मैंने सुना और जैसे मेरे दिमाग में धमाका हुआ! मेरे होश उस समय फ़ाख्ता हो गए!
उसने अपना हाथ मेरी ओर किया और एक चुटकी सी मारी! और उसी क्षण मेरा ध्यान टूट गया! आँखें खुल गयीं! मुरैय्या के फूलों की खुशबू अभी तक मेरे नथुनों में थी!
मित्रगण! सर्वप्रथम मैं आपको ब्रह्मराक्षस के बारे में बताता हूँ, लोगों में इस शब्द ब्रह्मराक्षस के बारे मेंन बहुत भ्रांतियाँ हैं, पहली भ्रान्ति ये कि जिस ब्राह्मण ने अपने जीवन में नीच कर्म किये हों वो मरने के पश्चात ब्रह्मराक्षस बनता है! क्या ऐसा है? नहीं! जाति, कुल और वर्ण, मात्र इस देह से सम्बंधित हैं, आत्मा से नहीं! अमीर-गरीब, गोरा-काला, रोगी-निरोगी का सम्बन्ध मात्र इस देह से है, देह तो पंचतत्व में विलीन हो जाती है, उसका अंत हो जाता है परन्तु आत्मा अपने दूसरे मार्ग पर प्रशस्त हो जाती है, अतः ये भ्रान्ति है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं! दूसरी भ्रान्ति ये कि ब्रह्मराक्षस भी राक्षस हैं! राक्षस एक पृथक योनि है! उसका ब्रह्मराक्षस ले कोई लेना देना नहीं है! हाँ प्रत्येक ब्रह्मराक्षस ज्ञानवान, परम शक्तिशाली होता है, इसने भिड़ना हर एक कि बसकी बात नहीं! इनको उपदेवता भी कहा जाता है, इसका उदाहरण आप केरल के कोट्टायम में बने इनको समर्पित मंदिरों में देख सकते हैं, वहाँ के एक प्रसिद्द मंदिर में तो मुख्य देवता के दर्शन की अनुमति एक ब्रह्मराक्षस से ही ली जाती है! श्रृंगेरी कर्नाटक में भी ऐसा एक विशाल मंदिर है! भारतीय संस्कृति में ब्रह्मराक्षस का उल्लेख मिलता है, परन्तु इनकी उत्पत्ति, शारीरिक विशेषताएं आदि का नहीं मिलता, ब्रह्मराक्षस वरदान देने में भी समर्थ हैं, इनका वरदान, यदि किसी पर प्रसन्न हो जाएँ तो कभी रिक्त नहीं जाता! हाँ, इनकी एक कमी है जो इनको सबसे पृथक रखती है, जिन्नातों की तरह से ये मानव-स्त्री पर रीझ जाते हैं, उनको प्रेम करते हैं अपनी अर्धांगिनी की तरह, कर्नाटक में मदिकेरी स्थान पर बना ब्रह्मराक्षस का मंदिर इसका उदाहरण है! अब इनकी उत्पत्ति, चौरासी लक्ष योनियों में से ब्रह्मराक्षस एक विशिष्ट योनि है! ये समस्त लोकों में उन्मुक्त विचरण करते हैं! भूलोक पर बरगद का वृक्ष इनका निवास स्थान है, बरगद को अमरत्व का वरदान इन्होने ही दिया है! ये मुकुट नहीं धारण करते, बाकी सब इनका परिवेश यक्ष और गान्धर्व की तरह होता है! चौड़ा ललाट, चौड़ा वक्ष-स्थल, लम्बी चौड़ी देह, बलिष्ठ देह और धवल एवं गौर वर्ण!
अब मुझे ये समझ आ गया था कि ये साध्वी जिसका आह्वान करती है वो ब्रह्मराक्षस ही है! दरअसल उस साध्वी पर वो ब्रह्मराक्षस रीझा हुआ था और उसको सरंक्षण दिए हुए था, अब कोई उसका क्या बिगाड़ सकता था! जब मैंने ये सब वृत्तांत शर्मा जी को बताया तो वो भी अवाक रह गए! अब एक बात निश्चित थी, जहां अमित ने अपनी ये कोठी बनवाई थी वहाँ इसी साध्वी का आवास रहा होगा, या फिर उस ब्रह्मराक्षस का, तो फिर वो बरगद का पेड़ कहाँ गया? उसे तो नहीं मिटना चाहिए था? वो कहाँ है? यदि काट दिया तो भी उसकी निशानी आदि शेष रहनी चाहिए थी, वो कहाँ है, और वो ब्रह्मराक्षस, उसे क्यों पेड़ काटने वाले को पेड़ कैसे काटने दिया? तब साध्वी कहाँ थी, और वो सारे प्रेत? इस विषय में मुझे अमित ही बता सकते थे, अब सुबह ही उनसे बात करना संभव था, चूंकि अब मध्य-रात्रि का समय था! अतः उस समय मै और शर्मा जी अपने अपने पलंग पर जा लेटे! लेटे तो विचार-मंथन के भंवर में पड़ नींद आ गयी!
सुबह हुई, रात्रि का समस्त घटना-क्रम आँखों के सामने घूम गया, वो ब्रह्मराक्षस और वो साध्वी! जैसे प्रत्यक्ष हो गए हों मेरे समक्ष! मैं बिस्तर पर बैठा बैठा अपने चेहरे को दोनों हाथों में लिए सोच में डूबा रहा, अब शर्मा जी उठे, तो मै स्नान करने चला गया, निवृत हुआ और वापिस आया, फिर जा लेटा बिस्तर पर, अब शर्मा जी भी गए और निवृत हो कर आ गए, तब तक अमित जी का नौकर चाय नाश्ता
ले आया था, उसने नमस्कार की तो मैंने मुस्कुरा के नमस्कार का उत्तर दिया! हम चाय नाश्ता करने लगे! तभी शर्मा जी ने एक नमकपारा उठाया, आधा काटा और बोले, "गुरु जी, एक बात समझ नहीं आई?"
