वर्ष २००८ भिवानी हर...
 
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वर्ष २००८ भिवानी हरियाणा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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सर्दियों के दिन थे, दिसम्बर का महिना चल रहा था, आखिरी दूसरा सप्ताह था वो, सर्दी ने ज़ोर पकड़ना आरम्भ कर दिया था! सर्दी का प्रभाव सभी पर था, कीट-पतंगे अपनी देह बचा रहे थे, पशु भी सर्दी से सिहर रहे थे, कंपकंपाते श्वान कहीं किसी अलाव के पास आके शरण लेते थे! उस रात मै भी कुछ सहायकों द्वारा जलाए हुए अलाव के पास उकडू बैठा था, ताप का आनंद ले रहा था! मेरे पास ऐसे ही वहाँ के स्थानीय श्वान बैठे थे, मै हाथ गरम करता और उन श्वानों के कान, पंजे और छाती गरम कर देता! वे अपनी पूंछ हिला कर धन्यवाद ज़ाहिर करते! सर्दी तो उन्हें भी लगती है, भले ही उनके शरीर का तापमान मनुष्य से कहीं अधिक हो! तभी एक सहायक जग में चाय ले आया, अब सर्दी में गरम गरम चाय मिल जाये तो समझो अमृत मिला! मैंने उस से स्टील का वो गिलास लिया, उसने चाय डाली और मैंने फिर अपनी उंगलियाँ गरम की उस से! राहत मिली! लगा कि जैसे बर्फीले हाथों को गुनगुने पानी में डाल कर उँगलियों के पोरुओं में जमे खून को संचार मिला! सहायक हंसी-ठिठोली कर रहे थे! मैंने धीरे धीरे करके चाय पीना आरंभ किया!

रात के ग्यारह बज चुके थे, उस दिन कोई क्रिया भी नहीं थी, अतः अलाव से उठा मै और अपने कक्ष में चला गया, लेटा, रजाई में कैद हुआ और नींद आने की प्रतीक्षा में भूमिका बाँधने लगा! और ना जाने कब नींद आ गयी! सो गया मै!

सुबह जब आँख खुली तो कोई छह बजे थे, खिड़की से बाहर झाँका तो कोहरे की चादर पसरी पड़ी थी! मै बाहर आया, कोहरे की गंध नथुनों में बस गयी! सूर्यदेव भी कहीं रात्रि के चौथे प्रहर में अपने शयन-स्थल में पाँव पसारे सो रहे थे! अभी उनके जागने की कल्पना करना बेमायनी ही था!

अँधेरा अभी भी पसरा था! हंस रहा हो जैसे उसको स्वयं अपस्मार्ग ने भेजा हो! तैनात किया हो! सहायकों के कमरों से प्रकाश झलक रहा था, उठ गए थे वे भी, मै नित्य-कर्मों से निवृत होने गया, स्नान किया, ठन्डे पानी ने देह को जैसे काठ मार दी हो! अकड़ गया शरीर! भागा वापिस अपने कक्ष में! वस्त्र धारण किये और सीधा रजाई में जा कूदा! थोड़ी गरमाहट आई, चैन पड़ा! तभी मेरा फ़ोन बजा, मैंने फ़ोन उठाया, ये शर्मा जी का फ़ोन था, प्रणाम-नमस्कार हुई तो उन्होंने बताया कि रात को उनके एक जानकार अमित का फ़ोन आया था, उनके घर में बड़ी विशित्र घटनाएं हो रही हैं, अमित को उन्होंने दिल्ली बुला लिया था, अमित ने भिवानी में नया मकान खरीदा था कोई पद्रह दिन पहले, कोठी था वो मकान, काफी लम्बा-चौड़ा, और आज दो बजे अमित आ रहे हैं शर्मा जी के पास और वो फिर यहाँ ले आयेंगे उनको, उन्होंने सूचित करने के लिए फ़ोन किया था, मैंने हामी भर दी! फ़ोन काटा और लेट गया, इतने में एक सहायक चाय ले आया, मैंने झट से चाय का गिलास थामा और हाथ गरम किये!

और फिर बजे दो! शर्मा जी उस अमित के साथ करीब ढाई बजे आये, नमस्कार आदि मैंने उनको बिठाया, शर्मा जी ने परिचित करवाया हम दोनों को!

"कहिये अमित जी, क्या समस्या है?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, मैंने और मेरे बड़े भी ने एक कोठी खरीदी है भिवानी में, मेरे बड़े भाई के परिवार में उनकी पत्नी और दो लडकियां और एक लड़का है, मेरे परिवार में मेरी पत्नी और मेरी एक बेटी और एक बेटा है, और मेरे पिताजी हैं, पिताजी फ़ौज से रिटायर्ड हैं" वे बोले,

"अच्छा" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हमे यहाँ आये हुए कोई पद्रह-सत्रह दिन ही हुए हैं, लेकिन घर में अजीब अजीब सी घटनाएँ हो रही हैं,पहले तो हमने वहम मान कर बात आई गयी कर दी, परन्तु अब निश्चित हैं कि वहाँ अवश्य ही कोई समस्या है" वे बोले,

"कैसी घटनाएं?' मैंने पूछा,

"मेरे बड़े भाई नरेश की बड़ी बेटी है अक्षिता, वो एक रात सोयी हुई थी, करीब रात दो बजे, सोते सोते उसे लगा कि उसके चेहरे पर पानी की बूंदें गिर रही हैं, गहरी नींद थी, उसने हाथ लगाया चेहरे पर तो वाकई वहाँ बूंदें थीं! उसने ऊपर छत को देखा तो छत से पानी की बूंदों का रिसाव हो रहा था, अब तक तकिया भी गिला हो चला था, उसने चेहरा पोंछा और वो बाहर आई, उसने अपनी मम्मी को जगाया, सब कुछ बताया, नरेश भी जाग गए, सारी बातें सुनीं, वे फिर कमरे में पहुंचे, छत को देखा तो कोई रिसाव नहीं! अक्षिता को जैसे यकीन ही नहीं हुआ! उसने तकिया उठाय, लेकिन तकिया भी सूखा था! उसने फिर तौलिया उठाया वो भी सूखा! बड़े भाई ने कोई सपना आया होगा कह कर बात को ख़तम कर दिया, अब अक्षिता भी क्या करती, यही समझ, फिर से सो गयी! सुबह उसने ये बात सभी को बताई, सभी ने बात को हलके में लिया और बात आई गयी हो गयी!" वे बोले,

