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वर्ष २००८ दिल्ली के पास धारु-हेड़ा, गुडगाँव (हरियाणा) की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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बदन की खूबसूरती को मैंने उसके पाँव से लेकर सर तक देखा! उसने शर्मा के आँखें नीचे कर लीं!

"कितनी खूबसूरत हो तुम!" मैंने कहा!

वो चुप रही! बिलकुल चुप!

"मै आ गया न हाजिरा! जैसा मैंने कहा था!" मैंने उसके पास आ के कहा!

पास आया तो उसके बदन से बेला के फूलों कि मुग्ध करने वाली सुगंध आई! मै उसके और करीब गया! और मेरे मन में उसको छोने की लालसा जन्म लेने लगी!

"तुम कुछ बोलती क्यूँ नहीं हो?" मैंने पूछा,

वो फिर से चुप रही!

"ऐसा मत करो, मै चला जाऊँगा फिर यहाँ से!" मैंने कहा,

वो फिर भी चुप रही!

अब मुझे अटपटा सा लगा, मै वापिस पीछे गया और वापिस जाने के लिए जैसे ही पलटा, उसने मेरा हाथ पकड़ लिया! मेरे बदन में झनझनाहट दौड़ गयी! उसकी वो छुअन मै शब्दों में बयान नहीं कर सकता! मेरा इंसानी दिल मेरे अन्दर तेजी से धड़कने लगा था! नसों में खून जोर मारने लगा था!

"ऐसा ना कहिये आप" उसने मुझसे कहा,

"तुमने मुझे कोई जवाब भी तो नहीं दिया था ना?" मैंने बताया  "मुझे समझ नहीं आ रहा था की मै क्या कहूँ आपसे" उसने कहा,

"एक बात तो बताओ हाजिरा, तुम हया में क्यूँ डूबी हो?" मैंने पूछा,

"आपको ऐसा लगता है?" उसने आँखें मिला के कहा अब!

"हाँ! मुझे ऐसा ही लग रहा है" मैंने बताया,

"आप मेरे मोहसिन हैं, मै भला आपसे क्यूँ हयापोश होउंगी?" उसने कहा,

"एक तो तुम बला की खूबसूरत हो, और ऊपर से हयापोश होकर और मेरे दिल में नश्तर चुभोये जा रही हो!" मैंने मुस्कुरा के कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब वो सच में ही शर्मा गयी! मै उसके पास गया थोडा और बोला, "एक जिन्नी! और एक आदमजात से शर्म?"

"ऐसा क्यूँ कहा आपने?" उसने थोडा नाराजगी से कहा,

"जो सच है, वही कहा मैंने!" मैंने कहा,

"मै कोई फर्क नहीं समझती ऐसा!" उसने कहा,

"तो फिर दूर क्यूँ खड़ी हो?" मैंने थोडा सा कटाक्ष किया!

शर्म के मारे आँखें नीची कर लीं उसने!

"मेरे पास आओ हाजिर, मेरे पास वक़्त बहुत कम है यहाँ ठहरने के लिए!" मैंने बताया,

"आप यहीं रहें, मेरे साथ" उसने नीचे गर्दन झुकाए हुए ही कहा,

"नहीं हाजिरा, तुम्हारी दुनिया बेहद अलग है मेरी दुनिया से! ऐसा मुमकिन नहीं" मैंने कहा,

"मै नामुमकिन को मुमकिन कर सकती हूँ अगर आप हाँ कहें तो" उसने धीरे से कहा,

"तुम्हारा बेहद शुक्रिया हाजिरा!" मैंने कहा और उसका गोरा हाथ पकड़ लिया! वो लरज गयी!

कुम्हलाने लगी! मैंने उसको अपनी ओर खींचा, वो आ गयी! मेरे बिलकुल ठीक सामने! जहां वो मेरी साँसों की आवाज़ भी सुन सकती थी!

"तुम्हारी बहुत याद आई मुझे बाद में हाजिरा!" मैंने बताया

"फिर भी आप एक बार भी नहीं आये, हमेशा मै ही आती हूँ" उसने कहा,

"तो तुमको बुलाता कौन है? मै ना?" मैंने हंसके कहा,

"आप कभी मेरे घर नहीं आते, कभी याद नहीं आती हमारी आपको?" उसने पूछा,

"हाँ कह सकती हो तुम ऐसा हाजिरा, सुनो, मेरी दुनिया में और तुम्हारी दुनिया में ये ही फर्क है, तुम्हारे यहाँ काम तुम्हारी मर्जी से ही हो जाते हैं, मेरी दुनिया में तो रोज़ कुआँ खोदो और रोज़ पानी पियो!" मैंने कहा,

उसने मुझे अपनी बड़ी बड़ी आँखों से देखा! कभी मेरी एक आँख कभी दूसरी आँख! और मै उसकी आँखों की ये हरक़त देख रहा था, उसकी बड़ी बड़ी आँखों में इश्क उतर आया था! एक आदमजात से इश्क!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने फ़ौरन अपने हाथ मेरी कमर में डाले और मेरे से चस्पा हो गयी! सच कहता हूँ, मुलाक़ात तो मै कभी महीने में दो महीनों में कर ही लेता हूँ, लेकिन वो मुझ से चस्पा इस तरह पहली बार ही हुई थी!

