"उन्होंने भी सबसे पहला प्रश्न यही किया होगा!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बारह गए! इसका मतलब? उन्होंने दोबारा से सोचा!" कहा मैंने,
"क्या निकला?" बोला वो,
"वो सभी गेरुए वस्त्र वाले थे, अर्थात सत्व-तत्व वाले!" कहा मैंने,
"हां, स्पष्ट है!" बोला वो,
"उनके हाथ में रस्सी है!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"दिन! अर्थात बारह दिन, दिन एक दूसरे से जुड़े रहते हैं! निरंतर चलते हुए!" कहा मैंने,
"दिन? माह क्यों नहीं?" बोला वो,
"माह में ऋतु-परिवर्तन होगा, तब, परिधान भी!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब उन्होंने श्री जी से पूछा, दिनों की गणना की गयी!" बोला मैं,
"अच्छा!" कहा उसने,
"उस दिन थी पड़वा, प्रतिपदा!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"अब बारह गए, अर्थात द्वादशी!" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"तो द्वादशी छोड़ी, त्रियोदशी आयी!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"हां, अब दो रहे!" बोला वो,
"हां, हिसाब के अनुसार, अमावस!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तीन भाग लिए!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"इसका क्या अर्थ हुआ, अब यहां अटके!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"और तभी श्री जी ने नमन किया उन्हें! वे समझ गए थे, इसमें दिन भी थे और नक्षत्र भी और राशि भी! अर्थात, त्रियोदशी को, कोई रस्सी से मुक्त हो जाएगा! माह था पौष का! और तब, दादा श्री उठ खड़े हुए!" कहा मैंने,
"क्या वो समझ गए?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"उन्होंने श्री जी से कहा कि तैयार रहें, वे दूज को चल रहे हैं!" बोला मैं,
"दूज को?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"पर ये था क्या?" पूछा उसने,
"ये एक संदेश था!" कहा मैंने,
"कैसा संदेश?" बोला वो,
"पौष के माह से, नाम हुआ पूस, और पूस राम उनके गुरु श्री रहे थे, वे अब इस लौकिक संसार को छोड़ने वाले थे, दूज को संध्या में!" कहा मैंने,
"इतना जटिल?" बोला वो,
"परीक्षा!" कहा मैंने,
"ऐसी?" बोला वो,
"यही तो होती है!" कहा मैंने,
"कोई न समझे तो?" बोला वो,
"तब मात्र उतना ही मिले जो 'कहा' जो फल पका है, वो नहीं मिलेगा!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"पहले यही होता था!" बताया मैंने,
"समझ गया हूं!" कहा उसने,
"अब ये साधन से होता है!" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"पहले वे ध्यान में प्रविष्ट कर दिया करते थे!" कहा मैंने,
"प्रेषण!" बोला वो,
"सम्भाष!" कहा मैंने,
"सम्भाष?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"यहां ये क्यों?" बोला वो,
"साधन आपके, अर्थात वाहन, चालक सब आपका, परन्तु गंतव्य एवं चालक की चलन-दिशा मेरी!" कहा मैंने,
"ये ही विज्ञान है?" बोला वो,
"हां, समस्त जगत एक विज्ञानं ही तो है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"ये सम्भाष, इसकी सक्षमता, संबवतः एक न एक दिन मनुष्य इसे भी खोज ले, खोजे न भी, तब भी एक विचाए भी बहुत है!" कहा मैंने,
"अवश्य ही!" बोला वो,
"बालचंद्र! असंख्य शिराओं में, हमारे मस्तिष्क में, असंख्य विचार उत्पन्न होते हैं, कुछ वैचारिक और कुछ अवैचारिक! हमारा मस्तिष्क, जो कि इस देह के कलापन को संचालित करता है, इस देह की योग्यता और सक्षमता को बखूबी पहचानता है! यही कारण है, कि एक ही कोख से उत्पन्न दो शिशु, भिन्न विचारधारा रख सकते हैं और रखते भी हैं! शरीर में विद्युतीय-प्रवाह कैसे होता है, ये अभी भी शोध का विषय है, परन्तु तंत्र इसका उत्तर देता है!" कहा मैंने,
"सो क्या?'' बोला वो,
"इस प्रकृति में, स्थूल से लेकर सूक्ष्म तक, सृजन निरंतर चलता रहता है! और उसी कारण से नवजीवन भी नए रूप में विकसित होता रहता है! आजकल संकर-वर्ण के पौधे, पेड़ इत्यादि देखने को मिल जाते हैं! ये, कला है, माना जा सकता है, परन्तु इसका आरम्भ तो प्रकृति ने ही किया था!" कहा मैंने,
"हां, मानता हूं!" बोला वो,
"ये, चूंकि हुआ था, अब फिर से हो रहा है! प्रकृति में सम्भव और असम्भव शब्द हैं ही नहीं, वहां हो या न हो, इन्हीं का प्रभाव रहता है!" बोला मैं,
''हां, और इसी पर मैंने पढ़ा भी है कि कुछ मतभेद भी हैं!" कहा उसने,
"बता देता हूं! बाइबल में लिखा गया कि आदि में परमेश्वर था! इसका क्या अर्थ हुआ?'' पूछा मैंने,
"अर्थात आरम्भ में!" बोला वो,
"आरम्भ किसका?" पूछा मैंने,
"सृष्टि का!" बोला वो,
"सृष्टि? वो तो बनी ही नहीं?" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
"और फिर सुनो, परमेश्वर, वचन था! अब ये क्या है? वचन से क्या अर्थ?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"ये सब उलझा सा लगता है, अर्थात ये लिखित तब का नहीं जब कुछ न था, बल्कि ये एक उदाहरण है, सृष्टि की रचना का!" कहा मैंने,
"हां, यही है!" बोला वो,
"अब एक मतभेद!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"सबसे बड़ा धर्म है ईसाइयत, है न?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"अब इसी बाइबिल में लिखा कि परमेश्वर का पुत्र, उसने इंसानियत के लिए, हमारे पाप उठाने के लिए स्वयं को सूली चढ़वाया!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब बाइबिल झूठी है!" कहा मैंने,
"झूठी?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"जो आदि में था, वो ही अंत में शेष रहेगा!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"जिसके लिए हो और न हो, इसी में ही ये सृष्टि है, उसके लिए अपना पुत्र? नहीं आता कारण समझ!" कहा मैंने,
"ये तो जटिल से भी जटिल है!" बोला वो,
"हद तो ये है, जो इन त्रुटियों को सामने लाये, बताये, वो धर्म-विरोधी हो गया! ऐसे अनेक उदाहरण हैं!" कहा मैंने,
"हां, बहुत!" बोला वो,
"ऐसे ही क़ुरआन! सबकुछ उसमे भी पूर्ण नहीं, वो भी मिश्रित है, जिसकी सत्ता आये, उस जैसा ढाल ले उसको!" कहा मैंने,
'हां , खैर, दादा श्री पर बताएं?" बोला वो,
"अरे हां! वे चले गए!" कहा मैंने,
"वही हुआ?'' पूछा उसने,
"होना ही था!" कहा मैंने,
"ध्यान में सम्भव है न?" बोला वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"ध्यान कैसे लगाया जाए?" बोला वो,
"ध्यान! विपस्सना!" कहा मैंने,
"हां, आजकल ये विपस्सना या विपश्यना बहुत ज़ोर पर है!" बोला वो!
