सात बरस गुजर गए इस घटना को! आज आपके सम्मुख बताने जा रहा हूं! ये घटना मेरे जीवन की एक अमिट घटना है! कहते हैं न, क्षण प्रतिक्षण हम कुछ न कुछ नया ही सीखते हैं! कभी स्वतः ही और कभी कोई मार्गदर्शन कर दिया करता है! कभी हम एक ही परिपाटी पर चले चले जाते हैं, हमारे अनुसार इस से पुण्य-प्राप्ति होती है, परन्तु, वास्तविक रूप से, ये दोष-संग्रहण करना ही होता है!
उदाहरण के लिए, बांस! बांस का पेड़! जिसे आजकल लोग घर में लगाते हैं, साज-सज्जा करते हैं और ये बांस हमारे जीवन में कभी न कभी अवश्य ही काम आता है, किसी ने किसी रूप में तो अवश्य ही! अगरबत्तियों में बांस जलता है! बांस को कदापि नहीं जला जाता! बांस को जलाने का अर्थ होता है, अपने पिता को जीते जी ही मार देना, हत्या कर देना! बांस, पितृ-रूप में माना जाता है! इसीलिए, अर्थी के समय बांस का प्रयोग होता है बनाने में, और अर्थी को जलाया नहीं जाता, उसे छोड़ दिया जाता है! अतः, अगरबत्तियों में प्रयोग हुए बांस को जलाना पितृ-हत्या का सूचक ही होता है! बांस, वंश-वृद्धि का सूचक भी है, अतः बांस जलाने वालों का सर्वमूल नाश होता है, ऐसा शास्त्रसम्मत है! कोई माने तो ठीक, न माने तो ठीक! इसीलिए धूपबत्ती को जलाने का विधान होता है! धूपं वश्यं का अर्थ यही है!
और इसी प्रकार रुई! जिस से बाती बनाई जाती है! सभी प्रकार की रुई, बाती के लिए नहीं होतीं! जिस रुई को, कोई षोडशी कन्या अपने हाथ से काते, वही रुई प्रयोग में लायी जाती है! इसे कच्ची रुई कहा जाता है!
खैर, मन में आयी तो लिख दी!
वो सुबह का समय था, मुझे यहां आये, सात दिन हो चुके थे! मैं जल्दी ही उठ कर, सुबह ही, नहा-धो कर, फारिग हो, आसपास घूमने चला गया था! बार बार एक मार्ग की तरफ मेरा ध्यान खिंच जाता था!
उसका नाम मोहिनि था! जैसा नाम, वैसा ही रूप! कामांध देह और कंचित सा वर्ण! सम्भवतः वो अभी तक सोई थी! तो मैं आगे चल पड़ा! आगे गया तो बालचंद्र से मेरी मुलाक़ात हो गयी! बालचंद्र एक नया नया साधक था, रहने वाला वो हरिद्वार के समीप के एक गांव का था,
"प्रणाम!" बोलै वो,
"प्रणाम!" कहा मैंने,
"कहां?" पूछा उसने,
"नींद खुली तो आ गया!" कहा मैंने,
"मैं भी!" बोला वो,
"कहां हो आये?" पूछा मैंने,
"नदिया तक!" बोला वो,
नदिया! मुझे कुछ याद आया, जिस दिन मैं यहां आया था उसी शाम मैं नदिया तक गया था, तभी मैंने स्नानरत उस मोहिनि को देखा था! देखा तो लगा, कहीं कोई माया तो नहीं? कोई सुंदरी? यहां? ऐसा रूप?
पल भर को मैं चिपक सा गया था भूमि पर ही! फिर ध्यान आया तो हट गया वहां से! दूसरी तरफ निकल गया!
"मुंडेश्वरी!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बरसाती ही नदी है?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बहुत सुंदर भी है!" कहा मैंने,
"हां, बहुत ही सुंदर!" कहा उसने,
"कितना समय हुआ यहां?" पूछा मैंने,
"चार महीने!" बोला वो,
"काफी दिन?" पूछा मैंने,
"हां! काफी!" कहा उसने,
"लब्धि?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"कोई और भी है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"नंदनाथ!" बोला वो,
"वो, हरिद्वार वाले ही न?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"आओ, दोबारा टहल लें!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोला वो,
हम आगे चल पड़े! बेहद ही सुंदर जगह हे ये! ये मुंडेश्वरी मंदिर वाली जगह नहीं, ये एक अलग ही जगह है और किसी कारणवश नाम नहीं लिख रहा हूं यहां का!
"आपका प्रयोजन?" पूछा उसने,
"अभी तो सोचा नहीं!" कहा मैंने,
"कोई तो?" बोला वो,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कुछ लोग आने वाले हैं!" कहा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"उन्ही के साथ?" बोला वो,
"सही!" कहा मैंने,
"वो कोई यक्षिणी साधना है न?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कौन सी?" पूछा उसने,
"श्मशान-यक्षिणी!" कहा मैंने,
"ॐ कनखलि!" बोला वो,
"एक बात बताइये?" बोलै वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"आप इस स्थान पर आते रहते हैं?" पूछा उसने,
"अधिक नहीं, क्यों?" पूछा मैंने,
"कहते हैं यहां कोई गुप्त रहस्य है!" बोला वो,
"रहस्य?" मैंने चौंका!
"हां!" बोला वो,
"कैसा रहस्य?" पूछा मैंने,
"आपको ज्ञात नहीं?" बोला वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"सच में?" पूछा उसने,
"हां? नहीं तो?" पूछा मैंने,
"आपने मुंडेश्वरी मंदिर के विषय में जाना है?" बोला वो,
"सुना है!" कहा मैंने,
"गए हैं?" बोला वो,
"एक बार ही!" कहा मैंने,
"वहाँ चौ-मुखी शिव-लिंगम है!" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"उत्तरोभिनमुख जो आकृति है, वो किसकी है?" पूछा उसने,
"मुझे नहीं पता!" कहा मैंने,
"नहीं जानते?" बोला वो,
"आप जितना भी नहीं!" कहा मैंने,
"मज़ाक़?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
कमाल है! यहां कोई रहस्य भी है! मैं तो रोमांचित हो उठा!
भारत का सबसे प्राचीन कोई मंदिर यदि है तो वो शिव-शक्ति को ही समर्पित है! ये मुंडेश्वरी मंदिर है! शिलालेखों से प्राप्त जानकारी के तथ्यों से ये ज्ञात होता है, की १०८ ईसवी से ये मंदिर यहीं है और इसका निर्माण उदयसेन नामक एक यवन-हिन्दू क्षत्रप द्वारा करवाया गया था! इस क्षत्रप को महाक्षत्रप रुद्रदामन ने नियुक्त किया था, हालांकि दोनों के समय में कुछ मतभेद है! इस मंदिर की खासियत ये है, कि यहां पशु-बलि सात्विक रूप से होती है! अर्थात उसकी बलि नहीं चढ़ाई जाती अपितु मंदिर का पुरोहित अभिमंत्रित चावल के दाने उस पशु पर फेंकता है, पशु, मूर्छित हो जाता है और तब प्रसाद के रूप में चावल से बना एक मीठा मिष्ठान बनाया जाता है! उन्नीस सौ वर्षों से यही प्रथा चलन में है! कहा जाता है कि चण्ड-मुंड असुरों का संहार इसी अंचल में हुआ था और चण्ड-मुंड के मांगने पर ही शिव एवं शक्ति का यहां वास रहता है! ये मंदिर आज तक जीवित है! भगवानपुरा अंचल, कैमूर, बिहार में ये मंदिर स्थित है! यहां से प्राप्त पाषाण भी अलग ही प्रकार के हैं! लगता है कि जैसे किसी बड़ी सी उल्का के गिरने के बाद, शेष अवयव पर ही ये मंदिर बनाया गया था! यहां भूमिगत कई मार्ग हैं, जो राजगृह, कपिलवस्तु, नेपाल तक चले जाते हैं! बौद्ध लेखों में यहां, महाडाकिनी सुप्तवेषी का लोक-द्वार बताया गया है! हो कुछ भी, ये मंदिर, अपनी प्राचीनता के कारण प्रसिद्ध है और भविष्य में इसे वैष्णों-माँ मंदिर के समान ही बनाये जाने की योजन है! अभी यहां तक का मार्ग, कुछ जटिल है!
