वर्ष २००९, एक साधना...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २००९, एक साधना, अक्षुण्ण भार्या वेणुला!

112 Posts
5 Users
117 Likes
1,436 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"ये तो सत्य है!" बोला वो,
"एक श्वास भी, विकरालता धारण करने में समर्थ है!" कहा मैंने,
"अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न, आपसे जानना चाहूंगा!" बोला वो,
"अवश्य!" बोला वो,
"ईश्वर!" बोला वो,
"ईश्वर!" कहा मैंने,
"शेष आप समझते ही होंगे!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आपके विचार?" बोला वो,
"एक प्रश्न है!" कहा मैंने,
"सो क्या?'' पूछा मैंने,
"क्या इच्छाओं का दमन सम्भव है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"हां, नहीं!" बोला वो,
"कोई हो?'' बोला मैं,
"सम्भव करना होगा!" बोला वो,
"जैसे भगवान बुद्ध?" कहा मैंने,
"कह सकते हैं!" बोला वो,
"क्या उन्होंने इच्छाओं का दमन किया?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"दमन अथवा त्याग?" बोला मैं,
"ये तो विकट प्रश्न है!" कहा उसने,
"बताओ?" कहा मैंने,
"इनमे अंतर् स्पष्ट करें?" बोला वो,
"दमन अर्थात, शेष को दमन करना!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोला वो,
"अर्थात इच्छाओं को रोक लेना, मन को समझा लेना!" कहा मैंने,
"ये तो दुष्कर है!" बोला वो,
"ये नहीं पूछा, कौन सी इच्छाएं?" कहा मैंने,
"कौन सी?" बोला वो,
"दमन मात्र उनका जिनका आपने भोग न किया हो!" कहा मैंने,
"जैसे?" बोला वो,
"स्वर्ग की इच्छा!" कहा मैंने,
"और?" बोला वो,
"अतुलनीय धन की इच्छा!" कहा मैंने,
"और?" बोला वो,
"जो सम्भव ही न हो!" कहा मैंने,
"ये कैसा स्पष्टीकरण है?'' बोला वो,
"क्या इच्छा कभी पूर्ण होती है?'' कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"और हो भी जाए, कोई एक, इस जीवन में, तो क्या इच्छा वही, दूसरी को गांठ बांध नहीं लाती? मैं उसे पूरक कहना चाहूंगा!" कहा मैंने,
"बांध लाती है!" बोला वो,
"अब त्याग!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"सरल है, जिसका भोग आप कर चुके हों!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
"स्त्री-भोग, वाहन-भोग, भूमि-भोग, गृहस्थी-भोग इत्यादि इत्यादि!" कहा मैंने,
"सत्य है!" बोला वो,
"तब भगवान बुद्ध ने क्या किया? दमन या त्याग?" पूछा मैंने,
"त्याग!" बोला वो,
"दमन क्यों नहीं?" बोला मैं,
"ये तो असम्भव है!" बोला वो,
"खेद का विहस्य है, कि आज भी लोग भगवान बुद्धा का मूल आशय समझे ही नहीं!" कहा  मैंने,
"जानते हैं?" बोला वो,
"प्रयास किया है!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"निर्वाण प्राप्ति कैसे हो, ये नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोला वो, हैरत से,
"निर्वाण-स्थली तक पहुंचा कैसे जाए, बिन अवरोध के, ये!" कहा मैंने,
"ओह! स्पष्ट हो गया!" बोला वो,
''और अब ईश्वर!" कहा मैंने,
"हां, बताइये!" बोला वो,
"ईश्वर तो मात्र 'ऐच्छिक संज्ञा' ही है!" कहा मैंने,
"क्या?" उसने चौंक कर पूछा!
"और क्या!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"ईश्वर के समक्ष आप अपनी इच्छा-पूर्ति की समस्या ही तो रखते हो!" कहा मैंने,
"सो ही सारा जग!" बोला वो,
"ईश्वर को कब मानते हो अपना?" कहा मैंने,
"सच है!" बोला वो,
"वो तो एक ऐसे स्थान पर बिठा दिया गया है जहां बस, सब सम्भव है, कोई दोष नहीं है, कोई दुःख नहीं, सब कल्याण ही कल्याण! है न?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"तो आपके लिए ईश्वर मात्र एक मार्गदर्शक भर है, एक सहायक जो आपको उस स्थान पर पहुंचा ही देगा!" कहा मैंने हंसते हुए!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

 

"और चलो, मान लिया जाए, या फिर मैं इसे असम्भव के नज़दीक ही कहूं भी, तब भी ये ईश्वर रहा तो वही!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और फिर भी तो सुखेच्छा!" कहा मैंने,
"सत्य!" बोला वो,
"बालचंद्र!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"कितना जीवन हम, निकाल देते हैं, नाश कर देते हैं वो सब करने में, जिनका या तो क्षणिक ही लाभ होता है या फिर कुछ ही लम्बा!" कहा मैंने,
"समझने वाला समझे!" बोला वो,
"एक बात कहता हूं!" कहा मैंने,
''हां!" बोला वो,
"ईश्वर है, मान लेता हूं!" कहा मैंने,
''ठीक!" बोला वो,
"पर वो ईश्वर भी तो नियमों से, प्रकृति के नियमो से अनभिज्ञ नहीं! उनका  उल्लंघन नहीं करता!" कहा मैंने,
''अर्थात?" बोला वो,
"क्या यौवन न ढलेगा? क्या वृद्धावस्था न आ घेरेगी? न मृत्यु ही आएगी?" कहा मैंने,
"ये है विशुद्ध आंकलन!" कहा उसने,
"तब, उस ईश्वर को क्या तंग करना!" कहा मैंने,
"तंग!" बोला वो और हंसा!
"क्यों नहीं हम समझते कि शिशु को यदि सहारा न ही दिया जाए तो कदापि खड़ा होना न सीखे?" कहा मैंने,
"सच है!" बोला वो,
"क्यों नहीं हम समझते कि न ऊष्मा बढ़ेगी ही, न वाष्प उठेगी, न संघटन होगा और न ही बरसात होगी?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"चक्र!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"हम सभी एक चक्र से बंधे हैं!" कहा मैंने,
"जिसने जन्म लिया उसका मरण तय है!" कहा मैंने,
''हां!" बोला वो,
"कोई औसत से अधिक या कोई औसत तक या कोई औसत से कम ही!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
''तब ईश्वर क्या?" पूछा मैंने,
"महासत्ता!" बोला वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"तब सत्ता ही कैसी?" पूछा मैंने,
"कहूं कि यही सिखाया गया?" बोला वो,
"तब स्वयं जांच लिया?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"प्रश्न ही नहीं उठा!" बोला वो,
"उठता भी नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"क्योंकि प्रश्न वो ही करता है, जिसे प्रश्न का उत्तर चाहिए, जो स्वयं ही उत्तर जानने के मुग़ालते में हो, वो प्रश्न नहीं उठाएगा! जैसे, कौन बताता है चील या बाज़ को, खोह या ऊंचे बंज़र वृक्ष पर घोंसला रखने को?" पूछा मैंने,
"ये तो उनकी सहज प्रवृति है!" कहा मैंने,
"उस से लाभ?" पूछा मैंने,
"पता नहीं?" बोला वो,
"अपनी संतति को प्राण-भय दिखा, शीघ्र ही सीखने की ललक उत्पन्न करना!" कहा मैंने,
"ये सम्भव है!" बोला वो,
"जी नीचे रहता है, सौ शत्रु उसके! सौ विपत्तियां झेले!" कहा मैंने,
"लाजमी है!" बोला वो,
''अब और देखो!" कहा मैंने,
"क्या मीन अपने बच्चों को तैरना सिखाती है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्या सदा संग रहती है?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं रहता!" बोला वो,
"तो हम क्या सामाजिक पशु नहीं?" कहा मैंने,
''हैं!" बोला वो,
"तब, संतति से भी इच्छाएं!" कहा मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"स्मरण रहे!" कहा मैंने,
उसने हां में सर हिलाया!
