मित्रो! जब एक औघड़ मदिरा-प्रसाद लेकर उन्मत्त होता है तो उस पर दूसरी शक्तियां हावी हो जाती हैं! वो इतना उन्मत्त हो जाता है की उसको इस संसार का होश नहीं रहता! वो अपने स्वयं के संसार में विचरण करता है! इस अवस्था को श्रंगारावस्था कहा जाता है अघोर में! इस अवस्था में औघड़ के दो रूप सामने आते हैं! पहला उन्मत्त और दूसरा तन्मय! तन्मयता में सिद्धि-पूजन होता है और उन्मत्त में मारण, उच्चाटन, विद्वेषण, मोहन एवं आकर्षण होता है! साधक को इन्ही दो अवस्थाओं को समरूप से साधना पड़ता है! साधक का अर्थ है साधने वाला! उस शक्ति के दोनों रूपं को साधने वाला! वहीँ वास्तविक साधक होता है! तंत्र में ऐसा साधक औघड़ और सत्व में ऐसा साधक मिलता ही नहीं और यदि मिलता भी है तो वो सिद्ध-पुरुष हो जाता है! इसीलिए तंत्र का एक अलग ही महत्व है, तंत्र में ना सुनने की आदत नहीं होती! साधक केवल हाँ ही सुनना चाहता है! परन्तु उचित कार्य हेतु,
चाहे उचित कार्य में प्राण ही क्यूँ ना दांव पर लगे हों!
कुछ ऐसी ही स्थिति मेरे सामने आई थी,
एक प्रबल सात्विक साधक से मेरे आमना-सामना हुआ था!
ये वर्ष २००७ का मध्य-समय होगा, मै उन दिनों श्री कामख्या से आया था, कोई हफ्ता गुजरा होगा! मेरे एक जानकार, नाम था उनका अतुल महाजन, गत वर्ष वे स्वर्गवासी हो गए, अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आये! ये दिल्ली के पास नॉएडा में रहा करते थे! इनके पुत्र के विवाह में मै भी शामिल हुआ था! मेरे पास आये तो नमस्कार इत्यादि से फारिग होकर वे दोनों बैठे, मैंने पूछा, "और महाजन साहब! अब तो चैन ही चैन! रिटायर हो गए आप!"
"अरे गुरु जी चैन कहाँ!" उन्होंने कहा,
"क्यूँ? क्या बात है?" मैंने पूछा,
"आपको तो पता ही है की विवेक की शादी को दो वर्ष हो गए हैं!" वो बोले,
"हाँ, पता है" मैंने कहा,
"और बहू भी हमारी सुशील है कीर्ति" वो बोले,
"हाँ फिर?" मैंने प्रश्न किया,
"कीर्ति चंडीगढ़ की रहने वाली है, वहाँ कोई लड़का चंदर उस से प्यार करता था" उन्होंने कहा,
"तो? अब क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"ये हमको अभी कोई ६ महीने पहले कीर्ति ने ही बताया है, की वो लड़का उसके कॉलेज के समय से ही उसको तंग करता था, हमेशा कहता था की वो उस से बहुत प्यार करता है, लेकिन कीर्ति ने कभी उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि उसको समझा भी दिया, की वो उस से प्यार नहीं करती, बाद में वो लड़का होटल-मैनेजमेंट का कोर्स करने अहमदाबाद चला गया, इसी बीच कीर्ति की शादी हो गयी हमारे बेटे विवेक से, शद्दि भी यहीं दिल्ली में ही की थी उसके माँ-बाप ने" वे बोले,
"हाँ तो?" मैंने सवाल किया,
"वो लड़का जब वापिस आया तो उसने किसी तरह से यहाँ का नंबर ले लिए और यहाँ फ़ोन करने लगा, और किसी से बात नहीं करता था, केवल कीर्ति से ही, धमकाता था, कहता था की उसकी जिंदगी खराब कर देगा, कहीं का नहीं छोड़ेगा, गद्दार कहीं की आदि आदि! हमने एक बार चंडीगढ़ जाके उसके घर में भी ये बात बताई, लेकिन वो वहाँ नहीं था, हम वहाँ से आ गए, उसने फिर फ़ोन किया की हमारी हिम्मत कैसे हुई वहाँ आने की आदि आदि" वे बोले,