"क्या?" मैंने पूछा,
"एक साध्वी और एक ब्रह्मराक्षस?" वे बोले,
"हाँ, यही सोचते सोचते रात कट गयी, अभी तक उत्तर नहीं मिला" मैंने कहा,
"क्या ब्रह्मराक्षस का हस्तांतरण किया जा सकता है?" उन्होंने पूछा,
"असंभव!" मैंने कहा,
"तो इसका अर्थ ये ही हुआ कि वो ब्रह्मराक्षस उस साध्वी से रीझा हुआ है" वे बोले,
"हाँ, ये तो स्पष्ट है" मैंने कहा,
"ये तो विकट समस्या हो गयी" वे बोले,
"सही कहा आपने" मैंने कहा,
तभी अमित आ गए ऊपर, नमस्कार आदि हुई, वो बैठ गए एक कुर्सी पर, अब मैंने प्रश्न पूछा," अमित जी, ये मकान आपने कब खरीदा था?"
"जी कोई तीन महीने पहले" वे बोले,
"ये बना बनाया था?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"किस से खरीदा था?" मैंने पूछा,
"एक जानकार थे, उन्होंने ही खरीदवाया था" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
"जी एक पंडित जी हैं, उन्ही से" वे बोले,
"कहाँ रहते हैं वो पंडित जी?" मैंने पूछा,
"जी अब तो दिल्ली में रहते हैं" वे बोले,
"नंबर है उनका?" मैंने पूछा,
"हाँ है तो सही" वे बोले,
"ठीक है दिन में बात करते हैं उनसे" मैंने कहा,
"जी ठीक है" वे बोले,
हमने अपनी चाय समाप्त की अब!
"कोई कारण पता चला?" उन्होंने पूछा,
"हां, पता तो चला है" मैंने कहा,
"क्या गुरु जी?" उन्होंने उत्सुकता से पूछा,
"बता दूंगा, कोई ठोस प्रमाण मिले" मैंने कहा,
"जी उचित है" वे बोले और उठकर चले गए नीचे!
और फिर हुई दोपहर! हमने दोपहर का भोजन कर लिया था, मै ऊपर के कक्ष में आ गया था, मेरे पीछे, अमित भी आ गए, क्यूंकि मैंने उनको पंडित जी से बात करवाने के लिए कहा था तो उन्होंने नंबर मिला दिया, घंटी गयी तो फ़ोन पंडित जी की श्रीमती ने उठाया, उसने पंडित जी से बात करवाने को कहा तो उन्होंने फ़ोन पंडित जी को दे दिया, अमित जी ने भूमिका बांधी और फ़ोन मुझे थमा दिया, नमस्कार आदान-प्रादान हुई तो मैंने अब काम की बात पूछी, "पंडित जी अमित जी ने आपसे ही ये कोठी खरीदी थी?"
"जी हाँ" वे बोले,
"आप यहाँ कब तक रहे?" मैंने पूछा,
"जी करीब कोई दो महीने" वे बोले,
"बस? ऐसा क्यों?" मैंने पूछा,
अब पूछा तो अटक गए, जवाब नहीं बन पड़ा! अप्रत्याशित प्रश्न था!
"क्योंकि यहाँ पर भुतहा घटनाएं होती थीं! यही न पंडित जी?" मैंने पूछा,
"जी....जी ऐसा ही कुछ था" वे बोले,
"अच्छा, आपने किस से खरीदी थी ये कोठी?" मैंने पूछा,
"जी, वहीं के हैं एक दिलीप जैन, भिवानी में ही रहते हैं,जानकार है हमारे" वे बोले,
"मुझे उनका पता अथवा फ़ोन नंबर देंगे?" मैंने पूछा, "जी अवश्य, मै दोनों ही दे देता हूँ" उन्होंने कहा,
अब मैंने दिलीप जैन का पता और फ़ोन नंबर ले लिया,
"धन्यवाद पंडित जी" मैंने कहा,
"जी कोई बात नहीं" वे बोले,
अब मैंने फ़ोन अमित को पकड़ा दिया, उन्होंने दो-चार बातें कीं और फ़ोन काट दिया!
"दिलीप जैन! क्या आप जानते हैं इनको?" मैंने अमित से पूछा,
"नहीं गुरु जी" वे बोले,
"ठीक है, कोई बात नहीं, आप इनसे बात कर लेना और फिर संध्या समय मिलने का समय ले लेना, इनसे बात करना आवश्यक है" मैंने कहा,
"जी उचित है" वे बोले,
वे उठे और चले गए, कुछ खाने-पीने के लिए पूछा था, भूख थी नहीं, इसलिए मना कर दिया था!
"गुरु जी! पंडित जी भी भाग गए!" वे बोले,
"हाँ! इसी कारण से!" मैंने कहा,
"लोग अपनी बाधा भी दूसरे पर कितनी नफ़ासत से डाल देते हैं!" वे बोले,
"ये तो जग-रीत है! अपना रोग, कलेश, दारिद्रय हटाने के लिए किसी भी मासूम को बलि का बकरा बना लेते हैं!" मैंने कहा,
"अब राज खुलेगा जैन से" वे बोले,
"देखो, कहीं ऐसा न हो जैन साहब भी पंडित जी जैसे बलि का बकरा बने हों!" मैंने कहा,
"हाँ, संभव है" वे बोले,
इसके बाद हम अटकलें लगाते रहे, थोडा विश्राम किया, आँख लग गयी, थोड़ी निंद्रा ले ही ली!
करीब पांच बजे होंगे, अमित जी अन्दर आये, आते ही बोले, "गुरु जी दिलीप जैन से बात हो गयी है, शाम सात बजे बुलाया है उन्होंने"
"अच्छी बात है" मैंने कहा,
तभी उनका नौकर चाय ले आया, साथ में गरमा गरम पनीर-पकौड़े लेकर! चाय का मजा दोगना हो गया!
