मित्रगण! इस संसार में संस्कृतियाँ, धर्म अलग अलग हो सकते हैं लेकिन सार सभी का एक ही है! मार्ग अलग अलग हैं लेकिन गंतव्य एक ही है! मै मानता हूँ कि आधुनिक विचारधारा वाले लोग इस तंत्र-मंत्र को असत्य, कपोल-कल्पित मानते हैं, परन्तु इस संसार की सभी पुरातन एवं छोटी से छोटी संस्कृतियों में रहस्यात्मक ज्ञान उपलब्ध है, पाया जाता है! मनुष्य जिस घटना के कारण को समझ जाता है वो विज्ञान कहलाया जाता है, जिसे नहीं समझ पाता, उसे अलौकिक एवं पारलौकिक कहा जाता है! मै नित्य कहता हूँ मित्रो, हम वहीँ देखते हैं, वही सुनते हैं, वही स्मरण रखते हैं, वही कहते है जिसे हमारा बौद्धिक-स्तर ग्रहण करता है! नेत्र जहां तक देखते हैं, विश्व उस से भी आगे है! हमारे कान ऐसी ही ध्वनियाँ सुनते हैं जहां तक हमारा मस्तिष्क उनको समझ सकता है! परन्तु, इस ब्रह्माण्ड में का परा-ध्वनियाँ विद्यमान हैं जिन्हें मनुष्य नहीं सुन सकता! ये मंत्र ऐसी ही परा-ध्वनियाँ उत्पन्न करते हैं, जिनसे ऊर्जा का स्फुटन होता है! वैसे तो ये अत्यंत गहन एवं गूढ़ विषय है और इसकी सारगर्भिता लिख कर कदापि नहीं समझाई जा
सकती!
यह घटना सन २००८ की है. दिल्ली के पास एक जगह पड़ती है धारु-हेड़ा, गुडगाँव (हरियाणा) से थोडा आगे, यहाँ एक श्रीमान सतीश रहते हैं, उनका अपना सरसों के तेल का व्यवसाय है, इसी व्यवसाय से सम्बंधित विषय में और व्यापार-वृद्धि हेतु उन्होंने एक जगह खरीदी, जगह काफी बड़ी है और कुछ पुरानी दीवारें इत्यादि आदि इसी के अन्दर हैं! जब सतीश ने यहाँ पर अपनी फैक्ट्री बनाने के सोची तो कार्य शुरू हुआ, ज़मीन समतल करनी थी, अतः बुलडोज़र आदि लाये गए, झाड-झंखाड़ हटाने के लिए, उन्होंने हटाना शुरू किया और ४-५ दिनों में एक काफी लम्बी-चौड़ी जगह साफ़ कर दी! पुराने पत्थर वगैरह हटाये गए, कुछ पुराने समय की दीवारें भी हटाई गयीं, परन्तु उस जगह में एक जगह ऐसी भी थी जहां, कोई भी बुलडोज़र जाता तो बंद हो जाता था! और फिर स्टार्ट ही नहीं होता था! असा २-४ बुलडोज़र के साथ नहीं बल्कि ६-७ बुलडोज़र के साथ हुआ! हैरत की बात थी ये! जे.सी.बी. मशीन लायी गयी! और जैसे ही मशीन ने वहाँ खुदाई आरम्भ की, एक दम झटका लगा! मशीन का मुख्य-भाग गड़बड़ा गया! आग लग गयी! ड्राईवर और हेल्पर ने छलांग लगा कर अपनी
अपनी जान बचाई! अब वहाँ मजदूर काम करने से मना करने लगे! बुलडोज़र वालों ने मना कर दिया! उनके साथ साथ सभी को खटका हुआ कि वहाँ अवश्य ही कोई बला है जो यहाँ काम नहीं होने दे रही! सतीश ने ये बात अपने दूसरे परिचित आदि को बताया, सलाह हुई की पूजन करा दिया जाए! एक पंडित जी बुलाये गए! पूजन आरम्भ हुआ! और जैसे ही हवन आरम्भ हुआ, वहाँ रखे झाड-झंखाड़ में आग लग गयी! पंडित जी समेत वहाँ से भाग खड़े हुए! पंडित जी ने बताया कि यहाँ तो कोई बड़ी ही बला है, पूजन से काम नहीं चलेगा, किसी तांत्रिक आदि से संपर्क करो, वही मदद कर सकता है! अब ये सुन सतीश घबरा गए!
काम रुकवा दिया गया! २ हफ्ते बीते, सतीश का व्यापार भी चौपट होने लगा! भेजा माल वापिस आने लगा! उसमे फफूंद पायी जा रही थी! नुकसान का अनुमान काफी बड़ा होने लगा था! हर जगह से माल वापिस! सतीश ने हाथ-पाँव मारे तो रेवाड़ी से एक तांत्रिक बुलाया गया! उसको सब-कुछ बताया गया! तांत्रिक ने कुछ सामान आदि मंगवाया और अपने २ चेलों के साथ उस जगह गया! और जैसे ही उसने उस जगह लौंग फेंकी जांचने के लिए! किसी ने उनको उठा कर ज़मीन पर पटक दिया! बेचारे तीनो का हाल खराब हो गया! तीनों वहाँ से सर पर पाँव रखके भागे!