"अच्छा! हैरत की बात है!" मैंने कहा,

"और उसी दिन गुरु जी, मेरे बेटे को लगा कि उसके कमरे में कोई घुसा है, हाथ में फूल लिए हए, वो मेरे बेटा उस समय वाश-बेसिन पर हाथ धो रहा था, वो फ़ौरन अपने कमरे में गया, लेकिन वहाँ कोई भी ना था! उसने इसको वहम जाना और किसी को ये बात नहीं बताई!" वे बोले,

"फूल लिए?" मैंने पूछा, "हाँ जी, हाथों में कई गुलाब के फूल थे, जैसे गुलदस्ते में लगते हैं, ये मेरे बेटे विभोर ने बताया!" वे बोले,

"हम्म! फिर?" मैंने पूछा,

"उसी दिन मेरी भाभी जी को एक औरत दिखाई दी, घर में, वो एक दीवार के संग खड़ी थी, छत को देख रही थी, भाभी ऊपरे कमरे से नीचे आ रही थीं, तब देखा उन्होंने, और जब वो वहाँ गयीं तो वो औरत गायब!" वे बोले,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

"फिर?' मैंने पूछा,

"उन्होंने ये बात घर में बताई, तो फिर वहीं वहम का सहारा!" वे बोले,

चाय आई, सभी ने अपना अपना कप उठाया!

"उसी दिन, मै कोई चार बजे लेटा हुआ था अपने बिस्तर पर, मुझे संतरे की महक आई, बहुत तेज, संतरा तो था ही नहीं वहाँ, तो महक कैसे? मै उठा, और जैसे ही उठा किसी ने मेरे मुंह पर संतरे के बीज मारे फेंक कर, गीले बीज! मेरी हालत खराब! ये क्या है? बीज कहाँ से आये?' वे बोले,

बड़ी दिलचस्प घटना थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"फिर?" मैंने पूछा! उन्होंने चाय का घूट भरा और नीचे रखा कप!

"और फिर गरु जी, अब जब मन में ऐसा लगने लगे कि ये क्या गड़बड़ है और उसका कोई सटीक उत्तर भी ना हो, तो आदमी भला क्या समझे?" वे बोले,

"ये तो सही कहा आपने" मैंने कहा,

"उसी रात की बात है, मै अपनी पत्नी के साथ अन्तरंग था, तभी मुझे लगा कि किसी ने मुझे मेरी पसलियों में नाखूनों से चीरा है, मैंने हाथ लगा के देखा, जब देखा तो मुझे रक्त के निशान दिखे, अब मेरी पत्नी घबराई, कि ये क्या हुआ? ना कोई चोट लगी, ना कोई वस्तु टकराई तो फिर ये रक्त कैसे?" वे बोले,

"बात सही है आपकी" मैंने कहा,

"मैंने शीशे में देखा, करीब चार इंच का था वो निशान, जैसे किसी ने चारों उँगलियों से मुझे खरोंचा हो!" वे बोले,

"अच्छा ?" मैंने हैरत से सुना,

"पत्नी ने कोई क्रीम लगाईं, उसके बाद मन में आशंका भर गयी, हम सो गए, जब मै सुबह उठा तो उस निशान का ध्यान आया, शीशे में देखा तो निशान गायब!" वे बोले,

"ये सब आपके आते ही हो गया था? मेरा अर्थ ये है कि जैसे आप घर में आये थे, तभी से ऐसा होना शुरू हुआ?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, अगले दिन से ही" वे बोले,

"कोठी स्वयं बनवाई थी या बनी-बनाई खरीदी थी?" मैंने पूछा,

"बनी बनाई गुरु जी" वे बोले, "सस्ते दाम पर?" मैंने पूछा,

"हाँ जी!" वे बोले,

"हम्म!" मैंने कहा,

"कोई खुटका है गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

क्या गुरु जी?" उन्होंने पूछा, "क्या आपने पूछा उनसे, जिसने ये कोठी बेकी थी वो कोठी?" मैंने पूछा,

"नहीं साहब, नहीं पूछा" वे बोले,

"यही तो गलती की आपने!" मैंने कहा,

"मतलब?" उन्होंने पूछा,

"कम से कम ये तो जान लेते, स्थानीय दाम से सस्ते पर क्यों मिल रही है कोठी?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, हमे क्या पता अब?" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताता हूँ, जो यहाँ रह रहा था पहले, उसने भी ऐसा ही देखा होगा!" मैंने बताया!

"गुरु जी, हो सकता है!" वे बोले,

"यही बात है" मैंने कहा,

"गुरु जी, जो देखा था, वो बस टी.वी. धारावाहिक में देखा, या फिल्मों में देखा, ऐसा भी होता है कभी ना सोचा था" वे बोले,

"आगे क्या हुआ?" मैंने पूछा, दरअसल बात पलटी मैंने!

"गुरु जी, एकदिन तो हद हो गयी!" वे बोले,

"क्या हुआ था?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, मै एक दिन शेव कर रहा था, बहस छिड़ गयी इसी बात पर! मैंने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है, सब वहम है!" वे बोले,

"फिर?" मैंने पूछा, "गुरु जी, उस दिन मुझे घाटा हो गया, ढाई लाख का! जिसमे नफा तय था उसी में! कारण मेरी डाइज (खरीद का सामान) रिजेक्ट हो गया था! बना बनाया काम खराब हो गया! और तो और, कई ऑर्डर्स वापिस आगये, सभी में कुछ ना कुछ नुस्ख!" वे बोले!

"ये तो कमाल हो गया!" मैंने कहा,

"नहीं गुरु जी, ये तो सिर्फ शुरुआत थी!" वे बोले,

"कैसे?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, उसी दिन दोपहर में एक औरत ने धक्का दिया भाभी जी को, वो नीचे गिरी उनके दो दांत टूट गए, और तो और भाई साहब की कार खराब हो गयी!" वे बोले,

"क्या?" अब मुझे सच में ही हैरत हुई!