"सागर में चाहे कितना जल भर जाए, सतह उतनी ही रहती है!" कहा मैंने,
"सो ही मन!" कहा मैंने,
"सटीक!" बोला वो,
"इच्छाएं ही वो जल है!" कहा मैंने,
"ये भी सही!" कहा उसने,
"और मन वो सागर!" कहा मैंने,
"हमने चर्चा जड़-चेतन से आरम्भ की थी, अतः पुनः लौटता हूं उसी विषय पर! प्रश्न था कि प्रकृति के ऋणावेशित-तत्व से ये जड़-चेतन, उजड़ता को प्राप्त कर, संसर्ग करता है!"कहा मैंने,
"हां यही!" बोला वो,
 

   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"ये संसर्ग, दीर्घकालीन एवं अचलित सा प्रतीत होता है!" कहा मैंने,
"किस प्रकार?" बोला वो,
"इस प्रकृति में जितनी भी सौम्य वस्तुएं हैं, करुणा हैं वे सब स्त्री-कारक हैं! अर्थात, स्त्री का प्रारम्भिक, प्रतीकात्मक चित्रण एवं गुण ही मृदु-संज्ञक है!" कहा मैंने,
"जैसे?" बोला वो,
"जैसे, सुंदरता, दया, करुणा, पूजा आदि!" कहा मैंने,
"पुरुष-संज्ञक कठोर एवं तिक्त स्वभाव का होता है गुण!" कहा मैंने,
"जैसे?" बोला वो,
"क्रोध! विलास, भय, धन, लालच, पर्वत, हिम आदि!" कहा मैंने,
"समझा!" बोला वो,
"दीर्घ एवं स्थायी अर्थ, सदैव पुरुष ही होते हैं!" कहा मैंने,
"उदाहरण?" बोला वो,
"आकाश, सागर, अन्धकार, प्रकाश आदि!" कहा मैंने,
"क्या कुछ उभय-गुण भी हैं?" बोला वो,
"हां! काम, रक्षा, जीविका, समृद्धि ये सब, एक दसूरे, समस्थानिक अवयव से जुड़ कर स्त्रीत्व प्राप्त करते हैं!" बताया मैंने,
"मुझे प्रसन्नता हुई!" बोला वो,
"अब आप एक स्वयम्भूतेषि-महाक्रिया देखिये!" कहा मैंने,
"अर्थात?" बोला वो,
"सागर और नदी! आकाश और धरा, चंद्र और चन्द्राणि अर्थात चांदनी! विष और विषैली आदि!" कहा मैंने,
"महाक्रिया?" बोला वो,
"जो सदैव चलायमान रहती हैं!" कहा मैंने,
"समझा!" बोला वो,
"अब है साझा!" कहा मैंने,
"वो भला क्या?" पूछा उसने,
"काम! संतान, हठ, विद्या आदि!" कहा मैंने,
"अत्यंत ही विस्तृत अध्ययन है आपका!" बोला वो,
"सब यहीं सीखा है!" कहा मैंने,
"मायने अंत में क्या?" बोला वो,
कुछ अकाट्य नियम ही!" कहा मैंने,
"जैसे?" बोला वो,
"बिन धन और ऋण के बिना कोई सृजनकारक कार्य नहीं होता! बिन प्रकृति एवं जड़-चेतन की एक अवस्था के बिना, सृजन सम्भव नहीं! जो घटता है, वो बार बार घटे जा रहा है! वो घट रहा था, आज भी घट रहा है और कल भी घटेगा!" कहा मैंने,
"अर्थात?" बोला वो,
"ईश्वर, कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा!" कहा मैंने,
"कौन सा ईश्वर?" पूछा उसने,
मैं मुस्कुराया!
"बहुत ही अच्छा प्रश्न पूछा आपने!" कहा मैंने,
"बताएं!" बोला वो,
"सौ करोड़ मनुष्य, और सौ करोड़ ईश्वर! समझे?" बोला मैं,
"क्या मतलब?" बोला वो,
"ईश्वर का वास, मात्र मन में ही रहता है, और मन, किसी का भी एक समान नहीं, न माँ से उत्पन्न संतान का, न किसी और का, न ही जुड़वां संतान का, किसी का नहीं!" कहा मैंने,
"सो तो है! तो मात्र एक कल्पना ही है?" पूछा उसने,
"अगर कहूं कि हां, तो भी कोई उत्तर नहीं होगा और कहूं न तो भी कोई उत्तर नहीं!" कहा मैंने,
"फिर से जटिलता!" बोला वो,
"बता रहा हूं!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"जब इस संसार में आप आये, तो आपको मूर्त रूप में आपके माता-पिता ही लाये! प्रथम ईश्वर वही हैं आपके! जब आपने चलना सीखा, तब शिक्षण ग्रहण किया, ये हुए गुरु, ये द्वितीय ईश्वर हुए आपके! और तृतीय ये जगत, जो आपकी निरंतर अनुभव कराता है आपको कि आप इस संसार में जीवित हैं!" कहा मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"तो बालचंद्र?" पूछा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"पूजन के समय जो मूर्ति आपने स्थापित की उस परम-परमात्मा की, जिसे आपने कभी देखा ही नहीं, जिसे आपने गंध रूप में सूंघा ही नहीं, जिसे आपने स्पर्श ही नहीं किया, उस सबसे पहली थाली की भेंट?" पूछा मैंने,
"ओह! हां! सत्य!" बोला वो,
"स्मरण रहे, जन्म के लिए, आपके, आप बाद में ही तो चुने गए थे? पहले तो वो स्त्री और पुरुष जो आपका सृजन करने वाले थे! उनकी थाली? उनके लिए कोई समय नहीं? क्यों? जानते हो क्यों?" पूछा मैंने,
"क्यों?" धीरे से पूछा उसने,
"चूंकि आपने उनको देखा भी है, गंध भी ली है और स्पर्श भी किया है! जो अपने पास होता है हम मनुष्य उसकी क़द्र नहीं करते! जब तो वो, वस्तु या व्यक्ति, दृष्टि से ओझल, गंधहीन, स्पर्शहीन नहीं हो जाते! अब जो रहा नहीं, वो इन सभी से रहित हुआ कि नहीं?" पूछा मैंने,
''हां, रहा, हो गया!" बोला वो,
"इसी प्रकार ये ईश्वर!" कहा मैंने,
"आज बहुत कुछ समझ आया मुझे! बहुत कुछ!" बोला वो,
"और भगवान! ये भला क्या है? मैंने ईश्वर का ही सम्बोधन किया, भगवान का नहीं क्यों?" पूछा मैंने,
"ईश्वर और भगवान एक न हुए?" बोला वो,
"अभी बस मूर्ख कह ही देता आपको!" कहा मैंने,
"मुझे तो प्रसन्नता होती!" बोला वो, मुस्कुराते हुए!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"भगवान का अर्थ क्या?'' पूछा मैंने,
"मैं तो बोलने लायक ही न रहा!" बोला वो,
"अरे? बताओ तो?" कहा मैंने,
"मेरे लिए तो ईश्वर और भगवान, एक ही हैं!" बोला वो,
"नहीं बालचंद्र!" कहा मैंने,
"आप बताएं?" बोला वो,
"भगवान का अर्थ है, स्थूल रूप में, अंश!" कहा मैंने,
"अंश?" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने,
"हां, उस सार्वभौम-सत्ता का अंश!" कहा मैंने,
"ऐसे तो हम सभी अंश ही हैं?" बोला वो,
"हां! ये भी सत्य है!" कहा मैंने,
"तब हम क्या भगवान हैं?" बोला वो,
"कण कण में भगवान!" कहा मैंने,
"ओह! अब आया समझ!" कहा उसने,
"प्रत्येक कण उसका का, उसी का अंश है, ये स्थूल, ये सूक्ष्म, ये मूर्त, ये अमूर्त, ये दृष्ट और अदृष्ट! सब उसी का अंश है!" कहा मैंने,
"समझ गया हूं!" बोला वो,
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"पौधे को कौन आदेश देता है कि वो पुष्प का निर्माण करे?" कहा मैंने,
"प्रकृति!" बोला वो,
"और पुष्प में सुगंध?" पूछा मैंने,
"प्रकृति!" बोला वो,
"तब, सभी पुष्पों की सुगंध एक सी क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"अरे हां!" कहा उसने,
"आदेश पुष्प का हुआ, सुगंध का नहीं, सुगंध तो उस पौधे का गुण है!" कहा मैंने,
"सत्य! परम सत्य!" कहा उसने,
"पुष्प हुए हम, ये संसार और हमारे गुण, ये हुई सुगंध!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"मात्र सुगंधित पुष्प ही भगवान को अर्पित होते हैं न?" पूछा मैंने,
"हां, अधिकांश!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"तो?" बोला वो,
"यदि किसी पौधे के पुष्प को, कीट-दोष हो जाए, तो क्या वो पौधा स्वतः ही, उसी क्षण उस पुष्प को गिरा देता है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"स्वतः ही गिरता है?'' कहा मैंने,
''हां!" बोला वो,
"अपने दोष के कारण?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"पौधा, वो ईश्वर, पुष्प हम और दोष दुर्गुण! ऐसा ही है न?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब ये कौन निर्णय करे कि क्या गुण और क्या दुर्गुण?" पूछा मैंने,
वो सोच में पड़ा!
"इसका उत्तर ईश्वर तो क़तई नहीं! चूंकि, यदि ईश्वर ही इसका उत्तर होता तो उस पुष्प में दोष ही नहीं होने देता, वो कीट-दोष से उसे पीड़ित ही नहीं होने देता!" कहा मैंने,
"तब कौन?" बोला वो,
मैं हंस दिया! तेज! खिलखिलाकर!
"आपकी चेतना! कौन सी चेतना?" पूछा मैंने,
"कौन सी?" बोला वो,
"निर्गुण-चेतना!" कहा मैंने,
"निर्गुण-चेतना?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"निर्गुण का अर्थ क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"जिसमे न दुर्गुण हों और न ही सगुण!" बोला वो,
"या?" कहा मैंने,
"या?" बोला वो,
"या दोनों ही समान ही हों?" कहा मैंने,
''अरे?? हां!" बोला वो,
"जिस प्रकार, जल की सतह पर तैरती नाव, चप्पू की मदद से आगे बढ़ती जाती है और मात्र तले में एक छोटा सा सूराख़ होने पर, लगभग डूब ही जाती है, इसमें भला, चप्पू का क्या दोष?" पूछा मैंने,
''और ये चप्पू?" बोला वो,
"चेतना!" कहा मैंने,
वो हतप्रभ!