मेरा दिल धड़क गया था! उसके बदन की सुगंध मुझे मदहोश करने में लगी थी और मेरे नथुने उसकी सुगंध को छोड़ ही नहीं रहे थे! मैंने भी अपने हाथों से उसकी कमर जकड ली! उसके केश मेरे माथे पर लग रहे थे! उसका बदन मेरे लिए एक अनोखा अनुभव था! मै आपको बता नहीं सकता मित्रगण! उसने अपना सर मेरे कंधे पर रखा हुआ था और फिर धीरे से बोली, "आप मुझे कभी नहीं छोड़ना" ये 'छोड़ना' अलफ़ाज़ बोलकर उसने मुझे और अपनी जकड में ले लिया!

"नहीं छोडूंगा तुमको हाजिरा मै" मैंने कहा!

अब वो मुझसे और चस्पा हो गयी! मेरी दोनों टांगों के बीच अपनी जांघ टिका दी! मेरे होश काबिज़ रखने में मुझे ऐसा लगा जैसे सदियाँ बीत गयी हों!

थोड़ी देर ऐसा ही रहा, मैंने अपने सभी 'ख़याल' जज़्ब कर लिए! वो मुझ से हटी और बोली, "आप मुझे अपने साथ क्यूँ नहीं रख सकते, हमेशा?"

"नहीं हाजिरा! मेरी दुनिया बहुत गन्दी है! मुझे ख़ुशी है की तुम मेरे हाथ लगी, कहीं किसी गंदे ईमान वाले के हाथ लगती तो ना जाने क्या होता!" मैंने कहा,

"रख लो न, मै आपकी देख-रेख करूंगी, जो कहोगे, वैसा करूंगी" उसने प्यार से कहा,

"नहीं हाजिरा! मेरा जब भी मन होता है तुमसे बात करने का मै तुमको बुला लेता हूँ!" मैंने बताया!

"मुझे अपनी बेगम बना लो ना?" उसने याचना भरे स्वर में कहा,

"ऐसा मुमकिन नहीं है हाजिरा, मै आदमजात हूँ, मेरी भी जिंदगी एक दिन ख़तम हो जायेगी! तुम आतिश हो और मै महज़ खल्क-ए-खाक!" मैंने कहा,

उसने मेरे ऐसा कहते ही मेरे होंठों पर अपना हाथ रख दिया और बोली, "ऐसा न कहिये आप, मुझे अच्छा नहीं लगा ऐसा सुनके"

"जो हकीकत है, मैंने वही कहा है हाजिरा!" मैंने उसका हाथ हटाते हुए कहा! "अब न बोलना ऐसा कभी, वायदा कीजिये आप!" उसने प्यार से कहा,

"ठीक है हाजिरा, अगर तुम्हे पसंद नहीं तो मै नहीं बोलूँगा आइन्दा कभी ऐसा!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसके बाद हाजिरा ने मुझे उस कमरे से भी निकाल एक दूसरे कमरे में ले गयी, ये कमरा बेहद ख़ास था! मोटे मोटे बेल-बूटे बने हुए थे दीवारों पर, सुर्ख लाल रंग के! बड़े बड़े परदे गहरे नीले रंग के और जब मैंने एक को छू कर देखा तो वो सोने के तारों से बने थे! उसमे बेशकीमती जवाहरात जड़े हुए थे! छत की तो जैसे सजावट ऐसी की गयी थी कि जैसे समस्त ब्रह्मांड को छत पर अन्कीर्ण कर दिया गया हो! मैंने विस्मय से एक एक चीज़ देख रहा था! मैंने उस बड़े से कमरे के कोने देखे, वहाँ सोने के कडूले लटक रहे थे! और वहाँ पर एक बड़ा सा गोल पलंग पड़ा था, लगता था कि उसके पाए संगमरमर से तराशे गये हों! मैंने एक एक वैभव देख विस्मित था! तभी उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा, मैंने पीछे मुड के देखा, वो हलकी सी मुस्कराहट अपने होंठों पर लिए मुझे ही देख रही थी! वो समझ गयी थी कि मै क्यूँ चकित हूँ! उसने मेरे चेहरे को अपने हाथों में लिया और बोली," मेरे बन जाओ हमेशा के लिए"