"तो आपको पुलिस की मदद लेनी थी?" मैंने पूछा,
"मदद ली, कंप्लेंट भी की, लेकिन कुछ नहीं हुआ गुरु जी!" वे बोले,
"अच्छा, फिर?" मैंने पूछा,
"अब लगता है उसने कुछ करवाया है, मेरा और इनका, विवेक का, मेरे छोटे लड़के का स्वास्थय अचानक खराब हुआ है, कीर्ति का नहीं" उन्होंने कहा,
"मुझे देखना पड़ेगा" मैंने कहा "आप अवश्य देखिये गुरु जी, हमारे यहाँ मानसिक तनाव बढ़ गया है, और तो और! अब तो विवेक भी कीर्ति पर शक करने लगा है, उस से बात करने में कतराने लगा है, वो बेचारी रोती है और जब हमे बताती है तो हमे दुःख होता है" वो बोले,
"ये तो वैसे गलत बात है, लेकिन विवेक को भी अपने मातहत इसका निवारण करना चाहिए था, खैर, छोडिये, ये बताइये आपको ये किसने बताया कि आपके यहाँ पर कुछ कर दिया गया है?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, हमारे पड़ोस में एक है व्यक्ति, वो जानता है करना-कराना, उसने स्वयं ही बताया था एक दिन, लेकिन उसने ये कहा कि वो इसकी काट नहीं कर सकता" वो बोले,
"अच्छा, चलिए मै देख लेता हूँ, और जो भी परिणाम आता है आपको कल सुबह बताता हूँ, यदि कुछ है तो मै उसका निवारण कर दूंगा, और इस लड़के का भी इलाज अपने हिसाब से कर दूंगा, आप निश्चिन्त रहिये महाजन साहब!" मैंने कहा,
महाजन साहब उठे और अपनी पत्नी के साथ हमसे विदा ली, वे लोग चले गए, ये सच में मानसिक-तनाव का कारण था, मैंने शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, बताइये क्या विचार है? क्या किया जाए?"
"आप गुरु जी सबसे पहले तो मालूम कीजिये कि क्या ऐसा-वैसा कुछ है क्या वहाँ?" वो बोले,
"ठीक है, मै आज रात ये काम करता हूँ, देखता हूँ मामला है क्या!" मैंने कहा,
"ठीक है, आप पता कीजिये गुरु जी, मै सामग्री का प्रबंध करता हूँ" उन्होंने कहा और उठ गए, सामान लेने चले गए!
मैंने अपनी क्रिया-भूमि की साफ़-सफाई की, आवश्यक वस्तुएं करीने से लगायीं, सभी का पूजन करना था, उस दिन अमावस का दिन था!
शर्मा जी समस्त सामग्री ले आये थे, मैंने क्रिया-भूमि का पूजन किया, सभी क्रिया-वस्तुओं का पूजन किया! तंत्र में प्रत्येक अमावस के दिन सभी वस्तुओं का पूजन अनिवार्य है!
रात्रि-समय मै क्रिया में बैठा! अलख उठायी! अलख भोग दिया! और फिर मदिरापान किया! शक्तिया पुनःजागृत हुईं! मैंने तब अपने कारिंदे को हाज़िर किया! कारिन्दा हाज़िर हुआ! मैंने कारिंदे को उसका भोग दिया! कारिंदे को उसका उद्देश्य बताया और कारिन्दा रवाना हुआ!
कारिंदे को आने में देर हुई! वो पूरे एक घंटे में आया! हैरत हुई मुझे! कारिंदे ने बताया कि महाजन परिवार चपेट में है, लेकिन किसी भी तांत्रिक क्रिया से नहीं अपितु मान्त्रिक क्रिया से! और जिसने ये कार्य किया है वो चंडीगढ़ से ५० किलोमीटर पहले रहता है, नाम है महंत पद्मानंद! उम्र में ६० वर्ष से ऊपर है, और उस लड़के का नाम अरविन्द है! अरविन्द ने ही ये कार्य करवाया है!
एक मान्त्रिक, वो भी ६० वर्ष से अधिक आयु वाला! वो भी अवैद्य-प्रेम-प्रसंग! मामला गड़बड़ था! लेकिन निवारण तो करना ही था! अब मैंने कारिंदे को वापिस किया! कारिन्दा चला गया!