"चेतना से ही तो आप प्रत्येक कार्य किया करते हैं! ये चेतना का ही ईंधन है जो निरंतर जलता है, आपको ऊर्जा देता है और आप चलायमान रहा करते हैं!" कहा मैंने,
"हां, यही!" बोला वो,
"अब सूराख़! सूराख़ आपका दुर्गुण!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"क्यों? क्या एक छोटी सी बदली, समस्त सूर्य का ग्रास कर, धरा पर छाया का निर्माण नहीं कर देती?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"परन्तु प्रश्न था कि कौन निर्णय करे! और निर्णय करने वाला या वाली है आपकी चेतना! चेतना जब प्रबल हो उठती है, तब त्वरित-विवेक का रूप ले लेती है! ये क्षणों का त्वरित-विवेक ही आपको गहरे गिरने से, प्राण दान कर सकता है! क्यों?" कहा मैंने,
वो इस से पहले कोई उत्तर देता कि..........!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"और हां? बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"ये विवेक क्या?" पूछा उसने,
"चेतना का बल!" कहा मैंने,
"बल?" बोला वो,
"हां? बल?" कहा मैंने,
"नहीं स्पष्ट हुआ!" बोला वो,
"बालचंद्र! तपस्या का मूल यही बल है! ये बल, अत्यंत बलशाली है! इसको निरंतर साधना ही होता है, अन्यथा, यही बल, फुफ्फुट समान हो जाता है और दम्भ का मार्ग प्रशस्त करता है! तपस्या से ही इसको साध कर, अंगीकार किया जाता है! जिस प्रकार, अन्न के दानों में से, दोष वाले दाने पृथक किये जाते हैं और उत्तम प्रकार के दाने, सहेज लिए जाते हैं!" कहा मैंने,
"इस बल के विषय में, पहली बार ही जान पाया हूं!" बोला वो,
"ये सब इतना सूक्ष्म है, कि आप किसी माखी के चलते पंखों की आवृति देखने में, सक्षम हो जाएँ परन्तु ये सूक्ष्म ज्ञान, सदैव ही, रिसता रहता है, इसके रिसाव को रोकने के लिए तपस्या का, ध्यान का आवरण चढ़ाना होता है!" कहा मैंने,
"परन्तु ये सरल ही नहीं!" बोला वो,
"जो भी कार्य, 'ऐच्छिक' हो, उसमे विलम्ब अवश्य ही लगता है जैसे बीज, अंकुरण, पादप, पालन-पोषण फिर यौवन और फिर फल! और फल भी उत्तम, गुणवर्धक हो, मिठास से युक्त हो, इसका कोई परिमाण नहीं!" कहा मैंने,
"तब इस परिमाण हेतु क्या किया जाए?" बोला वो,
"ये सब आरम्भ से ही आरम्भ होता है! मध्य से आरम्भ कदापि नहीं होता, हां अंत अवश्य ही किया जा सकता है!" कहा मैंने,
"विवेक का आपने एक प्रकार बताया, त्वरित-विवेक, क्या अन्य भी हैं?'' बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
''वो कौन से?" पूछा उसने,
"पहला, त्वरित!" कहा मैंने,
"दूसरा?" बोला वो,
"वासित!" कहा मैंने,
''वासित?" बोला वो,
"हां, वासनिक!" कहा मैंने,
"ये किस प्रकार का है?" बोला वो,
"ये विवेक, सुप्तावस्था में भी जागृत रहता है! ये विवेक सदैव आपके साथ ही वास करता है! योजनाएं, कला और उसके रूप इसी विवेक से उत्पन्न होते हैं!" कहा मैंने,
"जैसे?" बोला वो,
"किसी भवन की नींव कैसी हो? भूमि यदि रेतीली, नमीदार हो तो पहले नींव में क्या भरा जाए, और जो भरा जाए, उसके स्थान पर कोई ऐसा पदार्थ या वस्तु जो टिकाऊ अधिक हो और रुके अधिक समय तक! यहीं से विकासवाद का भी जन्म होता है!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
''बालचंद्र! ये विकास, रातोंरात नहीं, शनैः शनैः ही गोचर होता है! अर्थात, उदाहरण के तौर पर, सतयुग के उदाहरण, इस कलयुग में कहीं नहीं ठहरेंगे! मधु, रूप वही, परन्तु गुण में न्यूनता होगी आज! इसके कई कारण हैं! जल, अमृत समान रहा होगा, आज जलजनित रोग बहुत!" कहा मैंने,
"ये तो सत्य है!" कहा उसने,
"और तीसरा?" बोला वो,
"इसे फलित-विवेक कहते हैं! अन्न उगाना, कुआं खोदना, नहर बनाना इत्यादि इसी का प्रमाण हैं!" कहा मैंने,
"हां! अब समझा!" बोला वो,
"और चतुर्थ?" बोला वो,
"उयोग-विवेक!" कहा मैंने,
"ये किस प्रकार का?" पूछा उसने,
"इसमें, न आरम्भ देखा जाता, न मध्य, न साज, न सज्जा! इसमें मात्र निर्णय ही ध्येय होता है! जैसे युद्ध, छल, जुआ, व्यभिचार!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"ये ज्ञान, कहां है, कहीं स्थित है? या पुस्तकबद्ध है?" बोला वो,
"ये सर्वत्र है!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं दीखता!" बोला वो,
"तब दोष ज्ञान में नहीं, आपकी ग्राह्य-शक्ति का है, ग्राह्य-इंद्री का है!" कहा मैंने,
"इस दोष को कैसे हटाया जाए?" बोला वो,
"बताता हूं, उस से पहले, अंतिम प्रकार का विवेक!" कहा मैंने,
''अरे हां!" बोला वो,
"पांचवां है ईश्वरीय-विवेक!" कहा मैंने,
"ये नहीं सुना?" बोला वो,
"आकाशवाणी! भविष्यवाणी! इसी के अंश हैं!" कहा मैंने,
"और?" बोला वो,
"आकाशवाणी, मात्र कर्मठों के लिए, भविष्यवाणी, भाग्यवादियों हेतु ही होती है!" कहा मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"आकाशवाणी, आकाश से नहीं आती!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"ये अंतःकरण से गूंजती है!" बताया मैंने,
''तो ये विवेक आज भी कार्य करता है?" बोला वो,
"आज भी?" बोला वो,
"हां?" बोला वो,
"बोलिये, अधिकतर आज ही!" कहा मैंने,
"सो कैसे?" बोला वो,
"स्पष्ट ही तो है!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"आज हम सभी लघु-मार्गी हैं! स्वर्ग की लालसा सभी रखते हैं परन्तु मरना कोई नहीं चाहता! हम जानते हैं कि अमुक कार्य करने से अपयश-भोग होगा, फिर भी करते हैं! किसी मादक-सुंदरी पर, व्यभिचारिय-दृष्टिपात से ही, दोष लगता है, किसे चिंता! हम सब धर्म का डंका पीटते हेम घंटाल बजाते हैं, न जाने क्या क्या किया करते हैं, उस धन के लिए जो दोषकारक है, और जिसका मूल-धर्म, गुण एवं फल मात्र दुःख ही है! और हास्यास्पद ये कि इस धन का कोई धर्म ही नहीं!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"मैं समझ गया आपका आशय!" बोला वो,
और फिर मैं भी चुप हो गया! आसपास देखा, अभी तक वो अदृश्य जल, मेरे विचारों में छलछला रहा था, मैं भूला नहीं था उसे!
"हां, बालचंद्र?'' कहा मैंने,
"जी?'' बोला वो,
"अब मुझे यहां के रहस्य के विषय में बताओ!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
और मैं उठा तब, थकावट सी होने लगी थी, उठा, अंगड़ाई भरी और फिर से बैठ गया!
"सम्भवतः, सात सौ या कुछ अधिक समय हो सकता है!" बोला वो,
"समय?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"किसका समय? सात सौ वर्ष?" पूछा मैंने,
"यहां!" बोला वो,
"इस स्थान पर?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बताएं!" कहा मैंने,
अब विस्तार से सुनना चाहता था मैं!
"उस समय ये नदी, मुंडेश्वरी, भरी-पूरी रहा करती थी!" बोला वो,
"ये नदी?" कहा मैंने, इशारा करते हुए, उस तरफ!
