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वर्ष २००८ बरुआ सागर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण! वर्ष २००८ की ये घटना मुझे आज भी याद है और मै ये घटना सोच के सिहर जाता हूँ! आज भी! ये भी एक कहानी है एक सिद्ध बाबा की! ये सिद्ध बाबा झांसी से थोडा आगे एक जगह है बरुआ सागर, वहाँ हैं ये! ये जगह सब्जी की खेती आदि के लिए प्रयोग की जाती है! अमरुद, बेर एवं आंवला आदि की भी यहाँ काफी अच्छी पैदावार होती है! मेरे एक परिचित हैं ग्वालियर में नाम है विनोद, पेशे से एक डॉक्टर हैं और झांसी और आस पास के क्षेत्र में इनकी और इनके भाइयों के खेत आदि हैं! इस बरुआ सागर जगह पर विनोद के बड़े भाई का एक बड़ा सा खेत है! वैसे तो ये जगह २ एकड़ के आस पास होगी, अमरुद, आंवला, बेर और अन्य सब्जियां यहाँ होती हैं! खेत में कुछ नौकर रखे हुए हैं जो कि यहीं खाते हैं और यहीं सोते हैं! इन्ही नौकरों में से एक है सरजू, सरजू ललितपुर का रहने वाला है, काफी ईमानदार और जुझारू किस्म का युवक है! अपने परिवार के साथ खेतों में ही बने कमरों में से एक में रहता है! सुबह रोज सब्जियां तुडवा कर मंडी ले जाता है और पैसे जमा करके महीने में दो बार अपने मालिक को दे देता है!

एक बार की बात है, बारिश का मौसम था और उस रोज़ तडके से ही बारिश हो रही थी, खेतों और खेतों तक आने वाले रास्ते में लबालब पानी भर गया था, खेतों में पानी भरा तो सरजू और दो चार नौकरों के साथ पानी दूसरे खाली खेतों में काटने के लिए कस्सी-फावड़े ले कर गए! और पानी काटना शुरू किया, जब सरजू पानी का रहा था तो उसे बहते पानी में एक छोटी सी हंडिया दिखी उसे, उसने उस हंडिया को उठाया, हंडिया का मुंह बंद था किसी पत्थर के ही बर्तन से, उसने वो हंडिया उठा के वहीँ रख दी पास में, करीब दो घंटे के बाद जब पानी कट गया तो वो उस हंडिया हो अपने साथ अपने कमरे में ले आया, नहाया धोया और फिर कपडे वगैरह पहन के हंडिया उठायी और उसका ढक्कन खोल, काफी कोशिश के बाद भी वो हंडिया नहीं खुली, उसने वो ज़मीन पर मारी तो भी नहीं टूटी! उसे बड़ी हैरत हुई! उसने हथौड़ा उठाया और उस पर मार दिया! हंडिया टूट गयी! अन्दर से एक पुराने-धुराने


   
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श्रीशः उपदंडक
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कपडे की एक पोटली निकली! उसे बड़ा आश्चर्य हुआ! उसने वो पोटली उठायी, पोटली खोली तो उसमे सोने के ११ सिक्के निकले! सरजू ने वो सिक्के फिर से पोटली में रखे और अपने संदूक में रख दिए!

५ दिनों के बाद वहाँ विनोद के बड़े भाई अनिल आये, तो सार हिसाब किताब सरजू ने बता दिया उनको! और फिर उस हंडिया के बारे में भी बता दिया! अनिल को आश्चार्य हुआ, तो सरजू ने वो सिक्के अनिल को दे दिए!

अनिल के तो जैसे होश ही उड़ गए! उसे यकीन ही नहीं आया! वो वहाँ से उठा और सीधा झांसी के बाज़ार में आ गया! सुनार कोई दिखाए तो वो सिक्के शुद्ध एवं खालिस सोने के सिक्के थे! उन ११ सिक्कों की उस समय कुल कीमत थी १ लाख और २० हज़ार रुपये! अनिल के तो पाँव ज़मीने पर ही न पड़ें अब!!

उसने ये साड़ी बातें अपने छोटे भाई डॉक्टर को बतायीं! डॉक्टर के भी आँखों में चमक आ गयी! डॉक्टर को लगा, अगर एक हंडिया है तो और भी हंडिया वहाँ होंगी! बस मित्रगण! यहाँ से डॉक्टर साहब की डॉक्टरी छूट गयी! वहाँ अनिल साहब का विद्यालय में मन न लगे! अनिल साहब एक विद्यालय में अध्यापक थे!

