वर्ष २००८ ग्रीष्म-ऋतु का आरम्भ ही हुआ था मै शर्मा जी और एक मेरे गुरु -भाई आदित्य यहाँ गोरखपुर आये हुए थे , कारण था एक साधना , साधना भी विशेष ! भैरवी-साधना ! शमशान-भैरवी साधना! ये साधना अत्यंत क्लिष्ट और तीक्ष्ण मानी जाती है ! इस साधना में साधक एक ऐसी नव-यौवना का प्रयोग करता है जिसका कौमार्य संपूर्ण रूप से सुरक्षित हो! कौमार्य-भंग कन्या का प्रयोग सर्वथा अवैद्य है! ये साधना किसी भी अघोर -साधक के लिए अति-विशिष्ट और अहम् मानी जाती है! इस से साधक की समस्त शक्तियां अपने साधक के प्रति कटिबद्ध रहती हैं! जिस उक्त कन्या का प्रयोग किया जाता है उसका 11 दिन पहले से पूजन आरम्भ होता है उसके रजस्वला समय से 2 दिन बाद किसी भी विषम तिथि में ये साधना उपयुक्त एवं आरम्भ की जाती है! इस बार जो कन्या इसके लिए आई थी उसका नाम था मेघना, आयु उसकी होगी कोई 19 वर्ष, इस से अधिक नहीं होगी, एकहेरा बदन , गौर-वर्णी और रहने वाली गढ़वाल की थी, उसका मोल उसके सरक्षक को चुका दिया गया था! मोल अर्थात उसका एवज!
इस कन्या का प्रबंध मेरे गुरु भाई आदित्य ने किया था, उनकी आयु करीब 45 वर्ष होगी, उन्होंने कभी भैरवी-साधना पूर्ण नहीं की थी, ये साधना उन्ही के लिए थी, मै यहाँ पर ये साधना पहले भी कई बार संपूर्ण कर चुका था, आदित्य ने उस कन्या का षोडश पूजन कर लिया था! अर्थात उस कन्या का 11 दिनों तक उसके शरीर के प्रत्येक अंग का पूजन कर लिया था! और आज वे इसके लिए तैयार थे! शमशान स्थल में उनकी 4 साधिकाएँ , मै और शर्मा जी और वो कन्या मेघना थीं !
मध्य रात्रि 12 बजे से थोडा समय पश्चात ये साधना आरम्भ करनी थी! शमशान में एक विशेष चिता के समक्ष ये साधना पूर्ण की जाती है, साधना में शरीर पर किसी भी प्रकार का आवरण अथवा वस्त्र है,जिस अंग पर कोई वस्त्र अथवा आभूषण होगा वही अंग लकवे का ग्रास बन जाएगा! अतः ये साधना संपूर्ण करने में कई और नियम भी हैं वे नियम मैं प्रतिबंधित होने के कारणों से नहीं लिख सकता, उसका भी पालन किया जाता है!
मध्य-रात्रि का समय हुआ, मेघना को आदित्य की साधिकाएँ वहाँ लेकर आयीं! उसका पुनः पूजन आरम्भ हुआ! फिर शमशान का पूजन आरम्भ हुआ! मेघना को सामने बिठाया गया!
उसके अन्दर अब ये अमोघ-शक्ति प्रविष्ट करानी थी! उसको भूमि पर लिटाया गया! और उसके गुप्तांग पर आदित्य ने अपने रक्त से अभिमन्त्रण आरंभ किया! फिर हुआ अघोर-कर्म आरम्भ! करीब आधे घंटे पश्चात वो कन्या उठ कर खड़ी हुई! खड़े होते ही चिता के समक्ष नृत्य आरम्भ हुआ! आदित्य की साधिकायों ने अब आदित्य को उत्तेजित करना आरम्भ किया! मदिरा-भोग लिया! और उन्मत्त होने पर वो खड़ा हुआ! उसने नाचती कन्या मेघना को आलिंगनबद्ध किया! उसको अपनी भुजाओं में उठाया और अपने आसन पर ले आया! स्वयं नीचे लेटा और उस कन्या को अपने ऊपर बिठाया! कन्या को मदिरा भोग दिया गया! कन्या मदांध हो गयी! अब उसने आदित्य का लिंग अपनी योनि में प्रविष्ट कराया!