"हां, आज बरसाती रूप में शेष है!" बोला वो,
"हां, देख रहा हूं!" कहा मैंने,
"उस समय, ये यहां से कुछ दूर, मतलब, वो पहाड़ी है न?" बोला इशारा करते हुए,
"वो सामने?" मैंने पूछा,
"हां!" कहा उसने,
"ठीक, फिर?'' पूछा मैंने,
"ये उधर से घूमती थी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उधर देखो?'' बोला वो,
"क्या है?" मैंने फिर से घूम कर पूरब में देखा,
"वो पहाड़ियां!" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"उनके बीच एक घाटी सी!" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"बस!" बोला वो,
"क्या बस?'' पूछा मैंने,
"वहीं तो था वो साधक!" बोला वो,
"कौन साधक?" पूछा मैंने,
''एक मनीषि-पुत्र!" बोला वो,
"क्या नाम था?'' पूछा मैंने,
"विहि!" बोला वो,
"विहि!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"अंतहीन!" कहा मैंने,
"सब आज भी अंतहीन!" बोला वो,
"आज भी?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"वे मनीषि कौन थे?" पूछा मैंने,
"वे, धामेश्वर से आये थे!" बोला वो,
"धामेश्वर?" पूछा मैंने,
"हां, ये आज के उत्तर प्रदेश में है!" बोला वो,
"ओह! समझा! कुसमरा, ग्राम धमियापुर, मैनपुरी!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"इसका मतलब वहां जो शिव-लिंग भूमि से प्रकट हुआ था, उस से उन मनीषि, क्या नाम था?" पूछा मैंने,
"सुश्व!" बोला वो,
"सुश्व! उनका उस शिव-लिंग से कोई लेना-देना रहा था क्या?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"वहां, उनका आश्रम था, एक शिव-मंदिर!" बोला वो,
"आज है?" पूछा मैंने,
"प्राचीन तो सब तबाह हो गया! नया है! उसी स्थान पर!" बोला वो,
"वो शिव-लिंग?" पूछा मैंने,
"वो वही है!" कहा उसने,
"सुना है वहां कोई खेड़ा-पलट हुआ था?" कहा मैंने,
"हां, और ये खेड़ा-पलट सैंकड़ों वर्ष पूर्व हुआ होगा?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और तब वो प्राचीन शिव-लिंग निकला होगा!" कहा मैंने,
"ठीक यही!" बोला वो,
"ये खेड़ा-पलट, आगे ललितपुर तक गया है न? घूम कर?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"हड़ुकि-पांडुलिपि में, एक स्थान पर, जो गणितीय-चिन्ह हैं, उनको प्रयास द्वारा जो सरथ स्पष्ट हुआ उसके अनुसार, इक्कीस हज़ार से आधी, ऐसी पावन स्थलियां ज़मींदोज़ हो गयी थीं!
"इसका मतलब, वो हड़ुकि-पांडुलिपि बाद में लिखी गयी!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"लेकिन? उस समय संस्कृत व अन्य लिपियाँ भी थीं, मेरा अर्थ भाषाएँ, तब ये, अज्ञात हड़ुकि-लिपि? इसकी भला क्या आवश्यकता?" बोला वो,
"सम्भवतः कुछ छिपाने हेतु?" बोला वो,
"या फिर, योग्य ही समझ पाएं, इस हेतु?" कहा मैंने,
"ये भी सम्भव है!" कहा उसने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

 

"ये हड़ुक आखिर है क्या?" पूछा मैंने,
"ये सम्भवतः, कोई जनजाति या कोई विशेष सम्प्रदाय रहा होगा उस समय का!" बोला वो,
"यही लगता है!" कहा मैंने,
"अब या तो ये मिश्रित हो गया या फिर लुप्त हो गया!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"यही आता है मुझे तो समझ!" बोला वो,
"एक बात और?" पूछा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"ये जिस बाबा ने आचार्य जी को वो पांडुलिपि दी थी, वो लगता कैसा था?" पूछा मैंने,
"ये तो स्वयं आचार्य जी ही बताएं!" बोला वो,
"वे कब आएंगे?" पूछा मैंने,
"अभी तो समय है!" बोला वो,
"कोई और जानता है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"दिशि!" बोले वो,
"उनकी पुत्री?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
''आओ फिर!" मैं खड़ा हुआ ये कहते हुए!
"वापिस?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
और हम वापिस हो लिए वहां से!
"एक काम करना?'' बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"दिशि से ही इस जगह का रहस्य पूछना!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"हो सकता है कोई कॉपी मिल जाए आपको!'' बोला वो,
"ये तो बहुत ही बढ़िया रहेगा!" कहा मैंने,
"और क्या!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"भोजन संग ही करोगे?" बोला वो,
"हां! कर लूंगा!" कहा मैंने,
हम बतियाते हुए वहां तक चले आये, हाथ-मुंह धोये और मैं उस बालचंद्र के कक्ष में आ बैठा!
"भोजन लगवाता हूं!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
बालचंद्र के कमरे में, पुरानी किताबें पड़ी थीं, सभी ऐसी ही, इसी विषय से संबंधित! कुछ नयी और कुछ पुरानी, दराज़ के साथ ही, एक कील पर, उसका कुरता लटक रहा था! तभी वो आ गया!
"पानी!" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने,
पानी लिया और पानी पिया मैंने फिर, घड़े का पानी था, ठंडा था उस समय तक तो!
फिर एक महिला भोजन ले आयी, उसने दो थालियां रख दीं सामने, कुछ दो चमचे सब्जी आलू की, कुछ करेले की भुजिया और परमल की सब्जी! तरी वाली! थोड़ा सा पीले रंग का दही! प्याज और हरी मिर्चें! फिर हाथों से ही चावल निकाले, दो दो रोटियां! और हमने खाना शुरू किया फिर!
भोजन कर लिया, और फिर कुछ देर आराम किया मैंने, फिर उठा और दिशि के बारे में पूछ उधर के लिए चल पड़ा!
मैंने दरवाज़ा खटखटाया!
"कौन?" आयी आवाज़,
"मैं हूं!" बोला मैं,
"आती हूं!" बोली वो,
और आ गयी दरवाज़े तक, प्रणाम की हमने!
"जी कहिये?" बोली वो,
"कुछ आवश्यक बातें करनी हैं! का मैंने,
"किस विषय पर?" पूछा उसने,
"उस पांडुलिपि पर!" कहा मैंने,
"कौन सी?" बोली वो,
"वो, हड़ुक?" कहा मैंने,
"मुझे तो ज्ञात नहीं?" बोली वो,
ज्ञात नहीं? ये क्या? अब?
"अच्छा, ठीक, क्षमा चाहूंगा!" कहा मैंने,
पलटा और चल पड़ा वापिस!
''सुनो?" आयी आवाज़ उसी की,
मैं फौरन ही रुक गया!
"आओ?" बोली वो,
मैं चला उस तक, पहुंचा,
"किसने बताया?" पूछा उसने,
"बालचंद्र ने!" कहा मैंने,
"और क्या बताया?" बोली वो,
"कोई रहस्य है शायद यहां?" कहा मैंने,
उसने मुझे एक-दो बार ऊपर-नीचे देखा, मैंने भी अपनी नज़रों से उसे टटोलना नहीं छोड़ा!
"आओ, अंदर आओ!" बोली वो,
"जी!" कहा मैंने,
जूते उतारे और अंदर चला गया, 
"यहां बैठो!" बोली वो,
वो एक टूटी सी कुर्सी थी, उसकी एक टांग के बीच बांस लगा दिया गया था, रस्सी से बांध कर दुरुस्त कर दी गयी थी!
"पानी?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने, 
 

   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"हां, अब बताइये!" बोली वो,
"आपको तो पता ही होगा, मैं किसी और कार्य के लिए यहां आया हूं, यहां से बीस किलोमीटर उत्तर में जाना है, किसी का इंतज़ार के, वे आ जाएं तो हम निकल जाएंगे!" कहा मैंने,
"हां, पता है!" बोली वो,
"इसी बीच मेरी मुलाक़ात, बाबा नंदनाथ के शिष्य, बालचंद्र से हुई, थोड़ी मित्रता सी हुई और फिर मुझे कुछ रहस्य के बारे में भी पता चला!" कहा मैंने,
"क्या रहस्य?" पूछा उसने,
"वो उड़, नदी में अदृश्य जल का!" कहा मैंने,
"वो तो नज़रों का खेल है!" बोली वो,
"नहीं, मुझे नहीं लगता!" कहा मैंने,
"क्या नहीं लगता?" पूछा उसने,
"कोई खेल!" कहा मैंने,
"तो फिर?" बोली वो,
"कुछ तो है!" कहा मैंने,
"कहूं नहीं है तो?" बोली वो,
"तब आप यहां क्यों?" पूछा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
''हां?" कहा मैंने,
"इसका क्या अर्थ हुआ कि क्यों?'' बोली वो,
"मेरा मतलब, इस जंगल में!" कहा मैंने,
"मुझे पसंद है!" बोली वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"मुझे टाल रहे हों आप!" कहा मैंने,
वो हंस पड़ी! इस बार, उसके होंठों पर, वास्तविक सी मुस्कुराहट आयी थी! मैंने क़यास लगा कि शायद मेरा पासा सही जगह ही जा कर गिरा है!
"टालूंगी क्यों भला?" बोली मुस्कुराते हुए!
