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वर्ष २००७ राई, सोनीपत के पास, हरियाणा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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वक़्त तेजी से बीत रहा था, मै मंत्रोच्चारण भी करता जा रहा था, फिर बजे बारह! मैंने शर्मा जी से कहा, “शर्मा जी वक़्त होने को है, अपना ख़याल रखियेगा, अगर कोई गड़बड़ हो तो मेरा ये त्रिशूल उठा लेना और अपने सीने तक तान लेना इसको, कोई आपके पास फटकेगा भी नहीं!” मैंने उनको बताया,

“जी गुरु जी” वो बोले,

और फिर! कुँए से वो आदमी बाहर आया! करीब साढ़े छह फीट लम्बा! चुस्त पाजामी पहने और घुटने तक का एक खुली बाजुओं वाला कुरता पहने! और कंधे से जाती एक मोटी सी रस्सीनुमा पट्टी सी, कपडे की पट्टी! और फिर उसके बाद वो औरत करीब छह फीट लम्बी! उसने एक अजीब सा लबादा पहना हुआ था, बुर्का भी नहीं था, धोती भी नहीं थी, अजीब सी पोशाक थी उसकी! उसका चेहरा भी नहीं दिखाई दे रहा था! और फिर निकली एक और दूसरी लड़की! इस लड़की ने भी वैसा ही लबादा पहना हुआ था! लेकिन उसका ये लबादा उसके घुटनों तक था, नीचे तक नहीं!

तभी उस आदमी की नज़र मुझ पर पड़ी! उसने उन दोनों को वहीँ बिठाया और धीरे धीरे हमारी ओर बढ़ा! अब मै भी खड़ा हो गया! मेरी तामसी-माया की गंध उको लगी तो वो वहीँ ठहर गया! ये मेरा पहला विजय-चिन्ह था! वो वहीँ खड़ा रहा और हमें घूरता रहा! अब मै आगे बढ़ा उसकी तरफ! वो वहीँ खड़ा रहा, हिला नहीं, दूरी कोई दस फीट होगी हम दोनों के बीच! मै और आगे बढ़ा और पांच फीट तक आ गया! अब वो दोनों लडकियां भी आगे आयीं और उसके दोनों कन्धों पर हाथ रख कर हमें घूरने लगीं! अब मैंने उनका चेहरा देखा! जिसने पूरा लबादा पहना था, वो गोर रंग की मजबूत कद-काठी वाली औरत थी, हाथों में कंगन भी थे! गले में हार भी था! किसी संपन्न परिवार की लगती थी! दूसरी वाली ने भी आभूषण पहन रखे थे! मुझे ये दोनों आपस में बहनें ही लगीं!

मै और आगे आया, अब इतनी दूर कि वो मुझे भी छू सकते थे और वो मुझे! इतने में उस आदमी ने अपनी कमर में खुंसा हुआ खंजर निकाल, उसे देख मैंने कहा, “इसको कोई ज़रुरत नहीं है, रख लो वापिस, मै तुमसे न तो लड़ने आया हूँ, न कुछ छीनने!”

ये सुन तीनों को झटका लगा! तीनों ने एक दूसरे को देखा!

“क्या आप बनैटा से आये हैं?” उसने पूछा,

“नहीं, मै नहीं आया वहाँ से” मैंने जवाब दिया,

उसने मुझे आप कह के संबोधित किया था, ये मित्रवत व्यवहार था!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वो चौंक पड़े!

“फिर आप कहाँ से आये हैं?” उसने पूछा,

“यहीं पास में से” मैंने जवाब दिया,

वो मेरा अर्थ न समझ सके!

“तुम तीनों हो कौन?” मैंने पूछा,

वो चुप ही रहे!

मैंने प्रश्न दुबारा दोहराया!

वो फिर चुप रहे!

“देखो मै तुमको कोई नुक्सान नहीं पहुंचाऊंगा, मुझ पर यकीन करो!” मैंने बताया,

वो बेचारे डरे सहमे खड़े रहे वहीँ के वहीँ!