उसने ऐसा कहा और शर्म के से कुछ भाव उसके चेहरे पर आये, मै भांप गया था उसका वो बदला हुआ सा व्यवहार! जब उसने अपने आखिर अलफ़ाज़ कहे थे तो उसकी आवाज़ में एक लरज थी, एक ऐसी लरज कि मुझे लगा, जैसे के मै अपने आदमजात वजूद को जैसे भूल ही गया हूँ! मुझे न जाने ऐसा क्यूँ लगा कि मेरे सामने मेरी वो महबूबा कड़ी है जिसकी तलाश मै न जाने कब से कर रहा हूँ!

उसने मेरा चेहरा छोड़ा और मेरे करीब आ गयी! मैंने उसको उसके कंधे से पकड़ के अपनी ओर खींचा, अब वो मेरे ठीक सामने थी! मैंने उसकी काली महीन नकाब उसके होठों से हटा दी, उसके सुर्ख होंठ देख मै अपने आपे में ना रह सका! मैंने उसको और थोडा खींचा अपनी ओर और उसके माथे पर एक चुम्बन दे दिया! उसने मदहोशी जैसे आलम में अपनी आँखें बंद कर लीं! मैंने उसके सुर्ख गालों पर एक और चुम्बन दिया! उसके गले और चिबुक पर भी चुम्बन दिया! अब वो मुझसे फिर से चस्पा हो गयी! अब मैंने उसको अपनी भुजाओं में जकड लिया! मुझ पर उसका नशा हावी हो गया था! मेरे साथ से वक़्त का एक एक क़तरा निकले जा रहा था, जैसे कि किसी की बंद मुट्ठी से सूखी रेत निकल जाती है! मै बिस्तर पर बैठा और उसको भी वहीँ बिठा लिया! वो आहिस्ता से नीचे बैठ गयी! मै अपने होंठ उसके कानों तक ले गया और धीरे से कहा, "हाजिरा! काश कि मै जिन्न होता, मै तुमको खुद सजाता! तुम्हे हमेशा के लिए अपने दिल में क़ैद कर लेता! कितना हंसी होते वो पल जब मै तुम्हे एक खाविंद की तरह तुमको अपने आगोश में लेता! तुम्हारा खाविंद!"

"मुझे अपने आगोश में लीजिये अभी" उसने नीचे चेहरा करके कहा,

"नहीं खाविंद के मानिंद तो नहीं हाँ, एक महबूब की तरह मै तुमको अपने आगोश में लूँगा!" मैंने कहा और उसको अपने आगोश में ले लिया! वो जैसे कराह सी उठी! एक अनजान सी


   
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श्रीशः उपदंडक
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कराह! एक मीठे दर्द की सी कराह! उसने भी मुझे अपने आगोश में ले लिया! मेरे बदन में जैसे काम-प्रदाह भड़क उठी! लेकिन ऐसा होना मुमकिन नहीं था! एक आदमजात उसे झूठा करे, ये हरगिज़ नहीं हो सकता!

"हाजिरा!" मैंने कहा, और मैंने उसका चेहरा अपने हाथों में लिया! फिर कहा, "सुनो हाजिर, मै अगर तुम्हारी मुहब्बत में पड़ गया तो मै खुद ही अपना कैदी हो जाऊँगा!"

"और जो आपने मुझे क़ैद किया है अपनी मुहब्बत में उसका क्या? कोई कीमत नहीं उसकी? क्यूंकि मै आदमजात नहीं हूँ? महज़ इसलिए?" उसने एक शिकायत सी की!

"महज़? हाजिरा ये अलफ़ाज़ महज़ तुम्हारे लिए बेहद छोटा है, एक तिनके की तरह, लेकिन मेरे लिए ये अलफ़ाज़ एक पहाड़ जैसा है!" मैंने कहा,

"मै वो पहाड़ हटा भी सकती हूँ, आप हुक्म तो करें एक दफा!" उसने फिर आँखें नीचे करते हुए कहा,

"नहीं हाजिरा!" मैंने कहा और बिस्तर से उठ गया! उसने मेरा हाथ पकड़ा और फिर से मुझे नीचे बिठा लिया, अब वो लेटी और मुझे अपने ऊपर खींच लिया! मेरी और उसकी आँखें इ दूसरे से मिलीं, आँखों ही आँखों में न जाने कितने हां, और कितने ना के सवाल-जवाब आये गए हो गए!

"हाजिरा, मुझसे एक वायदा करो!" मैंने कहा,

"फरमाएं आप" उसने कहा,

"सुनो, मै कोई आतिशजात नहीं हूँ, मै आदमजात हूँ! कुछ ऐसा कहूँगा कि सोच समझ के ही वायदा करना, मजबूर न होना, जो बेहतर लगे वही वायदा करना, मंजूर?"