"तो कुछ बताएं?" कहा मैंने,
"पूछें?" बोली वो,
"सबसे पहले वो पाण्डुलिपि!" कहा मैंने,
"हां, है वो!" बोली वो,
"किसी ने पढ़ी वो?" पूछा मैंने,
"नहीं, परन्तु प्रयास जारी हैं!" बोली वो,
"क्या लगता है?" पूछा मैंने,
"है तो दुष्कर कार्य ही!" बोली वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"पर अब पिता जी ही लगे हैं!" बोली वो,
"समझा! अच्छा? वो हड़ुकि, ये क्या है?" पूछा मैंने,
"ये हड़ुकि, एक सम्प्रदाय था!" बोली वो,
"कहां से?" पूछा मैंने,
"मूल रूप से यहीं का!" बोली वो,
"बंगाल-बिहार?" कहा मैंने,
''हां!" बोली वो,
"कुछ और उनके बारे में पता चला?" पूछा मैंने,
"अधिक तो नहीं!" बोली वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"वे, जैसे लगता है, किसी उद्देश्य के पीछे लगे थे, उद्देश्य पूर्ण हुआ या नहीं, कुछ नहीं पता!" बोली वो,
"वो स्थान यही है, ये कैसे पता?" पूछा मैंने,
"एक बाबा ने बताया!" बोली वो,
"जिसने वो पांडुलिपि दी?" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"और कुछ नहीं बताया?" पूछा मैंने,
"यही कि ये स्थान विशेष है!" बोली वो,
"कैसे विशेष?" पूछा मैंने,
"जीवित स्थान!" बोली वो,
"जीवित?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कौन जीवित?" पूछा मैंने,
"वो स्थान?" बोली वो,
''और?" पूछा मैंने,
"वेणुला!" बोली वो,
"वेणुला?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"ये कौन थी?" पूछा मैंने,
"एक सुंदरी! अनुपम सी सुंदरी!" बोली वो,
"कोई माया?" पूछा मैंने,
"मनुष्य!" बोली वो,
"यहीं पर?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
बड़ी अजीब सी बात थी?
"कोई और भी?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"कोई मनीषि-पुत्र?" पूछा मैंने,
वो होंठों को हल्का सा अंदर करते हुए, मुझे देखने लगी! और खड़ी हो गयी! मैं भी झट से खड़ा हो गया!
"हां!" बोली वो,
"विहि!" कहा मैंने,
"हां! परन्तु तब विहि नहीं रहे वो!" बोली वो,
"नहीं रहे? मतलब?" पूछा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"उस मनीषि-पुत्र ने ऐसा तप किया कि जैसे समस्त दिशाओं की चूलें ही खिसक गयीं!" बोली वो,
"क्या?" मैंने हैरानी हुई तो मैंने पूछा,
"हां, ऐसा तप!" बोली वो,
"ये मनीषि-पुत्र के विषय में क्या उस पाण्डुलिपि में लिखा है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसी बाबा ने!" बोली वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"वो सुश्व पुत्र था! सुश्व भी योगमुनि थे अपने समय के, वर्चस्व वाले!" बोली वो,
"वर्चस्व?" मैंने फिर से प्रश्न किया,
"हां वही!" बोली वो,
"कैसा वर्चस्व?" पूछा मैंने,
"उनके समान उस समय कोई और न ठहरता था, बस एक ही!" बोली वो,
"कौन था वो?" पूछा मैंने,
"लोथनाथ!" बोली वो,
"लोथनाथ?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"क्या कोई औघड़?" पूछा मैंने,
''हां! महाहठी!" बोली वो,
"वो कहां से आया था?" पूछा मैंने,
"कोई स्थान था, तंत्र-संसदिकाष्ठिक!" बोली वो,
"कमाल है?" पूछा मैंने,
"वो वहां, प्रधान तंत्रज्ञ था!" बोली वो,
"और ये स्थान कहां है?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोली वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"लोथनाथ, कहते हैं, महाशक्तिशाली था, परम बलशाली!" बोली वो,
"अवश्य ही होगा!" कहा मैंने,
"और जानते हो?" बोली वो,
"जी नहीं!" कहा मैंने,
"विहि को एक नाम दिया था उसने!" बोली वो,
"उसने?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"तो क्या सुश्व से कोई शत्रुता नहीं थी उसकी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"और नाम क्या दिया था?" पूछा मैंने,
"अक्षुण्ण!" बोली वो,
"अक्षुण्ण!" कहा मैंने,
"हां, यही नाम दिया था!" बोली वो,
"तो अब उस स्थान के, उस अदृश्य जल के विषय में भी बता दीजिये?'' कहा मैंने,
"यहां एक भवन है!" बोली वो,
"भवन?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"उस नदी में समाया हुआ!" बोली वो,
"हैं?" मेरे तो होश उड़े ये सुनते ही!
"ये एक अष्ट-कोणिय भवन है, द्वादश स्तम्भों पर स्थित!" बोली वो,
"और क्या आकार?" पूछा मैंने,
"बहुत ही विशाल!" बोली वो,
"मुझे लगा था!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"और ये बनाया किसने था?" पूछा मैंने,
"लोथनाथ ने स्वयं!" बोली वो,
"विद्या से!" कहा मैंने,
"यही लगता है!" बोली वो,
"और किसलिए?'' पूछा मैंने,
''दान दिया था!" बोली वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"अक्षुण्ण को!" बोली वो,
"कारण?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोली वो,
"कहीं............?" बोला मैं,
"क्या?'' बोली वो,
''अपनी तरफ मिलाने के लिए तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
''एक मिनट!" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"और ये वेणुला?" पूछा मैंने,
''कौन हो सकती है?" पूछा उसने, मुझ से ही!
"मुझे नहीं पता!" कहा मैंने,
"लोथनाथ की पुत्री!" बोली वो,
"पुत्री?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"ये तो सब बड़ा ही उलझा है!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"काश इसका रहस्य खुले!" कहा मैंने,
"खुलना ही चाहिए!" बोली वो,
''हां!" बोला मैं,
"कैसे भी हो!" कहा उसने,
"हां, कैसे भी!" बोला मैं,
वो थोड़ा आगे चली, कुछ किताबें हटायीं और...............!!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

कुछ किताबें टटोलीं उसने, और फिर, रुक गयी, बाहर झांका, एक या दो पल, फिर से, किताबें जस की तस ही रखने लगी, जैसे पहले रखी थीं और रखने के बाद मेरे पास तक आयी!
"संध्या में आओ!" बोली वो,
"अच्छा, ठीक!" कहा मैंने,
"यहां चले आना!" बोली वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
और मैं वापिस हुआ, बाहर आया तो जूते पहन लिए, जूते पहनने के पश्चात उस पर एक नज़र भरी, वो मुझे ही देख रही थी, मैंने एक मिथ्या मुस्कान सी भरी, उसने देखा लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, मैं भी तभी अपने रास्ते हो लिया!
अपने कक्ष में आया, तो कक्ष खुला था, भूपाल जी आ गए थे अंदर ही बैठे थे, मैंने प्रणाम किया उन्हें!
"कहां? कहीं घूमने?'' बोले वो,
"नहीं!"" कहा मैंने,
"तो?" बोले वो,
"बस इधर ही!" कहा मैंने,
"अच्छा, हां ठीक! समय भी कट जाएगा!" बोले वो,
"हां, यही सोचा!" कहा मैंने,
"भोजन हुआ?" पूछा उन्होंने,
"बहुत देर हुई!" कहा मैंने,
"और चाहिए?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फल ले आया हूं, सामने रखे हैं, खा लेना, मैं कुछ देर आराम करूंगा!" बोले वो,
"जी ठीक!" कहा मैंने,
मैं तभी बाहर चला आया, भूपाल जी की नींद में कोई खलल न हो, इसीलिए, बड़े हैं तो डर भी लगता है, कि कहीं शिकायत ही न हो जाए!
मैं अंदर चला ही था कुर्सी लेने कि बालचंद्र आया उधर! मैं आगे चला गया उसके पास ही!
"कुछ व्यस्त तो नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"कुछ प्रश्न दिमाग में कुलबुला गए हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और हम चल दिए, एक शांत सी जगह आ बैठे, यहां बड़ी ही शांति थी, कोई पक्षी आदि भी नहीं था वहां!
"कैसे प्रश्न?" पूछा मैंने,
"क्या ईश्वर के कार्य में अड़चन पैदा करना, पाप का भागी होना है?" बोला वो,
"प्रश्न में वजन है!" कहा मैंने,
"बताइये फिर?" बोला वो,
"आपने कहा ईश्वर का कार्य! है न?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"अब कौन सा कार्य?" पूछा मैंने,
"कोई भी?" बोला वो,
"कोई भी? इस संसार में सभी कार्य तो ईश्वर के ही हुए, हो रहे हैं, होते ही रहेंगे! तो कौन सा ऐसा कार्य जिसमे बाधा या अड़चन पैदा हो?" बोला मैं,
"जैसे किसी की हत्या करना?" बोला वो,
"ये महापाप है!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"ऐसा हक़ किसने दिया आपको?" पूछा मैंने,
"कैसा?" बोला वो,
"जिसे आप सृजित नहीं कर सकते पुनः, आप उसकी हत्या कैसे कर सकते हो?" पूछा मैंने,
"ये तो मैं जानता हूं!" बोला वो,
"तो कौन सी बाधा?" पूछा मैंने,
"आप मेरा अर्थ नहीं समझ रहे!" बोला वो,
मैं मुस्कुराया!
