वर्ष २००९, एक साधना...
 
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वर्ष २००९, एक साधना, अक्षुण्ण भार्या वेणुला!

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श्रीशः उपदंडक
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"आप ही बताएं!" कहा उसने,
"एक बात बताओ?" कहा मैंने,
"जी, पूछें!" बोला वो,
"ज्ञान अर्जित करना, इसका क्या अर्थ हुआ?'' पूछा मैंने,
"मतलब, जो बताया जाता है उसको सीखना!" कहा मैंने,
"और बताया क्या जाता है?" पूछा मैंने,
"जैसा पुस्तकों में लिखा है!" बोला वो,
"ज्ञान के प्रकार क्या हैं??" पूछा मैंने,
"इसके भी प्रकार हैं?" बोला वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"कौन से हैं?" पूछा उसने,
"बताता हूं!" कहा मैंने,
"अवश्य!" कहा उसने,
"शाश्वत ज्ञान! ये पहला प्रकार है!" कहा मैंने,
"इसकी विशेषता?" बोला वो,
"सार्वभौमिक ज्ञान या सत्य! प्रकतिप्रदत्त सत्य!" कहा मैंने,
"आया कुछ समझ!" बोला वो,
"जैसे, हम ब्रह्माण्ड में स्थित है! हमारा ग्रह सूर्य की परिक्रमा करता है! सौर परिवार, मुख्यतः नौ ग्रहों वाला, आधुनिक विज्ञान के अनुसार आठ ग्रहों वाला है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"जल गीला करता है, स्वच्छ करता है, कृषि हेतु आवश्यक है, जल बिना जीवन नहीं! सभी प्राणी जल ग्रहण करते हैं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अग्नि का स्वभाव, दहन है, ये ताप उत्पन्न करती है, इसके बिना सृजन असम्भव है! इसके असंख्य कार्य हैं, ये जहां सृजन करती है, वहीं विध्वंस का कारक भी है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"श्वास हेतु, वायु आवश्यक है! इसके घटक अलग अलग हैं, मिश्रित हो, श्वास-वायु का निर्माण करते हैं और हमारा हृदय स्पंदित होता रहता है!" कहा मैंने,
"और?'' बोला वो,
"ऐसे और भी हैं, जैसे स्त्री एवं पुरुष के समागम के अतिरिक्त कदापि संतान उत्पन्न नहीं हो सकती! आदि आदि!" कहा मैंने,
"और?'' बोला वो,
"अघटित ज्ञान!" कहा मैंने,
"अघटित?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये क्या?" बोला वो,
"वो जो होता ही नहीं, परन्तु माना जाता है!" कहा मैंने,
"जैसे?" बोला वो,
"दिन और रात! वस्तुतः, दिन और रात कदापि नहीं होते, ये पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न उजियारा-पक्ष और अँधियारा पक्ष होता है, मात्र पृथ्वी पर ही, सूर्य कदापि लोप नहीं होता, अतः न ही उदय होता है और न ही अस्त!" कहा मैंने,
"सत्य! सत्य!" बोला वो,
"किसी की हत्या करना, वध करना, चोरी करना, डकैती मारना, छल करना, विश्वासघात करना आदि आदि से उत्पन्न हुए सभी संभावित फल, अघटित होते हुए भी मूर्त मान लिए जाते हैं! जबकि, ये सत्य नहीं!" कहा मैंने,
"सत्य नहीं?" बोला वो,
''हां! हत्या, परिस्थिति वश भी आवश्यक है, जैसे आत्म-रक्षा, देश-रक्षा आदि आदि! वध, सदैव सम्मुख ही ललकार कर होता है! वध, किसी निहत्थे का, विक्षिप्त का, अशक्त का, भयाक्रांत का, स्त्री का नहीं हो सकता! चोरी, डकैती भी आवश्यक है, गुप्तचर का कार्य यही है, छल-विद्या, युद्ध-विद्या का ही एक अंग है! उसी प्रकार विश्वासघात भी! ये कर्म, कड़वे लगते हैं, परन्तु परिस्थिति, कालवश आवश्यक भी हो उठते हैं!" कहा मैंने,
"अत्युत्तम!" बोला वो,
''तृतीय है, सैद्धिक ज्ञान! अर्थात, गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान! ज्ञान और शिक्षण, इनमे अंतर् है! मित्रगण, तनिक बताएं क्या मूलभूत अंतर है इनमे! किसी सिद्ध-पुरुष द्वारा प्रदत्त ज्ञान, जो कदापि गलत नहीं होता और परखा भी नहीं जाता, या आजमाया भी नहीं जाता! कुंती और कर्ण, इसका उदाहरण हैं!" कहा मैंने,
"बहुत ही उचित विश्लेषण!" बोला वो,
"बालचंद्र!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी?" बोला वो,
"ये ज्ञान, अत्यंत महत्वपूर्ण है, इसमें गलती की कोई गुंजाइश शेष नहीं रहनी चाहिए, अधपका-ज्ञान यहीं से उपजता है! चाहे मनन करो, चाहे चिंतन, चाहे कंठस्थ करो और चाहे, रट ही लो! ये ज्ञान सबसे अधिक कारगर एवं योग्यता प्रदान करने वाला है! इसी कारण से, श्री गुरु श्री को उच्चस्थ स्थान प्रदान किया जाता है! श्री गुरु, सभी को समान ज्ञान ही बांटता है, किसी को अछूता नहीं छोड़ता! उसके लिए सभी ज्ञानार्थी समान होते हैं! किसी में भेदभाव नहीं करता! इसी कारण से, इस ज्ञान को ऊंचा स्थान दिया जाता है!" कहा मैंने,
"यही है श्री गुरु रहस्य!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"और?" बोला वो,
"इसके बाद, आता है चतुर्थ ज्ञान, इसे फलदायी ज्ञान कहते हैं! जैसे, कोई भी माता-पिता अपने पुत्र या पुत्री को सदा ही सदाचारी बनने का ज्ञान देता है! अपने अनुभवों के आधार पर, जीवन की सीढ़ियां किस प्रकार चढ़ी जायें, वो सब बताता है! माता-पिता के अतिरिक्त, कोई अन्य वृद्ध या कोई भी सतज्ञानी ही हो, सदैव ऐसे ही कर्म करने को कहता है, जिसका फल, सदा ही शुभ रहता है! उस उक्त कर्म के करने से, क्या फल प्राप्त होगा, यही इस फलदायी ज्ञान में अंतर्गत आता है!" कहा मैंने,
"अत्यंत ही ज्ञानवर्धक!" बोला वो,
"और उसके बाद, पंचम ज्ञान, ये ज्ञान वैद्यिक-ज्ञान है! अर्थात, जिसका उद्देश्य मात्र निपुणता ही है! जैसे दर्ज़ीगिरी, काष्ठ-कला, चित्र-कला, काव्य-लेखन, अथवा वे सब कार्य जो हुनर या कुशलता का सूचक होते हैं! इस संसार में, प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कला में निपुण होता है, कोई बोलने में, कोई लिखने में, कोई सैन्य-संचालन में, कोई जुए में, कोई कृषि में, कोई अध्यापन में ऐसे ही अन्य एवं आदि! इसी कारण से, हमारा समाज, निरंतर आगे बढ़ता जाता है! ताला बनाने की कला, लोहे की उपलब्धता पर निर्भर है, लोहा, अयस्क से प्राप्त होता है, ये खनन द्वारा होता है, इसी प्रकार से ये, लगातार ज़ारी रहता है! पिता से पुत्र या कोई विद्या सीखने वाला हो, उसे ये कुशलता, निरंतर प्रशिक्षण द्वारा आगे बढ़ता रहता है! किसी भी समाज की सुदृढ़ता इसी पर निर्भर करती है, कि उस समाज में कितने कुशल लोग हैं!" कहा मैंने,
"बेहतरीन! लाजवाब!" बोला वो,
"वैज्ञानिक-ज्ञान! विज्ञान का ज्ञान! ये ज्ञान, कारण की खोज करता है, शोध चलते हैं, अनुसंधान होता है, नवीन खोजें होती हैं, कुछ आवश्यक और कुछ अनावश्यक! परन्तु इस संसार में अनावश्यक कुछ नहीं, अतः, उत्तम हथियार, आयुध, विनाश के साधन सभी उचित कार्यों में लगें, निरंतर प्रयास किया जाता है! ये वही ज्ञान है!" कहा मैंने,
"और भी हैं?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"वो क्या हैं?" बोला वो,
"अब मात्र एक ही है!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोला वो,
ये सभी ज्ञान, अत्यंत महत्वपूर्ण हैं! इसमें कोई संदेह नहीं! परन्तु, एक ज्ञान और भी है, जिसे हम सकल-ज्ञान कहते हैं!" कहा मैंने,
''सकल?" बोला वो,
"हां, सकल!" कहा मैंने,
"ये क्या है?'' पूछा उसने,
"स्वतः को जान्ने का अहम ज्ञान!" कहा मैंने,
''ओह!" बोला वो,
"समझे?" कहा मैंने,
"हां, अध्यात्म!" बोला वो,
''नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" वो चौंक पड़ा!