वे दोनों वापिस आपने खेत आये! सरजू से आराम से बात करी! पूछा, कैसे और कहाँ उसको ये हंडिया मिली थी? सरजू बेचारा भला आदमी उनको बार बार समझाए और उनको वो वहीँ ले गया जहां उसको वो हंडिया मिली थी! अनिल और डॉक्टर आयें बाएं देखें! ढूढें! पर मिले कुछ नहीं! अब तो दोनों भाइयों की नींद हराम हो गयी! दोनों ने खेतों का, नौकरों के साथ, चप्पा-चप्पा छान मार लेकिन मिला कुछ भी नहीं! तब किसी ने बताया की कुछ तांत्रिक ऐसा काम कर लेते हैं! दफीने का काम! अब हुई दफीने के काम करने वाले कारीगरों की तलाश ! दोनों भाइयों ने खूब पैसा उड़ाया! कारीगर आये और गए! लेकिन कुछ नहीं हुआ! करीब दो साल गुजर गए! दिन का चैन और रातों का आराम फुर्र हो गया था दोनों भाइयों का!आखिर में भोपाल से एक बड़ा कारीगर आया काम करने के लिए! ४० और ६० का अनुपात तय हो गया! इस कारीगर का नाम था श्यामा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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श्यामा ने वहाँ तीन दिनों की अखंड पूजा की! फिर उसके बाद भूमि-पूजन किया! चार दिन गुजर गए! चार दिनों के बाद श्यामा ने काम करना आरम्भ करवाया! उसने जांच की और एक जगह निशान लगा दिया! वहाँ उसने पांच खोदने वालों को बता दिया! खोदने वाले लगे खुदाई करने! करीब ५ फीट की खुदाई के बाद अचानक ही वे पाँचों गड्ढे से बाहर फेंक दिए गए! किसी अदृश्य शक्ति ने उनको एक साथ उठा के बाहर फेंक दिया! वे पाँचों उठे, संभले और ऐसे भागे कि रोके जाने पर भी न रुके!

श्यामा ने और मंत्र लड़ाए! लेकिन कोई गड्ढे में घुसने को राजी ही न होए! और आदमी मंगवाए गए! काम फिर शुरू हो गया! अबकी बार किसी को नहीं फेंका गया! श्यामा वहीँ अपने आसन पर बैठा अपनी देख-रेख में सारा काम करवा रहा था! २ घंटे बीते, फिर चार! लेकिन कुछ नहीं हुआ!

श्यामा ने अपना पैंतरा बदला! मान्त्रिक और प्रबलता से काम कर रहा था!

फिर, अचानक, गड्ढे में उतरे आदमी चिल्लाने लगे 'बचाओ! बचाओ!' आनन्-फानन में आदमी बाहर निकाले गए! अन्दर झाँका तो मोटे-मोटे सांप! गुस्से में! फुफकारते हुए! २ आदमी काट लिए गए था, उनकी जान पर बन आई थी! उनको अस्पताल में दाखिल करवाया गया! जान बच गयी थी वैसे तो उनकी!

श्यामा असफल हो गया था! उसका मान्त्रिकपन धुंआ हो गया था! अपना सा मुंह लेके अपने चेले-चपाटों के साथ चला गया बेचारा! दरअसल उसने वहाँ की ताकत को कम आँका था! इसका फल उसे मिल गया! और सबसे बड़ी बात! वो खाली हो गया था! इसका सदमा पहुँच था उसको!

वक़्त बीता और मुर्दानगी छाती गयी! लेकिन दोनों ने हिम्मत न हारी! अब की बार जा पहुंचे होशंगाबाद!

होशंगाबाद से एक और तांत्रिक लाये! नाम था बलभद्र सिंह! जाना माना! वो आया अपने ४ चेलों के साथ! सामान मंगाया गया! सामान ही करीब २० हज़ार रुपये का! अटरम-शटरम सब माँगा लिया!

बलभद्र रात के समय वहाँ अपनी अलख उठा के बैठा! अपना त्रिशूल उठाया और महानाद किया!" यहाँ जो कोई भी है सर झुका के मेरे क़दमों में आ


   
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श्रीशः उपदंडक
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जाए! पनाह मिल जायेगी! यदि नहीं तो कुत्ते की मौत मारा जाएगा!" कुछ नहीं हुआ! कोई नहीं आया!

अब तांत्रिक ने अपना चिमटा बजाया! पीछे पीछे उसके चेलों ने भी! तांत्रिक-क्रिया आरम्भ हो गयी! उसने सभी को वहाँ से हटा दिया!

कोई २ घंटे क्रिया चली! उसने एक जगह पहचानी और वहाँ गया! उसने वहाँ पर अपने त्रिशूल से निशान बनाए और फूल-मालाएं चढ़ा दीं! फिर क्रिया पर बैठ गया! लेकिन कुछ नहीं हुआ! तांत्रिक को गुस्सा आ गया! उसने उस स्थान पर जैसे ही मूतने गया! किसी ने उसको और उसके चेलों को हवा में उछाला और अलख के पास फेंक दिया!

बलभद्र की पसलियाँ टूट गयीं! चेले मैदान भाग छोड़े! बलभद्र को किसी तरह उठाया गया! बलभद्र का भी तात्रिकपन हवा हो गया! जहां से चला था वहीँ आ गया!

बलभद्र भी खाली हो गया था!

 

विनोद और अनिल का पैसा दांव पर लग चुका था! भरपाई होना इतनी जल्दी केवल दफीने के काम से ही हो सकती थी! थोडा और जोर लगाया! पैसा इकठ्ठा किया और अबकी बार पहुंचे अजमेर! एक कुशल मुस्लिम कारीगर को ले आये! नाम था आलम, ५०-५५ की उम्र वाला दफीने का काम करने वाला कारीगर! उसने कई काम पहले भी तोड़े थे, ऐसा उसने बताया! वो जिन्नातों से ये काम करवाया करता था!