अब आदित्य को भैरवी-साधना के मंत्रोच्चारण को निरंतर बनाए रखना था, यदि वो कामोन्मत्त हुआ तो ये साधना असफल हो जायेगी, यदि स्वयं पहले स्खलित हुआ तो भी असफल हो जायेगी! आदित्य ने पूर्ण आल्हाद में मंत्रोच्चारण आरम्भ किया! मैं वहाँ की स्थिति पर निरंतर निगाह रखे हुए था मेरे कार्य थे --
किसी भी तरीके का व्यवधान उत्पान न हो
शक्ति-संचरण संपूर्ण पोषित रहे
भैरवी-कन्या को आवेश न आये
कोई भी साधिका विक्षेप का कारण न बने
आदित्य की प्राण-रक्षा
और भैरवी कन्या से कामोन्मत्त अवस्था में प्रश्नोत्तर !
आदित्य के मंत्रोच्चारण में वेग आ गया था! और मेघना भी कामोन्मत्त लग रही थी! अब मैं उठ के उसके पास गया और कुछ प्रश्न पूछने आरम्भ किये! कुछ यहाँ लिखता हूँ!
प्रश्न- तदर्थ पोषित-संचरण किसका?
उत्तर- वाहिनी का !
प्रश्न- युग-युगांतर में श्रेष्ठ कौन?
उत्तर- अघोर -पुरुष!
प्रश्न- चहुँ-युग की श्रेष्ठ योगिनी कौन?
उत्तर- मैं स्वयं श्रेष्ठ हूँ!
प्रश्न- श्वेत-क्षुधा का अरिहंत कौन?
उत्तर- मेरा चित्तमय साधक!
प्रश्न- कलयुग-कालेन श्रेष्ठ साधक कौन?
उत्तर- मेरा कामोन्माद धारक साधक!
प्रश्न- परम मोक्ष की कुंजी कौन?
उत्तर - परम मोक्ष की एक मात्र कुंजिका मैं स्वयं हूँ ओ साधक!
प्रश्न- यम-तंत्र का रहस्योद्घाटन कब?
उत्तर - मेरे उन्माद-रहित होने पर ओ साधक!
प्रश्न- चहुँ-तंत्र की परिभाषा ओ ब्रहामांशी?
उत्तर- तंत्र श्रेष्ठ है ओ साधक!
अभी मेरे प्रश्न चल ही रहे थे की आदित्य का वीर्य-स्खलित हो गया! कन्या नीचे गिर पड़ी! आदित्य की चेतना शून्य हो गयी! साधना असफल हो गयी!
उसकी साधिकाएँ दौड़े-दौड़े आयीं और आदित्य को खींच कर ले गयीं! मैंने मेघना को उठाया और वहाँ से उठा दिया! उसकी भी चेतना का लोप हो रहा था! शक्ति-पराभव हो चुका था!
आदित्य की ये पांचवीं साधना थी! वो भी असफल साधना! अब आदित्य कभी भी ये साधना नहीं कर सकता था क्रिया खंडित हो गयी थी, मैं मेघना को उठाकर वहाँ से ले आया था! आदित्य के ऊपर मैं क्रोधित था! 20 वर्षों की साधना के बाद भी उसका स्त्री-देह-मोह भंग नहीं हुआ था! उसके एक ही संकुचित भाव ने सब ख़ाक कर दिया था! क्रोधावेश में मैंने उसको वहीँ गालियाँ दे दीं! अब वो ऐसी और कोई और ये साधना तो कतई नहीं कर सकता था! अब बस वो दुकान खोलने लायक ही बचा था! काफी विलम्ब पश्चात और घोर -मदिरापान पश्चात मैं और शर्मा जी सोने चले गए!
सुबह हुई, मैं और शर्मा जी नित्य-कर्मों से निवृत हुए! मैं आदित्य के पास गया! वो अपनी साधिकायों के साथ निन्द्रालीन था! मैं अन्दर गया! उसकी साधिकायों को हटाया और आदित्य को खड़ा किया ! मुझे देख कर सकते में आ गया वो!
मैंने कहा," अब तू किसी औरत के लायक नहीं बचा! इतने वर्षों की साधना में तूने कुछ नहीं कमाया! एक कन्या के सामने घुटने टेक दिए तूने! लानत है!"