मैं मुस्कुरा पड़ा!
"बताएं?" बोला वो,
"क्या बीज से ये जाना जा सकता है कि इस से बनने वाला वृक्ष कैसा होगा?" पूछा मैंने,
"कदापि नहीं!" बोला वो,
"ठीक वैसे ही!" कहा मैंने,
"ध्यान?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये ध्यान है क्या?" बोला वो,
"मस्तिष्क में छिपे, नहीं छिपे नहीं! गुंथे हुए कुछ अमूर्त से विचार! उन विचारों को मूर्त करने की सहज प्रक्रिया ये ध्यान है!" कहा मैंने,
"अर्थात?" बोला वो,
"स्पष्ट है!" कहा मैंने,
"सो क्या?'' बोला वो,
"भगवान बुद्ध को निर्वाण प्राप्ति हुई!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"ध्यान लगाने से?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"ज्ञान-प्राप्ति हुई?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"ये ज्ञान कहां से आया? किसी ने सम्भाषित किया? प्रेषित किया?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"तब कहां से?" पूछा मैंने,
"स्वतः ही!" बोला वो,
"स्वतः ही क्या? क्या ज्ञान प्रकट हुआ, या वे स्वतः ही जान सके?" कहा मैंने,
''स्वतः ही शायद?" बोला वो!
"हां!" कहा मैंने,
"ये उनके अंदर ही था?" पूछा उसने,
"सभी के है!" कहा मैंने,
"कैसे जगाया?" पूछा उसने,
"ध्यान से!" बोला मैं,
"क्या ध्यानावस्था एक समान है सभी की?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"चेतना एक समान है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"ध्यान की कुल नौ अवस्थाएं हैं!" कहा मैंने,
"क्या क्या?" बोला वो,
"अनुभव में तीन प्रकार हैं!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"हम जो कुछ भी सीखते हैं वो अनुभव से ही तो सीखते हैं?" कहा मैंने,
"ये तो है!" बोला वो,
"परन्तु सिद्धार्थ को एक बात कचोट गयी थी!" बोला मैं,
"सो क्या?'' बोला वो,
"उस पशु के शिशु को कौन बताता है कि उसकी माँ के सतना शरीर में उधर हैं, और उसको दूध पीना है?" बोला मैं,
"ओह!" बोला वो,
"होता है न ऐसा?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो हम मनुष्यों में ऐसा क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोला वो,
"इस प्रश्न का उत्तर नहीं और लोग चले विपस्सना करने! छाल को छूने से गंध भी नहीं मिलती!" कहा मैंने,
"गंध?" बोला वो,
"क्या गंध?" पूछा मैंने,
"सम्भवतः वो शिशु गंध पहचानता है!" बोला वो,
"नहीं!" बोला मैं,
"तो फिर?" पूछा उसने,
"ये एक सहज-प्रक्रिया है उनमें!" कहा मैंने,
"कैसी प्रक्रिया?" बोला वो,
"पशु विवेकहीन कहे जाते हैं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब, वे ऋतु-स्पर्श होते ही संतति हेतु, सम्भोग हेतु क्यों मदमत्त हो उठते हैं?" बोला मैं,
"इसे शायद फैरामोंस कहते हैं!" बोला वो,
"किसके?" पूछा मैंने,
"मादा के!" बोला वो,
"तो मादा सभी उन्मत्त नरों से सम्भोग करती है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"नहीं जानता!" बोला वो,
"बोल नहीं रहे हो!" कहा मैंने,
"आप अच्छा समझायेंगे!" बोला वो,
"ये भी सहज-प्रक्रिया है!" कहा मैंने,
"अब यहां भी?'' बोला वो,
"हां, वो मादा मात्र उसी नर का चुनाव करती है, जो देह से, मज़बूत, और गुणों में कम नहीं होता!" कहा मैंने,
"ओह! और हम मनुष्य?" बोला वो,
"सबसे पिछड़े हुए!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"स्वयं जांच लो!" कहा मैंने,
"हम्म! समझ गया!" बोला वो,
"हां तो तीन प्रकार हैं, अनुभव के!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अब दूसरा!" बोला मैं,
"बताएं!" कहा उसने,
"अनुभवों को छांटना! मनुष्य बहुल-सोच से पीड़ित होता है!" कहा मैंने,
"ये क्या है?'' बोला वो,
"अनुभवों को अपनी कसौटी पर जांचना!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"चिकित्सक अपनी समझ से दवा देता है!" कहा मैंने,
"हां! ठीक! लक्षणों पर!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"फिर जांच!" कहा उसने,
"ठीक!" बोला मैं,
"फिर निदान-क्रिया!" बोला वो,
''बालचंद्र!" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"समस्त प्रश्न इस संसार तक ही सीमित हैं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और कारण भी!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो उनके उत्तर भी!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो प्रश्न उभरना आवश्यक भी है!" कहा मैंने,
"सत्य!" बोला वो,
"उत्तर खोजना भी!" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"तो सिद्धार्थ के मन में क्या था?" पूछा मैंने,
"प्रश्न!" बोला वो,
"उनके उत्तर?" पूछा मैंने,
"कहीं नहीं मिले!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"वे आहत हो गए!" बोला वो,
"हां! तब?" पूछा मैंने,
"तब?" बोला वो,
"हां! तब! तब उन्होंने समझना आरम्भ किया! क्या?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"इस प्रकृति को!" कहा मैंने,
"स्वाभाविक है!" बोला वो,
"उत्तर मिलते चले गए!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अब, यहीं रोकूंगा, अब शेष तीन प्रकार!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"पहला अनुभव! दूसरा उनकी जांच! और तीसरा है निर्णय!" कहा मैंने,
"निर्णय?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोला वो,
"किसान खेत जोतता है, हल से, हल में श्रम लगता है, किसान का, उन बैलों का!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"और भूमि का!" कहा मैंने,
"भूमि का, श्रम?" बोला वो,
"क्यों?" कहा मैंने,
"किस प्रकार?" बोला वो,
"हल कहां जोतना है, पत्थर में, या रेत में या फिर मुलायम भूमि पर!" कहा मैंने,
"ये तो किसान का विवेक है?" बोला वो,
"हां, एक प्रकार से तो!" कहा मैंने,
"दूसरी प्रकार से?'' बोला वो,
"ये भूमि हमें कृषि देती है, बदल में क्या लेती है?" पूछा मैंने,
"श्रम!" बोला वो,
"हां! जुत कर! उसे भी श्रम करना होता है, बीज को पकड़ कर रखने का! पौधे को, फिर पेड़ को!" कहा मैंने,
"ओह! हां!" बोला वो,