गुरु जी अब हम घबराए, बड़े भाई साहब का साला उनके साथ ही काम करता हैं नाम है विजय, उसने कहा कि कोई ऊपरी समस्या है, अब हम घबराए" वे बोले,

"फिर?" मैंने पूछा,

"घर में माहौल डरावना था बहुत, तब विजय किसी आदमी को लाया घर में, उसने बताया कि घर में चौदह प्रेतों का वास है, वो गुस्से में हैं!" वे बोले,

"चौदह प्रेत! फिर?" मैंने पूछा, "उसने सारे जतन किये, पचास हज़ार ठिकाने लग गया लेकिन कुछ नहीं हुआ!" वे बोले,

"ओह! फिर?" मैंने पूछा,

"अब घरवाले कहने लगे कि घर भुतहा है, छोड़ दो इसको, लेकिन छोड़ कैसे दें? व्यवसाय वो खराब, भाभी जी, उनकी तबियत खराब, मुझे घाटे पर घाटा! भाई का काम बर्बाद!" वे बोले,

"फिर?" केवल यही शब्द था मेरे पास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"फिर क्या गुरु जी, मेरे बेटे का एक्सीडेंट हुआ, सर में इक्कीस टाँके आये, मेरी बेटी पीलिया की शिकार हो गयी, मेरी पत्नी बीमार रहेने लगी, मै क्या करता?" वे बोले,

"फिर?" मैंने पूछा,

वो कुछ कहते कि एक श्वान मेरे कमरे में घुसा, मै उसको मोती कहता हूँ, उसने पूंछ हिलाई और कूद के मेरे बिस्तर पर चढ़ गया! अभी दो साल का ही है, चपल है, चतुर है! आते ही मेरे मुंह को चाटने लगा, उसने मुझे बता दिया कि मै इस मामले में ना पढूँ!

"मोती, चुप बैठ!" मैंने उस से कहा,

उसने कान फडकाये! अर्थात मना किया!

"मोती, मुझ पर विश्वास नहीं तुझे?" मैंने कहा,

उसने अपना पंजा मेरी तरफ बढ़ाया, मैंने अपने हाथ में पंजा लिया!

"क्या कह रहा है?" मैंने कहा मोती से,

अब मोती पलटा, अमित को लगा भौंकने! मैंने शांत कराया!

"ये पालतू है आपका?" अमित ने पूछा,

"ये सारे मेरे पालतू है!" मैंने कहा,

"जा मोती, दूध पी ले" मैंने कहा और मैंने सहायक को आवाज़ दी, उसने मोती को उसके पेट से उठाया और ले गया!

मोती, उस सरल ह्रदय ने मुझे चेतावनी दे दी थी! मोती का बाप मेरा बहुत अच्छा श्वान था! उसकी माँ भी! मैंने दफनाया है उनको, अपने हाथों से, जब तक जिए, मेरे बन के रहे!

मित्रगण, श्वान की जहां घ्राण-इंद्री मनुष्य से कई हज़ार गुना अधिक है वहाँ उसकी भविष्य में झाँकने की काबिलियत भी नैसर्गिक है, श्वान अशरीरी शक्तियों को न केवल भांप लेता है वरन वो उनको देख भी लेता है! भूकंप आने से पहले सोता हुए उठ जाता है और खुले स्थान में जा कर पिछली टांगों पैर बैठ जाता है, ये उसकी श्रवण-इंद्री का कमाल है! पृथ्वी के अन्दर से आ रही आवाजें और उठ रही तरंगों को भी वो सुन एवं महसूस कर लेता है! स्मरण रहे, श्वान अकारण किसी को नहीं भौंकता! यही कारण था कि मोती ने अमित को देख कर भौंका था, उसे कुछ आभास हुआ था! मै ये समझ गया था! खैर, बात आगे बढ़ी, मैंने अमित से पूछा, "किसी को अभी तक घर में शारीरिक क्षति पहुंची है?"

"बेटे का एक्सीडेंट हुआ था ना?" वो बोले,

"नहीं मै बाहर की बात नहीं कर रहा, मेरा मतलब था कि घर में किसी के ऊपर मृत्य-तुल्य संकट आया है क्या?" मैंने पूछा,

" बताया ना, भाभी जी गिर पड़ी थी सीढ़ियों से" वे बोले,

"ओ हाँ! आपने बताया था" मैंने कहा,

मै मोती के प्रकरण से ये बात भूल बैठा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सहायक आया और फिर से एक एक चाय और दे गया, अब सर्दी में तो चल ही जाती है चाय, सो पीने लगे!

"ठीक है अमित साहब, मै इस शनिवार को आता हूँ आपके पास, तब तक मै आपको घर में रखने के लिए कुछ दे रहा हूँ, घर में कहीं भी रख दीजिये, हाँ, कोई स्त्री ना छुए उसे" मैंने कहा,

"जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका गुरु जी" अमित बोले,

तब हमने चाय ख़तम की, मै उठा और अपने क्रिया-कक्ष की तरफ गया, अन्दर घुस और एक उलूक-पंख लिया, उसको अभिमंत्रित किया और एक कपड़े में लपेटा, कक्ष से बाहर आया और अपने मुख्य कक्ष में गया, और अमित को थमा दिया वो कपडा!

"इसको, अपने सर से ऊपर के स्थान पर ही रखना, नीचे नहीं, अन्यथा कार्य नहीं करेगा ये" मैंने

बताया,

"जी, मै ऐसा ही करूँगा" अमित ने कहा,

उसके बाद अमित उठे और विदा ले चल दिए वहाँ से!

मैंने अब शर्मा जी से पूछा," कौन है ये अमित, शर्मा जी?"

"मेरे एक रिश्तेदार के जानकार हैं, उन्होंने ही भेजा इनको मेरे पास" वे बोले,

'अच्छा! अच्छा!" मैंने कहा,

"क्या समस्या हो सकती है वहाँ गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"अभी तो नहीं कह सकता" मैंने कहा,

"अच्छा, पहले जांच करोगे आप?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, आज रात जांच कर लूँगा" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी, अब मै भी चलूँगा" वे बोले,

"कहाँ जाना है?" मैंने पूछा,

"एक जानकार है, उन्ही के पास जाना है, मै रात दस बजे तक आ जाऊँगा" वे बोले,

"ठीक है, आ जाइये दस बजे" मैंने कहा,

उन्होंने नमस्ते की और वे भी चले गए।

मैंने भी अब थोडा आराम किया, रजाई में जा घुस, घुसा तो पलक बंद हुईं, पलक बंद हुईं तो नींद ने आ घेरा! आ घेरा तो समर्पण कर दिया!