"पता नहीं क्या हुआ मुझे?" उसने कहा,
"हुआ कुछ नहीं, साले कन्या देख के लार टपक गयी तेरी!" मैंने कहा,
"ऐसा नहीं है भाई" उसने गर्दन झुका के कहा,
"तो फिर कैसा है? साले अब तेरी साधिकाएँ मालिश नहीं करेंगी तेरी, अब तू मालिश करियो उनकी!" मैंने हंस के कहा!
"हाँ मैं अब बर्बाद हो गया भाई, अब आप बचाओ मुझे!" उसने कहा,
"अब जाके बाबा फक्कड़ नाथ के पास जा तू!" मैंने कहा और बाहर निकल आया!
मैं और शर्मा जी ज़रा सैर-सपाटे के लिए बाहर निकले! घूमते हुए मेरी नज़र मेघना पर गयी! उच्च्श्रनखल और नवोदित-यौवन से परिपूर्ण!
उसकी नज़र मुझ पर पड़ी! उसने मुझे नमस्कार की! मैं उसकी ओर ही चला! उसने मुझे आते हुए देखा तो वो भाई मेरे से मिलने आगे की तरफ बढ़ी, हम दोनों पास-पास आ गए, उसने मुझे देखा और बोली, "नमस्कार!"
"नमस्कार!" मैंने उत्तर दिया!
"कल मुझसे तो कोई गलती नहीं हुई न?" उसने कहा,
"नहीं, कोई गलती नहीं हुई तुमसे!" मैंने उत्तर दिया!
"हाँ, धन्यवाद, वो आदमी ही कमज़ोर है, ये मै जानती थी!" उसने कहा,
मुझे हैरत हुई! मैंने उसको देखा, उसके चेहरे पर गौरान्वित होने के भाव को स्पष्ट देखा मैंने!
"तुम्हे कैसे पता था?" मैंने पूछा,
"जब वो मुझे देखता था पूजन समय तो मै उसकी नज़र पहचान जाती थी!" उसने कहा,
"अब मरने दो साले को, मै जा रहा हूँ यहाँ से आज!" मैंने कहा,
"हम भी आज ही चले जायेंगे", उसने बताया
"अच्छा, तुम्हारे साथ और कौन है?" मैंने पूछा,
"मेरी माँ है यहाँ, आप मिल्गोगे उनसे?" उसने कहा,
"हाँ, मिलवाइए" मैंने कहा,
वो पीछे पलटी और वहीँ पेड़ के नीचे बैठी एक औरत को ले आई, ये उसकी माँ तो कदापि नहीं लगती थी, उसकी उम्र ३५ से अधिक नहीं होगी, सरक्षक को माँ कह रही हो शायद! हो भी सकता था!
उसकी माँ आई और नमस्कार किया, मैंने भी नमस्कार किया!
"तुम कहाँ से हो?" मैंने पूछा,
"गढ़वाल से" उसने बताया,
"रज्जुनाथ के यहाँ से तो नहीं?" मैंने पूछा,
"हाँ वहीँ से, लेकिन रज्जुनाथ की मृत्यु हो गयी है" उसने बताया,
"कब हुई मृत्यु?" मैंने पूछा,
"२ महीने पहले" वो बोली,
"अच्छा, हाँ था तो वृद्ध ही" मैंने कहा,
"अब केतक नाथ चला रहा है वो डेरा" उसने कहा,
"अच्छा! केतक नाथ आ गया वापिस!" मैंने कहा,
"हाँ, रज्जुनाथ की मौत के बाद आ गया था" उसने बताया
"एक बात बताओ, ये कन्या मेघना, मुझे चाहिए साधना के लिए, दिवाली के दिन, कहीं और न भेजना और न ही तुडवाना कहीं, मिल जायेगी?" मैंने कहा,
"उसके लिए आपको केतक नाथ से बात करनी होगी" उसने बताया,
"ठीक है मै बात कर लूँगा उस से" मैंने कहा और वापिस हो गए हम दोनों वहाँ से,
वापिस आये तो आदित्य वहीँ बैठा था, दूध पी रहा था! मुझे देख के खड़ा हो गया! मैंने कहा,"
अबे साले अब क्या करेगा दूध पीके? अब जा मदिरा पी और लेट जा कहीं किसी नदी के किनारे!"
उसके मुंह से चूं भी नहीं निकली! बस चुपचाप खड़ा सुनता रहा!