"जी मंजूर, आप फरमाएं" उसने कहा,

"तो सुनो हाजिरा, ऐसा नहीं है कि मै तुमसे मुहब्बत नहीं करता, मै करता हूँ, बेपनाह मुहब्बत! लेकिन मै आदमजात हूँ, लालच मुझ में कूट कूट के भरा है, ये मेरा है, मेरा ही रहेगा, ऐसे ख़याल हम आदमजातों के होते हैं! मै चाहता हूँ कि तुम हमेशा मेरी ही बनके रहो, जब तक मै फना नहीं हो जाता! इस वायदे की हद वहाँ ख़तम हो जाती है!" मैंने कहा, "ज़रा खुलासा करें आप" उसने कहा और संजीदा हो बिस्तर से खड़ी हो गयी! मैंने उसके एक हाथ को उठाया और अपने दिल पर लगाया, और फिर उसकी आँखों में एकटक देखा! मैंने उसको और पास खींचा, और


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपने सीने से लगाया और कहा, "मै ये नहीं चाहूँगा कि तुम्हारा बदन किसी और के आगोश में आये"

मैंने इतना कहा और वो मुझसे दूर हो गयी! हैरत से! लेकिन आँखों में सवाल का ज़हर झलक रहा था! वो धीरे से मेरे सामने आई और बोली, "आप ऐसा ख़याल अपने ज़हन से निकाल दें, हमेशा के लिए, मै आपकी ही हूँ, हमेशा आपकी बनके रहूंगी, ये मेरा वायदा है"

उसने कहा और मुझसे आलिंगनबद्ध हो गयी! मै उसके इस प्रेम-भाव को देखा चकित न हुआ, क्यूंकि मुझे उसका जवाब मालूम था!

"वायदा?" मैंने उसकी कमर पर अपना हाथ फेरते हुए कहा,

"मेरा वायदा है आपसे" उसने कहा,

"हाजिरा, मुझे मालूम है कि तुम्हारी मर्जी के बिना कुछ नहीं होगा, कभी जिंदगी में ऐसा लगे कि तुम्हारी मर्जी कुचली जा रही है तो मुझे याद करना" मैंने कहा,

"ऐसा कभी नहीं होगा" उसने मुझे और कास के पकड़ा,

"हाजिर, मेरे पास वक़्त कम है, मुझे अब जाना होगा, जो कहना था वो कह दिया" मैंने कहा,

"नहीं आप ना जाइये अभी, मै आज बेहद खुश हूँ, चंद लम्हे और इसी तरह गुजार लीजिये मेरे साथ, मै गुजारिश करती हूँ आपसे" उसने मुझसे लिपटे लिपटे ही कहा!

"हाजिर, ये जगह छोड़ कर कहीं न जाना कभी, बाहर की इंसानी दुनिया तुम्हारे लिए नहीं है" मैंने कहा,

"कभी नहीं जाउंगी" उसने कहा,

"मै तुम्हे इल्मात से बुलाता हूँ, तुम्हे महफूज़ रखता हूँ हर बला से, कभी भी मेरे बिना इल्मात बाहर न निकलना" मैंने कहा,

"नहीं कभी नहीं निकलूंगी मै" उसने कहा,

"हो सकता है, मै कभी तीन महीने, छह महीने तक ना आ पाऊं, समझ जाना मेरी मजबूरी है कोई" मैंने बताया,

"नहीं छह महीने नहीं, मै नहीं रह सकती आपके इन छह महीनों तक" उसने कहा,

"मुहब्बत करती हो ना मुझसे?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बेपनाह मुहब्बत" उसने कहा,

"मेरी बात मान जाओ फिर!" मैंने कहा,

"अच्छा ठीक है, लेकिन मुझे दस्तक देते रहना, बोलिए?" उसने लरजते हुए कहा,

"मंजूर! दस्तक ज़रूर दूंगा" मैंने बताया,

अब मै उसको अपने सीने से हटाना चाहता था, लेकिन वो हट ही नहीं रही थी! मै जितना हटाता वो उतना करीब हो जाती थी!

"एक बात कहूँ हाजिरा?" मैंने पूछा,

"जी कहिये, आपको इजाज़त की ज़रुरत नहीं है" उसने कहा,

"मै अगर अपना आप खो जाऊं कभी, या अभी और फिर..........!" मैंने कहा,

"फिर? फिर क्या? जल्दी बताइये" उसने कहा,

"फिर तुम जानती हो कि क्या होगा, नहीं जानती क्या?" मैंने कहा,

"आप पहेलियाँ न बुझायें, साफ़ साफ़ कहें न" उसने कहा,

"चलो छोडो!" मैंने जानबूझकर ऐसा कहा!