“तुमने ही पीटे वो लोग जो आये थे यहाँ?” मैंने पूछा,

“हाँ!” उसने बोला,

“क्यूँ?” मैंने पूछा,

“मेरी पत्नी और उसकी बहन है यहाँ पर, रक्षा कर रहा था मै” उसने बताया,

“ये तुम्हारी पत्नी है?” मैंने पूछा,

“हाँ!” उसने बताया,

“नाम क्या है इसका?” मैंने पूछा,

“गीता” उसने बताया,

“और वो तुम्हारी बीवी की बहन है, उसका नाम क्या है?” मैंने पूछा,

“बाला” उसने बताया,

“और तुम्हारा?” मैंने पूछा,

“उदय चौहान” उसने बताया!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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“उदय? तुम लोग यहाँ कैसे?” मैंने पूछा,

“प्रतीक्षा में” उसने बताया,

“किसकी प्रतीक्षा?” मैंने पूछा,

“जो हमे लेने आने वाला है” उसने बताया,

“कौन लेने आने वाला है तुमको?” मैंने पूछा,

“मेरे काका जी” उसने बताया,

“कौन है तुम्हारे काका?” मैंने पूछा,

“हरीहर जी” उसने बताया,

“अच्छा! वो तुम्हे लेने आयेंगे!” मैंने कहा,

“हाँ” उसने मुस्कुरा के कहा,

“तुम लोग खुद अपने गाँव क्यूँ नहीं चले जाते?” मैंने पूछा,

“गाँव में बाढ़ आई है, सब घर डूब गए” उसने बताया,

“अच्छा! और लोग कहाँ है तुम्हारे परिवार के?”

“वो परली पार गए, पिता जी और बड़े भाई” उसने बताया,

“अच्छा! तो ये आपके काका जी कहाँ रहते हैं?” मैंने पूछा,

“बनैटा” उसने बताया,

ओह! तभी इसने मुझसे पूछा था बनैटा से आये हो क्या?

“उदय? और भी तो लोग होंगे जो तुम्हारे साथ गाँव से आये होंगे, जो बच गए हैं, तुम्हारी तरह, वो कहाँ हैं?” मैंने पूछा,

“सबको लेने आये थे उनके रिश्तेदार, मेरे काका भी आने ही वाले हैं” उसने बताया,

“तुम्हारे काका क्या करते हैं?” मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“वो बनैटा में रहते हैं उनका अपना कारोबार है अनाज का” उसने बताया,

अब ये बनैटा कहाँ है ये तो मुझे मालूम नहीं चल सका,

“तुमने खबर की थी उनको?” मैंने पूछा,

“मै देहली में काम करता हूँ, मेरे काका का लड़का आया था ये बताने कि गाँव बाढ़ की चपेट में आ सकता है, वहाँ से परिवार को निकालो, फिर चुंगी तक ले आओ, मेरे काका का व्यापारी काफिला वहीँ से गुजरेगा कल, तुम चुंगी पर सभी को ले आना, फिर काफिले के साथ बनैटा आ जाना, मै तभी निकल पड़ा अपने परिवार को निकालने, मै दोपहर को पहुँच गया था, परिवार को निकाल लिया, जो सामान बचा सकते थे बचा लिया, मेरे पिताजी और बड़े भाई परली पार रहते हैं” उसने बताया,

उन दिनों यहाँ बाढ़ आया करती थी ये तो सच है, इतिहास में यहाँ कई बाढ़ आई हैं, यमुना नदी उफान पर आ जाती है और आसपास भारी तबाही लाती है आज भी!