और फिर बजे सात, हम दोनों नीचे खड़े थे, अमित जी ने अपनी गाड़ी स्टार्ट की तो हम उसमे सवार हुए चल पड़े दिलीप जैन के पास! उनके घर पहुंचे, घर उनका भी आलिशान था, भिवानी में अब काफी तरक्की हो गयी है! अमित ने उनको फ़ोन किया तो उन्होंने अन्दर आ जाने के लिए गार्ड को सूचित कर दिया, हम अन्दर पहुंचे, जैन साहब वहीं बैठे मिले, उम्र करीब सत्तर पचहत्तर वर्ष तो रही ही होगी उनकी!
"आइये साहब आइये!" जैन साहब खड़े होकर बोले,
"धन्यवाद जैन साहब!" मैंने कहा,
"बैठिये" वे बोले,
हम बैठ गए।
अमित ने अब भूमिका बाँधी, सारी बातें बतायीं उनको, जैन साहब के चेहरे और माथे की शिकन एक दूसरे से मिलने को बेताब हो उठीं! अब मैंने ही बात शुरू की उस विशिष्ट विषय में!
"जैन साहब, वहाँ एक बरगद का पुराना पेड़ था, क्या हुआ उसका?" मैंने पूछा, वो चौंके! मुझे कैसे पता उस बरगद के पेड़ के बारे में?
"जी वो पेड़ एक आंधी में गिर गया था" वे बोले,
"गिर गया था या काट डाला था जैन साहब?" मैंने पूछा,
"दरअसल उसकी शाखें टूट गयी थीं, सो ठंठ सा रह गया था, वो फिर काट दिया" वे बोले,
"अच्छा, वहाँ कौन रहता था?" मैंने पूछा,
"वो ज़मीन वैसे तो तीस-पैंतीस सालों तक तो खाली पड़ी थी" वे बोले,
"और उस से पहले?" मैंने पूछा,
"जी उस से पहले जहां तक मुझे याद है, एक पंडित जी रहा करते थे, मेरे पिता जी ने उनको रहने के लिए वो ज़मीन दे दी थी, वो वहाँ अपनी कुटिया बना के रहते थे, मैंने भी देखा है उनको" वे बोले,
"उनकी कोई पुत्री भी थी?" मैंने पूछा,
"जी, जी हाँ" वे बोले,
"गौरा!" मैंने तपाक से कहा!
अब वो घबराए!
तब शर्मा जी ने उनको मेरा परिचय दे दिया!
"जी हाँ, गौरा, मै उस समय कोई पंद्रह सत्रह बरस का रहा होऊंगा" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"आपने वो ज़मीन कब बेकी?" मैंने पूछा,
"जी कोई साल भर पहले एक डीलर को दी थी" वे बोले,
"क्यों बेकी थी?" मैंने पूछा,
"व्यापार में घाटा कुछ ऐसा हुआ कि लाले पड़ गए हमारे खाने के, इसलिए" वे बोले, "ओह!" मैंने दुःख जताया,
"जब तक पिताजी थे, तब तक सब सही रहा, उनके देहांत के बाद कभी नफा कभी नक्सान, नुक्सान बढ़ता गया हमारा" वे बोले,
अब मै सोच में डूबा!
नुकसान क्यों हो रहा था जैन साहब के पिता जी की मृत्यु के बाद? क्या कारण था? रहस्य अभी भी रहस्य ही था! अब कोई चारा शेष नहीं था, कारिन्दा विफल हो गया था, खबीस भी विफल हो जाता ब्रह्मराक्षस के सामने! अजीब समस्या थी और मै इस समस्या में किसी मछली के सामान किसी जाल में फंस गया था, अब कर्ण-पिशाचिनी का ही आह्वान कर हल ढूँढा जा सकता था! और यहाँ आह्वान संभव नहीं था, मुझे वापिस दिल्ली ही जाना था, अतः मैंने यही निश्चय किया, अब हमने विदा ली जैन साहब से, रास्ते में मैंने अमित को अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी, उन्होंने भी हामी भरी, अन्य विकल्प था ही नहीं! हम अमित के घर पहुंचे और फिर शीघ्र ही हमने वहाँ से कूच किया, अब मुझे यहाँ परसों आना था, रास्ते में शर्मा जी ने पूछा," गुरु जी? अब क्या विचार है?"
"कर्ण-पिशाचिनी" मैंने कहा,
"ओह!" उनके मुंह से निकला,
"अन्य कोई विकल्प नहीं है शेष" मैंने कहा,
"जैसा उचित समझें आप" वे बोले,
और फिर करीब तीन घंटे में हम वापिस आ गए अपने स्थान, खाना रास्ते में ही खा लिया था, अब केवल विश्राम करना था, जाते ही बिस्तर पे पसर गए!
सुबह उठे तो नित्य-कर्मों से फारिग हुए, तो चाय आ गयी! चाय पी हमने, तभी शर्मा जी बोले, "ठीक है गुरु जी, अब मै चलूँगा, शाम को आता हूँ, सामग्री लेकर"
"ठीक है, आ जाइये" मैंने कहा,
उन्होंने विदाई ली अब!
और मै लगा रात्रि समय की तैयारी में, सारा सामान जांचा और रख लिया बाहर निकाल कर, संजो के रख दिया! और कक्ष को बाहर से ताला लगा दिया!
किसी तरह से दिन काटा, शर्मा जी आठ बजे आये, सामग्री और मदिरा ले आये थे, हमने सहायक को बुलाया और बर्तन, गिलास मंगवा लिए और हो गए शुरू!