अब मुझे कीर्ति से मिलना था! काफी बातें वो भी बता सकती थी, जैसे कि वो लड़का चाहता क्या है, क्यूँ तंग करता है? मैंने शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, आप महाजन साह्ब से कहिये कि कल हम उनके पास आ रहे हैं २ बजे, कहीं ना जाएँ और कीर्ति घर पर ही रहे"
"ठीक है मै उनको सुबह कॉल कर दूंगा और ये बता दूंगा" उन्होंने कहा,
"हाँ शर्मा जी, अब हमारा मिलना आवश्यक है, वो मान्त्रिक मुझे सिद्ध लगता है, देखते हैं आगे क्या होता है!" मने कहा,
"जैसा आप उचित समझें गुरु जी!" शर्मा जी ने कहा शर्मा जी ने सुबह फ़ोन कर दिया, महाजन साहब को बता दिया और हम दोनों वहाँ २ बजे पहुँच गए, हमारी नमस्कार आदि हुई, चाय आदि से निवृत हो कर मैंने कीर्ति को बुलाया और पूछा, " कीर्ति? उस लड़के के बारे में आप क्या जानती हो?"
"गुरु जी, जब मै कॉलेज में थी तो वो मेरे साथ ही पढता था, अमीर बाप का बिगडैल बेटा था वो, उसने कई बार मेरे साथ बेतुके मजाक किये, मैंने जब उसका विरोध किया तो उसने मझसे कहा, कि वो मुझसे दीवानगी की हद तक प्यार करता है, यहाँ तक कि वो मेरे साथ पढने वाले दुसरे लड़कों को भी यही कहता था कि वो मुझसे शादी करेगा, मुझे बहुत बुरा लगता था, मैंने अपने पापा और भाई से ये बात कही, उन्होंने प्रिसिपल से भी कहा, लेकिन फिर भी कुछ न हुआ, थोड़े दिन शांत रहने के बाद फिर से वो अपनी हरक़तों पर लौट आता था, मैंने ३ साल तक उसको बर्दाश्त किया, गुरु जी, उसके बाद मै घर पर ही रही एक वर्ष, वो तब भी मेरे घर के बाहर चक्कर लगाया करता था, मुझसे मिलने के बहाने ढूंढता था, ऐसे ही एक वर्ष और निकला, और फिर मेरी शादी यहाँ हो गयी, मेरी शादी के समय वो वहाँ नहीं था, लेकिन नज़र रखवाया करता था, अब करीब सात आठ महीनों से मुझे यहाँ फ़ोन करके धमकाता है, विवेक जी को भी धमकाता है, और ये भी पता चला है कि उसने कुछ करवा भी दिया है यहाँ, मेरे अतिरिक्त सभी का स्वास्थय खराब है, गुरु जी हम सभी को बचाइये, उस से छुटकारा दिलाइये, मुझे बहुत तनाव रहता है, कभी कभार मन करता है को आत्महत्या कर लूँ" उसने अपने आंसूं अपनी चुन्नी से पोंछते हुए कहा,
"कोई बात नहीं कीर्ति, अब आप निश्चिन्त हो जाइये, मै उसको सबक सिखा दूंगा!" मैंने कहा,
मेरा ऐसा कहने से उसमे जैसे नयी जान आ गयी हो, ऐसा भाव उसके चेहरे पर आया!
मैंने अब महाजन साहब से कहा, "आप विवेक को समझाइये, इसमें कीर्ति का कोई कुसूर नहीं है, वो इस पर शक न करे कतई भी"
"मै तो कई बार कह चुका हूँ गुरु जी, लेकिन उसको मानसिक-तनाव हो गया है, डिप्रेशन का शिकार हो गया है, किसी की बात नहीं सुनता, कुछ कहो तो उठ के चला जाता है" वे बोले,
"कोई बात नहीं, अब ऐसा कुछ नहीं होगा, सब ठीक हो जाएगा, मत घबराइये!" मैंने कहा,
उसके बाद हम दोनों वहां से उठे और उनसे विदा ले ली!
हम अपने स्थान पर पहुंचे, मै रात्रि को अपनी क्रिया में बैठा, ११ बजे थे, मैंने अरविन्द की खोज की, वो उस समय किसी की शादी में आया हुआ था और दूसरी मंजिल पर बैठा शराब पी रहा था, मैंने तभी अपना एक खबीस प्रकट किया, खबीस प्रकट हुआ, मैंने उसको कुछ बताया और वो रवाना हुआ, करीब ११ ४५ पर अरविन्द नीचे उतरने के लिए सीढियां उतरने लगा, मेरे खबीस ने पीछे से उसको ९वीं सीढ़ी से धक्का दे दिया! वो भडभड़ा कर नीचे गिरा! उसका सर फट गया और बाएं हाथ कि एक ऊँगली टूट गयी! इतना करके खबीस वापिस हो गया!
