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वर्ष २००७ भुबनेश्वर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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मैं और शर्मा जी भुवनेश्वर पहुँच गए था याञा काफी लम्बी और थकाऊ थी! मैं यहाँ पर अपने एक जानकार के साथ भौंमा जगर आया था, किसी तंत्र के कार्य से नहीं, बस उनके यहाँ एक आयोजन था, उनकी ११ वर्षों से संताज नहीं थी, उनकी धर्मपत्नी का भी स्वास्थ्य सही नहीं रहता था, वे लोग उन दिनों दिल्ली आयेहुए थे, उनके कल्याण हेतु मैंने एक छोटी सी क्रिया कि शी, एक महीने के बाद उनकी धर्मपत्नी गर्भवती हुई और फिर बाद में एक पुत्र संतान को जन्म दिया! पूरा परिवार हर्षोल्लास में उन्मत था, उसनके अनेक परिजन भी! आज उसी संतान का जन्म-दिन था जो वो अपने पैतृक-स्थान में 

आयोजित कर रहे थे, मैं इसी आयोजन में वहाँ आया था! उन्होंने काफी जिद कि थी, काफी जिद, मुझे फिर मानना पड़ा! 

हम आयोजन में शामिल हुए. काफी अच्छा रहा ये आयोजन! वहाँ उन्होंने हमको और कई लोगों से मिलवाया, उन्ही में से एक थीं परिणिता, ये सरकारी पद पर कार्यरतर्थी परन्तु अपने दाम्पत्य जीवन से दुखी थीं मैंने उनको बाद में किसी दिन मिलने की सलाह दी थी, आयोजन समाप्त हुआ, हमको अभी दो दिन और ठहरना था, वऍकि रेल की रिजर्वेशन दो दिनों के बाद थी, मेरे इन परिचित ने मुझे और शर्मा जी को एक रेस्ट हाउस जैसी जगह पर रुकवाया था, शान्ति का माहौल था यहाँ! अगले दिन रविवार पड़ा था, तो उस दिन परिणिता मेरे पास आ गयीं, अपने साथ फल आदि लेकर आयीं थी. मैंने उनको आदर 

सत्कार से बिठाया, और इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् उन्होंने मुझे अपनी समस्या बताना शुरू किया, 

वो बोली, मेरा नाम परिणिता है और उस ३५ वर्ष है, मैं वैसे तो पश्चिमी बंगाल की रहने वाली हूँ, लेकिन नौकरी उनकी यहाँ भुवनेश्वर में लगी तो वो कोई १२ साल पहले यहाँ आ गयीं, साथ में माँ भी आई थी मेरी, फिर कोई रसाल बाद मेरा विवाह यहाँ हो गया, वो भी सरकारी नौकरी में थे और मैं भी, दोनों का परिवार बंगाली था तो ब्याह आराम से हो गया. मेरे पति को सरकारी आवास प्राप्त था, इसीलिए मैं अपनी ससुराल चली गयी. वहाँ मेरी र नन्द हैं. एक शादीशुदा और दूसरी का अभी रिश्ता ढूंढना जारी है. घर में मेरी सास हैं और कोई नहीं, ससुर का मेरी शादी से पहले ही निधन हो गया था, शादी के बाद मेरी माताजी वापिस बंगाल चली गयीं और यहाँ तीज-त्योहारों में आती रहती हैं, २ भाई भी हैं, शादीशुदा, वो भी आते रहते हैं, शादी के र वर्षों तक तो मेरे पति मेरे साथ पत्नीवत व्यवहार करते रहे, लेकिन बाद में उनका स्वभाव बदलता चला गया, उनका मेरे से मन हटता चला गया. मई जब भी उनसे बात करती


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हमेशा बहाना बना कर टाल दिया करते, बात यहाँ तक बढ़ी की अलग होने तक की नौबत आ गयी, लेकिन कई लोगों के समझाने पर मामला रुक गया, अलग अलग रहने लगे, वो फिर से मुझे पर ध्यान नहीं देते शे, मैं उनको टोका तो उन्होंने इसे कार्य का दबाव कह के टाल दिया, आगे ऐसा ही चलता रहा, उनके स्वभाव में कोई फर्क नहीं आया, मैंने भी हालातों से समझौता कर लिया. वो अलग और मैं अलग" 