"और सुन बे, अगर मैंने कहीं ये सुना के तू आलतू-फ़ालतू के काम कर रहा है, तेरी गर्दन मरोड़ दूंगा!"
अब भी कुछ नहीं निकला उसके मुंह से! तब मैंने उसकी साधिकाओं से कहा, "अरे सुनो, इसको छोडो साले को! थोथा चना है अब ये!"
मेरा ऐसा कहने से उसकी साधिकाएँ भी हेप रह गयीं!
"अरे गुरु जी, छोडिये बेचारे को! इसकी तो जिन्दगी ही खराब हो गयी!" शर्मा जी ने भी चुटकी ली!
"हाँ शर्मा जी! ये साला फोका गन्ना है अब!" मैंने हंस के कहा!
चलिए गुरु जी, अब चलें यहाँ से. देर करना ठीक नहीं" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ चलिए शर्मा जी!"
हम उठे और अपने कमरे में पहुंचे, सामान उठाया और एक-आद से मिलकर वहाँ से निकल पड़े! हम वापिस दिल्ली आ गए! मैंने करीब एक महीने बाद केतक नाथ से बात की, उसने मुझे एवज बताया जिसे मैंने स्वीकार कर लिया! मेरी दिवाली पर भैरवी-साधना तय हो गयी!
लेकिन अब मुझे प्रश्न-करता की आवश्यकता थी, मैंने विचार किया और मुझे गोरखपुर में ही रहने वाले एक गुरु-भाई देवेश का स्मरण हुआ! देवेश हालांकि देवेश ने कभी भैरवी-साधना नहीं की थी लेकिन मदद अवश्य ही की थी!
मैंने फ़ोन लगाया तो पता चला की देवेश नहीं उपलब्ध हो सकेगा! अब और कोई शेष था नहीं, दो ही विकल्प शेष थे, या तो साधना त्याग करो या स्वयं ही प्रश्न करो! तब मैंने दूसरा विकल्प अपनाया, स्वयं ही प्रश्न करो!
मैंने केतक नाथ से बात कर ली, दिवाली से १३ दिन पहले मेघना को वहाँ पहुंचना था, एवज वहीँ दिया जाना था, उसको भी प्रस्ताव स्वीकार था!
अब मैंने शर्मा जी को सारा कार्यक्रम समझा दिया! हमको वहाँ १५ दिन पहले पहुँच जाना था!
तय कार्यक्रम के अनुसार हम वहाँ पहुँच गए! हमारा वहाँ अच्छा स्वागत हुआ! मेघना यहाँ आने ही वाली थी, मैंने वहाँ सारी तैयारियां शुरू कर दीं! सार कार्यक्रम यहाँ के अपने परिचित को
अपने आने से पहले ही समझा दिया था! उसने सारे प्रबंध कर दिए थे! प्रबंध देखकर मै निश्चिन्त था!
अगले दिन मेघना अपनी कथित माँ के साथ आ गयी! हमारे बीच नमस्कार आदि का आदान-प्रदान हुआ! मैंने मेघना को रात्रि-समय स्नानादि पश्चात मेरे पास आने को कह दिया!
वो रात्रि समय १० बजे मेरे पास आ गयी, उसकी कथित माँ उसको लायी थी, मैंने उसको बाहर बेह्जा और मेघना को अन्दर रहने दिया! मुझे मेघना के कौमार्य की जांच करनी थी, कौमार्य-भंग कन्या की मृत्यु संभव थी, ये जांच अत्यंत आवश्यक होती है! मैंने उसको लिटाया और एक मंत्र पढ़ा, फिर अपने हाथ से उसका कौमार्य-परीक्षण किया! कौमार्य सुरक्षित था!
मित्रगण! जब भी कोई कन्या भैरवी-साधना में प्रयोग होती है, तो भी उसका, साधना-भोग के पश्चात उसके कौमार्य यथावत ही बना रहता है! ये शमशान-भैरवी की प्रचंड शक्ति का एक अंश-मात्र ही होता है!
अब अगले दिन से उसका नित्य-पूजन आवश्यक था! मैंने उसको इस बारे में बता दिया, चूंकि वो पहले भी इस प्रक्रिया से गुजर चुकी थी, अतः उसको सारे नियम-परिनियम स्मरण थे!