आलम आया, थोडा सामान मंगवाया, सामान लाया गया! उसने हाथ में अगरबत्ती पकड़ कर सारे खेतों में चक्कर लगाया! फिर वापिस आया! उसने बताया की इन खेतों में एक जगह नहीं कई जगह माल दबा पड़ा है! और वो जहां से पहले आसान है वहाँ से शुरू करेगा!

उसने अपने एक साथी दानिश को बुलाया और एक जगह बिठा कर उसको कुछ पढने के लिए बिठा दिया! दानिश वहाँ बैठा और सामने एक बर्तन में जलते लोहबान के सामने कुछ पढता रहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक घंटा हुआ! थोडा और समय हुआ! फिर आलम नीचे बैठा और अपना शरीर अमल से बाँधा! फिर अपने चेले दानिश का भी!

अब नीचे बैठा आलम पढने लगा अपना अमल! वो ठीक सामने देख रहा था! वक़्त होगा कोई शाम के ५ बजे का! ६ बजे, साढे बजे! सभी दांतों टेल ऊँगली दबा के काम देख रहे थे! दानिश लगातार पढता जा रहा था, साथ ही साथ लोहबान भी डाले जा रहा था बरतन में!

ऐसे करते करते ८ बज गए रात के! तभी आलम हवा में उछला! पीछे गिरे कोई बीस कदम! सांस रुकते रुकते बची! उठा, फिर दोनों पांवों पर बैठ गया! बोल, 'माफ़ कर दो! माफ़ कर दो! रहम मौला रहम!" और ये कह के वो पीछे गिर पड़ा! दानिश आया दौड़ा दौड़ा और उसने आलम को उठाया! आलम बच गया था! शायद उस पर रहम कर दिया गया था!

आलम भाई भी अपना सा मुंह लेके वहाँ से रवाना हो गए! जो कुछ सीखा-साखा था फ़ना हो गया! रहमानी, सुलेमानी और सिफली इल्मात गँवा बैठे थे आलम भाई साहब! जहां से चले थे वहीँ आ गए! आज दरजी की दुकान कर रहे हैं, ऐसा मुझे बताया गया!

यहाँ, अनिल और विनोद के सारे महल रेत की मानिंद ढह गए थे! अब क्या किया जाए! लालच छोड़ नहीं रहा था! जमा-पूँजी ख़तम होने की कगार पर थी! फिर से हुई शुरू तलाश! फिर कोई आने वाला था यहाँ अपना सब-कुछ गंवाने!

मेरे एक आगरे के मित्र रवीश ने मुझे ये सब बताया था! मुझे पहले तो हंसी आ गयी सारी कहानी सुन के! लेकिन रवीश ने मुझसे गुहार की कि अगर ये काम हो जाए तो कई घर संवर जायेंगे! दान-पुण्य भी हो जाएगा! कई लड़कियों का कन्या-दान भी हो जाएगा! उन्होंने मुझ पर दबाव बना दिया! आखिर मैंने हाँ कह दी!

करीब ४ दिनों के बाद हम झांसी पहुँच गए! अनिल और विनोद वहीँ आये थे, यहीं से विनोद की और मेरी जान-पहचान हुई थी, उन्होंने मुझे सारी 'व्यथा' सुना दी! करीब करीब १५-२० लाख रुपये स्वाहा कर चुके थे दोनों!

"कितना सामान बताते हैं ये कारीगर वहाँ पर?" मैंने अनिल से पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी कहते हैं कि कोई गिनती ही नहीं जी" अनिल ने कहा,

"अच्छा! क्या समस्या आती है वहाँ?" मैंने पूछा,

"जब भी कोई कारीगर कुछ करता है तो उसको कोई उठा के फेंक देता है जी वहाँ" अनिल ने बताया,

"अच्छा! ठीक है, हम वहीँ चलते हैं, पहले मै जांच करूँगा" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी, जैसा आप कहें!" अनिल ने कहा,

उसके बाद हम वहाँ से बरुआ सागर के लिए रवाना हो गए! हम बरुआ सागर पहुंचे, खूबसूरत जगह है ये! रास्ते में एक प्राचीन इमारत पड़ती है 'जरा का मठ' आजकल भारतीय पुरातत्व विभाग के सरंक्षण में है ये, प्राचीन सा एक मन्दिर है! अब हम वहीँ अनिल के खेतों की तरफ चले, कच्चा रास्ता, धूल भरा! आस पास कीकर के पेड़, यही कोई २ किलोमीटर चलने के बाद हम खेतों तक पहुँच गए! खेत काफी दूर तक गए थे, एक छोर पैर हम खड़े थे और दूसरा दिखता ही नहीं था! बस अमरुद, बेर, आंवला और सब्जियां ही थीं वहाँ! और ज़मीन से निकले बड़े बड़े पत्थर! लगता था जैसे यहाँ कभी खेड़ा-पलट हुआ हो!