“तो तुम्हारे काका का लड़का तुमको ये बताने बनैटा से आया था?” मैंने पूछा,

“नहीं वो मेरे काका का अनाज लाता है देहली हाट में” उसने बताया,

“अच्छा! क्या नाम है उसका?” मैंने पूछा,

“गंगाधर” उसने बताया,

“अच्छा! तो तुम चुंगी तक आये?” मैंने पूछा,

“गाँव से सभी लोग निकल रहे थे, कोई कहीं जा रहा था, कोई कहीं, मुझे चुंगी तक जाना था, हम लोग वहाँ से पैदल ही चले थे सब, बीच बीच में सभी के रिश्तेदार आते थे और वो अपने अपने रिश्तेदारों के साथ चले जाते थे” उसने बताया,

“अच्छा! तो चुंगी तक तुम कितने लोग पहुंचे?” मैंने पूछा,

“हम कुल नौ लोग थे” उसने बताया,

“लकिन अब तो तुम तीन हो यहाँ?” मैंने पूछा,

“शायद रात में चले गए हों वे लोग, एक ही परिवार के थे वो लोग” उसने बताया,

बस! यही वो क्षण था जिस से आगे उसको याद नहीं था! इसी क्षण ही ये मृत्यु का शिकार हुए होंगे! मुझे बहुत दया आई इस उदय और उसके परिवार पर! बेचारे आज भी प्रतीक्षा कर रहे थे


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपने काका के काफिले की! बनैटा जाने के लिए! इसके आगे उन्हें कुछ याद नहीं था! अब यही ये रहस्य छिपा था! यही मुझे जानना था!

“सुनो, तुम जहां छिपे हो छिप जाओ, मुझ पर विश्वास रखो!” मैंने कहा,

“अच्छा! आप हमारी मदद करेंगे?” उसने पूछा,

“हाँ! अवश्य करूँगा! मै इसीलिए यहाँ आया हूँ! अब जाओ छिप जाओ, मै जा रहा हूँ बनैटा, आपके काका के यहाँ, या हो सकता है काफिला मिल जाए तो मै उनको सूचित कर दूं कि उदय और उसका परिवार वहाँ है छिपा हुआ, उनके आदमी आयेंगे तो उनके साथ चले जाना आप सभी लोग!” मैंने कहा,

उसके चेहरे पर मुस्कराहट आई, उसने बाकी दोनों लड़कियों को भी देखा, वो भी मुस्कुरायीं!

फिर वो बोला, “आपकी बड़ी मेहरबानी! मै आपका ये उपकार कभी नहीं भूलूंगा”

“ऐसी कोई बात नहीं! किसी कि मदद करना सभी का कर्त्तव्य बनता है!” मैंने बताया,

वो सभी मुस्कुराए!

“ठीक है आप सभी अब छिप जाओ, यहाँ लूट-पाट होती है!” मैंने कहा,

उन्होंने आसपास देखा और फिर तीनों ही उस कुँए में कूद गए!

बेचारे! मेरा दिल पसीज गया!

मैंने सारी बातों से शर्मा जी को भी अवगत करा दिया, उनकी आँखें भी नम हो गयीं!

 

उसके बाद मै वापिस आया प्रधान के पास, सभी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे, पहले तो उनको हैरत हुई हम दोनों को सुरक्षित देख कर! मैंने प्रधान को समझा दिया कि जब तक मै वापिस नहीं आऊं, तब तक वहाँ कोई नहीं जाए! वो प्रेतात्मा भड़क गयीं हैं आपके उलटे-सीधे कामों से, यदि कोई गया तो अबकी बार कोई बच के नहीं आएगा वहाँ से! ऐसा सुन सभी घबरा गए! सभी ने कानों में अंटे लगा लिए कि मेरे वापिस आने तक कोई नहीं जाएगा वहाँ! उसके बाद मै शर्मा जी के साथ वापिस दिल्ली आ गया!