"नहीं आप मुझे बताइये" उसने जिद सी पकड़ी,

"जाने दो न!" मैंने कहा,

"नहीं आपका ये फिर क्या है, मुझे समझाइये आप, अभी" उसने कहा,

"ठीक है बताता हूँ, मेरे सामने आओ, ठीक सामने!" मैंने कहा,

उसने मुझे छोड़ा और सर झुकाए खड़ी हो गयी!

"जानकार भी अनजान क्यूँ बनती हो हाजिरा?" मैंने कहा,

"नहीं आप मुझे बताइये अभी, मै बेताब हूँ जानने के लिए" उसने कहा,

"तो फिर मेरी आँखों में आँखें डालो!" मैंने कहा,

उसने आँखें ऊपर नहीं कीं अपनी! मैंने अपने हाथ से उसका चेहरा ऊपर उठाया! और जब उठाया तो देखा उसने आँखें मूँद रखी हैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आँखें खोलो हाजिरा" मैंने कहा,

उसने धीरे धीरे आँखें खोलीं और मेरी आँखों में आँखें डालीं!

"अब बताइये, फिर?" उसने धीरे से बोला,

"फिर!!! कभी फिर! आज नहीं" मैंने कहा,

"नहीं आज ही बताइये अभी" उसने कहा,

"बताता हूँ, अगर मै अपना आपा खो जाऊं तो फिर तुम क्या करोगी?" मैंने पूछा,

"मतलब?" उसने पूछा,

"मतलब, हाँ करोगी या ना" मैंने मजाक सा किया!

"आपके लिए मेरे गले से ना कभी नहीं निकलेगी!" उसने कहा!  "हाजिरा! तभी तो मै डरता हूँ!" मैंने कहा,

"डरते हैं? किस से?" उसने पूछा,

"उस लम्हे से जब मै ऐसी रौ में कहीं बह ना जाऊं!" मैंने बताया,

"एक बात कहूँ?" उसने पूछा,

"कहो, तुम्हे भी इजाज़त की ज़रुरत नहीं है हाजिरा!" मैंने कहा,

"मना तो ना करोगे आप?" उसने शर्म से पूछा,

"सोच के बताऊंगा मै तुमको!" मैंने कहा,

"मेरे लिए भी सोचोगे?" उसने ऐसा पूछा, ऐसे लहजे से पूछा, कि मुझे कुछ लम्हों के लिए समझ ही नहीं आया कि इस सवाल का जवाब मै क्या दूँ!

"ठीक है, पूछो" मैंने कहा,

"मना तो ना करोगे?" उसने फिर से पूछा,

"निकाह की बात ना करना, बस" मैंने कहा,

"नहीं करूंगी, मंजूर?" उसने पूछा,

"मंजूर" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सोचोगे तो नहीं?" उसने पूछा,

"अ..ठीक है, नहीं सोचूंगा!" मैंने कहा,

"जो मै मांग रही हूँ वो देना होगा!" उसने मुस्कुरा के कहा,

"ठीक है, मांगो" मैंने कह तो दिया लेकिन घबराहट मेरे मन में घुस गयी!

"मुझे हर माह की दो चाँद रातें आपके साथ चाहियें" उसने कहा और मुझसे लिपट गयी!

"ये क्या मांग रही हो हाजिरा?" मैंने उस से पूछा,

"आप दे दीजिये मुझे दो चाँद रातें, देंगे ना आप, बताइये?" उसने पूछा,

मै चूप रहा, क्या बोलूं और क्या नहीं, फंस गया मै, हाँ बोलूं तो मुनासिब नहीं, ना बोलूं तो उसका दिल दरक जाता है!

"आपने खुद कहा था, सोचेंगे नहीं, अब जवाब दीजिये मुझे" उसने पूछा,

"ठीक है, मुझे मंजूर है, दो चाँद रातें तुम्हारी हुईं!" मैंने कहा,

अब उसने अपना सर मेरी छाती से हटाया और फिर अपना चेहरा मेरे करीब लायी, उसने मुझे मेरे माथे पर चूमा और अपनी गर्दन मेरे होठों की तरफ करके उठायी! मैंने तभी उसको अपनी ओर खींचा और उसकी गर्दन पर चूम लिया!