"गुरु जी, आज पता चल जायेगा, फिर कल निकलना है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, कल निकलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"बेचारा अमित फंस गया!" वे बोले,
"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,
"क्या कहते हैं, मान जाएगा वो ब्रह्मराक्षस?" उन्होंने पूछा,
"मनाना पड़ेगा!" मैंने कहा,
"हम्म" वे बोले और एक एक गिलास और डाल दिया!
वो भी हमने ख़तम किया! खाते पीते बज गए दस, अब मै उठा और स्नान करने चला गया, तदोपरान्त तंत्र-श्रृंगार किया और फिर अलख उठायी, भोग सामने पांच थालों में सजा दिया, भूमि पर तंत्र-चिन्ह अंकित किये, मैंने त्रिशूल लिया और अलख के दायें गाड़ दिया, अब क्रिया आरंभ! मैंने महा-मंत्रोच्चार किया और फिर करीब एक घंटे के बाद कर्ण-पिशाचिनी के धुंघरू खडके! वो हाजिर हुई! और फिर लोप! अब मै उसकी सत्ता में था! उसके क्षेत्र में! अब मैंने उस से अपने प्रश्न पूछने आरम्भ किये, एक एक प्रश्न का उत्तर मुझे मिलता चला गया! अब मैंने उसको नमन किया, भोग अर्पित किया और अब वो पूर्ण लोप हुई! अब मै खड़ा हुआ वहाँ से, स्नान करने गया और फिर वापिस अपने कक्ष में आ गया, शर्मा जी की आँख लग गयी थी, मैंने भी उन्हें नहीं जगाया, मै भी रजाई में घुस कर सो गया!
सुबह हुई, छह बजे थे, शर्मा जी निवृत होने गए थे, वे आये तो मैं चला गया, आया वापिस तो शर्मा जी ने पूछा, "कुछ पता चला गुरु जी?"
"सब कुछ पता चल गया शर्मा जी!" मैंने कहा,
"वाह! मतलब कि समस्या का हल निकल गया!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"ये बढ़िया हुआ!" वे बोले,
"बढ़िया तो हुआ, लेकिन एक समस्या है" मैंने कहा,
"क्या समस्या?" उन्होंने पूछा, हैरत से!
"यदि वो मानता है तो, तभी संभव है" मैंने कहा,
"ओह, और वो न माना तो?" उन्होंने पूछा,
"तब समस्या है" मैंने कहा,
"वहीं के वहीँ आ गए फिर से!" वे बोले,
"देखते हैं" मैंने कहा,
"क्या पता चला वैसे, कोई सुझाव?" उन्होंने पूछा,
"घर के मध्य में है एक जगह, जहाँ इसका मुख्य केंद्र है!" मैंने कहा,
"मध्य! ओह! अब समझा, वही जगह जहां तक वो पानी के पद-चिन्ह ख़तम हुए थे!" वे बोले!
"अरे हाँ! वही जगह! वही है जगह!" मैंने खुशी से कहा,
"ठीक है, आज चलते हैं वहाँ!"
"ठीक है, मै आवश्यक सामान डालता हूँ अपने बैग में!" मैंने कहा, वहाँ से उठा और सामान बाँधने चला गया!
नाश्ता आ गया था, मैंने नाश्ता किया और फिर तैय्यारी वहाँ से निकलने की, हम नाश्ता कर निकल पड़े वहाँ से! भिवानी की ओर! अमित को इत्तला कर दी थी हमने,वो हमको घर पर ही मिलने वाले थे!
और फिर तीन घंटे बाद हम उनके घर के सामने खड़े थे!
अमित बाहर ही हमारा इंतजार कर रहे थे, नमस्कार आदि हुई तो वो हमे अन्दर ले गए, हम अन्दर चले गए, हमारे पिछली बार आने से से अब तक कोई भी बुरी घटना नहीं घटी थी, अमित ने हमको अन्दर बिठाया, पानी आया, हमने पानी पिया, थोड़ी देर बैठे वहाँ फिर ऊपर के कक्ष के लिए मैंने उनसे पूछा तो वे हमे ऊपर कक्ष में ले गए, हाँ जाते जाते अपने नौकर अजय को चाय के लिए कह दिया था, हम ऊपर आये और बैठ गए, मैंने अपना बैग वहाँ एक मेज़ पर रख दिया, अमित भी वहाँ बैठ गए, अमित ने पूछा, "गुरु जी, कोई कारण पता चला? कोई हमारी गलती तो नहीं?"
"नहीं आपकी कोई गलती नहीं" मैंने कहा,
"तो क्या कारण है?" उन्होंने पूछा,
"इस स्थान पर एक साध्वी का वास है" मैंने बताया,
"साध्वी?" उन्होंने घबरा के पूछा,
"हाँ, साध्वी" मैंने कहा,
"ओह! अब क्या होगा?" वो ऐसा कह चिंता में पड़े,
"जो होगा उचित ही होगा अमित जी" मैंने कहा,
"घर में तो वैसे ही भय व्याप्त है,ये पता चलेगा तो ये घर औने-पौने दाम में ठिकाने लगाना पड़ेगा गुरु जी, अब तो आपका ही सहारा है" वे हाथ जोड़ के बोले,
"घबराइये नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा" मैंने कहा, "उद्धार कर दीजिये गुरु जी हम सबका, बहुत जतन करके ये घर खरीदा है हम दोनों भाइयों ने" वे बोले,
"चिंता न कीजिये" मैंने कहा,
तभी चाय आ गयी, अमित ने एक एक कप हमको पकड़ाया, हमने ले लिए, और चाय पीने लगे!
"वैसे गुरु जी, वो साध्वी चाहती क्या है?" उन्होंने पूछा,
"अभी तक तो कुछ नहीं कहा उसने" मैंने उत्तर दिया,
"ओह!" उनके मुंह से निकला,
"वो अकेली ही है?" उन्होंने पूछा,
मै डराना नहीं चाहता था उन्हें, इसलिए मैंने हाँ कह दिया!