"खेत जोता गया, एक कृमि, मिट्टी से निकला, एक पक्षी ने फौरन पकड़ लिया, ग्रास बना लिया, उस पक्षी को बड़े पक्षी ने और इस प्रकार सबसे बड़े पक्षी ने!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"जीवन से कृमि गया और कुछ पक्षी भी!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"दोष किसका?" पूछा मैंने,
"किसान का!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"खेत जोता उसने!" बोला वो,
"गलत!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
"किसी का नहीं!" बोला मैं,
"कैसे?" बोला वो,
"कृमि का निकलना, स्वतः ही था, और स्वतः ही ये सब होता गया!" कहा मैंने,
"हां! हां!" बोला वो,
"ये सब सिद्धार्थ ने देखा!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"एक बात समझ आ गयी!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"इस संसार में जो भी कुछ होता है, वो एक दूसरे से जुड़ा होता है! पृथक कुछ नहीं होता!" बोला मैं,
"ये तो है ही!" बोला वो,
"अब यदि जन्म लिया है तो मरण भी होगा!" कहा मैंने,
''ये तो अकाट्य-सत्य है!" बोलै वो,
"तो हमारा जीवन आरम्भ होता है जन्म से, अंत होता है इसका मरण पर!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"इस जन्म से मरण तक हम न जाने किस किस से मिलते हैं, देखते हैं, घूमते हैं, कुछ लोग याद रहते हैं और कुछ को हम भूल जाते हैं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"जो याद रहे, वे विशेष रहे!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"अब चूंकि, सब जुड़ा है तो सभी का आना और जाना निश्चित ही हुआ?'' कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"परन्तु वे अब कहते हैं, इस संसार में निश्चित कुछ भी नहीं!" कहा मैंने,
"क्या मतलब?" बोला वो,
"अर्थात, हमारे विचार, अवधारणाएं, विवेचनाएं आदि आदि!" कहा मैंने,
"ये तो सत्य प्रतीत होता है!" बोला वो,
"है भी!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"तो निर्णय की तीन अवस्थाएं या प्रकार!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
"ये तीनों ही चरण, एक साथ, समन्वय नहीं करते! कर पाना असम्भव ही है, परन्तु जो कर लेता है, वो बुद्ध कहलाता है! जैसे महात्मा बुद्ध बने सिद्धार्थ!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"उस विशेष रात्रि ऐसा क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"वे ध्यान अवस्था में थे!" बोला वो,
"नहीं!" बोला मैं,
"फिर?" पूछा उसने,
"सुजाता ने उन्हें खीर दी, वे सब देख रहे थे, वे सब के सब, उनको वृक्ष-देव समझ रहे थे, श्रृंगार से युक्त थी सुजाता और एक वीणा-वादक वीणा बजा रहा था, वो बीच बीच में वीणा के तारों को दबाता, कड़ा करता और ढीला छोड़ देता! ये सब क्या है? मैं क्या भूल करता रहा? क्यों अटका रहा? आज रहस्य समझ आ गया! दो कौर ही खा सके! और वो थाली उन्होंने, समीप बहती निरंजना नदी में बहा दी! स्वर्ण-थाली, कुल-देवता की थाली, बहा दी जल में? सुजाता के पिता क्रोधित हो गए! थाली मांगने लगे! उन्होंने कहा, कि ये थाली आपके कुल-देवता की थी, ठीक, उनसे मांगिये, थाली ऊपर आ जायेगी! खूब चिल्लाये सभी, थाली नहीं आयी! तब वे खड़े हुए और बोले यदि मुझे आज सम्यक ज्ञान की प्राप्ति होगी तो थाली अविलम्ब ऊपर आ जायेगी! थाली ऊपर आ गयी! लौटा दी थाली! और दौड़ लिए! कहते हुए, चिल्लाते हुए, कि इस जीवन की डोर को इतना मत कस दो कि टूट जाए! न इतना ढीला ही छोड़ो जो स्वर ही न दे! मध्यम-मार्ग! वे दौड़े चले आये और उस पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गए! ध्यान गहन होता गया! एक एक कर, उनके मन में छिपी वृतियां बाहर आने लगीं! लालच का देता मार आया, क्या क्या नहीं देना चाहा, मना कर दिया, अपनी सुंदर पुत्रियां दीं काम-भोग हेतु, सिद्धार्थ से छू कुरूप हो गयीं! संसार के समस्त माया छंट गयी! सत्य अवलोकित हो उठा! उस प्रमाद में, उनके अन्तःमन के सभी प्रश्नों के उत्तर स्वतः ही मिलते चले गए! अंतिम बिंदु निर्वाण का प्रकट हुआ, उस बिंदु ने सिद्धार्थ की एकादश परिक्रमाएं कीं और उनमे समा गया! सिद्धार्थ अब बुद्ध हो गए! इस अथाह संसार में उपलब्ध समस्त ज्ञान को जान लिया!" कहा मैंने,
"महात्मा बुद्ध! जय हो!" बोला वो,
"हां, जयघोष!" कहा मैंने,
"परन्तु?" बोला वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"वो थाली? वो कैसे ऊपर आ गयी?" बोला वो,
"सत्य के भार से! विश्वास के भार से, यदि पर्वत से भी मार्ग मांगो तो मिल जाए! इस संसार में मृत कुछ नहीं! कुछ नहीं! मात्र विवेकपूर्ण या पशु, पेड़-पौधे, लताएं, जीवाणु, विषाणु ही प्राणयुक्त नहीं! प्राण सभी में हैं! किसी में किस प्रकार के और किसी ने किस प्रकार के! इसीलिए, कुछ भी कदापि समाप्त नहीं होता, ऊर्जा कदापि नहीं नष्ट होती, रूप बदल लेती है! ऐसे ही पदार्थ भी!" कहा मैंने,
"वैज्ञानिक आधार!" बोला वो,
"विज्ञान सदा से ही सत्य को जांचता आया है! हमें इसकी महत्वता सदैव ज्ञात रखनी चाहिए!" कहा मैंने,
"सो ही सही है!" बोला वो,
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"क्या लेट कर ध्यान नहीं लगाया जा सकता?" कहा मैंने,
"लेकिन ध्यान लगाया कैसे जाए?" बोला वो,
"स्वयं को भूल कर!" कहा मैंने,
"ये तो असम्भव है!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"विचार ही विचार!" बोला वो,
"उनका उन्मूलन करो!" कहा मैंने,
"न हो पाए तो?" बोला वो,
"तब कोई लाभ नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"जब मवेशी घास चरता है भूमि से, तब क्या मिट्टी नहीं खाता? या उसे किरकिरा नहीं लगता?" पूछा मैंने,
"नहीं लगता या नहीं खाता?" बोला वो,
"जब पक्षी उड़ता है तब ऊपर देखता है या नीचे?" पूछा मैंने,
"नीचे!" बोला वो,
"शांत सागर कैसा होता है?" पूछा मैंने,
"गहरा!" बोला वो,
"समझे कुछ?" कहा मैंने,
"कुछ नहीं?" बोला वो,
"हां, क्या खो दोगे?" पूछा मैंने,
"ये जीवन, नहीं?" बोला वो,
"जीवन?" पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"कैसा जीवन?" कहा मैंने,
