्थर, एक आम सा पत्थर ही!
"क्या है ये?'' पूछा उसने,
"क्या लगता है?'' पूछा मैंने,
"गोल, पत्थर?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या ख़ास?'' बोला वो,
"इसको ध्यान से देखो!" कहा मैंने,
"देखा है!" बोला वो,
"कुछ जान नहीं पड़ता?'' पूछा मैंने,
"नहीं तो?'' बोला वो,
"ये देखने में किसी बट्टे जैसा नहीं?" पूछा मैंने,
"अरे वाक़ई!" बोला अब वो मुझ से लेते हुए!
"ये देखो तो त्रिकोण सी आकृति में है, यहां से पकड़ो और इधर से घिसो!" कहा मैंने,
"हां! वही है!" कहा उसने,
"इसे रख लो!" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोला वो,
और बैग उतार, बैग में रख लिया!
"और भी होंगे?'' बोला वो,
"नीचे तो कुछ नहीं!" बोला मैं!
"चलो इसे ही देखते हैं आज!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और हम फिर से नीचे आने लगे, नीचे आना आसान था, ज़्यादा देर नहीं लगी! उधर सभी थे, लेकिन दिशि नहीं!
"सुनो?'' बोला मैं एक सहायक से,
"जी?" बोला वो,
"वो कहां गयीं?'' पूछा मैंने,
"इधर ही हैं!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"सामने!" कहा उसने,
"उधर?'' बोला मैं इशारे से,
"हां!" कहा उसने,
"आया मैं अभी!" बोला मैं,
और चल पड़ा उधर के लिए, वो दो बड़े से पत्थर थे, शिला जैसे, पुराने थे, मैं रुक गया वहां, आसपास देखा, कोई नहीं!
"दिशि?" मैंने आवाज़ दी,
"हां, आ जाओ!" बोली वो,
मैं आवाज़ वाली दिशा में गया तो दिशि दिखाई दी, बैग में कुछ रख रही थी!
"क्या कर रही हो इधर?" पूछा मैंने,
"कुछ निशानियां लिखी हैं!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"देख ली जगह?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कुछ मिला?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ढूंढने से मिलता है!" बोली वो,
"लेकिन क्या?" पूछा मैंने,
"क्या से क्या मतलब?" बोली वो,
"मतलब ढूंढना क्या है?'' पूछा मैंने,
"कुछ निशानी?" बोली वो,
"इस उजाड़ में?" कहा मैंने,
"उजाड़?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सुनो! हां, क्या नामा है आपका?'' बोली वो, हाथ मलते हुए,
मैंने नाम बताया उसे अपना, दो बार!
"हां, तो आप कहां खड़े हो?" बोली वो,
"उजाड़ में!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"बाग़ तो कहीं नहीं?" पूछा मैंने,
वो हंस पड़ी!
"हड़ुक में!" बोली वो,
"हड़ुक?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"ये क्या है?'' पूछा मैंने,
"केंद्र!" बोली वो,
"किसका?" पूछा मैंने,
"इधर आओ, दिखाती हूं कुछ!" बोली वो,
मैं चल उसकी तरफ और खड़ा हुआ उसके पास ही चलकर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"वो, सामने, क्या दीखता है?'' पूछा उसने,
"वहां?" पूछा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ भी नहीं?" बोली वो,
"सिर्फ उजाड़ ही!" कहा मैंने,
"उजाड़ मत कहो इसे!" बोली वो,
"और क्या कहूं इसे?" पूछा मैंने,
"सामने कुछ दीखता है?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"सामने टीला है?" बोली वो,
"हां, है!" कहा मैंने,
"उसके साथ?" पूछा उसने,
"एक और टीला!" कहा मैंने,
"और पीछे?" बोली वो,
"खाली सा स्थान!" कहा मैंने,
"इन टीलों का आकार कैसा है?' बोली वो,
मैंने जैसे ही देखा, झटका खा गया! ऐसा कैसे? मैंने एक नज़र उसे देखा, दिशि मुझे देख मुस्कुरायी!