जब नींद खुली तो सवा सात हो रहे थे! नींद की खुमारी बरक़रार थी! जम्हाई अभी तक आ रही थी! किसी तरह से उठा, अपनी जैकेट पहनी और बाहर आया, बाहर अँधेरा पसरा पड़ा था, बस वो दो सी.ऍफ़.एल. जल रहे थे, सहायक भी संभवतः नींद के मारे थे अभी तक! थोडा आगे गया मै तो एक दो सहायक अलाव जल चुके थे, उन्होंने नमस्कार की और मै भी अलाव के पास पड़ी एक कुर्सी पर जा


   
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श्रीशः उपदंडक
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टिका! आंच का ताप बेहद सुकून दे रहा था! काफी देर वहीं बैठा मै, फिर उठा तो तभी एक सहायक ने रोक लिया, चाय आई तब, मैंने चाय पीनी आरम्भ कर दी! चुस्की ले ले मजे से एक एक घुट गले के नीचे उतारता रहा! चाय पीने के बाद वापिस अपने कमरे में आ गया, फिर से लेट गया!

और फिर बजे कोई दस, शर्मा जी आये थे, साथ में सामान भी लाये थे, सो हमने शुरू किया खाना पीना, उन्होंने बताया कि अमित ने ठीक वैसा ही क्या जैसा उसको बताया गया था, अब कल सुबह फ़ोन करेगा वो, खाना पीना चलता रहा हमारा, कुछ और भी बातें हुईं इधर-उधर की और कुछ अमित से सम्बंधित!

निबटने के बाद मैंने अब तैयारी की क्रिया-स्थल की, मै वहाँ गया और फिर शाही-रुक्का पढ़ कर सुजान को हाज़िर किया! सुजान हाज़िर हुआ, उसको मैंने उसका उद्देश्य बताया, वो उड़ चला! अब मै वहाँ बैठ गया, उसकी प्रतीक्षा में, सुजान करीब पंद्रह मिनट में वापिस आया, वो खाली हाथ आया था, कोई जानकारी नहीं थी उसके पास! हैरत की बात थी! हाँ वो वहाँ से कुछ लेकर आया था, मिट्टी! उसने वो मिट्टी मुझे थमा दी! मैंने वो मिट्टी अलख के साथ रख दी, सुजान को भोग दिया और फिर वो वापिस हुआ! सुजान मिट्टी तभी लाता है जब वो वहाँ घुस नहीं पाता, कोई शक्ति रोक देती है उसको! या वो जब सरहद नहीं लांघ पाता पकड़े जाने के डर से! ऐसा कौन है वहाँ जो सुजान जैसे कारिंदे को पकड़ लेगा? यही सवाल अब घर बना गया मस्तिष्क में!

अब एक ही विकल्प थे, कि स्वयं ही वहाँ जाया जाए वहाँ, मै उठा और क्रिया-स्थल से बाहर निकला, वापिस आया शर्मा जी के पास! सारी बात बताई उन्हें, वे भी चिंतित हुए, और फिर हमने कल अर्थात शनिवार को अमित के घर जाना सुनिश्चित कर लिया! शर्मा जी रात को वहीं ठहरे! रात्रि समय खाना खा सो गए हम!

सुबह उठे, फारिग हुए, चाय आदि पी कर निफराम हुए और नौ बजे अमित को फ़ोन पर इत्तला देने के बाद हम रवाना हुआ भिवानी! भिवानी को छोटा काशी भी कहा जाता है, यहाँ काफी मंदिर हैं, ऐतिहासिक भी और प्राचीन भी! खैर, हम पहुंचे भिवानी, अमित अपनी गाड़ी से आ गए थे मुख्य सड़क तक, साथ में उनके बड़े भाई भी थे, नमस्कार-प्रणाम हुई तो हम अब चले उनके घर की ओर! घर पहुंचे, घर काफी आलीशान था, एक फार्म-हाउस की तरह, देखते ही पता चलता था कि काफी पैसा लगाया गया है उसमे! बाहर गार्ड खडा था! गार्ड ने गेट खोला और हम अन्दर घुसे, अन्दर घुसते ही मेरे दिमाग में जैसे हथौड़ा पड़ा! तेज सुगंध मेरे नथुनों में समा गयी! सुगंध ऐसी कि जैसे गुग्गल जलाई गयी हो, खूब मात्रा में! हम अन्दर बैठे! सभी मिले हमे वहाँ, सभी से परिचय हुआ, लेकिन वो सुगंध अभी तक समाई हुई थी मेरे नथुनों में! गले में भी उसी का स्वाद बस रहा था धीरे धीरे! आखिर में मैंने अमित से पूछ ही लिया, "क्या गुग्गल जलाई है आपने घर में?"

अमित ने अपनी पत्नी से पूछा, और कहा, "नहीं गुरु जी, कोई गुग्गल नहीं जलाई"

अब मै समझा! समझा कि माजरा क्या है! तभी चाय आ गयी, हमने पहले हाथ मुंह धोये और फिर उसके बाद चाय पी, चाय पीने के बाद सफ़र की थकान मिटाने के लिए एक कमरे में चले गए, मैंने तो अपने जूते खोले और बिस्तर पर ढेर हो गया, कमर सीधी करनी थी ना! इसीलिए! अब शर्मा जी ने भी जूते खोले और लेट गए!

"कुछ देखा आपने गुरु जी?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ!" मैंने कहा,

"क्या?" उन्होंने पूछा,

"यहाँ कोई छोटी-मोटी चीज़ नहीं है!" मैंने कहा,

"मतलब?" उन्होंने पूछा,

"कोई है यहाँ, काफी शक्तिशाली!" मैंने कहा,

"कोई सिद्ध?" उन्होंने पूछा,

"हो सकता है" मैंने कहा,

"ओह!" उनके मुंह से निकला, "अब?" उन्होंने पूछा,

"आज रात मैं देखता हूँ, जांचता हूँ कि है क्या?" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

"जो कुछ है, वो यहीं है" मैंने कहा,

"इसी ज़मीन पर?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, इधर ही" मैंने उतर दिया!