"क्या कह रहे हो!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"अभी तो जीवन के बारे में बताया?" बोला वो,
"किसका जीवन?" पूछा मैंने,
"मनुष्य का!" बोला वो,
"मनुष्य क्या?" पूछा मैंने,
"एक जीव!" कहा मैंने,
"अन्यों से पृथक?" पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"किस प्रकार?" पूछा मैंने,
"मनुष्य सोच-समझ सकता है!" बोला वो,
"किसने कहा?" कहा मैंने,
"यही तो है?" बोला वो,
"नहीं तो?" बोला मैं,
"क्यों?" बोला वो,
"सोच-समझ ही पाता तो इस भूमि पर कष्ट ही क्यों होते?" बोला मैं,
"सब मनुष्यों के कारण?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"प्राकृतिक आपदा?" बोला वो,
"आपदा?" कहा मैंने,
"भूकंप, भू-स्खलन, बाढ़ आदि! नहीं?" बोला वो,
"प्रकृति से खिलवाड़ क्यों किया?" कहा मैंने,
"कहीं आवश्यक होता है!" बोला वो,
"सीमा तक एक!" कहा मैंने,
"क्या समझूं?" बोला वो,
"उल्लंघन!" कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा उसने,
"करे एक, भोगें सब!" कहा मैंने,
"ये तो है! सच है!" बोला वो,
"बालचंद्र!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"सबकुछ आकस्मिक नहीं होता!" कहा मैंने,
"मृत्यु?" बोला वो,
"कारण!" कहा मैंने,
"हानि?" बोला वो,
"लापरवाही!" कहा मैंने,
"सौ बातों की एक बात!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"ध्यान से क्या लाभ?" बोला वो,
"निर्णय!" कहा मैंने,
"किसका?" पूछा उसने,
"जीवन का!" कहा मैंने,
"सबका?" पूछा उसने,
"स्वयं का!" कहा मैंने,
"अब मैं भटक गया!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कहां जाऊं?" बोला वो,
"कहां जाना है?" पूछा मैंने,
"मुक्ति!" बोला वो,
"रटी-रटाई परिपाटी!" कहा मैंने,
"तो करूं क्या?" पूछा उसने,
"स्थिर हो जाओ!" कहा मैंने,
"अर्थात?" बोला वो,
"कटने दो पाषाण को, प्रश्नों की धारा से!" कहा मैंने,
"मर जाऊंगा!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे कटेगा पाषाण?" बोला वो,
"धारा से!" कहा मैंने,
"कैसी धारा?" बोला वो,
"प्रश्नों की!" कहा मैंने,
"और पाषाण क्या?" बोला वो,
"स्वयं!" कहा मैंने,
"कोई अवरोध?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"धारा रुके नहीं!" कहा मैंने,
"अर्थात?" बोला वो,
"प्रश्न समाप्त नहीं होते!" कहा मैंने,
"नहीं समझा?" बोला वो,
"अर्थात, एक प्रश्न का उत्तर मिले तो दूसरा उठ खड़ा होगा, फिर तीसरा, फिर चौथा और ऐसे ही निरंतर ये अनवरत चक्र चलता रहेगा!" कहा मैंने,
"उत्तर मिलते जाएंगे?" बोला वो,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"कहीं रुक गए तो?" बोला वो,
"दिशा न बदले बस!" कहा मैंने,
"हां! सही कहा!" बोला वो,
"आकाश में टूटा तारा देखा है?" पूछा मैंने,
"हां, कई बार!" बोला वो,
"वो टूटता है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्या होता है?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता पक्का!" बोला वो,
"छिटक जाता है परिक्रमा से, गुरुत्वहीन हो कर!" कहा मैंने,
"हां! हां यही तो है!" बोला वो,
"फिर वो शेष नहीं रहता!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"उसका तेज, रंग, टिमटिमाहट सब समाप्त हो जाती है, धूल के कणों में बदल जाता है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"उसकी धूल से नव-सृजन होता है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"इसका क्या अर्थ हुआ?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"मनुष्य का अस्तित्व क्षणिक है, यश, अपयश, धन, निर्धनता, दया, करुणा, क्रूरता आदि का उसके संग ही नाश हो जाता है!" कहा मैंने,
"हो ही जाएगा!" बोला वो,
"शेष क्या रहा?" पूछा मैंने,
"उसका नाम!" बोला वो,
"मात्र नाम ही न!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"और कुछ?" पूछा मैंने,
"उसकी आत्मा!" बोला वो,
"आत्मा?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"आत्मा कैसे?" पूछा मैंने,
"वही तो बस रही थी उसमे?" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"आत्मा नहीं!" कहा मैंने,
"तो फिर?" बोला वो,
"मात्र जड़-चेतन!" कहा मैंने,
"तब ये आत्मा?" बोला वो,
"इसी को आत्मा भी कहते हैं!" कहा मैंने,
"नहीं समझा!" बोला वो,
"बताता हूं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"शिशु जब तक न रोये, माता दूध नहीं पिलाती!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"पौधा न सूखे तो जल की आवश्यकता नहीं दीखती!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"पीर जब तक अपनी न हो, महसूस नहीं होती!" कहा मैंने,
"सत्य है!" बोला वो,
"तब ये आत्मा मात्र जड़-चेतन में ही क़ैद हुए रहती है! आत्मा एक प्रकार की ऊर्जा है, जो निरंतर इस देह रूपी पिंजरे से फुर्र होने के बहाने ढूंढती रहती है! ये किसी की सगी नहीं! ये किसी की नहीं! ये तो ईश्वर की भी नहीं!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
मैं मुस्कुराया और.........
"क्यों बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी!" बोलै वो,
"ये आत्मा तो ईश्वर की बात भी काट देती है! उसकी भी सगी नहीं!" कहा मैंने,
"आने लगा है समझ!" बोलै वो,
"जो सगी हो, तो कल्याण कहां दूर!" कहा मैंने,
"अकाट्य सत्य!" बोला!
"ये तो भागती है उस से दूर!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"जो सामने आये तो ही कुछ हो?" कहा मैंने,
"सामने क्यों नहीं आती?" बोला वो,
"चूंकि ये गंतव्य तक पहुंचना ही नहीं चाहती!" कहा मैंने,
"सो क्यों?" बोला वो,
"रस! प्रमाद! आनंद की खोज! सुख!" कहा मैंने,
"हां, सत्य!" बोला वो,
"ये तो जैसे एक एक पड़ाव में सब भोगना चाहे!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो इसे गंतव्य तक कौन ले जाएगा?" पूछा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"साधन!" कहा मैंने,
"कैसा?" बोला वो,
"द्रुत-गति!" बोला वो,
"किसकी?" पूछा उसने,
"मन की!" बोला मैं!