हम अन्दर खेतों में बने कमरों में गए! चाय बन गयी थी सो पहले चाय पी और फिर थोडा आराम किया, हाँ बाग़ के ताज़े पपीते अवश्य ही खाए!

आराम करने के बाद मै उठा, थोडा सा पूजन किया, जानने के लिए और जांचने के लिए!

मै उठा और शर्मा जी व अन्य लोगों के साथ उस जगह पहुंचा जहां पहले तीन कारीगर आये थे! वो मुझे वहाँ लेके गए! तीनों कारीगरों ने अलग अलग जगह चुनी थीं! खैर, मै आगे बढ़ा, और कलुष-मंत्र जागृत किया और अपने और शर्मा जी के नेत्रों पर फूंक दिया! दृश्य स्पष्ट होने लगा! वहाँ मुझे गैंदे के फूलों की महक आई! एक पावन माहौल! फिर चन्दन! और गाय के गले में लटकती घंटी की आवाज़! मै और आगे बढ़ा! मुझे गाय का गोबर इत्यादि दिखाई देने लगा! मै रुक गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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थोड़ी देर बाद मुझे फिर से गाय के रंभाने का स्वर सुनाई दिया! ये मुझे कोई गौशाला सी प्रतीत हुई!

मैंने शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी लगता है ये कोई गौशाला है"

"हाँ जी मुझे भी ऐसा ही लग रहा है,फूलों और चन्दन की सी महक व्याप्त है यहाँ पर" उन्होंने कहा,

"हाँ, लगता है किसी सात्विक आश्रम में आ गए हैं हम" मैंने कहा,

"निःसंदेह! मुझे भी यही अनुभूति हो रही है" वे बोले,

हम आगे बढ़ते रहे! तभी एक दम से ठहर गए! सामने देखा तो एक बड़ा सांप बैठा है! फुफकार रहा है, जैसे हमारा मार्ग रोक रहा हो! मै भी रुका और शर्मा जी भी! सांप ने भूमि पर फुफकार मारी! बार बार! हम रुक गए! मैंने तब जरुक-मंत्र पढ़ा और सांप को देखा! सांप गायब हो गया!

ये मायावी सांप था!

"गुरु जी, लगता है यहाँ सबकुछ गड़बड़ है" वे बोले,

"हाँ! लेकिन यहाँ है कौन? यहाँ किसकी सत्ता है?" मैंने कहा,

फिर सुगंध आनी बंद हो गयी! अब एक अलग सी सुगंध आई! ये तो होमाग्नि की सुगंध थी! अब मुझे भय हुआ! भय! सात्विक-भय! वाम-भय!

"शर्मा जी, इसीलिए वो सारे कारीगर भाग गए यहाँ से!" मैंने कहा,

"हाँ, और सबकुछ गँवा के गए हैं" वे बोले,

"अगर कुछ अधिक बात हुई तो हम नहीं लड़ेंगे, हाथ खड़े कर देंगे!" मैंने कहा,

:जैसा आप उचित समझें!" वो बोले,

हम वहीँ रुक कर होमाग्नि की सुगंध का स्रोत ढूंढ रहे थे! लेकिन कुछ न दिखाई दिया!

"शर्मा जी, अब चलते हैं वापिस, बाद में देखते हैं" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ठीक है" वो बोले,

मैंने मंत्र वापिस किया और वापिस हो गए! अब तक का जो मेरा अवलोकन था उसके अनुसार ये स्थान या तो कोई गौशाला या कोई आश्रम आदि रहा होगा, और वो भी सात्विक, मै सात्विक-शक्ति से लड़ना-भिड़ना नहीं चाहता था, अतः निरंतर विचार किये जा रहा था! और हाँ, ये स्थान अतुलनीय धन-सम्पदा से भरा पड़ा था, इसमें कोई संदेह नहीं था!

कित्नु एक प्रश्न अभी भी सामने खड़ा था, आखिर बलभद्र और आलम जैसे आलिमों को खाली किसने किया था? वहाँ कौन सी शक्ति व्याप्त थी? इसके लिए मुझे रात्रि समय क्रिया करने की आवश्यकता थी, अतः मैंने सारी सामग्री एवं सामान वहाँ मंगवा लिया!

रात्रि-समय १ बजे मै क्रिया में बैठा, जहां मैंने क्रिया करने का स्थान चुना था, वो उस गौशाला वाले स्थान से दूर था, मैंने अलख उठायी, मैंने क्रिया आरम्भ की, कलुष-मंत्र जागृत किया और फिर क्रिया करने लगा! मैंने अपना कारिन्दा हाज़िर किया, कारिन्दा हाज़िर हुआ, मैंने उसको पता लगाने भेजा, लेकिन कारिन्दा गया और आ गया! उसने कुछ नहीं कहा! अर्थ स्पष्ट था, वहाँ कारिन्दा घुस नहीं पा रहा था! मैंने उसको वापिस किया और एक खबीस को हाज़िर किया, खबीस ने अपना भोग लिया और अपने काम के लिए दौड़ पड़ा! ५ मिनट के बाद खबीस अपने हाथों में गीली मिट्टी लेके आया! मैंने मिट्टी वहीँ रखवा ली और खबीस वापिस हुआ!

