वर्ष २००८ भिवानी हर...
 
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वर्ष २००८ भिवानी हरियाणा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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उसने कहा मैंने सुना! जहां से मै चला था वहीं आ गया! कोई निर्णय नहीं हुआ, वो ज़िद पर अड़ा था, और मै उसकी ज़िद को समाप्त करना चाहता था!

"वे नहीं रहेंगे यहाँ!" मैंने कहा,

"तू रोकेगा?" उसने मुस्कुरा के पूछा,

"हाँ, मै रोकुंगा!" मैंने कहा,

अब उसने अट्टहास लगाया! ज़ोरदार अट्टहास!

"तू जानता है मैं कौन हूँ?" उसने दंभ से पूछा,

दंभ! अपनी शक्ति का दंभ! अपनी ब्रह्मराक्षस-योनि से प्रदत्त शक्तियों का दंभ!

"हाँ, मै जानता हूँ, आप ब्रह्मराक्षस हैं, अतुलनिय शक्तिधारी!" मैंने कहा,

"फिर भी अड़ा है?" उसने अब धमका के पूछा,

"अड़ा हूँ, इसीलिए कि कुछ अबोध मानव त्रस्त हैं यहाँ इस साध्वी के कारण" मैंने कहा,

"अब चले जाओ यहाँ से, इस से पहले कि मुझे क्रोध आये!" वो बोला,

"मैं नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा.

"जाना पड़ेगा तुझे, इसी समय, इसी क्षण!" वो गरजा!

"नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,

अब उसको क्रोध आया, उसने साध्वी को पीछे किया और मेरी ओर बढ़ चला!

मै भी तत्पर था!

वो मुझसे चार फीट पर रुक गया!

"अभी भी समय है, चला जा यहाँ से!" उसने कहा,

"मैंने बता दिया, मै कहीं नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा और अब अपना त्रिशूल संभाल लिया! वहाँ साध्वी हैरत से मुझे देखे जा रही थी! वो जानती थी कि मै द्वन्द में उसका मुकाबला नहीं कर सकता था, परन्तु मै लड़ अवश्य सकता था!

ब्रह्मराक्षस ने हाथ ऊपर उठाया अपना सीधा, वहाँ एक भयानक महाप्रेत सा प्रकट हुआ, उसके केश नीचे उसके पांवों से टकराते हुए भूमि को स्पर्श कर रहे थे! मुख एक दम भक्क काला, हाँ उसकी भुजाये काफी लम्बी थीं, उसके घुटनों से भी नीचे तक! उसके हाथों और पांवों में रस्सियाँ सी बंधी थीं! संभवतः ये उस ब्रह्मराक्षस का दास महाप्रेत रहा होगा!

उस महाप्रेत ने झुक कर ब्रह्मराक्षस को प्रणाम किया, और यहाँ मैंने जिग्साल-मंत्र पोषित कर लिया, अपने त्रिशूल पर पकड़ मज़बूत की! और तभी, तभी वो महाप्रेत टूट पड़ा मुझ पर! मैंने त्रिशूल उसको छुआ दिया, त्रिशूल के छूते ही वो पीछे हटा! अब मैंने उसके नेत्र देखे, भयानक नेत्र! वो फिर से गर्रा कर हवा में उछला और सीधा मुझ पर गिरा! मैंने अपना त्रिशूल उसकी ओर ही कर रखा था वो त्रिशूल के


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाएं फाल से टकराया और गर्राते हुए लोप हो गया! ये देख ब्रह्मराक्षस पीछे हटा, उसके पीछे हटते ही साध्वी चिपक गयी उस से!

ब्रह्मराक्षस थोडा हैरान तो हुआ परन्तु डिगा नहीं! वहीं खड़ा रहा! अब उसने तालियाँ बजाई, एक एक ताली पर एक एक सर्प-कन्या जैसी भीषण शाकिनियां प्रकट हुईं! कुल चार शाकिनियां! इनसे मै निबट सकता था! उन्होंने शोर मचाया, महा-क्रंदन! अपनी जिव्हा निकाल कर भयभीत करने लगी मुझे! मैं अब बैठ गया, एक मांस का टुकड़ा उठाया, और जब तक उनको वार करने का आदेश मिलता, मै उचित समय पर वो अभिमंत्रित-टुकड़ा फेंक दिया वहाँ! शाकिनियां वहीं खड़े हो गयीं! मैंने रक्षा-वृत्त खींच लिया था! और वो उसमे प्रवेश नहीं कर सकती थीं! अब मैंने मरघट-वासिनी का मंत्र जागृत किया और फिर एक और टुकड़ा मारा फेंक कर उन पर, टुकड़े के गिरते ही वो हुई झम्म से लोप!