मैंने उसको थोड़ी निशानी दे दी थी! अगर समझदार होगा तो पद्मानंद के पास जाएगा! नहीं तो दुबारा भी ऐसा ही करवाना होगा! मैंने अब पद्मानंद की ओर ध्यान लगाया, वहाँ अपना खबीस भेज! पद्मानंद अपने कमरे में होमाग्नि जलाए पूजन में व्यस्त था, गहन पूजन में! मैंने उसको छेड़ना उचित नहीं समझा! अब मै क्रिया से उठ गया और बाहर आ गया! बाहर आके शर्मा जी को सारी बात बता दी!
"दे दिया प्रसाद उसको गुरु जी?" उन्होंने कहा,
"हाँ! दे दिया!" मैंने कहा!
"ठीक किया! ऐसे के साथ ऐसा ही होना चाहिए!" उन्होंने हँसते हुए कहा,
"अभी तो ऊँगली ही तोड़ी है, नहीं माना तो हाथ-पाँव भी तोड़ दूंगा उसके!" मैंने कहा,
"और उस मान्त्रिक का क्या गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,
"वो अपने पूजन में व्यस्त है!" मैंने कहा,
"अच्छा, चलिए कोई बात नहीं!" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ उसको भी देखेंगे, देखेंगे कि वो चाहता क्या है!" मैंने कहा,
"ठीक है गुरु जी, आइये अब! प्रसाद-महाप्रसाद प्रतीक्षा कर रहे हैं हमारी!" उन्होंने हँसते हुए कहा!
"चलिए शर्मा जी, आज शेष कार्य कुछ नहीं है!" मैंने कहा और वहाँ से हम चल पड़े! अरविन्द ने अपना इलाज करवाया, और हाथ में प्लास्टर बंधवाया, सर में ४ टाँके भी आये लेकिन उसने ये घटना महज़ एक इत्तफाक जानकर भुला दी, समय बीता ९ दिन हो गए, इन ९ दिनों में वो २ बार पद्मानंद से मिला, १ बार कीर्ति को फ़ोन भी किया, लेकिन कीर्ति से फ़ोन नहीं उठाया,
ऐसा मुझे उन्होंने बताया,मैंने यहाँ पर महाजन-परिवार को सुरक्षा सूत्र में बाँध दिया था, उनकी हालत पूर्ण रूप से सही तो नहीं, हाँ वहीँ तक रुक अवश्य ही गयी थी!
एब बार जब अरविन्द पद्मानंद के पास जा रहा था, मैंने अपना खबीस उसके पीछे लगा दिया, खबीस ने उसकी कार एक खड़े ट्रक में ठुकवा दी! जो व्यक्ति ड्राइविंग कर रहा था, और साथ बैठा अरविन्द अनाहत थे, ऐसा खबीस से करवाया गया था! अरविन्द और उसका मित्र चकित थे कि मंद गति से चलती कार का स्टीयरिंग-व्हील अचानक जाम कैसे हुआ! उसका माथा ठनका! और यही मै चाहता था! उस दिन वो पद्मानंद के पास नहीं गया! गाडी वर्कशॉप भिजवा दी, अगले दिन वो पद्मनद के पास पहुंचा!
उसने पद्मानंद को सारी बातें बता दीं! अपने नीचे गिरने की भी और अपनी कार के बारे में भी! पद्मानंद का माथा घूमा! वो ताड़ गया कि उसका कहीं से विरोध हुआ है! उसने अरविन्द को साथ लिया और वहीँ बने एक चबूतरे पर बिठा दिया फिर एक यन्त्र बनाया भोज-पत्र पर और वो अरविन्द के माथे से छुआ कर उसके दोनों हाथों में रख दिया! मंत्र पढ़े उसने और उसको सच्चाई पता लग गयी! उसने अरविन्द को मेरा नाम, पता, शर्मा जी का नाम, पता, महाजन-परिवार के बारे में हुए प्रयोग का खुलासा कर दिया उसने!