इतना कह के उनकी आँखों में आंसू छलक आरो, मैंने उनको हिम्मत बंधाई और आगे बताने को कहा, 

परिणिता ने थोडा पानी पिया और फिर से बताना शुरू किया, "उनके मन में मेरे लिए खटास बढ़ती गयी, मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ और क्या न करूं! इसी तनाव में मेरी एक सहकर्मी ने मुझे पूछा और मैंने उसको अपना हाल बताया, वो मुझे एक ओझा के पास ले गई. उस ओझा ने मुझे एक चूर्ण दिया पति के खाने में मिलाने के लिए. मैंने वही और वैसा ही किया लेकिन कोई फर्क नहीं हुआ, एक दिन मेरे पति घर में आगे, और आते ही उन्होंने मुझे एक झापड़ मारा, बोले कि मैं उनको तंत्र-मंत्र करा के अपने वश में कर रही हूँ, मैंने अपनी अनभिज्ञता जाहिर कि, लेकिन उन्होंने वो चूर्ण वहाँ से निकाल लिया जहां मैंने रखा था, उसके बाद उन्होंने मुझे बहुत भली-बुरी सुनाई. मुझे हैरत हुई, कि इनको उस चूर्ण के बारे में कैंसे पता चल गया! मैं गरी वापिस उस ओझा के पास, तो पता चला कि वो ओझा कहीं किसी नाले में डूब के मर गया! मेरे तो होश उड़ गए! मैं दिन-रात इसी उधेड़बुन में लगी रहती, ऊपर से पति का जुल्म अलगा एक बार मैंने अपनी छोटी नन्द को पड़ोस केही किसी लड़के के साथ उसके कमरे में पकड़ लिया, ये बात मैंने अपने पति को बतायी तो उन्होंने एक तो यकीन नहीं किया, बल्कि मुझे मारा भी, मैं लगातार वहाँ पिसती जा रही हूँगुरु जी, आजकल मेरी तबियत भी खराब रहती हैं. मुझे अचानकही मेरी नाक से खून निकलना आरम्भ हो गया है, लेकिन दर्द भी नहीं होता' कमी-कभार चवकर भी आ जाते हैं, मैं पिछले एक 

महीने से छुट्टी पर है, गुरुजी आपसे प्रार्थना है कि मेरी समस्या सुलझाइये" उसने कहा और रो पड़ीं! 

"सुनिए. आप घबराइये मत, आप आज शाम तक मेरे पास अपने पति का कोई कपडा भिजवा दीजिये" मैंने कहा, 

वो उठी और बोली, "कपडा कोई भी चलेगा या कोई नया हो?" 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कोई भी कपडा, बटन, कपडे का धागा आदि कुछ भी मैंने कहा, 

"ठीक हैं गुरुजी, मैं आज ही ला दूंगी" उसने अपने आंसू पोंछते हुए कहा, 

"आप घबराइरो मत! बिलकुल न घबराइरो!" शर्मा जी ने कहा, 

"अच्छा गुरुजी, नमस्कार" 

"नमस्कार" मैंने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया! 

परिणिता चली गयी, शर्मा जी बोले, "गुरु जी रो बेवारी सच में ही परेशान हैं. इसके आंसूझूठे नहीं हैं!" 

"हाँ शर्मा जी, सही कह रहे हो आप" मैंने कहा, 

"गुरु जी. वो ओझा मर गया डूब के!" ये क्या मतलब हुआ! 

"दो ही मतलब हैं। या तो खुद ही डूबा ये फिर डुबोया गया!" मैंने कहा 

"हाँ, कहीं गड़बड़ तो हैं!" शर्मा जी ने संदेह जाहिर किया! 