ये देख ब्रह्मराक्षस चकित रह गया! वो मुझे घूरता रहा! और साध्वी भी!

"तुझे अंतिम बार चेतावनी देता हूँ, चला जा यहाँ से!" वो बोला,

"मैं नहीं जाऊँगा यहाँ से!" मैंने कहा,

"नहीं जाएगा?" उसने पूछा,

"नहीं!" मैंने कहा,

उसे क्रोध आया! भयानक क्रोध! उसने फिर से एक ताली बजाई! और वहाँ एक कुरूप सी चुडैल जैसी छाया प्रकट हुई, दुर्गन्ध फ़ैल गयी वहाँ! उसका आधा धड़ नीचे और आधा धड़ ऊपर की ओर था! नेत्र गहरे सूराखों में स्थित थे! बड़ी मुश्किल से वो चल पा रही थी! दुर्गन्ध के मारे नथुने फटने लगे! मुंह कड़वा हो गया था! उलटी आने को तैयार थी! ऐसी सड़ांध कि आदमी मर ही जाए! उसने घुर के मुझको देखा! मैंने त्रिशूल उसकी ओर किया, वो टेढ़ी-मेढ़ी चलती हुई आई मेरी तरफ! मै पीछे हटा! अब वो चिल्लाई! चिल्लाते ही कूदी मेरे ऊपर, मै नीचे गिरा! वो मेरी छाती पर चढ़ गयी, सारे तंत्राभूषण विफल कर दिए उसने! तभी शर्मा जी ने वो खंजर उस छाया से छुआ और वो उठ बैठी वहाँ से! वो खंजर कोई ऐसा वैसा आम नहीं, एक रौद्र महाशक्ति के मंत्र से पोषित है! वो छाया फिर से वहीं टिक गयी जहां पहले थी! हाँ मेरी छाती द्रव्य अवश्य ही दिखाई दिया! ये उसी छाया का तिलिस्म था!

ये तिलिस्मी द्रव्य था, मैंने उसको साफ़ किया, यदि इस से आग छुआ दी जाती तो आग भक्क से जल उठती! इसीलिए मैंने उसको साफ़ किया था! वो कुरूपा अभी तक वहीं खड़ी थी! मैंने महा-मसानी का मंत्र पढ़ा और उसको जागृत किया! और तभी देखते ही देखते वो हवा में उड़ी और फिर से कूदने के लिए नीचे आई, इस बार मै तत्पर था, मैंने त्रिशूल का एक वार किया, तलवार की तरह वो छाया, वाष्प बन कर दो जगह विभक्त हो कर लोप हो गयी! महा-मसानी के मंत्र ने ये कर दिखाया था! ये देख ब्रह्मराक्षस फिर से चकित हुआ! साध्वी पीछे हो गयी उसके! ब्रह्मराक्षस मेरा सामर्थ्य देख चकित था!

फिर से सन्नाटा पसरा, कछ क्षण!

और तभी वहाँ दो अप्सराओं जैसी दो सुन्दर स्त्रियाँ प्रकट हुईं! उनकी सुन्दरता का वर्णन मै शब्दों में नहीं पिरो सकता! स्वर्ण-आभूषणों से युक्त, दैदीप्यमान मुख-मंडल, लम्बी चौड़ी सुगठित देह, अंग-प्रत्यंग जैसे किसी कुशल कारीगर ने तराशे हों! होंठों का रंग सुर्ख, श्याम-भंग नेत्र! ग्रीवा तक स्वर्ण-बंध, श्वेत, धवल वर्ण! नवयौवनाएं! यौवन जैसे किसी क्रियाशील ज्वालामुखी के सामान धधक रहा था, उसमे


   
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श्रीशः उपदंडक
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से कामरूपी लावा फफक फफक कर बाहर आ रहा था! और मै! मै जैसे उस ज्वालामुखी के ताप से निरंतर शुष्क हुए जा रहा था! वो मुस्कुरा रही थीं!

"ले! ले साधक रख ले!" उसने उनकी तरफ इशारा करते हुए कहा! क्या कूटनीति चली थी उसने!

मै चुप रहा! दरअसल मै उन अप्सराओं का अपने चक्षुओं से यौवनपान कर रहा था, ब्रह्मराक्षस के भारी स्वर से मेरी तन्द्रा भंग हुई!