वो घूमी और अपनी पीठ मेरी तरफ की और मुझ से सट गयी! मैंने अपने दोनों हाथों में उसको क़ैद कर लिया! मेरे हाथों को उसके गोटे लगे कपड़ों की छुअन महसूस हुई! मैंने अपने हाथ उसके वक्ष पर रख दिए! उसने मेरे हाथों पर अपने हाथ रख दिए! वक़्त जैसे थम गया! मै खो गया! मै मै ना रहा! हाजिरा का हर स्पर्श मेरे अन्दर चिंगारी भड़काने लगा था, मुझे फिर से खून में तेजी महसूस हुई! मेरा दिल जोर जोर से धड़का लेकिन मेरा बेइमान मन!! उसने मुझे उस से अलग ना किया!

उसका मखमली बदन मेरे बदन में आग लगा रहा था, उसकी महक मुझे मदहोश करने पे तुली थी! मै होशोहवास पर काबू बनाए रखता तो मेरा बदन ही मुझसे बग़ावत कर देता! कुछ और लम्हे बीते! इसी तरह! उस अजीब से सुख में मेरी आँखें अपने आप बंद हो जाया करती थीं, मै फिर खोलता और फिर बंद!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैंने उसको अपने आप से हटाने की कोशिश की, लेकिन मेरे हाथ मेरे साथ ही धोखा कर रहे थे! मै हटाना चाह रहा था, लेकिन वो सुख मुझे ऐसा करने नहीं दे रहा था, मै विवेक और काम की दो नावों में खड़ा डगमगा रहा था!

फिर भी मैंने उसको हटाने की कोशिश की, मैंने थोडा जोर लगाया, अपने हाथ उस से हटाये, मैंने अपने और उसके बीच एक हल्का सा फांसला बना लिया लेकिन तभी! तभी उसने अपने हाथ नीचे किये और घुमाते हुए, मेरी कमर पर रख दिए! और मुझे खींच कर अपने से सटा लिया! मेरा तो सारा वजूद ही हिल गया! मै मजबूर सा खड़ा अगले लम्हे का इंतजार कर रहा था! अब मुझसे रहा ना गया! मैंने उस से कहा, "हाजिर, मेरी जान निकल जायेगी, मुझसे हटो तुम"

"नहीं मेरे मोहसिन, ना जाने ऐसा लम्हा कभी आये ना आये" उसने कहा,

"समझो मेरी मुसीबत तुम हाजिरा" मैंने धीरे से कहा,

"आज बह जाइये ना रौ में आप" उसने भी हलके से कहा और अपने सर को पीछे किया मेरे कंधे पर रखा! उसके रेशमी बाल मुझे और मदहोश करने लगे!

"नहीं हाजिरा, अभी नहीं" मैंने कहा,

"मै मदहोश हूँ, आपके लिए, मुझे होश में ना लाइए अब" उसने नशे की सी हालत में ऐसा कहा,

"नहीं हाजिरा, नहीं, तुम हटो, समझो एक आदमजात की फजीहत!" मैंने कहा,

"अभी नहीं, थोडा और रुकिए ना! उसने कहा,

"हाजिरा, नहीं, समझो, समझो मेरा मतलब!" मैंने कहा लेकिन हाजिरा नहीं हटी! मेरे अन्दर एक सैलाब जोर मार रहा था! कभी भी किनारा तोड़ सकता था! मैंने उस से कहा, "हाजिरा, हाजिरा!"

"कहिये आप" उसने कहा,

"हटो अभी" मैंने उसको कहा,

"नहीं, मै नहीं हटूंगी, आप हटा दीजिये मुझे, अगर आप चाहें तो" उसने कहा,

उफ्फ्फ्फ़! कैसे अजीब हालात हैं मेरे सामने!

"नहीं, हटो अभी, मुझे छोडो, हाजिरा" मैंने कहा एक बार नहीं कई बार!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाजिरा, समझा करो, समझा करो" मैंने कहा,

"नहीं मै नहीं जानती" उसने कहा और मुझे और कस लिया! मेरी साँसें अब गरम हो गयीं थीं! मै ऐसा महसूस कर रहा था कि जैसे कुँए के पास आकर भी मै प्यास ही रह गया!

"हाजिरा, जिद ना करो, मुझे वापिस भी जा है, समझा करो" मैंने कहा,

मेरे वापिस जाने की बात सुन वो हट गयी! मुझे ऐसा लगा कि जैसे मै किसी दमघोंटू पिंजरे से बाहर आया हूँ! आज़ाद हो कर!

"हाजिरा! तुम.........तुम......" मेरे अलफ़ाज़ फंस के रह गए मेरे गले में!

"सुनिए! चाँद रात को ना कहियेगा मुझे हटने को" उसने मुस्कुरा के कहा,

"नहीं कहूँगा!" मैंने कहा,

मै थक गया था इस कशमकश में! उसने मुझे देखा और मुस्कुराई! बोली, "सुनिए, मुझे अपने साथ रखिये ना, मै कैसे रह पाउंगी अब आज के बाद?"