"आपको पता है?" पूछा मैंने,
"कुछ कुछ!" बोला वो,
"किसकी है?" पूछा मैंने,
"कालशि की!" बोला वो,
"ये कौन?" पूछा मैंने,
"सुना नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"तब आप नंदनाथ जी से मिलिए!" बोला वो,
"उनसे?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा मैंने,
"आप ही बता दो?" कहा मैंने,
"मुझे विस्तृत रूप से ज्ञात नहीं!" बोला वो,
"जो है, वो ही बताओ?" कहा मैंने,
"कालशि दश-महाविद्या से अलग हैं!" बोला वो,
"होंगी!" कहा मैंने,
"परन्तु...!" बोला वो,
"क्या परन्तु?" पूछा मैंने,
"वे उनकी पत्नी नहीं!" बताया उसने,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"कैसे पता?" पूछा मैंने,
"गूढ़ रहस्य है!" बोला वो,
"तो बताओ?" कहा मैंने,
"वे शिव की पत्नी हैं!" बोला वो,
"क्या? नहीं भी और हैं भी?" पूछा मैंने,
''हां!" बोला वो,
"ये कैसा रहस्य?" पूछा मैंने,
"ये तो कुछ भी नहीं!" बोला वो,
न जाने मेरे देश में क्या क्या रहस्य भरे पड़े हैं! बस खोजने वाला चाहिए! एक जीवन भी कम ही पड़ेगा! जैसे ये कालेषी! मैं जानता था कालेषी के विषय में! परन्तु उसके ज्ञान को ही जांच रहा था, उसके विश्वास ही नहीं हुआ, इसीलिए उसने नंदनाथ से मिलने को कहा! ठीक भी था, सम्भव है, मुझे भी कुछ मिल ही जाए नया!
"मुझे कब मिलवाओगे?" कहा मैंने,
"बाबा से?" बोला मैं,
"हां!" कहा मैंने,
"आज दोपहर बाद?" बोला वो,
"ये ठीक है!" कहा मैंने,
"चलें?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और हम बतियाते हुए लौटने लगे! मुझे ख़ुशी थी कि बाबा नंदनाथ से मुलाक़ात होगी और कुछ नया सीखने को मिलेगा! तो हम कमरे में लौट आये! वो वहां से चला गया, और मैं, वहां अपने कमरे में आ लेट गया! मेरे साथ जो आया था, वो उम्र में मुझसे बड़े थे, नाम है उनका भूपाल, रहने वाले दतिया के हैं और काफी समझदार व्यक्ति है! मुझे आदेश हुआ था श्री जी का कि मैं उनके संग यहां तक चला जाऊं, शेष वो ही बता देंगे! और मुझे बता भी दिया गया था!
भूपाल जी चाय ले आये थे, साथ में कुछ पापे से थे, सीले हुए, यहां का माहौल कुछ नमी भरा था! इसी कारण से गीले से हो गए थे! तो हम चाय पीने लगे!
"कुछ पूछना है!" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"हमें कितने दिन और लग जाएंगे?" पूछा मैंने,
"कोई जल्दी?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"करीब बारह दिन!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"सप्तमी के दिन!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"मन न लग रहा हो तो भानु को ले जाओ शहर?" बोले वो,
"ऐसी कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"मैं आज जाऊंगा, चलना है?' बोले वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"कुछ लाना है?" बोले वो,
"जो ठीक लगे!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
दस बजे करीब वे चले गए, उनके साथ कुछ और भी लोग थे, सामान आदि लाना था उन्होंने! ये जगह डेरा कम और आश्रम अधिक था, खपरैल से बने कमरे और ताड़ से बनी झोंपड़ियां! दिन में ताड़ी मिल जाती थी ताज़ा! और साथ में ताड़ के फल भी, स्वाद में तो खैर बकबके से ही लगते थे, लेकिन कभी कभी भुने झींगे बड़े लज़ीज़ लगते थे! यहां एक कंद भी मिलता है, उसका रस भी मद्य समान ही होता है, अक्सर उसे स्त्रियां प्रयोग करती हैं, रूप-यौवन के लिए! प्रामाणिकता तो मैंने जांची नहीं लेकिन मोहिनि को देख, अंदाज़ा लगा लिया था! मैंने दो या तीन बार ही उसको देखा था, उसमे कुछ अलग सा ही था, कहते हैं कि किसी किसी स्त्री में रति का अंश होता है, ये मैंने उसमे पाया था!
दोपहर बाद, मैं भोजन करने के बाद, बर्तन रखने गया था, तब मुझे सामने से आती हुई मोहिनि दिखी! मैं वहीँ रुक गया, उसे गौर से देखने लगा, अब कोई भी स्त्री इस प्रकार देखने को अभद्रता ही मानेगी, उसने भी माना! वो भी रुक गयी, और मैं आगे बढ़ गया! बर्तन रखे, रखे क्या, फेंके से ही और लौट पड़ा, मोहिनि चले जा रही थी, मैं तो उसको देख देख ही मुग्ध सा हुए जा रहा था!
मैं तेजी से चला और उसके पीछे चला आया, वो रुक गयी और मुझे ही देखा उसने! उस रूप! मैं तो चकित ही था! आपने कभी प्रातःकाल में सोने से पहले की कुमुदनी देखी है? या फिर, गिलोय का कोंपल? या फिर, सेमल के फूल का वो भाग जो सूर्य से अंखियां मिलता है? ठीक वैसा ही!
वो सर फेर, फिर से आगे बढ़ी!
"सुनो?" बोला मैं,
वो रुक गयी!
"कहो?" बोली वो,
बड़ा ही विश्वास था उसे अपने संयम पर!
"क्या नाम है?" पूछा मैंने,
"किसका?" बोली वो,
"तुम्हारा?" बोला मैं,
"क्यों? बोली वो,
"पूछना चाहा!" कहा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उसने,
"ऐसे ही!" कहा मैंने,
"तो ऐसे ही कैसे बताऊं?" बोली वो,
"तो कैसे?" बोला मैं,
"सम्मुख आ कर पूछिए?" बोली वो,
मैं झट से उसके सम्मुख हो गया!
"बताओ?" बोला मैं,
"दिशि!" बोली वो,
"दिशि! अर्थात दिशा!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"अच्छा नाम रखा है!" कहा मैंने,
"हूं!" बोली वो,
"यहीं रहती हो?" पूछा मैंने,
"हूं!" बोली वो,
"माता-पिता?" पूछा मैंने,
"सब!" बताया उसने,
"आपकी माता जी?" पूछा मैंने,
"सीता देवी!" बोली वो,
अब मैं चौंका! जो समझ रहा था, क्या वो ही है?