"ले ये सुंदरियाँ!" वो बोला,

मै कभी ब्रह्मराक्षस को देखता और कभी उन मुस्कुराती हुई अप्सराओं को! अप्सरा! यहाँ मै उनको अप्सरा कह रहा हूँ, ये उपमा है उन सुंदरियों के लिए, भले ही वो अप्सरा नहीं थीं, परतु अप्सराओं से कम भी नहीं थीं!

"मुझे कोई आवश्यकता नहीं!" मैंने कहा,

"ये कल्प-सुंदरियां हैं तरसते हैं तेरे जैसे साधक इनके लिए, और मै! मै दान कर रहा हूँ तुझको!" वो बोला,

"मुझे कोई आवश्यकता नहीं हे महाभट्ट!" मैंने कहा,

"दान स्वीकार करो!" उसने कहा,

"नहीं, मै स्वीकार नहीं कर सकता!" मैंने कहा,

"ये धनदायक, सौहार्द-दायक, संतुष्टि-दायक, कामसुख-दायक गुणों से भरपूर हैं साधक!" उसने जैसे मुझे समझाया!

"मैं इस भू-लोक में वास करता हूँ, हे महाभट्ट, ये मेरे किसी काम की नहीं!" मैंने कहा,

"ये मानव-सुंदरी का रूप भी धारण कर सकती हैं साधक!" उसने कहा,

"मुझे आवश्यकता नहीं!" मैंने कहा,

वो चुप रहा कुछ क्षण! और फिर वे अनुपम सुंदरियां लोप हो गयीं उसी क्षण!

वो हंसा! ठहाका मारा! "मूर्ख हो तुम!" वो बोला,

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया!

"हाथ आया अवसर गँवा दिया!" वो बोला और फिर से हंसा!

फिर से खामोश हुआ! और उसने अपने दोनों हाथ आगे किये और फिर एक ताली मारी! और प्रकट हुआ मेरे चारों ओर स्वर्ण ही स्वर्ण! आभूषण ही आभूषण! अथाह धन!

"ये रख ले" वो बोला,

"नहीं" मैंने कहा,

"ये अक्षय है!" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं" मैंने फिर से ना कहा!

"तेरी वंशबेल के अंतिम छोर तक ये अक्षय ही रहेगा!" वो बोला,

"मुझे आवश्यकता नहीं!" उसने कहा,

"मानव तो धन का लोलुप होता है!" वो बोला,

"परन्तु मै नहीं!" मैंने कहा,

"मूर्ख है तू!" उसने मेरी ओर इशारा करके कहा,

"मूर्ख ही सही!" मैंने कहा,

उसने अब फिर से अट्टहास लगाया! और एक ही क्षण में सब धन लोप हो गया!

"तू ऐसे नहीं मानेगा!" वो बोला!

मैंने कुछ नहीं कहा!

अब उसने फिर से हाथ हिलाया! और इस बार जो हुआ, वो मेरी कल्पना से भी परे थे! वहाँ शव प्रकट हुए, क्षत-विक्षत! सभी मेरे प्रियजनों के! आँखों ने जो देखा वो सत्य था, जो विवेक ने देखा और सत्य!

"यही चाहता है तू?" उसने पूछा, मै चुप रहा,

"मै यही करूँगा!" उसने ठहाका मारा!

मैंने माया-नाशिनी मंत्र पढ़ा और थूक दिया नीचे, थूक के भूमि पर पड़ते ही, सभी शव लोप हो गए! माया का नाश हो गया था!

माया का नाश हो चुका था, उसका जो उद्देश्य था मुझे समझाने का वो मै समझ गया था!

"जा, अब चला जा" वो बोला,

"नहीं" मैंने कहा,

"क्यों ऐसी स्थिति को निमंत्रण देता है साधक?" उसने पूछा,

"आप ऐसा कदापि नहीं कर सकते" मैंने कहा,

"क्यों?" उसने पूछा,

"करते होते तो अभी तक यहाँ पर जीवित मानव अब तक जीवित न होते!" मैंने कहा,

तनिक सोच में पड़ा वो!

"मान जा साधक" उसने अब मंद स्वर में कहा,

"मैंने आपको बता दिया है" मैंने कहा,

अब उसने साध्वी को देखा, जैसे मूक भाषा में उन दोनों के विचारों का आदान-प्रादान हुआ हो!