"कपडा आ जाने दो, मैं देखता हूँ गड़बड़ कहाँ और क्या हैं" मैंने कहा, 

"हाँ गुरुजी, किसी का भला हो जाए बस!" वो बोले, 

"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा, 

उसके बाद हमारा खाना आ गया, हम खाने में व्यस्त हो गए! शर्मा जी का फोन आया दिल्ली से किसी जानकार का वो भी ४ दिनों के बाद दिल्ली आ रहा था किसी काम से, शर्मा जी ने उसको एक हफ्ते के बाद का समय दे दिया! 

थोडा सोये और शाम को आँख खुली, साढ़े पांव का समय था, परिणिता ने भी आना था............ 

परिणिता शाम को कोई ७ बजे करीब आई. वो अपने पति की एक कमीज़ लायी थी, जैसे ही वो मुझे कमीज़ निकाल के दे रही थी, तभी उसका फोन बज उठा, वो फोन उसके पति का था, उसने उससे पूछा, "नीता' तुम मेरी कमीज़ ले गयी हो किसी को दिखाने तुम बाज़ नहीं आओगी अपनी हरकतों से!" 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं कोई कमीज़ नहीं लायी हूँ आपकी किसने कहा आपको रो!" उसने पूछा, 

मैं फौरन समझ गया की इसके पीछे कोई धुरंधर खिलाड़ी हैं, जो पल पल की खबर देता है परिणिता के बारे में उसे कोई शातिर है जरूर! मैंने तभी एकष्टि -बंध मंत्र पढ़कर वो कमीज़ अपने हाथ में ले ली. अब जो भी उसको देख रहा था, वो अब नहीं देख सकता था! 

"मुझे मालूम हुआ है कि तुमने मेरी नीले रंग की कमीज़ निकाली हैं, किसी को दिखानें, मैं अभी घंटे भर में घर पहुंच रहा है, 

फिर तुमसे बात करता हूँ मैं उसके पति ने ऐसा कह के फोन काट दिया! 

परिणिता घबरा गयी! घबराहट में उसके शब्द गले में ही अटक के रह गए! मैंने उसको वहाँ बिठाया! और कहा, "मैं समझ रहा हुँ आपकी परेशानी, आपको डर है की आपके पति आयेंगे, इस बाबत पूड़ेंगे और आपको डांटेंगे। यही न" 

"हो...........हो........." वो बोली, 

"तुम आराम से जाओ घर कुछ नहीं होगा! वो जिक्र भी नहीं करेंगे इस बारे में!" 

"लेकिन ये कमीज़" वो सहमते हुए बोली, 

"इसको ले जाओ, जो मुझे जानना था वो जान लिया!" मैंने कहा, 

"अब मैं कब मिलूं गुरु जी आपसे!" उसने घबरा के कहा, 

"आप एक बार कल मुझे फोन कर लेना और क्या हुआ ये बता देना, बस!" मैंने कहा, 

इसके बाद वो बेचारी डरती हुई बाहर चली गयी! 

मैं जान गया था, परिणिता के साथ कुछ समस्या अवश्य ही है, ये किसी साजिश का शिकार हो रही है, उसके जाते ही मैंने अपना एक कारिन्दा हाजिर किया, और उसको परिणिता के पीछे भेज दिया! और मैंने अपना एक महा-प्रेत वहाँ भेज दिया! ताकि उसके पति के दिमाग से ये कमीज़ वाली बात मिटा सा! और जो वहाँ दृष्टि बना के रखे हुए हैं, उसका पता चला सकूँ! अगर कोई वहाँ मौजूद हुआ तो ये महा-प्रेत उसको पकड़ के भी ले आएगा! 

मेरे पास कारिन्दा आधे घंटे में आया वापिस! उसने बताया की परिणिता के पति ने आते ही उससे कुछ नहीं पूछा, बस लेटने चला गया! यानि की मेरे प्रेत ने अपना काम कर दिया था! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरा महा-प्रेत आके बोला कि वहाँ 'कोई भी नहीं था! मैंने उसको वापिस भेज दिया!! अब मैं सारा मामला स्वयं ही देगा! 