"मैं सब समझ गया हूं! बस और अधिक जानना चाह रहा था!" कहा मैंने,
"मैं इस योग्य नहीं!" बोला वो,
"उत्तर देता हूं!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"यदि मैं ये ही तर्क मान लूं बालचंद्र, तो सभी चिकित्सक नरक के भागी होंगे! और वे तमाम कसाई भी जिन्होंने किसी पशु को काटा! है या नहीं?" पूछा मैंने,
"हां, वस्तुतः तो यही लगता है!" बोला वो,
"अच्छा, एक प्रश्न करता हूं, उत्तर देना, सोच कर, समझ कर!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"यदि आप, किसी खुली जगह, या स्थान पर, पशु-वध करते हैं, और ऐसे ही, किसी मंदिर, या पूज्य-स्थल पर करते हैं, तो क्या विधान के अनुसार होना चाहिए? अर्थात, कौन सा पाप भारी होगा?" बोला मैं,
वो सोच में पड़ गया! उत्तर ढूंढने लगा!
"सरल है उत्तर!" कहा मैंने,
"वो क्या?'' बोला वो,
"समान ही!" कहा मैंने,
"सो कैसे?" बोला वो,
"न उस खुली भूमि से, न उस मंदिर से ही यहां कुछ लेना देना होगा, मुख्य कारण है उस पशु का वध होना!" 
कहा मैंने,
"हां, उचित कहा!" बोला वो,
"और अब हत्या!" कहा मैंने,
"अर्थ?" बोला वो,
"हां! क्या अर्थ हुआ?" पूछा मैंने,
"हत्या मायने, किसी का जीवन-चक्र काट देना!" बोला वो,
"सोच लो!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"सरल भाषा में तो यही हुआ!" कहा मैंने,
"और गूढ़तम में?" पूछा उसने,
"हत्या का अर्थ होता है, घटा देना!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"सुनिए!" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"हत्या सभी प्रकार की उचित या अनुचित हों ये भी विचारणीय है!" कहा मैंने,
"सो क्या?" बोला वो,
"किसी नरभक्षी पशु की हत्या ही सुरक्षा होगी अन्यों की!" कहा मैंने,
"हां, सही कहा!" बोला वो,
"युद्ध में शत्रु-हत्या ही वीर की संधि का अर्थ है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब हत्या जायज़ है!" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोला वो,
"चूंकि, इसके पीछे देश-हित है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो सुरक्षा, देश-हित, आत्म-रक्षण आदि की परिस्थितियों में हत्या उचित ठहराई गयी है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"पाप क्या है?" पूछा मैंने,
"इस परिपेक्ष्य में?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"जीव-हत्या!" बोला वो,
"हां, उन परिस्थितियों से अलग!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
''जी?" बोला वो,
"क्या हत्या, जीव तक ही सीमित है?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"अन्य कई हैं, जैसे भाव, दया आदि!" बोला वो,
"भावों की हत्या नहीं होती!" कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा उसने,
"भाव मात्र रूप बदलते हैं!" कहा मैंने,
"जैसे?" बोला वो,
"जितना अधिक प्रेम, उतनी अधिक ही घृणा!" कहा मैंने,
"ये तो समझ आता है!" बोला वो,
"जानते हो?" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"प्रेम से घृणा उत्पन्न होती है?'' कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"समझे नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं?" बोला वो,
"कोई आपसे दग़ा कर दे तब?" पूछा मैंने,
"तब तो निश्चित ही!" कहा उसने,
"क्या घृणा से प्रेम उत्पन्न होता है?" पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"अंगुलिमाल?" बोला वो,
मैं हंस पड़ा बहुत तेज!
"उसे मानस से घृणा हुई, फलस्वरूप हत्याएं करने लगा, भगवान गौतम बुद्ध द्वारा जागरूक होने पर, वो घृणा त्याग बैठा और प्रेम की तरफ बढ़ चला!" बोला वो,
"अच्छा?'' कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"या प्रायश्चित?" पूछा मैंने,
"प्रायश्चित भी कह सकते हैं!" बोला वो,
"प्रायश्चित! बालचंद्र! बहुत ही खेद और विक्षोभ की बात है कि हम जिसे प्रायश्चित कहते हैं, वो आत्म-संतोष का पर्यायवाची है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"हां! पर्यायवाची मात्र!" कहा मैंने,
"अर्थात, प्रायश्चित कुछ है ही नहीं? ये क्या कह रहे हैं आप?" बोला इस बार तो तड़क कर!
"हां, कोई प्रायश्चित ही नहीं! मात्र एक भ्रामक सा शब्द मात्र ही तो है!" कहा मैंने,
"कैसे सिद्ध करोगे?" बोला वो,
"महाराज दशरथ जी ने, शब्द-भेदी बाण से, श्रवण की हत्या कर दी, क्या कोई भी सुयोग्य पुरुष, परम सात्विक, तामसिक, या अपने को तर्कशील कहने वाला, बुद्धिमान ये बताएगा कि उन्होंने क्या प्रायश्चित किया?" पूछा मैंने,
"उन्हें श्राप मिला!" बोला वो,
"श्राप! ठीक, एक नेत्रहीन पिता और माता ने संयुक्त श्राप दिया! मानता हूं, परन्तु प्रायश्चित क्या?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोला वो,
"आहिल्या-काण्ड के बाद, इंद्र का प्रायश्चित क्या था?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"निर्दोष, प्रवंचना की शिकार आहिल्या!" कहा मैंने,
"ये नहीं था मेरा मंतव्य!" बोला वो,
"बात प्रायश्चित की थी, इस संसार में कुछ भी प्रायश्चित नहीं! यदि! यदि प्रायश्चित है, तो कर्म-फल के सिद्धांत सब मिथ्या हैं! पाप करो, प्रायश्चित करो! सब बराबर! और अंत में, बैकुंठ धाम!" कहा मैंने हंसते हुए!
"बात ऐसी नहीं है!" बोला वो,
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
''अपने पापाचरण को प्रायश्चित के अदृश्य आवरण से न ढको!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"तो उस समय मेरा कर्त्तव्य क्या बनता है?" बोला वो,
"कर्तव्य?" कहा मैंने,
"हां, यदि प्रायश्चित नहीं तो?" बोला वो,
"कितनी हास्यास्पद सी टिप्पणी कर दी आपने भी!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"चलो, एक दृष्टांत बताता हूं! प्रश्न बाद में उसके!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"तीन मित्र थे! कितने?" पूछा मैंने,
"तीन!" बोला वो,
"एक बहेलिया, एक भील और एक बढ़ई!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"एक बार वे तीनों मिले और दूर जंगल में घूमने निकले!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"जब बहुत दूर चले आये तब एक जगह विश्राम किया! बहेलिया कुशाग्र बुद्धि था, पक्षियों के स्वर सुन ही उनकी दूरी और भार आदि तक पहचान लेता था, जो भील था, उस के जैसा कोई तीरंदाज़ नहीं! शब्द पर ही बाण मार दे और शिकार ढेर! अब बढ़ई! बढ़ई भी बहुत कुशल था अपनी काष्ठ-कला में! तीनों ही प्रवीण थे अपने अपने क्षेत्र में!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"जब विश्राम करने लगे, तब अचानक मौसम खराब होने लगा! तेज हवाएं, बारिश और पेड़ आदि टूटने लगे!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"तब उस बढ़ई ने, टूटी हुई लकड़ियों से एक आसरा बना दिया, उसके सहारे उन्होंने उस खराब मौसम का सामना किया और भूखे-प्यासे ही, रात काट ली, सुबह हुई, प्राण बच जाएं तो इस से बड़ा और क्या!" कहा मैंने,
"बिलकुल ठीक!" कहा उसने,
"सुबह उठे तो देखा, सभी रास्ते बंद! पेट टूटे पड़े, दिशा-भ्रम से पीड़ित न हो जाएं कहीं और किसी बड़ी मुसीबत में न पड़ जाएं, या किसी पड़ोसी राजा की सीमा में ही न घुस जाएं, क्या करें!" बोला मैं,
"फिर?'' पूछा उसने,
"बहेलिये ने, उड़ते हुए पक्षियों को देखा, अवलोकन किया और उन्हें देख भांप लिया कि किस पक्षी के पांवों में मिट्टी लगी है, जो भी पेड़ पर बैठता! भूमि तो थी, परन्तु दूर थी! लेकिन फिर भी वो उनको आगे ले जाने लगा!" बोला मैं,
"ठीक!" बोला वो,
"एक जगह बरसाती जल मिला पेड़ में, सो पी लिया, पी लिया तो अब भूख सताये! क्या करें?" बोला मैं,
"तब इस समस्या के लिए, बहेलिया ने फिर से जुगत भिड़ाई और ये जान लिया कि यहां पास में ही एक तालाब होगा, जहां मोटे-ताज़े पक्षी मिल जाएंगे, एक को मारेंगे और भोजन कर लेंगे भून कर!" बोला मैं,
"अच्छा! फिर?'' बोला वो,
"वही हुआ!" कहा मैंने,
"क्या??'' पूछा उसने,
"तालाब आया, पक्षी दिखे, एक बड़ा सा जल-पक्षी नज़र आया, उसका शिकार हो जाता तो सभी का पेट भर जाता! लेकिन अब प्रश्न ये कि शिकार हो कैसे?" बोला मैं,
"हां! लेकिन वो भील?" बोला वो,
"उसका धनुष-तरकश सब टूट-फाट गए थे उस खराब मौसम में!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"तब बढ़ई ने एक बढ़िया धनुष बनाया, कई लकड़ियां देखीं और एक ही तीर बना, ये यदि खाली जाता तो फिर से खोजना पड़ता या बनाना पड़ता! भूख के मारे हाल खराब सभी का!" कहा मैंने,
"ओहो! फिर?" बोला वो,
"अब भील से यही कहा उन दोनों ने, कि बस, ये बाण खाली न जाए! और यही हुआ, भील ने धनुष की प्रत्यन्चा खींची, बाण छोड़ा! बाण सीधा पक्षी में जा घुसा! भाग कर उठा लिया पक्षी उन्होंने! वजन था, पेट भर जाता सभी का!" बोला मैं,
''अच्छा!" कहा उसने,
"मांस भून लिया गया और............!" कहा मैंने,
"और? क्या और?" पूछा उसने,
"अब ये बताओ, कि पहला कौर किसका बनता है? उस बढ़ई का, या उस बहेलिये का या फिर उस भील का!" पूछा मैंने,
उसने सोच-विचार किया! मुझे देखा, मुस्कुराया!