"हां! नहीं!" बोला वो,
''कैसे?" पूछा उसने,
"अद्यात्म में 'आशंका' प्रबल रहती है, भविष्य की प्रधानता अधिक रहती है, भाग्यवाद का डंका भी बजे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं!" कहा मैंने,
''परन्तु?" बोला वो!
"क्या परन्तु?" कहा मैंने,
"मैंने नहीं सुना ऐसा! कहा उसने,
"मैं बता रहा हूं!" कहा मैंने,
"अवश्य! अवश्य!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं जान रहा हूं!" बोला वो,
"बालचंद्र! इस संसार में, जहां ज्ञान है, वहीं, भ्रम भी है! ज्ञान और भ्रम, ठीक वैसे ही हैं जैसे संग रहते फूल और कांटे! श्वेत और श्याम!" कहा मैंने,
"श्वेत और श्याम?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"श्वेत कहां और श्याम कहां!" बोला वो,
"उपहास सा ही लगता है न?" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोला वो,
"एक हास्यास्पद सा कथन?" पूछा मैंने,
"हां, अवश्य ही!" कहा उसने,
"एक प्रश्न पूछता हूं!" कहा मैंने,
"पूछिए?'' बोला वो,
"श्याम रंग ही लो, आखिर है क्या?" पूछा मैंने,
"सूर्य के सात रंगों का मिश्रित प्रकाश!" बोला वो,
"तब इसमें, न लाल, न पीला, न नील वर्ण, न हरा आदि ही शेष रहता?'' पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
ठीक उत्तर दिया!" कहा मैंने,
"तब श्वेत और श्याम?" बोला वो,
"सरल है!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"जब श्याम पट्ट पर, श्वेत रंग, रंग दिया जाता है, तब श्वेत रंग कैसा चमक उठता है!" कहा मैंने,
वो हैरान रह गया!
"है न?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और जब, श्वेत पर, श्याम रंग चढ़ जाता है, तब श्याम रंग में जी नीलिमा सी आती है, वो इसी श्वेत रंग की होती है!" कहा मैंने,
"ह....हां...सही कहा आपने!" बोला वो,
"श्वेत जहां यथार्थ का, चिंतन का, स्वछता का सूचक होता है, श्याम ठीक उसका उलट ही!" कहा मैंने,
"हां! दुःख! रोग! अन्धकार!" बोला वो,
"रंग तो सभी के जीवन में हैं, समान रूप से, सभी के अपने अपने गुण हैं! कोई प्रखर, कोई अति-प्रखर!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बस एक समानता है!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उसने,
"इस सर्वश्रेठ कृति, मानव में!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"कि हम सब, मोहताज हैं!" कहा मैंने,
"मोहताज?" बोला वो,
"हां, निर्भर!" कहा मैंने,
"मनुष्य मोहताज?" बोला वो,
"हां, मनुष्य ही तो!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"जन्म के लिए, माता और पिता का मोहताज!" कहा मैंने,
"सो तो अन्य पशु भी हैं!" बोला वो,
"हां! हैं!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोला वो,
"लालन-पालन के लिए, पिता एवं माता का मोहताज!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"उचित समय के लिए, विद्या, शिक्षा का मोहताज!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"फिर, पितृ-ऋण चुकाने हेतु, संतति के लिए, स्त्री का मोहताज! विवाह का!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"फिर आजीविका का मोहताज!" कहा मैंने,
"तभी तो परिवार का भरण-पोषण होगा!" बोला वो,
''और अंत में, चार कंधों का, अर्थी का मोहताज!" कहा मैंने,
"यही कटु-सत्य है!" बोला वो,
"कटु नहीं!" कहा मैंने,
"तो?" बोला वो,
"आवश्यक!" कहा मैंने,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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"हां, उचित ही कहा!" बोला वो,
"परन्तु ये सब, यहां भी समाप्त नहीं!" कहा मैंने,
"पंचभूत के बाद भी?'' बोला वो,
"हां, फिर, मृत्यु-भोज, मसान-सेवा, वहां भी मोहताज! आगे की आगे जानें जानने वाले, परन्तु वहां भी मोहताज!" बोला मैं,
"पूरा जीवन ही!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मरने के बाद भी!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कैसी विडंबना है!" बोला वो,
"सो तो है ही!" कहा मैंने,
"ये सभी नहीं समझते!" बोला वो,
"प्रयास नहीं करते!" बोला मैं,
"कैसे करें?" बोला वो,
"स्मरण रखो! इस संसार में जिस प्रकार आपका खाया हुआ, मात्र आपको ही लगता है, उसी प्रकार आपका किया हुआ कर्म, आपसे ही जुड़ा है! न कोई मसीहा ही, न कोई अन्य ही, इसे बदल सकता है! अब चाहे आप, लाख तर्पण करो पूर्वजों के! पिंड-दान दो! पितृ-दोष को समाप्त करो! जिसने जो किया, वो भोगेगा! कोई आज ही, कोई कल या कोई परसों और कोई, सम्भवतः, आगे!" कहा मैंने,
"सत्य कहा!" कहा उसने,
"एक दृष्टांत और बताता हूं! सुनाता हूं!" कहा मैंने,
"जी, अवश्य!" बोला वो,
"किसी समय एक निर्धन लक्क्ड़हारा रहता था, वन के मध्य ही, उसने के झोंपड़ा बना लिया था, दो संतान थीं, एक चौदह बरस का लड़का और एक दस बरस का!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"उस लक्क्ड़हारे की पत्नी की एक आंख भी खराब थी, किसी तरह से जंगल में भटक-भटक कभी फल, कभी कंद आदि इकट्ठा किया करती थी! उस स्त्री के साथ, सदैव वो दस बरस का लड़का ही होता, माँ की मदद करने के लिए, बड़ा बेटा, पिता संग जंगल जाता, लकड़ी काटने में मदद करता, बाज़ार जाते और जिस मोल-भाव में लकड़ी बिक जाती, संतोष कर घर ले आते थे!" कहा मैंने,
"संतोषी थे!" बोला वो,
"हां! परम संतोष में रहने वाले! कभी ईश्वर को न कोसते! न किस्मत को ही भला-बुरा कहते!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"एक रोज की बात है, लक्क्ड़हारा अपने बड़े पुत्र के साथ जंगल को गया, लकड़ियां काटने, लकड़ियां काट कर बाज़ार भी जाना था और अन्न आदि जो मिलता, ले आना था!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"उधर जंगल में, उसको स्त्री भूमि में से कंद खोद रही थी, कंद निकलता तो अपने छोटे पुत्र को देती, पुत्र उसे टोकरी में रख लेता! कंद खराब नहीं होता शीघ्र, तो घर में अगर पड़ा भी रहे, तो अन्न न होने की स्थिति में वही खाया जाता! तो उस दिन, उस स्त्री को तीन कंद मिले!" बोला मैं,
"अच्छा! फिर?' बोला वो,
"कंद उठा, घर को ले आयी, और एक कोने में रख दिए!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"जब तक चूल्हा-चौकी चढ़ती, तब तक संध्या घिर आयी, लक्कड़हारा भी आ गया अपने पुत्र के साथ, कुछ चावल, दाल लाया था खरीद कर, पकाये और प्रभु का धन्यवाद कर,  भोजन किया और उस दिन जो भी हुआ, जंगल में, बाज़ार में, अपनी पत्नी और छोटे पुत्र को कह सुनाया! यही नियम था उनका, माँ और वो छोटा बेटा, बस इसी तरह से, बाहरी संसार से जुड़ते थे! रात हुई, और सभी सो गए!" कहा मैंने,
"रोज की तरह!" बोला वो,
"हां, नित्य यही नियम था उनका!" कहा मैंने,
"बालचंद्र!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"जानते हो क्या हुआ?"