अगले दिन से उसका पूजन आरम्भ हुआ! पूजन सर्वप्रथम उसके पाँव से आरम्भ होता है! और जो साधक उसको क्रिया में बिठाता अर्थात प्रयोग करता है केवल वही पूजन करता करता!
मैंने उसको पूजन आरम्भ किया! वो मेरे हाव-भाव को भांपती रहती थी, कहीं मै उत्तेजित तो नहीं हूँ इसकी जांच वो मेरे चेहरे के ताप से छूकर भांपती थी!
मै भी उसके हाव-भाव भांपता रहता था! वो भी अडिग थी और मै भी! इस तरह से मै प्रत्येक दिन उसके शरीर के एक विशेष भाग का पूजन करता था! चूंकि ये पूजन नग्नावस्था में होता है, इसीलिए यदि साधक को उत्तेजना हो जाए तो पूजन भंग माना जाता है! मै अपने विचारों को केवल अपनी साधना पर ही केन्द्रित करता था, अतः मुझे उत्तेजना नहीं होती थी! सभी स्त्री-देह एक समान नहीं होतीं, कुछ स्थूल तो कुछ दरम्याना और कुछ छरहरी होती हैं, ये मेघना पिछले अवसर की तुलना में न तो स्थूल थी, न दरम्याना और न ही छरहरी, उसके स्तन पहले से अधिक सुडौल और नितम्ब भारी हो गए थे, वो पूर्ण यौवन के मध्य झूल रही थी! उसका प्रत्येक अङ्ग मर्दन हेतु लालायित था!
मेरे स्पर्श से उसके बदन में सरसरी सी दौड़ जाती थी! ये सरसरी किसी भी स्त्री के वश में नहीं होती! मै उसमे ये परिवर्तन जांचता रहता था! और उसका ऐसा होना मेरी साधना हेतु परम-आवश्यक भी था! उसका कामोन्मत्त होना ही इस पूजन का वास्तविक उद्देश्य होता है!
पूजनावधि पश्चात एक दिवस का विश्राम रखा जाता है, यदि साधक अथवा साधिका अनैच्छिक समझें और दोनों में से कोई भी मना करे तो साधना पूर्ण नहीं मानी जाती, इसीलिए ये दिवस चिंतन-मनन का होता है!
ये दिवस भी निकल गया, न मेघना ने न मैंने मना किया, अब अगली रात्रि मध्य में क्रिया आरम्भ करनी थी, वहाँ दो सेविकाएँ तत्पर थीं, किसी भी मदद हेतु!
साधना-रात्रि आ गयी थी! वहाँ चिता धधक रही थी, गर्मी का समय था, लपटें चुभती हुई महसूस हो रही थीं, मैंने सभी आवश्यक कार्य निबटाये और अपना आसन लगाया! भस्म-स्नान किया! फिर मैंने अपने वस्त्र उन सेविकाओं को पकड़ा दिए! मैंने चिता की एक लकड़ी से अपनी अलख उठायी! अलख भोग दिया! मंत्रोच्चारण आरम्भ किया! उस समय शमशान के इस भाग में केवल मै और वो दो सेविकाएँ ही थीं!
करीब एक घंटे के बाद मान्सादि, मदिरा रखवा दी गयी वहाँ! चिता को उसका भोग परिक्रमा लगा कर दे दिया! आसन-भूमि का कीलन किया गया! दिशा-कील क्रिया भी समाप्त कर दी! अब सेविकाओं ने मदिरा परोसना आरम्भ किया!
थोड़े समय पश्चात मेघना वहाँ आ गयी! उसकी कथित माँ ही उसको वहाँ छोड़ गयी थी, बदले में एवज ले गयी थी!!
मैंने मेघना को अपने पास बिताया! उसको मदिरा से नहलाया, उसके अंगों पर काजल एवं खड़िया से संगाकार-चक्र बनाए! और फिर उसको मदिरा भोग दिया! जब उसको नशा हुआ तो मैंने भैरवी का आह्वान किया! मेरे प्रत्येक मंत्र पर मेघना हिलने लग जाती थी! मेरा मंत्रोचार करीब आधे घंटे चला!
तभी वो भूमि पर चित्त हो गयी! और फिर हँसते हुए उठी! उसने मेरे केश पकड़ कर मेरे सर को हिलाया और छाती और पीठ में लातें मारनी शुरू कीं! आशय स्पष्ट था! भैरवी का आगमन होने ही वाला है!