ये मिट्टी उसी गौशाला के स्थान के नीचे की मिट्टी थी, खबीस जब भी मिट्टी लाता है तो उसका अर्थ होता है, इस से अधिक और कुछ नहीं कर सकता वो! मैंने उस मिट्टी का अवलोकन किया! मिट्टी गीली थी, उसमे चन्दन की सी सुगंध व्याप्त थी!

कारिन कुछ नहीं कर सका, खबीस जानकारी न ल सका! अब मुझे दृष्टि दौडानी थी! मैं ध्यान में बैठा! करीब आधे घंटे के बाद मुझे वहाँ, हलचल महसूस हुई, कई लोगों की आवाजाही, कुछ औरतें जो थाली में फूल, दीपक जलाए रास्ते में से गुजर रही थी, मै सड़क के मध्य में खड़ा था, एक तरफ! मैंने सीधे हाथ की तरफ देखा, आसपास हाट का सा दृश्य था, मेरी नज़र एक औरत पर गयी, उसके साथ एक पुरुष भी था, सजा-धज और ये औरत शायद


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसकी पत्नी थी, उसके नौकर-चाकर आगे पीछे चल रहे थे! मै थोडा और आगे गया, वहाँ कुछ पुरुष किसी फूस जैसी चीज़ को खंगार रहे थे! आगे जाने पर एक तालाब पड़ा, आसपास केले के और बेर आदि के वृक्ष थे, मै वहाँ से वापिस आया, फिर उसी जगह जहाँ से मैंने दृष्टि आरम्भ की थी! सड़क के मध्य!

अब मै वहाँ से मार्ग के बाएं चल पड़ा! वहाँ आगे जाने पर, गाय दिखाई दीं, काफी सारी गाय!

कुछ लोग उनको हांक रहे थे, ये लोग वेश-भूषा से बुंदेलखंड के लग रहे थे!

मै उनसे आगे गया, आगे ऊबड़-खाबड़ रास्ता था, लेकिन तभी मेरी दृष्टि वहाँ पड़ी जहां से ये सारा संचालन हो रहा था! ये एक मंदिर था, अधिक ऊंचा तो नहीं, हाँ, कोई १०-१२ फीट का, चारों तरफ से खुला!

मै वहीँ ठिठक के रुक गया! वहाँ काफी सारे लोग थे, खड़े हुए, किसी को घेर के, तभी लोगों ने सामने से हटना शुरू किया, मेरी नज़र एक बाबा पर पड़ी! वे उठे और मेरी तरफ आये, क्रोध से मुझे देखा! मेरे मुंह से बरबस निकला 'प्रणाम' लेकिन बाबा ने कोई उत्तर नहीं दिया! बाबा कोई साढ़े छह फीट लम्बे, पीले रंग का वस्त्र पहने, रुद्राक्ष एवं स्फटिक की मालाएं धारण किये ही, माथे पर त्रिपुंड बनाए हुए! चौड़ा मस्तक और ललाट! एक बार के लिए तो मेरे मन में भी भय व्याप्त हो गया!

बाबा मुड़े आर फिर वहीँ जा के बैठ गए! तभी बाबा ने अपना डंडा उठाया, और मुझे एक तरफ इशारा किया, ये बाहर जाने का रास्ता था, मै वहाँ से हटा नहीं! वहीँ खड़ा रहा! मै उनसे बात करना चाहता था, मै आगे बढ़ा, वहाँ खड़े लोग ठिठके! बाबा ने भूमि पर एक पाँव मारा! मै वहीँ रुक गया! मेरी और उनकी दृष्टि आपस में टकराई!

"वापिस चला जा इसी समय!" उन्होंने मुझे धमकाया!

"मै आपसे बात करना चाहता हूँ", मैंने कहा!

"मै किसी से बात नहीं करता" वे बोले,

"लेकिन मुझे कुछ जानना है आपसे" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैंने कहा यहाँ से लौट जा" उन्होंने गुस्से से कहा,

"आपसे बात किये बगैर नहीं जाऊंगा" मैंने कहा,

वहाँ खड़े लोग मेरी 'धृष्टता' देखर चौंक पड़े!

"नहीं!" वे बोले,

उन्होंने फिर अपना डंडा मुझ पर फेंका, मेरी दृष्टि लोप हुई, मेरी आँखें खुलीं और मेरी अलख बुझ गयी! अलख बुझने का अर्थ था एक खुली चुनौती! और अघोर का एक शाश्वत नियम है, चुनौती स्वीकार करना! मै इसीलिए उनसे बात करना चाहता था, कि मेरा आशय उनसे भिड़ना नहीं था, न मै कोई द्वन्द ही चाहता था, लेकिन अब मेरे समक्ष अघोर की लाज और गुरु की लाज थी! या तो लड़ो या फिर हार कर गुमनामी में जीवनयापन करो! मै अलख से उठा और सारी बात शर्मा जी को बताई, वे भी घबरा गए! अनिल और विनोद को आशा बंधी कि चलो कोई तो आया जो समस्या का मूल पता चला! और यहाँ मूल कटने तक की नौबत आ पड़ी थी!