"क्या?" पूछा उसने, ज़रा धीरे से!
"उस दिन, वो स्त्री जो कंद लायी थी तीन, उनमे से दो ही असली कंद थे, एक कंद नहीं था, वो मिट्टी में लुथरा एक घड़ा था! एक छोटा घड़ा!" कहा मैंने,
"घड़ा? फिर? फिर?" उसने तो जैसे रट लगा ली! और.............!!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या वो धन का घड़ा था?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ओह! फिर?" पूछा उसने,
"उस घड़े में क़ैद था एक रक्तपिपासु पिशाच!" कहा मैंने,
"अरे?" बोलै वो,
"हां! उस पिशाच को दंडस्वरूप किसी ने उसको क़ैद कर, वहां गाड़ दिया था!" बोला मैं!
''ओह! तब?" बोला वो,
"प्रातः हुई! और लक्कड़हारे, उसकी पत्नी की आंख खुली! ताप फैला था, वे समझ नहीं आये, बाहर, उस फट्टियों से बने दरवाज़े को हटाया तो क्या देखा!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो, उत्सुकता से!
"बाहर जैसे पूरे जंगल में ही आग लग गयी थी! सुरक्षित था तो बस उनका वो एक झोंपड़ा! वे घबरा गए, चीख-पुकार सुन, वे दोनों पुत्र भी जाग गए!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"फिर, इस से पहले वो कुछ सोचते, वो घड़ा फूट गया और वो ही पिशाच प्रकट हुआ! रक्त से सना हुआ, दुर्गंध वाला, भयानक रूप वाला, अग्नि जैसी काया वाला जो कि उन्हें ही देख रहा था, वे सब डर के मारे सिहर उठे! और उधर, पिशाच ने अट्ठहास भरा!" बोला मैं,
"ओह! फिर?'' बोला वो,
"पिशाच ने कहा, कि सारी शाम, रात उसने घड़े में रह कर, उनका वार्तालाप सुना! उसे सच में उनसे कोई शत्रुता नहीं थी! परन्तु ये उसकी वृति थी, उसे रक्त पीना था मानव का! पता नहीं कब से प्यासा था वो इसका! हां! बस वो इतना कर सकता था कि उनमे से किन्हीं तीन को वो छोड़ सकता था, एक का रक्त तो पीता ही वो! अर्थात, एक की मृत्यु तो तय ही थी!" बोला मैं!
"ओह! फिर? किसका रक्त पिया?" उसने पूछा,
"उसका ही, जिसका चुनाव होना था!" कहा मैंने,
"ओह! ये तो बहुत बुरा हुआ!" कहा उसने,
"नहीं! उस पिशाच ने कहा, चूंकि, उसकी उनसे कोई शत्रुता नहीं थी, और वे लोग भी सीधे-सादे ही थे, आत्म-संतोषी थे, इसीलिए किसी एक को चुनना था, वो एक रक्तपिपासु था, रक्त पीना ही उसका मुख्य भोजन भी था, वो बरसों से भूखा था, इसीलिए, वो मात्र इतना कर सकता है कि दो घटी(अड़तालीस मिनट) के बाद, पुनः प्रकट होगा, वे चुनाव कर लें! और इतना कह वो लोप हो गया!" कहा मैंने,
"अरे! वे भागें तो भागें कहां? जंगल में आग है लगी हुई! तो फिर.....क्या चुनाव हुआ?" पूछा उसने,
"ठीक दो घटी बाद वो पुनः प्रकट हुआ, उसने पुनः पूछा, बताया कि वो स्वयं ऐसा नहीं चाहता, परन्तु अपनी प्रवृति के कारण विवश है! क्या चुनाव उन्होंने किया!" कहा मैंने,
"तो क्या बताया उस परिवार ने?" पूछा उसने,
"वे कुछ निर्णय न कर सके! पिशाच को क्रोध आया और पुनः चेतावनी दी, कि, वो एक घटी के बाद पुनः प्रकट होगा, यदि निर्णय न हुआ, तो वे इस बार चारों को ग्रास बना लेगा! और फिर से, लोप हो गया!" कहा मैंने,
अब मित्रगण!
प्रश्न सम्मुख है!
पिशाच के आगे, उनकी क्या चलती भला! चुनाव तो करना ही था, चुनाव हुआ या नहीं हुआ, ये मैं आपको बाद में भी बता सकता हूं, परन्तु बता सकता हूं! और बता भी रहा हूं, फिर से प्रश्न पूछूंगा!
"फिर क्या हुआ?" पूछा बालचंद्र ने,
"पिशाच, पुनः प्रकट हुआ! और तब, चुनाव के विषय में पूछा! कि उन्होंने किसको चुना है, वो शीघ्र ही उसके सम्मुख आये, वो उसका रक्त पी अपनी क्षुधा मिटाये और शेष जीवित रहें, उसके बाद वो पिशाच कदापि नहीं आएगा!" कहा मैंने,
"अच्छा! फिर?'' बोला वो,
"सबसे पहले, वो लक्कड़हारा बोला कि, वो अपना जीवन लगभग जी ही चुका है! उसने पूर्ण कर्तव्य का निर्वाह किया है, उसने, अपनी कानी स्त्री को नहीं त्यागा, किसी भी ने स्त्री के लिए! जबकि वो ऐसा कर सकता था, परन्तु ये उस स्त्री के प्रति महापाप होता उसका! उसने पितृ-ऋण भी चुका दिया, उसके दो संतान हैं! उसने उन तीनों के साथ ही भोजन किया है, कुछ अतिरिक्त नहीं! काष्ठ-कला में अपना ज्येष्ठ पुत्र प्रवीण कर दिया है, उसकी मृत्यु के पश्चात, वो सभी का पेट-भरण कर सकता है! अतः उसको ग्रास बना, स्वीकार करे!" बोला वो,
"ओह! लेकिन उसने कहा भी तो सच ही?" बोला वो,
"हां, सच ही कहा!" कहा मैंने,
"फिर? पिशाच ने क्या कहा?" पूछा उसने,
"पिशाच हंसा! और उसका ग्रास बनाने को आगे बढ़ा! तभी उस लक्कड़हारे की पत्नी ने विनती कर, रोक लिया उसे और कहा! कि ये ठीक है, कि लक्कड़हारे ने अपना कर्तव्य पूर्ण रूप से निर्वाह किया है! परन्तु, एक स्त्री अपने जीते जी, अपने सुहाग को जाते देख, वैधव्य, कदापि स्वीकार नहीं करेगी! देखा जाए तो कर्तव्य उसने निर्वाह किया है! अपने पति के संग, दुःख-सुख में बनी रही! सदैव संग रही! उसे दो संतान दीं, ये उसका ऋण है अपने पति पर, बिन ऋण चुकाए वो कैसे अपना ग्रास बनने को, स्वयं को दे सकता है? अतः, पिशाच को चाहिए, कि उसके पति को छोड़ दे और उसका ग्रास बनाये! चूंकि, अब उसका कोई लाभ भी नहीं, संतान चाहिए नहीं! ज्येष्ठ-पुत्र का विवाह होगा, स्त्री आएगी, भोजन बनाएगी और सब, आराम से रहेंगे!" बोला मैं,
"वाह! तर्क तो इस स्त्री का भी विचारयोग्य है!" बोला वो,
"हां! तो उस पिशाच ने उस लक्कड़हारे को छोड़, उस स्त्री को ग्रास बनाने की ठानी!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"तभी ज्येष्ठ पुत्र ने विनती की! कि बड़े पुत्र के होते, जीवित रहते, उसने माता-पिता को कष्ट पहुंचाएगा? ऐसा तो कोई पुत्र सोच भी नहीं सकता! माता-पिता का उपकार तो वो कई जीवन जीने के बाद भी नहीं उतार सकता! पिता का पोषण, स्नेह और माता की ममता का कोई विकल्प नहीं! अतः वो उन दोनों को छोड़, उसको ग्रास बनाये!" बोला मैं,
"ओह! ये ही होता है एक पुत्र! और उसका पुत्र-धर्म!" कहा उसने,
