वर्ष २००८ अजमेर की ...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २००८ अजमेर की एक घटना

21 Posts
1 Users
0 Likes
249 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

लेकिन आज तक सीख नहीं पाया था वो! तभी उन्होंने आलोक को फ़ोन लगाया, उन्होंने सारी बात आलोक को बताई, आलोक को भी हैरत हुई! सौभाग्य से आलोक को मेरे एक जानकार के पास आना था, वो उसे मेरे पास लेके आ रहे थे, कुछ प्रश्न थे उसके पास, उत्तर नहीं मिल पा रहे थे उनके उसको! आलोक ने मेरा जिक्र छेड़ दिया उनसे! हर्ष ने तब आलोक को कहा कि वो एक बार इस प्रेतात्मा का भी जिक्र कर दें मुझसे, तो उसने हामी भर ली!

आलोक मेरे जानकार के साथ आया, नमस्कार आदि होने के पश्चात उसने हर्ष और उस प्रेतात्मा का जिक्र छेड़ दिया, तब आलोक ने हर्ष से वहीँ बात की फ़ोन पर और मुझे फ़ोन पकड़ा दिया! हर्ष ने संक्षेप में सबकुछ बता दिया! हर्ष ने गुजारिश की कि एक बार मै मिल लूँ उनसे या वो आ जायेंगे मेरे पास स्वयं मिलने!

तब मैंने स्वयं ही कार्यक्रम निर्धारित कर लिया वहाँ जाने का! इसके दो कारण थे पहला कि हर्ष का मन काफी विचलित था, ना जाने कैसा तांत्रिक ले आयें वो? उदिग्नता अधिक बढ़ी हुई थी उनकी, और दूसरा और मुख्य कारण उस प्रेतात्मा की मुक्ति का था! नहीं तो ना जाने कब तक भटके वो उस मार्ग पर! अनवरत एवं निरंतर भटकाव! उस दिन वीरवार था, सो मैंने आगामी रविवार का कार्यक्रम बना लिया! हमारे साथ आलोक भी चल रहा था!

और फिर आया इतवार! हम तीनों निकल पड़े जयपुर के लिए! दोपहर तक पहुँच गए! हर्ष बेसब्री से हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे! आदर-सत्कार के साथ उन्होंने हमें बिठाया और चाय आदि पिलाई! तब मुझे हर्ष ने आरंभ से लेकर आखिर तक सब कहानी बता दी! सबसे पहले तो मैंने हर्ष के साहस और विवेक की भूरि भूरि प्रशंसा की! और उसको ये भी मैंने बताया कि उस प्रेतात्मा के मुक्त होने पर उसके पुण्य-फल का एकमात्र वही हक़दार होगा!

फिर भी मैंने उनसे कुछ प्रश्न पूछे, मैंने पूछा, "क्या इसके अलावा उसने और कुछ बताया अपने बारे में?"

"नहीं गुरु जी" उसने कहा,

"कोई ख़ास बदलाव इन दो मुलाकातों में?" मैंने पूछा,

"नहीं गुरु जी" उसने बताया,

"अच्छा! उसने सामने की ओर इशारा किया था, सामने क्या है वहाँ?" मैंने पूछा,

"जी वहाँ मात्र झाड-झंखाड़ है और कुछ एक पेड़" उसने बताया,

"या हो सकता है, रात में ना दिखा हो? दिन में दिखाई दे?" मैंने कहा,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"हाँ जी, हो सकता है" हर्ष ने सहमती जताई,

"तो ठीक है, हम आज दिन में ही चलते हैं वहाँ" मैंने सुझाव दिया,

"जैसा आप कहें" हर्ष ने कहा,

"शर्मा जी, रास्ते से कुछ सामान ले लेना, आवश्यकता पड़ सकती है" मैंने शर्मा जी से कहा,

तब हर्ष ने पूछा सामान के बारे में तो मैंने समझा दिया उनको कि समान है क्या! उसके बाद हम दो गाड़ियों में वहाँ के लिए चल पड़े!

रास्ते में से हर्ष उतरे अपने भाई के साथ और फिर कोई दस मिनट में दोनों मुख्य सामान ले आये, हम फिर से चल पड़े आगे! आगे गए तो हर्ष ने गाड़ी रोकी, बाहर आये तो हमने भी गाड़ी रोकी, मै भी बाहर आया, हर्ष बोले,"गुरु जी, ये है वो पुलिस-चौकी, जहां वो आके गायब हो जाती है" हर्ष ने इशारा किया उस तरफ!

मैंने देखा उस तरफ, वो एक चौकी थी, सड़क के किनारे!