"सुनो साधक! ये साध्वी यहीं रहेगी!" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब फिर से कुठाराघात हुआ मुझ पर! नैय्या किनारे से तो सही चलती थी, परन्तु मंझधार में आके भंवर में फंस जाती थी! अब भी ऐसा ही हुआ था!

"ये यहाँ नहीं रह सकती!" मैंने कहा,

"असंभव!" वो बोला,

"ये संभव है!" मैंने कहा,

"कैसे?" उसने पूछा,

"आप समझाएं इसे!" मैंने कहा,

"मै इस से वचन में बंधा हूँ" वो बोला,

वचन? वचन में बंधा हूँ? ये क्या रहस्य है? अब उलझा मै! तो क्या साध्वी ने इसे सिद्ध किया है? नहीं नहीं! ऐसा नहीं हो सकता, ब्रह्मराक्षस की सिद्धि प्रबल तामसिक एवं तीक्ष्ण होने के साथ साथ प्राणहारी होती है! भला एक सात्विक साध्वी कैसे सिद्ध करेगी इसको? ये प्रश्न मेरे मस्तिष्क में कुलबुलाये अब!

"अब तुझे जाना होगा यहाँ से!" उसने कहा,

"जाऊँगा तो मै नहीं!" मैंने कहा,

मेरी बात सुनकर हंसा वो!

"तुझे जाना होगा!" वो बोला,

"कदापि नहीं!" मैंने कहा,

"तो समझो आज अंतिम रात्रि है तेरी इस धरा पर!" उसने कहा,

"आपके हाथों मृत्यु कौन नहीं वरण करना चाहेगा महाभट्ट! जैसी आपकी इच्छा!" मैंने कहा,

मैंने उसकी प्रशंसा की थी! ये भी एक नीति होती है! नीतिपूर्ण कार्य कदापि विफल नहीं होता!

"पुनः विचार कर लो साधक!" उसने कहा,

पहली बार मुझे अब उसने 'ले' से 'लो' बोला था! मेरी नीति कारगर हो गयी थी!

"मैं अपना निर्णय आपको बता चुका हूँ" मैंने कहा,

"नहीं मानोगे?" उसने कहा,

पुनः आदर सूचक शब्द का प्रयोग किया उसने!

"आप स्वयं चहुँ-कोण ज्ञाता है, इसमें मानना या ना मानना, इसका अर्थ सरोकार नहीं रखता!" मैंने कहा,

"बहुत हठी हो तुम!" उसने कहा और हंसा!

"हठ योग मेरा मार्ग है!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जानता हूँ!" उसने कहा,

फिर कुछ पल शान्ति हुई!

"विचार किया तुमने साधक?" उनसे अब विनम्रता से पूछा, मेरी हिम्मत बढ़ी!

"कैसा विचार?" मैंने पूछा,

"यहाँ से जाने का?" उसने उत्तर दिया और प्रश्न भी किया!

"मै यहाँ से तब तक नहीं जाऊँगा, जब तक ये साध्वी और इसके संगी साथी यहाँ से नहीं जायेंगे!" मैंने कहा,

करार

वो बिना कुछ शब्द कहे मुस्कुराया! उसने तभी चुटकी से मारी ऐसे जैसे कि दो उंगलियाँ आपस में टकराई हों! वहाँ एक और अप्सरा सी प्रकट हुई! श्वेत सुंदरी! तीखे नयन-नक्श उसके! यौवन से भरपूर और हाथों में नीले रंग के पुष्प लिए! "ये स्वर्णभद्रा सुंदरी है!" उसने बताया,

मै चुप रहा!

"ये सहस्त्र योजन तक एक क्षण में यात्रा करती है, धन, यश, कीर्ति, सिद्धियाँ आदि में संजीवनी संचरण करती है, वृद्धि करती है, वरदान देने के सिवा कुछ भी मांग लेना इस से, धन, काम, यश, गति सब क्षणों में प्रदान कर देगी, लो ले जाओ इसे!" उसने कहा,

मै फिर भी चुप रहा!

"स्वर्णभद्रा एक भार्या की भांति सदा तुम्हारे साथ रहेगी, जाओ ले जाओ इसे!" उसने कहा,

स्वर्णभद्रा! कौन साधक नहीं चाहेगा उसको! परन्तु मानव-जीवन का कोई मोल नहीं! प्राण से बड़ा कोई खज़ाना नहीं, मानव-जीवन है तो सब कुछ है, नहीं तो कुछ भी नहीं! यही आधार है और यही सत्य! मैं यहाँ मानव-जीवन बचाने आया था, ना कि उनकी आहुति देने और उसके बदले में ये स्वर्णभद्रा प्राप्त करने!! स्वर्णभद्रा तो फिर भी प्राप्त हो जायेगी, परन्तु प्राण एक बार छूटे तो असंभव!