"हां! तो पिशाच ने उसे भी छोड़ दिया! और अब रह गया वो सबसे छोटा पुत्र! वो छोटा पुत्र  हंसा! और बोला! कितना परम-भाग्यशाली है वो! कि उसे इस छोटी सी आयु में, इतना बड़ा कर्तव्य-निभाह का अवसर मिला! माता-पिता के लिए! और अपने बड़े भाई के लिए! बड़ा भाई भी तो पिता समान हो होता है! और उसे, उसे तो अभी लकड़ी काटनी भी नहीं आती! कैसे करेगा वो? यहां तो रोज कमाना है और रोज ही खाना है? अतः वो पिशाच उसकी को ग्रास बनाये और उसे, उसके कर्तव्य-पथ पर आगे बढ़ाये!" कहा मैंने,
"ओहो! ये कैसा धर्मसंकट?" बोला वो,
मित्रगण! अब प्रश्न आपसे! पिशाच ने किसे ग्रास बनाया और क्यों? यदि चारों में से किसी को भी नहीं तो भी क्यों? उत्तर अवश्य ही दें! अवश्य ही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताओ बालचंद्र?" कहा मैंने,
"बहुत ही कठिन प्रश्न और उतना ही कठिन उत्तर भी!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"सभी के तर्क, उचित ही प्रतीत होते हैं!" बोला वो,
"फिर भी?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"मैं बताऊं?" कहा मैंने,
"बताना ही होगा!" बोला वो,
"बताता हूं! चूंकि वो पिशाच उस घड़े में बंद था, उसे कोई निकाल देता तो वो मुक्त हो जाता! वो मुक्त हो भी गया, उसने उस शाम, उनकी, उस रात उनकी सभी बातें सुनीं! वो अच्छी तरह से जानता था कि वो बरसों ही भूखा रहा है, एक दिन और सही! उनसे मन ही मन उस स्त्री का, इस परिवार का धन्यवाद किया! और उस परिवार की जांच, परीक्षा लेनी चाही! तभी उसने वो प्रस्ताव भी रखा! जैसा उसे पता ही था, कि कोई निर्णय तक नहीं पहुंच पायेगा, इसी लिए उसने दोबारा प्रकट होने का कहा! वो भूखा होता तो न कोई प्रस्ताव ही होता, न रखता!" कहा मैंने,
"हां, सही कहा आपने!" बोला वो,
"तब उस पिशाच ने कहा! कहा कि वो उस परिवार की ईमानदारी, आत्म-संतोष, आपसी-सौहार्द एवं प्रेम, कर्तव्यपरायणता से प्रसन्न हुआ!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"तब उस पिशाच ने, उन चारों को छोड़ दिया और कहा, कि जो कंद कल खोदे थे, उस स्त्री ने, वे अब कंद नहीं, घड़े हैं, जिनमें धन भरा है! जाओ, धन दिया है प्रसन्न हो कर उसने! यूं कहो कि मुक्त होने का एवज ही वो धन है!" बोला मैं,
"अच्छा!" कहा उसने,
"हां बालचंद्र!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"तब उस लक्कड़हारे ने उस पिशाच से कहा, कि चूंकि उनको नया जीवन उसी पिशाच ने दिया है, और उसी से विनता भी है, कि उन्हें कोई धन नहीं चाहिए! ऐसा बताया गया है कि धन, सभी समस्यायों की मूल जड़ है! वे धन नहीं चाहते!" बोला मैं,
"ये तो सच ही कहा!" बोला वो,
"हां, सच ही कहा!" कहा मैंने,
''आपका क्या मानना है?'' पूछा उसने,
"बताता हूं!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"तब उस पिशाच ने जो बताया, वो कंठस्थ एवं स्मरण रखने योग्य है!" कहा मैंने,
"ऐसा क्या बताया?" बोला वो,
"उसने बताया कि वो धन को सीधे बाज़ार में न ले जाए!" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"ऐसा क्यों कहा होगा?'' पूछा मैंने,
"पिशाच ने कहा, कि लोग, उसी के धन को जायज़ मानते हैं जिसके वस्त्र उजले हों, जो रंग-रूप में बना-ठना हो! अब भले ही वो कोई ठग ही हो!" कहा मैंने,
"उचित! उचित!" बोला वो,
"और कहा, कि सीधे बाज़ार जाएगा वो, तो उसको चोर-उच्चक्का, उठाईगिरा समझ लेंगे लोग! धन भी हाथ से जाएगा और दंड पायेगा सो अलग! क्योंकि, वो ये नहीं बता पायेगा कि उसे वो धन कहां से उपलब्ध हुआ!" बोला वो,
"सत्य ही कहा! यही होता है आजकल भी!" बोला वो,
"फिर पिशाच ने बताया, कि वो, उस धन को गुप्त-दान में भी न दे! पता नहीं, गुप्त-दान को एकत्रित करने वाला कैसी मंशा रखने वाला हो! कहीं देश का शत्रु ही हो! या मंशा उसकी, कल्याणकारी न हो, मात्र अपनी ध्येय-पूर्ति हेतु ही हो! उस धन का, क्या प्रयोग किया जाए, ये दानकर्ता कदापि ये नहीं जान पायेगा कि उसके धन का आखिर हुआ क्या! मात्र दान से ही पिंड नहीं छूट जाता!" बोला मैं,
"यथोचित!" बोला वो,
"हां बालचंद्र!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"उस पिशाच ने कहा, कि वो, वापिस, उस धन को कहीं न गाड़े! गड़ा धन, जब भी कभी खोदा जाएगा, उसके हिस्से किये जाएंगे! और इस हिस्से में, न जाने क्या क्या हो! हिस्से न भी हों तब भी दूसरे उस धन के ऊपर संदेह अवश्य ही करेंगे! तब जिसका वो धन होगा, उसको अपशब्द कहे जाएंगे!" बोला मैं,
"हां, ये होता है!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"फिर? फिर क्या हुआ?" पूछा उसने,
"तब उसने कहा, कि वो उस धन को लोगों में भी न बांट दे! बांटने से, लोगों की आशाएं बंध जाएंगी! जब तक पास होगा, लोग ध्यान देंगे, जब रिक्त हो जाएगा, कोई उसकी मदद भी नहीं करेगा!" कहा मैंने,
"सत्य है!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तब?" बोला वो,
"तब? तब पिशाच ने बताया, कि वो धन, किसी समर्थ को दे! समर्थ से अच्छा, राजा को दे, राजा के सभासदों के सम्मुख दे, और उस धन को, राज्य-कोष में दान कर दे! चूंकि, धन कहां से उपलब्ध हुआ, वो बताएगा भी, तब भी विश्वास किया जाएगा, चोरी-चकारी नहीं मानी जायेगी, चूंकि वो स्वयं दरबार में आया है! लोगों को राज्य-कोष से, मुश्किल समय में उसी धन से मदद भी हो सकेगी! और राजा, उस लक्कड़हारे को, कुछ पारितोषिक भी अवश्य ही देगा!" कहा मैंने,
"तो? तो क्या किया?" पूछा उसने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उस लक्कड़हारे ने यही किया, धन, राजा को दिया, कारण बताया उपलब्धता का, सभी दरबारी आदि, राजा सहित, बेहद प्रसन्न हुए! पारितोषिक के तौर पर उस लक्कड़हारे को उपवन में माली नियुक्त कर लिया गया! अब सारे परिवार का भरण-पोषण सुलभ हो उठा!" कहा मैंने,
"वाह! बहुत अच्छा हुआ!" बोला वो,
"हां! आत्म-संतोषी होने से बड़ा सुख कोई नहीं! जितना किस्मत में है, उस से अधिक मिले नहीं, उस से कम भी नहीं मिले, तब क्या रोना-धोना! आजीविका ऐसी हो, कि खा-पी कर, संतुष्टि प्राप्त हो, सभी कर्तव्य सही से निभ जाएं! इस से बड़ा कोई सुख, आशीर्वाद है ही नहीं!" कहा मैंने,
"सही कहा आपने!" बोला वो,
मित्रगण! दान! क्या होता है दान? क्या अर्थ है इसका? क्या महत्व है इसका? दान, कौन सा पूर्ण दान है, कौन सा नहीं?