अगले दिन सुबह १० बजे परिणिता का फोन आया कि वो मुझसे मिलने आ रही हैं, और ठीक साढ़े दस बजे वो आ गयी! 

बोली, "गुरु जी, कमाल हो गया! कमाल हो गया! उन्होंने कुछ पूछा ही नहीं!" ऐसा कह के वो मेरे पाँव पड़ने लगी मैंने उसको उठा लिया और बोला, "परिणिता, मैं यहाँ परसों दोपहर तक हूँ. मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, कि आपका ये काम करके ही जाऊँगा, आप अब चिंता न करना!" 

उस बेचारी के आंसू छलक गए! 

"गुरु जी जो भी खर्वा हो, काम हो आवश्यकता हो, मुझे बेहिचक बताइयेगा, मुझे खुशी होगी उसने कहा, 

"नहीं कोई खर्चा नहीं, आवश्यकता भी नहीं! आज एक काम करना आप घर में एक लोटे में पानी भर के रख देना, बस, बाकी मैं देख लूँगा!" 

"ठीक है गुरु जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद!" उसने मुस्कुरा के कहा! 

"आराम से जाओ, आपके संकट खतम आज से!" मैंने कहा! 

वो खुश होकर उठी और नमस्ते करके बाहर चली गयी! 

परिणिता के जाते ही मैंने शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी हो न हो इसके दाम्पत्य जीवन को कोई खुश नहीं देखा चाहता, और कोई हैं ऐसा जो परिणिता और उसके पति को अलग करना चाहता है, यही हमको मालूम करना है" 

"हाँ गुरु जी, बात तो ये ही हैं, अब आदेश करें, क्या करना है।" वो बोले, 

"मैं यहाँ उस खिलाड़ी को चेता तो सकता है, लेकिन उससे दो दो हाथ यहाँ नहीं हो सकेंगे" मैंने कहा, 

"हाँ इसका प्रबंध यहाँ नहीं हो सकता, लेकिन यहाँ हमारा एक आदमी हैं तो सही? नारायण?" वो बोले, 

"हाँ! हाँ! जाराराण! सही याद दिलाया आपने! आप फोन कीजिये, कहिये आज रात के लिए ठेड़ा चाहिए हमको!" 


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी ने फोन किया नारायण को! नारायण ने ही फोन उठाया और बोला, "अरेशर्मा जी! कहाँ हो' आज कैसे याद किया भाई आपने हमारे गुरु जी कैंसे हैं!" 

"भाई नारायण! हम तो आपके शहर में ही हैं!" शर्मा जी ने कहा! 

फिर थोड़ी-बहुत गिला शिकवा होता रहा, फिर शर्मा जी ने कहा, "नारायण भाई, आजरात के लिए आपका ठेड़ा वाहिए! गुरु 

जी को चाहिए!" 

"अरे गुरु जी से कहो हमारे सर पर जूता मारो!" वो बोला! 

नारायण से बात तय हो गयी! सामान वहाँ मिल ही जाना था! सो हमने रात का कार्यक्रम निर्धारित कर लिया! अब मुझे उस खिलाड़ी को चेताना शा! मैंने त्रिपुर-भैरवी की आराधना की और एक मसाज को प्रकट किया! मसान प्रकट हुआ! मैंने उसको 

उस स्खिलाड़ी का पता निकालने को कहा! मसान उड़ा और २-३ मिनट में आ गया! 

उसके अनुसार-- परिणिता का पति एक औरत निर्मला की संपर्क में हैं पिछले सालों से, ये एक जवान विधवा महिला है, परिणिता का पति इसका दास बनाया जा चुका है, ये ही उसके परिवार की देख-रेख करता है, उस औरत के एक लड़की भी हैं, परिणिता माध्यम-मरण में चल रही हैं, मारण करने वाला एक बाबा है, नाम हैं हरदा, बंगाली हैं, उसको जिन्नात और सेड़वा सिद्ध है! हरदा उसको आज से उसाल बाद तक मार देगा, दिवाली के दिन! 

मसान ने इतना बताया और मैंने उसको वापिस कर दिया! 