"अब आचार्य हरिदेव की पुत्री हैं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
''ओ! अब समझा!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोली वो,
"आचार्य जी तो डिब्रूगढ़ से हैं न?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"तो आपका आवास यहीं है?" मैंने पूछा, मुझे कुछ अजीब सा लगा था इसीलिए!
"उस से क्या?" बोली वो,
"नहीं नहीं! मेरा मतलब, आचाय जी तो डिब्रूगढ़ ही रहते हैं न?" पूछा मैंने,
"आते जाते रहते हैं!" बोली वो,
"ओ! समझा!" कहा मैंने,
"वे तो संस्कृत के विद्वान् हैं!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"तभी आपकी हिंदी हम उत्तर भारतीयों जैसी है!" कहा मैंने,
"हां!" बताया उसने,
"आपके कोई भाई हैं जो, आयुर्वेदाचार्य के शिक्षण में हैं?" पूछा मैंने,
"हां हीरक!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"आप उत्तर भारत से हैं?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"कहां से?" पूछा उसने,
मैंने बता दिया उसे!
"बहुत दूर से!" बोली वो,
"अब क्या दूर और क्या पास!" कहा मैंने,
"चलिए, बाद में मुलाक़ात होगी!" कहा उसने,
"हां! अवश्य!" कहा मैंने,
और वो चलती चली गयी! वो एक सभ्रांत परिवार से थी, मैंने तो कुछ और ही सोच लिया था! खैर, मैं लौटा और जैसे ही कमरे तक आया कि कुछ याद आया! पलटा और फौरन ही बाबा नंन्दनाथ जी से मिलने चला गया!
"बालचंद्र?" मैंने आवाज़ दी उसे, कमरे के बाहर से!
वो बाहर आया, उनींदा सा!
"सो रहे थे क्या?" पूछा मैंने,
"हां, आंख लग गयी थी!" बोला वो,
"ओह! पता नहीं था!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं, आओ!" बोला वो,
और हम अंदर चले तब, मैं बैठा नीचे ही, एक चटाई पड़ी थी, चटाई पर एक दरी पड़ी थी, पीले रंग की!
"बाबा सोये हैं?" पूछा मैंने,
"देखना होगा!" बोला वो,
"देख लेना!" कहा मैंने,
"पानी?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
उसने पानी दिया और मैंने पानी पिया फिर!
"ये स्थान, हरिदेव आचार्य का है!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"मुझे नहीं पता था!" कहा मैंने,
"यहां वे ही आते हैं!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"यहां अभी उनकी पत्नी और पुत्री हैं!" कहा उसने,
"हां, देखा मैंने!" कहा मैंने,
"आचार्य जी अभी आये नहीं हैं!" बताया उसने,
"वहीं, दूसरे स्थान पर?" पूछा मैंने,
"नहीं, कहीं और ही गए हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"मैं बाबा को देखता हूं!" बोला वो और खड़ा हुआ,
"हां, ज़रूर!" कहा मैंने,
वो कमरे से बाहर चला और...........!
मैं कमरे में ही बैठा रहा, बाहर झांक रहा था, ऐसी यहां कोई जगह नहीं थीं, जिसके चप्पे चप्पे पर कोई वनस्पति न उगी हो! हरियाली इतनी सघन थी, कि मन आनंदित ही रहे! तभी मैंने सामने एक व्यक्ति को देखा, वो हाथों में, कुछ हंसिया सी लिए, नीचे बैठ कर, काट रहा था कुछ, मैंने उत्तर भारत में जो हंसिया देखी थीं, उस से अलग थी ये हंसिया, सीधी, चौड़ी और कुछ कम घुमाव लिए, शायद, खुरपी का काम भी करती हो! वो घास तो काट नहीं रहा था, कुछ बड़ा सा पौधा सा था वो, जैसे बरसम होती है, चारा होता है, वो काट कर उठाता भी नहीं था, वहीं बिखेर देता था!
"आओ!" आयी मुझे आवाज़,
मैं खड़ा हो गया था तब, एक ही आवाज़ पर,
"जाग रहे हैं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोलै वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और चल पड़ा उसके साथ ही! वो वहां से थोड़ा आगे थे, सो हम वहां जा पहुंचे! हम अंदर आये तो मुझे बाबा नंदनाथ बैठे दिखाई दिए, उम्र में करीब पैंसठ साल के रहे होंगे, भारी जिस्म था उनका, सफेद दाढ़ी और सर के बाल अब बहुत कम बचे थे, भौंहें काली और सफेद, बड़ी बड़ी थीं!
"प्रणाम बाबा!" कहा मैंने,
"प्रणाम!" बोले वो,
और मैंने उनके चरण छू लिए! चरण! हां! हमारी संस्कृति में बुज़ुर्गों के, बड़ों के, माता-पिता के, गुरु श्री के चरण छुए जाते हैं! शायद ही कोई जानता हो कि चरणों को कहां छुआ जाता है और माता-पिता, गुरु श्री के चरण कहां छुए जाते हैं! बुज़ुर्गों और गुरु श्री को समान स्थान प्राप्त है, अतः, उनके चरण बिना अंगूठे को स्पर्श कराये, अर्थात, हमारे हाथों के अंगूठे स्पर्श न करें और उनके चरण पांव की उंगलियों को भी नहीं छूने चाहियें, उंगलियों से ऊपर के भाग को स्पर्श कराया जाता है! माता-पिता एवं मूर्ति के चरण छूते समय, घुटनों के बल बैठ कर, पूरे हाथों से चरणों की उंगलियों को छुआ जाता है! ये ही चरण छूने का नियम है! घुटनों के बल, गुरु श्री, एवं बुज़ुर्गों के चरण, नहीं छुए जाते!
"बैठो!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
और मैं भी नीचे ही बैठ गया!
"आप भूपाल के साथ हैं?" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"काशी से आये हैं!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"वे ही लाये होंगे?" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"मुझे भी माह हुआ!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"धूजा का प्रयोजन!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"समझा!" बोले वो,
"मुझे बालचंद्र ने कहा आपसे मिलने के लिए!" कहा मैंने,
"बता दिया मुझे!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"मैं तो अक्सर ही यहां आता हूं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये स्थान ही विचित्र है!" बोले वो,
"विचित्र?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"कैसे विचित्र?" पूछा मैंने,
वे मुस्कुराये!
"यहां की भूमि देखी आपने?" बोले वो,
"जी?" पूछा मैंने, समझ नहीं पाया था, भूमि से क्या अर्थ?
"भूमि!" कहा मैंने,
"जी, वैसे तो देखी!" कहा मैंने,
"कुछ अलग दिखा?" बोले वो,
"नहीं?" कहा मैंने,
"बालचंद्र?" बोले वो,
"जी, बता दूंगा!" बोला वो,
"ये बालचंद्र बताएगा!" बोले वो,
"जी, धन्यवाद!" कहा मैंने,
और हमको अब आदेश, मूक आदेश प्राप्त हो ही गया था, कि वो मुझे बताये और मैं जानूं!
तो हम उठे और बाहर चले गए! मैंने जूते पहने!