कोई १० मिनट में उस पर भैरवी का आगमन हो गया! मैंने उठकर उसको प्रणाम किया और मांस आदि से भरा थाल उसके सम्मुख पेश किया! उसने अपना मुंह खोला. मैंने मांस का एक टुकड़ा शराब में भिगो कर उसके मुंह में रखा! फिर दूसरा फिर तीसरा! वो हड्डियां भी ऐसे चबा रही थी जैसे की बर्फी!
उसके बाद मैंने थाल नीचे रख दिया! उसके मुंह में मांस भरा था! मैंने अपने दोनों हाथों को आपस में जोड़कर भिक्षु-मुद्रा में हाथ फैलाए! उसने अपने मुंह में भरा सारा मांस मेरे हाथों में डाल दिया! वो मांस मैंने सम्मानपूर्वक खा लिया!
अब वो उन्मत्त होकर नृत्य करने लगी! मुझे निरंतर मंत्रोच्चारण करने थे! वो नृत्य करते हुए मेरे करीब आती और मुझ पर अपने केशों से प्रहार करती!
फिर से एकदम रुकी और उसने बैठ कर मेरे अण्डकोशों को अपने दोनों हाथों में लिया फिर मेरे जननांग को पकड़ा और मुझे बोली, " मद्दोन्मत्त सुचांगा कुरु कुरु...................."
मुझे अब ये मंत्र पूर्ण करना था, न करने पर वो मुझे भयानक पीड़ा पहुंचा सकती थी, मैंने वो मंत्र पूर्ण कर दिया! मंत्र पूर्ण होने पर उसने अट्टहास लगाया और मेरे केश पकड़ के उस चिता की परिक्रमा की, मंत्रोच्चारण निरंतर चल रहा था! मंत्रोच्चारण का प्रभाव दिखने लगा था, वो अब जोर जोर से घूमने लगी थी! मैं वहाँ से हटकर अपने आसन पर बैठ गया! वो मुझे घूर घूर कर चिल्लाये जा रही थी! वो मेरे पास आई और बोली, "कंकाली विराजे!"
"एवमस्तु" मैंने कहा,
वो फिर वहाँ से उठी और चिता की परिक्रमा करने लगी! अब मुझे एक मंत्र पढना था, स्वः-आकर्षण मंत्र! मंत्र पढ़ते ही मुझे अभीष्ट परिवर्तन हुआ! मुझे भीषण काम-वेदना ने पीड़ित किया! काम-वेग मेरी तंत्रिका-तंत्र में दौड़ पड़ा! मैंने काम-विभोर होते ही अपने आसन पर लेट गया!
मेरे उत्तेजित लिंग को देखकर भैरवी ने वहाँ से स्थान छोड़ा और मेरे लिंग के ऊपर आकर बैठ गयी! उसके वजन को सहन करना बड़ा भरी काम होता है! उसमे इतना आवेग होता है की वो आपके शरीर को वहीँ से दो टुकड़ों में विभक्त कर सकती है! उसमे भी काम-पिपासा थी और मुझ में भी काम-वेग! उसने मेरा मर्दन आरम्भ किया! मर्दन-मध्य वो मेरे वक्ष पर प्रहार करती थी! यदि उत्तेजना हटी तो क्रिया-भंग होनी निश्चित थी!
अब वो मध्य-आयाम में प्रवेश कर चुकी थी! मैंने यही समय प्रश्नोत्तर के लिए उचित समझा!
मैंने पूछा, "हे आद्याई भैरवी! मेरा प्रणाम स्वीकार करें!"
"हूऊऊऊऊऊऊउम " उसने हाँफते हुए कहा!
"इस साधक पर कृपा करें कन्कालिनी-भैरवी!", मैंने कहा,
"हुम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म " उसने फिर कहा,
"यशस्विता का दान करें दिक्काल-भैरवी!" मैंने कहा,
"हुम्म्म्म्म्म्म्म्म'" उसने कहा!
"अघोर-चक्र सुशोभित करें सर्वकालबली-भैरवी"
"हुम्म्म्म्म्म्म्म्म" उसने कहा,
"उर्ध्व-मंडल में कौन?"
"मै ही हूँ!" उसने कहा,
"अवतल में फिर हम क्यूँ??" मैंने पूछा,
उसने जवाब न देते हुए मेरे गाल पर एक जोदार झापड़ लगाया!