"यदि बहेलिया न बताये तो तालाब न मिले, न ही वो पक्षी! अब बढ़ई वो धनुष-बाण न बनाये तो शिकार कैसे होता? और यदि वो भील, निशाना सही नहीं लगाता तो पक्षी उड़ जाता! वार खाली!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो बताओ?" पूछा मैंने,
(तो मित्रगण! आप विचारें और बताएं! तब मैं इस विषय से संबंधित लेख, लिखूंगा!)
"मुलाक़ात हुई?" पूछा उसने,
'हां!" कहा मैंने,
"कुछ बताया उसने?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"आज संध्या को!" कहा मैंने,
"दोबारा?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोला वो,
"आचार्य जी कब तक आएंगे?" पूछा मैंने,
"सही पूछिए तो पता नहीं!" बोला वो,
"तब तक यहीं हो?" पूछा मैंने,
"आप नहीं हो?" बोला वो,
"मैं तो चला जाऊंगा!" कहा मैंने,
"कौन जाने देगा!" बोला वो,
"कौन रोकेगा!" पूछा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"अच्छा है आप मिल गए!" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"मेरे मन में अनेकों प्रश्न हैं!" बोला वो,
"जितना सम्भव हो, उतना उत्तर दे सकता हूं, मात्र जाने अनुसार ही!" कहा मैंने,
"एक विकट प्रश्न है!" बोला वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"स्त्री को सोलह श्रृंगार पूर्ण माने गए हैं, इनमे से मुख्य किसे माना जाए?" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा! समझ नहीं आता मुझे तो! देह का श्रृंगार? अरे साहब, किसलिए? मात्र दर्पण के लिए या फिर लोगों को दिखाने के लिए? क्या इस से कुछ प्राप्त भी होता है? मुझे तो नहीं लगता!
"ये सोलह श्रृंगार! इनमे से कोई भी मुख्य नहीं!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तब?" बोला वो,
"स्त्री एक मुख्य श्रृंगार है लज्जा! लज्जायुक्त स्त्री ही श्रृंगारयुक्त होती है!" कहा मैंने,
"अति सुंदर!" बोला वो,
"लज्जाहीन स्त्री, अब भले ही हीरे पहने, पन्ने पहने या फिर स्वर्ण ही पहने, कोई लाभ नहीं!" कहा मैंने,
"उत्तम उत्तर!" बोला वो,
''इसीलिए, स्त्री का लज्जाशील होना ही उसका मुख्य श्रृंगार है!" कहा मैंने,
"और पुरुष के लिए?" बोला वो,
"पुरुष के लिए?" कहा मैंने,
"हां, वे भी तो आभूषण धारण करते हैं न?" बोला वो,
"पुरुषों का मुख्य श्रृंगार है मर्यादा!" कहा मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"मर्यादाशील पुरुष सदैव ही उच्च-संस्कार उक्त होता है, ये उसका स्वतः ही गुण है! जिस प्रकार गुड़ किसी माखी को आमंत्रण नहीं देता उसी प्रकार मर्यादाशील पुरुष के गुण स्वतः ही उच्च-संस्कारों को ग्रहण किया करते हैं!" कहा मैंने,
"यही सत्य है!" बोला वो,
''हां बालचंद्र!" कहा मैंने,
"एक बात और?" बोला वो,
''हां?" बोला मैं,
"वो क्या है जो एक स्त्री के चरित्र को पारिभाषित कर दे?" बोला वो,
"वाणी!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"कलुषित यदि वाणी हो, तो अन्तःमन में चलते विचारों से प्रेरित होती है! उसकी पहचान वाणी से ही हो सकती है!" कहा मैंने,
"और पुरुष का चरित्र?" बोला वो,
"कृत्य!" कहा मैंने,
"किस प्रकार के?" बोला वो,
"बालचंद्र, समाज में कुछ ऐसा भी निर्धारित है जिसे हम अच्छा या उचित नहीं मानते, परन्तु वो साथ साथ ही चलता है! जैसे हथियारों का व्यवसाय, विष का व्यवसाय, ईंधन का व्यवसाय, मद्य का व्यवसाय आदि!" कहा मैंने,
''हां, ये तो है!" कहा उसने,
"उसी प्रकार, कुछ कार्य, रात्रि-समय के हैं और कुछ दिवस के!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"ठीक उसी प्रकार, जैसे चांद की चांदनी, पूनम की रात का प्रकाश, अमावस की स्याह रात, काम-भोग, युद्ध का संचालन कार्य, खंदक खोदना आदि सब रात्रि-कालीन हैं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"आजीविका, अध्ययन, वयवसाय, यात्रा, शैक्षिक कार्य, आमोद-प्रमोद, रास-रंग आदि दिवस समय ही शोभा देते हैं!" कहा मैंने,
"हां, सच ही है!" बोला वो,
"अब जो पुरुष, रात्रि के कार्य, दिवस में करे या दिवस के कार्य रात्रि में करे, तो ये कृत्य शुभ या उचित नहीं कहे जा सकते!" कहा मैंने,
''परन्तु अब संसार आधुनिक है! उसका क्या?" बोला वो,
"प्रकृति के विरुद्ध जाने पर, देह रोगी होती है! नए नए रोग उत्पन्न हुआ करते हैं! बे-मौसम कृषि, शाक-सब्जी, तिलहन, फलों का सेवन गुण नहीं, दोष उत्पन्न करते हैं!" कहा मैंने,
"यही!" बोला वो,
"मृदा-कृमि अर्थात केंचुआ, वर्षा ऋतु में ही दिखेगा या नरम, नमी वाली घास पर, विशेष ये, कि वो, सदैव जहां वास करेगा, वो स्थान ठंडा, शीतल और उपजाऊ होगा!" कहा मैंने,
"अर्थात, प्रकृति ही प्रधान है!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"एक प्रश्न और?" बोला वो,
''हां?" कहा मैंने,
"यदि अनजाने से कोई पाप हो जाए तब?" बोला वो,
"यदि आपके अंदर करुणा है तब आपका हृदय द्रवित हो उठेगा, कठोर है तो आम सी बात होगी, जिस प्रकार लोग, वाहन से श्वान के बच्चों को, बिल्ली को, उसके बच्चों को कुचल देते हैं!" कहा मैंने,
"तब? प्रायश्चित तो है नहीं?" बोला वो,
"नहीं! कोई प्रायश्चित नहीं!" कहा मैंने,
"पाप के भागी ही?" बोला वो,
"अवश्य ही!" कहा मैंने,
"तब क्या किया जाए?" बोला वो,
"आपको चाहिए, उसी दिन से प्रतिज्ञा करें कि पुनः ऐसा कदापि न होगा! किसी भी बेज़ुबान पशु की मदद करना, सबसे बड़ा पुण्य होता है! कीचड़ में पड़े श्वान के बच्चे को कीचड़ का भान नहीं, आपको है! ये अब आप पर है कि उसको डूबते हुए देखें या अपना वस्त्र, चेहरा, हाथ आदि सब कीचड़ से सान लें, और उसके प्राण बचाएं! कीचड़ धुल जाएगा! उसकी मरी देह के प्राण न लौटेंगे! और फिर आप होते कौन हैं उसे बचाने वाले! आप मारने वाले तो हो सकते हो, चूंकि पाप ही तो हम मनुष्यों की मुख्य संज्ञा है! बचाने वाला तो कोई और ही है!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"कौन है ये बचाने वाला?'' बोला वो,
"तुम नहीं जानते?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
''अब नहीं!" बोला वो,
"अब नहीं?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या लगता है? कोई ऐसी सत्ता है?'' पूछा मैंने,
"कैसी?" पूछा उसने,
"जो सभी को बांधे रखती है?'' कहा मैंने,
"हां, महसूस होता है!" बोला वो,
"क्या महसूस?" पूछा मैंने,
"कि, कोई तो है?" बोला वो,
"कौन है?'' पूछा मैंने,
"नहीं पता!" कहा उसने,
"कितने भाग्यशाली हो तुम!" कहा मैंने,
वो चौंक पड़ा! झटका सा खा गया!