"आपने क्या नाम बताया था उसका? शालिनी?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, लेकिन जब मैंने उस से पूछा तो उसने मुझे शालू बताया था" हर्ष ने कहा,

"हाँ, घर का नाम होगा वो उसका" मैंने कहा,

"जी हाँ, ऐसा ही होगा" हर्ष ने कहा,

"वो सड़क पार करती है?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, लेकिन आधे में आते ही गायब हो जाती है" हर्ष ने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

उसके बाद हम दुबारा से अपनी अपनी गाड़ी में बैठे और चल दिए आगे, उस खोमचे की तरफ जहां वो अक्सर मिलती है! दिन के करीब साढ़े छह बज रहे थे, उजाला काफी था वहाँ, हम उस खोमचे वाली जगह पर पहुँच गए, मुझे हर्ष वहाँ ले गया जहां उसने उस से बातें की थीं पिछली बार, उसी ईंटों के चट्टे के पास, जहां वो अक्सर मिलती है, मैंने वहाँ सामने देखा, सामने एक संकरा सा रास्ता था और कुछ नहीं, वो शायद किसी गाँव तक जाता होगा वहाँ से, तो यहाँ ये रास्ता था और विशेष कुछ भी नहीं! हम वहाँ से दुबारा गाड़ी में सवार हुए और फिर अजमेर


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

की तरफ चल पड़े, अब अजमेर में ही समय काटना था और वहीँ से फिर वापिस आना था यहाँ, रात में!

अजमेर पहुंचे तो हर्ष ने अपने एक जानकार के होटल में ठहरवा दिया! मैंने वहाँ कुछ देर आराम किया और फिर स्नानादि से फारिग हुआ! मैंने वहाँ एकांत में अपने दो चार आवश्यक मंत्र जागृत कर लिए! उसके बाद मैंने, शर्मा जी ने और आलोक ने मदिरापान किया, मैंने आगया-भोग दिया वहाँ पर और फिर थोडा बहुत खाना भी खाया! अब बजे रात्रि के दस! हम अब निकले वहाँ से! दोनों गाड़ियाँ दौड़ पड़ी उस तरफ जहां ये शालू नाम की प्रेतात्मा भटक रही है!

करीब सवा घंटे में हम वहाँ पहुँच गए, रात के साढ़े ग्यारह हो रहे थे, हर्ष और आलोक अपनी गाड़ी छोड़ हमारी गाड़ी में आ गए थे, लेकिन अभी तक वो प्रेतात्मा वहाँ प्रकट नहीं हुई थी! हमने कुछ देर आर इंतज़ार करना सही समझा! बजे बारह, लकिन तब भी कोई नहीं आया वहाँ! और समय बीता! इस तरह पौने दो हो गए! तभी आलोक ने सड़क की दूसरी तरफ किसी को खड़े देखा, यही थी शालू! मैंने अब टकटकी लगाईं उस पर! वो सड़क के दूसरी ओर खड़ी थी! मैंने सभी को वहीँ रुकने को कहा और फिर मै गाड़ी से बाहर निकला! तब तक वो सड़क पार कर उस खोमचे के पास आ चुकी थी!

अब मै गया खोमचे के पास! उसने मुझे देखा और मैंने उसको! पीले रंग की साड़ी और पीले रंग का ब्लाउज पहने वो वहीँ खड़ी थी! उसने मुझे गुस्से से देखा तो मैंने भी गुस्से से देखा उसको!

"शालिनी?" मैंने पूछा उस से,

वो हाथ उठा के आई मेरी तरफ जैसे कि मारने के लिए आई हो! मै पीछे हटा थोडा और अपनी एक माला गले से उठाकर अपने कान पर डाल ली! वो अब पीछे हटी!

"सुन शालू, जैसा कहता हूँ वैसा मान!" मैंने डांटा उसको!

"कौन है तू?" उसने पूछा,

"मेरी छोड़, तू बता, तू शालू ही है ना?" मैंने पूछा,

"मुझे कैसे जानता है?" उसने गुस्से से पूछा,

"बकवास बंद अब!" मैंने डांटा उसको दुबारा!

"जल्दी बता, तू शालू ही है ना?" मैंने पूछा,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"हाँ" उसने कहा,

"दिल्ली में रहती है?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"तो यहाँ क्या कर रही है तू?" मैंने कहा,

"मेरे पति और बेटा आ रहे हैं यहाँ" उसने बताया,

"कहाँ से?" मैंने पूछा,

"यही आयेंगे" उसने कहा,

"मैंने पूछा, कहाँ से आ रहे हैं?" मैंने कहा,

"आने वाले हैं" उसने कहा,

मै समझ गया, उसे मालूम नहीं अपने पति और बेटे की मौत के बारे में!

"लेकिन मैंने तो सुना है कि लुटेरों ने उनको घायल किया है?" मैंने पूछा,

"हाँ! हाँ! मुझे पुलिस-चौकी तक छोड़ दो, मै ये एहसान नहीं भूलूंगी आपका, जिंदगी भर" उसने हाथ जोड़ के कहा और विनती की!