"लाभ?" बोला वो,
"ताकि मन कुछ गंध ही न ले सके!" कहा मैंने,
"गंध?" बोला वो,
"स्थिरता!" बोला मैं,
"अभी तो आपने कहा कि स्थिर हो जाओ?'' बोला वो,
"हां, कहा!" कहा मैंने,
"ये क्या अर्थ हुआ?" बोला वो,
"स्थिर, आप हो जाओ! आप!" कहा मैंने,
"कौन आप?" बोला वो,
"आप!" कहा मैंने,
"लेकिन क्या आप?" बोला वो,
"आप स्वयं!" बोला मैं,
"नहीं समझा!" बोला वो,
"क्यों नहीं समझे?" कहा मैंने,
"कोई गूढ़ अर्थ है!" बोला वो,
"हां, सगूढ़!" कहा मैंने,
"क्या आप?" बोला वो,
"स्थिर हो जाओ आप इस प्रकृति में!" बोला मैं,
"मतलब आत्मा हमारी?" बोला वो,
"आत्मा?" पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"आत्मा तो स्वामी है!" बोला मैं,
"स्वामी?" बोला वो,
"आपका स्वामी! आप दास जो ठहरे उसके!" कहा मैंने,
"हे ईश्वर! ये क्या जान रहा हूं?" बोला वो,
"एकज्ञ ज्ञान!" कहा मैंने,
"ये कौन सा ज्ञान है?" बोला वो,
"भीतरी!" कहा मैंने,
"भीतरी?" बोला वो,
"हां, सभी के भीतर है!" बोला मैं,
"तो सम्मुख क्यों नहीं आता?" बोला वो,
"आता है!" कहा मैंने,
"कब?" बोला वो,
"हमेशा!" कहा मैंने,
''सच बताएं?" बोला वो,
"हां, बता रहा हूं!" कहा मैंने,
"आत्मा यदि हमारा स्वामी, तो हम क्या?" बोला वो,
''दास!" कहा मैंने,
"ये दास कौन?" बोला वो,
"हवा में उड़ता पत्ता, सूखा!" कहा मैंने,
"उसका होगा क्या?" बोला वो,
"सड़ जाएगा!" कहा मैंने,
''फिर?'' बोला वो,
"समाप्त नहीं होगा, उर्वरक बन जाएगा!" कहा मैंने,
"पोषित तो करेगा?" बोला वो,
"यदि गुण रहे तो!" बोला मैं,
"क्या?" बोला वो,
"सूखेगा दुःख के साथ तो वही ज़्यादा, जिसमे जल अधिक होगा!" कहा मैंने,
''हां! हां! सत्य!" बोला वो,
"और ये जल हमारा अस्तित्व!" बोला वो,
''समझ गए!" कहा मैंने,
"आत्मा तो उड़ जायेगी! वाष्प सी!" बोला वो,
"हां, और शेष, रह जाएगा, शेष कौन? ये दास! ये दास कौन? हमारी देह! देह क्या? अवरोध! अवरोध क्या? जिसके पार गंतव्य है! गंतव्य क्या?" कहा मैंने,
"और गंतव्य?'' बोला वो,
"बालचंद्र!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"इस गंतव्य पर पहुंचने के लिए एक बड़ा ही संकीर्ण सा मार्ग मिलेगा!" कहा मैंने,
"संकीर्ण?" बोला वो,
"हां, संकीर्ण!" कहा मैंने,
"तब?" बोला वो,
"इस मार्ग के दोनों तरफ एक एक दीवार होगी!" कहा मैंने,
"कैसी दीवार?" बोला वो,
"एक उजाले की और एक अंधेरे की!" बोला वो,
"उस से तात्पर्य?" बोला वो,
"किसका सहारा लेते हो!" कहा मैंने,
"अर्थात, उजाले का, या अंधेरे का!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"अंधेरा पकड़ा तो?" बोला वो,
"तो लौटना होगा!" कहा मैंने,
"कहां?" पूछा उसने,
"जहां से चले थे!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"और बालचंद्र?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"इन दीवारों में कुछ झरोखे होंगे!" कहा मैंने,
"किसलिए?'' बोला वो,
"उजाले की दीवार से झांकोगे तो घुप्प अंधेरा, परन्तु असीम शांति मिलेगी, दिखेगी!" कहा मैंने,
"और अंधेरे से?" बोला वो,
"उस से झांकोगे तो उजाला दिखेगा, उसमे अपने प्रियजन! धन! ऐश्वर्य! समस्त साधन! सुंदरियां आदि दिखेंगी!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बड़ा ही विकट है!" बोला वो,
"या तो लौट जाओ!" कहा मैंने,
"या आगे बढ़ जाओ!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये मार्ग सीधा है?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कोई अवरोध नहीं?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कोई रोकेगा नहीं?" बोला वो,
"जब तक तुम न रुकोगे!" कहा मैंने,
"न रुके तो?" बोला वो,
''तो गंतव्य!" कहा मैंने,
"रुक गए तो वापिस!" बोला वो!
"हां!" कहा मैंने,
"तो?" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"तो?'' कहा उसने दुबारा!
"हमारा क्या औचित्य?" बोला वो,
"है न!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"लालच!" कहा मैंने,
"कैसा?" पूछा उसने,
"श्रेष्ठतम होने का!" कहा मैंने,
"किस प्रकार?" बोला वो,
"यहां आत्मा दास हो जायेगी!" कहा मैंने,
"सच?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"मन शांत हो, स्थिर हो जाएगा!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"फिर शान्ति!" कहा मैंने,
"इस शांति में?'' बोला वो,
"साक्षात्कार!" कहा मैंने,
"ईश्वर से?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"स्वयं से!" कहा मैंने,
''स्वयं से?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"अब यहां स्वयं क्यों?" बोला वो,
"वो स्वयं, ये स्वयं नहीं, वो बीता हुआ है, जो दास था!" कहा मैंने,
"हे मेरे ईश्वर!" बोला वो,
"तो ये बीता हुआ स्वयं क्या है बालचंद्र, कौन है?" पूछा मैंने,
"कौन?" बोलै वो, हैरान था बहुत!