अब मैंने सारी आवश्यक वस्तुएं मंगवाईं! कुछ सामान बाहर से भी लाना पड़ा, मान्सादि, मदिरादि का उचित प्रबंध हो गया! सारा सामान जुटाने में एक दिन लग गया! मैंने अपनी शक्ति से सम्पात कर यह जान लिया की वो प्रबल शक्ति है कहा, उसका केंद्र कहाँ है? मुझे पता चला और मैंने भूमि-चयन कर लिया! मैंने वहाँ से सभी को हटा दिया, केवल शर्मा जी के सिवाय, उनको मैंने एक कमरे में बिठाया था, वहाँ दूसरी अलख उठा रखी थी मैंने, वो इस लिए कि अगर ये मेरी अलख बुझ जाती है तो बाबा मुझे आवरणहीन जानकार मेरा संहार कर सकते थे! इसीलिए मैंने शर्मा जी से कह दिया था, चाहे कुछ भी हो जाए, अलख न बुझ पाए नहीं तो हम यहाँ से खाली जायेंगे या हमारे आज ये आखिरी दिन-रात होंगे!

मित्रगण! सत्व और तमस ये पुरातन समय से एक दूसरे के घोर शत्रु रहे हैं! सत्व अपने को श्रेष्ठ कहता है और तमस अपने को! ऐसा निरंतर होता रहता है! और आज भी ऐसा ही था!

मैंने स्नान किया, और फिर उसके बाद भस्म-स्नान किया, तंत्राभूषण धारण किये! और मैंने फिर मांस के टुकड़ों से बनीं मालाएं धारण कीं! सामने दो थाल


   
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श्रीशः उपदंडक
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रखे, मांस से भरे हुए, और एक बड़े से पात्र में मदिरा! पण के पत्ते, तम्बाकू के पत्ते, बरगद के पत्ते, पीपल के पत्ते, कीकर के डालें, और मानव-अस्थियाँ! फिर मानव-अस्थिमाल धारण किया! और वृहद-कपाल और बाल-कपाल का पूजन किया! अपना आसन लगाया! त्रिशूल का पूजन किया! त्रिशूल को रक्त-भोग दिया! और मैंने फिर महानाद किया! क्रिया आरम्भ हो गयी!

मैंने मांस का एक टुकड़ा उठाया, और शराब में डुबोकर मुंह में रखकर चबाया! चबाते हुए मैंने उसको अभिमंत्रित किया और अलख में भोग दिया! चढ़चड़ाहट की आवाज़ हुई और अलख ने विशाल रूप ले लिया! अब मै किसी से भी भिड़ने को तत्पर था!

मैंने बाबा को भड़काने के लिए मांस के दो टुकड़े अभिमंत्रित किये! और ठीक जहां पर गुहा-स्थान था वहाँ फेंक दिए!

जैसे जमीन फटती है, ऐसी भीषण आवाज़ हुई! भूमि हिली लेकिन फर सब शांत हो गया! मुझे आश्चर्य हुआ! मैंने अब और तीक्ष्ण-वार किया! मैंने रक्त का प्याला उठाया और अपने मुंह में भरा, फिर अभिमंत्रित किया और उस स्थान पर जाके कुल्ला कर दिया!

दो तीन क्षण कुछ न हुआ! लेकिन उसके बाद भूमि में से जगह जगह सांप, बिच्छू और कानखजूरे प्रकट होने लगे! बड़े बड़े! कोई साधारण मनुष्य देखे तो गश खा जाए! अवत्र-मंत्र जाप किया और सामने भूमि पर थूका! थूक को मिट्टी समेत उठाया और उन पर फेंक दिया! सब के सब लोप हो गए!

फिर कुछ क्षण शान्ति रही और फिर भूमि पर मुझे सामने एक बड़ा भीमकाय सांड दिखाई दिया! सींग मेरी तरफ किये हुंकार मार रहा था! एक ही टक्कर से मेरे शरीर के दो टुकड़े कर सकता था! मैंने तब अपना त्रिशूल उठाया, और उसके रक्त-पात्र में डुबोकर अपने सामने आते सांड के सामने कर दिया! 'झाआआआआआआआआअक' की आवाज़ हुई, सांड गायब हुआ लेकिन उसके खुरों से छिटकी मिट्टी मेरे शरीर पर फ़ैल गयी, नाक में, मुंह में, मुंह कसैला हो गया! मैंने शराब से कुल्ला किया और चेहरा धोया!

तभी मैंने सामने देखा, कोई १० मीटर सामने भूमि पर २ छोटे छोटे बौनेनुमा मनुष्य हाथों में तलवार लिए धीरे धीरे मेरी तरफ बढ़ रहे थे! तभी मेरे मन में मेरे दादा श्री की बतायी बात याद आई! जैसे तांत्रिक सहोदारियों को प्रसन्न


   
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श्रीशः उपदंडक
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करता है वैसे ही सात्विक मान्त्रिक शक्ति प्राप्त कर ऐसे सहोदरों को भी प्राप्त करता है! ये अमोघ होते हैं! केवल सामने ही देखते हैं! शत्रु के शरीर को बिना भेदे उसके प्राण-हरण कर लेते हैं!