पद्मनद क्रोध में आ गया! उसने अरविन्द को सामग्री लिखवा दी और उसको एकादशी पर आने को कहा! तीन दीं शेष थे! अरविन्द ने एकादशी पर आने को कह दिया और वहाँ से चला गया! उसने रास्ते में कीर्ति को फ़ोन किया! मैंने कीर्ति को फ़ोन का जवाब देने को कह दिया था, मै जान रहा था कि अरविन्द उस से क्या कहेगा!
अरविन्द ने कीर्ति से कहा कि वो उसके तांत्रिक को मिट्टी में मिला देगा! साथ में अब वो विवेक और उसके परिवार को भी! जो चाहे करना हो कर ले!
अब मै भी तैयार था! मेरा सामना एक सिद्ध-मान्त्रिक से था! एक मान्त्रिक मंत्र-शक्ति से ही वार करता है और मंत्र-शक्ति से ही बचाव! उसका सिद्ध होना मेरे लिए घातक भी सिद्ध हो सकता था!
परन्तु अभी तीन दिवस शेष थे! मै तत्पर था! मैंने क्रिया में प्रयोग वस्तु की गहन जांच की और उनको सिद्ध किया!
और फिर एकादशी आ गयी! उसने अरविन्द को सामग्री के लिए कहा था, अरविन्द सारी सामग्री ले आया था! अब उस मान्त्रिक ने अरविन्द को ले जाकर एक कमरे के मध्य में बिताया, उस कमरे में कुछ भी नहीं था, केवल कमरे के मध्य में एक वेदिका बनी थी और उस वेदिका के चारों और यन्त्र बने हुए थे! ये उस मान्त्रिक की कार्यशाला थी!
उस मान्त्रिक ने अपने वस्त्र बदले, कानो में कर्नाक्ष धारण किया और फिर ५ थाल निकाले! उन थालों पर विशिष्ट चिन्ह अंकित किये! सिन्दूर आदि से लिखना शुरू किया! अब उसने ११ कटोरियाँ निकालीं! उनमे मेवे इत्यादि डाले! उसकी इस विशिष्ट क्रिया को देखकर मै समझ गया कि ये षान्दुल-मान्त्रिक है!
मै अपने यहाँ तैयार हुआ! अलख उठायी और अपना त्रिशूल अभिमंत्रित कर दायें हाथ कि तरफ एक मंत्र पढ़कर गाड़ दिया! भस्म-स्नान किया! पञ्च-मकार से आभूषित आभूषण धारण किये!
अलख भोग दिया! ७ गिलासों में शराब डाली! अस्थि-माल धारण किया! और विजय-मंत्र का अट्टहास-मंत्र जाप किया!
उसके बाद मैंने अपनी अलख के आगे रक्त से आशुतोष-मुद्रा में एक आकृति बनायी! अवसर पड़ने पर अघोर-पुरुष का आह्वान भी करना पड़ सकता था!
वहाँ मान्त्रिक ने समस्त षोडशोपचार समाप्त किये! मूल-मंत्र का जाप आरम्भ किया!
यहाँ मैंने अपने खबीस अपने आसपास खड़े कर दिए!
दो विलोम एवं प्रचंड शक्तियां आपस में भिड़ने को लालायित थीं! मैंने महाघोर-अट्टहास किया और अलख में भोग दे दिया! उस मात्रिक ने सप्त-पूजन किया और फिर अपने पीत-आसन पैर बैठ गया! उसने एक सरकंडे की कलम से एक लकड़ी की पट्टिका पर मेरा नाम लिखा और फिर उसको कलम से काढ़े वृत्त में घेर दिया! पीपल के पत्तों से उसने ताम्र-कलश में भरे पवित्र-जल से उस पट्टिका पर ११ बार छींटे दिए! उसने मंत्रोच्चार किया! मुझे बड़ी हैरत हुई! उसके प्रत्येक छींटे से मेरा एक एक खबीस घायल हो रहा था! मेरे खबीस इधर-उधर उछल रहे थे! मैंने सर्वबाधा-हरण मंत्र का जाप किया और बकरे की कलेजी पर अभिमंत्रित कर अलख में डाल दिया! ख़बीसों का पीडन दूर हो गया! मेरे सारे खबीस मुझे खुश होकर देखने लगे!