"हां?" बोली वो,
"हूबहू!" कहा मैंने,
"हां! सही समझे!" बोली वो,
"लेकिन ये....." मैंने पूरा कहता कि उसने रोक दिया मुझे, होंठों पर हाथ रख कर अपने! मैं चुप हो गया!
"ये प्राकृतिक नहीं है!" बोली वो,
"हैं?" मेरे मुंह से निकला,
"हां!" कहा उसने,
"तब?" पूछा मैंने,
"तब यही कि अपने आप तो आया नहीं, आये नहीं, फिर?" पूछा उसने,
"किसी ने बनाया?'' पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"किसने?" पूछा मैंने,
"एक सम्प्रदाय ने!" बोली वो,
"हड़ुक?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"ये हड़ुक कब से कण तक रहा?'' पूछा मैंने,
"ये करीब सात सौ साल पहले तक था, अब कहां है, कोई है भी या नहीं, कहां गए, कुछ नहीं पता!" बोली वो,
"पता तो है?" कहा मैंने,
वो चौंकी!
"हां?" कहा मैंने,
"किसे?'' पूछा उसने,
"जिस बाबा ने वो पाण्डुलिपि दी!" कहा मैंने,
"वो हड़ुक नहीं!" बोली वो,
"नहीं? तो फिर?" पूछा मैंने,
"वो तो एक आम सा साधू है!" बोली वो,
"वो पांडुलिपि फिर?" पूछा मैंने,
"उसकी किसी ने दी!" बोली वो,
"और उसको किसी ने, उसकी किसी ने!" कहा मैंने,
"हां! यही मान लो!" बोली वो,
"लेकिन वो साधू जानता तो है?'' कहा मैंने,
"सिर्फ उतना ही!" बोली वो,
"कितना?'' पूछा मैंने,
"जितना बताया गया होगा उसे!" बोली वो,
मानी जा सकती थी ये दलील! कैसे करता कोई प्रश्न!
"खैर!" कहा मैंने,
"हम्म?" बोली वो,
"तो इन टीलों की खोजबीन की?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"क्या मिला?'' पूछा मैंने,
"गुफाएं!" बताया उसने,
"गुफाएं?" मैंने हैरत से पूछा,
"हां!" बोली वो,
"क्या है उनमे?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"पत्थर?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"सभी में?'' पूछा मैंने,
"ज़्यादातर में!" बोली वो,
"बाकी में?'' पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"पत्थर भी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"कोई रास्ता?" पूछा मैंने,
"देखा नहीं!" कहा उसने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"लगता नहीं कुछ होगा!" बोली वो,
"तलाश तो करते?'' कहा मैंने,
"किया था!" बताया उसने,
"तो वो आभूषण?" पूछा मैंने,
"वो वहां से नहीं, यहां से!" कहा उसने,
"इसका मतलब....!" बोला मैं,
"क्या?'' बोली वो,
"ये पूरा क्षेत्र ही अजीब है!" कहा मैंने,
"कह सकते हैं!" बोली वो,
"दिशि?" कहा मैंने,
अपना नाम, अचानक से सुन, वो चौंक ही पड़ी!
"हां?" बोली धीरे से,
"किता क्षेत्र खंगाल लिया?'' पूछा मैंने,
उसे कुछ राहत सी हुई तभी!
"ऐसा है कि, यहां इस क्षेत्र के बारे में ज़्यादा किसी को पता नहीं!" बोली वो,
"समझता हूं!" कहा मैंने,
"तो जो यहां आया वो, पक्का हुआ!" बोली वो,
"जानता हूं!" कहा मैंने,
"मैं कुछ नहीं छिपा रही!" बोली वो,
"नहीं कहा मैंने ऐसा!" बोला मैं,
"प्रश्न में जड़ यही थी!" बोली वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा तभी कि तभी!
 

   
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