"क्या अलग है?" पूछा मैंने, जूते पहनते हुए,
"कोई कार्य तो नहीं?" बोलै वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"आओ फिर!" बोला वो,
और मैं चल पड़ा उसके साथ, अजीब से रास्ते, वो रास्ते थे भी या नहीं, पता नहीं, सघन जंगल था वो! हैरत की बात तो ये कि यहां मुझे कोई स्थानीय लोग भी तो नहीं मिले थे! इसका मतलब था ये स्थान दूर ही था बहुत! तब ध्यान आया कि हां, ये दूर ही है, यहां तो रात को भी 'इंजन' ही चलता है, बिजली के लिए! आज डीज़ल लेने ही तो गए थे वे लोग! बिजली के भी खम्भे नहीं थे, हां, परली पार नदी के, गांव अवश्य दीखता था, वहां एक मंदिर भी था, बड़ा सा, लेकिन उस चौड़ी सी नदी को पार करना इतना सरल नहीं था और कोई पुल भी नज़र नहीं आया था, और फिर ज़रूरत भी क्या! इधर इस स्थान जैसे और भी कई स्थान हैं, बड़े बड़े, भविष्य में अवश्य ही कभी न कभी ये सोना उगलेगा, ऐसा लगता था!
"ये नदी है मुंडेश्वरी!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"इसका रहस्य जानते हो?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"शालिग्राम जानते हो?" बोला वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"वो गंडक में ही मिलता है!" बोला वो,
"हां, मात्र वहीं!" कहा मैंने,
"यहां भी मिलता है!" बोला वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"ठीक वैसा ही?" पूछा मैंने,
"उस से कुछ छोटा!" बोला वो,
"यहां कैसे?'' पूछा मैंने,
"कहते हैं कोई भूमिगत धारा बहती है!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हां, कहा जाता है!" बोला वो,
"ये नहीं सुना!" कहा मैंने,
"है ऐसा ही!" बोला वो,
"अब हम कहां जा रहे हैं?" पूछा मैंने,
"कुछ दिखाता हूं!" बोला वो,
"चलो, दिखाओ!" कहा मैंने,
हम चलते चलते करीब डेढ़ किलोमीटर तक आ गए, एक जगह एक टीला सा पड़ा, उस पर रास्ता सा बना था, उस पर चढ़े तो ऊपर की सतह आ गयी! नीचे देखा तो नदी सर्पिल सी घूम रही थी!
"नदी एक सी है?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"देख लो!" बोला वो,
"हां, है!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो,
और हम दूसरी जगह से उतरे नीचे! इस बार नदी तक आ गए, रात का बढ़ा पानी हट गया था, किनारा गीला था उधर! वो रुक गया!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"रुको!" बोला वो,
और एक सूखी लकड़ी तोड़ ली उसने!
"आओ!" बोला वो,
एक जगह पत्थर थे, वहीं चले! आ गए उधर ही!
"आओ!" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"इस पाने का रंग कैसा है?'' बोला वो,
"साफ़ है!" कहा मैंने,
"हरा या नीला सा?" बोला वो,
"नीला सा!" कहा मैंने,
"और उधर?" बोला वो,
मैंने घूम कर देखा,
"अरे?" बोला मैं,
"क्या हुआ?'' बोला वो,
"पानी कहां है?" पूछा मैंने,
"है तो?" बोला वो,
"नहीं?" कहा मैंने,
"क्या है?'' पूछा उसने,
"पत्थर हैं!" कहा मैंने,
"पत्थर!" कहा उसने,
"हां! सूखा है उधर तो?" कहा मैंने,
"एक पत्थर फेंको!" बोला वो,
"अभी लो!" कहा मैंने,
और उठाया एक पत्थर, पहले फेंका तो नहीं गया, दूसरा फेंका तो चला गया! लेकिन? वो पत्थर?
वो दूसरा पत्थर जहां गया था, वो तो जैसे किसी अदृश्य से जल से टकराया और नीचे चला गया, आवाज़ भी नहीं हुई! लेकिन पहला वाला कहां गया? वो क्या सीधा ही चला गया था? या बीच में ही कहीं लोप हो गया था? कौतुहल जाग उठा! लगा मुझे, कि वहां अवश्य ही किसी शक्ति का वास है! कुछ तो है वहां!
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
मेरे मुंह से तो शब्द नहीं निकल पा रहे थे उस क्षण!
"हां!" बोला वो,
"दूसरा पत्थर गिरा, वहां जल है क्या?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"तो दीखता क्यों नहीं?" बोला मैं,
"कोई नहीं जान सका!" बोला वो,
"क्या?'' कहा मैंने,
"हां, कोई नहीं जान सका!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"इसका रहस्य!" बोला वो,
"और पहला कहां गया?" पूछा मैंने,
"जल में ही!" बोला वो,
"जल में?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"मैं नहीं मानता!" बोला वो,
"यहां कोई नहीं ठहरता!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"अब मैं कुछ बताता हूं!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आओ, उधर आओ!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम वहां से उठ कर, थोड़ा सा पीछे चल दिए, पलट कर देखा तो वहां जल था! कोई सूखा स्थान नहीं? ये कैसी माया है? और भी स्थायी?
"यहां बैठते हैं!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और हम उधर, कुछ पत्थर पड़े थे, उनके बीच ही बैठ गए!
"एक बात बताओ?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वो स्थान किसका है?" पूछा उसने,
"कौन सा?" पूछा मैंने,
"जहां हम ठहरे हैं?" बोला वो,
"आचार्य जी का!" बोला मैं,
"और आचार्य जी, एक विद्वान्, समझदार, ज्ञानी पुरुष है!" बोला वो,
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
"तो एक ज्ञानी पुरुष, शहर से इतना दूर, इस उजड़े देहात से, जंगली क्षेत्र में क्यों वास करेगा?" बोला वो,
"सम्भवतः किसी विशेष प्रयोजन हेतु, शिक्षण हेतु अथवा कुछ संधान हेतु?" कहा मैंने,
"संधान!" बोला वो,
"हां, संधान!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"लेकिन कैसा संधान?" पूछा मैंने,
"यही!" बोला वो,
"यही? वो पत्थर? वो जल?" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"उसमे क्या संधान?" पूछा मैंने,
"कुछ तो होगा!" बोला वो,
"होगा तो ज़रूर!" कहा मैंने,
"उनके पास कुछ ऐसी पांडुलिपि है, जो अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने हैरान हो कर!
"हां!" बोला वो,
"क्या भाषा?" पूछा मैंने,
"हड़ुकि!" बोला वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"लिपि!" बोला वो,
"मैंने तो सुना भी नहीं!" कहा मैंने,
"बहुत ही कम जानते हैं!" बोला वो,
"उन्हें कहां से मिली?" पूछा मैंने,
"किसी बाबा ने दी थी!" बोला वो,
"और बाबा को?" पूछा मैंने,
"किसी पहाड़ी में मिली थी!" बोला वो,
"यहां की?' पूछा मैंने,
"हां, यहीं की!" बोला वो,
मैं सोचने पर विवश हो गया! यहां ऐसे ऐसे रहस्य? अब समझ आया कि कुछ प्रबुद्ध लोग कभी सामने क्यों नहीं आते! वे स्वयं ही लगे रहते हैं! उन्हें भला ख्याति से क्या लेना या देना?
"ये लिपि हड़ुकि है, ये किसने बताया?" पूछा मैंने,
"उसी बाबा ने!" बोला वो,
"बाबा ने स्वयं ही दी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"इस लिपि के विषय में जानते हो?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"कैसी लगती है?" पूछा मैंने,
"ये चित्रांकन अधिक है, बताया मुझे!" बोला वो,
"किसने बताया?" पूछा मैंने,
"बाबा नंदनाथ ने!" बोला वो,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
"क्या!" बोला वो,
"क्या तुम भी इस संधान में कार्यरत हो?" पूछा मैंने,
"सही पहचाना!" बोला वो,
"ओह! समझा!" कहा मैंने,
"वो लिपि नहीं पढ़ी जा सकी!" बोला वो,
"कितने पृष्ठ हैं?" पूछा मैंने,
"पृष्ठों का तो पता नहीं!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"उन्होंने कॉपी तैयार की है!" बोला वो,
"और असली है नहीं यहां!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो उस बाबा ने कुछ बताया था उनको?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वो जल देखा?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"रात्रि आओगे उधर तो कुछ सुनाई देगा!" कहा उसने,
अरे बाप रे! ये क्या सुन रहा था मैं!