मान्त्रिक ने ये देखा और उसने एक और मंत्रोच्चार किया! उसने सूत उठाया, पीले रंग का और उसमे मंत्र पढ़ पढ़ के गांठें बाँधी! अचूक प्रभाव हुआ! मेरे ख़बीसों पर फंदा पड़ गया! उसके प्रत्येक मंत्रोचार से मेरे ख़बीसों के ऊपर पड़ा फंदा और कड़ा हुए जा रहा था! मैंने सत्व-भेदक वाहिनी का मंत्रोच्चार किया! अचूक था उसका वार! उसके प्रभाव से वो फंदा वहीँ लोप हो गया!
मान्त्रिक को थोड़ी चिंता सी हुई, लेकिन फिर मुस्कुराया!
अब मैंने अपना एक वार करने की सोची! मैंने मुगदर-जलिषा का जाप किया! ये साक्षात मुगदर होता है, इस से किया वार भयानक होता है! मेरी मुगदर-जलिषा मंत्र-शक्ति चली वहाँ!
वहाँ पहुंची! लेकिन उस मान्त्रिक ने घास के एक तिनके से उसको प्रभावहीन कर दिया! मै अवाक रह गया!!!
वो मुस्कुराया! जैसे की मेरे हारने पर उसको ख़ुशी हुई हो! अब उसने वार करने का विचार किया! उस मान्त्रिक ने एक मंत्र पढ़ा! और अपनी वेदिका में अग्नि प्रज्वलित की! उसने अन्न के ७ दाने उसमे डाले! और मंत्र पढ़ा! मेरे यहाँ जैसे धमाका हुआ हो! मेरे खबीस भाग खड़े हुए! मेरी अलख झुक गयी एक ओर! भूमि को स्पर्श करने लगी! मुझे भयानक क्रोध आया! मैंने शराब ली और उसका अभिमन्त्रण किया! फिर उसको पी लिया! कच्ची कलेजी ले उसका अभिमन्त्रण किया और चबा गया! मैंने शूल-मंत्र का जाप किया और मान्त्रिक का नाम लेकर भूमि पर घूँसा मारा!
मान्त्रिक की वेदिका फट गयी! अग्नि-पुञ्ज बुझ गए! वहाँ मृत-मानवदेह जैसी दुर्गन्ध फ़ैल गयी! लेकिन तभी मान्त्रिक ने गैन्दे के फूल की एक माला उठायी और अपने सामने रखी मूर्ती पर चढ़ा दी! उसने अपने सर पर अपने दोनों हाथ रख कर मंत्र पढ़ा! और मेरा मंत्र-वार काट डाला!
मै इस मान्त्रिक की सूझ-बूझ का, जैसे एक अज्ञात भय होता है, वैसे मेरे मस्तिष्क में हो गया! मेरा ये मंत्र अब तक इस मान्त्रिक से पहले एक मौलवी साहब और एक औघड़ ने ही काटा था!
मान्त्रिक उठा! क्यूंकि उसकी वेदिका खंडित हो गयी थी और ये वार-प्रतिवार के नियमों का उल्लंघन होता! अतः उसने हाथ जोड़े! मैंने भी हाथ जोड़े! निहत्थे, रोगी, क्षमायाचना करते हुए पर, गर्भवती स्त्री पर, आयु से चौथाई होने पर, पूजन समय प्रयोग वर्जित होता है! अतः मै भी उठ गया!
मै बाहर आया, शर्मा जी ने मुझसे पूछा, "मान्त्रिक पिछड़ा?"
"नहीं शर्मा जी, उसका मंत्र-अनुभव और सूझ-बूझ प्रशंसनीय है! वो अपने क्षेत्र में अजेय है! उसने मेरे वारों को तिनके की भांति काटा है!" मैंने कहा,
"ओह! अर्थात सामना 'बराबर' वाले से है, है न गुरु जी?" उन्होंने कहा,
"हाँ, सही कहा आपने!" मैंने कहा,
"तो अब क्या हुआ?" वे बोले,
"उसकी वेदिका फट गयी थी, वो निहत्था था, कुछ नहीं हुआ" मैंने बताया,
"ओह! अच्छा" उन्होंने कहा,
"लेकिन शर्मा जी, वो मान्त्रिक ज्ञानवान है, तेजस्वी है, अनुभवी है, विवेकशील है, लेकिन वो ऐसा क्यूँ कर रखा है? ये मेरी समझ से बाहर है" मैंने कहा, मित्रगण! मान्त्रिक यदि सिद्ध हो तो उसके पास प्रबल शक्ति होती है! ये पद्मंनद भी सर्वगुण संपन्न था! लेकिन न जाने क्यूँ वो ऐसा अनुचित कार्य कर रहा था, मुझे अब ये पता लगाना था! मैंने तब शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी आप एक काम कीजिये, नहा कर आइये!"