मैं सोच में पड़ गया! चलो जिन्नात वगैरह को तो देख लेंगे। लेकिन सेड़वा से भिड़ना लोहे के चने चबाने जैसा काम हैं! दरअसल ये सेड़वा एक प्रकार की महा-शक्ति हैं, जैसे की बेताल! बेताल से भी भिड़ा जा सकता हैं, अगर साधक सक्षम हो तो! लेकिन रो सेड्या होती ही अधी है, केवल सुनती हैं और अपने शत्रु या लक्ष्य पर अमोघ प्रहार करती हैं! एक कहावत हैं, अघोरियों में 'बेडवा ना पेड़वा, जब मारे सेडवा' यानि सारी की सारी शतिभ्यां धरी रह जायेंगी अगर सेड़वा भिड़ने पर आ जाए तो! क्या किया जाए! समय कम है! मैंने सोचा और सोचा! तब मुझे एक ध्यान आया मेरा एक गुरु-भाई भूषण! वो अब नेपाल में था! मैंने उस से संपर्क साधा, संपर्क बन गया! मैंने उससे सेड़वा का तोड़ मांगा. उसने मुझे सेड़वा का तोड़ बता दिया! लेकिन ये प्रबल-तमस था! इसमें इंसानी कलेजा चाहिए थे! उसका प्रबंध नारायण कर सकता था, शर्मा जी ने नारायण को फोन किया, बोले, "भाई नारायण, एक पैठा' चाहिए। 

"कौन सा मुर्गा बकरी या भैंसा?" उसने पूछा, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"भैंसे का, 'गुलाबी पेठा!" उन्होंने कहा! 

"हाँ मंगवाए देता है, आप आ जाइए!" नारायण बोला! 

"ठीक है. हम ८ बजे तक आ जायेंगे वहाँ!"शर्मा जी बोले! 

और ये कहकर शर्मा जी ने फोन काट दिया! 

मैंने अपने परिचित को फोन किया की हम आज रात को अपने किसी जानकारके यहाँ रहेंगे, और कल सुबह तक वापिस 

आएंगे, ये बता कर मैं अपनी तैयारियों में जुड गया! 

मैंने सारी वस्तुएं निकाल लीं, अपने त्रिशूल को प्रतिष्ठित किया! और करीब २ घंटे के बाद मैंने सारी तैयारियां कर ली इस बाबा हरदा से निबटने के लिए! 

शर्मा जी बाहर जा कर, निरामिष भोजन ले आरो, और मर्दिश भी, हमने छक के पी और अपनी शक्तियों को भोग आर्पण किया! उन्मत होने से मस्तिष्क का केन्द्रीयकरण हो जाता है, अन्यथा विचार नहीं आते, केवल लक्ष्य-भेदन ही मस्तिष्क में रहता हैं! 

शाम हुई, मेरे परिचित की गाडी आ गयी, वो हमको हमारे गंतव्य स्थान के लिए लेकर चल पड़े, एक घंटे से कम समय में हम वहाँ पहुँच गए, मैंने उनको उस नारायण के ठेडे से थोडा दूर ही रुकवाया, और उनसे विदा ले ली! अब मैं और शर्मा जी चल पड़े नारायण के ठेडे के लिए। 

हम नारायण के ठेडे पहुंचे, चो बड़ा खुश हुआ! उसने सबसे पहले हमको अपने साथ मदिरा-पान कराया! फिर उसने स्वयं साफ़ 

की हुई अपनी विशेष जगह दिखा दी! जगह साफ थी! 

हमने वहाँ अपना भी सामान रखा और स्नान करने चले गए। तब तक पेठा' आ चुका था! मैंने यो पेठा अपने हाथ में उठाया! उसको नमन किया! और उसके टुकड़े कर दिया! मैंने एक एक टुकड़ा अपनी अलख के आगे रखा! अब मैंने सबसे पहले, चिता भस्म मली, और शर्मा जी के ऊपर भी मल दी पूर्णतया नग्न हो कर! अब हम तैयार हो गए। 

मैंने अलख उठायीं! और बोला 'चेत सूना ज्ञान औंधी खोपड़ी मस्पटया मसान, बाँध दे बाबा ******** की आन!" अलख भड़क गयी! मैंने एक अघोर-अट्टहास लगाया! 