मै जानता था इसकी वजह! प्रश्न कुछ समय पहले कर दिया था मैंने! अब दूसरा प्रश्न किया,
"भोग-रसास्वादन का फल किसका?"
"तेरा! संपूर्ण तेरा!" उसने कहा!
"मै साधक किसका हे भैरवी?" मैंने कहा,
"मेरा!!!" उसने कहा,
"तू भैरवी किसकी?" मैंने कहा,
"तेरी!" उसने कहा!
"तू चक्षु-वाहिनी किसकी?" मैंने कहा,
"तेरी ओ मेरे साधक!" उसने कहा!
अब उसने मेरा मर्दन तीव्र किया!
उसके प्रहार किसी पत्थर की तरह से चोट आकर रहे थे! उसने दोनों हाथों से मेरी गर्दन पकड़ ली! सांस लेना मुश्किल हो गया था! फिर उसने प्रश्न किया,"
"तन्मयता और तन्द्रा में दीर्घ-आयाम किसका ओ साधक?"
"तन्द्रा का" मैंने जवाब दिया! उसने मर्दन थाम और मेरी गर्दन छोड़ी और फिर मेरे चेहरे पर अपना चेहरा ढँक लिया!
फिर प्रश्न किया," आरूढ़ अवस्था में विघ्न क्यूँ?"
"दंभ है इसका कारण" मैंने उत्तर दिया,
"उत्तरगामी पश्चगामी कैसे?" उसने पूछा,
"पूर्वगामी अनुसंधि अपूर्ण" मैंने कहा,
उसने फिर मर्दन रोका, और मेरे वक्ष को सहलाया,
"ख्यात कौन? विख्यात कौन और प्रख्यात कौन?
"कर्म ख्यात है, यश विख्यात है और उसका फल प्रख्यात है!" मैंने कहा,
वो फिर थमी और मेरे केशों को सहलाया!
"तम अतम कैसे?" उसने पूछा,
"नियमोल्लनघन" मैंने कहा!
उसने फिर अट्टहास किया!
शांत हो गयी वो! और मर्दन आरम्भ कर दिया! अब मैंने प्रश्न पूछा,
"दश-महाविद्या संपूरक कौन?"
" अष्ट********* " उसने कहा,
"रज किसका ओ भैरवी?" मैंने पूछा,
"धन का!" उसने कहा,
"मेरा धन स्वीकार है मेरी भैरवी?"
"हाँ समूल मेरे साधक!" उसने कहा!
उसका ये कहें मेरी सफलता का अर्ध-सूचक था!
"शमशान-वासिनी जगा ओ भैरवी!" मैंने कहा
उसने क्रंदन किया! महा-क्रंदन!
शमशान-वासिनी जागृत हुई! उसका भी प्रवेश हुआ! उसने मुझे पीड़ित करना शुरू किया! मेरा लिंग ऐसा लगा की कहीं काँटों में फंस गया है, प्रदाह-अग्नि लगने लगी, मेरे पीड़ा के मारे नेत्रों से आंसूं झलक गए!
मुझे मेरे उदार से मेरी आँतों को खींच जाना महसूस हुआ, लगा आंतें बाहर आने वाली हैं शरीर से, मैंने कुपित-मंत्र का जाप किया, जाप से प्रभाव हुआ, नेत्रों से आंसूं और पीड़ा शांत हो गयी!
तभी मेघना ने मेरे लिंग को बाहर निकाल और मेरे शरीर पर मूत्र-त्याग किया! ये मूत्र नहीं मानव-रक्त होता है, बेहद गाढ़ा! उसने फिर नीचे बैठ कर मेरे बदन से वो सारा रक्त चाट लिया!
अब उसने प्रश्न किया, "तांडव और विकराल में भारी कौन?"
"तांडव सम्पूर्ण-काल बलि होता है, परन्तु न बढ़ता है, न घटता है, विकराल आह्वान पर अमोघ होता है शमशान-वासिनी!" मैंने उत्तर दिया!
उसने जोर से अट्टहास किया! फिर बोली, "नरमुंड की माला बड़ी अथवा अस्थिमाल बड़ा?"
"नरमुंड की माला सदैव बड़ी होती है, किन्तु अस्थिमाल इसकी गाह्य-ऊर्जा का निष्पादन करता है, अन्यथा ये व्यर्थ है!"