"ये वही है जो दास था!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"वही दास, जो इस आत्मा का दास था, अब नहीं रहा, अब वो लौट रहा है!" कहा मैंने,
"और ये?'' बोला वो,
"ये वो है, जो अब मुक्त हो गया उस दासता से!" कहा मैंने,
"क्या यही निर्वाण है?'' पूछा उसने,
"निर्वाण मात्र एक शब्द है!" कहा मैंने,
"अवस्था नहीं??" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"अवस्था क्यों नहीं?" बोला वो,
"क्योंकि, उस मुक्त स्वयं में अभी भी चेतना जीवित है!" कहा मैंने,
"ये तो देवत्व ही हो गया?" बोला वो,
"कहा जा सकता है!" कहा मैंने,
"आपने अन्धकार हटा दिया!" बोला वो,
"कोई अन्धकार नहीं हटाता!" कहा मैंने,
"आपने हटाया!" बोला वो,
"आपने हटाया!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"यही है!" कहा मैंने,
"इस स्वयं को, अब मृत्यु नहीं आएगी! मृत्यु न होगी तो जन्म का मूल नाश हो जाएगा! अर्थात, अब जन्म न होगा!" बोला वो,
"न होगा?'' बोला वो,
"ना!" कहा मैंने,
"तब ये स्वयं कहां वास करेगा?" बोला वो,
"वास मात्र आश्रितों का होता है!" कहा मैंने,
"अर्थात?'' बोला वो,
"जब सभी कारण समाप्त हो जाएं तो प्रश्न भी स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे, ऐसा होने से, मात्र सत्य ही रह जाएगा!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"फिर आपकी चेतना, आपके साथ ठोस रूप में रहेगी!" कहा मैंने,
"ठोस?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"किस प्रकार की ठोसता?" बोला वो,
"जड़ता की!" कहा मैंने,
"अर्थात प्रकृति सहित?'' बोला वो,
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
"क्या ये बुद्धावस्था है?'' बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"यही हो, तो सभी बुद्ध न हो जाएं?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब ये क्या है?" पूछा मैंने,
"ये, लोच-अवस्था है!" कहा मैंने,
"लोच?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"प्रेतावस्था?'' वो बोला,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब क्या?'' बोला वो,
"मनुष्यता का उच्च-रूप!" कहा मैंने,
"समझ गया! समझ गया!" बोला वो,
''तब कोई छू नहीं पायेगा!" कहा मैंने,
"ये कैसी छुअन?" बोला वो,
"अवगुण!" कहा मैंने,
"ओह!" कहा उसने,
"समझे?" कहा मैंने,
"बहुत कुछ समझा, लेकिन बहुत कुछ और खुद गया!" बोला वो,
"ये ही तो सूचक है!" कहा मैंने,
"मैं तो अपने में नहीं!" बोला वो,
"तो निकल जाओ!" कहा मैंने,
"सरल नहीं!" बोला वो,
"बनाओ!" कहा मैंने,
"हाथ रखो!" बोला वो.
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला चौंक कर!
"नहीं!" कहा मैंने,
"धारण कर लो!" बोला वो,
"नहीं कर सकता!" बोला मैं,
"क्या विवशता?" बोला वो,
"मैं स्वयं ही अभी शिष्य हूं!" कहा मैंने,
"मैं कनिष्ठ सही?" बोला वो,
"सम्भव नहीं!" बोला वो,
"दया!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ये हत्या है!" बोला वो,
"सर माथे मेरे नहीं!" कहा मैंने,
"ऐसा न करिये!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"दया!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कभी समय दें?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"चर्चा हेतु?" बोला वो,
"बस!" कहा मैंने,
"अब?" बोला वो,
"कल का कार्यक्रम!" कहा मैंने,
"सो तो है ही!" बोला वो,
"बस अब और नहीं!" कहा मैंने,
"आप कनखल आये हैं?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"एक अवसर दें?" बोला वो,
"आया तो!" कहा मैंने,
"मैं वहीं हूं!" बोला वो,
"बताया आपने!" कहा मैंने,
"आप, आप न बोलें!" बोला वो,
"क्यों?" बोला वो,
"नहीं, मैं इस योग्य नहीं!" बोला वो,
"ऐसा नहीं है!" कहा मैंने,
"सच बोलता हूं!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"टीका लगाने से, माथा रंगने से, मालाएं पहनने से, आप अलग तो दीख सकते हैं पर वो नहीं हो सकते जो होना चाहिए!" बोला वो,
"सत्य कहा!" कहा मैंने,
"अब समझ गया हूं!" बोला वो,
"जब नदी में, एक छोटी लकड़ी तैरती है, टूटी हुई तब, वो बहुत तेज बहती है! और उस बड़े शहतीर का उपहास उड़ाती है की देख! मैं कितनी तेज!" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"वो बड़ा सा शहतीर, कुछ नहीं कहता! बहता चला जाता है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"वो छोटी लकड़ी, अचानक से एक भंवर में फंस जाती है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"भंवर उसे अंदर लीलने लगती है! दिशा भ्रम हो जाता है, टूटने लग जाती है, कोई कोई टूट जाती है और कोई कोई बच जाती है! जो बच जाती है, उसका रंग-रूप और स्वभाव बदल जाता है!" कहा मैंने,
"स्वभाव? कैसे?'' बोला वो,
"उसे छोटे छोटे छिद्रों में जल भर जाता है, भारी हो जाती है!" कहा मैंने,
"हां!" कहा मैंने,
"तब, उस बड़े शहतीर के पास से गुजरती है, बड़े शहतीर की काय से जल का स्तर थोड़ा सा नीचे होता है, चूंकि वो जल को नीचे धकेलता है और जल उसे ऊपर, फलस्वरूप वो तैरने लगता है, तब उस खाली से स्थान के लिए वो छोटी सी लकड़ी तड़प उठती है की सहारा मिले!" बोला मैं,
"क्या मिलता है?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोला वो,
"वो छोटी लकड़ी अब दोहरी मार झेलती है!" कहा मैंने,
"दोहरी?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"अपना संतुलन गंवाती है और उस बड़े शहतीर से टकरा टकरा अपना एक एक अंश समाप्त करती चली जाती है!" कहा मैंने,
"हां, यही होता है!" बोला वो,
"उसके टुकड़े हो, किनारे आ लगते हैं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"फिर वो छोटी लकड़ी?" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"वो कहां गयी?" पूछा मैंने,
"वो नहीं गयी, टुकड़े हो गयी!" बोला वो,
"वो क्यों टूटी?" पूछा मैंने,
"कच्ची थी!" बोला वो,
"और वो शहतीर?" पूछा मैंने,
"आसरा!" बोला वो,
"एकदम सही!" कहा मैंने,
"समझ गया हूं!" बोला वो,