"हाजिरा, काश! काश, बस काश!" मैंने अपनी बात ये कह के ख़तम की!

"मेरे सामने काश मत कहा कीजिये आप, मुझे घबराहट हो जाती है" उसने कहा,

"ठीक है, नहीं कहूँगा!" मैंने कहा,

"आपके लिए कुछ लाऊं?" उसने पूछा,

"क्या, मसलन?" मैंने पूछा,

"है एक ख़ास चीज़!" उसने कहा,

"ठीक है, ले आओ" मैंने कहा,

वो गयी और कुछ देर बाद एक गिलास लाई! मेरे हाथ में दिया और बोली, "इसे पी लीजिये आप"

"ये क्या है?" मैंने पूछा,

"ये ना पूछिए आप" उसने कहा,

"ठीक है, नहीं पूछता!" मैंने कहा और वो गिलास में भरा गुलाबी सा शरबत पी लिया! पीते ही चुस्ती आ गयी! थकावट ख़तम हो गयी! हिलोरें शांत हो गयीं!


   
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"हाजिरा?" मैंने कहा,

"जी कहिये?" उसने गिलास उठाते हुए कहा,

"अब भूख लगी है मुझे तो! मैंने कहा,

"खाना तैयार है आपका, बताएं, लगा दूँ?" उसने कहा,

"मेरे साथ जो आये हैं, वो भी भूखे होंगे" मैंने कहा,

"जी नहीं! उनको खाना शाकिर भाई खिला चुके हैं!" उसने बताया!

"अब कहाँ हैं वो?'' मैंने पूछा,

"आराम फरमा रहे हैं वो" उसने कहा,

"अच्छा! ठीक है, मुझे भी खाना खाना है अब" मैंने कहा,

"ठीक है, मेरे ही साथ खायेंगे ना?' उसने भोलेपन से पूछा,

"हाँ हाजिरा, तुम्हारे साथ ही!" मैंने कहा,

"ठीक है मै अभी आई" उसने कहा और बाहर चली गयी, थोड़ी देर बाद दस्तरख्वान बिछा दिया उसने बिस्तर पर!

फिर बाहर गयी और खाने का सामान एक एक करके लाती गयी! फिर उसने एक एक करके वो डोंगे खोले! किसी में सालन-गोश्त, किसी में भुना गोश्त, किसी में कबाब, किसी में शामी कबाब, किसी में ज़र्दा, किसी में बिरयानी और ख़बूस रोटियाँ! खुशबू ऐसी की आप सूंघते ही टूट पड़ो!

"अरे वाह! क्या बात है! इसे कहते हैं खाना-खजाना!" मैंने कहा,

"आपको पसंद आये तो कहियेगा!" उसने कहा,

"हाँ! अब जल्दी परोसो ये खाना हाजिरा!" मैंने कहा,

उसने खाना परोसना शुरू किया! मैंने खाना खाना शुरू किया! मैंने देखा वो नहीं खा रही है, मैंने पूछा, 'तुम क्यं नहीं खा रहीं?"

"आपने खिलाया ही नहीं" उसने कहा,

"ओह! अच्छा!" मैंने कहा और उसको अपने हाथों से खिलाना शुरू किया! वो खुश हो गयी!


   
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"हाजिरा, मुझ से इतनी मुहब्बत ना करो!" मैंने कहा,

"कोई जुर्म आयद होता है मुझ पर?" उसने पूछा,

"हाँ!" मैंने कहा,

"कैसा जुर्म?" उसने पूछा,

"मुहब्बत के कैदखाने में क़ैद करने का जुर्म!" मैंने बताया!

"सुनिए" उसने एक दम से कहा,

"कहिये?" मैंने कहा,

"आप मेरे साथ रहिये ना, आपके जाने के ख़याल से मायूस हो जाती हूँ मै" उसने कहा,

"कोई बात नहीं हाजिरा! वो दो चाँद रातें! याद है ना!" मैंने उसका हाथ पकड़ के चूमते हुए कहा,

"अभी काफी वक़्त है उसमे, अफ़सोस!" उसने कहा,

"कोई बात नहीं, इंतज़ार से मुहब्बत और गाढ़ी हो जाती है!" मैंने कहा वक़्त तेजी से खिसकता जा रहा था, और सच कहता हूँ, मुझे मेरा दिल वहीँ रोकने को आमादा था, लेकिन दिमाग अगर दुरुस्त है तो दिल पर भी काबू हो ही जाता है! मुझे अभी भी हाजिरा की खुमारी चढ़ी थी, इंसानी फितरत है ना! यही वजह थी इसकी! खैर, मैंने वो लज़ीज़ खाना खाया, बेहतरीन और उम्दा खाना! मै खड़ा हुआ और उस से बोला, "हाजिरा, मुझे आज बेहद अच्छा लगा, आज मुझे पता चला कि मुहब्बत ना कोई सरहद जानती है, ना आतिश और ना खाक़!"