दिल्ली आया तो उसी रात क्रिया में बैठ गया, समस्त आवश्यक कार्य पूर्ण किये और फिर मैंने उनकी जानकारी जुटाने हेतु क्रिया आरम्भ की! मैंने कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान आरम्भ किया! कर्ण-पिशाचिनी इसीलिए सिद्ध की जाती है, भूतकाल और भविष्यकाल की सटीक


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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जानकारी देती है! लेकिन इसको सिद्ध करना अत्यंत क्लिष्ट एवं प्राणहारी सिद्धियों में से एक है! कई साधक सीधे-सीधे इसको सिद्ध करने लगते हैं, बिना इस से पहले सशक्तिकरण-सिद्धि किये, तब इसका तेज और ऊर्जामयी आवरण उनको जीवनपर्यंत शारीरिक से अपंग एवं मानसिक रूप से विक्षिप्त कर देता है! खैर, मैंने कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान आरम्भ किया, करीब दो घंटे के बाद कारन-पिशाचिनी प्रकट हुई, मै उसको भोग अर्पित किया, भोग अर्पित करने के पश्चात मैंने अपने प्रशन पूछे, उसने मुझे मेरे प्रश्नों के उत्तर दिए जिन्हें जानकार दिल में उदय, गीता एवं बाला के प्रति दयाभाव भर गया!

उदय और उसका परिवार आज के राई मंडल में आने वाले गाँव, आधुनिक नाम झुंडपुर के पास का रहने वाला था, ये स्थान पहले बाढ़ग्रस्त स्थानों में से था, यहाँ यमुना नदी से आई बाढ़ से सैंकड़ों जाने चली जाती थीं, जान-माल का भी नुकसान और फसलों की भी भारी तबाही होती थी, ये बात आज से कोई एक सौ तेइस सालों पहले की है, जब यहाँ बाढ़ का प्रकोप हुआ था, उस समय उदय जो देहली में नौकरी किया करता था उसको खबर मिली कि उसके काफिले वालों ने ये चेताया है के उदय के गाँव के आसपास वाले गाँव भारी बाढ़ की चपेट में आ सकते हैं, अतः वो अपने परिवार को वहाँ से निकाल लाये और उसके काका के काफिले के साथ सुरक्षित बनैटा आ जाए, उसके काका का काफिला चुंगी पर आके रुकेगा, उदय ने यही किया, वो गाँव से अपने परिवार को निकाल लाया सुरक्षित, और अपनी पत्नी व साली के साथ कुछ सामान लेकर चुंगी की तरफ चला, सारा गाँव खाली हो रहा था, अतः लोग घोड़ों, बैल-गाड़ी, घोडा-गाड़ी से सुरक्षित वहाँ से दूर जाना चाते थे, वहाँ सभी को अपने रिश्तेदार मिलते और वो वहाँ उनके साथ चले जाते थे, इस तरह तीन ये, उदय, गीता, बाला और बाकी पांच लोग बचे थे, उन दिनों बारिश के दिन चल रहे थे, ये चौमासे का समय रहा होगा, जिस जगह ये कुआँ था, उस जगह उस समय एक पुरानी सराय थी, यहाँ व्यापारी आदि लोग रात गुजारा करते थे, नहाया धोया करते थे, और सुबह फिर आगे चले जाया करते थे, ये जो कुआँ था ये उसी सराय में बना हुआ था, और चुंगी अभी कोई बीस किलोमीटर दूर थी, बरसात ताबड़तोड़ हो रही थी, तब उदय और उन पांच लोगों ने यहाँ शरण ली थी, उसी रात उस सराय का एक बड़ा, भारी स्तम्भ टूटा और सोते हुए इन तीनों के ऊपर गिरा, चीख भी न निकली और उनकी उसी क्षण मृत्यु हो गयी! ये आकस्मिक मृत्यु थी, अकाल मृत्यु, एक बात साफ़ थी, ये रात्रि का समय रहा होगा, लेकिन वे तीनों इस कुँए में कैसे आये ये नहीं पता चला, मैंने अनुमान लगाया की उनकी लाशों को शायद कुँए में डाल दिया गया होगा, मित्रगण, इस तरह की कई सराय आज भी दिल्ली के आसपास खंडहर के रूप में मौजूद हैं, कई धूल-धस्रित हो गयीं, कई खंडहर बन गयीं और कई ख़तम हो कर आधुनिक निवास-स्थल बन गए! खैर, उदय, बाला एवं गीता उस चुंगी तक कभी न पहुँच सके! तब से लेके आजतक वे यहीं फंसे हुए थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मुझे उनका मुक्ति-कर्म करना था! अतः अब मुझे उनको पकड़ना था! नहीं तो कोई और सक्षम-तांत्रिक इन फंसी हुई आत्माओं का अनुचित लाभ उठा सकता था, इसीलिए मैंने अश्वाल-महाप्रेत का आह्वान किया! वो प्रकट हुआ! मैंने उसको उन तीनों को पकड़ने के लिए भेज दिया! कुछ ही क्षण में अश्वाल ने उनको मेरे सामने हाज़िर कर दिया!