मुझे वे भूमि पर स्पष्ट नहीं दिखाई दे रहे थे अतः मैंने ज्वाल-मंत्र का प्रयोग किया! दृश्य स्पष्ट हुआ! वे दो नहीं चार थे! मेरे पास इनका मुकाबला करने के लिये जाम्बुली-योद्धा था! महाभट्ट तामसिक योद्धा! बौने आगे बढे और मैंने जाम्बुली-योद्धा का आह्वान कर लिया था! जाम्बुली आगे बढ़ा और एक एक लात से उनको आकाश में उछाल दिया!

जाम्बुली-योद्धा अपना भोग जब लेता है तो वो बाद में उलटी करता है, साधक को इसका पान करना होता है! सो मैंने भी किया! उसका भोग संपन्न हुआ था! और द्वन्द और गहरा! मै अपने आसन पर मुस्तैद बैठा था, परन्तु एक अप्रत्याशित भय ने मुझे जकड भी रखा था! मुझे एक एक पल घंटों के समान प्रतीत हो रहा था! न जाने कब क्या हो जाए! अचानक भूमि में हलचल हुई! मेरे सामने रखी मदिरा में तरंगें दौड़ गयीं!

मेरी नज़र सामने गयी! दो दिव्य ज्योति पुंज दिखाई दिए! इस से पहले कि मै समझता वो मेरे सम्मुख आ गए! दोनों ने मनुष्य देह धारण कर ली! काले केश, नीचे घुटनों तक! हाथ में कमंडल और एक दिव्य-माला! वे दोनों एक जैसे ही थे, दोनों में भेद कर पाना असंभव था! जैसे एक दूसरे की प्रतिकृति हों! वो मेरे सम्मुख ५ फीट दूर रुक गए! उनमे से एक बोला, "तुझसे कहा गया था कि तू वापिस जा"

'मै केवल बाबा से वार्तालाप करना चाहता था, उन्होंने मुझे दुत्कार दिया और कामरी उछाल कर मुझे चुनौती दे डाली, मै विवश हूँ अब" मैंने कहा,

"अभी भी समय है,लौट जा" वो बोला,

"मुझे उसने वार्तालाप करना है, तदोपरान्त मै लौट जाऊँगा" मैंने कहा,

"वो मरघटी से वार्तालाप नहीं करते" वो बोला,

"तो मै नहीं जाऊँगा" मैंने कहा,

"हठधर्मिता का त्याग कर और चलाजा वापिस" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं कदापि नहीं" मैंने कहा,

उन दोनों ने एक दूसरे को देखा फिर दूसरा बोला,

"तू यहाँ धन के लिए आया है न?" वो बोला,

"नहीं, मुझे धन नहीं चाहिए, मै चुनौती स्वीकार कर चुका हूँ" मैंने कहा,

"तू उनके सामने ठहर नहीं सकता, इसीलिए समझा रहा हूँ, वापिस चला जा" वो फिर बोला,

"असंभव" मैंने कहा,

उन्होंने फिर एक दूसरे को देखा और एक उनमे से बिना पीछे मुड़े ही पीछे चला गया!

"तो ठीक है, जैसा तू उचित समझे" वो बोला,

"मै निर्णय ले चुका हूँ, मै विवश हूँ" मैंने कहा,

अब वो भी बिना पीछे मुड़े पीछे हो गया! और फिर पहले वाले के पास पहुंचा और लोप हो गए दोनों! अनिष्ट की आशंका मेरे ह्रदय में बलवती हो गयी अब!

मैंने फिर से अलख में भोग दिया! अलख भड़की और मेरे मुख-मंडल तक उसकी लपटें आ गयीं!

मैंने अभय-सिद्धि का जाप किया और फिर जाप में मग्न हो गया!

सहसा मुझे उन्मत्त पवन-वेग महसूस हुआ! मेरी अलखाग्नि एक ओर झुक गयी! वातावरण में चन्दन और यज्ञ-सुगंध फ़ैल गयी! मैंने सामने देखा तो वहाँ एक दैवीय दृश्य देखने को मिला! लगा जैसे भूमि में से एक झरना फूटा हो और वापिस फिर वहीँ गिर गया हो! ऐसे झरने वहाँ लगातार फूटने लगे! ये मेरी समझ से बाहर था, मै टकटकी लगाए वहाँ अपलक देखता रहा!

फिर फूलों की वर्षा आरम्भ हुई! जैसे किसी के आगमन के लिए आकाश से फूल बरसाए जा रहे हों! ये सब महा-अलौकिक था! ऐसा दृश्य मैंने इस से पहले न देखा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक तो मन में भय और दूसरा सामने का विहंगम दृश्य! सब कुछ विचित्र था! फिर मुझे वहाँ दो और मनुष्य दिखाई दिए! वृद्ध और सफ़ेद वस्त्र धारण किये! लम्बी लम्बी दाढ़ी, श्वेत! कानों में कुंडल और केश-राशि आपस में गुंथी हुई! हाथों में कमंडल! और त्रिध्वज! भुजाओं में रुद्राक्ष और सप्त्माल धारण किये हुए! उनमे से एक मेरे सामने की ओर आया! मुझे निःसंदेह भय का भास् हुआ! मैंने अपना त्रिशूल भूमि से उखाड़ कर अपने हाथों में पकड़ लिया! मेरे सामने आते ही बोला, " जानता है तू कहाँ कहाँ खड़ा है?"