"ये हमको किसी ने नहीं बताया, किसी बाबा ने बताया था कि चौदह प्रेत हैं यहाँ" वे बोले,
"बताया तो सही था, लेकिन प्रेत आते जाते रहते हैं" मैंने कहा,
"हंह?" घबरा के बोले वो!
"हाँ, हैं यहाँ" मैंने बताया,
"बचा लीजिये गुरु जी, हम बर्बाद हो जायेंगे" उन्होंने मिमियानी आवाज़ में कहा! "घबराइये नहीं अमित जी, मै समाधान करने ही आया हूँ यहाँ" मैंने कहा,
चाय ख़तम हुई तो कम मेज़ पर रखे! "आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुरु जी!" वे बोले उन्होंने अपना सर मेरे घुटनों पर रख दिया, मैंने उठाया उनको!
"कोई बात नहीं, हाथ को हाथ है अमित जी" मैंने कहा,
"अमित जी, मुझे कुछ सामान चाहिए आज, मै चाहता हूँ कि आपका परिवार आज की रात आपके बड़े भाई के परिवार के साथ दूसरी मंजिल पर रहे, और आप भी" मैंने कहा,
"जी, अवश्य, आप मुझे सामान बताइये, मै ले आता हूँ" वे बोले,
"शर्मा जी जायेंगे आपके साथ, ये जानते हैं, बता देंगे" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
"चलिए अमित जी" शर्मा जी ने कहा,
"जी चलिए" कहा अमित ने और दोनों चले गए वहाँ से सामान लेने के लिए!
वे गए तो मैंने अपना बैग खोल अपना सामान निकाला, आज इसकी आवश्यकता थी, यदि ब्रह्मराक्षस भिड़ता ही है तो भिड़ना ही पड़ेगा! देखते हैं क्या होगा! कोई उचित मार्ग अवश्य ही निकलेगा, ऐसा मेरा मानना था! मैंने कुछ पांडुलिपियाँ निकालीं, इनमे ब्रह्मराक्षस के विषय में सटीक और अनुभूत जानकारी उपलब्ध थी, मैंने इसका गूढ अध्ययन किया और कुछ विशेष तथ्य अपना मस्तिष्क के पुस्तकालय में संजो के रख लिए! आधा घंटा बीता, शर्मा जी और अमित अ गए आवश्यक सामान लेकर, मैंने वो सामान निकाला और कुछ फ्रिज में रखवा दिया, इसका उपयोग रात्रि में होना था! अब अमित नीचे चले गए!
"गुरु जी, रास्ते में अमित ने बताया कि जब उन्होंने ये कोठी ली थी तो कई स्थानीय लोग यहाँ नहीं आये थे, गृह-प्रवेश पर उनको न्यौता गया था जबकि" वे बोले,
"नहीं आये होंगे, वे अवश्य ही जानते होंगे इस विषय में!" मैंने कहा,
"ये संभव है" वे बोले,
"लोग बताते नहीं, बल्कि तमाशा देखते हैं!" मैंने कहा,
"ये बात तो सही कही आपने, तमाशबीन होते हैं लोग!" वे बोले,
"खैर, शर्मा जी, आज मै आपको एक अस्थि-माल पहनाऊंगा, आप अपने बाएं हाथ में खंजर पकड़ के रखना, किसी भी स्थिति में वो खंजर आपके हाथ से गिरना नहीं चाहिए" मैंने कहा,
"जी अवश्य, ऐसा ही होगा!" वे बोले,
"मेरे पीछे ही रहना आप" मैंने कहा,
"जी" वे बोले,
उसके बाद हम लेट गए, थोड़ी देर आराम करने के लिए, सर्दी की खुमारी थी, सो आँख लग गयी!
और हुई रात! आकाश में हलके फुल्के बादल छाए हुए थे, रात की स्याह चादर में तारे किसी गोटे की तरह से झिलमिला रहे थे, चाँद भी सारा नज़ारा देखने के लिए जैसे स्थिर हो गया था! आज की रात्रि द्वन्द की रात्रि थी, एक अदने मनुष्य और एक महाभीषण ब्रह्मराक्षस के बीच! मै तत्पर था, मैंने अब अपने तंत्राभूषण स्वयं भी धारण किये और शर्मा जी को भी धारण । करवाए, उनको अभिमंत्रित खंजर दिया, फिर एवंग, ताम, ऋतुनि, भद्रिका, ज्वाक्ष विद्याएँ जागृत की और उनसे अपना और शर्मा जी का शरीर पोषित किया! प्राण और देह रक्षण मंत्र से पोषित किया और मै कुछ देर ध्यान में बैठा, गुरु आशीर्वाद लिया और अघोर-पुरुष का आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु अनुनय किया! और फिर मै उठ खड़ा हुआ, चिता-भस्म लपेटी और चल पड़ा घर के मध्य भाग में, सामान तैयार था, अमित का परिवार दूसरी मंजिल पर उनके बड़े भाई के पास जा पहुंचा था!