अब मैंने शराब की एक बोतल खोली! और बाबा हरदा के नाम से अलख में भोग दिया! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने अपना एक खबीसभेजा हरदा के पास! 

मेरा वो खबीस गया और वहाँ का चक्कर लगाया. ये बाबा हरदा वहां से ४२ किलोमीटर दूर था, बाबा हरदा भी अलख में बैठा 

था और मेरे खबीस को क्षति पहुंचा सकता था या फिर पकड़ सकता था, इसीलिए मेरा वो खबीस वहाँ से भाग आया,और उसने मुझे बता दिया बाबा हरता के बारे में, बाबा हरदा उस औरत निर्मला से प्रत्येक महीने खर्चा लिया करता था, और बेहद सध के काम कर रहा था! हरदा को तो उसी रोज़ मालूम पड़ गया था की कोई उसको तोड़ने लगा है, जब वो कमीज़ वाली बात हुई थी, परिणिता की किसी भी जानकारी के लिए वो अवसर उसके पास अपने प्रेतादि भेजा करता था, प्रेत खबर लेके उसके पास चले जाया करते थे, ये खबर हरदा निर्मला को फोन पर बता दिया करता था, और निर्मला परिणिता के पति को, परिणिता कहीं किसी के पास न जाए. इसीलिए बाबा हरदा उसकी हर हरकत पर नज़र रखता था, जब परिणिता उस ओझे के पास गयी तो उस ओझे जे परिणिता को सटीक अभिमंत्रित चूर्ण दिया था, हरदा के अभिमन्त्रण को वो चूर्ण अवरुद्ध कर सकता 

था, इसीलिए उसने उस ओझे को मार गिराया, पानी में डुब्बा कर 

हरदा ने मेरे लिए भी ऐसा ही सोचा था! मैंने अब अभिमन्नण आरम्भ किया, मैंने एक जिन्नात से ताकतवर ताकत हरदा के पास भेजी! हरदा ताड़ गया! उसने उसको काबू करने के लिए शक्ति-पात किया! मेरी शक्ति वहाँ से दौड़ी और मैंने उसका बचाव किया! हरदा ने सचमुच में करार जवाब दिया था! हरदा काफी प्रशिक्षित और निपुण खिलाड़ी था, उसने स्वयं मुझ पर वार नहीं किया, बल्कि वो मुझे जांचना चाहता था! 

मैंने सबसे पहले परिणिता के पति को उस औरत निर्मला के आकर्षण से निकालने की क्रिया आरम्भ की, आराम करते ही हरदा चौंका! मैंने विदेषण-क्रिया का प्रयोग किया! हरदा अभी भी मुझे जांच रहा था. वो अपने पते नहीं खोल रहा था! मेरा प्रयोग मध्य में ही था की वहाँ से हरदा ने मेरा प्रयोग काटने के लिए क्रिया आरम्भ की! अब ऐसा था की एक रस्सी के एक सिरे को हरदा खींच रहा था और दूसरे को मैं! अब जिसमें शक्ति होगी वो इसको खींच लेगा! मैंने अपने त्रिशूल से एक बकरे के कटे सर एक वार किया! फिर दसरा, फिर तीसरा, और फिर चौंथा! उसके भेजा बाहर आ गया, मैंने एक धाक के पते पर वो भेजा रखा और अलख के सामने रख कर अभिमन्त्रण किया! हरदा चूक गया! मैंने ये विद्वेषण षोडशी-विद्या से किया था! औए षोडशी-विद्या हेतु उसको भी बकरे का भेजा वाहिए था! उसने गुस्से में अपना माथा पीटा! मैंने उस भेजे के टुकड़े किये! एक पर उस औरत का नाम पढ़ा, निर्मला का और एक पर परिणिता के पति का! एक टुकड़ा भूनने के लिए अलख पर रख दिया 


   
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और एक टुकड़ा अपनी उस शक्ति के लिए रखा जो अब हरदा के पास पहुँचने वाली थी। इस शक्ति का नाम था धुलिका भद्रिका! ये बेजोड़ शक्ति सर्प की तरह होती हैं, शत्रु चाहे आकाश में हो, जल में हो, भूमि के नीचे हो या २१ होमाग्नि में सुरक्षित हो ये शत्रु-भेट करके की रहती हैं! 