"नहीं, नहीं पता मुझे, आप बताएं" मैंने कहा,

"सुन! ये ऋषि अत्रांग का आश्रम है" वो बोला,

"अच्छा! मै नहीं जानता कौन हैं वे?" मैंने कहा,

"अब चला जा, मैंने तुझे बता दिया! क्या ये पर्याप्त नहीं?" उसने पूछा,

"मै चला जाऊँगा, अवश्य ही चला जाऊँगा हे सत्पुरुषो! परन्तु मुझे ऋषि अत्रांग से वार्तालाप करनी है" मैंने कहा,

"तुम मरघटी हो और अत्रांग मरघट वालों से कोई वार्तालाप नहीं करते!" वे बोला, "उचित है! मै उनको कुपित नहीं करना चाहता, मै यहाँ से चला जाऊँगा, अवश्य चला जाऊँगा, मुझे उसका आशीर्वाद दिला दीजिये हे सत्पुरुषो!" मैंने कहा,

उन दोनों ने मुझे ध्यान से देखा और फिर लोप हो गए! वो बिना कुछ कहे लोप हुए थे, मै फिर से भय-जाल में फंस गया था!

तभी शीतल वायु वेग प्रतीत हुआ! रात्रि के उस समय भी प्रकाश तेज हो गया! मेरी अलख एक मोमबत्ती के समान सी प्रतीत होने लगी! लगा मै भूमि से ऊपर उठ गया हूँ, गुरुत्व ने मेरा साथ छोड़ दिया है, परन्तु मै मृत नहीं था, ये मेरे समक्ष हो रहा था!

बेल-वृक्ष के फूलों की बरसात हुई! सुगंधी-पूर्ण वातावरण में आँखें मुंदने लगीं! जैसे किसी मोहिनी-विद्या का प्रभाव हुआ हो! मेरे समक्ष प्रकाश चुन्धियाने लगा, मुझे दृश्य देखने में कठिनाई हुई, मै हिल्भी नहीं पा रहा था, हाथ में त्रिशूल जैसे जडत्व-मान हो गया था! तभी मेरे समक्ष कोई ४ फीट दूर एक


   
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श्रीशः उपदंडक
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मनुष्य प्रकट हुआ! मैंने उसको देखा तो मेरी चेतना लौटने लगी! मै फिर से भूमंडल से जुड़ गया! मैंने देखा, एक साढ़े छह या सात फीट के एक हृष्ट-पुष्ट साधू! पीत-वस्त्रधारी! हाथ में एक कामरी लिए! कामरी पर चिन्हित सूर्य-चन्द्र एवं वृक्ष-पताकाएं! यही है ऋषि अत्रांग! मैंने शाष्टांग नमस्कार किया मैंने तभी उसने कहा "प्रणाम!"

घोर गर्जन परन्तु सौम्य स्वर में मुझे उत्तर प्राप्त हुआ 'प्रणाम!"

मै धन्य हो गया! मेरा भय समाप्त हो गया! लेशमात्र भी न रहा! नेत्रों से अविरोधित अश्रु निकल पड़े! मै भूमि पर बैठ गया!

"आप कौन है हे सत्पुरुष?" मैंने हाथ जोड़ कर पूछा,

"मै ऋषि अत्रांग हूँ" वे बोले,

"आप कब से हैं यहाँ पर हे धर्मी-पुरुष?" मैंने पूछा,

"अनगिनत वर्ष हो गए! वो जो तुमने मार्ग में एक सजा-धजा युवक देखा था वो यहाँ का राजा विद्याधर है, चंदेलों में धंग का प्रपौत्र!"

"ओह! मुझे मेरी दृष्टता के लिए क्षमा कर दीजिये" मैंने कहा,

"तुमने कोई अपराध नहीं किया, अपराध-बोध से ग्रसित न हों" वे बोले,

"मेरा अहोभाग्य हे ऋषि अत्रांग!" मैंने कहा,

"विद्याधर ने ये आश्रम हमे दान दिया था, यहाँ उसका राजकीय-कोष भी है, जो धन तुमने देखा वो उसीका है, और हम उसके रक्षक! यहाँ मेरे गुरु की समाधि भी है, हम यहाँ कर्तव्यपालन कर रहे हैं!" उन्होंने बताया,

"मेरे लिए कोई आज्ञा हे महापुरुष?" मैंने कहा,

"हाँ, इस भू-स्वामी से कह के यहाँ एक गौशाला बनवाई जाए, समृद्धि स्वयं आ जायेगी" वे बोले, और आशीर्वाद के रूप में हाथ उठाया!

"जैसी आज्ञा महामुनि!" मैंने नेत्र बंद करके कहा, और जब नेत्र खोले तो सामने कुछ नहीं था! सब लोप हो गया था! मै भूमि पर पछाड़ खा के गिर पड़ा!


   
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