अब मैंने वहाँ एक थाल रखा और उसमे सारा सामान सजाया! और अब एक बड़ा सा पीतल का बना दीपक प्रज्ज्वलित किया! घर की बत्तियां बुझा दी गयी थीं, बस वो दीया और घर में बिजली के बोर्ड में लगे विद्युत्-संकेतक ही जल रहे थे! अब मैंने आह्वान किया! आह्वान भुजन्गिका का! ये साधक की रक्षा करती है सदैव! वो प्रकट हुई और फिर लोप! भुजन्गिका स्वयं नहीं लड़ती बल्कि साधक को सुरक्षित रखा करती है! जब सामने वाला शत्रु पारलौकिक और अतुलनीय बल एवं क्षमता रखता हो तो इसको प्रकट करना ही पड़ता है! ऐसा ही मैंने किया! अघोर-मंत्र पढ़ा और साथ में त्रिशूल रख लिया, हाँ चिमटा नहीं लिया! इसका कारण सामने वाला शत्रु मनुष्य नहीं था! अब हुई प्रत्यक्ष-सिद्धि की परख! मैंने मांस के टुकड़े उठाये और अपने चारों ओर रख किये! फिर मदिरा गिलास में परोस अलख कहते हुए पी गया! ऍम मैंने मंत्र पढ़े! कलुष-मंत्र नहीं पढ़ा, कोई आवश्यकता नहीं थी उसकी, आज उनको प्रत्यक्ष करना ही था मैंने! करीब दस मिनट बीते! दो आदमी प्रकट हुए, लंगोटधारी, हाथों में छड़ी लिए, जनेउ धारण किये! शर्मा जी ने पकड़ बढ़ा दी खंजर पर! मैंने बता दिया था कि कोई हाज़िर हुआ है, दो आदमी, हालांकि वो देख नहीं रहे थे, मैंने इसका भी हल निकाला, एक मांस का टुकड़ा उठाया, आधा खाया और फिर आधे पर थूक कर ज्वाक्ष-मंत्र पढ़ कर फेंक दिया उनकी तरफ! अब वो उस घेरे में फंस गए! और दिखना आरम्भ हुए!
"तू गया नहीं अभी तक?" वे दोनों एक साथ छड़ी उठा के बोले!
"नहीं गया!" मैंने कहा,
"क्या चाहता है?" वे दोनों फिर से एक साथ बोले!
"तुम लोग जाओ यहाँ से!" मैंने कहा,
"क्यों जाएँ? हम यहीं रहते हैं। उन्होंने एक साथ कहा,
"अब नहीं रहोगे!" मैंने कहा और प्रेत-पाश फेंका,ये एक तांत्रिक-विधि होती है! एक नीम्बू में मंत्र पढ़कर एक कील लम्बी सी आरपार कर दी जाती है! प्रेत-स्थान-कीलन हो जाता है, प्रेत उसमे जब तक आप चाहो जकड़े रहेंगे!
"अब कहाँ जाओगे! तुम्हे अपने साथ ले जाऊंगा लंगोट-धारियों!" मैंने कहा,
अब वे हतप्रभ!
ये मैंने जानबूझकर किया था, ताकि कोई भड़के और मेरे समक्ष आये!
"बंध गए तुम!" मैंने कहा, और ठहाका लगाया!
अपनी मान्दलिया खोली और उसमे उठा के पटक दिए! ये उठाना मंत्र से होता है, हाथों से नहीं! मान्दलिया बंद कर दी मैंने अब! और थाल में रख दी!
दो पकड़ लिए गए! अलख का नाद किया मैंने! और एक गिलास मदिरा डाली गिलास में और गले से नीचे उतार दी!
मैंने फिर से प्रत्यक्ष-सिद्धि का सहारा लिया! अबकी बार चार प्रेत प्रकट हुए! इनको मैंने वहाँ नहीं देखा था, वेशभूषा से कर्मकांडी प्रतीत होते थे! माथे पर चन्दन और गले में मालाएं, सात्विक मालाएं!
"क्यों तंग कर रहा है हमको?" वे चिल्लाए!
"मैं नहीं कर रहा हूँ तंग! तुम तंग कर रहे हो यहाँ के परिवार को!" मैंने गुस्से से कहा,
"चला जा, नहीं तो पाषाण बना दूंगा एक बोला उनमे से!
"पाषाण!" मै हंसा! हंसा एक उन्मत्त औघड़ की तरह!
"जा, चला जा यहाँ से, अपवित्र न कर ये स्थान तू" वो बोला,
"नही, अब मै यहाँ से तब जाऊँगा, या तो मै मरूँगा या पाषाण मैंने कहा,
"नहीं मानेगा?' उसने धमकाया!
"नहीं, कभी नहीं" मैंने कहा,
अब उसने अपना हाथ अंजुल की तरह बनाया! और फिर कुछ मंत्र पढ़कर मेरी तरह उछाल दिया! जल के छींटे चले मेरी तरह और मुझसे टकराने से पहले ऐसे चीखे जैसे किसी गरम बर्तन में जल की बूंदें चीखती हैं! ये एवंग-विद्या का चमत्कार था!
अब मैंने अट्टहास किया! भयानक अट्टहास!
ये देख पाषाण बनाने वाला रह गया सन्न!
"चलो भागो यहाँ से? औघड़ से भिड़ने आये हो?" मैंने कहा,
वे झप्प से लोप!
उनको छोड़ दिया! छोड़ दिया खबर के लिए!
मदिरा परोसी और फिर से हलक में उतार ली! औघड़ हुआ अब मुस्तैद! तंत्र-चक्षु खुल गए! उन्माद चढ़ गया! शक्ति-उन्माद! ये आवश्यक है! जैसे अग्नि में ईंधन!
मैंने फिर से अट्टहास किया!
एक गिलास और बनाया और शर्मा जी को दे दिया!
"अलख!" मै चिल्लाया और शर्मा जी ने भी अलख बोलकर मदिरा डकोस ली!
वे चले गए! और उनके जाते ही दो और प्रकट हुए! ये मुझे ताक़तवर से लगे, उठापटक करने वाले! मैंने कलेजी का एक टुकड़ा उठाया और चबा लिया, फिर अपने हाथ में लिया और मंत्र पढ़कर फिर से खा लिया, निगल लिया!
"सुन औघड़?' उनमे से एक बोला,
"बोल?" मैंने नशे की झम में कहा!
"यहाँ से निकल जा, अंतिम चेतावनी है ये" उसने कहा,
"तेरी क्या औक़ात?" मैंने कहा और खड़ा हआ, शर्मा जी भी खड़े हो गए!