"नहीं महाभट्ट! मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए!" मैंने कहा,

वो शांत हुआ!

"ले जाओ! अंतिम श्वास तक तुम्हारे साथ रहेगी, ये मेरा वचन है!" उसने कहा,

"नहीं मुझे नहीं स्वीकार!" मैंने कहा!

अब उसने स्वर्णभद्रा को देखा और वो स्वर्णभद्रा लोप हो गयी थी, ब्रह्मराक्षस ने मुझे हर प्रकार से अन्य प्रकार के प्रलोभन दिए थे, परन्तु मैंने स्वीकार नहीं किये थे! क्यूंकि जो व्यक्ति अपने उद्देश्य से भटक जाता है, वो कभी भी जीवनभर अपने गंतव्य पर फिर कभी नहीं पहुँच सकता! मार्ग तो भटकाया जाता है, प्रलोभन तो दिए जाते हैं, परन्तु व्यक्ति को अपने उद्देश्यपूर्ति हेतु कभी भी मार्ग से लेशमात्र भी हिलना नहीं चाहिए! इसीलिए मै भी नहीं हिला था, हाँ मनुष्य तुच्छ प्राणी है एक ब्रह्मराक्षस के समक्ष परन्तु वो मनुष्य ही क्या जो अपने नैतिक नियमों का पालन ही न करे! अब सामने कोई भी हो! मेरा


   
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श्रीशः उपदंडक
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अर्थ, अब सामने आदि और अंत वाले 'अनंत' ही क्यों न हों! मानव-मूल्यों का पालन अनिवार्य है! भाषाएँ पृथक हो सकती हैं, विचार पृथक हो सकते हैं परन्तु मानव-मूल्य सदा एक ही रहते हैं! मै भी इन्ही मानव-मूल्यों के लिए डट कर खड़ा था उस ब्रह्मराक्षस के समक्ष! मै तत्पर था, शर्मा जी खंजर लिए बैठे थे! तभी जैसे ब्रह्मराक्षस ने साध्वी से फिर किसी मूक-भाषा में वार्तालाप किया! और फिर मुझे देखा!

"साधक अब मेरे पास कोई अन्य विकल्प शेष नहीं रहा!" उसने कहा,

"जैसा आप चाहें करें!" मैंने कहा,

"मैं नहीं चाहता था की तुम्हारे जैसा साधक अपने प्राण गँवाए!" उसने कहा,

"मैं नहीं डरता प्राण गंवाने से, मै न्याय और सत्य के मार्ग पर प्रशस्त हूँ!" मैंने कहा,

"मैं तुमसे फिर कहूँगा, तुम चले जाओ यहाँ से!" वो बोला!

"मैं नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,

"इसका फल भुगतना पड़ेगा तुमको!" वो बोला,

"मैं तैयार हूँ!" मैंने कहा,

तभी ब्रह्मराक्षस आगे बढ़ा, साध्वी को पीछे हटाया और फिर और आगे आकर ठहर गया, उसके और मेरे नेत्र मिले, उसके नेत्रों में क्रोध नहीं था, ये मै साफ़ साफ़ पढ़ रहा था,

उसने अब अपने हाथ मेरी ओर किया, और फिर, फिर एक महीन सी नीले-पीले रंग की एक रेखा मेरी ओर बढ़ी और इस से पहले मै कुछ समझता, वो मेरे वक्ष-स्थल से टकराई! उसके टकराते ही, मेरा त्रिशूल मेरे हाथों से छिटक गया, मुझे जड़त्व मार गया, मेरी श्वास का संचार थम गया, श्वास फेंफडों को नसिका के मध्य कही रुक गयी, मेरी देह शिथिल होने लगी, मेरे नेत्र धीरे धीरे बंद होने लगे मै जैसे किसी अँधेरे कुँए में समाने लगा और धम्म से गिर कर धराशायी हो गया! मै चेतनाशून्य हो गया! इसके आगे का वर्णन शर्मा जी ने मुझे बताया था, जो मै यहाँ लिख रहा हूँ!