अब स्थिति बड़ी विकट हो गई! नूह से एक मौलवी साहब बुलाये गए, बुज़ुर्ग मौलवी तजुर्बेकार और समझदार आदमी थे! उन्होंने सार हाल सुना और उस जगह गए! किसी ने उठा कर नहीं फेंका! बस ये बताया सतीश को, कि वहाँ ४ औरत जिन्नात हैं, एक ज़मीन के अन्दर ज़ंजीर में क़ैद है, और तीन उसकी रक्षा हेतु तत्पर हैं! और मौलवी साहब के पास ये सामर्थ्य नहीं कि उसकी जंजीरों का तिलिस्म काट दिया जाए! अब ये तो मरते में दो लात और लगने जैसी बात थी! सतीश ने माथा पीट लिया! एक तो व्यापार चौपट होने की कगार पर था, और दूसरा ये ज़मीन खरीद कर उन्होंने काफी पैसा भी बर्बाद कर लिया था! सतीश ने कई लोग बुलाये कोई फायदा न हुआ! आखिर में मेरे पास मेरे एक जानकार, तेजस, जो कि तिजारा में रहते हैं, ने संपर्क किया और सारी व्यथा सुनाई! मुझे भी सतीश पर दया आई! क्या सोचा था क्या हुआ! मैंने उनको आने वाले रविवार का समय दे दिया!
और मै तीन दिनों के बाद सतीश के पास शर्मा जी के साथ पहुँच गया! वहाँ मुझे तेजस भी मिल गए! हमारी आवभगत हुई, चाय आदि पश्चात मैंने उनसे वो जगह दिखाने को कही, जगह वहाँ से थोडा दूर एक खाली से जंगलनुमा स्थान में थी, हम वहाँ पहुंचे! वहाँ पहुँचते ही मुझे किसी शक्ति का अपने आसपास भटकने का एहसास हुआ! मै वहीँ रुक गया! और शर्मा जी को भी वहीँ रोक लिया! सतीश और तेजस को बाहर जाने को कहा! क्यूंकि वहाँ जो कोई भी था गुस्से में था और उसको हमारा वहाँ आना पसंद नहीं था! मैंने स्वयं में और शर्मा जी में शक्ति संचारण
किया! कलुष-मंत्र पढ़ा और अपने और शर्मा जी के नेत्र इस से पूरित किये! हमने फिर आँखें खोल दीं!
सामने का तो जैसे नज़ारा ही बदल गया था! सामने तीन औरत जिन्नात खड़ी थीं! लम्बी-चौड़ी! सजी-संवरी! लेकिन गुस्से में! मै उस से पहले भी जिन्नात से लड़-भिड चुका था और मुझे उनकी कमजोरी पता थी! मैंने एक अत्यंत वीभत्स-शक्ति का आह्वान किया! ये सदैव उन्मत्त, दुर्गन्धयुक्त, नग्न, रक्त-मेद से लिपि हुई होती है! इसको शमशान-कन्या कहते हैं! सफाई-पसंद जिन्नात इस से सदैव दूर रहते हैं! उसके रास्ते में नहीं आते! मेरी शक्ति प्रकट हुई और हवा में स्थिर हो गयी! वो तीनों जिन्नात फुर्र हो गयीं! उनके फुर्र होते ही मैंने शक्ति को लोप कर दिया!
मेरी शक्ति को लोप होते देख वो तीनों फिर से हाज़िर हो गयीं! लेकिन अब वो मेरा सामर्थ देख चुकी थीं! अतः अब घबराने वाली कोई बात नहीं थी! वो तीनों वहीँ उसकी जगह हवा में खड़ीं थीं! मैं उनके पास गया! वो और ऊपर हुईं! मैंने उस ख़ास जगह पर नज़र गड़ाई, वहाँ एक औरत जिन्नात बैठी थी! सर से लेकर पाँव तक ज़ंजीर में जकड़ी हुई! उसने मायूसी से मेरी ओर देखा!
बेचारी! ना जाने कब से वहाँ क़ैद पड़ी थी! मैंने गौर किया, वो औरत जिन्न केवल बैठ सकती थी, लेट भी नहीं सकती थी! दुनिया की कोई भी ज़ंजीर, ताला, दीवार आदि एक जिन्न को क़ैद नहीं कर सकते! ये ज़ंजीर कोई तिलिस्मी ज़ंजीर थी! मैंने तब एक लकड़ी उठायी और उसको अभिमंत्रित किया! और वो लकड़ी नीचे फेंकी, लकड़ी उस सरहद तक पहुंचे, उस से पहले ही खाक हो गयी! जिसने भी इसे क़ैद किया था, वो निःसंदेह बेहद कुशल, तांत्रिक-मान्त्रिक की उच्च श्रेणी से था! इस बाबत मुझे ये ही बता सकती थी! या फिर वो तीन जिन्नात! मैंने उन जिन्नात को ये ज़ाहिर किया कि मै उनको पकड़ने नहीं बल्कि जो क़ैद है उसको छुडाने आया हूँ!
उनमे से एक ने हिम्मत दिखाई और मेरे समक्ष आई! उसके अनुसार क़ैद जिन्न हाज़िरा है, एक जिन्नाती सरदार की बेटी और वो तीनों उसकी बहन हैं! उसको ३०० साल पहले एक बेलिया बाबा ने क़ैद किया था! जो की एक बंजारा था! अब मेरी समझ में आ गया कि करना क्या है! बंजारों का तिलिस्म तोडना इतना आसान नहीं होता जितना लगता है! मै खबीस वहाँ प्रकट नहीं कर सकता था! नहीं तो मेरा खबीस इन तीनों को भी पकड़ लेता!! मैं वहाँ से वापिस आ गया कि मै वहाँ पर शाम को दुबारा आऊंगा! मित्रो! ये तिलिस्म २४ घंटे में एक बार सीधे से उल्टा और फिर उलटे से सीधा होता है, मतलब यूँ मानिए कि पहिया गतिमान होता है! मै यही समय जानना चाहता था!