"नहीं मानेगा?" वो चिल्लाया,
"क्या करेगा? हैं? क्या करेगा तू?" मैंने कहा,
"तेरी गरदन काट दूंगा, धड़ के छह टुकड़े कर दूंगा" वो बोला,
"मैंने अट्टहास लगाया!
"तेरे से पहले जो आया था पाषाण बनाने वाला, उसने कुछ नहीं बताया तुझे?" मैंने कहा,
"चुप! भाग यहाँ से?" उसने मुझे धमकाया!
"ये भभकी जा के अपनी साध्वी को दिखाना, बोलना औघड़ अटक गया है, मर के ही जाएगा यहाँ से!" मैंने कहा,
"तेरी इतनी हिम्मत?" वो बोला,
"हाँ! मै औघड़ हूँ औघड़!" मैंने कहा और मै बैठ गया! शर्मा जी भी बैठ गए, खंजर थामे!
"अभी दिखाता हूँ मै" उसने कहा और आगे बढ़ा! मैंने झट से अपना त्रिशूल उठाया और आगे कर दिया, वो वहीं रुक गया!
"बढ़ आगे हिम्मत है तो!" मैंने उकसाया उसको! मुंह मसोस कर वो पीछे हटा!
"चल तू भी जा इस मान्दलिया में!" मैंने उसको मान्दलिया दिखाते हुए कहा!
"भद्राणि....................फट!" कहते हुए मैंने नीम्बू में कील घुसेड दी! खिंचा चला आया, सीधा मान्दलिया में!
अब रह गया दूसरा!
मैंने फिर से ठहाका लगाया! और उसे मान्दलिया दिखाई! और फिर हंसा! अब वो लोप हुआ! उसके लोप होते ही मैंने फिर से एक गिलास मदिराभोग किया! कुछ क्षणों तक कुछ नहीं हुआ! और उसके बाद!
उसके बाद पानी की बौछारें पड़ी मुझ पर! मैंने आसपास देखा, कोई नहीं था!
"शर्मा जी, खड़े हो जाओ" मैंने कहा,
वे खड़े हुए!
"खंजर संभाल के रखना!" मैंने कहा,
और तब! तब प्रकट हुई वहाँ वो साध्वी! खुले बाल! भयानक मुख-मुद्रा बनाए हुए! आँखें ज्वाला की तरह से दहकती हुईं! "तू अब तक नहीं गया?" उसने क्रोध से पूछा,
"हाँ, नहीं गया!" मैंने कहा,
"जीवन से मोह-भंग हुआ तेरा?' उसने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"तूने मेरा स्थान अपवित्र किया?" उसने पूछा,
"हाँ, किया!" मैंने कहा,
"तू जानता है कहाँ है?" उसने पूछा,
"हाँ, तेरे स्थान पर!" मैंने कहा,
"हाँ! अब मरके ही जाएगा यहाँ से!" वो बोली,
"साध्वी, तेरे जैसी साध्वी बहुत आई और गयीं! तू मुझे नहीं पहचान पायी!" मैंने कहा,
"तू मुझे नहीं जानता! जिन सिद्धियों के बल पर तूने यहाँ कोहराम मचाया है, आज वो तेरे पास शेष नहीं रहेंगी!" उसने कहा,
मैंने अट्टहास लगाया!
"साध्वी! मैंने बहुत प्रतीक्षा की है कि कोई मेरे समक्ष ये वाणी तो बोले! मुझे तेरी चुनौती स्वीकार है!" मैंने कहा,
"तुझे बहुत समझाया! तू बाज नहीं आया, आज तेरा घमंड चकनाचूर हो जाएगा!" उसने कहा! "घमंड? कैसा घमंड?" मैंने पूछा,
"शक्ति-घमंड, और तू ये नहीं जानता कि मैं क्या कर सकती हूँ!" उसने झुझला के कहा!
"सुन साध्वी, तू अभी तक यहाँ डेरा जमाये बैठी है, आगे की यात्रा क्यूँ नहीं करती?" मैंने कहा,
"चुप हो जा!" वो बोली!
"आज हो जायेगा फैसला, तू रहती है या मै!" मैंने कहा,
उसने मुझे घूरा! ऐसा घूरा कि उसकी द्रष्टि जो मेरी छाती के आरपार हो जाये!
"जो करना है वो कर साध्वी!" मैंने कहा,
अब उसे आया महाक्रोध! उसने तभी चौकड़ी जमाई और करने लगी आह्वान! और अब मै सचेत!
उसने चौकड़ी जमाई! बैठ गयी पद्मासन में! आँखें बंद की उसने और फिर मंत्र जाप करने लगी! सच कहता हूँ, एक पल के लिए मैंने भी स्वयं को अशक्त सा पाया उस परिस्थिति में! मैंने तुरंत गुरु नमन किया और अघोर-पुरुष का ध्यान किया, वैचारिक बल मिला मुझे! और तभी! तभी साध्वी पर फूलों के पटलों की बरसात सी होने लगी! उनकी सुगंध से पूरा कमरा और आँगन महक उठा! आज कोई वायु-प्रवाह नहीं उठा था, रौशनी का अवतरण हुआ, साध्वी, जो मुझ से दस फीट दूर थी उठ खड़ी हुई, और अब मै भी उठा, शर्मा जी भी उठे! तेज चमकदार श्यामनील रौशनी फैली वहाँ, हमारे बदन नहा गए उस दिव्य रौशनी से! एक श्याम सघन केश वाला एक दिव्य-पुरुष प्रकट हुआ! श्वेत वस्त्र धारण किये, हाथ, वक्ष, भुजाओं, कंठ और कमर पर स्वर्णाभूषण धारण किये! साध्वी भाग कर लिपट गयी उस से! उसने उसके वक्ष में अपना चेहरा धंसा दिया! दिए की टिमटिमाती लौ उस दिव्य-पुरुष की ओर झूल कर लपलपाने लगी, मैंने कनखियों से उस लौ को देखा! मान्दलिया खुल गयी, लोपाव्स्था में उसमे बंद प्रेत भाग छूटे! साध्वी का चेहरा उस ब्रह्मराक्षस ने अपने हाथ से उठाया और एक नज़र भर कर मुझे देखा! वो क्रोधित है या नहीं, मुझे पता न चल सका! साध्वी ने अपना चेहरा उठाया और उस से अपने नेत्र मिलाये, नेत्रों की मूक-भाषा में साध्वी ने सब कल्प कह सुनाया उसे! ब्रह्मराक्षस की भृकुटियाँ तन गयीं! उस समय मुझे आभास हुआ कि जैसे मैंने पिटारे में
सोये हुए किसी भयानक विषधर को लात मार के जगा दिया हो! और अब उसका दुष्परिणाम मुझे भुगतना हो! जिसके लिए मै किसी भी प्रकार से तैयार नहीं था!