"अब ये ही तो बात है, लोगों को पता नहीं चलता" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"मै भी उत्सुक हो गया हूँ" वे बोले,

"और मै भी" मैंने कहा,

फिर से गुग्गल का भभका आया मुझे! मुझे खांसी आ गयी! शर्मा जी ने पानी दिया मुझे! अब मुझे एक मंत्र पढना पढ़ा, मंत्र पढ़कर मैंने उस सुगंध का मार्ग रोका और नथुने छुए! सुगंध बंद हो गयी तभी!

और फिर आई रात! मै छत पर बने एक कमरे में गया, वहाँ मैंने पांच दिए जलवाए उन्ही से। और उन्हें बाहर भेज दिया, अब मै वहाँ बैठा, आँखें बंद कर प्रत्यक्ष-मंत्र पढ़ा! वहाँ जो कोई भी था उसको प्रत्यक्ष हो जाना था! समक्ष ना सही तो ध्यान में ही! करीब एक घंटा बीता, मेरे ध्यान में पहले एक लड़का आया, सर पर तसला सा लिए, फिर और दो आदमी, धोती पहने हुए, जनेउ धारण किये हुए, फिर दो औरतें, हाथों में और बालों में फूलों की मालाएं पहने हुए, फिर और दो आदमी, लंगोट धारण किये! उन्होंने हाथों में छड़ी ले रखी थी, और फिर आई एक साध्वी सी दिखने वाली औरत! पीत-वस्त्र धारण किये हुए, हाथ में फूलों की डलिया लिए! वो इठलाती हुई चल रही थी, आगे गयी और एक पिंडी पर फूल चढ़ा दिए उसने और उसने फिर पीछे मुड़ कर देखा, अँधेरा छाया, जैसे कोई धुंए का बादल सा फटा और सब गायब! मेरी आँखें खुल गयीं! परन्तु रहस्य ना खुला! मै उठा वहाँ से! पाँचों दिए टिमटिमा रहे थे! अब मैंने दीयों पर काले टिल मारे फेंक कर, ग्यारह बार! और फिर बैठ गया! फिर से ध्यान लगाया, इस बार वही सब घटा,फिर से साध्वी फूल चढाते हुए दिखी! उसने फिर से पीछे देखा, जैसे उसकी मुझसे आँखें टकरायीं!


   
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"चले जाओ यहाँ से!" जैसे उसने कहा, मुझे सुनाई पड़ा!

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया!

"चले जाओ" वो बोली,

मै फिर भी चुप!

वो सभी इकट्ठे हुए! सभी के हाथों में फूल थे, और एक आदमी के हाथों में गुलाब के बड़े सारे फूल!

"जाओ यहाँ से" वो बोला,

मै अब भी चुप!

"जाओ यहाँ से मैंने कहा!" साध्वी बोली,

मै चुप्पी साधे रहा!

"सुना नहीं?" एक वृद्ध लंगोटधारी बोला,

"मैं नहीं जा रहा" मैंने कहा,

"नहीं जा रहा?" साध्वी ने बोला,

"हां, नहीं जा रहा" मैंने कहा,

अब वो भागी वहाँ से, और एक बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे खड़ी हो गयी, चौकड़ी मार के बैठी

और कुछ पढने लगी, वहाँ वायु का तीव्र संचार हुआ, लगा कोई आंधी-तूफान आने को है, वहाँ बरगद और पीपल के पत्ते खड़-खड़ आवाज़ करने लगे! मुझे लगा कि मै वहीं खड़ा हुआ हूँ, वायु प्रवाह इतना तीव्र कि उड़ा ले जाए अपने संग! मैंने वहाँ उसकी मुद्रा में एक केले के पेड़ की मदद ली, वो साध्वी आँखें मूंदे निरंतर मंत्रोच्चार किये जा रही थी, और यहाँ मेरे कानों में केवल वायू की साँय-साँय ध्वनि ही आ रही थी! भयावह माहौल था वहाँ! वे सभी मुझे विजातिय समझ भगाने पर तुले थे! तभी कोई हंसा! जो खड़े थे वहाँ वे नहीं, बल्कि कोई भारी शरीर वाला और दीर्घ देह वाला! वायु प्रवाह के कारण मेरे नेत्र बार बार बंद हो रहे थे, मुंह में भी धूल घुसे जा रही थी, देखने से और बोलने से जैसे लाचार सा हो गया था मै! वो हंसी निरंतर बढ़ती जा रही थी, उसकी आवर्ति निरंतर बढे जा रही थी, लग रहा था कर्ण-पटल फट जायेंगे! हाथों से कान दबाना संभव नहीं था, हाथों से केले का पेड़ पकड़ा हुआ था! छोड़ता तो संभव था उड़ जाता या असंतुलित होता और किसी पत्थर से ही टकरा जाता! हंसी और बढ़ी, कानों में पीड़ा आरम्भ हुई अब! मैंने हिम्मत करके पीछे देखा, कोई नहीं दिखा, मात्र बवंडर! और फिर वायु संचार और तीव्र हुआ, मै अब चिपक गया केले के वृक्ष से! कड़ाक! केले का पेड़ टूटा और मै उसके साथ गिरा भूमि पर! क्या विस्मयकारी दृश्य था! जैसे ही गिरा वैसे ही आंधी-तूफान शांत! मैं पेट के बल लेटा था वहाँ, तभी किसी ने मेरी कमर पर अपना भारी पाँव रखा, मै, पीछे भी न देख सका, लगा मेरी आंतें फटने वाली हैं, मेरी जो श्वास अन्दर गई थी वो वापिस नहीं आ रही थी, मै छटपटा रहा था! खांसी छूटने लगी, तब, एक ही पल में मेरी कमर से भार कम हुआ, मैंने लम्बी लम्बी साँसें लीं, बच गया था मै! किसी प्रकार मै उठा, मुंह में घुसी धूल को थूक कर बाहर फेंका! सामने देखा तो वो साध्वी क्रूर नेत्रों से मुझे घूर रही थी! मुझे भय का अहसास हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कौन हो तुम?" उसने पूछा,

मैंने परिचय दे दिया,

"चले जाओ यहाँ से" उसने मुझे वहाँ से जाने का मार्ग दिखाया!