मैंजे एक टुकड़ा इस शक्ति को दिया और भेज दिया! मैं वाह रहा था हरदा को उलझाना, हरदा के जिन्नात इसके सामने टिक नहीं सकते शे! मेरी शक्ति वहाँ गयी! उसने अभिमन्त्रण आरम्भ किया! जब उसने मेरी शक्ति से भिड़ना जारी रखा, मैंने परिणिता के पति और निर्मला का विद्वेषण पूर्ण कर दिया! पिढेषण पूर्ण हो गया!, मेरी शक्ति को प्रभावहीन करने के लिए, ४ बकरों की कलेजी का जमा हुआ रक्त, उनके अंडकोष और जिव्हा चाहिए थी! नहीं तो कुछ नहीं किया जा सकता था! 

हरदा उलझ गया! हाँ उसने भिड़ना जारी रखा अवश्य! हरदा कोई २० मिनट तक उसक सामने टिका रहा. रो प्रशंसा की बात 

थी! 

२० मिनट के बाद मैंने अपनी शक्ति को वापिस बुला लिया! उसको भोग दिया! शराब दी! और वापिस चली गयी! अब हरदा के पास दो मार्ग शे, पहला वो स्वरक्षण करें बार करें! मैं इस प्रतीक्ष में ही था की उसका अगला कदम क्या होने वाला है! 

हरदा ने अब हार न मानने के लिए, अपनी अमोघ शक्ति सेड़वा का आह्वान किया। ये असली जंग का आगाज था! हरदा के पास सेड़वा होना अपने आप में एक उपलब्धि थी! इसका अर्थ कुछ ऐसे समझा जाए की एक १० कक्षा के छात्र के पास डॉक्टरेट की डिली! या तो रास इसके शुरु-भक्ति का फल था, या इसकी अघोर साधना का फल! हरदा में खड़े हो कर अपनी अलख के सामने नत्य आरम्भ किया! प्रलापी नृत्य! और फिर सूखा हुआ, जमकलगाया मानव-मांस! सेड़वा आते ही भूख से व्याकुल होती हैं. आते ही भोग मांगती हैं। इसके साथ इसकी ४ अति-रौंद्र सहोदारियां होती हैं, पहली भंजनिका. दूसरी यमिका, तीसरी कुटिला और चौथी श्वानिका! ये चारों अपनी अपनी विशेष शक्तियों से परिपूर्ण होती हैं, अपनी मालकिन के कहने पर ऐच्छिक कार्य संपन्न करती हैं। 

सेड़वा का आगमन होने ही वाला था, मैंने यहाँ अपनी और शर्मा जी के रक्षण हेतु क्रिया आरम्भ की! मैंने काल-रुतिका का 

आह्वान किया! रो सेड़वा की सहोदारियों से तो भिड सकती थी परन्तु सेड़वा से नहीं, मेरे मस्तिष्क में एक विशेष विचार था, जो मुझे मेरे गुरुभाई भूषण ने बताया था! उन्होंने ही मुझे काल-रुतिका के आह्वान करने का विचार दिया था! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ सेड़वा प्रकट हुई और यहाँ काल-रुद्रिका! मुझे काल-रुद्रिका को अपने रक्षण हेतु प्रयोग करना था और हरदा को सेड़वा को मेरा समूल नष्ट करने हेतु! हरदा ने सेड़वा को नमन किया अपने दोनों हाथो से धुत्नोपेर बैंठ कर उसको भोग दिया! और मेरी ओर प्रस्थान करने हेतु मोड़ दिया! भयानक उत्पात मचाती हुई उसकी सहोदारियां अपने अपने भोग लेकर लोपहुई! 