वे घबराए हुए थे! मै उनको समझाना भी चाहता तो नहीं समझा पाता! इसीलिए मैंने एक युक्ति चली! मैंने उदय से कहा, “उदय मै तुमको इसलिए यहाँ लाया हूँ कि तुमको बनैटा छोड़ दूँ”

“सच में?” उसने पूछा,

“हाँ! मै तुमको एक जगह ले जाऊँगा, वहाँ तुम्हारे काका का काफिला आएगा, तुम उसमे शामिल हो जाना, ठीक है?” मैंने बताया,

“हाँ ठीक है!” उसने कहा और उन तीनों ने एक दूसरे का हाथ थामा!

“ठीक है फिर! तुमको मै कल्ले जाऊँगा उस जगह!” मैंने कहा,

“आपका बहुत बहुत धन्यवाद!” उसने कहा,

उसके बाद मैंने उसको वहीँ छोड़ दिया, अश्वाल वहीँ तैयार था!

मैंने उसी समय शर्मा जी को बुलाया, और बाहर आया, मै अब यमुना नदी जाना चाहता था, उस दिन वैसे भी अमावस का दिन था! मुक्ति-कर्म पूर्ण हो जाना था!

मै निज़ामुद्दीन आया, यमुना के किनारे गया वहाँ किनारे पर मुक्ति-रेखा खींची और वहाँ अश्वाल से उनको हाज़िर करवाया! वे तीनों वहीँ आ गए! मैंने उदय से कहा, “उदय उस तरफ जब जाओगे तो तुम इन सभी को आवाज़ देना, इनका नाम लेकर, फिर तुम वो सामने जो मंदिर है वहाँ जाना, वहां से एक मार्ग आता है संकरा, वहीँ तुमको काफिला मिलेगा!”

“ठीक है! मै वहाँ जाऊँगा तो इनको छोड़ने के बाद आपसे मिलने आऊंगा, आप यहीं मिलेंगे?” उसने कहा,

“हाँ, मै यहीं मिलूँगा!” मैंने कहा,

पहले उदय गया रेखा के पार, उसने गीता और बाला का नाम लिया! और जैसे ही वो वहाँ गए मैंने अपने हाथ में रखा घड़ा ज़मीन पर मार के फोड़ दिया! वे तीनो मुक्त हो गए उसी क्षण! फिर मैंने उनका वहीँ मंत्र-संस्कार कर दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरा कार्य समाप्त हो गया था! वे तीनों इस लोक से मुक्त हो गए थे!

मैंने प्रधान को कह दिया कि वो अष्टमी के दिन वहाँ एक भोज आमंत्रित करे! वे प्रेतात्माएं मुक्त हो चुकी हैं! उसने सहर्ष ये स्वीकार कर लिया! मै वहाँ नहीं जा सका! वो कुआँ आज भी वहीँ है! इसी घटना का गवाह!

समय बीत गया है!

परन्तु वो उदय, गीता और बाला मुझे आज भी याद हैं!

----------------------------------साधुवाद---------------------------------


   
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