दान आपकी कुल आय का एक हिस्सा नहीं, आधी आय का भी नहीं! किसी का पेट काटकर, किसी अन्य को दिया हुआ दान भी दान नहीं! तब दान है क्या? दान है, आपकी कुल बचत का कुछ भाग, जो, अपने ऊपर आश्रितों का भरण-पोषण करने के बाद शेष रहे! भूखे को भोजन दान! भला कौन सा भोजन? क्या आपने धन से खरीद कर किसी को भोजन करवा दिया तो वो भोजन-दान हो गया?
भोजन दान होता है, अपना पेट काटकर, उसको भोजन करवाना जिसको आपसे कहीं अधिक आवश्यकता हो भोजन की! वो मनुष्य ही नहीं, कोई भी पशु हो सकता है! जैसे भूखा श्वान, शूकर, पक्षी, गाय आदि!
वस्त्र-दान! किसको? जिसको आपसे अधिक आवश्यकता हो वस्त्रों की! जिसको आवश्कयता नहीं उसको वस्त्र-दान भी नहीं!
धन-दान! अंत्येष्टि, कन्या-विवाह, रोगी-उपचार, देश-हित, लोक-हित में किया गया धन-दान ही उत्तम दान होता है, शेष नहीं!
मंदिरों में प्रसाद चढ़ाने से, तेल, घी, अन्न, आभूषण दान करना भी दान नहीं! मंदिर में चढ़ाने से श्रेष्ठ है, निर्धनों को भोजन करवाना! कुष्ठ एवं लाइलाज रोगों से ग्रसित रोगियों को भोज कराना, वस्त्र देना, उपचार देना, श्रेष्ठकर होता है!
पुण्य-दान! ये महादान है! सभी से मधुर वाणी बोलना, आशीर्वाद, छोटों को देना, बड़ों का आदर करना आदि, ये पुण्य-दान में आता है! पता नहीं, कब आपका कोई पुण्य-दान किसी को फल जाए! इसीलिए, चाहे बड़ा हो या छोटा, सदा ही वाणी को शुभ रखिये! 
"एक प्रश्न और है!" बोला वो,
"पूछिए?" कहा मैंने,
"किस मार्ग से ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है?" बोला वो,
"सभी मार्गों से!" कहा मैंने,
"सभी?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"बालचंद्र! मार्ग मात्र अपनी सहजता हेतु ही बना करते हैं! मार्ग लम्बा हो, परन्तु अवरोधरहित हो, यही उचित माना जाता है!" कहा मैंने,
"हां! ये तो है!" बोला वो,
"ईश्वर की प्राप्ति! इसका सरल अर्थ यही हुआ कि मोक्ष की प्राप्ति!" कहा मैंने,
"हां! यही है!" बोला वो,
"यही लगता है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अर्थात, इस जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"यही अर्थ हुआ न, कि जिसका जन्म हुआ है, उसका मरण होगा, आत्भी वो पूर्ण होगा?" पूछा मैंने,
"हां! यही!" बोला वो,
"सोच लो!" कहा मैंने,
"सोचना क्या?" बोला वो,
"कहीं फिर से सोच में न पड़ जाओ!" कहा मैंने,
"सोच में?" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने,
"अर्थात?" पूछा उसने,
"यही कि जिसका जन्म हुआ, वो अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त करेगा!" बोला मैं,
"कमाल है! क्या श्री कृष्ण जी को मृत्यु नहीं आयी? या फिर विष्णु जी के अवतारों को? सभी ने जन्म लिया और सभी मृत्यु को प्राप्त हुए!" बोला वो,
"मानता हूं!" कहा मैंने,
"तब क्या सोचना?" बोला वो,
"चिरंजीवी कौन हैं?" पूछा मैंने,
"ओह! मंतव्य स्पष्ट हो गया!" बोला वो,
"हनुमान जी, अश्वत्थामा जी, कृपाचार्य जी, मार्कण्डेय जी आदि?" कहा मैंने,
"समझ आता है कि ये वर प्राप्त थे!" बोला वो,
''और वर किसने दिया?" पूछा मैंने,
"ब्रह्म-देव ने!" बोला वो,
"और ब्रह्म-देव को वर देने में सक्षम किसने किया?" पूछा मैंने,
"किसने?" बोला वो,
"जानते नहीं?" बोला मैं,
"नहीं?" बोला वो,
"तो जानो!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
"मैंने कहा था न, कि इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रतीत होता है, कि सभी तत्व, पदार्थ, नियम, अवयव, व्यवस्था आदि इतने सुचारु रूप से कार्य कैसे करती आ रही है? सबकुछ इतना सटीक कैसे है? है या नहीं?" पूछा मैंने,
''हां! हां! ये मैंने सोचा ही नहीं! जबकि, विचार करो, तो ये ही सत्य है!" बोला वो, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कोई तो ऐसी सत्ता होगी?" कहा मैंने,
"होगी!" बोला वो,
"हां, है!" कहा मैंने,
"अवश्य ही!" कहा उसने,
तभी सामने से कोई गुजरा, पता चला कि संध्या का समय हो चला! मुझे सहसा ही याद हो आया और मैं उठ गया!
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"दिशि!" कहा मैंने,
"अरे हां!" कहा उसने,
"मैं चलता हूं!" कहा मैंने,
"हां, फिर कब मिलूं?" बोला वो,
"जब मर्ज़ी!" कहा मैंने,
"रात्रि?" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
पलटा और दौड़ता हुआ चला गया, पहुंचा दिशि के यहां, दिशि वहीं मिली, पूजा करके आ रही थी संध्या की, एक और लड़की साथ थी उसके, प्रणाम हुई!
"आओ!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
और हम चले कमरे की तरफ, यहां तीन कुर्सियां पड़ी थीं, एक पर मैं बैठ गया, वो अंदर चली गयी, बाहर आयी तो प्रसाद ले आयी थी!
"लो!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
प्रसाद लिया और खा लिया, वो भी बैठ गयी!
"मैंने वो कॉपी निकाल दी है!" बोली वो,
"उस लिपि की?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"अच्छा! देख सकता हूं?" पूछा मैंने,
"हां, अभी लायी!" बोली वो,
उठी और कमरे में चली गयी, जब बाहर आयी तो एक फोल्डर था उसने हाथ में काले रंग का, उस पर किसी बीज-भंडार का चित्र बना था, नाम भी लिखा था, मैंने कोशिश नहीं की पढ़ने की, वो आयी और बैठ गयी!
फोल्डर खोला, कुछ पृष्ठ उलटे, और छह-सात कागज़ मुझे देते हुए आगे हुई!
"ये लो!" बोली वो,
अब मैंने वो कॉपी देखी! बड़ी ही अजीब सी लिपि थी, चित्रण सा था कहीं कहीं कोई अक्षर भी था, हिंदी या संस्कृत का कोई नाम नहीं!
"बड़ी अजीब है?" पूछा मैंने,
"ये तो है!" बोली वो,
"पता नहीं कोई पढ़ भी पाए!" कहा मैंने,
"कोशिश की हैं!" बोली वो,
"तो?" बोला मैं,
"कुछ लगा था हाथ!" बोली वो,
"लिपि से?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
''वो क्या?" पूछा मैंने,
"कुछ आभूषण!" बोली वो,
"आ....भूषण?'' मेरे मुंह से निकला!
"हां!" बोली वो,
''कहां से?" पूछा मैंने,
"पास ही से!" बोली वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"नदी किनारे से!" बोली वो,
"आभूषण कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"स्वर्ण के!" बोली वो,
"कितने पुराने हैं?" पूछा मैंने,
"कोई आठ सौ बरस!" बोली वो,
आठ सौ बरस!
"कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"किसी देवी का चिन्ह सा, मुख सा अंकीर्ण है!" बोली वो,
"किसका?" पूछा मैंने,
''अलंका देवी का!" बोली वो,
''अलंका?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कंदरा-देवी?" कहा मैंने,
वो हैरान सी रह गयी, बड़ी बड़ी सी आंखों में मुझे धक्का ही दे दिया!