"भाग्यशाली?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"जिसे मालूम ही नहीं कि वो कौन है!" बोला मैं,
"उस से लाभ?" बोला वो,
''हां, बहुत!" कहा मैंने,
"क्या लाभ?" बोला वो,
"कोई प्रपंच नहीं! धर्म के नाम पर झगड़ा नहीं, कोई ऊंच-नीच नहीं, छोटा नहीं, बड़ा नहीं, कोई व्रत नहीं, उपवास नहीं, कोई विशेष मुहूर्त नहीं, कोई विशेष दिवस नहीं कोई नियम और क़ायदा नहीं!" बोला मैं,
"नियम? क़ायदा?" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"एक छोटा सा उदाहरण देता हूं!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"हम, अपना ही धर्म लेते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"इस धर्म में चार वर्ण हैं! वर्ण-व्यवस्था!" कहा मैंने,
"हां, ठीक!" बोला वो,
"बालचंद्र? यदि कोई विदेशी इस धर्म को स्वीकार करना चाहे तो उसे हम किस वर्ण में रखेंगे? हम क्या? धर्म के पंडित! धर्म के ये ज्ञानवान लोग! बताओ बालचंद्र?" पूछा मैंने,
"इसका कोई उत्तर नहीं!" बोला वो,
"उत्तर?" बोला मैं,
"हां?" बोला वो,
''है तो सही?" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोला वो,
"बालचंद्र, ये सब धर्म आदि, संगठन आदि, समाज आदि सब के सब, कोई भी धर्म हो, मज़हब हो, सब मनुष्य द्वारा ही रचित हैं! मनुष्य चूंकि स्वयं ही पूर्ण नहीं, अतः, उसकी कोई रचना भी पूर्ण नहीं!" कहा मैंने,
"सत्य तो यही है!" बोला वो,
"मनुष्य नहीं तो धर्म नहीं, धर्म नहीं तो कोई ईश्वर नहीं!" कहा मैंने,
"यहां कुछ कठोर से लगते हो कहते हुए!" बोला वो,
"कठोर नहीं, आपका मन नहीं मानता!" कहा मैंने,
"हां, ये तो है ही!" बोला वो,
"न क़यामत हम देखेंगे, न प्रलय! हम तो अत्यंत गौण से जीव मात्र हैं इस अथाह संसार में! जो सत्ता है भी, जो इसे बांधे रखती है, उसे मैं यदि ईश्वर कहूं, तब ईश्वर शब्द से उसे पारिभाषित करना, उसका अपमान ही होगा! नहीं?" कहा मैंने,
"निःसंदेह!" बोला वो,
"तब किया क्या जाए?" बोला वो,
''किसलिए?" बोला वो,
"मोक्ष के लिए!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कोई मोक्ष को समझता ही नहीं!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"मोक्ष क्या है?" पूछा मैंने,
"इस जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
"अर्थात आत्मा का परम-धाम!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"खोखली अवधारणा!" कहा मैंने,
"खोखली?" बोला वो,
"एक बात बताओ बालचंद्र?" बोला मैं,
"क्या?" बोला वो,
"उस परम-धाम में मात्र आत्मा ही प्रवेश करेगी न?'' बोला वो,
"हां!" बोला वो,
"अब मैं इस से पहले जन्म में, एक श्वान था, उसकी आत्मा, फिर धोबी, उसकी आत्मा, फिर एक निःकृष्ट मनुष्य, उसकी आत्मा, फिर एक, संत, उसकी आत्मा! अब किसकी आत्मा प्रवेश पाएगी?" पूछा मैंने,
"यदि इस जन्म की, तब मेरे पूर्व-जन्म?" कहा मैंने,
''हां!" बोला वो,
"आप बोलोगे, कर्म के अनुसार जन्म मिलता गया, मिलता जाएगा जब तक मोक्ष प्राप्ति नहीं होगी! यही न?' पूछा मैंने,
"यही तो!" बोला वो,
"कांच का गिलास टूटने के बाद क्या शेष रह जाता है?" पूछा मैंने,
"कांच!" बोला वो,
"गिलास?" पूछा मैंने,
"वो नष्ट हो गया!" कहा उसने,
"मूल में कांच ही रहा! है न?" कहा मैंने,
"हां, यही रहा!" बोला वो,
और................!!!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

इस से पहले विषय को तनिक विराम देता हूं और उस दृष्टांत के विषय पर आता हूं! उत्तर देखे मैंने, पढ़े, उनके तर्क भी! सभी के सभी निकट ही प्रतीत होते हैं! परन्तु कई मित्रों ने कहा कि बहेलिया! और कई ने कहा कि बढ़ई और कई ने कहा कि भील! जिन्होंने बहेलिया कहा उनके अनुसार, न बहेलिया बताता, न मदद करता और न ही को तालाब ढूंढा जाता! अतः, मुख्य श्रेय उसी का और पहला कौर उसी को! और कई मित्रों ने कहा कि न बढ़ई वो आसरा बनाता, न वे उस आसरे में रात बिता पाते, मृत्यु हो जाती तो सभी को बचाने वाला और मदद करने वाला बढ़ई ही है, उसने ही धनुष-बाण भी बनाया था, अतः, पहला कौर उसी का! और कई मित्रों ने कहा कि भील! चूंकि न वो, मात्र एक ही बाण से शिकार करता, और न ही पक्षी मारा जाता और न ही किसी का पेट भरता! निशाना चूक जाता तो बड़ी मुसीबत हो जाती!
तो अब उत् है कि पहला कौर का हक़ मात्र भील का ही बनता है! आसरा बनाने में, बढ़ई ने अपने सीखे हुनर से काम लिया, और सभी के लिए आसरा बना दिया! बहेलिये ने, मदद की और तालाब ढूंढा गया! परन्तु उद्देश्य अभी तक पूर्ण नहीं हुआ था, अर्थात भूखे वो तीनों ही थे! तब भील ने, अपने हुनर का प्रयोग किया और शिकार किया! इस से उन दोनों का भी पेट भरा! न शिकार होता, तब? तब आसरा भी किसी काम का नहीं, और बहेलिये की मदद भी किसी काम की नहीं! अतः, मुख्य श्रेय और पहले कौर का हक़ उस भील का ही है!
मित्रगण! कहने को तो ये मात्र एक छोटा सा दृष्टांत भर है! परन्तु, यथार्थ यही है! बहेलिया, बहेलिया है हमारा ज्ञान! जो हमे, निरंतर, सतत आगे चलने को कहता है,, जो सदैव हितकर होता है, कभी ढोक्शा नहीं देता, उस से बड़ा हितैषी और मित्र, कोई नहीं! आसरा! ये देह, हमारा आसरा है! जैसा बनाओगे, बन जाएगा! टूटा-फूटा या शालीन, जैसा आप चाहोगे! बढ़ई का हुनर, काष्ठ-कला है, अपने को ढालना! ढालना, शुभ आचरण की ओर, वो आचरण, जो स्वयं को ही शीतल करे, शुद्धता दे और आत्म-संतोष प्रदान करे! आत्म-संतोष किसी किसी को ही प्राप्त होता है, सभी को नहीं! अतः, प्रयास निरंतर करते रहना चाहिए! अब भील!
भील हैं हमारे कर्म! कर्म का मार्ग यदि चूका, निशान यदि चूका, तो ये कदापि हितकारी नहीं! कर्म वो हो, जो स्वयं के कल्याण के साथ साथ, दूसरों का भी कल्याण करे! कम से कम, उन्हें दुःख न पहुंचाए!
जंगल, तूफ़ान, आंधी भूख ये सब अवरोध हैं! इनका शमन आवश्यक है! ये मानुष-जीवन है, हम तो ये भी नहीं जानते कि कौन कौन हम ही से जुड़ा है और कौन कौन हम ही से पृथक है! जिसे अपना कहते हैं, वो विश्वासघात कब कर जाए, पता नहीं! जो पृथक है, बढ़ कर कब हाथ बढ़ा दें, पता नहीं!
ये जीवन उद्देश्यहीन नहीं है, उस प्रकृति का रचा हुआ या उसकी कोई भी रचना व्यर्थ नहीं है! कुछ भी व्यर्थ नहीं! सभी के कहीं न कहीं आवश्यकता है! यही चक्र है, इसको पहचानिये! जानिये!
अब पिछले विषय!
"हां बालचंद्र?" पूछा मैंने,
"हां, सत्य है!" बोलै वो,
''मूल कदापि नहीं खत्म होता!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
"जैसे पंचतत्व!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"जल का गुण, जल से, अग्नि का गुण अग्नि से और उसी प्रकार, वायु का गुण, वायु से कोई पृथक नहीं कर सकता!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बालचंद्र!" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"मैंने कहा ज्ञान!" कहा मैंने,
"हां!"बोला वो,
"ज्ञान क्या है?" पूछा मैंने,
"सच कहूं?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मुझे सच में ही नहीं पता!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"उत्तर ही नहीं मिला!" बोला वो,
"किस से पूछा?" पूछा मैंने,
"सभी से, वही रटा-रटाया सा उत्तर!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!


   
uikeyk118 reacted
ReplyQuote
Page 2 / 8
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top