"आप कौन हैं?" मैंने पूछा,

उसने मुझे घूरा और बोली, " गौरा"

"गौरा! प्रणाम स्वीकार करें" मैंने हाथ जोड़कर कहा,

उसने मेरा प्रणाम स्वीकार नहीं किया! वो क्रोधित थी!

"अभी निकल जा यहाँ से!"उसने कहा,

क्रोधित न हों, आप मुझे कारण बताएं" मैंने कहा,

"कारण? ये मेरा स्थान है, यहाँ मेरा पूजा-स्थल है, तुम कौन होते हो मुझ से ये पूछने वाले?" उसने क्रोध से कहा!

मित्रो! वो साध्वी मुश्किल-बा-मुश्किल बीस-बाइस बरस की रही होगी, लेकिन मुझे ऐसे प्रताड़ित कर रही थी जैसे मेरी गुरु-माता हो!

"मुझे जान लो साध्वी!" मैंने कहा,

"जान लिया है, जाओ यहाँ से" वो बोली,

"मैं नहीं जाने वाला!" मैंने कहा,

"नहीं?" उसने क्रोधावेश में पूछा,

"नहीं!" मैंने कहा,

उसने क्रोध के मारे दांत भींचे! मुझे हंसी आई!

"चला जा, जा चला जा!" उसने कहा,

"तुम कौन होती हो मुझे यहाँ से भेजने वाली?" मैंने कहा,

"बताती हूँ" उसने कहा और अपनी डलिया में से एक फूल निकाला, एक मंत्र पढ़ा मन ही मन और फूल मुझ पर दे मारा! उसने फूल मारा और मुझे लगा, लगा किसी ने मेरे शरीर में भाल भोंक दिया हो, कलेजे में! असहनीय पीड़ा, मैंने तभी एवंग-मंत्र पढ़ा और पीड़ा समाप्त! एवंग-मंत्र पढ़ते ही औघड़ जागृत हो जाता है, ऐसा ही हुआ,अब मैंने अट्टहास किया!

"सुन साध्वी! तू क्या जाने मैं कौन हूँ, क्या हूँ!" मैंने कहा, और उसकी भुजा पकड़ ली, एक झटके से ही उसने मुझसे भुज छुड़ा ली!

"मृत्यु को आह्वानित किया है तूने!" वो चिल्लाई!

"मृत्यु! बुला, बुला मृत्यु को!" मैंने कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने मुझे एक चांटा मरने की कोशिश की, मैंने उसका हाथ पकड़ा और कहा, "अरे जा साध्वी! दासता करेगी तू मेरी!" मैंने कहा,

अब उसने क्रोध के मारे मुझे अपशब्द कह डाले! मै हँसता रहा! क्या बिगाड़ेगी एक साध्वी एक औघड़ का! साध्वी भागी वहाँ से और बरगद के पेड़ के नीचे जा बैठी! कुछ आपदा और तभी मुझे किसी ने फेंक के मारा! मेरी आँख खुली! किसने मारा? कौन है वो? झुंझला गया मै! ध्यान भंग हो गया!

ध्यान भंग हो चुका था, मै वापिस वहीँ आ गया था जहां से आरम्भ किया था! इसका अर्थ था कि इस स्थान पर अवश्य ही कोई शक्तिशाली शक्ति वास कर रही है! परन्तु कौन? कौन है वो? किसने मुझे उठा फेंका था वहाँ से? मस्तिष्क उलझ गया था! मैंने फिर से तीसरी बार ध्यान लगाया! वहीं पहुंचा धीरे धीरे केले के पेड़ के पास, अब वायु में तीव्र प्रवाह नहीं था, बल्कि वहाँ शान्ति पसरी थी, लेकिन वहाँ कोई था नहीं! केवल सन्नाटे का राज था वहाँ! और जब मैंने यहाँ वहाँ दृष्टि दौडाई तो किसी ने मुझे पीछे से धक्का दिया, मै वहीं मुंह के बल जा गिरा! और फिर से ध्यान भंग हुआ! खीझ उठा मै, क्रोध भी आया परन्तु इसका कोई लाभ नहीं था, वहाँ जो कोई भी था नहीं चाहता था कि मै वहाँ की सच्चाई जानूं! और सच्चाई जाने बिना कुछ हो नहीं सकता था! अब मै उठ गया वहाँ से! कमरे से बाहर आया! शर्मा जी वहीं बैठे थे एक फोल्डिंग पलंग पर! मै वहीं की ओर चल दिया! वहां तक पहुंचा तो मुझे देखते ही उन्होंने अपनी बची खुची सिगरेट नीचे गिराई और जूते से मसल दी, फिर बोले, "गुरु जी, कुछ पता चला?"

अब मैंने उन्हें अपने तीनों बार के प्रयास के बारे में बताया, उनके भी रोंगटे खड़े ओ गए!

"ये क्या हो सकता है गुरु जी?" वे बोले, "वहाँ साध्वी है, कुछ और भी लोग हैं, लेकिन वहाँ से धक्का मार कर बाहर कर देने वाला कौन है,ये सामने नहीं आया" मैंने बताया,

"बड़ी अजीब सी स्थिति है" वे बोले,

"हाँ, बेशक" मैंने कहा,

"वो साध्वी है कौन?" उन्होंने पूछा,

"गौरा" मैंने बताया,

"गौरा? सात्विक है?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, है तो सात्विक ही" मैंने कहा,

"और बाकी लोग कौन है?" उन्होंने पूछा,

"उसके संगी साथी है" मैंने बताया,

"कोई मंदिर है वहाँ?" उन्होंने पूछा,

"नहीं, मंदिर जैसा कुछ नहीं है" मैंने बताया,

"ओह, कोई समाधि?' उन्होंने पूछा,

"नहीं, ऐसा भी कुछ नहीं" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कमाल है! तो वो फूल कहाँ चढ़ा रही थी?" उन्होंने पूछा,

"कोई पिंडी सी थी वहाँ" मैंने कहा,

"पिंडी!" उन्होंने हैरत से पूछा,

"हाँ!" मैंने कहा,

"अच्छा, आपने बताया कि वो एक बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे बैठी थी, यही ना?" उन्होंने माथा खुजाते हुए पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"इसका अर्थ वो बरगद का पेड़ ही कुछ महत्व रखा था" उन्होंने संशय सा जताया, और अनुमान भी लगाया!