उन्होंने बिना कोई प्रश्न किये कहा, " जी गुरु जी" और चले गए रात्रि १ बजे स्नान करने!
मित्रगण! मै शर्मा जी की इसी सत्यनिष्ठा और कर्तव्यबोध का दास हूँ! मेरा कहा एक भी आदेश या आज्ञा उनको अस्वीकार्य नहीं है! भले ही मुझ से आयु में अधिक हैं, जीवन का अधिक अनुभव है उन्हें! मेरी समस्त शक्तियों का अर्धांग वही हैं! कभी-कभार मुझे क्रोध में डांट भी देते हैं!!!
वो स्नान करके आ गए! मैंने उनको अपने सामने अलख के दूसरे सिरे पर बिठाया! और कहा, "शर्मा जी, सवारी के लिए तैयार हो जाइये आप!"
"जैसी आपकी आज्ञा गुरु जी!" उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा!
मै खड़ा हुआ, मैंने अपना त्रिशूल उठाया और अभिमन्त्रण किया! मै कोषांग-यक्ष का आह्वान कर रहा था! वो प्रकट हुआ! मैंने शर्मा जी के सर पर त्रिशूल रखा, वो शर्मा जी में प्रवेश कर गया! शर्मा जी का शरीर कमर से नीचे का भूमि-प्रस्थ हो गया, शेष ही उठा था, यक्ष मानव देह की कमर तक ही वास करते है, नीचे नहीं! अब मैंने प्रश्न किया,
"वो मान्त्रिक, पद्मानंद, अवैद्य कार्य क्यूँ कर रहा है?"
"वो पद्मानद? और वो अरविन्द?" उन्होंने गरज के कहा,
"हाँ! कोषांग, मुझे बता!"
"वो अरविन्द इस पद्मानंद का पुत्र है!" उन्होंने कहा,
"पुत्र? वो कैसे?" मैंने विस्मय से पूछा,
"पद्मानंद और अरविन्द की माता अंजू का संसर्ग!" उन्होंने कहा,
अब मेरी समझ में आ गया था! मैंने शर्मा जी के सर पर त्रिशूल रखा, वो चौंके और आगे की ओर गिर गए! मैंने उनको उठाया और वही एक चादर पर लिटा दिया!
१० मिनट के बाद शर्मा जी संयत हुए, और बोले, "कार्य सिद्ध?"
"हाँ! कार्य सिद्ध!" मैंने कहा!
"क्या पता चला गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"यही कि ये अरविन्द, उस पद्मानद कि औलाद है!" मैंने कहा,
"क्या?" उन्होंने भी हैरत से कहा!
"हाँ शर्मा जी, यही बात है, इसीलिए वो मोह-भावना से पीड़ित होकर ऐसा कर रहा है!" मैंने कहा,
"इसका अर्थ ये हुआ कि वो अन्याय का भागी है!" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ, सही कहा आपने" मैंने कहा,
आरम्भ में कभी अरविन्द की माँ इस पद्मानंद के संपर्क में आई होगी, और यही कारण था जिस वजह से पद्मानंद अरविन्द के इस अनुचित कार्य को करने में किंचितमात्र भी न हिचकिचाया!
एक तरफ पुत्र-मोह! एक तरफ आसक्ति! और यहाँ निवारण!
"अब क्या करेंगे गुरु जी?" शर्मा जी ने कहा,
"अब मै पद्मानंद को नहीं बल्कि अरविन्द को चोट पहुंचाऊंगा!" मैंने कहा!
मैंने मदिरापान किया! और शर्मा जी ने भी!
मै चाहता था की पद्मानंद भड़के और भड़के! ताकि मै उसको कोई त्रुटी भांपू और वार करूँ! अगले दिन नियत समय पर वो मान्त्रिक फिर से अपने स्थान पर बैठा, क्रिया आरम्भ की! यहाँ मैंने भी क्रिया आरम्भ की! हम पहले ही एक दूसरे को तोल चुके थे अतः अब उसी हिसाब से दोनों को काम करना था! उस प्रबल-मान्त्रिक ने महाजन परिवार पर शक्तिपात किया,जिसे मैंने विफल कर दिया! वो मेरे प्रयोगों को विफल करता था और मै उसके!