"क्या सुनाई देगा?" पूछा मैंने, आंखें फाड़ते हुए!
"किसी के स्नान करने की आवाज़!" बोला वो,
"आवाज़?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"स्नान में कैसी आवाज़?" पूछा मैंने,
"आभूषणों की खनक!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
मैं अवाक! सन्न! और हुआ पाषाण!
"कौन है वो?" पूछा मैंने,
वो चुप हुआ!
"कौन? कोई गांधर्वी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"यक्षिणी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"तो फिर कोई सुंदरी? माया-सुंदरी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"नहीं?" मैंने हैरानी से पूछा!
"तो कौन?" पूछा मैंने,
"इसकी जांच भी की गयी, हर प्रकार से, कोई सटीक नहीं!" बोला वो,
"जांच?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"उस बाबा के अनुसार वो स्त्री वेणुला है!" बोला वो,
"वेणुला?" मैंने थूक गटकते हुए पूछा,
"हां!" कहा उसने,
"ये कौन?" पूछा मैंने,
"एक मानव-स्त्री ही!" बोला वो,
"क्या...मानव...स्त्री?" मेरे शब्द अटक गए!
"जल में?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"स्नान?" पूछा मैंने,
''वही!" बोला वो,
मैंने झट से उधर देखा!
"कौन है वो स्त्री, वेणुला?" पूछा मैंने,
"बताता हूं!" बोला वो,
मैंने फौरन ही सर घुमाया उस की तरफ!
"वो एक स्त्री अवश्य ही है, परन्तु, स्त्री भी नहीं!" बोला वो,
"इसका क्या अर्थ?" पूछा मैंने,
"अर्थ यही, कि मृत्यु तो अवश्यम्भावी ही है हम मनुष्यों की!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तब वो स्त्री जीवित कैसे?" पूछा उसने,
"हां?" कहा मैंने,
"वो एक अनुचरी है!" बोला वो,
''अनुचरी?" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"कालेषी के विषय में जानते हो?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"उसे ऋंग-भगा कहते हैं!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"इसका अर्थ जानते हो?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" बोला वो,
''अर्थ?" पूछा मैंने,
"हां, अर्थ ही!" कहा मैंने,
"ये संसर्ग-शक्ति है!" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"किसकी?" पूछा उसने,
"शिव एवं शक्ति की!" कहा मैंने,
"यहां शिव क्या?'' बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"बताओ?" बोला वो,
"चेतन, जड़-चेतन!" कहा मैंने,
"बिलकुल ठीक!" बोला वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
''और शक्ति से?" बोला वो,
"प्रकृति!" कहा मैंने,
"ठीक!" कहा उसने,
"यही है न!" कहा मैंने,
"हां, स्थूल-रूप में!" बोला वो,
"मैं आगे भी जानता हूं!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"प्रकृति के दो प्रकार हैं!" कहा मैंने,
"हां! सही!" बोला वो,
"एक को हम धन कह सकते हैं और एक को ऋण!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और इस ऋण से जब शिव अर्थात जड़-चेतन का समागम होता है तब प्रकृति का मूल-तत्व प्रकट होता है!" कहा मैंने,
"अकाट्य!" बोला वो,
"धन्यवाद!" कहा मैंने,
"अब और पूछूं?" बोला वो,
"हां, क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"शिव, अर्थात जड़-चेतन!" बोला वो,
''हां?" कहा मैंने,
"तो जड़, चेतन अवस्था उसकी, समागम कैसे करेगी?" बोला वो,
"उसमे से जड़ता हटा कर!" कहा मैंने,
"सो, सरल है?'' पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"और जो कर ले?'' बोला वो,
"कर ले?" कहा मैंने,
"हां, अर्थात ये सम्भव कर सके!" बोला वो,
"वो तो, उच्चस्थ हुआ!" कहा मैंने,
"बिलकुल सही!" कहा उसने,
"और वो कौन?" पूछा उसने,
"मात्र शिव ही!" कहा मैंने,
"यहीं गलत उत्तर दिया!" बोला वो,
"गलत?" बोला मैं,
''हां!" बोला वो,
"कैसे?" मैं परेशान हो उठा तत्क्षण ही!
''शिव तो जड़-चेतन है न!" बोला वो,
"अरे हां!" कहा मैंने,
"तो कौन?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" कहा मैंने,
"सोचो?" बोला वो,
"नहीं पता!" कहा मैंने,
"बताता हूं!" बोला वो और............!!
जड़-चेतन! चेतन क्या है?" पूछा उसने,
"चेतन की दो अवस्थाएं हैं! एक.......!" कहा मैंने तो उसने रोक दिया, मेरे कंधे पर हाथ रख कर!
"अवस्थाएं नहीं, चेतन ही मात्र!" बोला वो,
"नहीं जानता!" कहा मैंने,
"ऐसा नहीं है!" बोला वो,
"ठीक! चेतन एक अवस्था है मन की!" कहा मैंने,
"मन की या मस्तिष्क की?" पूछा उसने,
"देखा जाए तो प्रकृति ही है, इस ब्रह्माण्ड की!" कहा मैंने,
"एकदम सही!" बोला वो,
"क्या ये सत्य नहीं कि मन से ही मस्तिष्क सक्रिय होता है?" कहा मैंने,
"हां, सत्य है!" बोला वो,
"मस्तिष्क का मन पर कोई वश नहीं?" कहा मैंने,
"हां, नहीं है!" बोला वो,
"मन से गति, गति से चलन और चलन से चलायमान और इस चलायमान में जब तक अनश्वरता का बोध नहीं होता तब तक कोई भी सृजन नहीं किया जा सकता!" कहा मैंने,
"अनश्वरता?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये और इसका अर्थ?" बोला वो,
"मेरे जन्म से पहले सब क्या था? कैसा था? मुझे क्या मालूम? और, मेरे बाद, सब क्या होगा? कैसा होगा? और क्या मालूम? ये सृष्टि अनुमान से नहीं चला करती!" कहा मैंने,
"एकदम प्रभावशाली!" बोला वो,
"मैं वही जानता हूँ, जो इस जीवन में सीखता हूं, जो सिखाया जाता है, जो अनुभव करता हूं, नियम सीखता हूं इस प्रकृति के!" कहा मैंने,
"हां, सही!" बोला वो,
"परन्तु ये सब तो, सदैव मेरे साथ नहीं थे? ये मैंने ग्रहण किये, यहीं इसी संसार में!" कहा मैंने,
"हां! आशय?" बोला वो,
"यही कि मैं क्या लाया साथ?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"ग्रंथियां! इन्द्रियां!" कहा मैंने,
"सच है!" बोला वो,
"वो भी बिन 'अनुदान' के कुछ नहीं कर पातीं!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"परन्तु, जिस प्रकार, गुड़ की मिठास उसके रूप से, नीम की कड़वाहट उसके फल से, इंरश्र अर्थात इमली से खट्टापन नहीं बताया जा सकता, जिस प्रकार, सतह को देख, सागर की गहराई नहीं बताई जा सकती, जिस प्रकार, भूमि की उर्वरकता का पैमाना बिना मृदा-जांच के नहीं बताया जा सकता, उसी प्रकार, है ये चेतन!" कहा मैंने,