'जब मै धराशायी हुआ तो शर्मा जी घबराए, वे उठे और मुझे हिला-डुला के देखा, मैं प्राण-विहीन सा लेटा था! उन्होंने मुझे जगाने की बहुत कोशिश की, परन्तु मैंने सजीवता के जैसे सारे लक्षण खो दिए थे! अब वो जैसे बेहाल हो गए, मुझे उलटते पलटते, मेरे चेहरे पर हलके थप्पड़ मारते! और मै, मै यथावत वैसे ही लेटा रहा! उन्होंने मेरा नाम पुकारा, चिल्लाए! तब उन्होंने उस साध्वी को देखा, ब्रह्मराक्षस को देखा जो मेरे दीर्घ-वृत्त में प्रवेश कर अन्दर खड़े थे, शर्मा जी देख सकते थे उनको अब! अब शर्मा जी के आंसू छलके! वो फफक फफक कर रोने लगे! मेरे सीने पर सर रख कर रोने लगे! कुछ क्षण बीते, शर्मा जी के उस स्नेह रुपी दुःख ने जैसे ब्रह्मराक्षस को द्रवित किया! शर्मा जी मेरे सीने पर सर रखे रो रहे थे, उनको किसी अनहोनी के घट जाने का एहसास हो चुका था! तभी उनके कंधे को किसी ने झुक कर पकड़ा और मुझसे हटाया, ये ब्रह्मराक्षस था! उसने शर्मा जी को हटाया वहाँ से और फिर अपना हाथ आगे कर फिर से एक नीली-पीली महीन सी रेखा मुझसे टकराई! टकराते ही मै जैसे पुनर्जीवित हो उठा! मेरे नेत्र खुल गए, श्वास सामान्य हो गयी! मै फ़ौरन उठ बैठा! मेरे सामने वो महाभट्ट खड़ा था! और शर्मा जी ने मुझे अब थाम लिया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उठो साधक!" ब्रह्मराक्षस ने मुझसे कहा!

मै फ़ौरन उठ खड़ा हुआ!

"तुम्हारे विचारों और कर्तव्य-पालन से मै बहुत प्रसन्न हूँ! तुमने उन मनुष्यों के लिए अपना स्वयं का बलिदान चुना जिन्हें तुम जानते नहीं, पहचानते नहीं! मैंने तुम्हे परख लिया साधक! अब वैसा ही होगा जैसा तुम चाहते हो! इस साध्वी को मै नया स्थान दूंगा, अब यहाँ कोई नहीं रहेगा!" उसने कह कर जैसे मेरी विजय पताका फहरा दी!

मैंने साध्वी को देखा, वो भी मंद मंद मुस्कुरा रही थी,मैंने उसको प्रणाम किया! उसने भी मुझे मेरे प्रणाम का उत्तर दिया! अब मैंने ब्रह्मराक्षस को देखा, वो भी मुस्कुरा रहा था, मैंने उसको भी प्रणाम किया! उसने मेरा प्रणाम स्वीकार किया! मुझे हार्दिक खुशी हुई! ब्रह्मराक्षस अब साध्वी के पास पहुंचा, और मुझे देखा और बोला, "साधक, मेरा कभी भी आह्वान करोगे तो मै उपस्थित हो जाऊँगा! ये मेरा वचन है!"

इतना कह वे दोनों झप्प से लोप हो गए! मुझे कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिला! टिमटिमाता दिया भी मंगल हो गया, सुबह के चार अड़तीस हो चले थे, शर्मा जी लिपट गए मुझसे! अंधियारा समाप्त हो चुका था, सवेरा नयी शुरुआत लेकर आया था! वहाँ से प्रेत जा चुके थे अपने नए स्थान के लिए!

आज अमित और उसे समस्त परिजन वहाँ आराम से रह रहे हैं, कोई भी किसी भी प्रकार की समस्या नहीं है वहाँ, व्यापार फलफूल रहा है! घर फल चुका है उनको! वे आते रहते हैं मेरे पास! धन्यवाद कहते कहते मुंह सूख जाता है उनका आज भी!

मनुष्य यदि चाहे तो क्या संभव नहीं, हाँ मार्ग सत्य का होना चाहिए, सत्य की अलख मंद पड़ सकती है परन्तु बुझ नहीं सकती! असत्य की अलख भड़कती अवश्य है, फिर एक बुलबुले की तरह स्वाह हो जाती है!

मैंने आज तक कभी भी उस महाभट्ट ब्रह्मराक्षस का आह्वान नहीं किया! कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी! वो जहां है, साध्वी भी वहीं है! साध्वी ने अपना भाग्य चुना और ब्रह्मराक्षस! वो तो अपने वचन का पालन कर रहा है! करता रहेगा! अनवरत!

------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------

 


   
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