मेरे एक मित्र हैं मोहम्मद इलियास! बिजनौर में रहते हैं! उनकी पढ़ाई गज़ब की है! बेजोड़ शख्सियत के मालिक हैं और जिन्नाती कामों में माहिर! मैंने उनसे संपर्क साधा और सारी बात
बताई! उन्होंने बताया कि अगर इबु-खबीस की आँखों पर पट्टी बाँधी जाए और तिलिस्मी जगह पर अगर उसको धक्का मार दिया जाए तो कैसा भी तिलिस्म हो वो तोड़ डालता है! ये जानकारी बड़े काम की और लाजवाब थी! मैंने उनका शुक्रिया अदा किया! मैंने सतीश से एक खाली कमरे का प्रबंध करने को कहा! और भोग के लिए सारा सामान मंगवा लिया! आज इबु-खबीस की दावत थी!
मैंने इबु-खबीस को बुलाया! वो हाज़िर हुआ! मैंने उसको उसका खाना दिया! उसने खूब खाया! फिर मैंने एक आतशी-पट्टी उसकी आँखों पर बाँधी और उसको हवा में टांग कर वहाँ ले आया! वो तीनों जिनात वहाँ से भाग छूटे और दूर आकाश में खड़े हो नज़ारा देखने लगे! मैंने इबु-खबीस को उस जगह जाकर धक्का दे दिया! इबु-खबीस नीचे गिरा! ज़ंजीर से टकराया! ज़ंजीर से टकराते ही उसे लगा कि कोई उसको बाँधने वाला है उसने ज़मीन से निकली वो तिलिस्मी ज़ंजीर तोड़ फेंकी और ज़ंजीर टूटते ही जंजीरें लोप हो गयीं! मैंने फ़ौरन इबु-खबीस को बुलाया और फ़ौरन ही वापिस किया! ज़ंजीर लोप होते हाज़िरा उठी और अपनी बहनों के साथ ऊपर चली गयी! वहाँ से चारों ने मुझे देखा! मैंने भी देखा! वे बेचारी डरी सहमी सी देख रही थीं! मैंने उनको नीचे बुलाया! हाज़िरा सबसे पहले नीचे आई! बेहद सुन्दर! अतुलनीय सौंदर्य की मलिका!
वो मेरे से करीब १० फीट दूर खड़ी हो गयी! मैंने हाज़िरा को और पास बुलाया, वो धीरे धीरे आई, मै थोडा आगे बढ़ा, वो मेरे से २ फीट दूर थी, मैंने कहा, "जाओ तुम अब आज़ाद हो हाज़िरा! जाओ वापिस चली जाओ अपने घर!"
वो चुप ही रही, लेकिन अपनी नज़रें मुझ पर से नहीं हटायीं! उसे डर था कि कहीं उसको अब मै न क़ैद कर लूँ!
"जाओ हाज़िरा! अब कोई नहीं पकड़ेगा तुमको, जाओ अब" मैंने कहा,
"शुक्रिया ओ आदमज़ात!" उसने कहा, एक बार भी पलकें नहीं मारीं!! कोई साधारण आदमी हो तो वहीँ उनके सामने प्राण छोड़ दे!
वो गयी नहीं! मुझे उस से इत्मीनान से बात करते देख उसकी बहनें भी नीचे आ गयीं! मैंने उनसे कहा, "जाओ ले जाओ अपनी बहन हाज़िरा को, अब यहाँ नहीं आना कभो दुबारा, इस व्यापारी का काम चलने दो अब, अब आप जाओ!"
"हमारे वालिदैन भी क़ैद हैं ओ आदमज़ात, हमारी मदद कर, बदले में जो चाहेगा वो मिलेगा!"
मुझे हैरत हुई! मैंने पूछा, "कहाँ क़ैद हैं तुम्हारे वालिदैन?"
"तुगलकाबाद किले में" उन्होंने बताया,
"किले में?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ" हाज़िरा ने कहा,
"उन्हें किसने क़ैद किया है?" मैंने पूछा,
"किसी ने पकड़ के रखा है" उसके एक बहन ने बताया,
"किसने? क्या नाम है उसका?" मैंने पूछा,
"हाफ़िज़ फकीर ने" उन्होंने बताया,
इस हाफ़िज़ फकीर को मै जानता भी था पहचानता भी था, लेकिन आदमी बेहद घटिया किस्म का था, ज़मीनी मामले, जैसे धन आदि जैसे काम करता था, लोगों को ठगता था, उनको कुछ दिखाकर पैसा ऐंठ लेता था!
"अच्छा! समझ गया!" मैंने कहा!
हाफ़िज़ फकीर से बात करना भी बेकार था,उसने कोई बात माननी भी नहीं थी, मानता तो भी एवज मांगता या अदला-बदली की मांग करता!
"ठीक है हाज़िरा! मै देखता हूँ क्या कर सकता हूँ मै!" मैंने कहा,
"हमारी मदद करना आदमज़ात! जैसे तुमने मेरी मदद की है, मेरा वायदा है जब भी याद करेगा मै हाज़िरा हमेशा हाज़िर होउंगी तेरे लिए!" उसने कहा,
उसका वायदा! जिन्नात अपने वायदे के पक्के होते हैं! हम इंसानों की तरह नमक-हराम नहीं न झूठे ही!
"शुक्रिया हाज़िरा! मै हर मुमकिन कोशिश करूँगा!" मैंने कहा!