"टूटेगा वही जो कच्चा होगा! उसकी मर्ज़ी के बगैर ही, उसके अंश हो जाएंगे! बिखर जाएंगे! कोई कहीं जा लगेगा, कोई कहीं!" कहा मैंने,
"सत्य!" बोला वो,
"ये शहतीर, हमारी देह है! और मन, वो छोटी लकड़ी! नदी समय है! समय कदापि नहीं रुकता! वो सदा आगे ही बढ़ता चला जाता है!" कहा मैंने,
"सत्य कहा!" बोला वो,
"पार ये देह तो लगेगी नहीं?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"शहतीर भी टूटेगा!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"परन्तु, कई प्रकार की धाराओं का सामना कर!" कहा मैंने,
"हां!" कहा मैंने,
"छिपा हुआ!" बोला वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"कहां है?" बोला वो,
"सर्वत्र तो!" कहा मैंने,
"तो दीखता क्यों नहीं?" बोला वो,
"देखते क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"कैसे देखूं?" बोला वो,
"नेत्र खोलो!" कहा मैंने,
"कैसे खुलें?" बोला वो,
"प्रयास तो करो?" कहा मैंने,
"सफल नहीं होता!" बोला वो,
"सुनो!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"इतिहास की ज्ञानी नहीं सोचता! जो बीत गया सो गीत गया! वो नहीं लौटेगा! बस उस से सीख मिल सकती है, कर्मयोगी भविष्य की चिंता नहीं करते! क्यों? क्योंकि, आज के वर्तमान से ही कल का भविष्य तय होता है!" कहा मैंने,
"ये सब इतना सरल कहां?" बोला वो,
"गंतव्य को ध्यान में रखो!" बोला वो,
"भविष्य?" बोला वो,
"किस वृक्ष पर कौन सा फल आएगा, ये जान सकते हो, कब आएगा, ये जाना जा सकता है, फल का स्वाद कैसा होगा, ये नहीं जाना जा सकता!" कहा मैंने,
"तो कैसे जानें?" बोला वो,
"वृक्ष को देखो!" कहा मैंने,
"उसमे?'' बोला वो,
"किस मिट्टी में लगा है ये देखो!" कहा मैंने,
"और?'' बोला वो,
"किस प्रकार की पवन उसे मिलती है, ये देखो!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोला वो,
"उसके फूल देखो!" कहा मैंने,
"उनमें क्या?'' बोला वो,
"हल्का हो, तो फल सूखा होगा! कली मोटी हो, तो फल उत्तम होगा, सूर्योन्मुख रहे तो अवश्य ही मधुर रहेगा!" कहा मैंने,
"और मिट्टी?" बोला वो,
"उसकी जड़ों का पता चलेगा!" कहा मैंने,
"यही क्या छिपा है?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"उत्तमता क्या है?" बोला वो,
"जिसका कोई सानी न हो!" कहा मैंने,
"मिठास?" बोला वो,
"जो स्वयं न बताये!" बोला मैं!
"कड़वा?" बोला वो,
"सुसज्जित!" कहा मैंने,
"ओह! समझ गया!" बोला वो,
"प्रकृति में, चटख, रंग-बिरंगी प्रकृति क्यों अधिकांश विषैली होती हैं?" पूछा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"ताकि स्वभाव बता सके!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"जिस से उसकी रक्षा हो!" कहा मैंने,
"सो ही!" बोला वो,
"ऐसे ही जीव!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
"तो सब यहां है!" कहा मैंने,
"परन्तु मार्गदर्शन?" बोला वो,
"क्या इंद्रियां सुखों के लिए ही हैं?" पूछा मैंने,
"अर्थात?" बोला वो,
"बिन जले अग्नि का गुण नहीं पता चलता!" कहा मैंने,
"सत्य!" बोला वो,
"बिन पीर उभरे पीर भी नहीं!" कहा मैंने,
"बिन शीतल हुए, कैसी शीतलता!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बिन काम-भोग, कैसा काम-सुख?" कहा मैंने,
"सत्य!" बोला वो,
"बिन यश भोगे, अपयश से भय कहां!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बिन सुलगे, सुलगन भी नहीं जांच सकते!" कहा मैंने,
"अकाट्य सत्य!" बोला वो,
"सत्य! सत्य!" बोला वो,
"कुछ अंश हैं ये बालचंद्र!" कहा मैंने,
"मेरे लिए तो मेघ से कम नहीं!" कहा उसने,
"अच्छा है!" कहा मैंने,
"आप कनखल आइये ज़रूर!" बोला वो,
"हां, आया तो!" कहा मैंने,
"अवश्य ही आइये!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
तभी बत्ती ने झटका खाया और चली गयी! हर तरफ गहन अन्धकार छा गया! क्या अंदर और क्या बाहर! हां, तारों का प्रकाश अवश्य ही नज़र आ रहा था, या शर्मीले से चांद, आज घूंघट में छिपा दिए गए थे उनकी सेविकाओं द्वारा! अठखेलियां कर रही थीं शायद उनके साथ!
"आप बैठे रहिये!" बोला वो,
और उठ गया, मुझे आभास हुआ कि पीछे की तरफ चला था वो, फिर कुछ ही पलों के बाद, माचिस की आवाज़ हुई, झक्क से एक तीली जली और प्रकाश फ़ैल गया! उसने उधर रखी वो मोमबत्ती जला दी, अब कमरे में प्रकाश फ़ैल गया था! फिर वो आकर बैठ गया वहीं!
"जाने क्या बात हुई?" बोला वो,
"ईंधन नहीं होगा!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" कहा उसने,
तभी बत्ती ने झटके से खाये और जनरेटर चलने आवाज़ आयी! और बल्ब जल उठे!
"वही होगा!" बोला वो,
उठा और मोमबत्ती बुझा दी, फूंक मार कर!
"समय क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"साढ़े ग्यारह!" कहा मैंने,
"भोजन करोगे?" बोला मैं,
"आएगा अभी!" बोला वो,
"कहीं सो न गया हो!" कहा मैंने,
"नहीं, मैं लाता हूं!" बोला वो,
उठा और चला गया बाहर!
कुछ ही देर में आ गया, वो लड़का भोजन ले आया था, भोजन किया, निबटे, हाथ-मुंह धोये और मैं चल पड़ा, अब सुबह ही मिलना था, अपने कमरे में आया, भूपाल जी से कुछ बात हुई दो चार सवाल और फिर मैं भी सो गया!
सुबह नहा-धो कर तैयार हो गया था मैं, भूपाल जी को सब बता दिया था मैंने, उन्होंने भी हां कर दी थी, मैं उसी समय चल पड़ा बालचंद्र के पास, वहां पहुंचा और फिर चाय आदि पी हमने!
"चलें?" बोला मैं,
"खबर आएगी!" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"लड़का आये?" बोला वो,
"तब ठीक!" कहा मैंने,
कुछ बातें हुईं और पंद्रह मिनट में वो लड़का भी आ गया!
"चलें?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
और हम चल पड़े!
दिशि के पास आये तो दो और सहायक से खड़े थे, उनसे नमस्कार हुई, और कुछ देर बार दिशि भी आ गयी! नमस्कार हुई!
"हम संध्या से पहले आएंगे!" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ भूले तो नहीं?" बोली वो,
"सब है!" कहा मैंने,
"चलो!" बोली वो,
और हम चल पड़े!
दिशि के साथ एक और महिला थी, कुछ सामान था, बाकी सामान सहायकों ने उठा रखा था!