"सटीक उदाहरण दिए हैं!" बोला वो,
"और एक अर्थ है, जो छिपा है! इस प्रकृति में नियम इसके धन(+) से नहीं चलते, बल्कि गुणा से चलते हैं! इसे ही, सृजन कहते हैं! सृजन का मूल इस चेतन से होता है, इस धनात्मक चेतन से नहीं? ये तो मात्र संज्ञान-सूचक है!" कहा मैंने,
"और आगे?" बोला वो,
"चेतन की दो अवस्थाएं हैं, यहां इस परिपेक्ष्य में बताता हूं, एक जिसे हमने जड़-चेतन कहा है और दूसरा जिसे हम अजड़-चेतन कहेंगे!" कहा मैंने,
"कोई उदाहरण?" बोला वो,
"जानते हुए भी प्रश्न?" बोला मैं,
"जानते हो तो बताओ!" बोला वो,
"मन से मस्तिष्क सक्रिय होता है, सत्य या असत्य?" पूछा मैंने,
"सत्य!" बोला वो,
"क्या मन, इसको कोई देख सका है? कोई अवस्था है इसकी? कोई आयु? कोई रंग? ये कहां रहता है? कहां वास करता है? ये है भी और नहीं भी! बस! इसी प्रश्न में ही रहस्य है!" कहा मैंने,
"रहस्य तो पग पग में है!" बोला वो,
"अब अजड़-चेतन! ये चेतन-अवचेतन से आगे का विषय है!" कहा मैंने,
"और चेतना? वो क्या है?" बोला वो,
"ठीक वही! जो जल के ऊपर पड़ती धूप के कारण, चमक बनती है! उसका कोई अस्तित्व नहीं, सत्यता में तो! चांद की चांदनी, दर्पण में पड़ता अक्स, जो सच में है ही नहीं, पर है! छाया, जिसका कोई अस्तित्व नहीं, पर है! आश्म-पाषाण(कोयला) में बसी ऊर्जा! जल से प्राप्त शीतलता! उसी प्रकार, चेतन से चेतना का जन्म होता है!" कहा मैंने,
"क्या चेतना सतत जागृत नहीं?" बोला वो,
"मात्र शरीर तक ही जागृत!" बोला मैं,
"सत्य!" बोला वो,
मैंने थोड़ा विश्राम लिया अब!
"और हां? अब अजड़-चेतन? ये क्या है?" पूछा उसने,
"ये अजड़-चेतन, चेतनामय रूप है, जड़-चेतन का! जड़-चेतन को जब अजड़-चेतन से पृथक किया जाता है, तब ये शक्ति की ऋणात्मक तत्व-साकारिता से प्रसंग करता है और सृजन होता है!" कहा मैंने,
"अद्वितीय ज्ञान!" बोला वो,
"तो ये अजड़-चेतन इस जड़-चेतन से चेतनामय हो, किस प्रकार पृथक हो, नव-रूप लेता है, इसकी गुणधर्मिता पृथक कैसे और यदि ये अजड़-चेतन शक्ति की, या प्रकृति की धन तत्व-सारिकता से प्रसंग करे, तब क्या होगा?" बोला वो,
"इस प्रश्न का उत्तर भी देता हूं!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"मुझे बताइये कुछ!" कहा मैंने,
"क्या, पूछें?" बोला वो,
"मन का आवास क्या है?" पूछा मैंने,
"सच में देखा अजय, तो कोई नहीं जानता!" बोला वो,
"मन की थाह?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं!" बोला वो,
"मन को मैं स्वयं कह सकता हूं?" कहा मैंने,
"मायने एक ही हैं!" बोला वो,
"तो मैं, स्वयं ही मन हूं?" कहा मैंने,
"ये भी सत्य नहीं!" बोला वो,
"तो मायने एक से कैसे?" बोला वो,
"मुझे ज्ञात नहीं!" बोला वो,
"अधपका ज्ञान सदैव दुखदायी होता है!" कहा मैंने,
"सही भांप लिया आपने!" बोला वो,
"मायने एक ही हैं!" कहा मैंने,
"किस प्रकार?" बोला वो,
"मन और चित्त दो ही तो प्रकार हैं!" कहा मैंने,
"किसके?'' बोला वो,
"वृति के!" कहा मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"सिंह का मन हो, तो उसे उत्तम मांस चाहिए!" कहा मैंने,
"निःसंदेह!" बोला वो,
"और मनुष्य को वो सब भी जिसकी मात्र कल्पना ही सम्भव है!" कहा मैंने,
"सत्य है!" बोला वो,
"अब जो बता रहा हूं, ध्यान से सुनिए! पुनः नहीं बताऊंगा! चर्चा भी नहीं करूंगा! आप चाहे इसे अपनी बुद्धि का परीक्षण कहें, कोई गूढ़ रहस्य ही, अपना विवेक ही या फिर मेरी घोर मूर्खता ही!" कहा मैंने,
"ऐसा न कहें, बताएं!" बोला वो,
"श्रय, आश्रय एवं प्रश्रय!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"क्या इनमे कोई अंतर् है?" पूछा मैंने,
"किस प्रकार का?" बोला वो,
"शाब्दिक या अर्थ रूप में ही?" बोला मैं,
"मुझे ज्ञात नहीं!" बोला वो,
"बताता हूं!" कहा मैंने,
"श्रय से शरण बना! और शरण देना वाला श्री!" कहा मैंने,
"ओह! नहीं जानता था!" बोला वो,
"श्रय एक भूमि, एक खंड या मन में स्थित कोई स्थान है!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"आश्रय, जिसमे, देह छिपाने या गुजर-बसर करने का स्थान हो!" कहा मैंने,
"उचित है!" बोला वो,
"और प्रश्रय!" कहा मैंने,
''हां?" कहा उसने,
"ये हम स्वयं का है!" कहा मैंने,
"और उपरोक्त दोनों?" बोला वो,
"मन एक श्रय रचता है! आश्रय देता है!" कहा मैंने,
"अर्थात?'' बोला वो,
"श्रय को आप मन का आवास मानिये!" कहा मैंने,
"उत्तम है!" बोला वो,
"जब मन वहाँ नहीं हो, तब आश्रय प्राप्त होता है, किसको भला?" पूछा मैंने,
"किसको?" बोला वो,
"चेतना का! और चेतना कहां से आयी?" पूछा मैंने,
"चेतन से!" बोला वो,
"और यहां चेतन किस से उपजा?" पूछा मैंने,
"मन से!" बोला वो,
"मन वही है! शेष सब वही है! चेतना का आधार भी वही है, बस, चेतन यहां जड़ से उजड़ता को प्राप्त हुआ!" कहा मैंने,
"बहुत जटिल है!" कहा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
''और बताएं?" बोला वो,
"चेतन को आश्रय मिला, मन से रिक्त होते ही, तब उसमे उजड़ता आयी! ठीक?" कहा मैंने,
"हां ठीक!" बोला वो,
''अब शक्ति का ऋण आवेशित तत्व!" कहा मैंने,
"जब इन दोनों का मिलान हुआ तब, सृजन हुआ, सृजन को क्या मिला? प्रश्रय! स्मरण रहे, ये मन की ही अवस्थाएं हैं, परन्तु, लिखित में असत्य साबित होती हैं!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
"अब प्रश्न कि धन से प्रसंग क्यों नहीं?" बोला मैं,
"हां!" पूछा उसने,
"सरल उत्तर तो ये है, कि चेतन, चाहे जड़ हो या अजड़, धनावेशित ही होता है!" कहा मैंने,
"सटीक!" बोला वो,
"तो ये धनावेशित किस प्रकार, उस ऋणावेश को खोजता है?" पूछा उसने,
"नहीं खोजता!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"हां, नहीं खोजता!" कहा मैंने,
"तब, प्रसंग कैसे सम्भव हो पाता है?" पूछा उसने,