उसकी सहोदारियां मेरे यहाँ प्रकट हुई! लेकिन काल-रुद्रिका को देखकर रुक गयी! काल-रुद्रिका में अग्नि-प्रज्वलित हुई! 

और उसने नृत्य-शैली में हमारे चारों ओर चक्कर काटने आराम किया! 

अब मुझे गुरु-भाई भूषण के सुझावानुसार कार्य प्रारम्भ करना था! मैं अलख पर बैंठा! 'पेठे' के टुकड़ों को आपस में जोड़ा! फिर शराब और रक्त से सुगन्धित किया! एक और शक्ति का आह्वान किया। ये शी राम-रूपा! 

. ४ टुकड़े राम-रूपा को दिए और उसको स्तंभित किया! यहाँ काल-रुद्रिका सेड़वा की सहोदारियों को थामे हुई थीं! वहाँ हरदा ने पुनः सेड़वा से निवेदन किया और सेड़वा मेरी तरफ रवाना हुई. और यही से तब मैंने यम-रूपा को प्रस्थान करवाया! सेड़वा यहाँ प्रकट हुई और वहाँ यम-रूपा! सेड़वा ने अपनी जाएभ बाहर निकाली और मैंने तब 'गुलाबी पता उसको अर्पण करने हेतु सेड़व-जाप आरम्भ कर दिया! सेड़वा सदैव भूस्खी रहती है। उसने जैसे ही भोग स्वीकार किया, यहाँ राम-रूपा ने उस हरदा को उठा कर उसको अलख पर दे मारा! अलख बुझ गयी सेड़वा लोप हो गयी अपनी सहोदारियों के साथ! मैंने काल-रुद्रिका को शांत किया! 

अब राम-रूपा ने पहले हरदा का हाथ खाया सीधा, फिर, पाँव सीधा, फिर जांध सीधी! खून के फव्वारे फूट पड़े! 

मैंने यम-रूपा को वापसी के लिए क्रिया में बैठा! जाप किया राम-रूपा इससे पहले की उसके हृदय का भक्षण करती वो वापिस 

आ गयी! मैंने उसको वापिस कर दिया! 

वहाँ हरदा मूर्छित-अवस्था में पड़ा था! उसका बुना जाल काटा जा चुका था! वो अपने ही जाल में फंस गया था! शक्तियों का दुरुपयोग एक न एक दिन अवश्य ही अवनीति को नियुक्त करता है आज हरदा के समक्ष यही उदाहरण था! 

खैर, हम वहाँ से उठे. ५ घंटे बीत चुके थे. हम सुबह तक वहीं रहे! विदेषण-क्रिया सफलतापूर्वक सिद्ध हो गयी थी! 

आगे दिन ११ बजे करीब परिणिता आई! आज बेहद खुश थी! मुझे उसका अर्थ समझ आ चुका था! उसने मेरे पाँव पड़ के अपनी खुशी जाहिर की! परिणिता का दाम्पत्य जीवन अब आरम्भ हो


   
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श्रीशः उपदंडक
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चुका था! उसने हमको धन्यवाद किया! और दान-राशि भी दे दी! आधी-राशि मैंने नारायण के ठेडे के विकास हेतु दे दी और शेष रख ली! हम वहाँ से वापिस आ गए! 

करीब सवा साल के बाद परिणिता का फोन आया कि उसको मातृत्व-सुख प्राप्त हुआ है। उसके पति अब उनका खयाल रखते हैं! पत्नीवत व्यवहार रखते हैं! अब वो बहुत खुश है! और उसका रो फोन हमारा निमंत्रण हैं! 

तय तिथि पर एक बार मैं फिर वहाँ गया! उसको जुड़वां संतान प्राप्त हुई थीं! एक पुत्र और एक पुत्री! मैंने भी रचियता का नमन किया! और परिणिता के भविष्य की मंगल-कामना करते वहाँ से वापिस अपने स्थान की ओर प्रस्थान कर गया! 

------------------------------------------साधुवाद!---------------------------------------------


   
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