इसके बाद वो चारों वहाँ से उड़ चले! और मै वापिस सतीश के पास आ गया! उसको समझा दिया! सारा मसला हल हो गया था! सतीश और तेजस ने धन्यवाद किया और पैसे की पेशकश भी की जिसे मैंने नकार दिया! मै शर्मा जी के साथ वहाँ से वापिस आ गया!
मैंने फिर हाज़िरा वाली बात शर्मा जी को बताई! शर्मा जी भी सन्न रह गए! वो भी हाफ़िज़ फिर से वाकिफ थे! बोले, "वो कमीन इंसाने नहीं छोड़ने वाला, चाहे धमकाओ चाहे मिन्नत करो!"
"हाँ शर्मा जी, मैंने कह तो दिया लेकिन सीधे तौर पर वो मेरा शत्रु तो है नहीं, किया क्या जाए ज़रा विचार करो!" मैंने कहा,
"ठीक है सोचता हूँ इस बारे में" उन्होंने कहा,
और फिर हम अपने स्थान पर आ गए!
अगले दिन मुझे फिर बिजनौर वाले मेरे जानकार का ख़याल आया! मैंने उसने ही सलाह लेने कि सोची! उन्होंने कहा, कि फकीर से तो लड़ना ही पड़ेगा! और कोई जरिया नहीं!
मैंने ये बात शर्मा जी को बता दी! फिर एक निर्णय लिया! पहले फकीर से सीधे सीधे बात की जाए! देखें क्या कहता है वो!
हम दोनों उस फकीर से मिलने तुगलकाबाद आ गए! पता चला फकीर किसी काम के मसले में जोधपुर गया हुआ है! बुरे फंसे हम!
खैर, हम वापिस आ गए! वो फकीर जोधपुर में था और हफ्ते बाद आना था, जैसा कि हमे बताया गया था उसकी जगह से, हमने हफ्ते भर का इंतज़ार करना उचित समझा! इस बीच मैंने क बार हाज़िरा को हाज़िर कर उसके वालिदैन का नाम पूछ लिया था, माँ का नाम शाइस्ता और बाप का नाम शेख रियाज़ था!
८ दिन हुए तो हम फिर से हाफ़िज़ फकीर के पास गए! फ़क़ीर ने पहचान तो लिया लेकिन ख़ास तवज्जोह नहीं दी! उसने हमको बिठाया और करीब आधे घंटे के बाद आया, बोला "जी फरमाएं अब!"
मैंने साफगोई से सीधे सीधे तौर पर बात की, मैंने कहा, "हाफ़िज़ साहब, आपके पास एक जिन्नाती जोड़ा है, शेख रियाज़ और शाइस्ता!"
हाफ़िज़ को झटका लगा! फिर बोला, " हाँ है, तो?"
" मै चाहता हूँ कि आप उनको आज़ाद कर दें" मैंने कहा,
"अजी आपके चाहने से क्या होता है! भाई वो मेरे काम के हैं, और भला आपका क्या काम इस मुत्तालिक?"
"हाफ़िज़ साहब, है मेरे मुत्तालिक एक काम! आप उनको छोड़ दें!" मैंने कहा,
"कैसे छोड़ दूँ साहब आपके कहने पर! और अगर छोड़ भी दूँ तो अपने हाथ कटवा लूँ मै? कैसे वाहियात बात की है आपने भी!" उसने हंस के कहा,
"हाफ़िज़ साहब! मैंने कोई वाहियात बात नहीं की, अब आप मझे बताएं, कि आप उनको आज़ाद करेंगे या मै आज़ाद करवा दूँ?" मैंने कहा,
"वाह जनाब वाह! हमारी जगह पर आकर आप हमको ही धमका रहे हैं! वाह!" उसने फिर से हँसते हुए कहा,
"हाफ़िज़ साहब! ना तो मै आपको धमका रहा हूँ! और ना ही ज़बरदस्ती कर रहा हूँ, बल्कि आपसे इल्तजा ही कर रहा हूँ" मैंने कहा,
"फिर भी बात तो वो ही है ना, एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी!" उसने कहा,
"सुनिए जनाब! न तो वो जिन्न मेरे किसी काम के, और ना मुझे उसने कोई लालच! लेकिन अब बात ये है कि मैंने किसी से वायदा किया है कि उनको आज़ाद करा दूंगा, आप अगर आज़ाद करते हैं तो ठीक है, आगे आपकी मर्ज़ी!" मैंने कहा,
"जी नहीं, मै नहीं आज़ाद करने वाला उनको, बहुत मेहनत की है भाई मैंने!" उसने कहा,
मै उठ के खड़ा हुआ और शर्मा जी भी! हाफ़िज़ भी खड़ा हो गया!
"सुनिए हाफ़िज़ साहब! आपसे इल्तजा की, ये मेरा फ़र्ज़ था, आपने मना कर दिया वो आप जाने कि क्यूँ! खैर अब जिसके पास माद्दा होगा वो ये काम कर लेगा!" मैंने कहा,
"हाँ साहब! जो चाहे कीजिये! हम भी तैयार हैं! हमारे खंजरों में जंग थोड़े ही लगा है!" उसने कहा!
"ठीक है फ़क़ीर साहब! उन खंजरों में और धार लगा लो! तेज़ कर लो! कल सुबह तक वे दोनों आपकी पकड़ से बाहर हो जायेंगे!" मैंने कहा,
"जनाब धमकी के तो हम प्यासे हैं!" वो मजाक में लेके बोला!
"ठीक है हाफ़िज़ साहब!" मैंने कहा!
उसके बाद मै और शर्मा जी वहाँ से उठ गए! रास्ते में से सारी आवश्य वस्तुएं खरीद लीं! और अपना मस्तिष्क आज रात के लिए तैयार कर लिया!