वो अब दोबारा से मेरे लिंग पर बैठ गयी! अबकी बार मर्दन मृदु था! तृतीय आयाम आने को था! शमशान-वासिनी चली गयी! अब स्वयं भैरवी ने रूप प्रकट किया! मर्दन करते हुए बोली, " ओ साधक! तू मेरे लिए अब त्याज्य नहीं है!"
ये मेरे लिए गौरान्वित होने वाला अर्थ था! मुझे काम का ध्यान न रहा! मै अब साधना में तल्लीन हो गया!
उसनके फिर कहा," मुझे ध्याने वाला ब्रह्म-साधक होता है, मै तेरा सरंक्षण करुँगी!"
एक से एक अप्रत्याशित वाक्य मेरे ह्रदय-पटल पर चोट कर रहे थे!
उसने अब अपने पाँव भूमि से उठाकर मेरे वक्ष-स्थल पर रख दिए! मुझे उसके मर्दन-वेग से अब कोई पीड़ा नहीं हो रही थी! अब मै भैरवी के सरंक्षण में था!
उसके बात उसने मुझे अप्राप्य ज्ञान से पोषित किया! वो लगातार कहती रही और मै उसको कंटस्थ करता रहा!
उसने मर्दन-चक्र और तीव्र किया, और तीव्र! उसके पाँव के नखों ने मेरी गर्दन और मेरी हनु में ज़ख्म बना दिए थे! रक्त-स्राव हो रहा था! मै अपने मंत्रोच्चारण में तल्लीन था!
उसने तब अपने पाँव मेरे वक्ष से हटाये और मर्दन तीव्र किया! मैंने प्रश्न किया! "ओ भैरवी? मै सफल हुआ?"
उसने जवाब नहीं दिया बस अपनी गर्दन दायें-बाएं घुमाती रही!
"मै सफल हुआ ओ भैरवी?" मैंने कहा,
कोई उत्तर नहीं आया! मैंने फिर प्रश्न किया, "ओ भैरवी? मै सफल हुआ?"
तभी उसने मर्दन रोक, मेरे लिंग को भयानक पीड़ा हुई! उसने मेरे केश पकडे और तड़पने की सी भाव-मुद्रा में मेरे ऊपर निढाल हो गयी!
उसका स्खलन हो गया था!
मैंने भैरवी-सिद्ध कर ली थी! मेरी साधना सफल हो गयी थी! मैंने भैरवी को धन्यवाद करते हुए विदा किया और कई आशीष प्राप्त किये!
वो मेरे ऊपर लेटी रही, करीब आधे घंटे तक! उसके योनि-स्राव ने मुझे और उसके जैसे चिपका दिया हो!
साधिकाएँ दौड़ी आयीं! उन्होंने मेघना को उठाया! और मुझसे अलग किया, मै भयानक पीड़ा में था, मेरी उत्तेजना का अंत हो गया था, मुझे परमोच्च-सिद्धि-वरण प्राप्त हुआ था!
मै खड़ा हुआ और फिर गिर गया! अशक्त हो गया था मै!
मै वहीँ पड़ा रहा! चित्त-प्रसन्नता का मद मुझ पर चढ़ा था!
फिर भोर हुई! भोर-प्रभात के उज्जवल सूर्य ने अपने ताप से मेरे शरीर को ऊर्जामान किया! मै संयत हुआ और खड़ा हुआ! धस्रित-चिता को नमन किया और वापिस हो गया!
मै वापिस आया, वहां शेषनाथ तत्पर था आगे के रिद्ध-अनुष्ठान हेतु! भैरवी-विजय पूजन आरम्भ हुआ!
मुझे अपनी समस्त शक्तियों का पूजन करना था! जिसके कारण मुझे ये वरण प्राप्त हुआ था!
अगले दिवस मैं मेघना से मिला! मेघना काफी अशक्त थी, मैंने उसमे ऊर्जा-संचार किया और उसका परम-धन्यवाद किया!
अगले दिवस मै सभी से विदा लेने के पश्चात दिल्ली आ गया! अब मुझे बिना अन्न-जल के ५ दिनों तक रहना था! समयावधि पूर्ण होने के पश्चात मै भैरवी-प्रयोग हेतु सशक्त हो गया था!
भैरवी-साधना संपूर्ण हो चुकी थी!
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