उसने अब एक पात्र में से कुछ फल निकाले और मंत्रोच्चार आरम्भ किया! उसके इस प्रयोग से मेरे यहाँ सुगंध भर गयी! ये प्रलोभन था! प्रलोभन कि मै उसके मार्ग से हट जाऊं और उसको उसका कार्य अविलम्ब करने दूँ और मै उस से सुरक्षित रहूँ! मैंने बकरे के सर से चाक़ू की सहायता से उसकी एक आँख निकाली और उसको अभिमंत्रित किया! फिर वो आँख चाक़ू से फोड़ दी! अरविन्द के नेत्रों से रक्त-प्रवाह हो गया! वो बौखला गया! दोनों हाथों से आँखों पर हाथ रख के पीड़ा से कराह उठा! तब उस मान्त्रिक ने जल के छींटे लेकर उसको पीड़ामुक्त कर दिया! उसका प्रत्येक कार्य अत्यंत संतुलित और विवेकशील था!
उसने महामंत्र का जाप किया! और मुझ पर प्रहार किया! मेरा त्रिशूल भूमि से उखड कर मेरी अलख में गिरा! मेरे शरीर में असहनीय पीड़ा उठी! उदर में शूल उठा जैसे की फट जाएगा! मैंने किसी तरह से स्वयं को संयत किया और अभय-मंत्र जाप किया! और तीन बार तेज श्वास लेकर अपने शरीर पर फूंक दिया! मै मंत्र-प्रभाव से सामान्य हो गया!
अब मुझे ऐसा कुछ करना था जिस से इस मान्त्रिक को मेरा प्रभाव देखने को मिले! मैंने एक शक्ति जागृत की! मेरी ये शक्ति उन्मादग्रस्त होते ही रवाना हुई और पहुंची मान्त्रिक के पास! उसने वहाँ पर उसके स्थान को अपवित्र किया! उसने मांस एवं अस्थियों के टुकड़े बिखेर दिया! कुछ टुकड़े वेदिका में गिरे! वो स्थान अपवित्र हो गया! उस मान्त्रिक ने उसको प्रभावहीन करने हेतु मंत्र पढ़े, समस्त अवशिष्ट पदार्थ लोप होने लगे!
मैंने फिर से उस उस शक्ति को बल दिया! वो शक्ति उस कक्ष में चारों ओर घूमी! और वहाँ तेज वायु प्रभाव संचार किया! दुर्गन्धयुक्त वायु! उस काश में राखी हर वस्तु इधर उधर गिरने लगी! तभी अचानक! अचानक छत पर लटका पंखा 'कडाक' की आवाज़ करता नीचे गिरा सीधे मान्त्रिक के सर पर! मान्त्रिक का भेजा बाहर आ गया! उसके रक्त के छींटे अरविन्द के चेहरे पर गिरे, उसकी चीख निकल गयी! मान्त्रिक वहीँ बैठ-बैठे वेदिका के समक्ष गिर गया!सब कुछ समाप्त हो गया! मै अपनी क्रिया से उठा और ये दुखद-घटना शर्मा जी को बता दी! मोह ने एक प्रबल-मान्त्रिक नाश कर दिया!
मै ऐसा नहीं चाहता था लेकिन उस समय कुछ भी होना संभव था! मान्त्रिक को आनन्-फानन में अस्पताल ले जाया गया जहां चिकित्सकों ने उसको मृत घोषित कर दिया!
ये देख अरविन्द डर गया था! उसे अपने प्राणों का भय सताने लगा! उसने अपनी गलती महसूस की और भविष्य में उसे न दोहराने का संकल्प लिया!
उस मान्त्रिक की समाधि आज भी उस स्थान में बनी हुई है! मुख्य-मार्ग से गुजरते समय वो स्थान दिखाई देता है! मेरी नज़र अक्सर उस तरफ पड़ ही जाती है! मुझे उसका अफ़सोस भी होता है लेकिन मै कुछ नहीं कर सकता!
अरविन्द अलग हो गया! उसने कीर्ति के घर उस दिन के बाद से कभी फ़ोन नहीं किया! कीर्ति के परिवार को सुख-चैन मिला! आज कीर्ति की एक संतान भी है! वहाँ सब कुछ सामान्य है!
परन्तु उस मान्त्रिक की मृत्यु का खेद मुझे आज तक है...........
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