"कैसे पता आपको?" बोली वो,
''अलंका वही देवी तो हैं?" कहा मैंने,
"आपको कैसे पता?" पूछा उसने,
"ये गुफा में रखे धन की रक्षिका हैं न?" पूछा मैंने,
''हां!" बोली वो,
"वो आभूषण कहां हैं?" पूछा मैंने,
"यहां नहीं हैं!" बोली वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"लेकिन चित्र मिल जाएंगे!" बोली वो,
मेरी मरी से देह में प्राण से आये ये सुन!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चित्र?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कहां हैं?" पूछा मैंने,
"यहीं!" बोली वो,
"आपके पास?" पूछा मैंने,
"माता जी के!" बताया उसने,
"माता जी कहां हैं?" पूछा मैंने,
"आने वाली हैं!" बोली वो,
पीछे से जनरेटर चलने की आवाज़ हुई! मेरे दिल का भी जनरेटर चालू हो गया उसी पल!
"वैसे एक बात बताओ?" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"अलंका देवी का पूजन होता हे कहीं?" पूछा उसने,
"अब तो नहीं!" कहा मैंने,
"कहां होता था?" पूछा उसने,
"कैमूर में!" कहा मैंने,
"ये ही कैमूर?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"यही वो बाबा मिले थे!" बोली वो,
"तब कोई न कोई और तो होगा?" कहा मैंने,
"तलाश बहुत की!" कहा उसने,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कुछ हाथ नहीं लगा!" बोली वो,
"कमाल है?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"वो बाबा अकेला ही था?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"और अधिक नहीं बताया?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"बाबा अचानक आये, अचानक गए!" कहा मैंने,
"जैसे इंतज़ार में हों!" बोली वो,
"उन्हें कैसे मालूम?" पूछा मैंने,
"पहुंच वाले होंगे!" बताया उसने,
"कहीं तो रहते होंगे?" पूछा मैंने,
"नहीं बताया!" बोली वो,
"मंदिर के बाहर मिले?" बोलै मैं,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"जहां गाड़ियां लगती हैं!" बोली वो,
"ये भी हैरत है!" कहा मैंने,
"हां, सब!" बोली वो,
"क्या उम्र होगी?" पूछा मैंने,
"नब्बे कम से कम!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"बहुत बुज़ुर्ग?"" कहा मैंने,
"बहुत ही!" बोली वो,
"यहां से कैमूर कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"दूर है!" बोली वो,
"और हां!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"वो आभूषण?" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"यहां कहां से मिले?" पूछा मैंने,
"पहाड़ियों के बीच से!" बोली वो,
"किसी गुफा से?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"एक बड़े से पत्थर के बीच!" बताया उसने,
"रखे हुए थे?" पूछा मैंने,
"पत्थर की कोटर में!" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं देख कर आती हूं, माता जी आ गयी होंगी!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
वो चली गयी, मैंने उस फोल्डर को उठाया और वो पृष्ठ फिर से निकाल कर देखे! एक भी अक्षर ऐसा नहीं था जो पहचाना जा सकते! कुछ एक अक्षर अवश्य, मिलते थे खरोष्ठी लिपि से, लेकिन कहां खरोष्ठी और कहां ये पांडुलिपि! मैंने देखा, कि एक अक्षर की पुनरावृति लगातार हो रही थी, वो ऐसा मानो कि जैसे एक खड़ी मछली, मुंह ऊपर और पूंछ नीचे, मीन पंखों में कुछ आड़ी सी रेखाएं थीं, कहीं ये तीन थीं और कहीं दो, और कहीं चार, और कहीं थी ही नहीं! जहां नहीं थीं, वहां एक वृत्त था उसकी पूंछ के बीच में! ऐसी थी वो लिपि!
तभी वो आ गयी, हाथों में एक और फोल्डर लिए हुए, बैठ गयी!
"ये देखो!" बोली वो,
मैंने वो कागज़ लिया उस पर प्रिंट था एक फोटो, उसमे एक लड़ सी थी सोने की, गोल-गोल मनके थे और बीच में एक पत्तर, इस पत्तर में देवी अलंका बनी थीं! अलंका के हाथों में खड्ग और बिन्दिपाल होता है, वही था, उनका आसन, सरकंडों का होता है, था, पास में मुंड होते हैं, थे! केश रुक्ष होते हैं वो भी थे!
"ये अलंका ही हैं!" कहा मैंने.
"पक्का?'' बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"अब?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"क्या किया जाए?" पूछा उसने,
"जो आप चाहें?" कहा मैंने,
"क्या उस स्थान पर चला जाए?" बोली वो,
"कौन सा?" पूछा मैंने,
"जहां से ये प्राप्त हुए थे?" बोली वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"कब?" बोली वो,
"जब आप कहें?" कहा मैंने,
"कल?' बोली वो,
"कल भी ठीक!" कहा मैंने,
"कब?" बोली वो,
"जब भी?" बोलै मैं,
"सुबह?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तीन घंटे लग जाएंगे!" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"किसको संग लूं?" पूछा उसने,
"जो चाहे जाना?" बोला मैं,
"बालचंद्र?" बोली वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
"विश्वस्त भी है!" बोली वो,
"खरा भी!" कहा मैंने,
"भांप लिया?" पूछा उसने,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
और फिर चुप हुई! मैं भी!
"चाय?" बोली वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
"कहती हूं" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
उसने आवाज़ दी, एक महिला आयी, चाय की कही, और महिला चली गयी!
"कब तक हो?" पूछा उसने,
"हूं अभी" कहा मैंने,
"हफ्ता?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"पिता जी आ जाएंगे!" बोली वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"ये तो बहुत अच्छा है!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"साथ में?" पूछा मैंने,
"जो भी हो?" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"कभी जंगल गए हो?" पूछा उसने,
"कई बार!" कहा मैंने,
"फिर ठीक है!" बोली वो,
"आप?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोली वो,
"समझ सकता हूं!" कहा मैंने,
"कई बार!" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ ही देर में चाय आ गयी, और हमने चाय पी, कल चलने से पहले की तैयारी का भी कुछ जायज़ा लेना ज़रूरी था, जैसे खाने-पीने का इंतज़ाम आदि, सो उसने तैयार करवाने को कह दिया था, साथ ले चलते, सुबह कुछ खा लेते और दोपहर भी काम चल जाता! अभी तक तो हम तीन ही थे, और भी हो  हो जायें तो मुझे पता नहीं था!
"तो सुबह कितने बजे आऊं?" पूछा मैंने,
"छह बजे आ जाओ?" बोली वो,
''ठीक है!" कहा मैंने,
"कोई ज़रूरत हुई या कुछ बदलाव हुआ तो खबर करवा दूंगी!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और मैं वापिस हो लिया! पहुंचा उधर, तो भूपाल जी नहीं थे वहां, सात बज रहे थे, कहीं होंगे आसपास, खाने पीने में मस्त, यही अंदाजा लगाया मैंने! तो अब मैंने करीब चालीस मिनट तक इंतज़ार किया! लेट गया था, थोड़ी आंख लग गयी, सवा आठ बजे नींद खुली, बाहर आया तो हाथ-मुंह धोये!
"आ जाओ?" आयी आवाज़,
मैंने बाएं देखा, चाँद सी ओढ़े, बालचंद्र था वो! मैंने हाथ हिलाया और दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया, और चला गया उसके पास!
"सो लिए?'' पूछा उसने,
"हां, कुछ देर!" बोला मैं,
"कुछ मन है?" बोला वो,
"मन?" पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"कैसा मन?" पूछा मैंने,
"वो आ रहा है, साथ में सारा सामान लिए!" बोला वो,
मैंने उधर देखा, एक लड़का आ रहा था, झोले में और कुछ सामान हाथों में उठाये हुए!
"अच्छा!" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए!
''बाबा को देना है!" बोला वो,
"हमारा?" पूछा मैंने,
"हो जाएगा!" बोला वो,
लड़का आया, प्रणाम की और हम चल पड़े! रास्ते में ही बालचंद्र ने समझा दिया था लड़के को! लड़का समझ गया था! हम आ गए कमरे तक!
"आप अंदर बैठो!" बोला वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"बस अभी!" बोला वो,
मैं अंदर चला आया और बैठ गया! कुछ ही देर में वे भी आ गए! बालचंद्र बैठ गया!
"रख दे यहां!" बोला वो लड़के से,
लड़के ने सामान रख दिया!
"ठंडा पानी?" कहा मैंने,
"बर्फ!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"बनाओ!" बोला वो,
मैंने दो गिलास बना लिए, साथ में कुछ सलाद थी, मुर्गा पका हुआ, सालन वाला!