आज निर्णय हो जाना था! मै यहाँ तैयार हुआ वहाँ वो तैयार हुआ! उसको चुनौती मैंने दी थी तो मान-प्रतिष्ठा मेरी दांव पैर थी! मैं रात्रि समय ११ बजे क्रिया में बैठा! अलख उठायी! सारा सामान रखा! और फिर मदिराभोग लिया! भुना हुआ मांस मंत्रोच्चार करते हुए खाया! वहाँ फकीर ने अप एक और जानने वाला आदमी बुला लिया था! इस का नाम आबिद था! कम उम्र
का लड़का है, या यूँ कहो की अभी बच्चा है! वो केवल मदद-ओ-इमदाद के लिए आया था! फ़क़ीर ने अपनी सारी ताक़तें इल्मात कर चौकपाबंद कर दी थीं! मैंने उसकी ताक़तें नापीं! मेरे सामने वो एक क्षण नहीं खड़ा हो सकता था! पहला वार मैंने किया! मैंने शमशान-कन्या का आह्वान किया! उसको उसका उद्देश्य बताया! उसको अपना रक्त-पान कराया! और फिर वो उड़ चली! अल-मस्त! अल्हड! उल्ल्हास करती हुई! वो पहुंची फकीर के यहाँ! फ़क़ीर की सारी ताक़तें भागी वहाँ से! फकीर का हलक सूख गया! वो भी जान बचाने भगा! हालांकि उसको वो दिखाई नहीं दी लेकिन खतरा वो भांप गया था! दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध फैली थी! मल-मूत्र-रक्त-मांस की सडांध!
फकीर जैसे ही उठा वैसे ही छाती में एक मुष्टिका पड़ी! छाती पैर प्रहार से उसके मुंह से खून का फव्वारा फूट पड़ा! अब उसने आबिद को उठाया और ऊपर छत मेर मार फेंक कर! आबिद भी बेहोश! बस इतना ही सामर्थ था इस फकीर में!
शेख रियाज़ और शाइस्ता अब आज़ाद थे! उनका पाश टूट गया था! मैंने अपने दूसरे ख़बीसों को उनके पास दौड़ा के उनको पकड़ लिया! वो मेरे पास लाये गए! मैंने खबीस वापिस किये! कबीसों ने अपना भोग लिया! और लोप हो गए!
मैंने उनसे पूछा, "शेख रियाज़? यही हो तुम?"
"जी...जी..हाँ, मै ही हूँ शेख रियाज़" उसने कहा,
"और तुम? शाइस्ता?" मैंने पूछा,
"जी हाँ" वो बोली,
वो बेचारे घबरा गए थे! बड़ी मुश्किल से फ़क़ीर की क़ैद से आज़ाद हुए थे लेकिन ख़बीसों ने उनको फिर से 'नौकरी' पर लगा दिया था!
"सुनों तुम दोनों! घबराओ नहीं! तुम्हारी चार लडकियां हैं न?" मैंने पूछा,
"जी हाँ! लेकिन एक क़ैद है, मेरी बड़ी लड़की हाजिरा, बेलिया बंजारे ने हमे फंसाया" शेख ने बताया!
"सुनो! तुम्हारी लड़की मैंने आज़ाद करा दी! अभी बुलाता हूँ उसको रुको!" मैंने कहा,
मी ज़मीन से मिट्टी उठायी और पढ़ के नीचे फेंक दी! वो चारों हुईं हाज़िर! जाते ही आपने माँ बाप से लिपट गयीं! मुझे मित्रगण! इतना हर्ष हुआ, मै यहाँ नहीं लिख सकता!!
"तुम लोग कहाँ के रहने वाले हो? मैंने पूछा,
"ज़िर्का! बड़ी फहद!" शेख ने कहा!
"अच्छा! अच्छा! तो अब वहीँ जाओगे सारे?" मैंने पूछा,
"अगर आप मुनासिब समझें तो" हाजिर ने कहा!
"ठीक है, लेकिन अगर तुम खुद गए तो फिर कोई न कोई पकड़ लेगा! मै तुमको खुद छोड़ के आऊंगा! आज रात तुम सभी यहीं रहो! यहाँ कोई खतरा नहीं!" मैंने बताया!
उन सभी ने मेरा दिल से शुक्रिया किया!
मै बाहर आया और शर्मा जी को सारा वाकया बयान कर दिया! वो खुश हुए और मुझे गले से लगा लिया! अगली सुबह मै उठा, नहाया धोया और थोडा पूजन किया! फिर अपने विशेष स्थान पर गया! वहाँ वो वैसे ही खड़े थे जैसे मैंने उनको छोड़ा था!
"चलिए शेख साहब! आपके गाँव चलें! ज़िर्का बड़ी फहद!" मैंने कहा!
वो लोग बहुत खुश हुए! बहुत खुश!
मैंने उनको एक डिब्बी में आने को कहा और एक एक करके वे सभी आ गए! मैंने उनको उठाया और ज़िर्का के लिए रवाना हो गए!
ज़िर्का पहुंचे! मैंने उनको उनकी सरहद से पहले निकाल दिया! वे सभी हाज़िर हुए! कपड़ों का रंग बदल गया था! इतनी चमक उनके चेहरों पर कि देखा भी न जाए!
"अन्दर नहीं आयेंगे?" हाजिरा ने कहा!
"नहीं आज नहीं आ सकता! आज मुझे कुछ और काम है! फिर किसी रोज़ मिलूँगा आपसे!" मैंने कहा!