ब्रह्मराक्षस से साध्वी अलग हुई, उसने मुझे देखा, मै सिहर सा गया, असत्य नहीं बोलूँगा!
"तू अभी तक गया नहीं यहाँ से?" उसने दहाड़ कर पूछा, एक एक शब्द ने जैसे वज्रपात किया
"मै क्यों जाऊँगा यहाँ से?" मैंने बड़ी हिम्मत करके उत्तर दिया!
"हम्म्म!" वो बोला!
कुछ पल शांति रही!
"क्या चाहता है?" उसने पूछा,
बड़ा ही अप्रत्याशित सा प्रश्न था, वैसे मै इस प्रश्न से दुविधा में पड़ गया!
"यही कि ये साध्वी और इसके साथी इस स्थान से जाएँ!" मैंने कहा,
उसने साध्वी को देखा!
"क्यों?" उसने पूछा,
"ये तो आप भी जानते हैं कि क्यों! साध्वी की आय पूर्ण हुई, आपने ही इसको रोक कर रखा है!" मैंने कहा,
वो हंसा! फिर मंद मुस्कान!
"ये तो यहीं रहेंगे,ये इन्ही का स्थान जो है!" उसने मंद लहजे में कहा!
"क्षमा कीजियेगा, ये अब इनका स्थान नहीं है, अब यहाँ मानव रहते हैं, ये उनका स्थान है" मैंने
कहा,
फिर शान्ति हुई, और मैंने उसके प्रश्न की प्रतीक्षा की!
"मै चाहूँ तो उन सभी मानवों को हटा सकता हूँ" वो बोला,
"अवश्य ही हटा सकते हो आप! परन्तु ये नीति विरुद्ध अवं अत्याचार होगा!" मैंने कहा,
"कैसे?" उसने पूछा,
"यही कि एक महाभट्ट ब्रह्मराक्षस ने अबोध मानवों की हत्या की!" मैंने कहा,
अब वो सोच में उलझा! अब मुझे पता चला कि वो क्रोधावेश में नहीं है! ये राहत की बात थी मेरे लिए उस समय!
"परन्तु ये वर्षों से यहीं हैं, यहीं रहेंगे" वो बोला,
"ये कैसे संभव है? आप स्वयं ही बताएं?" मैंने उसका प्रश्न उसी पर डाल दिया!
"ये यहीं रहेंगे, ये मेरा निर्णय है" उसने कहा,
"नहीं ये नहीं रहेंगे यहाँ" मैंने कहा,
"कौन विरोध करेगा?" उसने कातील मुस्कान भरते हुए कहा,
"मै! मै करूँगा विरोध!" मैंने कहा,
वो अब हंसा और साध्वी भी संग हंसी!
अब मैंने अपना त्रिशूल अपने वक्ष पर लगाया और फिर माथे पर! स्पष्ट था वो नहीं मानने वाला था!
ब्रह्मराक्षस ने मुझे घूरा, और फिर तभी मैंने उस कमरे में कुछ भारी भरकम गिरने की आवाज़
सुनी! फिर एक और, फिर एक और! आवाजें आती रहीं! मैंने अपने दायें देखा, भयानक भुजंग! चितकबरे भुजंग! बाएं देखा तो भुजंग! जीभ लपलपाते हुए भुजंग! मुझे अपनी फुफकार से डरा रहे थे! अब मैंने माया-नाशिनी विद्या जागृत की और फिर भूमि पर थूक दिया! सारे भुजंग लोप हो गए! ये देख साध्वी और सट गयी ब्रह्मराक्षस से! ब्रह्मराक्षस अनवरत खड़ा रहा, भावशून्य! और मै! मै तत्पर था! खड़ा था अपना त्रिशूल लिए!
"अभी भी अवसर है, चला जा!" वो बोला,
"नहीं, नहीं जाऊँगा मै!" मैंने कहा,
"मृत्यु से भय नहीं लगता?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
हंसा वो भयानक रूप से! किसी राक्षस का अट्टहास!
"अबोध है तू मानव!" उसने कहा,
"आप तो सक्षम हैं! आप स्वयं सोचिये" मैंने कहा,
"मैंने अपना निर्णय सुना दिया है" वो बोला,
"ये निर्णय मुझे मान्य नहीं!" मैंने कहा,
फिर कुछ पल शान्ति!
उस शान्ति में भी कोलाहल मौजूद था, ना जाने आगे क्या हो? क्या वो अपने निर्णय पे अडिग ही ना रहे? मै असमंजस की स्थिति में था! ब्रह्मराक्षस को कोई असमंजस नहीं था, मै तो मात्र एक कंकड़ बराबर था उसके मार्ग में! और फिर कंकड़ की क्या बिसात?
"तो क्या मान्य है तुझे?" उसने गरज कर पूछा,
"ये सब जाएँ यहाँ से, अभी इसी समय" मैंने कहा,
वो हंसा! मंद मंद मुस्काया!
"ये सब यहीं रहेंगे" वो बोला,