"बड़ा मोटा ही मुर्गा लगता है!" कहा मैंने,
"मुर्गा नहीं है ये!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"देसी बत्तख है!" बोला वो,
"भाई वाह!" कहा मैंने,
बत्तख का मांस थोड़ा सा कड़ा, चबाने वाला और कुछ कुछ रेशे वाला होता है, भरी सर्दी में इसके मांस का सालन, गरमी भर देता है देह में!
"कल चल रहे हो?" बोला वो,
"आ गयी खबर?" पूछा मैंने,
"बुलाया था!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने और सलाद पर नमक छिड़का!
"एक बात कहूं?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"लड़की तेज है!" बोला वो,
"होने दो!" कहा मैंने,
"कुछ मिला तो?" बोला वो,
"तो क्या?'' पूछा मैंने,
"रहने नहीं देगी!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"फिर कोई बात नहीं!" बोला वो,
"हम चल रहे हैं ये क्या कम है?" पूछा मैंने,
"मैं तो गया हूं!" बोला वो,
"उधर?" पूछा मैंने,
"हां!" बताया उसने,
"छिपे रुस्तम हो!" कहा मैंने,
"अब कोई हो तो बताऊं!" बोला वो,
"वो आभूषण सामने निकले थे तुम्हारे?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"पहले ही?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"फिर क्यों गए?" पूछा मैंने,
"तब पानी भरा था!" बोला वो,
"पहले?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"इसमें भी पानी भरा है, गटको जल्दी!" कहा मैंने,
वो हंस पड़ा और हम दोनों ने ही अपने अपने गिलास ख़त्म कर लिए! टुकड़ा तोडा और चबाने लगे!
"वैसे आपके पास काफी समृद्ध ज्ञान है!" बोला वो,
"मेरे पूज्नीय दादा श्री के कारण!" कहा मैंने,
"ओह! नमन करता हूं उन्हें! चरण-वंदन!" बोला वो,
"मुझे जहां भी भेजा जाता, जाता था! कुछ भी हो, अंधड़, तूफ़ान, बाढ़ कुछ भी! जाना है तो जाना है!" कहा मैंने,
"यही है ललक!" बोला वो,
"हां, ललक!" कहा मैंने,
"एक बात बताओ?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"उनके बारे में कुछ ऐसा बताओ कि इस समय मेरा रोम रोम अमलिया हो जाए!" कहा उसने,
"क्या करोगे!" बोला वो,
"बताओ!" बोला वो,
"मैं तुम्हें एक किस्सा बताता हूं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"उनको एक इत्तिला मिली कि एक गांव में पुरानी सराय है!" कहा मैंने,
"सराय?" बोला वो,
"हां, मुसाफिरखाना!" बोला मैं,
"क्या आज भी है?" बोला वो,
"खंडहर!" कहा मैंने,
"ओह! अच्छा! फिर?'' बोला वो,
"खबर के मुताबिक़, उस सराय के अंदर एक कुआं है, काफी पुराना, उस कुएं में धन है, प्रचुर मात्रा में!" बोला मैं,
"ये सराय कहां है?" पूछा उसने,
"लखनऊ से दक्षिण में!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"हां! आज भी है!" कहा मैंने,
"होगी, ज़रूर! फिर?" बोला वो,
"उन्हें बताया गया, कि उस सराय से कोई दो औरतें, सजी-धजी निकलती हैं, और मुसाफिर कोई हो, अकेला-दुकेला तो उसे रिझाती हैं, धन का लालच देती हैं और कुएं में धक्का दे देती हैं!" कहा मैंने,
"क्या ऐसा ही था?'' बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तब वे वहां गए?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?'' बोला वो,
"वे औरतें पहली रात न मिलीं!" बोला मैं,
"फिर?" पूछा उसने,
"दूसरी रात भी नहीं!" बोला मैं,
"कहीं पता तो नहीं चल गया?'' बोला वो,
"नहीं! सुनो!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोला वो,
"लेकिन तीसरी रात वे मिलीं! उन्होंने अपने आपको, एक गांव का बताया, कि वे रास्ता भूल गयीं, अब कोई आसरा नहीं, पता नहीं क्या हो, वे अंदर छिपी बैठी हैं, मदद के इंतज़ार में!" बोला मैं,
"थीं कौन?" बोला वो,
"बताता हूं!" कहा मैंने,
"क्या प्रेत?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"संगिया!" कहा मैंने,
"ये क्या?'' बोला वो,
"ये? हमज़ाद सुना है?'' कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"हमज़ाद, परछाईं में ही रहता है खुद की!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो समझो वो औरत हमज़ाद थीं!" कहा मैंने,
"ओह! फिर?" पूछा उसने,
"वे उन्हें अंदर ले गयीं! अंदर गए, तो पूरा कमरा सजा हुआ! हर चीज़ वहां पर! उन्होंने सबकुछ देखा, सबकुछ, लेकिन एक चीज़ नहीं दिखी!" बोला मैं,
"क्या?'' पूछा उसने,
"रौशनी की वजह!" कहा मैंने,
''अरे?" बोला वो,
"रौशनी उनके बदन से ही निकलती थी! हर तरफ फैलती थी!" कहा मैंने,
"लेकिन हमज़ाद तो अंधेरा होता है?" बोला वो,
"ये नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"एक मिनट?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"इस औरत हमज़ाद को, कुछ और भी कहते हैं?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"मैंने सुना है!" बोला वो,
"मैं बताऊं?" बोला मैं,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"सिलाह या सिला!" बोला मैं,
"हां! यही!" बोला वो,
"ये सिला, बहुत ही खूबसूरत होती है! बेहद ही खूबसूरत!" कहा मैंने,
"हां, सुना है कि जिन्नी से भी ज़्यादा!" बोला वो,
"सही सुना है!" कहा मैंने,
"इनके बारे में कुछ बताएं?" बोला वो,
"ये एक सिला, रूह है, बेपनाह ताक़त की मालकिन! अक्सर पहाड़ी वादियों में, धुंध में और फूलों की जगह पर दीख पड़ती हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"इनकी आंखें, लगातार रंग बदलती हैं!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोला वो,
"जिसका अक्स सामने हो, उसी का रंग!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"नीला हो तो नीला, पीला हो तो पीला, सफेद हो तो सफेद!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"देह से एक महक उठती है!" कहा मैंने,
"कैसी महक?" बोला वो,
"हल्की सी शहतूती सी!" बोला मैं,
"ये क्या?" बोला वो,
"सुबह सुबह शहतूत के पेड़ के नीचे एक गंध आती है, अक्सर धुंध में, ठीक वैसी ही!" बोला मैं,
"किसके करीब मानो?"' बोला वो,
"मुरैय्या के सी!" बोला मैं,
"अच्छा! और बदन?" बोला वो,
"बेहद ही नफ़ीस! तराशा हुआ सा!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"बाल नीचे टखने तक!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"भरा भरा सा जिस्म, गोरा, दूध का सा!" कहा मैंने,
"और कद?" बोला वो,
"ऊंचा ही!" कहा मैंने,
"छह फ़ीट?" बोला वो,
"हां, इतना मानो!" बोला मैं,
"कोई पहचान?" पूछा उसने,
"हां!" बोला मैं,
"क्या?" पूछा उसने,
"उसके दांत नहीं देख पाओगे!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोला वो,
"जैसे ही सामने होगी, मदहोशी चढ़ जायेगी!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"इसका उद्देश्य?" पूछा उसने,
"कहते हैं, उसे इंसानी खून की गर्मी से जवानी का रंग मिलता है!" कहा मैंने,
"बाप रे!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये अभी भी हैं?" पूछा उसने,
"हां!" बोला मैं,
"कहां?" पूछा उसने,
"हैं कई जगह!" बोला मैं,
"कोई बचाव?" बोला वो,
"हां है!" कहा मैंने,
"वो क्या?'' पूछा उसने,
"जब भी लगे, कि आज सिला से साबक़ा पड़ा, फौरन दांत से, खंजर से या कांटे से अपने बदन में काट आकर खून निकाल लो! सिला नहीं आएगी पास! वापिस ही नहीं आएगी!" बोला मैं,
"ये हुई कुछ बात!" बोला वो,
"हां, ये ही बचाव है!" कहा मैंने,
"अरे हां? तो फिर क्या हुआ? वो कमरा?" पूछा उसने,
"हाना, तो उन औरतों ने खाने की पूछी, मना कर दी! इस तरह रात गहरा गयी! और सिला का कद, बढ़ने लगा! लेटेगी तो लम्बी हो जायेगी!" कहा मैंने,
"अरे?" बोला वो!