"वो ऋणावेश, स्वतः ही खोजता है!" कहा मैंने,
"स्वतः? कैसे?" बोला वो,
"जिस प्रकार मृदु एवं सौम्य जल, कठोर से कठोर पाषाण को काट देता है, जिस प्रकार दीमक कीट कठोर सागवान को भी चूर्ण कर देता है, जिस प्रकार, रक्तिभकीट, ठोस पाषाण को भी बुरेक देता है, ठीक उसी प्रकार ही!" कहा मैंने,
"तब क्या समझा जाए?" बोला वो,
"वृति या प्रवृति?" पूछा मैंने,
"इन दोनों में अंतर् क्या?'' पूछा उसने,
"वृति, सदैव संग रहती है, परन्तु, युग्म बना, सक्रिय होती है, यदा क्रोध, काम, ईर्ष्या!" कहा मैंने,
"और प्रवृति?" बोला वो,
"ये जन्मजात है!" कहा मैंने,
''और काम?" बोला वो,
"काम मात्र क्रिया है!" कहा मैंने,
"भाव नहीं?" बोला वो,
''नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"काम वृति है! प्रत्येक पुरुष प्रत्येक स्त्री पर कामासक्त नहीं होता!" कहा मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"तब योग और तप?" बोला वो,
"योग, वो योग नहीं, जिसमे देह को मोड़ा जाए, भाव-भंगिमाएं बदली जाएं, या, भिन्न भिन्न पशु-पक्षी आदि का अनुसरण किया जाए इस मानव-देह से!" कहा मैंने,
"अर्थात?" बोला वो,
"स्पष्ट ही तो है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"योग का अर्थ होता है जोड़ना!" कहा मैंने,
"स्पष्ट करो?" बोला वो,
"स्थूल से, सूक्ष्म का समन्वय!" कहा मैंने,
"स्थूल क्या?" बोला वो,
"ये देह!" कहा मैंने,
"और सूक्ष्म क्या?" बोला वो,
"ये प्रकृति!" कहा मैंने,
"मैं हैरान हूं!" कहा उसने,
"क्यों?" बोला वो,
"ये अछूता ज्ञान है!" बोला वो,
"ज्ञान सर्वत्र फैला है!" कहा मैंने,
"तो देह से अभिप्राय?" बोला वो,
"शैव!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"और शैव से अभिप्राय, शिथिल!" कहा मैंने,
"और शिथिल से?" बोला वो,
"ये मूर्त जगत!" कहा मैंने,
"अकाट्य!" बोला वो,
"तो ये शैव, शिथिलता से बाहर कैसे आता है?" बोला वो,
"तप से!" कहा मैंने,
''तप का अर्थ क्या?" बोला वो,
"रहस्योद्घाटन!" कहा मैंने,
"किसका?" बोला वो,
"इस प्रकृति का!" कहा मैंने,
"उसका?" कहा उसने,
"उसके नियमों का!" कहा मैंने,
"कुल नियम कितने?" बोला वो,
"जितनी आयु हम जीते हैं!" कहा मैंने,
''अर्थात?" बोला वो,
"परिवर्तन!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"बीज! अंकुर! पौधा! वृक्ष! फल! पुनः बीज!" कहा मैंने,
"एकदम सही!" बोला वो,
"जो कल था, आज नहीं, जो आज है वो कल न होगा!" कहा मैंने,
"क्या शेष तब?" बोला वो,
"नियम!" कहा मैंने,
"नहीं हटते?' पूछा उसने,
"कदापि नहीं!" कहा मैंने,
"हट जाएं तो?" बोला वो,
"तो?" कहा मैंने,
"हां, तो?" पूछा उसने,
"तब वो अदृश्य जल!" कहा मैंने, इशारा करते हुए उधर!
वो मुस्कुरा पड़ा मेरा उत्तर सुन!
"हां! यही!" बोला वो,
"तब मुझे बताइये?" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"यही कि वो अदृश्य जल कैसे?" पूछा मैंने,
"मिलेगा उत्तर!" कहा उसने,
"कब?" पूछा मैंने,
"शीघ्र ही!" बोला वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोला वो,
"बाबा नंदनाथ तो वृद्ध हुए?" कहा मैंने,
'हां, सही बोले!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"अभी बताता हूं, पर अभी कुछ प्रश्न हैं!" बोला वो,
"कैसे प्रश्न?" पूछा मैंने,
"उत्तर दोगे?" बोला वो,
"आते हों तो!" कहा मैंने,
"उम्मीद है!" बोला वो,
"मैं प्रतीक्षा में हूं!" कहा मैंने,
"क्या मन में शक्ति है?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब वो इतना चंचल कैसे?" बोला वो,
"ये उसकी प्रवृति है!" कहा मैंने,
"क्या प्रवृति बदली जा सकती है?'' बोला वो,
''असम्भव!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"सिंह कदापि मक्खन नहीं खायेगा!" बोला मैं,
"और जो खाये?" बोला वो,
"तब उसको ज्ञात नहीं!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"उसकी प्रवृति!" बोला वो,
"क्यों, ऐसा हो नहीं सकता क्या?'' बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"समझा नहीं?" बोला वो,
"इसका उत्तर भी एक प्रश्न से दूंगा!" बोला मैं,
"अवश्य!" बोला वो,
"किसी भी पशु को, यकायक जल में, मध्य में फेंक दिया जाए तो क्या वो किनारे तक आ जाएगा?" पूछा मैंने,
"हां, आ जाता है!" बोला वो,
"क्या उसने तैरना सीखा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"तब कैसे जाना उसने?" बोला वो,
"प्रयास!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''तो?" बोला वो,
"प्राण-भय!" कहा मैंने,
"हां, ये अधिक निकट है!" बोला वो,
"सर्प के न पांव, न हाथ, परन्तु तैरने में, चढ़ने में, चलने में, किसी से कम?" पूछा मैंने,
"कदापि नहीं!" बोला वो,
"तो उसे कैसे पता?'' पूछा मैंने,
"उसकी प्रवृति!" बोला वो,
"नहीं, सहज प्रवृति!" कहा मैंने,
"सहज कैसे?'' बोला वो,
"असहज कैसे?" बोला वो,
"उसे प्राण-भय नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"वो तो आखेट पर निकला है!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"तो ऐसे तो सिंह भी?" बोला वो,
"मक्खन हेतु नहीं!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"तब, ये मन, शांत रहे तो कुण्डलीयुक्त, तैरे तो कल्पनाशील, चढ़े तो कर्मठ और बिल में जाए तो भीरु हो जाता है!" कहा मैंने,
"मन में शक्ति नहीं!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"परन्तु समस्त संसार तो इसी के वश में है!" बोला वो,
"वो भीरु हैं!" कहा मैंने,
"तन भीरु?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मन भीरु?" बोला वो,
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
"यही सत्य है! बिन प्रयास कुछ सम्भव नहीं!" बोला वो,
"बिन ईंधन अग्नि सम्भव नहीं जैसे!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"हां!" बोला वो,
"हां?" पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
मैं मुस्कुरा गया! मेरा आशय नहीं भांप पाया था वो!