"कितना समय?" पूछा मैंने,
"दो घटे!" बोला बालचंद्र,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"नदी पार करते ही!" बोला वो,
"दूर है?" पूछा मैंने,
"ज़्यादा नहीं!" बोला वो,
सुबह का शांत सा माहौल था, खुशगवार!
"तुम कब आये थे?" पूछा मैंने,
"पहले?" बोला वो,
"हां?" पूछा मैंने,
"दो महीने!" बोला वो,
"काफी समय से हो यहां!" कहा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"ये इतनी बड़ी खोज होगी, यदि पूर्ण हुई तो, क्या इसके बारे में सरकार को अवगत नहीं करवाया गे?" पूछा मैंने,
"आचार्य जी ने किया था!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"सब ढुलमुल रवैय्या!" बोला वो,
"सो तो है!" कहा मैंने,
"बोले कुछ पुख्ता सबूत लाइए!" बोला वो,
"सबूत तो हैं?" बोला मैं,
"फिर ये भी हाथ से जाएं!" बोला वो,
"ये कही न बात!" कहा मैंने,
"इसीलिए, सोचा कुछ पुख्ता मिल जाए तब ही कुछ बताएं!" बोला वो,
"हां!" बोला मैं,
"तब तक तो जेब की ही गुल्लक खुली है!" बोला वो,
"हां, पैसा तो लगता ही है!" कहा मैंने,
हम ऐसे ही बातें करते करते नदी तक आ गए, नदी कई जगह पर सूखी सी थी, वहीं से पार करने लगे!
"बरसात में तो उफ़न जाती होगी?" कहा मैंने,
"बहुत!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हां, तब आसपास के गांव वाले यहीं आ धमकते हैं!" बोला वो,
"गांव वाले?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"ये नदी बहुत कुछ बहा के लाती है!" बोला वो,
"क्या बहुत कुछ?" पूछा मैंने,
"भांड!" बोला वो,
"मृद-भांड?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"उनमे क्या?" पूछा मैंने,
"किसी में कुछ और किसी में कुछ!" बोला वो,
"सोना?" कहा मैंने,
"हां, सोना, चांदी, मनके!" बोला वो,
मैं तो सन्न रह गया!
"लाती कहां से है?" पूछा मैंने,
"आसपास के बहते हुए गाद के संग!" बोला वो,
"पहाड़ों से?" पूछा मैंने,
"शायद!" बोला वो,
"ज़मीन में गड़ा हुआ होता होगा?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कुछ देखा कभी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"बांस!" बोला वो,
"बांस?" पूछा मैंने,
"हां, बांस में भरे सोने के मनके!" बोला वो,
"क्या??" पूछा मैंने, मैं दुबारा सन्न!
"किसी राजघराने के?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"पता नहीं किसका है!" बोला वो,
"और भी कुछ?" पूछा मैंने,
"मालाएं!" बोला वो,
"सच?" बोला मैं,
"हां?" कहा उसने,
"किसी ने खोज नहीं की?" पूछा मैंने,
"बीयाबान है!" बोला वो,
"नदी का मार्ग?" पूछा मैंने,
"गहन जंगल से!" बोला वो,
"मतलब पहुंच से बाहर?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या अजीब मामला है!" बोला मैं,
"कई कई बार तो अस्थियां, नर-मुंड भी!" बोला वो,
"नर-मुंड?" मैंने चौंक कर पूछा!
"हां!" बोला वो,
"मुंडेश्वरी!" कहा मैंने,
"इसी पर नाम हो शायद!" बोला वो,
"वहां?" बोली एक महिला,
मैंने देखा उधर!
"आते हैं!" बोला बालचंद्र!
"यहां तो एक नहीं अनेकों रहस्य हैं!" बोला मैं,
"अभी देखना आप!" बोला वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
और हम उस महिला की तरफ बढ़ चले!
उस महिला के पास तक आये हम, वो एक पेड़ों वाली घनी सी जगह थी, मुश्किल बा-मुश्किल अभी कोई डेढ़ या दो घंटे ही गुजरे होंगे, अभी से ही गरमी और नमी महसूस होने लगी थी!
"थोड़ा बहुत खा लिया जाए?" बोली वो,
"हां!" कहा बालचंद्र ने,
और हम एक जगह, अपने अपने रुमाल बिछा कर बैठ गए!
"वो सामने जो पहाड़ियां हैं, वहां जाना है?'' पूछा मैंने,
"हां, उस से थोड़ा अलग!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"वहीं पास ही!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"वैसे एक बात कमाल की है!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"यहां कोई न कोई तो रहा ही करता होगा?" बोला वो,
"मतलब कोई लोग?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"हां, तभी तो वो सोना-चांदी!" कहा मैंने,
"कौन होगा उस जंगल में!" बोला वो,
"रहता होगा?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"लोग बड़े जीवट वाले रहे हैं!" कहा मैंने,
"सो तो ठीक है!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"जीवन के लिए, जल, भोजन और छत आवश्यक है!" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"वो नदी तो है!" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"भोजन भी, जंगल आदि से!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"तब उनका कोई खंडहर भी नहीं?" बोला वो,
"सम्भवतः बाढ़ में बह गया हो?" पूछा मैंने,
"कोई चिन्ह?" बोला वो,
"वो गुफाएं?" कहा मैंने,
"अब नहीं हैं!" कहा उसने,
"कभी तो होंगी?" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोला वो,
"हो सकता नहीं, यही होगा!" कहा मैंने,
"अब एक मुख्य बात!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"जिसका उत्तर नहीं मिल सका!" बोला वो,
"क्या है?'' पूछा मैंने,
"यहां स्वर्ण-रजत के वस्तुएं बहती आती हैं!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"स्वर्ण, कहीं अधिक!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तो ये स्वर्ण उनके पास आया कैसे?" बोला वो,
मैं चुप हो गया! अब इसका क्या उत्तर हो? आया तो कहां से आया, आया तो होगा ही!
"बताओ?" बोला वो,
"क्या कहना चाहते हो?" बोला मैं,
"उत्तर नहीं मिला?'' बोला वो,
"हां, समझ लो!" कहा मैंने,
"अगर कहूं कि लूटा हुआ स्वर्ण है, तो किसका? इतना स्वर्ण किसी का, किसी राज्य का जाएगा लूट में, तो निश्चित ही सैनिक-कार्यवाही होगी!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"जो मृद-भांड हैं, वे भी पक्के हैं!" बोला वो,
"मतलब पकाये हुए?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"मतलब पूरा गांव सा!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"लुटेरों का गांव?" पूछा मैंने,
वो हंस पड़ा!
"अरे नहीं जी!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"आपने कीमियागारी सुनी है?" बोला वो,
"हां! एक मिनट! एक मिनट!" कहा मैंने,
और अब सीधा बैठ गया!
"कीमियागारी?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और यहां कीमियागारों का गांव?'' बोला मैं,
"कोई मुश्किल है क्या?'' बोला वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"सामग्री!" कहा मैंने,
"और यहां सब हो तो?" बोला वो,