उन्होंने काफी जिद की, मेरा हाथ भी पकड़ा लेकिन मै नहीं जा सकता था, मेरी मजबूरी थी! उनसे विदा लेके हम वापिस आ गए!
वर्ष २०११, में पहली बार मै वहाँ गया! दावत उड़ाई! लुत्फ़ लिया! और फिर वापिस!
हाजिरा से मै जब चाहता हूँ मिलता हूँ! और वो जब चाहती है आ जाती है!
आने वाली जनवरी २५, २०१३ को ईद-उल-मिलाद पर मेरी दावत है वहाँ! हाजिरा का बुलावा है!
मित्रगण! जैसा कि आप सभी को विदित ही होगा कि मैंने अपनी एक कहानी में एक जिन्नी हाजिरा का उल्लेख किया था, और मैंने उसका दावतनाम कुबूल किया था, ईद-उल-मिलाद के दिन! जो कि कल था २५ जनवरी २०१३, मैंने शर्मा जी और अपने एक जानकार को अपने यहाँ बुला लिया था, ये मेरे जानकार हाफ़िज़ साहब हैं, खुद भी इल्मात में माहिर हैं! लेकिन कभी आजतक कोई ऐसा 'दावतनामा' नहीं मिल पाया है उन्हें! खैर, वो मेरे पास यहाँ सात बजे आ गए थे, शर्मा जी मेरे साथ ही थे कल सारा दिन, तो हम लोग आठ बजे यहाँ से रवाना हो गए! मंजिल थी नूह! ज़िर्का बड़ी फहद!
हमने गुडगाँव से जाना उचित नहीं समझा, कारण ये कि यहाँ भीड़ बहुत होती है, यही रास्ता पार करने में २ घंटे लग जाते हैं! इसीलिए हमने फरीदाबाद से जाना ही उचित समझा, कालिंदी-कुञ्ज से फरीदाबाद और फिर यहाँ से सीधा नूह!
हम यहाँ कोई तीन घंटे में पहुंचे, रास्ता यहाँ भी भीड़-भाड़ का ही था, अब मै और शर्मा जी वहीँ बड़ी फहद में ही रहने वाले थे और हाफ़िज़ साहब वहीँ से गाडी वापिस लाके अपने एक भाई के साथ ठरहने वाले थे, उनके बड़े भाई वहीँ नूह में ही रहते हैं, इसीलिए उन्होंने हमे वहाँ छोड़ा और फिर वापिस हो गए! अँधेरा था तो हम आराम आराम से ही टहलते जा रहे थे! मै यहाँ पहले भी आ चुका था, मुझे रास्ता और पहुँच पहले से ही मालूम है, हम धीरे धीरे वहीँ के लिए बढ़ते रहे आगे और आगे! अचानक मेरे कानों में कुछ आवाजें पड़ीं! मै समझ गया कि हम वहाँ बड़ी फहद की सीमा में घुसने वाले हैं! हम वहीँ ठहर गए! 'दीये' वाली जगह आ गयी थी!
मैंने शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, लो हम आ गए दावत में!"
"मै भी उत्सुक हूँ गुरु जी!" उन्होंने कहा,
"ठीक है फिर! आइये" मैंने कहा, और एक ज्वाल-मंत्र पढ़कर अपने और शर्मा जी को उस से पोषित कर लिया! यहाँ कोई लड़ाई तो थी नहीं इसीलिए और अधिक मंत्र मैंने नहीं पढ़े थे!
अब हम आगे बढे! और आगे, जहां एक बड़ा सा फाटक है! वहाँ दो संतरी-जिन्न हमेशा खड़े रहते हैं! लम्बे चौड़े जिन्न! कम से कम दस फीट लम्बाई! सलवार और शेरवानी सी पहने, सर पे एक बड़ा सा साफ़ पहने! फुलतरी साफ़! यही है वहाँ अन्दर जाने का रास्ता! हम आगे गए! संतरी-जिन्न हमे देख खड़े हो गए, वो वहाँ बैठे हुए थे पहले तो! उनमे से एक ने कहा, "कहाँ जाइएगा जनाब?"
अब मित्रो, यहाँ जो जवाब देना होता है वो एक जिन्नाती जवाब देना होता है! कुछ अरबी अलफ़ाज़ पढ़े जाते हैं और आखिर में उसका नाम लिए जाता है जिस से आपको मिलना है या जिसने आपको बुलाया है! मैंने कहा, "..............................................हाजिरा!"
वो अलफ़ाज़ जिन्नों ने सुने और अन्दर से एक और लाल-टोपी वाला जिन्न आया! बड़े अदब के साथ उसने हमको अन्दर बुलाया! अन्दर जाने पर हम एक गुम्बद के नीचे खड़े हो गए! बेहतरीन नक्काशी वाली, फ़ारसी-कला से बनायी हुई वो गुम्बद आलिशान है! बेनज़ीर है! इंसानों के बसकी नहीं है ऐसी इमारत बनाना! अन्दर जिन्नाती-नूर बिखरा था! आँखें चुंधिया देने वाला नूर!!
उस लाल-टोपी वाले जिन्न ने हमको वहाँ एक बड़े से सोफे पर बिठाया! मखमली सोफा! उसकी पुश्त हमारे कन्धों से कम से कम चार फीट ऊंची! नीचे एक आलिशान कालीन, नीले और गुलाबी रंग का बेहतरीन कालीन! मैंने ऐसा कालीन कभी नहीं देखा! वो कालीन इतना बड़ा है के फर्श ही लगता है! हवा में मजमुआ अतर की भीनी भीनी खुशबू!तभी उस लाल-टोपी वाले जिन्न ने हमसे पूछा, "हाजिरा के पास जाना है आपको जनाब?"