"हो सकता है" मैंने कहा,

"एक बात और, उसने मंत्र पढ़ते हुए आंधी बुलाई थी?" उन्होंने पूछा,

"नहीं" मैंने कहा,

"इसका अर्थ उसने किसी का आह्वान किया था!" वे बोले,

तीर सही लगा उनका! मेरे भी कान गर्म हो गए और आँखें छोटी! मैंने जैसे किसी अन्धकार में दौड़ रहा होऊं और मुझे कोई रौशनी दिखाई दे जाए! ऐसा ही हुआ मेरे साथ शर्मा जी के अनुमान से! उसने निश्चित ही किसी का आह्वान किया था! पर किसका? "आपने सही अनुमान लगाया शर्मा जी, उसने किसी का आह्वान किया था!" मैंने कहा,

"ऐसा कौन है जो वायु-प्रवाह के साथ प्रकट होता है?" उन्होंने पूछा,

"ऐसे तो बहुत हैं शर्मा जी" मैंने कहा,

"मान लिया, परन्तु एक स्त्री जिसको ध्याये?" उन्होंने कहा,

ये भी गज़ब का उत्तर था उनका! एक स्त्री किसको ध्याएगी? अब यहाँ आकर फिर से गड्ढा आ गया!

"कहा तो आपने सटीक है, मै इसी पर विचार करता हूँ" मैंने कहा,

"आप विचार कीजिये कि एक साध्वी वो भी सात्विक, किसको ध्याएगी?" उन्होंने कहा,

"बहुत अच्छा सूत्र दिया है आपने शर्मा जी!" मैंने कहा, और लेट गया वहीं पलंग पर!

"अच्छा जिसने प्रहार किया वो भी आपके पीछे ही रहा, सम्मुख नहीं आया, है ना?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, सम्मुख नहीं आया" मैंने कहा,

"ताकि पहचान ना हो सके!" वे बोले,

"ये भी तर्कपूर्ण उत्तर था उनका!

"सही कहा आपने!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अभी हम बात कर रहे थे कि अमित आये ऊपर, आते ही घबराते हुए बोले, "गुरु जी आइये, कुछ दिखाता हूँ आपको"

हम दोनों तेजी से उठे और उनके साथ चले! नीचे आये तो अमित हमको एक कमरे में ले गए, कमरे में किसी के पाँव के निशान बने थे, वो भी पानी के निशान काफी दूर तक चले गए थे

और घर के मध्य में जाके समाप्त हो गए थे! घर के सभी सदस्य घबरा गए थे वो सारे पदचिन्ह देखकर! हम दोनों भी उलझ गए और फिर धीरे धीरे वो पद-चिन्ह मिटते चले गए!

"ये क्या है गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"पता चल जाएगा, आप चिंता ना करें" मैंने कहा,

तब तक बुलावा आया कि चाय बन गयी है, हम चाय पीने चल दिए!

"आज मै ऊपर सोऊंगा अमित जी, आप ऊपर प्रबंध कीजिये, मै आज गहन जाँच करना चाहता हूँ!" मैंने कहा,

"जी गुरु जी, मै करवाता हूँ" वे बोले,

चाय समाप्त हुई मैं फिर से ऊपर चला और जाकर पलंग पर लेट गया, उसी छत पर एक दूसरे कमरे में शयन-प्रबंध करवा रहे थे अमित!

"वो पद-चिन्ह देखने में स्त्री के लग रहे थे मुझे तो" शर्मा जी बोले,

"हाँ, कर्प कम चौड़ा था उसका" मैंने कहा,

"हाँ, जैसे किसी कन्या के हों" वे बोले,

"हाँ लगभग वैसे ही" मैंने कहा,

तभी अमित जी आये और प्रबंध करवा दिया था उन्होंने, फिर वो नीचे चले गए और मै गहन विचार में डूब गया!

अब हुई सघन रात्रि, मैंने फिर से दिए जलाए और अपने बैग में से चार दक्षिणमुखी कौड़िया निकालीं, उनको अभिमंत्रित किया और चार दियों के समक्ष रख दिया, कुछ और तंत्र-सामग्री निकाली और वो भी सम्मुख रख दी, फिर अपने शरीर को प्राण-रक्षा एवं देह-रक्षा मंत्र से सींच लिया, अब मैंने त्राटक ध्यान लगाया कुछ समय और फिर आँखें मूंद ली! प्रत्यक्ष-मंत्र जपते जपते मै पहुँच गया फिर से उसी स्थान पर, अब मैंने आसपास देखा, वहाँ प्राणी तो कोई न था, हाँ कुछ दूरी पर एक मंदिर था, मंदिर का रंग पीला और मंदिर काफी बड़ा था, मै उस स्थान पर गया जहाँ साध्वी विराजमान थी बरगद के पेड़ तले, मैंने मुआयना किया वहाँ कोई मंदिर, समाधि अथवा पूज्य स्थल नहीं था, बस पेड़ के मोटे से तने पर लाल और पीले रंग के धागे बंधे हुए थे, कुछ कपड़े भी उनमे पिरो दिया गए थे, लाल रंग के चमकीले गोटे लगे, मै कुछ देर ठहरा वहाँ फिर पेड़ का एक चक्कर लगाया, सहसा मेरी दृष्टि वहाँ पर बनी एक कुटिया पर गयी, कुटिया फूस की बनी थी और उसके बाहर तीन खूटे गढ़े थे, जैसे कोई गाय बाँधी जाती हो वहाँ, एक बड़ी सी ओखली भी रखी थी! उसके पास मक्की के भुट्टे के छिलके बिखरे पड़े थे, मै वहीं बढ़ चला, तभी मुझे अपने पीछे एक आहट सुनाई दी, मैं पीछे मुडा, पीछे साध्वी खड़ी


   
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श्रीशः उपदंडक
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थी, उसके साथ कुछ और कन्याएं भी थीं, सर पर पीले रंग का कपडा बांधे, साध्वी ने अपने हाथ में एक फूलों की डलिया ले रखी थी, उसमे संभवतः जूही के फूल थे, लग तो ऐसे ही रहे थे, मेरा अनुमान मात्र था ये, खैर, वे कन्यायें वहां खड़ी हुई कुछ गाने लगी, मेरी समझ में कुछ नहीं आया, ना मंत्र थे, ना जाप और ना कोई भजन ही, बस कुछेक शब्द ही समझ आ रहे थे, नीर, रूदन और संताप, बस यही शब्द! साध्वी आगे आई और बोली, "तू फिर चला आया यहाँ?"