"हां, वो लम्बी होती जाती है!" कहा मैंने,
"अच्छा, फिर?" पूछा उसने,
"तब दादा श्री ने कहा कि!" कहा मैंने, रुका और गिलास में बचा बिलायती-पानी गटक लिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब जो हुआ था, वो लिखता हूं! मैंने दो बार उनके मुंह से ये किस्सा सुना था! उन्हें शायद पसंद था या ये पहला ही सामना हुआ था उनका किसी सिला से, ये हो सकता था और नहीं भी! खैर..
"कि तुम दोनों आदम तो हो नहीं!" बोले वो,
"फिर?'' बोली एक,
"हो या नहीं?" पूछा उन्होंने,
"सही पहचाना!" बोली एक,
"कौन हो?" पूछा उन्होंने,
"सिलाजी!" बोलीं वे दोनों!
"अच्छा! सिला!" बोले वो,
"हां! सिला!" बोली एक,
"तो अब बताओ क्या हो तुम्हारा?" बोले वो,
"तू आलिम है, ये तो मालूम है!" बोली एक,
"जो न मालूम हो और कुछ तो पूछ लो!" बोले वो,
"हिम्मत है तुझमे!" बोली एक,
"हिम्मत के साथ पकड़ भी रखता हूं!" बोले वो,
"चल! पकड़ के दिखा!" बोली एक,
और छत की तरफ लपकी! छत से जा चिपकी वो! किसी परछाईं की तरह! परछाईं का रंग काला न हो कर धुंए जैसा था!
अब दूसरी खड़ी हुई और वो भी दीवार में बने एक छेद की तरफ लपकी! इतनी छोटी हुई कि छेद में जा बैठी!
"पकड़?" अब दोनों ही चीखीं!
"क्या ज़रूरत!" बोले वो,
"क्यों?" बोलीं एक साथ दोनों ही!
"खुद ही पकड़ में हो!" बोले वो,
"किसकी?" पूछा दोनों ने,
"मेरी!" बोले वो,
"क्या?" बोलीं वो!
"मेरा पांव देख?" बोले वो,
और जैसे ही पांव हल्का सा हटाया कि बाल थे वहां, बिलबिला रहे थे उनसे मिलने को!
वे हंस पड़े!
"तुम कितनी चालाक हो ये तो जानता हूं!" बोले वो,
अब आयीं दोनों नीचे!
"ले जाऊं इन्हें साथ?" बोले वो,
"नहीं!" बोलीं दोनों!
"कब से हो यहां?" पूछा उन्होंने,
"बरसों से!" बोली एक,
"क्यों ठहरी हो?" पूछा उन्होंने,
"ठहराया गया!" बोली एक,
"किसने?" पूछा उन्होंने,
"जोड़िया!" बोली एक,
"अब कहां है?" पूछा उन्होंने,
"गया!" बोली वो,
"अंधेरा!" बोली दूसरी!
"कितने कुलांचे?" पूछा उन्होंने,
"एक सौ चौवालीस!" बोली एक,
"कितने और?" बोले वो,
"बावन!" बोली एक,
"बदल में क्या?" बोले वो,
"जो चाहो?'' बोली वो,
"जायेगी?" पूछा उन्होंने,
"ना!" बोली वो,
"आया कोई!" बोली एक,
"यहीं ठहर!" बोले वो,
और बाल पकड़ लिए हाथों में! 
"क्या करेगी?" बोले वो,
"जो बोले?" बोलीं दोनों!
"जतिया?" बोले वो,
"ना!" बोलीं दोनों!
"गाड़ दूं?" बोले वो,
"ना!" बोलीं दोनों!
"छोड़ दूं?" बोले वो,
"हां!" बोली एक,
"फिर वही?" बोले वो,
"हुआल तक!" बोली एक,
"अब ना!" बोले वो,
"क्यों?" बोली एक,
"ले ले?" दूसरी बोली,
"आ जा, ले जा!" बोली पहली!
"सोच ले!" दूसरी बोली!
"चुप्प!" बोले वो,
और दोनों ही चुप्प!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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इस सिला को हमारे यहां, तंत्र में भी 'उप्पणी' या 'मुद्राखि' कहा जाता है, ये एक प्रकार की चुड़ैल ही होती है! कहीं पाठ ये सोचें कि इस्लाम से इसका कुछ लेना-देना है, ऐसा नहीं! प्रश्न ये, कि सिला तो औरत हुई, फिर इनके मर्द? वे कौन हैं? वे भी हैं, उन्हें घूल कहा जाता है, देखने में ये विशालकाय, जिन्नात जैसे ही होते हैं परन्तु इनका मुख कोई नहीं देख पाता! हिंदचीन में घूल अधिक मात्रा में हैं, पता नहीं क्या कारण है! घूल को यहां, घौटन कहा जाता है! इनसे सामना बहुत ही कम हो पाता है किसी भी इंसान का, कारण ये भूमि से ऊपर वास करते हैं! जहां निरंतर अग्नि सी जलती रही है! जब कोई उल्का पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करती है, तब वो जल उठती है, शायद, यही इनका वास-स्थल हो! घूल से साबक़ा नहीं तो अधिक पता भी नहीं, लिखा भी नहीं मिलता अधिक! हां, सिला से साबक़ा पड़ता है! आजकल जंगल कट गए, वीराने आबाद हो गए, इसी कारण से अंधेरे के ये प्राणी भी दूर होते गए हैं!
"चुप्प?" बोले थे वे!
और वे दोनों चुप हो गयी थीं!
"बस, अब बहुत हुआ!" बोले वो,
और ये बोल, खड़े हो गए, चलते चले बाहर, जब भी पांव आगे बढ़ाते अंधेरा आगे बढ़ता जाता! वे चलते चले गए और दो चीखें सुनाई दीं! वे वहीं धंस गयीं! आज तक वहीं धंसी हुई हैं! अब उस सराय के पास, एक दरगाह है, छोटी सी, लोग आते जाते हैं, बसेरा बन गया है! आसपास बसावट भी है!
"लेकिन चीखें?" बोला वो,
"हां!" बोला मैं,
"क्या हुआ था?" पूछा उसने,
"वो बाल!" कहा मैंने,
"हां? बाल?" बोला वो,
"आग लगा दी थी मंत्र से!" बोला मैं,
"क्या जीवट रहा होगा!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
हमने फिर से गिलास भरे और पी लिए, साथ में अपना मसालेदार शोरबा भी लेते रहे! कच्चा-आम डाला गया था उसमे! दांतों में आ जाता था!
"एक बार की बताऊं?" बोला मैं,
"क्यों नहीं?" बोला वो,
"एक बार वो ध्यानावस्था में थे!" कहा मैंने,
''अच्छा!" कहा उसने,
"उन्होंने देखा, कि कुछ गेरुए वस्त्रों वाले साधक, चले आ रहे हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"उन सभी के हाथों में रस्सी है!" बोला मैं,
"वो काहे?" बोला वो,
"उन्होंने एक से पूछा!" बोला मैं,
"फिर?" पूछा उसने,
"जवाब मिला, बारह गए, दो रहे, तीन भाग लिए!" बोला मैं,
"इसका क्या मतलब?" पूछा उसने,
किसी को समझ नहीं आया!" बोला मैं,
"फिर?" पूछा उसने,
"तब एक हैं श्री श्री श्री जी, वे उनके प्रधान-शिष्य थे, उन्होंने सुलझाने का प्रयास किया!" कहा मैंने,
"सुलझा?" बोला वो,
"बारह गए!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अब क्या बारह?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"माह?" कहा मैंने,
"हां! माह!" बोला वो,
"लेकिन ये नहीं था!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
'दो रहे, तीन भाग लिए! इसका अर्थ?" कहा मैंने,
"अरे हां!" बोला वो,
"तब?' बोला वो,
"माह भी नहीं, तो फिर क्या?" पूछा मैंने,
"राशि?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"पूनम, अमावस?" बोला वो,
"अरे नहीं भाई!" कहा मैंने,
"तो आप ही बताओ" बोला वो,


   
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