"जी हाँ!" मैंने कहा,
"बेहतर है, मै अभी आपके साथ एक हलकारा भेज देता हूँ, वो आपको पहुंचा देगा"
"आपका बहुत बहुत शुक्रिया साहब!" मैंने कहा,
"शुक्रिया कहने की ज़हमत न उठायी आप! ये तो हमारी खुशनसीबी है कि आप आये यहाँ आज के पाक़ रोज़! और आप हमारे मेहमान हैं!" उसने कहा,
"शुक्रिया आपका! आपका नाम जान सकता हूँ मै क्या?"
"जी ज़रूर! मेरा नाम रहमान है, मै चंद रोज़ पहले ही यहाँ आया हूँ!" उसने बताया
"आप कहाँ से आये हैं?" मैंने पूछा,
"मै क़दकाश का रहने वाला हूँ, इंसानी मुल्क कहूँ तो लेबनान से" उसने बताया,
"वाह! शुक्रिया!" मैंने कहा,
"कभी आइये वहाँ!" उसने पेशकश की!
"जी ज़रूर आऊंगा वहाँ, ग़र कभी मौक़ा नसीब हुआ तो!"
वो हंसा और अपने दोनों हाथ हमारे हाथों को छू कर अपनी छाती से लगाए!
इसके बाद एक जिन्नी वहाँ आई, एक थाल में दो बड़े बड़े गिलास लिए!
"मै अभी हलकारे को बुला देता हूँ, तब तक आप ये शरबत पीजिये!" उसने कहा और चला गया!
हमने गिलास उठाये तो देखा गिलास में गाढ़ा गुलाबी शरबत था! ऊपर मेवे-पिस्ते और गुलाब की पंखुड़ियां तैर रही थीं! और स्वाद!!! उसका स्वाद मै कभी बता नहीं सकता!
शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता! ऐसा स्वाद! हमने शरबत पिया, जितना पिया जा सका बाकी वापिस रख दिया! कोई चार पांच मिनट बाद रहमान एक हलकारे को लाया, नाम है उसका राशिद, रहमान ने राशिद को कुछ समझाया और फिर हमारी तरफ आया, और बोला "लीजिये जनाब, ये हलकारा आपको वहाँ तक ले जाएगा"
"आपका बेहद शुक्रिया रहमान साहब" मैंने कहा,
" जनाब, शुक्रिया की कोई ज़हमत न उठाइये आप!" उसने हंस के कहा,
अब हम हलकारे के साथ साथ चल पड़े, हलकारा काफी तंदुरुस्त जिन्न है वहाँ! करीब आठ फीट का तो होगा ही!!
रास्ते में कई और जिन्न भी मिल रहे थे! जश्न का सा माहौल था वहाँ! आते जाते जिन्नात मुस्कुरा के पास से निकल जाते थे! काफी दूर चलने के बाद उस हलकारे ने हम एक बेहतरीन इमारत के एक कमरे में बिठा दिया! और बोला, " आप यहाँ तशरीफ़ रखिये, मै खबर करवा देता हूँ उनको" उसने कहा,
"कोई बात नहीं!" मैंने कहा,
वो कमरा क्या है पूरा हॉल है! बड़े बड़े सोफे! करीने से रखे गुलदस्ते और बड़े बड़े गुलाब! बेहतरीन परदे और मज़बूत लकड़ी के बड़े बड़े दरवाज़े! छटा पर लटकते झाड-फानूस! उसने में भी लटें निकली हुईं चमकदार नीले और हरे रंग की!
"शर्मा जी, देखिये इनका रहन सहन!" मैंने कहा,
"हाँ गुरु जी! कमाल है!" उन्होंने कहा,
"मेरे हिसाब से यही जन्नत जैसी जगह है!" मैंने बताया,
"हाँ जी! क्या ठाट-बात हैं! और ये खुद, इनकी रास तो देखिये! कमाल की है!" वो बोले,
"हाँ ये बात तो है!" मैंने कहा,
तभी हलकारा आ गया! बोला, "आइये जनाब"
हम उठे और उसके पीछे पीछे गए, वहाँ एक और हलकारा खड़ा था, उसका नाम ताहिर है! पहले वाले हलकारे ने ताहिर से कुछ कहा, और फिर ताहिर हमारे पास आया और बोला, " आइये जनाब मेरे साथ"
अब हम उसके साथ हो लिए! उसने कहा, "आप हाजिरा के पास आये हैं?"
"हाँ, वहीँ के लिए आये हैं" मैंने कहा,
"अच्छा जनाब! बस थोड़ी दूर और" उसने इशारा करके बताया,
"ठीक है!" मैंने कहा,
हम आगे बढे उसके साथ, वो एक दो जगह रुका और फिर हमे बुला लेता, हम चलते रहे! थोड़ी देर बाद उसने एक आलीशान इमारत के सामने हमको रुकवाया! और बोला, "ज़रा रुकिए, मै अन्दर खबर कर दूँ"
"कोई बात नहीं, आप खबर कर दें" मैंने कहा,
मैंने उस घर को देखा, ऊंचा, बड़ा सा घर! दीवार में त्रिभुज और वृत्त जैसी आकृतियाँ कढ़ी हुईं थीं! रंग भी एक दम सफ़ेद! हाथ लगाए मैला हो, ऐसा शफ्फाफ!!
ताहिर अन्दर गया और फिर साथ में एक और जिन्न को ले आया, पीले चमकीले कपडे पहने हुए वो जिन्न उस घर का दरबान था! खबर उसी को की गयी थी! ताहिर ने उसको समझा दिया कि हम ही वो मेहमान हैं जिनको हाजिरा ने बुलवाया है!