"मैंने कहा, बिन ईंधन अग्नि!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अग्नि से सृजन सम्भव है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और अग्नि से ही, विनाश भी?" कहा मैंने,
''हां!" बोला वो,
"तब अग्नि को हम क्या संज्ञा दें?" कहा मैंने,
"किस विषय पर?'' पूछा उसने,
"इस द्वि-गुणधर्मिता पर?" कहा मैंने,
"सच कहूं?" बोला वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
"मुझे संशय है!" बोला वो,
"किस बात का?" कहा मैंने,
"तर्क का!" बोला वो,
"कैसा तर्क?" पूछा मैंने,
"इस उत्तर का!" बोला वो,
"द्वि-गुणधर्मिता का?'' पूछा मैंने,
"हां! इतना नहीं जानता मैं!" बोला वो,
"सुनो!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"अग्नि न स्वतः ही उत्पन्न होती है और न ही स्वयं ही शमन!" कहा मैंने,
"स्वतः ही उत्पन्न क्यों नहीं?" बोला वो,
"कारक!" कहा मैंने,
"कारक?" बोला वो,
"हां?" बोला मैं,
"या कारण?" बोला वो,
"नहीं, कारक!" कहा मैंने,
"समझा नहीं!" बोला वो,
"अग्नि उत्पन्न होती है, स्वयं नहीं, जब तक कारक नहीं हो!" कहा मैंने,
"सुनने में सरल है!" बोला वो,
"ऐसा क्यों है कि?" कहा मैंने,
तभी एक पक्षी ने चहचाहट भरी और मैं रुक गया था!
"हां, कि अग्नि को हम गर्म, दाहक ही मानते हैं?'' बोला मैं,
"चूंकि यही उसका धर्म है, गुणधर्म!" बोला वो,
"गुणधर्म?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"और जल का?" पूछा मैंने,
"शीतल!" बोला वो,
"गुणधर्म? शीतल?" बोला मैं,
"अरे हां! नहीं!" बोला वो,
"फिर?" कहा मैंने,
"जल का क्या गुणधर्म है?'' पूछा उसने,
"इस पक्षी के लिए तो प्यास मिटाना और कभी-कभर, भरी गर्मी में शीतलता प्राप्त करना!" कहा मैंने,
"हां! सभी के लिए!" बोला वो,
"नहीं, जल का स्वभाव शीतल है!" कहा मैंने,
''सो तो है!" बोला वो,
"तो अग्नि का?" पूछा मैंने,
वो अटक गया! मुझे देखे जाए!
"ये सब, कहां से सीखा?" बोला वो,
"उत्तर दो!" कहा मैंने,
"बताओ?" बोला वो,
"ये मेरा उत्तर नहीं!" कहा मैंने,
"अग्नि का, दहन होता है स्वभाव!" बोला वो,
"बिलकुल ठीक!" कहा मैंने,
''ओह!" बोला वो,
"क्या जल और अग्नि का मिलन सम्भव है?" पूछा मैंने,
"कदापि नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"स्वभाव विपरीत हैं!" बोला वो,
"सोच लो पुनः!" कहा मैंने,
"सोच के ही बोला!" बोला वो,
"तब वाष्प क्या?'' पूछा मैंने,
उसने आंखें बंद कीं! सर हिलाया अपना!
"ॐ कनखलि!" बोला वो,
"बताओ?" कहा मैंने,
"क्या है वाष्प?" बोला वो,
"उत्पादित-फल!" कहा मैंने,
"किसका?" बोला वो,
"दो विपरीत स्वभाव वालों का!" कहा मैंने,
और फिर..........!!
"बहुत सूक्ष्म प्रश्न है!" कहा मैंने,
"उत्तर दें!" बोला वो,
"बालचंद्र?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"इस संसार को हम तीन लिंग से जानते हैं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"एक स्त्रीलिंग, एक पुल्लिंग और नपुंसकलिंग!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"देखा जाये, तो ये सब एक ही हैं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"इनमे अंतर् हम मात्र दैहिक रूप से ही करते हैं!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"परन्तु फिर से वही प्रश्न!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"वाष्प, क्या है? कौन सा लिंग है?'' पूछा मैंने,
"ये तो पता नहीं!" बोला वो,
"हां! यही उत्तर!" कहा मैंने,
"इस संसार में, जब दो विपरीत स्वभावों वाले लिंगी मिलते हैं तब उक्त तीन लिंगों में से कोई लिंग उत्पन्न नहीं होता!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"यही तो नियम है!" कहा मैंने,
"उदाहरण दें?" बोला वो,
"पाषाण!" कहा मैंने,
"जल!" कहा मैंने,
"जल?" बोला वो,
"क्यों?'' पूछा मैंने,
"जल का क्या लिंग?'' पूछा उसने,
"जल, गुणग्राही होता है!" कहा मैंने,
"अर्थात?" बोला वो,
"जल का मूल स्वाद तुम्हें मालूम है?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"तो यही है मन!" कहा मैंने,
"समझा!" बोला वो,
"रेत से मिला तो रेतीला हुआ, गाद से मिला तो गंदला हुआ, मिट्टी से मिला तो मैला हुआ! अर्थात, मन की कोई ठौर नहीं, कोई थाह नहीं! मन, वृति से ग्रस्त हो जाता है और यही वृति जब बार बार पुनरावृति करती है तब ये प्रवृति हो जाता है!" कहा मैंने,
"क्या खूब विश्लेषण!" बोला वो,
"जब कोई पुरुष किसी स्त्री को काम-दृष्टि से देखता है तब इसको क्या कहा जाए?" कहा मैंने,
"काम-वृति!" बोला वो,
"मात्र समझने में!" कहा मैंने,
"तब?" बोला वो,
"काम-दृष्टि से मैंने देखा, उस स्त्री ने तो नहीं?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"तब ये काम ही कहां हुआ?" कहा मैंने,
"नहीं समझ पाया!" बोला वो,
"समझाता हूं!" कहा मैंने,
"काम-वृति से एक नव-प्राणी का जन्म हो, तब काम, पूर्ण होता है, इसका उद्देश्य पूर्ण होता है! परन्तु उद्देश्यहीन हो तब?" बोला वो,
"व्यभिचार!" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"ऐसा विचार रखना!" बोला वो,
"विचार या दृष्टि?" कहा मैंने,
"दोनों!" बोला वो,
"बड़े ही अचम्भे की बात है!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"इस संसार में 'दोनों' तो हैं ही नहीं?" कहा मैंने,
"क्या मतलब?" बोला वो,
"मतलब, इस संसार में एक ही है!" कहा मैंने,
"और वो क्या?" बोला वो,
"जड़-चेतन!" कहा मैंने,
"और शक्ति?" बोला वो,
"शक्ति के लिए क्या जड़ता को त्यागना न होगा?" बोला मैं,
"यही तो पूछा था?'' बोला वो,
"त्यागना ही होगा!" कहा मैंने,
"सो कैसे? मन से, मन को घेर कर?" पूछा उसने,
"मन को कैसे घेर सकते हो! सुनते ही नकार देना जो कहे कि उसने मन-विजय की है!" कहा मैंने,
"नकार दूं?" बोला वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"तो जप-तप, पूजा-पाठ?" बोला वो,
"मात्र दैहिक-क्रिया, दैहिक-कल्प!" बोला मैं,
"स्थूल से सूक्ष्म तक नहीं?" बोला वो,
"कदापि नहीं!" बोला वो,
"कैसे?'' पूछा उसने,
"बिन पवन के एक पत्ता न हिलेगा! और पवन विकराल हो जाए तो पाषाण तो क्या, भूमि को फाड़ दे!" कहा मैंने,