"क्या करेगी वहाँ जाकर?' मैंने पूछा,

"खबर करुँगी" उसने बताया,

"किसकी खबर?" मैंने पूछा,

"वो, वहाँ मेरे पति और बेटा घायल पड़े हैं" उसने इशारा करके कहा सड़क के पार!

"कहाँ?" मैंने पूछा,

"वहाँ" उसने इशारा करके कहा,

"चल मेरे साथ, मुझे दिखा?" मैंने कहा,

तब वो चली और सड़क के पास पहुँच गयी, फिर हैरान हो गयी, नीचे बैठ गयी, रोने लगी और फिर बोली, "पता नहीं कहाँ गए वो दोनों?"

"यहीं थे वे?" मैंने पूछा,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

"हाँ, यहीं थे वे दोनों?" उसने ज़मीन पर हाथ लगा के कहा,

"तो तू कहाँ थी तब?" मैंने पूछा,

"मै गाड़ी में थी" उसने बताया,

"गाड़ी में? क्यों?" मैंने पूछा,

"उन्होंने मेरे पति को खींच के बाहर निकाल था" उसने कहा,

"किसने? मैंने पूछा,

"लुटेरों ने" उसने बताया,

"फिर?' मैंने पूछा,

"फिर मेरा बेटा भाग बचाने उनको" उसने कहा,

"फिर?" मैंने उत्सुकता से पूछा,

"फिर दोनों गिर गए नीचे, उनको पीटा उन्होंने" उसने बताया,

"फिर, तू कहाँ थी तब?" मैंने पूछा,

"गाड़ी में, फिर मै भागी वहाँ" उसने कहा,

अब कहानी के पेंच खुलने लगे थे! और मै यही चाहता था! "फिर?" मैंने पूछा,

"मै भागी और गिर गयी वहाँ" उसने बताया,

"फिर?" मैंने और जानना चाहा!

"तब से मै उनको ढूंढ रही हूँ" उसने बताया,

बस! यही वो समय है जिसके बाद उसका भटकना आरम्भ हुआ था! वो ना जाने कब तक वो ऐसे ही भटकती रहती यदि हर्ष ने इस संज्ञान ना लिया होता!

अब मुझे कुछ करना था! अतः मैंने अपना खबीस फ़ौरन हाज़िर किया! खबीस हाज़िर हुआ और सामने खड़ी प्रेतात्मा को देख क्रोधित हुआ! मैंने उसको उस प्रेतात्मा को पकड़ने का हुक्म दिया! शालू जैसे ही भागी, खबीस ने उसको उसके बाल से पकड़ कर क़ैद कर लिया! अब मैंने खबीस को भी वापिस भेज दिया! और आ गया वापिस गाड़ी में! वहाँ सभी हैरान थे, केवल शर्मा जी के अलावा!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 1 year ago
Posts: 9488
Topic starter  

हर्ष चकित थे! बोले, "गुरु जी, जब आप वहाँ खड़े थे तो हम नहीं देख पा रहे थे उसको, ऐसा क्यों?"

"जब प्रेतात्मा किसी से वार्तालाप करती है तो बाह्य-रूप शुष्क हो जाता है उसका, इसी कारणवश आप नहीं देख पाए उसको!" मैंने कहा,

उसके बाद हम वापिस चले जयपुर, मैंने आलोक और हर्ष को बता दिया कि उसको मैंने क़ैद कर लिया है! और अब उसका मुक्ति-कर्म करना है! हर्ष ने पूछा कि क्या वो उसको अब देख सकता है? मैंने उसको मना कर दिया कि अब वो नहीं देख सकता उसको! इस से उसको निराश तो हुई परन्तु शर्मा जी ने उसको सब समझा दिया!

हम अगले दिन दिल्ली वापिस आ गए!

उस से कोई ग्यारह दिन बाद एक शुभ अवसर पर और पावन मुहुर्त पर मैंने शालू को खबीस से आज़ाद करवाया और फिर उसको समझाया, उसने आखिरकार अपनी हार मानी और पावन-मुहुर्त की अंतिम दो घटियों पर मैंने उसको हमेशा हमेशा के लिए मुक्त कर दिया!

इसकी खबर आलोक और हर्ष को अगले दिन दे दी गयी!

शालू मुक्त हो गयी थी! उसके भटकने को विराम लग चुका था! उसके पति और बेटे के बारे में मैंने जानना नहीं चाहा!

एक और शालू अपने परम-धाम की ओर प्रशस्त हो चुकी थी!

उसके बाद किसी ने भी शालू को वहाँ उस खोमचे के पास खड़े नहीं देखा, ना हर्ष ने और ना ही विमल ने!

------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------

 


   
ReplyQuote
Page 2 / 2
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top