दरबान जिन्न ने झुक कर सजदा किया और फिर रास्ता छोड़ के खड़ा हो गया, मतलब था कि हम अन्दर आ जाएँ! मैंने ताहिर का शुक्रिया अदा किया और उसने भी हंस के जवाब दिया "कोई बात नहीं जनाब!" और फिर वापिस चला गया!
अब हम गए, वो दरबान जिन्न हमे एक बड़े से कमरे में ले गया, मैंने उस कमरे की चौखट देखी और गौर किया तो पता लगा, ये खालिस चांदी की चौखट थी! करीब आधा मीटर चौड़ी! दरवाज़े भी खालिस चांदी के ही बने हुए! नक्काशीदार! उन पर लम्बी गर्दन वाली सुराही की आकृति बनी हुई थी! भीनी भीनी गुलाब की सुगंध हर जगह फैली हुई थी! दरबान ने हमे एक सोफे पर बिठाया! मै इसको सोफा कह रहा हूँ, लेकिन ये एक अलग किस्म का सा सोफा था! उसकी पुश्त ही छह फीट से अधिक ही होगी, कम तो कतई नहीं!
सामने गुलदस्ते रखे थे! पीले गुलाब थे उसमे! बेहतरीन बड़े बड़े गुलाब! जैसे की एक बड़ी फूलगोभी! कालीन! काले और पीले रंग का शानदार कालीन! तभी दरबान पानी लेकर आया और हमने पानी पिया! फिर वो दरबान बोला, "आप ज़रा थोडा सा इंतज़ार करें, मै अभी मुलाक़ात करवाता हूँ आपकी"
"शुक्रिया!" मैंने कहा,
बस अब थोड़ी देर में हम हाजिरा के सामने होंगे! ये ख़याल मेरे दिल में हिलोरें मारने लग गया!! तभी वो दरबान जिन्न अपने साथ एक और जिन्न को ले आया! उसने आते ही सजदा किया और बोला," जनाब मै शाकिर आपका खैरमकदम करता हूँ!"
"शुक्रिया शाकिर साहब!" मैंने कहा,
शाकिर एक पहलवान किस्म का ताक़तवर जिन्न मालूम पड़ता है! सफ़ेद पोशाक में उसका गोरा रंग बिलकुल उसकी पोशाक की मानिंद जान पड़ रहा था!
"जनाब! मै हाजिरा का छोटा भाई हूँ!" उसने बताया!
"अच्छा! तो बताएं की हाजिरा खुद कहाँ हैं?" मैंने पूछा,
"वो बस आने ही वाली हैं, आप तब तक शरबत पीयें" उसने कहा और फिर दरबान से उसने शरबत लाने को कहा, लेकिन मैंने रोक दिया और उसको रहमान का हवाला दे दिया! वो बोला, "अच्छा! अच्छा! जैसी आपकी मर्जी!"
"कहाँ गयी हैं?" मैंने पूछा,
"जी काजी साहब के यहाँ तलक" उसने बताया,
"क्या मै पूछ सकता हूँ कि काजी साहब के यहाँ क्या करने गयी हैं वो?" मैंने पूछा,
"जी आपको तो मालूम ही होगा, गाँव छोड़ने से पहले और किसी भी आदमजात को मेहमान बनाने के लिए हम सभी को काजी साहब से इजाज़त लेनी पड़ती है" उसने बताया,
"अच्छा! हाँ! तो इसका मतलब वो हमारे बारे में ही गयी हैं" मैंने कहा,
"जी हाँ!" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने हंस के कहा,
"और वैसे भी शेख रियाज़ और शाइस्ता भी आपका इंतज़ार कर रहे हैं बेहद बेसब्री से!" उसने बताया!
"अच्छा! हाँ उनसे भी मुलाक़ात करनी है हमें!" मैंने कहा,
तब शाकिर उठा और फिर से अन्दर चला गया! और कोई दस मिनट के बाद वापिस आया! और बोला, "आइये जनाब! इजाज़त मिल गयी है!"
हम उठे और उसके साथ चल दिए! वो हमे कई गलियारों में से घुमाता हुआ एक खाली जगह पर ले आया! सामने हाजिरा और उसकी बहनें और शेख रियाज़ और शाइस्ता खड़े थे! सभी ने सजदा किया! मै आगे गया, शर्मा जी भी आगे बढे! मै रियाज़ और शाइस्ता के पास गया और कहा, "सलाम आलेकुम!"
"वालेकुम अद सलाम!" रियाज़ ने कहा!
फिर मैंने हाजिर को देखा! और मुस्कुरा के कहा, "सलाम हाजिरा!"
"सलाम!" उसने जवाब दिया!
उसके बाद हाजिरा ने आगे बढ़कर मुझे देखा, अपलक, और फिर अपने साथ आने का इशारा कर आगे बढ़ गयी! मै उसके पीछे चल पड़ा!! और फिर वो एक दूसरे कमरे में ले गयी! शर्मा जी वहीँ शेख रियाज़ और शाइस्ता के साथ बैठे रहे!
मित्रगण! मै शुरू से कहता आ रहा हूँ! जिन्नाती खूबसूरती की कोई मिसाल इस पूरी ज़मीन पर नहीं है! इंसान की तो बिसात ही क्या!
गहरे काले रंग की पोशाक में हाजिरा किसी पारी से कम नहीं लग रही थी! बेहद खूबसूरत! उसका नूर झलक रहा था! चेहरा दमक रहा था! सुरमई आँखें सच में 'जानलेवा' ही थीं! उसके