"हाँ, चला आया!" मैंने कहा,

"क्या करने आया है?" उसने पूछा,

"क्या करने आया है?" उसने क्रोध से पूछा,

"जानने आया हूँ मै!" मैंने कहा,

"क्या जानने आया है?" उसने पूछा,

"कि तुम लोग कौन हो? क्यूँ बसेरा डाले हो यहाँ" मैंने कहा,

"तू कौन होता है पूछने वाला?" उसने डांट कर पूछा,

"क्रोधित ना हों, बस उत्सुकता है" मैंने कहा,

"चला जा यहाँ से" उसने अपने हाथ से इशारा किया मुझे,

"और ना जाऊं तो?" मैंने कहा,

"तब तू पछतायेगा" उसने गुस्से से कहा,

"अच्छा!" मैंने और उकसाया उसको!

"जा, जान बचा ले अपनी" उसने कहा,

"कौन मारेगा मुझे?" मैंने पूछा,

"बहुत हठी है तू" उसने मुझे ऊपर से नीचे देखते हुए कहा,

"मेरा हठ अभी देखा कहाँ है तूने ओ साध्वी!" मैंने कहा,

उसको ऐसा क्रोध कि यदि उसके हाथ में तलवार होती तो मेरे पेट में घुसेड़ कमर से बाहर कर देती!

"जा! जा यहाँ से" उसने कहा,

"नहीं जाऊँगा जब तक मेरे प्रश्न का जवाब नहीं मिल जाएगा" मैंने कहा,

"नहीं जाएगा?" उसने धमका के पूछा,

"नहीं" मैंने मुस्कुरा के उत्तर दिया!

अब उसका क्रोध कुलांच मारा! उसने डलिया दुसरे हाथ में रखी और अपना हाथ मेरे चेहरे की तरफ बढ़ाया चांटा मारने को! उसने जैसे ही हाथ उठाया, मैंने उसका हाथ बीच में ही थाम लिया! ये देख सारी कन्यायें भाग गयीं वहां से, चीखते चिल्लाते! और अगले ही पल वहाँ एक, दो, तीन, चार, पांच


   
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श्रीशः उपदंडक
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करते करते करीब दस प्रेत जैसे हाज़िर हो गए! मैंने हाथ छोड़ दिया उसका! सभी मुझे घेर के खड़े हो गए!

"तेरी इतनी हिम्मत?" उसने नथुने फड़का के कहा,

"तेरी इतनी हिम्मत के मुझे चांटा मारे?" मैंने ही पलट के उत्तर दिया, उसी शैली में!

फनफना गयी वो!

"तूने अपनी मृत्यु को निमंत्रण दिया है!" उसने एक हाथ से दूसरे हाथ के उसी स्थान पर रगड़ते हुए कहा जहां से मैंने उसको पकड़ा था!

"अच्छा! ऐसा!" मैंने और उकसाया उसको!

"जीवित नहीं बचेगा तू, कुछ क्षण ही शेष है तेरा जीवन!" उसने कहा,

"करके देख ले साध्वी जो करना है तूने! मै भी औघड़ हूँ, मर जाऊँगा परन्तु हटूंगा नहीं!" मैंने कहा,

"अब देख!" उसने गला फाड़ कर कहा, जैसे विक्षिप्त स्त्री हो कोई!

वो भागी पीछे, सारे प्रेत गायब! भागी और बरगद के पेड़ नीचे बैठ गयी जाकर, मै टहलता हुआ वहां जा पहुंचा, एक दूरी बना कर उसको देखने लगा! शर्मा जी ने सही कहा था, साध्वी वाक़ई में किसी का आह्वान कर रही थी! कुछ पल बीते, साध्वी आँख बंद किये बैठे रही और फिर अचानक उसने आँखें खोलीं, सीधा मुझे देखते हुए! भयानक चौड़ी आँखें करते हुए! वो खड़ी हुई!

और फिर से तेज प्रवाह आरंभ हुआ वायु का! साँय साँय वायु प्रवाह! मुख और नेत्रों में धुल सामने लगी, दम सा घुटने लगा, मगर हैरत, वो अनवरत बनी रही! मै पीछे पलटा, मैंने पास लगे एक पेड़ को पकड़ा, और तभी प्रवाह शांत हुआ, खुद को देखा तो लगा रेगिस्तान में कलाबाजियां खायी हों!

और तभी एक भयानक रौशनी चमकी! मेरी आँखें चुंधिया गयी! जब खुली तो मेरे सामने वो साध्वी एक दिव्य-पुरुष को आलिंगन किये थी! उस पुरुष के लम्बे सघन केश! चौड़ी छाती, गले में छाती तक स्वर्ण-आभूषण! स्वर्ण-भुजबंध! श्वेत चमकदार अलौकिक वस्त्र! कमर में स्वर्ण-डोर! मूंछे रौबदार! कलम कानों को ढके हुए थीं, कानों में भी स्वर्ण-कुंडल! प्रथमदृष्टया तो वो मुझे कोई देवता लगा! चकाचौंध रौशनी में नहाया हुआ! मुरैय्या के फूलों की सुगंध मेरे नथुनों में बैठ चुकी थी!

"कौन हो तुम?" उस पुरुष ने पूछा, आवाज़ ऐसी कि सोये हुए गजराज भी उठ खड़े हों!

मेरी बोलती बंद हो गयी उस समय!

"कौन हो तुम?" उसने और क्रोध से पूछा,

तब मैंने उसको असलियत बता दी!

"हम्म! तुम जानते हो मै कौन हूँ?" उसने पूछा,

"नहीं, नहीं जानता!" मैंने कहा,

"ब्रह्मराक्षस!" उसने कहा,


   
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