"आप बार बार ऐसा क्यूँ कहते हैं? एक बात याद रखिये, जब तक मै हूँ, मै खाक़ ना होने दूँगी" उसने कहा और फिर से मुझसे चस्पा हो गयी!

"बेहद खतरनाक बात कह रही ही हाजिरा!" मैंने मुस्कुरा के कहा,

"मैंने जो भी कहा उसके मायने आप समझ चुके हैं, दोहराइए नहीं अब आप!" उसने कहा,

"ठीक है, जैसा तुम चाहो!" मैंने कहा,

"आज यहीं ठहर जाइये ना, मुझे और भी बातें करनी हैं आपसे" उसने कहा,

"नहीं हाजिरा, नहीं ठहर सकता, मजबूरी है, मुझे अब जाना होगा, इजाज़त दीजिये मुझे!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं, नहीं जाने देंगे आपको अभी" उसने धीमे से कहा,

"नहीं हाजिरा, मेरे लिए मेरी दुनिया में रात गहरा चुकी है!" मैंने बताया,

"नहीं थोड़ी देर और, आपके लिए सहर होने तक" उसने कहा,

"बस हाजिरा! सच पूछो तो मै सिर्फ तुम्हारे लिए ही यहाँ आया था, तुमसे मिल लिए, तुम्हारी महक मेरे बदन में बस गयी, मुझे तुम्हे छूने का मौका मिला, और क्या चाहिए भला मुझे!" मैंने कहा,

उसके बाद मित्रगण! वही ज़िदबाजी, ठहरिये, रुकिए, कुछ लम्हे और! वगैरह वगैरह! आखिर में मैंने उसको मना ही लिया!

"अच्छा हाजिरा, अब मै चलूँगा" मैंने कहा,

"मै नहीं कह सकती ऐसा, आपकी मर्जी ही चलती है ना, चलाइये!" उसने कहा,

"ऐसा नहीं है, मर्जी नहीं, मजबूरी है मेरी!" मैंने कहा,

"चलिए, कोई बात नहीं, मेरे पास मेरी दो रातें हैं, तब आपकी मर्जी नहीं चलेगी!" उसने कहा,

"मंजूर है, नहीं चलेगी!" मैंने मुस्कुरा के कहा,

उसके बाद मै वहाँ से निकला, शर्मा जी के पास आया, वो भी खड़े हो गए! तभी शेख रियाज़, शाइस्ता और शाकिर आ गए वहाँ! अब मैंने उसने विदा ली!

शाकिर हमारे साथ चला, और हाजिरा भी!

कुछ दूर चलने के बाद मैंने हाजिरा को वापिस किया! और तब शाकिर ने हलकारा बुला भेजा. हलकारा आया और अगले हलकारे तक ले गया, और वो हल्कार हमे आगे रहमान के पास तक ले आया! रहमान वहीँ बैठा था, देखते ही बोला, "चल दिए जनाब!"

"हाँ, रहमान साहब! अब चलना होगा!" मैंने बताया,

"सहर तक तो रुकते आप!" उसने खड़े हो कर कहा,

"मुमकिन नहीं है रहमान साहब, अब चलना होगा!" मैंने कहा,

"दोबारा कब आइयेगा?" उसने पूछा,

"जल्दी ही आऊंगा रहमान साहब!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब रहमान ने फाटक खुलवाया और हम उनकी दहलीज पार कर गए! थोड़ी दूर चलने के बाद उनकी सरहद भी ख़तम हो गयी! और तब शर्मा जी के फ़ोन की घंटी बजी! ये हाफ़िज़ साहब थे, वो बाहर ही खड़े थे गाडी लेके! मैंने घडी पर नज़र डाली, चार बज कर पच्चीस मिनट का वक़्त हुआ था!

अब हम वापिस अपनी दुनिया में आ गए थे! हम गाडी में बैठे, हाफ़िज़ ने गाडी दौडाई और हम वापिस अपने स्थान पर आ गए! रास्ते भर मुझपर हाजिरा की आवाज़ की खनक का जादू, उसकी छुअन, उसके मुहब्बत का लहजा, उसके नाज़-ओ-जिद मुझ पर हावी रहे! उसकी खुमारी बरकार रही, और शायद तब तक बरकरार रहे जब तक वो पहली चाँद रात नहीं आ जाती!

सच पूछिए तो मुझे भी इंतज़ार है उस चाँद रात का!

बेसब्री से!

----------------------------------साधुवाद---------------------------------


   
uikeyk118 reacted
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